सुरेश-बड़े दुःख की बात है रमेश! तुम्हारे ऊपर इतनी जल्दी एक ही दिन में जुए का इतना रंग चढ़ गया। तुम यह नहीं सोचते हो कि आज तो मै जीत गया हूं इसलिए मजा आ रहा है और कभी तुम हारोगे भी तो कैसा लगेगा ? रमेश-अरे चल यार! तू तो उपदेश देने लगा। मैं जो पैसा जीतूंगा उन्हीं में से बाजी लगाऊँगा। हार जीत तो चलती रहेगी। अच्छा चल! आज मेरे पास सौ रूपये हैं, मैं तुझे खूब चाट—पकौड़े, आइसक्रीम खिलाऊंगा, तू तो मेरा जिगरी दोस्त है न। अब मैं रोज गरमागरम रसगुल्ले उड़ाया करूंगा और तू भी सदा मेरे साथ रहेगा।
सुरेश-छिः छिः, मैं तो कभी तेरे इन पैसों से रसगुल्ले क्या एक गिलास पानी भी नहीं पी सकता।
रमेश-अरे क्यों, तू इतनी जल्दी मेरे से नाराज हो गया। मैंने कोई गुनाह किया है क्या ? पैसे ही तो कमाए हैं और पैसा कमाना तो अच्छे लोगों का काम ही है। अगर तुम मेरे साथ चलो तो तुम्हें भी बताऊंगा कि किन तरकीबों से जल्दी लखपति सेठ बना जा सकता है।
सुरेश-ना बाबा, मुझे तो यह तरकीब सीखनी नहीं। मेरे पिता जी ने तो अगर तुम्हारे साथ रहते भी मुझे देख लिया तो बस जमकर मेरी पिटाई करेंगे।
रमेश-तो क्या मेरा यह कार्य बुरा है, आखिर तुम मुझे इसकी खराबी तो बताओ। सुरेश! मैं तो तुम्हारी सब बातें मानता हूं।
सुरेश-हां, यह बात तुमने कही ठीक। जब बुरे कार्य की बुराइयों का इंसान को पता नहीं लगेगा तब तक वह उन्हें छोड़ेगा कैसे देखो! पैसों की बाजी लगाकर खेल खेलना जुआ नाम का व्यसन कहलाता है। जो हर व्यक्ति को इंसान से हैवान बना देता है। इसमें पहले तो बड़ा आनन्द आता है पुनः जब हारने का नम्बर आ जाता है तब तो सारा धन,घर,दुकान सभी कुछ समाप्त हो जाता है।
रमेश-चलो,तुम्हारी यह बात मैंने मान ली कि जुआ खेलते—खेलते आदमी कंगाल भी बन जाता है लेकिन मैं तो यह सोचता हूं कि दूसरे का धन जीतकर मैं सेठ बन जाऊं उसके बाद छोड़ दूंगा, इसमें तो कोई हानि नहीं है। कोई आवश्यक है कि मैं हमेशा ही जुआ खेलता रहूं जिस दिन हारने का नम्बर आयेगा उसी दिन से बन्द कर दूंगा।
सुरेश-सोचते तो सभी ऐसा ही हैं किन्तु यह व्यसन ही ऐसा है कि एक बाद चस्का लग जाने के बाद छूटना बड़ा मुश्किल है। फिर इज्जत का भी तो सवाल रहता है कि यदि हमने पैसा जीता है तो हारने में पीछे क्यों हटें ? कोई हारने की तमन्ना से बाजी लगाता है क्या ? जीतना तो सभी चाहते हैं लेकिन हार जीत तो भाग्य का खेल है। अरे रमेश ! तुम क्या, बड़े-बड़े राजा—महाराजा भी इसके चक्कर में पड़कर बर्बाद हो गये इसलिए हमारे ऋषियों ने सातों व्यसनों में जुए को सिरमौर बताकर उसे सबसे पहले रखा है। इस एक व्यसन से ही सातों व्यसन पर अधिकार अपने आप हो जाता है।
जुआ खेलना, मांस मद, वेश्या गमन, शिकार।
चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार।।
इन सातों ही व्यसनों को सत्पुरुषों के लिए त्याग करने का उपदेश शास्त्रों में दिया गया है।
रमेश-अजी आया होगा उपदेश। जब राजे महाराजे भी खेलते थे तो मेरे लिए कौन सी खास गलत बात है। ज्यादा से ज्यादा यही तो होगा कि तुम हमसे नहीं बोलोगे तो मत बोलो। जब मैं पैसा कमाकर थोड़े दिन में कोठी बंगला बना लूंगा तब सभी बोलने लग जायेंगे और सेठजी—सेठजी कहकर तलुवे चाटेंगे, समझे सुरेश।
सुरेश-कोई बात नहीं, तुम्हें घमण्ड है तो तुम भाग्य आजमाइश करके देख लो। बुरे मार्ग पर जाने से रोकना मेरा कर्तव्य था, तुम मानो या ना मानो। ‘”रमेश”‘ देखो! मैं तुम्हें एक प्रसिद्ध कथानक सुनाता हूं।
रमेश--कथानक ! अच्छा सुनाओ, वैसे मैं मानने वाला नहीं, इसमें मुझे प्रत्यक्ष में ही लाभ दिखता है।
सुरेश-मानना तो तुम्हारी इच्छा पर है फिर भी महापुरुषों के जीवन चरित्र का अवलोकन तो करना ही चाहिए। कभी न कभी तो उससे प्रेरणा मिलती ही है। कुरुजांगल हस्तिनापुर के राजा कौरव और पाडंव की इतिहास प्रसिद्ध कहानी है। उन लोगों ने भी जुआ खेला था आखिर एक दिन उनकी जान पर आ पड़ी।
रमेश-हाँ, कौरव और पांडवों का नाम तो हमने भी सुना है कि हस्तिनापुर में उन दोनों दलों के बीच महाभारत का युद्ध हुआ था।
सुरेश-सुनो, मैं उन्हीं की कथा तुम्हें सुना रहा हूं।
कुरुजांगल हस्तिनापुर में राजा धृतराष्ट्र अपने भाई पांडु के साथ राज्य संचालन कर रहे थे। धृतराष्ट्र की पत्नी गाँधारी ने दुर्योधन आदि सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिन्हें कौरव नाम से जाना जाता है, पांडव के दो स्त्रियाँ थीं—कुन्ती तथा माद्री। इनमें से कुन्ती ने युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन एवं माद्री ने सहदेव और नकुल पुत्रों को जन्म दिया। ये पांच पांडव हुए हैं।
एक बार धृतराष्ट्र महाराज ने वैराग्य भाव से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और उन्होंने हस्तिनापुर के राज्य को दो भागों में बांटकर आधा राज्य कौरवों को दे दिया और आधा पांडवों को दिया। परस्पर अनुरागपूर्वक कौरव—पांडव प्रजा का पालन करने लगे। एक बार युधिष्ठिर के मन में आया कि जुआ खेलना चाहिए। बस उसी दिन से समझो कि उनके भाग्य का चमकता सितारा अस्त हो गया।
रमेश-अच्छा फिर आगे क्या हुआ ?
सुरेश-होता तो वही जो होना था। सच ही कहा है—
बुद्धि उत्पद्यते तादृक् व्यवसायश्च तादृशः।
सहायास्तादृशश्चैव यादृशी भवितव्यता।।
अर्थात् जैसी होनहार होती है वैसी ही बुद्धि उत्पन्न हो जाती है और वैसा ही व्यवसाय सूझता है। ठीक यही हाल युधिष्ठिर का हुआ अत: एक दिन सभा में कौरवों और पांडवों की उपस्थिति में युधिष्ठिर दुर्योधन के साथ जुआ खेलने लगे। दुर्योधन का पासा पड़ता तो बहुत उत्तम था परन्तु महाबलशाली भीम के हुंकार से वह उल्टा हो जाता था। तब दुर्योधन ने मायाचारी से भीम को सभा से कहीं बाहर भेज दिया जिसके फलस्वरूप उनका जीत का पासा पड़ने लगा। अब युधिष्ठिर महाराज ने धीरे-धीरे अपनी सारी संपत्ति की बाजी लगा दी जिसका नतीजा यह निकला कि दुर्योधन आदि सभी कौरवों ने मिलकर पांड़वों को हस्तिनापुर से निकाल दिया।
रमेश-अरे! कौरवों ने उन्हें राज्य से ही निकाल दिया। यह भी नहीं सोचा कि हमारे ही भाई—बन्धु हैं। आखिर ये कहां जायेंगे, क्या खायेंगे ?
सुरेश-यही तो विचित्रता है व्यसनों की। इसमें फंसकर एक—दूसरे को नीचा दिखाने के सिवाय कुछ नहीं सूझता है कि कौन भाई, कैसा बन्धु ? अब तो पांडव सभी कुछ हार चुके थे इसलिए कोई वस्त्र,पैसा कुछ भी तो साथ नहीं ले जा सकते थे। वे बेचारे अनेक वन, देश,पुर तथा ग्राम आदि में घूमते हुए फलादिक से क्षुधा निवारण करते हुए साम्यभावपूर्वक दुःख सहन करते हुए कितने ही वर्षों तक घूमते-घूमते विराटपुर पहुंचे और वहां के राजा के पास नाना प्रकार के वेष बदल कर गए।
धरो कलावत रूप युधिष्ठिर ने वहाँ, भीम रसोईदार बनो सोतो जहाँ।
नट नाटक अर्जुन, ज्योतिषि सहदेव हैं, नकुल चरावै पशु द्रौपदि मालिन कहै।
देखो रमेश, यह कथा तो लंबी—चौड़ी है। खास बात तो यही सोचने की है कि जुआ खेलने के कारण तो इतने बड़े-बड़े राजाओं को भी वनवास के दुःख झेलने पड़े, सारा राज्य वैभव छोड़ना पड़ा और उनकी सारी इज्जत भी मिट्टी में मिल गई।
रमेश- हाँ, बात तो खैर सही है। बुरा कार्य तो बुरा ही है, चाहे राजा हो या रंक। बुराई में फंसे व्यक्ति को कर्म तो अशुभ ही बँधेगा।
सुरेश-वाह मेरे प्यारे दोस्त! आज तुम भी ठीक समझ गये। सुबह का भूला यदि शाम को वापस घर आ जाए तो भी भटकने से बच जाता है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है रमेश, कि तुम जल्दी ही अपने रास्ते पर आ गये हो तुम्हारा भविष्य अन्धकारमय होने से बच गया।
रमेश-ठीक है सुरेश! आज से मैं जुआ नहीं खेलने का नियम लेता हूं। तुम्हारी और मेरी दोस्ती बनी रहे यही मैं चाहता हूं। अच्छा! अब चलें फिर कभी मिलेंगे।