कमल-अरे सुनो विमल! तुम इन दिनों कहां रहते हो ? कई दिन से तुमसे भेंट नहीं हुई, मेरा तो तुम्हारे बिना मन ही नहीं लगता।
विमल-मेरा भी मन तुम्हारे बिना नहीं लगता, परन्तु क्या करूँ कमल! कई दिनों से मेरी तबियत खराब चल रही है, बड़ी कमजोरी आ गई है यार! अभी डॉक्टर के यहां से ही आ रहा हूँ। उन्होंने कहा है कि तुम प्रतिदिन मांसाहार करो तब शक्ति बढ़ेगी और कमजोरी दूर होगी।
कमल-छिः छिः, विमल तुम्हारे गले माँसाहार की बात उतर भी गई। महान हिंसा से उत्पन्न मांस को तुम अपने जीवन का आधार मान बैठे, बड़े अफसोस की बात है।
विमल-इसमें अफसोस की क्या बात है ? स्वास्थ्य के लिए जो चीज लाभकारी है वह तो सभी को लेना ही पड़ेगा। फिर मैं किसी जीव को मारने तो नहीं जा रहा हूं, मरे हुए जीव का मांस ही खरीदूंगा मुझे तो इसमें कोई दोष नहीं दिखता। यूं तो देखा जाय तो कितनी भी खाद्य वस्तुएं हैं, अनाज, सब्जी सभी जीव का कलेवर ही तो हैं तो उसे भी माँस कहकर मत खाया करो, दोष तो सभी में है।
कमल-नहीं विमल,यह तुम्हारा भ्रम है। तुमने अनाज, सब्जी, फल सभी को मांस की उपमा दे दी, जो सर्वथा गलत है। पहली बात तो ये सब एकेंद्रिय जीवों का कलेवर है, एकेंद्रिय जीवों के शरीर में खून,मांस,मज्जा कुछ नहीं होता है। दूसरी बात खेत से कटने के बाद, पेड़ से टूटने के बाद वह एकेंद्रिय जीव भी नहीं रह जाता इसलिए ये वस्तुएं शाकाहारी कहलाती हैं। इनको खाने वाले मनुष्य भी शाकाहारी कहलाते हैं परन्तु मांस ऐसी चीज है जो किसी भी अवस्था में निर्जीव नहीं रह पाता। सर्वप्रथम मात्र जीभ के स्वाद और शारीरिक पुष्टता के लिए किसी मूक पशु की हिंसा करना कितना बड़ा अपराध है। जरा सोचो तो सही, यदि तुमको कोई व्यक्ति एक चांटा भी लगा दे तो कितना क्रोध आता है। मारने वाले के प्रति अपने मन में कैसी प्रतिशोध की भावना जाग्रत होती है कि मौका मिलते ही मैं भी इसे मारकर बदला लूंगा। उसी प्रकार से भले ही पशु बोल नहीं सकते तो क्या हुआ, वे भी सैनी होने से सुख—दुःख का अनुभव तो करते ही हैं अतः मारने वाले के प्रति वैर भी बांध लेते हैं जिसके संस्कार जन्मान्तर तक चले जाते हैं। दूसरी बात मरने के बाद भी उसके माँस में प्रतिक्षण पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन जीव उत्पन्न होते रहने से वह जीव ही बना रहता है। यहां तक कि मांस सूख जाने के बाद जब चमड़े के जूते, चप्पल, बेल्ट, आदि बनते हैं उनमें भी हर पल त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं। अतः आधुनिक फैशन के प्रतीक इन वस्तुओं को भी अहिंसक व्यक्ति नहीं छूता है।
विमल—ये तो सब उपदेश के विषय हैं, आखिर यदि मांसाहारी लोग दुनिया में नहीं रहें तो पशुओं की संख्या बढ़—बढ़कर विश्व में समाएगी ही नहीं! पशु तो बने ही इसलिए हैं कि जीवों को उनका आहार मिल सके।
कमल-ओ हो, विमल! क्या हो गया है तुम्हारी बुद्धि को। तुम्हें कर्म सिद्धान्त का ज्ञान नहीं। सोचो तो सही, क्या बोल रहे हो, अपने पूर्व जन्म के शुभ—अशुभ कर्मों के फलस्वरूप तो संसार में मनुष्य, तिर्यंच आदि पर्यायें मिलती हैं उसमें भी हमने सद्बुद्धि प्राप्त करके यदि सत्कार्य नहीं किए तो न जाने कब तक इस संसार में भटकना पड़ेगा। पशु तो बेचारे अपने किये कर्मों का फल भोगते ही हैं। हम मनुष्य होकर हिताहित विवेक के ज्ञाता बनकर ऐसे निंद्य कार्य करें, शोभा नहीं देता। मानो मेरे मित्र! प्रकृति ने हमारे भोजन के लिए अन्न, फल, मेवा, दूध कितनी चीजें दी हैं जिसमें हम खूब पौष्टिकता प्राप्त करके भी शाकाहारी अहिंसक रह सकते हैं। गांधीजी ने अपनी जीवन गाथा में एक जगह वर्णन किया है—
‘एक बार मैंने अपने मित्र के अत्यधिक आग्रह से जीवन में पहली बार बकरे का मांस खाया। माता—पिता को बिना बताए चोरी से खाया तो सही किन्तु उस दिन मुझे बेहद बेचैनी रही। रात को भी सोते—सोते मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे पेट के अन्दर बकरा मे—मे की आवाज कर रहा है। मैं उस बकरे की मानो कराह से छटपटा उठा। धिक्कारा अपने जीवन को और प्रातःकाल ही पिताजी के पैरों में गिरकर अपनी चोरी बताई और दोष का प्रायश्चित मांगा। तब पिताजी ने कहा—तुम्हें स्वयं अपने पाप का भान हुआ है अतः मुझे विश्वास है कि तुम अपने जीवन में कभी भी ऐसा निंद्य कार्य नहीं करोगे। देखो! वे ही गांधी राष्ट्रपिता महात्मा बनकर सारे संसार को अहिंसा धर्म के मार्ग पर चलना सिखा गए ।
अरे क्या मांस ही है जिससे तुम बलवान बनोगे! बादाम खाकर दूध पियो और एक महीने में देखो कितनी शक्ति आती है।
विमल-अजी कहाँ वह शक्ति रखी है बादामों में, जो मांस और अण्डों में है। एक ही अण्डा रोज खाने से कितनी ताकत बढ़ती है।
कमल-ऐसी भी ताकत कोई ताकत है, जिसमें व्यर्थ ही जीवों की हिंसा हो। मनुष्य तो संसार में सर्वाधिक वीर पुरुष है। क्या वीर की वीरता निर्बल मूक पशुओं को मारने में और खाने में है। यह तो वीरता नहीं कायरता है। वीर पुरुष कभी भी अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होते।
विमल-अच्छा तो तुम अपने अहिंसक होने की डींग मारते हो। मैंने भी सब देख रखा है जब वैद्य जी के पास तुम लोग बीमारी में दवाई लेने जाते हो तब वे फलां पेड़ की छाल,जड़,पत्ती आदि का काढ़ा चूर्ण आदि बताते हैं तब उन्हें खाते पीते हो कि नहीं ? ये भी तो जीव घात से मिलते हैं, पेड़ की छाल उसके शरीर का माँस ही तो है। अरे! गुड़ खाए गुलगुले का परहेज करे, इसमें क्या रखा है?
कमल-पहले माँस की परिभाषा तो समझो क्या है ?
विमल-अच्छा तो बताओ परिभाषा ?
कमल-जिसमें खून,मज्जा,मेदा,चर्बी आदि सप्त धातुएं होती हैं उसको माँस कहते हैं। पेड़ तो एकेन्द्रिय हैं उसमें केवल स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, ये सप्त धातुएं नहीं होतीं इसलिए इन्हें माँस की संज्ञा नहीं है। वैसे एकेंद्रिय जीवों की हिंसा से भी पाप तो लगता ही है लेकिन श्रावक इस हिंसा से विरत नहीं हो सकता है। उसे तो गृहस्थी चलाने के लिए पंचसूना आरम्भ करना ही पड़ेगा। जल छानना, अग्नि जलाना, व्यापार करना इन सभी में तो स्थावर जीवों का घात होता है किन्तु शास्त्रों में ऐसा कहा है कि एकेंद्रिय जीव अग्नि, जल, वनस्पति आदि के घात की अपेक्षा दो इंद्रिय लट आदि की हिंसा में दोष अधिक होता है, दो इन्द्रिय से चींटी आदि तीन इन्द्रिय में हिंसा अधिक है, तीन इन्द्रिय से भौंरा आदि चार इन्द्रिय में अधिक दोष है, चार इन्द्रिय से पंचेंद्रिय जीवों की हिंसा में अधिक दोष है। पंचेंद्रिय में भी पशुओं की अपेक्षा मनुष्यों की हिंसा में, मनुष्यों में भी बालक, स्त्री में अधिक, इनसे भी अधिक दोष ब्राह्मण की हत्या करने से होता है जो नरक निगोद रूप अनन्त संसार में परिभ्रमण कराता है। दूसरी बात यह है विमल! फल, सब्जी, अनाज आदि का भोजन सात्विक होता है उसके खाने से मनुष्य की प्रकृति सात्विक रहती है और माँस खाने से प्रकृति तामस हो जाती है, मन में क्रूरता रहती है, किसी भी जीव के प्रति दया की भावना नहीं रहती है। जिससे इस लोक में भले ही कुछ क्षण के लिए सुख हो जावे किन्तु परलोक तो सर्वथा ही बिगड़ जाता है। एक सूक्ति है—
विमल—हाँ, हाँ, तुम्हारा कहने का मतलब यही तो है न, कि जो क्रिया अपने लिए प्रतिकूल है उसे दूसरे के प्रति भी नहीं करनी चाहिए। तो यह बताओ कमल! पहले भी राजा लोग शिकार करने जंगल में जाते थे और हिंसा करके मांसाहार करते थे तो क्या सभी नरक में ही जाते थे। तुम्हारी बात मुझे कुछ जचती नहीं है। मांसाहार की प्रथा कोई नवीन तो है नहीं, प्राचीन काल से चली आ रही है।
कमल—इस संसार में अनादिकाल से पाप और पुण्य दोनों चीजें चली आ रही हैं और इनको करने वाले जीव भी रहते ही हैं किन्तु बुरा कार्य तो बुरा ही है। चोर अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए चोरी करे इसका मतलब यह तो नहीं कि चोरी को धर्म कह दिया जाएगा। राजा महाराजा भी यदि पाप कार्य करते हैं तो उन्हें वैसा फल भोगना पड़ेगा। उनके कर्मबन्ध में कोई छूट थोड़े ही हो सकती हेै। सुनो मै तुम्हें एक कथा सुनाता हूं—
कुशाग्रह नाम के एक नगर में बक नाम का राजा रहता था। अशुभ कर्र्म के उदय से उसे माँसाहार करने की रुचि जागृत हो गई। वह अपने रसोइए से प्रतिदिन माँस पकवाता और आनन्दपूर्वक खाता। एक दिन रसोइए को कोई पशु का माँस प्राप्त न होने से एक छोटे बालक के मृत शरीर को लाकर उसके मांस को राजा के लिए पकाकर रख दिया।
विमल—अरे भगवान्! मनुष्य का माँस राजा ने खा लिया ?
कमल—हाँ विमल! यह जिह्वालोलुपता है ही ऐसी, जो बढ़ते-बढ़ते विवेक को पूर्ण रूप से शून्य करके मानव को राक्षस बना देता है। राजा को तो खैर पहले पता ही नहीं था कि यह किसका माँस है, भोजन करने के बाद उन्होंने रसोइए से पूछा—आज का माँस अधिक स्वादिष्ट है, किस पशु का है ? रसोइए ने राजा से अभयदान प्राप्त करके सच-सच बात बता दी। रसोइए को उम्मीद थी कि मनुष्य का माँस सुनकर राजा को क्रोध आयेगा किन्तु राजा को तो स्वाद का चस्का लग गया था अतः उसने मनुष्य का ही मांस प्रतिदिन पकाने को कहा। रसोइया बेचारा क्या करता वह ठहरा नौकर, राजाज्ञा का पालन करना उसका कर्तव्य था अतः उसने युक्ति सोची।
विमल—तब तो एक दिन सारे नगर का ही सफाया हो गया होगा ?
कमल—और होगा क्या ? जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो कौन बचाए प्रजा को। अब रसोइया प्रतिदिन शाम को नगर के बाहर कुछ पकवान—मिष्ठान आदि लेकर बैठता और छोटे-छोटे बालकों को बुलाता, बच्चे लालच से उसके पास आते। उनमें से ही किसी एक बालक को लाकर राजा का आहार बनाता। धीरे—धीरे राज्य में बालक कम होने लगे तब उनके माता-पिता को बड़ी चिन्ता हुई अतः प्रजा ने मिलकर विचार किया कि ये बच्चे जाते कहां हैं ? बहुत से लोग गुप्त रीति से इस विषय का अन्वेषण करने लगे।
एक दिन रसोइया पूर्ववत् बालकों को मिष्ठान देकर ज्यों ही एक बालक को पकड़कर ले जाने लगा, गुप्तचरों ने उसको पकड़ लिया। तब असली बात का पता लगा कि राजा ही अनीति कर रहा है अतः सारी प्रजा ने मिलकर राजा बक को देश निकाला दे दिया और उसके गोत्रीय पुरुष को राज्यिंसहासन पर बैठा दिया।
विमल-अच्छा तो इतना अपमान होने पर तो उस राजा ने मांस का त्याग कर दिया होगा ?
कमल-ना, वह कहां त्याग करने वाला था। अनेक दुःखों को भोगता हुआ बक श्मशान भूमि में जाकर मुर्दों का मांस खा—खाकर दिन बिताने लगा और अन्त में मरकर सातवें नरक में चला गया जहां अगणित दुख सहने पड़ते हैं।
विमल-भाई कमल! तुम्हारी बात तो मुझे बहुत समझ में आई कि जिव्हा लोलुपता से मांस खाना अनन्त दुखों का कारण है किन्तु एक बात तो बताओ कि यदि दवा के रूप में थोड़ा बहुत सेवन कर लिया जाए तो उसमें तो कोई दोष नहीं है ?
कमल-सुनो मेरे मित्र! मांस तो मांस ही है, वह किसी भी तरह से प्रयोग किया जाए दोषास्पद ही है। अरे सोचो कि एक जीव को मारकर यदि हमने स्वस्थता प्राप्त कर ली तो हममें कौन सी महानता व मानवता रह गई फिर यह तो सर्वथा भ्रान्ति है कि जीव का मांस खाने से पुष्टता आती है। हमने तो अभी कुछ दिन पहले ही अहिंसा सेमिनार में एक डाक्टर के भाषण में सुना है कि जिस पशु का मांस खाया जाता है वह पशु यदि किसी रोग से ग्रसित था तो खाने वाले व्यक्ति को पौष्टिकता की जगह मरण जैसे दुष्परिणाम भी भोगने पड़ते हैं इसलिए ऐसी जोखिम लेने से तो अच्छा है कि सेब, केला, मौसमी, अनार आदि सुस्वादु फल एवं बादाम, काजू, पिस्ता, मुनक्का आदि सूखे फलों को खाकर सात्विकता और पौष्टिकता प्राप्त करके धर्म की रक्षा भी की जाए।
विमल-अण्डा खाने में तो कोई दोष नहीं है। उसे तो शाकाहारी ही मानते हैं ?
कमल-तुम भी कैसे भोले हो विमल! किसी ने कह दिया और तुमने मान लिया। देखो,जिस अण्डे से मुर्गी—मुर्गा के जीव निकलते हैं वह भला मांस का पिण्ड नहीं है ? वह तो साक्षात् मल-मूत्र के पिण्ड रूप पंचेंद्रिय जीव का कलेवर है। यदि मुर्गों, कबूतर के अण्डों को छेड़ा न जाए तो अपने समयानुसार उसमें से जीव निकल आता है। यह तो केवल स्वार्थवश शाकाहारी परिभाषाएं बना दी हैं किन्तु हर दशा में अण्डा खाने वाला मांसाहारी ही है, वह कभी शाकाहारी नहीं बन सकता।
विमल-अच्छा कमल! अब मैं भी कभी इन चीजों का प्रयोग जीवन में नहीं करूंगा और तुम्हारे समान सदा शाकाहारी भोजन ही करूंगा।
कमल-मुझे बड़ी प्रसन्नता है इस बात की, तुम इसी प्रकार न जाने कितने लोगों को मांसाहार का त्याग कराकर सन्मार्ग पर लगा सकते हो। अपने पूर्वजों की ओर हम दृष्टि डालें तो देखो वे तो मांस और अंडे का नाम सुनने मात्र से भोजन छोड़ देते थे किन्तु आज हम लोगों की प्रवृत्ति कितनी हीन होती जा रही है। तभी तो कहा है-
हम सभी अपने जीवन में शुद्ध सात्विक आहार करके अपने भावों को शुद्ध बनाकर परमात्म पद की भी प्राप्ति कर सकते हैं।