ज्ञानतपोजिनपूजाविधिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनम्।।१५।।
पर समयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञान रवि की प्रभा से इंद्र के आसन को वंâपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिनपूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है।
समय-समय पर आचार्यों ने अपने ज्ञान के बल से परवादियों को जीतकर धर्मध्वज ऊँचा किया है। तपश्चरण के द्वारा अनेकों ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त कर धर्मध्वजा फहराई है और अनेकों महर्षियों व श्रावकों ने पूजा विधि-विधान से लोक में धर्मप्रभावना की है ।
मथुरा के राज पूतिगंध की रानी बुद्धिदासी बौद्धधर्मी थी और उर्विला रानी जैनधर्मी थी। सदा की तरह आष्टान्हिक महापर्व में रानी उर्विला जैन रथ निकलवाने की तैयारी में लगी हुई थी कि इसी बीच बुद्धिदासी ने महाराज से कहा कि पहले बुद्धदेव का रथ निकलेगा पीछे जैन का। रानी उर्विला चिंतित होकर चतुराहार त्याग कर वङ्काकुमार महामुनि के निकट पहुँची और सर्व वृत्तांत कह दिया। उसी समय मुनीश्वर की वंदना हेतु दिवाकर देव आदि बहुत से विद्याधर आये हुये थे। वङ्काकुमार मुनि ने कहा कि आप लोग समर्थ हैं, धर्म के संकट को दूर कर जैसे बने वैसे पहले जिनेन्द्र देव के रथ को निकलाइए। गुरु की आज्ञा पाकर के विद्याधर अपने विमान में बैठकर मथुरा नगरी पहुँचे और बहुत ही उत्सव के साथ उर्विला की प्रतिज्ञानुसार पहले जैन रथ निकलवा दिया, उस समय जैनधर्म की खूब ही प्रभावना हुई। राजा ने भी जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। अनेकों ने मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व को धारण कर लिया।
श्री कुन्दकुन्द देव ने भी जब संघ सहित गिरनार यात्रा की, तब श्वेताम्बर साधु के साथ वंदना करने के लिये विवाद उठ खड़ा हुआ। पुन: यह बात रही कि अंबिका यक्षिणी की मूर्ति जो कह दे सो ठीक है। श्री कुन्दकुन्द देव ने उस मूर्ति से यह कहलवा दिया कि ‘सत्य पंथ निग्र्रंथ दिगम्बर’ तब दिगम्बर संघ ने पर्वत की पहले वंदना की पुन: श्वेताम्बर संघ ने वंदना की। अकलंक देव ने बौद्धों की तारादेवी के साथ छह महीने शास्त्रार्थ कर अंत में स्याद्वाद की ध्वजा को ऊँचा किया था, आदि अनेकों उदाहरण हैं।
एक बार दशानन पुष्पक विमान पर बैठकर अपने मंत्रियों, नागरिकजनों, पुत्रों, माता-पिता तथा बंधुजनों के साथ आकाशमार्ग से विचरण कर रहा था। तब पर्वत के शिखर से गुजरते हुये आश्चर्यचकित हो अपने दादा सुमाली से पूछता है-
‘हे पूज्य! इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो हैं नहीं, पर वहाँ कमलों का वन कैसे लहलहा रहा है सो इस महा-आश्चर्य को आप देखें।
तब सुमाली ‘‘नम: सिद्धेभ्य:’’ कहकर हाथ जोड़कर शिर से नमस्कार करके बोलो-
‘‘वत्स! ये कमल नहीं है, प्रत्युत जिन पर सपेâद पताकायें फहरा रहीं हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुये हैं ऐसे-ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर शोभित हो रहे हैं। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये गये हैं। हे पुत्र! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण भर में अपने मन को पवित्र कर।’’
तना सुनते ही दशानन ने वहीं खड़े रहकर भक्तिभाव से जिनालयों को नमस्कार किया और पुन: पूछा-
‘‘हे पूज्यवर! हरिषेण का ऐसा क्या माहात्म्य है कि जिससे आपने उसका ऐसा कथन किया है ?’’
सुमाली ने कहा-
‘‘हे दशानन! सुनो, इन हरिषेण का चरित्र महापुण्य का कारण है। कांपिल्य नगर में सिंहध्वज नाम का महाप्रतापी राजा राज्य करता था। उनकी वप्रा नाम की पट्टरानी थी जो कि पातिव्रत्य आदि गुणों से विभूषित सम्यग्दृष्टि थी तथा राजा की सैकड़ों रानियों में प्रधान थी। रानी वप्रा के तेज और गुणों का पुंज ऐसा हरिषेण नाम का एक पुत्र था। सिंहध्वज के महालक्ष्मी नाम की रानी थी जिनको भी पट्टरानी पद प्राप्त था। यह सौभाग्य के गर्व से उन्मत्त तथा सम्यग्दृष्टि थी।
एक दिन इस लक्ष्मीमती रानी ने वप्रा रानी के विरुद्ध कदम उठाया कि ‘‘पहले मेरा ब्रह्म रथ नगर में घूमेगा। उसके पीछे वप्रारानी के द्वारा बनवाया हुआ जैन रथ घूमेगा।’’
यह सुनकर वप्रारानी को इतना दु:ख हुआ मानो उसके हृदय पर वङ्का का ही प्रहार हुआ हो। दु:ख से संतप्त हो उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि-
‘‘यदि मेरा जैन रथ नगर में पूर्व की तरह पहले घूमेगा तो मैं अन्न ग्रहण करूँगी अन्यथा नहीं।’’
और वह शोक से विह्वल हो रोने लगी। माता को रोते देख आश्चर्यचकित हो हरिषेण ने पूछा-
‘‘हे मात:! जिसका पहले कभी तुमने स्वप्न में भी सेवन नहीं किया था ऐसा अमांगलिक रुदन क्यों प्रारंभ किया है ? मुझे अपने दु:ख का कारण शीघ्र ही कहो।’’
माता ने कहा-
‘‘पुत्र! महारानी लक्ष्मीमती की बात मानकर तेरे पिता ने पहले ब्रह्य रथ नगर में निकले तथा उसके पीछे मेरा जैन रथ निकले ऐसा स्वीकार कर लिया है। सो यह पवित्र परमपावन, परमोत्कृष्ट जैन धर्म का अपमान मेरे द्वारा सर्वथा असह्य है अत: ऐसे धर्म संकट में मैंने चतुराहार का त्याग कर दिया है।’’
माता की बात सुनकर हरिषेण काँप उठा किन्तु ‘‘पिता के सामने मैं क्या बोल सकता हूँ। मेरे लिये तो माता और पिता दोनों ही पूज्य हैं।’’
ऐसा सोचकर वह माता के रुदन को देखने में असमर्थ हो उसी क्षण घर से बाहर हो देश के ही बाहर चला गया। निर्जन वन में पहुँचकर विक्षिप्तमन: होता हुआ वन के फल खाकर तथा झरने का जल पीकर आगे बढ़ता ही गया। वह यही सोचता जा रहा था कि-
‘‘मैं माता के संकट का कैसे निवारण करूँ ? कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ?’’ घूमते-घूमते ऋषियों ने उसका सम्मान किया और ठहरने की व्यवस्था कर दी। इधर घटना ऐसी थी कि एक कालकल्प नाम का राजा चंपानगरी को चारों तरफ से घेरकर आक्रमण कर रहा था। चंपानगरी के राजा जनमेजय उसके साथ युद्ध कर रहे थे। इसी बीच माता नागवती अपनी पुत्री को लेकर सुरंग के मार्ग से यहाँ शतमन्यु ऋषि के आश्रम में पहले से ही आकर रह रही थीं। पुत्री मदनावली ने जैसे ही हरिषेण को देखा वह विक्षिप्त हो गई। माता उसकी चेष्टाओं से उसे हरिषेण के प्रति आसक्त जानकर बोली-
‘‘पुत्री! सावधान रह, तू महामुनि के वचन स्मरण कर। महामुनि ने कहा था कि तू चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न होगी ।’’
तापसियों को मालूम हुआ कि यह मदनावली पुत्री हरिषेण की तरफ अनुरक्त हो रही है तो उन्होंने हरिषेण को अपने आश्रम से निकाल दिया । अब हरिषेण को और दो प्रकार के दु:खों ने आ दबोचा । इधर वह माता के दु:ख से तो दु:खी था ही, उधर मदनावली कन्या के दु:ख से दु:खी हुआ तथा तापसियों द्वारा निकाले जाने का उसे बहुत ही भयंकर दु:ख हुआ। वह इधर-उधर भटकता हुआ सिंधुनद नामक नगर में आ गया ।
नगर के बाहर उद्यान में बहुत सी स्त्रियाँ वनक्रीड़ा के लिये आई हुई थीं। उसी समय एक मदोन्मत्त हाथी उपद्रव करता हुआ इधर आ गया । स्त्रियाँ घबरा कर हरिषेण के पीछे आ गर्इं। उस क्षण हरिषेण ने मदोन्मत्त हाथी को अपनी भुजाओं से ही वश में कर लिया और उस पर आरूढ़ हो गया । यह देख वहाँ के राजा सिंधु ने कुमार का बहुत ही सम्मान किया और अपनी सौ पुत्रियों का विवाह कुमार हरिषेण के साथ कर दिया। सर्वत्र शहर में हरिषेण के रूप, गुण और पराक्रम की चर्चा फैल गई ।
हरिषेण को उस मदनावली कन्या के बिना सारी सुन्दर-सुन्दर कन्याओं से भी मन में संतोष नहीं था। इस बीच एक वेगवती नाम की विद्याधरी सोते हुए हरिषेण को उठाकर आकाशमार्ग से विजयार्ध पर्वत पर ले गई । वहाँ सूर्योदय नामक नगर के राजा शक्रधन की पुत्री जयचन्द्रा से इनका विवाह हो गया। तब जयचन्द्रा के मामा के पुत्र गंगाधर और महीधर अत्यंत कुपित हुये, इसलिये कि-
‘‘इस कन्या ने हम विद्याधरों को छोड़कर इस भूमिगोचरी को क्यों वरा है ?’’
तब हरिषेण ने उनके साथ युद्ध करके उन्हें पराजित कर दिया । उसी समय उसके पुण्योदय से चक्ररत्न प्रगट हो गया, जिससे हरिषेण महान् अभ्युदयशाली दसवाँ चक्रवर्ती प्रसिद्ध हुआ ।
चक्ररत्न से चिन्हित चक्रवर्ती हरिषेण बारह योजन लम्बी-चौड़ी सेना चलाता हुआ और शत्रुओं को नम्रीभूत करता हुआ शतमन्यु तपस्वी के आश्रम की तरफ आ गया। जब तापसियों को पता चला कि जिसे हमने आश्रम से निकाल दिया था वह बालक चक्रवर्ती होकर आ रहा है तो वे सब बहुत ही भयभीत हुये, शीघ्र ही हाथों में फल लेकर हरिषेण को अर्घ दिया और आशीर्वादात्मक वचनों से उनका बहुत ही सम्मान किया। ‘‘शतमन्यु के पुत्र जनमेजय और माता नागवती ने सन्तुष्ट होकर मदनावली को चक्रवर्ती को समर्पित कर दिया ।’’
तदनंतर हरिषेण अपनी चक्रवर्ती की संपदा से युक्त हो कांपिल्य नगर आया । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसके साथ थे। उसने आकर हाथ जोड़कर बड़ी विनय से माता के चरणों में नमस्कार किया। उस समय अपने पुत्र को पाकर माता वप्रा के हर्ष का समुद्र उद्वेलित हो गया। उसने पुत्र को हृदय से लगाकर उसके मस्तक पर हाथ पेरते हुए बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया ।
इसके बाद चक्रवर्ती ने सूर्य के समान बड़े-बड़े रथों में जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा विराजमान करके कांपिल्य नगर में उन रथों को घुमाया और अपनी माता के मनोरथ को पूर्ण किया। उस शहर में ही नहीं, सारे देश में जैनधर्म की इतनी विशेष प्रभावना हुई कि जिसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता है। इस धर्मप्रभावना से मुनियों और श्रावकों को अति हर्ष हुआ तथा अन्य जैनेतर बहुत से लोगों ने जैन धर्म ग्रहण कर लिया।
इसके पश्चात् चक्रवर्ती ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पृथ्वी पर, पर्वतों पर, सिद्ध नदियों के समागम स्थान पर, नगर-नगर में तथा गाँव-गाँव में नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे अगणित जिनमंदिर बनवाये और उनमें रत्नों की जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाईं । उदारमना हरिषेण ने चिरकाल तक चक्रवर्ती का साम्राज्य भोगकर पुन: जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण किया और उसके फलस्वरूप तीन लोक के शिखर को प्राप्त कर लिया है ।
सुमाली कहते हैं-
‘‘हे दशानन! पर्वत की चोटियों पर बने हुये ये रंग-बिरंगे जिनेन्द्र भवन उन्हीं चक्रवर्ती के बनवाए हुए हैं, जो कि तुम्हें कमल के समान दिख रहे हैं ।’’ दशानन ने हरिषेण का चरित्र सुनकर बहुत ही आश्चर्य व्यक्त किया और हर्ष से विभोर हो उन जिनमंदिरों की पुन:-पुन: वंदना करके आगे बढ़ गया ।
इस प्रकार ये जिनमंदिर निर्माण, जिन पूजा अनुष्ठान, तपश्चरण और विद्या के अतिशय आदि सब मार्ग मोक्षमार्ग की, जैनधर्म की प्रभावना करने वाले हैं। इनसे अपनी ही नहीं, देखने, सुनने वालों की, सभी की आत्मा पवित्र होती है तथा विश्व में सुख, शांति, यश और लक्ष्मी की वृद्धि होती है । यह मार्गप्रभावना भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली है ।