मैनासुंदरी अपनी सास से कह रही थीं—‘हे माता जी! आज बारह वर्ष बीत चुके हैं। आपके पुत्र आज तक नहीं आये हैं। उनसे मैंने कह दिया था कि यदि आप कही हुई अपनी निश्चित अवधि तक नहीं आएँगे तो मैं आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लूँगी। इसलिए आप मुझे अब आज्ञा प्रदान करें, मैं प्रात:काल ही दीक्षा लेऊँगी।’ सास ने कहा— ‘बेटी! कुछ समय और धैर्य धरो, जहाँ तुमने बारह वर्ष निकाले हैं, वहाँ दो-चार दिन क्या भारी हैं? मेरा पुत्र वचन का बहुत ही पक्का है वह अवश्य आयेगा। हो सकता है कुछ कारणवश एक-दो दिन अधिक लग जाएँ?’ मैनासुंदरी ने कहा- ‘हे मात:! इतने लम्बे समय में उनका किसी प्रकार का समाचार अपने को नहीं मिल सका है। लगता है, वे मार्ग ही भूल गए या किसी सुंदरी के वशीभूत हो मुझे विस्मृत कर दिया या कोई विशेष कारण उपस्थित हो गया हो। जो भी हो, अब उनके आने की आशा करना व्यर्थ है। मेरा चित्त व्यग्र है। माता जी! जहाँ तक बना, मैंने आपकी सेवा की है उसमें जो भी त्रुटियाँ हुई हों, उन्हें क्षमा कीजिए और अब आप मुझे अपने स्त्रीपर्याय से छूटने के लिए पुरुषार्थ करने की आज्ञा दीजिए।’ माता ने कहा— ‘पुत्रि! दो-चार दिन ठहरो, फिर यदि श्रीपाल नहीं आया तो मैं भी तुम्हारे साथ चलकर दीक्षा ले लूँगी। मैनासुंदरी! बताओ, भला पुत्र और पुत्रवधु के वगैर मैं घर में रहकर क्या करूँगी? बेटी! क्षत्रिय पुत्र वचन के बहुत ही दृढ़ होते हैं। फिर क्या कारण हुआ?….’ मैना ने कहा— ‘मात:! मुझे भी विश्वास है कि मेरे स्वामी वचन के बहुत ही पक्के हैं किन्तु कर्म के आगे किसी की नहीं चलती है। क्या पता वे आज किस स्थिति में…’
श्रीपाल का उचित समय पर महल में आगमन
इसी बीच श्रीपाल ने दरवाजा खटखटाया और बोले— ‘माता जी! आपका प्यारा पुत्र श्रीपाल द्वार पर खड़ा है। कृपया द्वार खोल दें।’ इन अमृतमय वचनों को सुनते ही माता कुंदप्रभा का मुखकमल कुंद पुष्प के समान खिल उठा। मैनासुंदरी के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उसने झट से उठकर दरवाजा खोला और पति के चरणों में प्रणाम कर उनके चरण छुए। श्रीपाल ने भी आगे बढ़कर आदर सहित अपनी माता के चरणों की वंदना कर उनकी चरण रज मस्तक पर चढ़ाई। माता ने बहुत बड़े वात्सल्य के साथ पुत्र के मस्तक पर हाथ फिराते हुए आशीर्वाद दिया— ‘बेटा! चिरायु हो, लक्ष्मी का उपभोग करते हुए आनंद प्राप्त करो और तुम्हारी कीर्तिपताका दिग्-दिगंत में फहराती रहे।’ कुछ क्षण वहाँ बैठकर श्रीपाल ने माता से अपनी यात्रा की सफलता सुनाई। पश्चात् अपने शयन कक्ष में पहुँच गए। मैनासुंदरी ने हर्षातिरेक से अपने आनंदाश्रुओं के जल से ही मानो पति के चरणों का प्रक्षालन किया, पश्चात् गद्गद स्वर में बोली— ‘अहा! प्राणनाथ! आज का दिन मेरे लिए एक अपूर्व सौभाग्य का दिन है। बारह वर्षों के बाद अपने स्वामी का सकुशल दर्शन करना, अत्यंत सौभाग्य की ही बात है।’
मैनासुन्दरी का आठ हजार रानियों में पट्टरानी’ पद
इत्यादि प्रेमपूर्ण वातावरण में श्रीपाल और मैनासुंदरी ने शेष रात्रि व्यतीत की। प्रात:काल ही श्रीपाल के आदेशानुसार उनकी सभी रानियों ने आकर माता कुंदप्रभा के दर्शन किए और मैनासुंदरी का भी अभिवादन किया। अनंतर माता की आज्ञा से श्रीपाल ने मैनासुंदरी को आठ हजार रानियों में ‘पट्टरानी’ पद से विभूषित कर कहा— ‘प्रिये! यह सब जो कुछ भी ऐश्वर्य दिख रहा है, वह सब तुम्हारे ही पुण्य से प्राप्त हुआ है। मैं उस समय को कभी भी नहीं भूल सकता कि जब मैं यहाँ के बगीचे में विपत्ति से ग्रसित एक परदेशी के रूप में आया था और तुमने मुझे पति के रूप में स्वीकार कर मेरी सेवा की थी अनंतर सिद्धचक्र आराधना से मुझे कुष्ठरोग से छुड़ाया था।’ इतना सुनकर मैना ने लज्जा से मस्तक नीचा करके नम्रतापूर्ण शब्दों में कहा— ‘‘स्वामिन्! मैं तो एक सामान्य नारी हूँ। यह मेरा ही सौभाग्य है कि मैंने अपने पुण्य के प्रताप से आप जैसे उत्तम पति को प्राप्त किया है। आप कोटिभट हैं, पराक्रमी हैं, धीर-वीर हैं और महान साहसी हैं। यह आपकी महानता है कि जो आपने इन आठ हजार रानियों में मुझे पट्टरानी का स्थान दिया है अथवा धर्म के प्रसाद से कुछ दुर्लभ नहीं है। यह सब सिद्धचक्र आराधना का ही फल है।’
मैनासुंदरी दुवारा आपने पिता राजा पट्टरानी को धर्म पर आस्था करना
इस प्रकार मैनासुंदरी का पट्टाभिषेक हो जाने के बाद रयनमंजूषा, गुणमाला आदि सभी रानियाँ बड़े ही आदर भाव से सासु कुंदप्रभा और मैनासुंदरी की आज्ञा का पालन करते हुए उनकी सेवा शुश्रूषा करने में अपना अहोभाग्य समझती थीं। पुन: मैनासुंदरी ने श्रीपाल से कहा— ‘स्वामिन्! मेरे पिता ने जो मेरे साथ दुव्र्यव्हार किया था उसके फलस्वरूप आज उनसे कुछ प्रतिशोध लेने की मेरी भावना हो रही है।’ ऐसे वचन सुनकर कुछ सोचकर श्रीपाल ने कहा– ‘प्रिये! आपके पिता के का़ढी अवस्था में मुझे अपना कन्यारत्न देकर जो उपकार किया है सो शायद ही कोई कर सकता है अत: उनके प्रति कुछ भी प्रतिशोध की बात सोचना भी ठीक नहीं है।’ तब मैना ने कहा— ‘नाथ! वे मेरे पिता हैं, उनके प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है फिर भी उनकी धर्म में आस्था हो जाए इसलिये उन्हें कुछ चमत्कार दिखाने का भाव मेरे मन में आया है।’ इतना सुनकर पुन: मैना से कुछ देर परामर्श करके श्रीपाल ने एक दूत राजा पुहुपाल की सभा में भेज दिया। दूत ने जाकर कहा— ‘राजन्! एक महापराक्रमी कोटिभट राजा अनेक राज्यों में विजय प्राप्त कर अनेक राजाओं को अपने वशीभूत कर आपके राज्य में उपस्थित हुआ है। आपके प्रति उसी वीर पुरुष का संदेश है कि ‘आप यदि अपनी और अपने देश की भलाई चाहते हैं तो केवल एक लंगोटी पहनकर, कंबल ओढ़े हुये, सिर पर लकड़ी का बोझ और कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर मेरे से शीघ्रातिशीघ्र मिलें। आपकी कुशलता इसी में है अन्यथा मेरी विशाल सेना आपके संपूर्ण राज्य को विध्वंस कर देगी।’ दूत के मुख से ऐसे कटु वचन सुनकर राजा पुहुपाल क्रोध से भड़क उठे और बोले- ‘जिसने उद्दण्डतापूर्ण ऐेसा अपमानजनक संदेश भेजने का दु:साहस किया, उसका शिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा।’ पुन: उन्होंने प्रहरी को आदेश दिया कि— ‘इस दूत को पकड़कर प्राणदण्ड दे देना चाहिए।’ इसी बीच मंत्रियों ने कहा— ‘महाराज! दूत को प्राणदण्ड देना राजनीति के विरुद्ध है अत: आप शांत होवें। भला इस दूत का क्या अपराध है? यह तो स्वामी का क्रयदास है।’ पुन: मंत्रियों ने राजा को शांत कर मंत्रणा करना प्रारंभ किया। बहुत कुछ ऊहापोह के बाद मंत्रियों ने यही सलाह दी— ‘‘महाराज! सारे नगर को घेरकर खड़ा हुआ यह कोई राजा अवश्य ही पराक्रमी है। युद्ध के बजाय इससे संधि कर लेना ही अच्छा है अत: इसी आगत दूत से यह समाचार भेज दिया जाए कि आपकी शर्तें मुझे स्वीकार हैं।’ प्रसन्न होकर दूत ने आकर श्रीपाल से सब समाचार सुना दिए, तब श्रीपाल ने आकर मैनासुंदरी से कहा— ‘प्रिये! हमारी ही विजय हुई है। राजा पुहुपाल उसी वेश में आने को तैयार हैं। अब मेरे विचार से उन्हें भयमुक्त कर देना ही उचित है।’ मैनासुंदरी से स्वीकृति प्राप्त कर पुन: श्रीपाल ने उसी दूत से कहला दिया कि— ‘एक राजा दूसरे राजा का सम्मान करता है अत: आप चिंतित न हों तथा जैसे राजा लोग परस्पर में मिलते हैं ऐसे ही आप आकर मुझसे मिलें।’ योजनानुसार राजा पुहुपाल हाथी, घोड़े आदि अनेक वैभव के साथ शहर के बाहर आगत राजा से मिलने के लिये निकले। उद्यान के निकट पहुँचकर वे पैदल ही चलने लगे। ऐसा देखकर श्रीपाल भी पैदल ही आगे बढ़कर आये। दोनों परस्पर में गले से गले लगाकर मिलकर प्रसन्न हुए। राजा पुहुपाल के मन में श्रीपाल के प्रति आत्मीयता के भाव जाग्रत हो उठे, तब उनकी ओर एकटक देखते हुए राजा ने कहा— ‘हे राजशिरोमणे! आपको देखकर मेरे हृदय में स्वत: ही स्नेह भाव उमड़ता चला आ रहा है, किन्तु मुझे ठीक से स्मरण नहीं हो पा रहा है कि आप कौन हैं? ऐसा लगता है कि मैंने आपको पहले कहीं देखा अवश्य है।’ इतना सुनकर ही श्रीपाल ने मुस्करा कर कहा— ‘महाराजा! आप इतने शीघ्र मुझे भूल गये? मैं आपका जामाता श्रीपाल हूँ। बारह वर्ष के बाद परदेश भ्रमण कर आज ही मैं वापस लौटकर आया हूँ। इतना सुनकर राजा पुहुपाल पुलकित हो उठे। उन्होंने पुन: श्रीपाल को अपने हृदय से लगा लिया और इतने दिनों के प्रवास की कुशल-क्षेम पूछने लगे। उस समय का इन दोनों का मिलन बहुत ही भावपूर्ण था। जनता में हर्ष का वातावरण छा गया पुन: राजा पुहुपाल अपनी पुत्री मैना के पास पहुँचे और बोले— ‘बेटी! मैं बहुत ही लज्जित हूँ। मैंने तेरे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है, फिर भी तू धर्म के रहस्य को जानने वाली है अत: मुझे क्षमा कर दे।’ पिता की बातों को सुनकर मैना ने नम्रता से अपना सिर नीचा कर लिया और बोली— ‘पिताजी! इसमें आपका कुछ भी दोष नहीं, यह भी तो सब मेरे कर्मों का ही खेल था और यह भी सब कर्मों का ही खेल है। यह कर्म प्रत्येक जीव को संसार में अनेक प्रकार के नाच नचाता रहता है अत: इस मनुष्य जन्म का सार यही है कि धर्म को धारण करके इस भव में भी सुखी बनें और परलोक में भी स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त करें।’ इत्यादि प्रकार से धर्म-चर्चा करके राजा पुहुपाल धर्म के प्रभाव को देखकर अतिशय प्रभावित हुए। अनंतर श्रीपाल को बहुत ही वैभव के साथ अपने शहर में प्रवेश कराकर उनका मंगल अभिषेक कराकर उन्हें बहुत कुछ रत्न, वस्त्राभूषण आदि भेंट किए।