श्रावक के अष्टमूलगुण एवं सप्तव्यसन त्याग का वर्णन—
अर्थ—मधु, मांस, मद्य, जुआ और वेश्या आदि व्यसन, इनको त्याग करने वाला, पाँचों अणुव्रतों से युक्त तथा सात शिक्षाव्रतों से परिपूर्ण गृहस्थ होता है। मधु, मांस और मद्य का त्याग करना। दर्शन प्रतिमा के लक्षण में पंच उदुंबर फलों का त्याग करना भी कहा है। ये ही तीन मद्य, मांस, मधु एवं पंच उदुंबर फलों का त्याग करना ही श्रावकों के लिये प्रारंभ में आठ मूलगुण कहलाते हैं।
श्री अमृतचंद्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है—हिंसा त्याग करने की कामना वाले पुरुषों को प्रथम ही यत्नपूर्वक शराब, मांस, शहद और ऊमर, कठूमर, पीपल, बड़, पाकर ये पाँचों उदुम्बर फल छोड़ देने चाहिए।।६१।।
ऊमर, कठूमर अर्थात् अंजीर, पाकर, बड़ और पीपल के फल त्रस जीवों की योनि या खानि हैं, इस कारण उनके भक्षण में उन त्रस जीवों की सा होती है।।।७२।।
पुनश्च कहते हैं—
अष्टावनिष्टदुस्तर—दुरितायतनान्यमूनि परिवज्र्य।
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:१।।७४।।
दु:खदायक, दुस्तर और पापों के स्थान इन आठ पदार्थों को परित्याग करके निर्मल बुद्धि वाले पुरुष जिनधर्म के उपदेश के पात्र होते हैं। रात्रिभोजन त्यागव्रत— रात्रि में भोजन करने वालों के िंहसा अनिवारित अर्थात् जिसका निवारण न हो सके, ऐसी होती है, इसलिए िंहसा के त्यागियों को रात्रि में भोजन करना भी त्याग करना चाहिए।।१२९।।
अन्य श्रावकाचारों में भिन्न—भिन्न प्रकार से भी आठ मूलगुण कहे हैं—
१. मद्यत्याग २. मांस त्याग ३. मधु त्याग ४. रात्रि भोजन त्याग ५. पाँच उदुम्बर फलों का त्याग ६. जीव दया का पालन करना ७. जल छानकर पीना ८. पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना। ये आठ मूलगुण हैं।
जो गुणों में मूल हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं, जैसे—मूल (जड़) के बिना वृक्ष नहीं हो सकता है, वैसे ही इन आठ मूलगुणों के बिना श्रावक नहीं कहला सकता है। इसमें रात्रिभोजन त्याग, जीवदया का पालन, पानी छानकर पीना और देवदर्शन करना ये प्रारंभिक श्रावक—पाक्षिक श्रावक के नियम में भी आ जाते हैं। इसी प्रकार सात व्यसन का त्याग भी श्रावकों के लिये अनिवार्य है। ‘‘जूआ वेसादि विवज्जनासीलो’’ वाक्य से सप्तव्यसन का त्याग आ जाता है। १. जुआ खेलना, २. मांस खाना, ३. मदिरा पीना, ४. वेश्या सेवन करना, ५. शिकार खेलना, ६. चोरी करना और ७. परस्त्री सेवन करना, ये सात व्यसन हैं। इन सातों व्यसनों का त्याग करना चाहिये।