{” class=”wikitable” “- ! गुणस्थान अबंध बंध बंध व्युच्छिात्त विशेष वितरण पिथ्यात्व ० ११७ १६ १६(गुणस्थानोक्त) सासादन १६ १०१ ३१ ३१ (२५+६ वज्रवृषभनाराचसंहनन औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक, मनुष्यायु) मिश्र ४८ ७० ४ ४८ (३१+ १६+१ देवायु) असंयत ४७ ७० ४ ४७ (४८-१देवायु ) (अप्रत्याख्यानकषाय) देशविरत ५१ ६६ ४ ४ (प्रत्याख्यानकषाय) “}
लब्ध्यपर्याप्त बिना शेष चार प्रकार के तिर्यंच संबंधी निवृत्यपर्याप्त-अवस्था का कोष्टक नं. बंध योग्य प्रकृति १११ (गुणस्थान तीन)
{” class=”wikitable” “- ! गुणस्थान अबंध प्रकृति बंध प्रकृति बंध व्युच्छिन्न प्रकृति विशेष मिथ्यात्व ४ १०७ १३ ४(सुरचतुष्क (१३) १६-३ नरकद्विक, नरकायु) सासादन १७ ९४ २९ २९ (३१-२ तिर्यंचायु, मनुष्यायु) असंयत ४२ ६९ ४ ४२ (४६-४ सुरचतुष्क का बंध होने से। किन्तु योनिमति तिर्यंच के यह गुणस्थान नहीं होता) ४ (अप्रत्याख्यान कषाय) “}मनुष्यगति में बंध व्युच्छित्ति आदि तिरियेव णरे णवरि हु तित्थाहारं च अत्थि एमेव। सामण्णपुण्णमणुसिणिणरे अपुण्णे अपुण्णेव।।५०। तिर्यगिव नरे नवरि हि तीर्थाहारं चास्ति एवमेव। सामान्यपूर्णमानुषीनरे अपूर्णे अपूर्णे इव।।५०।।अर्थ — मनुष्य गति में व्युच्छित्ति वगैरह की रचना तिर्यंचगति की ही तरह जानना। विशेषता इतनी है कि यहाँ पर तीर्थंकर और आहारकद्विक इन तीनों का भी बंध होता है। इसी कारण यहाँ पर बंध योग्य प्रकृतियाँ १२० हैं और सामान्य (सब भेदों का समुदायरूप) मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, स्त्री वेद रूप मनुष्य, इन तीनों की व्युच्छित्ति आदि की रचना तो मनुष्य गति की सी ही है। किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य की रचना तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक की तरह समझना ।
सामान्य मनुष्य-पर्याप्त मनुष्य-मनुष्यनी संबंधी बंध-अबंध-व्युच्छित्ति का कोष्टक नं. बंध योग्य प्रकृति १२० (गुणस्थान १४) गुणस्थान अबंध बंध बंध व्युच्छिात्त विशेष मिथ्यात्व ३ ११७ १६ ३ (तीर्थंकर+आहारकद्विक) १६ (गुणस्थानोक्त) सासादन १९ १०१ ३१ ३१ (२५+६ वज्रवृषभनाराचादि पूर्वोक्त) मिश्र ५१ ६९ ० ५१ (३१+१९+१ देवायु) असंयत ४९ ७१ ४ ४९ (५१—२ तीर्थंकर, देवायु (४) अप्रत्याख्यानकषाय) देशसंयत ५४ ६७ ४ ४ (प्रत्याख्यानकषाय) प्रमत्तसंयत ५७ ६३ ६ ६ (गुणस्थानोक्त) अप्रमत्त ६१ ५९ १ ६१ (६३-२ आहारकद्विक) १ (देवायु) अपूर्वकरण ६२ ५८ ३६ ३६ (गुणस्थानोक्त) अनिवृत्तिकरण ९८ २२ ५ ५ (गुणस्थानोक्त) सूक्ष्मसाम्पराय १०३ १७ १६ १६ (गुणस्थानोक्त) उपशांतमोह ११९ १ ० १ (गुणस्थानोक्त) क्षीणमोह ११९ १ ० १ (गुणस्थानोक्त) सयोगी ११९ १ १ १ (व्युच्छित्तिरूप सातावेदनीय) अयोगी १२० ० ० }
सामान्य मनुष्य-पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीनों की निवृत्त्यपर्याप्तावस्था में बंध-अबंध-बंध व्युच्छित्ति का कोष्टक नं. ४ आयु-नरकद्विक-आहारकद्विक इन आठ बिना (१२०-८) ११२ प्रकृति बंध योग्य (गुणस्थान पाँच) गुणस्थान अबंध प्रकृति बंध प्रकृति बंध व्युच्छिात्त विशेष मिथ्यात्व ५ १०७ १३ ५ (सुरचतुष्क, तीर्थंकर (१३) गुण- स्थानोक्त १६-३ नरकद्विक, नरकायु) सासादन १८ ९४ २९ २९ (पर्याप्तवत् ३१-२, मनुष्य,तिर्यंचायु, किन्तु मनुष्यनी के व्युच्छित्ति ९८ प्रकृति की। असंयत ४२ ७० ८ ४२ (२९+१८-५, तीर्थंकर-सुरचतुष्क) ८ (प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यान की चार-चार कषाय) प्रमत्त ५० ६२ ६१ ६१ (प्रमत्त की ६+ अपूर्वकरण की आहारकद्विकबिना -अनिवृत्तिकरण की ५+सूक्ष्म सां. की १६) यह गुणस्थान भी मनुष्यनी के नहीं होता सयोगी १११ १ १ १ (सातावेदनीय)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व ० १०३ ७ ७ (मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान,नपुंसकवेद, सृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप) सासादन ७ ९६ २५ २५ (गुणस्थानोक्त) मिश्र ३३ ७० ० ३३ (२५७१ मनुष्यायु) असंयत ३२ ७१ १० ३२ (३३-१ मनुष्यायु) }
सौधर्म-ईशानस्वर्ग में बंध-अबंध-व्युच्छित्तिक का कोष्टक नं. बंधयोग्य प्रकृति १०४ (गुणस्थान चार)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व १ १०३ ७ १ (तीर्थंकर) ७ मिथ्यात्वादि पूर्वोक्त) सासादन ८ ९६ २५ मिश्र ३४ ७० ० ३४ (२५८१ मनुष्यायु) असंयत ३२ ७२ १० ३२ (३४-२ तीर्थंकर व मनुष्यायु) }
सानत्कुमार से सहस्रारस्वर्गपर्यन्त बन्धादि का कोष्टक नं. यहाँ पर्याप्तावस्था में बंधयोग्यप्रकृति १०१ (गुणस्थान चार)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व १ १०० ४ ४ (मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान नपुंसकवेद और सृपाटिका संहनन) सासादन ५ ९६ २५ मिश्र ३१ ७० ० ३१ (२५५१ मनुष्यायु) असंयत २९ ७२ १० २९ (३१-२ तीर्थंकर व मनुष्यायु) }
आनतादि चार स्वर्गों तथा नवग्रैवेयक संबंधी का कोष्टक नं. यहाँ पर्याप्तावस्था में बंधयोग्य प्रकृति ९७ (गुणस्थान चार)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व १ ९६ ४ १ (तीर्थंकर) ४ ( मिथ्यात्वादि पूर्वोक्त)संहनन) सासादन ५ ९२ २५ २१ (२५-४ शतारचतुष्क) मिश्र २७ ७० ० २७ (२१२१ मनुष्यायु) असंयत २५ ७२ १० २५ (२७-२ तीर्थंकर व मनुष्यायु) }
सर्व भवनत्रिक और कल्पवासीदेवांगनाओं की निवृत्यपर्याप्तावस्था में बंधयोग्य प्रकृति १०१। (गुणस्थान २) कोष्टक नं.-
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व ० १०१ ७ ७ (मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थानादि पूर्वोक्त) सासादन ७ ९४ २४ २४ ( २५-१ तिर्यंचायु) “}
सौधर्म-ईशानस्वर्गसंबंधी निवृत्यपर्याप्तावस्था में बंधयोग्य प्रकृति १०२ (गुणस्थान तीन) कोष्टक नं.
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व १ १०१ ७ १ (तीर्थंकर) ७ (मिथ्यात्वादि, पूर्वोक्त) सासादन ८ ९४ २४ २४ ( पूर्वोक्त) असंयत ३१ ७१ ९ ३१ (२४८-१ तीर्थंकर) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) “}
सानत्कुमारादि स्वर्गों में बन्ध आदिका कोष्टक नं.- यहाँ निवृत्यपर्याप्तावस्था में बंधयोग्य प्रकृतियाँ ९९ (गुणस्थान तीन)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व १ ९८ ४ १ (तीर्थंकर) ४ (मिथ्यात्व हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, सृपाटिकासंहनन) सासादन ५ ९४ २४ २४ ( गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) असंयत २८ ७१ ९ २८ (२४५-१ तीर्थंकर) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) “}
आनत-प्राणत-आरण-अच्युतस्वर्ग तथा नवगै्रवेयकसंबंधी बंध-अबंध और व्युच्छित्ति रूप प्रकृतियों का कोष्टक नं.- यहाँ निवत्यपर्याप्तावस्था में बंधयोग्य प्रकृति ९६ (गुणस्थान तीन)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष मिथ्यात्व १ ९५ ४ १ (तीर्थंकर) ४ (मिथ्यात्वादि, पूर्वोक्त) सासादन ५ ९१ २१ १ २१ (गुणस्थानोक्त २५-४ तिर्यंचगति, तिर्यंंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु और उद्योतरूप शतारचतुष्क) असंयत २५ ७१ ९ २५ (२१५-१ तीर्थंकर) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु)
गुणस्थान अबंधबंधव्युच्छित्ति विशेष “- ” मिथ्यात्व ० १०९ १५ १५ (गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक, नरकायु + २ मनुष्य, तिर्यंचायु) “- ” सासादन १५ ९४ २९ २९ ( तिर्यंचगति के कथित ३१-२ तिर्यंच, मनुष्यायु) “}
पंचेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का कोष्टक नं.- बंधयोग्य प्रकृति ११२ (गुणस्थान ५)
गुणस्थान अबंध प्रकृति बंध प्रकृति बंध व्युच्छिात्त विशेष – मिथ्यात्व ५ १०७ १३ ५ (देवचतुष्क, तीर्थंकर) १३ (गुण- स्थानोक्त १६-३ नरकद्विक, नरकायु) – सासादन १८ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) “- ” असंयत ३७ ७५ १३ ३७ (२४ + १८-५देवचतुष्क व तीर्थंकर) १३ (गुणस्थानोक्त १०-१ नुष्यायु४ प्रत्याख्यानकषाय) – प्रमत्त ५० ६२ ६१ ६१ (प्रमत्त की ६ + अप्रमत्त की अपूर्वकरण की ३४ अनिवृत्तिकरण की ५ सूक्ष्मसाम्पराय की १६ =६१ – सयोगी १११ १ १ १ = (सातावेदनीय)
कोष्टक नं गुणस्थान बंध बंध व्युच्छिात्त विशेष – मिथ्यात्व ५ १०९ १५ ५ (तीर्थंकर, देवचतुष्क, ) १५ (गुण- स्थानोक्त १६- नरकद्विक व नरकायु + २ मनुष्य, तिर्यंचायु) – सासादन २० ९४ २९ २९ (तिर्यंचगति में कथित ३१-२ तिर्यंचमनुष्यायु) – असंयत ४४ ७० ६९ ४४ (२९ + २०-५ तीर्थंकर व देवचतुष्क) ६९ (७०-१ सातावेदनीय) – सयोगी ११३ १ १ १ (सातावेदनीय) इसकी व्युच्छित्ति औदारिककाययोग में होती है औदारिकमिश्र में नहीं। -}
वैक्रियिककाययोग में बंधयोग्य प्रकृति १०४ (गुणस्थान ४)
कोष्टक नं गुणस्थान बंध बंध व्युच्छिात्त विशेष – मिथ्यात्व १ १०३ ७ १ (तीर्थंकर) ७ (गुणस्थानोक्त १६-९ सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, विकलत्रय, नरकद्विक, नरकायु) – सासादन ८ ९६ २५ ८ (७ + १) २५ (गुणस्थानोक्त) – मिश्र ३४ ७० ० ३४ (२५ + ८ + १ मनुष्यायु) – असंयत ३२ ७२ १० १० (गुणस्थानोक्त) ३२ (३४-२ तीर्थंकर, मनुष्यायु) -}
वैक्रियिकमिश्रकाययोग संबंधी सन्दृष्टि इस प्रकार है बंधयोग्य प्रकृति १०२ (गुणस्थान ३)
कोष्टक नं गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व १ १०१ ७ ७ (मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, सृपाटिका संहनन एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप) १ (तीर्थंकर) – सासादन ८ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) – असंयत ३१ ७१ ९ ३१ (तिर्यंचगति मेें कथित ३२-१ तीर्थंकर) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) “}
कार्मणकाययोग संबंधी बंध-अबन्धादि के कथन का कोष्टक नं. बंधयोग्य प्रकृति ११२ (गुणस्थान ४)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ५ १०७ १३ ५ (तीर्थंकर, देवचतुष्क, ) १३ (गुण- स्थानोक्त १६ नरकद्विक व नरकायु) – सासादन १८ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) – असंयत ३७ ७५ ७४ ३४ (२४ + १८-५ तीर्थंकर व देवचतुष्क) ७४ (असंयतसंबंधी गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु·९ देशसंयत की ४, प्रमत्त की ६, अपूर्वकरण की ३४ आहारक- द्विकबिना अनिवृत्तिकरण की ५, सूक्ष्मसाम्पराय की १६) -सयोगी१११ १ १ १ इसकी बंधव्युच्छित्ति काययोग में नहीं होती है, किन्तु औदारिककाय योग में होती है। “}
कम्मे उरालमिस्सं वा णाउदुगंपि णव छिदी अयदे। वेदादाहारोत्ति य सगुणट्ठाणाणमोघं तु।।५९।।
कम्र्मणि औरालिकमिश्रमिव नायुद्विकमपि नव छित्तिरयते। वेदादाहार इति च स्वगुणस्थानानामोघस्तु।।५९।।
अर्थ—कार्माण काययोगी की रचना औदारिकमिश्र की तरह जानना परन्तु विग्रहगति में आयु का बंध न होने से मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु इन दोनों का भी बंध नहीं होता, चौथे असंयत गुणस्थान में नौ प्रकृतियों व्युच्छित्ति होती है, इनती विशेषता है। वेदमार्गणा से लेकर आहार मार्गणा तक जैसा साधारण कथन गुणस्थान में है वेसा ही जानना।
निर्वृत्यपर्याप्त स्त्रीवेदी का कोष्ठक बंधयोग्य प्रकृति १०७ (गुणस्थान २)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ० १०७ १३ १३ (गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक, नरकायु) – सासादन १३ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) “}
नपुंसकवेदी निर्वृत्यपर्याप्तावस्था संबंधी कोष्ठक ” बंधयोग्य प्रकृति १०८ (गुणस्थान ३)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व १ १०७ १३ १ (तीर्थंकर) १३ (गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक, नरकायु) – सासादन १४ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) -असंयत ३७ ७१ ९ ३७ (२४ + १४-१ तीर्थंकर) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) “}
निर्वृत्यपर्याप्तक पुरुषवेदी की बंध, अबंध और व्युच्छित्ति की बंधयोग्य प्रकृति ११२ (गुणस्थान ३)
कोष्ठक-गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ५ १०७ १३ ५ (तीर्थंकर, सुरचतुष्क)१३(गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक व नरकायु) – सासादन १८ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१ तिर्यंचायु) -असंयत ३७ ७५ ९ ३७ (२४ + १८-५ तीर्थंकर, देवचतुष्क) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) “}
सम्यक्त्व, लेश्या एवं आहारमार्गणा की विशेषता णवरि य सव्वुवसम्मे णरसुरआऊणि णत्थि णियमेण। मिच्छस्संतिम णवयं वारं ण हि तेउपम्मेसु।।६०।।
नवरि च सर्वोपशमे नरसुरायुषी नास्ति नियमेन। मिथ्यात्वस्यान्तिमं नवक द्वादश न हि तेज पद्मयो:।।६०।।
सुक्के सदरचउक्कं वामंतिमबारसं च ण व अत्थि। कम्मेव अणाहारे बंधस्संतो अणंतो य।।६१।।
शुक्लायां शतारचतुष्कं वामान्तिमद्वादश च न व अस्ति। कम्र्म इव अनाहारे बंधस्यान्त अनंतश्च।।६१।। युग्मं
अर्थ—विशेषता यह है कि सम्यक्त्वमार्गणा में निश्चित कर सब ही अर्थात् दोनों ही उपशमसम्यक्त्वी जीवों के मनुष्यायु और देवायु का बंध नहीं होता और लेश्यामार्गणा में तेजोलेश्या वाले के मिथ्यात्व गुणस्थान की अंत की नौ तथा पद्मलेश्या वाले के मिथ्यात्व गुणस्थान की अंत की बारह प्रकृतियों का बंध नियम से नहीं होता। शुक्लेश्या वाले के शतार चतुष्क (तिर्यंचगति वगैरह जो ५२ वी गाथा में कह चुके हैं) और वाम अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अंत की बारह सब मिलकर १६ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और आहारमार्गणा में अनाहारक अवस्था में कार्माण योग की सी बन्धव्युच्छित्ति आदिक तीनों की रचना समझ लेना। इस प्रकार बंध की व्युच्छित्ति, बंध और ‘‘च’’ शब्द से अबंध इन तीनों का स्वरूप जानना।
कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान संबंधी बंध, अबंधादि का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ११७ (गुणस्थान २)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ० ११७ १६ १६(गुणस्थानोक्त) – सासादन १६ १०१ २५ २५ (गुणस्थानोक्त) -}
मन: पर्ययज्ञान संबंधी का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ६५ (गुणस्थान ७)
गुणस्थान अबंध बंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – प्रमत्त २ ६३ ६ २ (आहारकद्विक) ६ (गुणस्थानोक्त) – अप्रमत्त ६ ५९ १ ६ (६ + २-२ आहारकद्विक) १ (देवायु) – अपूर्वकरण ७ ५८ ३६ ३६ (गुणस्थानोक्त) – अनिवृत्तिकरण ४३ २२ ५ ४३ (३६ + ७) ५ (गुणस्थानोक्त) – सूक्ष्मसाम्पराय ४८ १७ १६ १६ (गुणस्थानोक्त) – उपशांतमोह ६४ १ ० – क्षीणमोह ६४ १ ० -}
सामायिक-छेदोपस्थापनासंयम के बंध, अबंधादि का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ६५ (गुणस्थान ४)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष -प्रमत्त २ ६३ ६ २ (आहारकद्विक) ६ (गुणस्थानोक्त) – अप्रमत्त ६ ५९ १ १ (देवायु) ६ (६ + २-२ आहारकद्विक) – अपूर्वकरण ७ ५८ ३६ ३६ (गुणस्थानोक्त) – अपूर्वकरण ४३ २२ ५ ५ (गुणस्थानोक्त) -}
परिहारविशुद्धिसंयम में बंध, अबंध और व्युच्छित्ति का कोष्ठक-
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – प्रमत्त २ ६३ ६ ६ (गुणस्थानोक्त) २ (आहारकद्विक) – अप्रमत्त ६ ५९ १ १ (देवायु)६ (६ + २-२ आहारकद्विक) -}
यथाख्यातसंयम में बंध, अबंध और व्युच्छित्ति संबंधी कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति १ (गुणस्थान ४)गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – उपशांतमोह ० १ ० – क्षीणमोह ० १ ० १ प्रकृति यहाँ सर्वत्र -सयोगी ० १ १ ‘सातावेदनीय’ ही जानना – अयोगी १ ० ० “}असंयत में बंध, अबंध और व्युच्छित्ति का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ११८ (गुणस्थान ४)गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व १ ११७ १६ १ (तीर्थंकर) १६ (गुणस्थानोक्त) – सासादन १७ १०१ २५ २५ (गुणस्थानोक्त) -मिश्र ४४ ७४ ० ४४ (२५ + १७ + २ मनुष्यायु व देवायु) – असंयत ४१ ७७ १० ४१ (४४-३ तीर्थंकर, मनुष्यायु, देवायु) “}कृष्ण, नील और कापोल लेश्याओं में बंधयोग्य प्रकृति ११८ (गुणस्थान ४) कोष्ठक-गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व १ ११७ १६ १ (तीर्थंकर) ४ (गुणस्थानोक्त) – सासादन १७ १०१ २५ २५ (गुणस्थानोक्त) -मिश्र ४४ ७४ ० – असंयत ४१ ७७ १० १० (गुणस्थानोक्त) “}पीत लेश्यासंबंधी बंध व व्युच्छित्ति आदि का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति १११ (गुणस्थान ७) गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ३ १०८ ७ ३ (तीर्थंकर, आहारकद्विक) ७ (गुणस्थानोक्त १६ में से मिथ्यात्व के आतप पर्यंत) – सासादन १० १०१ २५ – मिश्र ३७ ७४ ० ३७ (२५ + १० + २ मनुष्य, देवायु ) – असंयत ३४ ७७ १० ३४ (३७-३ तीर्थंकर, मनुष्य और देवायु) – देशसंयत ४४ ६७ ४ ४ (गुणस्थानोक्त) – प्रमत्त ४८ ६३ ६ ६ (गुणस्थानोक्त) – अप्रमत्त ५२ ५९ १ ५२ (४८ + ६-२ आहारकद्विक) -}पद्मलेश्या में बंध, अबंध और व्युच्छित्ति आदि का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति १०८ (गुणस्थान ७)गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ३ १०५ ३ (तीर्थंकर, आहारकद्विक) ४ (गुणस्थानोक्त १६ में से मिथ्यात्व पर्यंत) – सासादन ७ १०१ २५ – मिश्र ३४ ७४ ० ३४ (२५ + ७ + २ मनुष्य, देवायु ) – असंयत ३१ ७७ १० ३१ (३४-३ तीर्थंकर, देव व मनुष्यायु) – देशसंयत ४१ ६८ ४ ४ (गुणस्थानोक्त) – प्रमत्त ४५ ६३ ६ ६ (गुणस्थानोक्त) – अप्रमत्त ४९ ५९ १ ४९ (४५ + ६-२ आहारकद्विक) -}शुक्ललेश्या में बंध, अबंध और व्युच्छित्ति के कथन का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति १०७ (गुणस्थान १३) गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ३ १०१ ४ ३ (तीर्थंकर, आहारकद्विक) ४ (मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद और असंप्राप्तासृपाटिका संहनन) – सासादन ७ ९७ २१ २१ (गुणस्थानोक्त २५-४ शतारचतुष्क) – मिश्र ३० ७४ ० ३० (२१ + ७ + २ मनुष्य, देवायु ) – असंयत २७ ७७ १० २७ (३०-३ मनुष्य, देवायु, तीर्थंकर) – देशसंयत ३७ ६७ ४ ४ (गुणस्थानोक्त प्रत्याख्यानावरण की चार कषाय) – प्रमत्त ४१ ६३ ६ ६ (गुणस्थानोक्त) – अप्रमत्त ४५ ५९ १ १ (देवायु) ४५ (४१ + ६-२ आहारकद्विक) – अपूर्वकरण ४६ ५८ ३६ ३६ (गुणस्थानोक्त) – अनिवृत्तिकरण ८२ २२ ५ ५ (गुणस्थानोक्त) – सूक्ष्मसाम्पराय ८७ १७ १६ १६ (गुणस्थानोक्त) – उपशांतमोह १०३ १ ० १ (सातावेदनीय) – क्षीणमोह १०३ १ ० १ (सातावेदनीय) – सयोगी १०३ १ १ १ (सातावेदनीय) -}
प्रथमोपशम सम्यक्त्वसंबंधी बंध, अबंध और व्युच्छित्ति का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ७७ (गुणस्थान असंयतादि चार)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – असंयत २ ७५ ९ २ (आहारकद्विक) ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) – देशसंयत ११ ६६ ४ -प्रमत्त १५ ६२ ६ – अप्रमत्त १९ ५८ १० १९ (१५ + ६-२ आहारकद्विक) “}
द्वितीयपशम के कथन संबंधी का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ७७ (गुणस्थान ८)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – असंयत २ ७५ ९ ९ (गुणस्थानोक्त १०-१ मनुष्यायु) – देशसंयत ११ ६६ ४ ४ (प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ) – प्रमत्त १५ ६२ ६ ६ (गुणस्थानोक्त) – अप्रमत्त १९ ५८ ० १९ (१५ + ६-२ आहारकद्विक) – अपूर्वकरण १९ ५८ ३६ ३६ (गुणस्थानोक्त) – अनिवृत्तिकरण ५५ २२ ५ ५ (गुणस्थानोक्त) -सूक्ष्मसाम्पराय ६० १७ १६ १६ (गुणस्थानोक्त) -उपशांतमोह ७६ १ ० Example -}
क्षयोपशम सम्यक्त्व संबंधी बंध, अबंधादि का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ७९ (गुणस्थान चार)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – असंयत २ ७७ १० २ (आहारकद्विक) – देशसंयत १२ ६७ ४ -प्रमत्त १६ ६३ ६ – अप्रमत्त २० ५९ १ २० (१६ + ६-२ आहारकद्विक) “}
क्षायिक सम्यक्त्व संबंधी अबंध, बंध, व्युच्छित्ति का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ७९ (गुणस्थान ग्यारह)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – असंयत २ ७७ १० २ (आहारकद्विक) – देशसंयत १२ ६७ ४ – प्रमत्त १६ ६३ ६ – अप्रमत्त २० ५६ १ २० (१६ + ६-२ आहारकद्विक) – अपूर्वकरण २१ ५८ ३६ ३६ (गुणस्थानोक्त) – अनिवृत्तिकरण ५७ २२ ५ – सूक्ष्मसाम्पराय ६२ १७ १६ – उपशांतमोह ७८ १ ० – क्षीणमोह ७८ १ ० – सयोगी ७८ १ १ – अयोगी ७९ ० ० “}
असंज्ञीसंबंधी अबंध, बंध, व्युच्छित्ति का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ११७ (गुणस्थान दो)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ० ११७ १९ १९ (गुणस्थानोक्त १६ + ३ मनुष्य, देव, तिर्यंचायु) – सासादन १९ ९८ २९ २९ (गुणस्थानोक्त २५ + ४ वज्रवृषभ- नाराचादि-२ मनुष्य व तिर्यंचायु) -}
अनाहारक संबंधी अबंध, बंध, व्युच्छित्ति का कोष्ठक- बंधयोग्य प्रकृति ११२ (गुणस्थान पाँच)
गुणस्थान अबंध बंध व्युच्छित्ति विशेष – मिथ्यात्व ५ १०७ १३ ५ (देवचतुष्क, तीर्थंकर) १३ गुणस्थानोक्त १६-३ नरकद्विक व नरकायु) – सासादन १८ ९४ २४ २४ (गुणस्थानोक्त २५-१तिर्यंचायु) – असंयत ३७ ७५ ७४ ३७ (२४ + १८-५ देवचतुष्क, तीर्थंकर) ७४ (मनुष्यायु बिना असंयतकी अपूर्वकरण की आहारकद्विक बिना ३४ + अनिवृत्तिकरण की ५ + सूक्ष्मसाम्पराय की १६) ये सर्व ७४ प्रकृतियाँ असंयतगुणस्थान में व्युच्छिन्न होती हैं। -सयोगी १११ १ १ १ (सातावेदनीय)नाोट-आहारक अवस्था में सातावेदनीय की बंधव्युच्छित्ति नहीं होती। – अयोगी ११२ ० ० “}
विशेष— आगे मूलप्रकृतियों के सादि, अनादि, ध्रुव, अधु्रव बंध भेदों को विशेषपने से कहते हैं :— छह कर्मों का प्रकृति बंध १. सादि, २. अनादि, ३. ध्रुव, ४. अधु्रव रूप चारों प्रकार का होता है परन्तु तीसरे वेदनीय कर्म का बंध तीन प्रकार का होता है, सादि बंध नहीं होता और आयुकर्म का अनादि तथा धु्रव बंध के सिवाय दो प्रकार का अर्थात् सादि और अध्रुव की बंध होता है। आगे इन बंधों का स्वरूप कहते हैं :— जिस कर्म के बंध का अभाव होकर फिर वही कर्म बंध हो उसे आदि बंध कहते हैं। जैसे किसी जीव के दसवें गुणस्थान तक ज्ञानावरण को पाँच प्रकृतियो का बंध था, जब वह जीव ग्यारहवें में गया तब बंध का अभाव हुआ, पीछे ग्यारहवें गुणस्थान में पड़कर फिर दसवें में आया तब ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियों का पुन: बंध हुआ, ऐसा बंध सादि कहलाता है और जो गुणस्थानों को श्रेणी पर ऊपर को नहीं चढ़ा अर्थात् जिसके बंध का अभाव नहीं हुआ वह अनादि बंध है। जैसे दसवें तक ज्ञानावरण का बंध। दसवें गुणस्थान वाला ग्यारहवें में जब तक प्राप्त नहीं हुआ वहाँ तक ज्ञानावरण का अनादि बंध है, क्योंकि वहाँ तक अनादिकाल से उसका बंध चला जाता है। जिस बंध का आदि तथा अंत न हो वह ध्रुव बंध है—यह बंध अभव्यजीव के होता है। जिस बंध का अंत आ जावे उसे अध्रुव बंध कहते हैं। यह ध्रुव व बंध भव्यजीवों के होता है। उत्तर प्रकृतियों में सादि, अनादि, धु्रव, अध्रुव बंध कौन-कौन हैं?
घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचओ। सत्तेतालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा।।६२।।
घातित्रिमिथ्यात्वकषाया भयतेजो गुरुद्विकिनिर्माणवर्णचतुष्कम्। सप्तचत्वारिंशद्धवाणां चतुर्धा शेषाणां तु द्विधा।।६२।।
अर्थ — मोहनीय के सिवा ३ घातियाकर्मों की १९ प्रकृतियाँ और मिथ्यात्व तथा १६ कषाय एवं भय तैजस और अगुरुलघु का जोड़ा अर्थात् भय, जुगुप्सा, तैजस १, कार्माण २, अगुरुलघु १, उपघात २ तथा निर्माण और वर्णादि चार ये ४७ प्रकृतियाँ ध्रुव हैं। इनका चारों प्रकार का बंध होता है। जब तक इनके बंध की व्युच्छित्ति (बिछुड़ना) न हो तब तक इन प्रकृतियों का प्रति समय निरंतर बंध होता ही रहता है, इस कारण इनको ध्रुव कहते हैं। इनके बिना जो बाकी बचीं वेदनीय की २ मोहनीय की ७, आयु की ४ और नाम कर्म की गति आदि ५८ तथा गोत्र कर्म की २ ये ७३ प्रकृतियाँ के अध्रुव हैंं। इनके सादि और अध्रुव दो ही बंध होते हैं। इनका किसी समय बंध होता है और किसी समय का बंध नहीं भी होता।
सेसे तित्थाहारं परघादचउक्क सव्वआऊणि। अप्पडिव्क्खा सेसा सप्पडिक्क्खा हु बासट्ठी।।६३।।
शेषासु तीर्थाहारं परघातचतुष्कं सर्वायूंषि। अप्रतिपक्षा: शेषा: सप्रतिपक्षा हि द्वाषष्टि:।।६३।।
अर्थ — पहले कहीं हुई ४७ धु्रव प्रकृतियों से बाकी बची हुई ७३ प्रकृतियों में से तीर्थंकर, आहारकशरीरद्वय अर्थात् आहारकशरीर आहारक आंगोपांग, परघात आदि चार और चारों आयु, ये ग्यारह प्रकृतियों अप्रतिपक्षी हैं अर्थात् इनकी कोई प्रकृति विरोधी नहीं है। जिस समय में इनका बंध होता है उस समय में वह होता ही है। यदि न होवे तो नहीं ही होता। जैसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध जिस समय होना चाहे उस समय उसका बंध होगा ही, न होना चाहे तब नहीं होगा। इस प्रकृति की कोई विरोधी प्रकृति नहीं जो कि इसके बंध को रोक लेवे। भावार्थ”’—जिन प्रकृतियों के बंध होने को कोई भी दूसरी प्रकृति का बंध रोक न सके उनको अप्रतिपक्षी कहते हैं। ७३ में से ११ घट जाने पर बाकी रहीं ६२ प्रकृतियां उनमें आपस में विरोधीपना होने से सप्रतिपक्षी कही जाती हैं। जैसे कि सातावेदनीय, असातावेदनीय ये दोनों आपस में प्रतिपक्षी हैं। सो जिस समय साता का बंध होता है उस समय असाता का नहीं होता और जब असाता का बंध होता है तब साता का नहीं होतां इसी तरह रति अरति सभी परस्पर विरोधी प्रकृतियों में सप्रतिपक्षीपना समझ लेना।
सव्वट्ठिदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण। विवरीदेण जहण्णो आउगतियवविज्जयाणं तु।।६४।।
सर्वस्थितीनामुत्कृष्टकस्तु उत्कृष्टसंक्लेशेन। विपरीतेन जघन्य आयुष्कत्रयवर्जितानां तु।।६४।।
अर्थ — तीन आयु वर्ग अर्थात् तिर्यंच-मनुष्य-देवायु के बिना अन्य सब ११७ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध यथासंभव उत्कृष्ट संक्लेश (कषाय सहित) परिणामों से होता है और जघन्यस्थिति बंध विपरीत परिणामों से अर्थात् संक्लेश से उलटे-उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से होता है। तीन आयु प्रकृतियों का इससे विपरीत अर्थात् उत्कृष्ट विशुद्धपरिणामों से उत्कृष्ट स्थिति बंध होता है तथा जघन्यस्थिति बंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है। =
सव्वुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी दु बंधगो भणिदो। आहारं तित्थयरं देवाउं वा विमोत्तूर्ण।।६५।।
सर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिस्तु बंधको भणित:। आहारं तीर्थंकर देवायुषं वा विमुच्य।।६५।।
अर्थ—आहाकरद्विक, तीर्थंकर और देवायु इन चार प्रकृतियों के सिवाय बाकी ११६ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों का मिथ्यादृष्टि जीव ही बांधने वाला होता है। इस कथन से यह बात सिद्ध हुई कि इन आहारकादि चार प्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति का बंध सम्यग्दृष्टि के ही होता है।
चार प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध के स्वामी देवाउगं पमत्तो आहारयमप्पमत्तविरदो दु।
तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेई।।६६।।
देवायुषं प्रमत्त आहारकमप्रमत्तविरतस्तु। तीर्थंकरं च मनुष्य: अविरतसम्यक् समर्जयति।।६६।।
अर्थ — देवायु की उत्कृष्ट स्थिति को छट्ठे प्रमत्त गुणस्थान वाला बांधता है। आहारक को अर्थात् १. आहार शरीर, २. आहारक आंगोपांग इन दोनों की उत्कृष्ट स्थिति सातवें अप्रमत्त गुणस्थान वाला बांधता है और उत्कृष्ट स्थिति वाली तीर्थंकर प्रकृति को चौथे गुणस्थान वाला असंयमी सम्यग्दृष्टि मनुष्य की उपार्जन करता है अर्थात् बांधता है।
मूल प्रकृतियों का जघन्य स्थिति बंध बारस य वेयणीये णामे गोदे य अट्ठय मुहुत्ता।
भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपचण्हं।।६७।।
द्वादश च वेदनीये नाम्नि गोत्रे च अष्ट च मुहूर्ता:। भिन्नमुहूर्तस्तु स्थिति: जघन्या शेषपंचानाम्।।६७।।
अर्थ—वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त है और नाम तथा गोत्र कर्म इन दोनों की आठ मुहूर्त है तथा बाकी बजे पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है।
सव्वाओ दु ठिदीओ सुहासुहाणंपि होंति असुहाओ। माणुसतिरिक्खदेवाउगं च मोत्तूण सेसाणं।।६८।।
सर्वास्तु स्थितय: शुभाशुभानामपि भवन्ति अशुभा:। मनुष्यतिर्यग्देवायुष्कं च मुक्तवा शेषाणाम्।।६८।।
अर्थ—मनुष्य, तिर्यंच, देवायु के सिवाय बाकी सब शुभ तथा अशुभ प्रकृतियों की स्थितियाँ अशुभ रूप ही हैं, क्योंकि संसार का कारण है इसीलिए इन प्रकृतियों को बहुत कषायी जीव ही उत्कृष्ट स्थिति के साथ बांधता है।
आबाधा का लक्षण कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण। रूवेणुदीरणस्स व आबाहा जाव ताव हवे।।६९।।
कर्मस्वरूपेणागतद्रव्य न च एति उदयरूपेण। रूपेणोदीरणाया वा आबाधा यावत्तावद्भवेत्।।६९।।
अर्थ—कार्माण शरीरनामा नामकर्म के उदय से योग द्वारा आत्मा के कर्म स्वरूप से परिणमता हुआ जो पुद्गल द्रव्य वह जब तक उदय स्वरूप (फल देने स्वरूप) अथवा उदीरणा (बिना समय के कर्म का पाक होना) स्वरूप न हो तब तक के उस काल को आबाधा कहते हैं।
उदयं पडि सत्तण्हं आबाहा कोडकोडि उवहीणं। वाससयं तप्पडिभागेणय सेसट्ठिदीण च।।७०।।
उदयं प्रति सप्तानामाबाधा कोटीकोटि: उदधीनाम्। वर्षशतं तत्प्रतिभागेन च शेषस्थितीनां च।।७०।।
अर्थ—एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति की आबाधा सौ वर्ष प्रमाण जानना और बाकी स्थितियों की आबाधा इसी के अनुसार त्रैराशिक विधि से भाग देने पर जो-जो प्रमाण आवे उतनी-उतनी जानना। यह क्रम आयुकर्म के सिवाय सात कर्मों की आबाधा के लिए उदय की अपेक्षा से है।
अंत:कोटाकोटीसागर प्रमाण स्थिति की आबाधा अंतोकोडाकोडिट्ठिदिस्स अंतोमुहुत्तमाबाहा।
संखेज्जगुणविहीण सव्वजहण्णट्ठिदिस्स हवे।।७१।।
अंत:कोटीकोटि स्थिते: अंतर्मुहूर्त आबाधा। संख्यातगुणविहीन: सर्वजघन्यस्थिते: भवेत्।।७१।।
अर्थ—अंत: कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति की अंतर्मुहूर्त आबाधा है और सब जघन्य स्थितिओं की उससे संख्यात गुणी कम (संख्यातें भाग) आबाधा होती है।
गादासंखेअद्धवोत्ति हवे। आउस्स व आबाहा ण ट्ठिदिपडिभागमाउस्स।।७२।।
पूर्वाणां कोटित्रिभागादासंक्षेपाद्धा वा इति भवेत्। आयुषश्च आबाधा न स्थितिप्रतिभाग आयुष:।।७२।।
अर्थ—आयु कर्म की आबाधा कोड़पूर्व के तीसरे भाग से लेकर असंक्षेपाद्धा प्रमाण अर्थात् जिससे थोड़ा काल कोई न हो ऐसे आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक है। आयुकर्म की आबाधा स्थिति के अनुसार भाग की हुई नहीं है अर्थात् जैसे अन्य कर्मों में स्थिति के अनुसार भाग करने से आबाधा का प्रमाण होता है, इस तरह इस आयुकर्म में नहीं हैं।
आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्ज सत्तकम्माणं। परमभवियआउग्गस्स य उदीरणा णत्थि णियमेण।।७३।।
आवलिकमाबाधा उदीरणामाश्रित्य सप्तकर्मणाम्। परभवीयायुष्कस्य च उदीरणा नास्ति नियमेन।।७३।।
अर्थ—सात कर्मों की आबाधा उदीरणा की अपेक्षा से एक आवली मात्र है और परभव की आयु जो बांध जी है उसकी उदीरणा निश्चित कर नहीं हो तो अर्थात् वर्तमान आयु की उदीरणा तो हो सकती है, परन्तु आगामी आयु की नहीं होती।
आबाहूणियकम्मट्ठिदी णिसेगो दु सत्तकम्माणं। आउस्स णिसेगो पुण सगट्ठिदी होदि णियमेण।।७४।।
आबाधोनितकर्मस्थिति: निषेकस्तु सप्तकर्मणाम्। आयुष: निषेक: पुन: स्वकस्थिति: भवति नियमेन।।७४
अर्थ—अपनी-अपनी कर्मों की स्थिति में आबाधा का काल घटाने से जो काल शेष रहे उसके समयों के प्रमाण सात कर्मों के निषेक (समय-समय में जो कर्म खरें उनके समूह रूप निषेक) जानना और आयुकर्म का निषेक अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है, ऐसा निमय से समझना।
सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण सकिलेसेण। विवरीदेण जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं।।७५।।
शुभप्रकृतीनां विशुद्धया तीव्र, अशुभानां संक्लेशेन। विपरीतेन जघन्य अनुभाग: सर्वप्रकृतीनाम्।।७५।।
अर्थ—सातावेदनीयादिक शुभ (पुण्य) प्रकृतियों का अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामों से उत्कृष्ट होता है। असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग बंध क्लेशरूप परिणामों के उत्कृष्ट होता है और विपरीत परिणामों से जघन्य अनुभाग बंध होता है अर्थात् शुभ प्रकृतियों का संक्लेश (तीव्र कषायरूप) परिणामों से और अशुभ प्रकृतियों का विशुद्ध (मंद कषायरूप) परिणामों से जघन्य अनुभाग बंध होता है। इस प्रकार सब प्रकृतियों का अनुभाग बंध जानना।
तु पसत्था विसोहिगुणमुक्कडस्स तिव्वाओ। बासीदि अप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकिलिट्ठस्स।।७६।।
द्वाचत्वारिंशत्तु प्रशस्ता विशुद्धिगुणोत्कटस्य तीव्रा:। द्वयशीति: अप्रशस्ता मिथ्योत्कटसंक्लिष्टस्य।।७६।।
अर्थ—पहले कही गई जो ४२ पुण्य प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध विशुद्धता रूप गुण की उत्कृष्टता वाले जीव के होता है और असातादिक ८२ अशुभ प्रकृतियाँ उत्कृष्ट संक्लेश रूप परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीव के तीव्र (उत्कृष्ट) अनुभाग लेकर बंधती हैं।
सत्ती य लदादारूअट्ठीसेलोवमाहु घादीणं। दारूअणंतिमभागोत्ति देसघाती तदो सव्वं।।७७।।
शक्तिश्च लतादारूअस्थिशैलोपमा आहु: घातिनाम्। दार्वनन्तिमभाग इति देशघाति तत: सर्वम्।।७७।।
अर्थ—घातिया कर्मों का फल देने की शक्ति (स्पद्र्धक) लता (बेलि), काठ, हड्डी और पत्थर के समान समझना अर्थात् इनमें जैसा क्रम से अधिक-अधिक कठोरपना है वैसा ही अनुभाग में भी समझना तथा दारू भाग के अनंतवें भाग तक शक्ति रूप स्पद्र्धक देशघाती हैं और शेष बहुभाग से लेकर शैल भाग तक के स्पद्र्धक सर्वघाती हैं अर्थात् इनके उदय होने पर आत्मा के गुण प्रगट नहीं होते।
अवसेसा पयडीओ अघादिया घादियाण पडिभागा। ता एव पुण्णपावा सेसा पावा मुणेयव्वा।।७८।।
अवशेषा: प्रकृतय: अघातिया घातिकानां प्रतिभागा:। ता एव पुण्यपापा: शेषा: पापा मन्तव्या:।।७८।।
अर्थ—शेष अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ घातिया कर्मों की तरह प्रतिभाग सहित जाननी। अर्थात् तीन भावरूप परिणमती हैं और वे ही पुण्य रूप तथा पाप रूप होती हैं तथा बाकी बची घातिया कर्मों की सब प्रकृतियाँ पाप रूप ही हैंं।
गुडखंडसक्करामियसरिसा सत्था हु णिंबकंजीरा। विसहालाहलसरिसा सत्था हु अघादिपडिभागा।।७९।।
गुडखण्डशर्करामृतसदृशा: शस्ता हि निम्बकांजीरा:। विषहालाहल सदृशा अशस्ता हि अघातियाप्रतिभागा:।।७९।।
अर्थ—अघातिया कर्मों में प्रशस्त प्रकृतियों के शक्ति भेद गुड़, खांड, मिश्री और अमृत के समान जानने। और अप्रशस्त प्रकृतियों के नींव, कांजीर, विष, हालाहल के समान शक्ति भेद (स्पद्र्धक) जानना। अर्थात् सांसारिक सुख-दु:ख के कारण दोनों ही पुण्य पाप कर्मों की शक्तियों को चार-चार तरह का तरतम रूप में समझना।
एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जीग्गं। बंधदि सगहेदूहिं य अणादियं सादियं उभयं।।८०।।
एकक्षेत्रावगाढं सर्वप्रदेशै: कर्मणो योग्यम्। बध्नाति स्वकहेतुभिश्च अनादिकं सादिकमुभयम्।।८०।।
अर्थ—जघन्य अवगाहना रूप एक क्षेत्र में स्थित और कर्मरूप परिणमेन के योग्य अनादि अथवा सादि अथवा दोनों स्वरूप जो पुद्गलद्रव्य है उसको यह जीव अपने सब प्रदेशों से मिथ्यात्वादिक के निमित्त से बांधता है। अर्थात् कर्मरूप पुद्गलों का आत्मा के प्रदेशों के साथ संबंध होना प्रदेश बंध है। यहाँ पर सूक्ष्मनिगोद जीव की घनांगुल के असंख्यातवें भाग अवगाहना (जगह) को एक क्षेत्र जानना।
सयलरसरूवगंधेहिं परिणदं चरमचदुहिं फासेहिं। सिद्धादो भव्वादो णंतिमभागं गुणं दव्वं।।८१।।
सकलरसरूपगन्धै: परिणतं चरमचतुर्भि: स्पर्शै:। सिद्धादभव्यादनन्तिमभागं गुणं द्रव्यम्।।८१।।
अर्थ—वह समय प्रबद्ध, सब अर्थात् पाँच प्रकार रस, पाँच प्रकार वर्ण, दो प्रकार बंध तथा शीतादि चार अंत के स्पर्श, इन गुणों कर सहित परिणमता हुआ, सिद्धराशि के अनंतवें भाग अथवा अभव्य राशि से अनंतगुण कर्म रूप पुद्गल द्रव्य जानना।
आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो। घादितियेवि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये।।८२।।
आयुष्कभाग: स्तोक: नामगोत्रे सम: तत: अधिक:। घातित्रयेपि च तत: मोहे तत: ततस् तृतीये।।८२।।
अर्थ—सब मूल प्रकृतियों में आयु कर्म का हिस्सा थोड़ा है। नाम और गोत्र कर्म का हिस्सा आपस में समान है, तो भी आयु कर्म के बाँट से अधिक है। अंतराय-दर्शनावरण-ज्ञानावरण इन तीन घातिया कर्मों का भाग आपस में समान है, तो भी नाम गोत्र के भाग से अधिक है। इससे अधिक मोहनीय कर्म का भाग है। तथा मोहनीय से भी अधिक वेदनीय कर्म का भाग है। जहाँ जितने कर्मों का बंध हो वहाँ उतने ही कर्मों का बाँट कर लेना।
सुहदुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स। सव्वेहिंतो बहुगं दव्वं होदित्ति णिद्दिट्ठं।।८३।।
सुखदु:खनिमित्तात् बहुनिर्जरक इति वेदनीयस्य। सर्वेभ्य: बहुकं द्रव्यं भवतीति निर्दिष्टम्।।८३।।
अर्थ—वेदनीय कर्म सुख-दु:ख का कारण है, इसलिए इसकी निर्जरा भी बहुत होती है। इसी वास्ते सब कर्मों से बहुत द्रव्य इस वेदनीय का ही जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
सेसाणं पयडीणं ठिदिपदिभागेण होदि दव्वं तु। आवलिअसंखभागो पडिभागो होदि णियमेण।।८४।।
शेषाणां प्रकृतीनां स्थितिप्रतिभागेन भवति द्रव्यं तु। आवल्यसंख्यभाग: प्रतिभागो भवति नियमेन।।८४।।
अर्थ—वेदनीय के सिवाय वाकी सब मूल प्रकृतियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार बटवारा होता है। जिसकी स्थिति अधिक है उसका अधिक, कम को कम तथा समान वाले को समान द्रव्य हिस्सा में आता है ऐसा जानना और इनके बाँट करने में प्रतिभाग हार नियम से आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण समझना।
बहुभागे समभागो अट्ठण्हं होदि एक्कभागम्हि। उत्तकमो तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देओ दु।।८५।।
बहुभागे समभाग: अष्टानां भवति एकभागे। उक्तक्रम: तत्रापि बहुभागो बहुकस्य देयस्तु।।८५।।
अर्थ—बहुभाग का समान भाग करके आठ प्रकृतियों को देना और बचे हुए एक भाग में पहले कहे हुए क्रम से आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देते जाना उसमें भी जो बहुत द्रव्य वाला हो उकसो बहुभाग देना ऐसा अंत तक प्रतिभाग (भाग में से भाग) करते जाना। भावार्थ—कार्माण समय प्रबद्ध के द्रव्य प्रमाण में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देना। उसमें एक भाग को पृथक रखकर, बहुभाग के आठ समान भाग करना और यह एक-एक भाग आठ मूल प्रकृतियों को देना। शेष भाग में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देना उसमें भी एक भाग को जुदा रखकर शेभ बहुभाग वेदनीय को देना। पुन: जुदे रक्खे हुए एक भाग में प्रतिभाग का (आवली के असंख्यातवें भाग का) भाग देना और एक भाग को जुदा रख बहुभाग मोहनीय को देना। पुन: एक भाग के प्रतिभाग का भाग देना उसमें भी एक भाग को जुदा रख बहुभाग के तीन समान भाग करना और एक-एक भाग ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय को देना। पुन: एक भाग में प्रतिभाग का भाग दे एक भाग को जुदा रख बहुभाग के दो समान भाग करना और एक-एक भाग नाम गोत्र को देना, शेष एक भाग आयु कर्म को देना। इस क्रम से ‘‘आउगभागो थोवो’’ इस गाथा में कहा हुआ क्रम सिद्ध होता है।
उत्तरपयडीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा। अहियकमा पुण णामाविग्घा य ण भजणं सेसे।।८६।।
उत्तरप्रकृतिषु पुन: मोहावरणा भवन्ति हीनक्रमा:। अधिकक्रमा: पुन: नामविघ्नाश्च न भंजनं शेषे।।८६।।
अर्थ—उत्तर प्रकृतियों में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण के भेदों में क्रम से हीन-हीन द्रव्य हैं और नामकर्म-अंतराय कर्म के भेदों में क्रम से अधिक है। तथा बाकी बचे वेदनीय-गोत्र-आयु कर्म इन तीनों के भेदों में बटवारा नहीं होता क्योंकि इनकी एक-एक ही प्रकृति एक काल में बंधती है। जैसे वेदनीय में साता का बंध होवे या असाता का बंध होेवे, परन्तु दोनों का एक साथ बंध नहहीं होता । इस कारण मूल प्रकृति के द्रव्य के प्रमाण ही इन तीनों में द्रव्य जानना।