वृहत्प्रत्याख्यानं व्याख्यातमिदानीं यदि भृशमाकस्मिकं सिंहव्याघ्राग्निव्याध्यादिनिमित्तं मरणमुपस्थितं स्यात् तत्र कस्मिन् ग्रन्थे भावना क्रियते इति पृष्टे तद्वस्थायां यद्योग्यं संक्षेपतरं प्रत्याख्यानं तदर्थं तृतीयमधिकारमाह-
एस करेमि पणामं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स।
सेसाणं च जिणाणं सगणगणधराणं च सव्वेसिं।।१०८।।
एस–एष आत्मन: प्रत्यक्षवचनमेतत् एषोऽहं अतिसंक्षेपरूपप्रत्याख्यानकथनोद्यत: एवं च कृत्वा नात्र संग्रहवाक्यं कृतं सामर्थ्यलब्धत्वात् तस्येति। करेमि–करोमि कुर्वे वा। पणामं–प्रणामं स्तुतिं। जिणवरवसहस्स–जिनानां वरा: प्रमतादि-क्षीणकषायपर्यन्तास्तेषां वृषभ: प्रधान: सयोगी अयोगी सिद्धो वा तस्य जिनवरवृषभस्य। वड्ढमाणस्स–वर्धमानस्य। सेसाणं च–शेषाणां च। जिणाणं–जिनानां सर्वेषां च। सगणगणधराणं च–सह गणेन यतिमुन्यृष्यनगार- कदम्बकेन वर्तते इति सगणास्ते च ते गणधराश्च सगणगणधरा: तेषां च श्रीगौतमप्रभृतीनां च। सव्वेसिं–सर्वेषां। एषोहं ग्रन्थकरणाभिप्राय:, जिनवरवृषभस्य वर्धमानस्य शेषाणां च जिनानां च सर्वेषां च सगणगणधराणां च प्रणामं कुर्वे अथवा सगणगणधराणां जिनानां विशेषणं द्रष्टव्यमिति।।१०८।।
वृहत्प्रत्याख्यान का व्याख्यान कर चुके हैं। अब यदि पुन: सिंह, व्याघ्र, अग्नि या रोग आदि के निमित्त से आकस्मिक मरण उपस्थित हो जाए तो उस समय किस ग्रन्थ में भावना करनी चाहिए ? ऐसा शिष्य के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उस अवस्था में जो संक्षेपतर–संक्षेप से भी संक्षेप प्रत्याख्यान उचित है उसे बतलाने के लिए आचार्य तीसरा अधिकार कहते हैं–
गाथार्थ–यहाँ मैं जिनवर में प्रधान ऐसे वर्धमान भगवान् को, शेष सभी तीर्थंकरों को और गणसहित सभी गणधर देवों को प्रणाम करता हूँ।।१०८।।
आचारवृत्ति–यहाँ ‘एष:’ शब्द स्वयं को प्रत्यक्ष कहने वाला है अर्थात् संक्षेपरूप से प्रत्याख्यान को कहने में उद्यत हुआ यह मैं कुन्दकुन्द आचार्य भगवान् महावीर आदि को नमस्कार करता हूँ। ‘एष:’ शब्द मात्र रख देने से यहाँ संग्रह वाक्य को नहीं लिया है क्योंकि वह अर्थापत्ति से ही आ जाता है। अर्थात् मैंने पहले वृहत्प्रत्याख्यान का निरूपण किया है सो ही मैं अब संक्षेप प्रत्याख्यान को कहूँगा ऐसा ‘एष:’ पद से जाना जाता है।
जिन–चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आदि में जो वर–श्रेष्ठ हैं ऐसे प्रमत्त गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त मुनि होते हैं। अर्थात छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मुनि जिनवर हैं उनमें जो वृषभ–प्रधान हैं व सयोग केवली, अयोग केवली अथवा सिद्ध परमेष्ठी जिनवर वृषभ कहलाते हैं। वर्धमान भगवान् जिनवर वृषभ हैं, शेष जिनों में तेईस तीर्थंकर अथवा समस्त अर्हन्त परमेष्ठी आ जाते हैं। ऋषि, मुनि, यति और अनगार इनके समूह का नाम गण है। गणों से सहित गणधरदेव सगण गणधर कहलाते हैं। अर्थात् श्री गौतमस्वामी आदि गणसहित गणधर हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ग्रन्थ के करने के अभिप्राय वाला यह मैं जिनवरों में प्रधान वर्धमान भगवान् को, शेष सभी जिनेश्वरों को और अपने-अपने गणसहित सभी गणधरों को प्रणाम करता हूँ। अथवा गण और गणधरों सहित सभी जिनेश्वरों को मैं नमस्कार करता हूँ–ऐसा भी अभिप्राय समझना चाहिए। इस अर्थ में ‘सगण गणधर’ यह विशेषण जिनेन्द्र का ही कर दिया गया है।
नमस्कारानन्तरमुररीकृतस्यार्थस्य प्रकटनार्थमाह–
सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च।
सव्वमदत्तादाणं मेहूणपरिग्गहं चेव।।१०९।।
प्रथमं तावत् व्रतशुद्धिं करोमीति। सव्वं पाणारंभं–सर्व निरवशेषं प्राणारम्भं हिंसां। पच्चक्खामि–प्रत्याख्यामि त्यजामि। अलीयवयणं च–व्यलीकवचनं च मिथ्यावादं च। सव्वं–सर्वं। अदत्तादाणं–अदत्तादानं। मेहुण–मैथुनं। परिग्गहं चेव–परिग्रहं चैव। प्राणारम्भं, मिथ्यावचनं, अदत्तादानं, मैथुनपरिग्रहौ च प्रत्याख्यामीति।।१०९।।
विशेषार्थ–‘हरिवंशपुराण’ में भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों के गणों की संख्या पृथक्-पृथक् बतलायी गयी है। पुन: सभी संख्या जोड़कर ही भगवान् के समवसरण के मुनियों की संख्या निर्धारित की गयी है। यथा ‘भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधर थे। उनमें से प्रथम गणधर इन्द्रभूति पुन: द्वितीयादि गणधर अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास इन नाम वाले थे। इनमें से प्रारम्भ के पाँच गणधरों की गण अर्थात् शिष्य-संख्या, प्रत्येक की दो हजार एक सौ तीस, उसके आगे छठवें और सातवें गणधर की गणसंख्या प्रत्येक की चार सौ पच्चीस, तदनन्तर शेष चार गणधरों की गणसंख्या प्रत्येक की छह सौ पच्चीस, इस प्रकार ग्यारह गणधरों की शिष्य-संख्या चौदह हजार थी। इन चौदह हजार शिष्यों में से तीन सौ मुनि पूर्व के धारी, नौ सौ विक्रियाऋद्धि के धारक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, पाँच सौ विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान के धारक, चार सौ परवादियों के जीतने वाले वादी और नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे। इस प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव भगवान् महावीर का, ग्यारह गणधरों से सहित चौदह हजार मुनियों का संघ नदियों के प्रवाह से सहित समुद्र के समान सुशोभित हो रहा था। (हरिवंश पुराण, सर्ग ३, श्लोक ४१-५०)
नमस्कार के अनंतर स्वीकृत किये अर्थ को प्रकट करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ–सम्पूर्ण प्राणिहिंसा को, असत्य वचन को, सम्पूर्ण अदत्त ग्रहण और मैथुन तथा परिग्रह को भी मैं छोड़ता हूँ।।१०९।।
टीका का अर्थ सरल है।
सामायिकव्रतस्वरूपनिरूपणार्थमाह–
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणइ।
आसाए वोसरित्ताणं समाधिं पडिवज्जए।।११०।
सम्मं–समस्य भाव साम्यं। मे–मम। सव्वभूदेसु–सर्वभूतेषु निरवशेषजीवेषु। वेरं–वैरं। मज्झं–मम। ण केणइ–न केनापि। आसाए–आशा आकांक्षा:। वोसरित्ताणं–व्युत्सृज्य। समाहिं–समाधिं शुभपरिणामं। पडिवज्जए–प्रतिपद्ये। यत: साम्यं मम सर्वभूतेषु वैरं मम न केनाप्यत आशा व्युत्सृज्य समाधिं प्रतिपद्ये इति।।११०।।
सामायिकव्रत के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–सभी प्राणियों में मेरा साम्यभाव है। किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं है, मैं सम्पूर्ण आकांक्षाओं को छोड़कर शुभ परिणामरूप समाधि को प्राप्त करता हूँ।।११०।।
इसकी टीका सरल है।
पुनरपि परिणाम की शुद्धि के लिए कहते हैं–
पुनरपि परिणामशुद्ध्यर्थमाह–
सव्वं आहारविहिं सण्णाओ आसए कसाए य।
सव्वं चेय ममत्तिं जहामि सव्वं खमावेमि।।१११।।
सर्वमाहारविधिं अशनपानादिकं संज्ञाश्चाहारादिका आशा इहलोकाद्याकांक्षा: कषायांश्च सर्वं चैव ममत्वं जहामि त्यजामि सर्वं जनं क्षामयामीति।।१११।।
द्विविधप्रत्याख्यानार्थमाह–
एदम्हि देशयाले उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्झं।
एदं पच्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा हुज्ज।।११२।।
एदम्हि–एतस्मिन्। देसयाले–देशकाले। उवक्कमो–उपक्रम: प्रवर्तनं अस्तित्वं। जीविदस्स–जीवितस्य। जइ मज्झं–यदि मम। एदं–एतत्। पच्चक्खाणं–प्रत्याख्यानं। णित्थिण्णे–निस्तीर्णे समाप्तिं गते। पारणा–आहारग्रहणं। हुज्ज–भवेत्। एतस्मिन् देशकाले सोपसर्गेऽभिप्रेते वा मध्ये यदि जीवितव्यं नास्ति चतुर्विधाहारस्यैतत् प्रत्याख्यानं मम भवेत् तस्ंिमस्तु देशकाले निस्तीर्णे जीवितव्यस्योपक्रमे च सति पारणा भवेदिति संदेहावस्थायामेतत्।
निश्चयावस्थायां तु पुनरेतदित्याह–
सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामि पाणयं वज्ज।
उवहिं च वोसरामि य दुविहं तिविहेण सावज्जं।।११३।।
सव्वं–सर्वं निरवशेषं। आहारविहिं–भोजनविधिं। पच्चक्खामि–प्रत्याख्यामि। पाणयं वज्ज–पानकं वर्जयित्वा। उवहिं च–उपधिं च। वोसरामि य–व्युत्सृजामि च। दुविहं–द्विविधं बाह्याभ्यन्तरलक्षणं। तिहिवेण–त्रिविधेन मनोवचनकायेन। सावज्जं–सावद्यं पापकारणं। पानकं वर्जयित्वा सर्वमाहारविधिं प्रत्याख्यामि, बाह्याभ्यन्तरोपधिं च व्युत्सृजामि द्विविधं त्रिविधेन सावद्यं च यदिति।।११३।।
गाथार्थ–सर्व आहार विधि को, आहार आदि संज्ञाओं को, आकांक्षाओं और कषायों को तथा सम्पूर्ण ममत्व को भी मैं छोड़ता हूँ तथा सभी से क्षमा कराता हूँ।।१११।।
आचारवृत्ति–अशन, पान आदि सम्पूर्ण आहारविधि को, आहारभय आदि संज्ञाओं को, इसलोक तथा परलोक आदि की आकांक्षारूप सभी आशाओं को, कषायों को और सम्पूर्ण ममत्व को मैं छोड़ता हूँ तथा सभी जनों से मैं क्षमा कराता हूँ।
दो प्रकार के प्रत्याख्यान बताते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा तो इस प्रत्याख्यान की समाप्ति करके मेरी पारणा होगी।।११२।।
आचारवृत्ति–इस देश-काल में उपसर्ग के प्रसंग में यदि मेरा जीवन नहीं रहेगा तो मेरे यह चतुर्विध आहार का त्याग है और यदि उस-देश काल में उपसर्ग आदि का निवारण हो जाने पर जीवन का अस्तित्व रहता है तो मैं आहार ग्रहण करूँगा। जीवित रहने का जब संदेह रहता है तब साधू इस प्रकार से प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं।
और जब मरण होने का निश्चय हो जाता है तो पुन: क्या करना चाहिए ?
गाथार्थ–पेय पदार्थ को छोड़कर सम्पूर्ण आहारविधि का मैं त्याग करता हूँ और मन, वचन,काय- पूर्वक दोनों प्रकार की उपधि (परिग्रह) का भी त्याग करता हूँ।।११३।।
टीका अर्थ सरल है।
उत्तमार्थार्थमाह–
जो कोइ मज्झ उवही सब्भंतरवाहिरो य हवे।
आहारं च सरीरं जावज्जीवा य वोसरे।।११४।।
जो कोइ–य: कश्चित्। मज्झ उवही–ममोपधि: परिग्रह:। सब्भंतरवाहिरो य–साभ्यन्तरबाह्यश्च। हवे–भवेत्। तं सर्वं। आहारं च–चतुर्विकल्पभोजनं शरीरं च। जावज्जीवा य–जीवं जीवितव्यमनतिक्रम्य यावज्जीवं यावच्छरीरे मम जीव इत्यर्थ:। वोसरे–व्युत्सृजे। य: कश्चित् मम सबाह्याभ्यन्तरोपधिर्भवेत् तं आहारं शरीरं च यावज्जीवं व्युत्सृजेदित्यर्थ:।।११४।।
आगमस्य माहात्म्यं दृष्ट्वोत्पन्नहर्षो नमस्कारमाह–
जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं।।११५।।
जं–यत्। आलीणा–आलीना आश्रिता:। जीवा:–प्राणिन:। तरंति–प्लवंते पारं गच्छंति। संसारसायरं–संसरणं संसार: स एव सागर: समुद्र: संसारसागरस्तं। अणंतं–न विद्यतेऽन्तो यस्यासौ अनंतस्तं अपर्यन्तं। तं-तत्। सव्वजीवसरणं–सर्वे च ते जीवाश्च सर्वजीवास्तेषां शरणं सर्वजीवशरणं। णंददु–नंदतु वृद्धिं गच्छतु। जिणसासणं–जिनशासनं। सुइरं–सुचिरं सर्वकालं। यज्जिनशासनमाश्रिता: जीवा: संसारसागरं तरन्ति तत्सर्वजीवशरणं नन्दतु सर्वकालं, यदनुष्ठानान्मुक्तिर्भवति तस्यैव नमस्कारकरणं योग्यमिति।।११५।।
आराधनाफलार्थमाह–
जा गदी अरहंताणं णिट्ठिदट्ठाणं च जा गदी।
जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा१।।११६।।
याख्यातार्था गाथेयं। अर्हतां च या गति: निष्ठितार्थानां वीतमोहानां च या गति: सा मे भवतु सर्वदा नान्यद्याचेऽहमिति।
सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा, चतुर्विधाहारं च परित्यज्य जिनं हृदये कृत्वा किमर्थं म्रियते चेदत: प्राह–
अब उत्तमार्थ विधि को कहते हैं–
गाथार्थ–जो कुछ भी मेरा अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रह है उसको तथा आहार और शरीर को मैं जीवन भर के लिए छोड़ता हूँ।।११४।।
टीका अर्थ सरल है।
अब आगम के माहात्म्य को देखकर हर्षित चित्त होते हुए नमस्कार करते हैं–
गाथार्थ–जिसका आश्रय लेकर जीव अनन्त संसार समुद्र को पार कर लेते हैं, सभी जीवों का शरणभूत वह जिनशासन चिरकाल तक वृद्धिंगत होवे।।११५।।
आचारवृत्ति–संसरण का नाम संसार है। वह संसार ही एक समुद्र है और उसका अन्त–पार न होने से वह अनन्त है अर्थात् सर्वज्ञ देव के केवलज्ञान का ही विषय है। जिस जिनशासन के आश्रय लेने वाले जीव ऐसे अनन्त संसार-समुद्र को भी पार कर जाते हैं वह सभी जीवों को शरण देने वाला जिनेंद्रदेव का शासन हमेशा वृद्धि को प्राप्त होता रहे। अर्थात् जिसके अनुष्ठान से मुक्ति होती है उसी को नमस्कार करना योग्य है ऐसा यहाँ अभिप्राय है।
अब आराधना का फल बताते हुए कहते हैं–
गाथार्थ–अर्हन्तों की जो गति है और सिद्धों की जो गति है तथा वीतमोह जीवों की जो गति है वही गति मेरी सदा होवे।।११६।।
सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके तथा चार प्रकार के आहार को भी छोड़कर जिनेन्द्रदेव को हृदय में धारण करके ही क्यों मरण करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–
एगं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाणि बहुगाणि।
तं मरणं मरिदव्वं जेण भदं सुम्मदं होदि।।११७।।
इयं१ च व्याख्यातार्था गाथेति। यत: एकं पंडितमरणं जातिशतानि बहूनि छिनत्ति येन च मरणेन न पुनर्म्रियते किन्तु सुमृतं भवति पुनर्नोत्पद्यते तन्मरणमनुष्ठेयमिति।
मरणकाले समाधानार्थमाह–
एगम्हि य भवगहणे समाहिमरणं लहिज्ज जदि जीवो।
सत्तट्ठभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि।।११८।।
एकस्मिन् भवग्रहणे समाधिमरणं यदि लभते जीवस्तत: सप्ताष्टभवग्रहणेषु व्यतीतेषु निश्चयेन निर्वाणमनुत्तरं लभते यतस्तत: समाधिमरणमनुष्ठीयते इति। शरीरे सति जन्मादीनि दु:खानि यतस्तत: सुमरणेन शरीरत्याग: कर्तव्य:।
कानि जन्मादीनि दु:खानीत्याह–
णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खं।
जम्मणमरणादंकं छिंदि ममत्तिं सरीरादो।।११९।।
मरणसमं–मृत्युसदृशं भयं जीवस्य नान्यत्, जन्मनोत्पत्त्या समकं च दु:खं च न विद्यते। यतोऽतो जन्ममरणान्तकं। छिंदि–विदारय। शरीरतश्च ममत्वं छिंधि। शरीरे सति यत: सर्वमेतदिति।
गाथार्थ–एक ही पण्डितमरण बहुविध सौ-सौ जन्मों को समाप्त कर देता है। इसलिए ऐसा मरण प्राप्त करना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जावे।।११७।।
आचारवृत्ति–इस गाथा का अर्थ पहले किया जा चुका है। जिस कारण एक पण्डितमरण अनेक प्रकार के सैकड़ों भवों को नष्ट कर देता है और जिस मरण के द्वारा मरण प्राप्त करने से पुन: मरण नहीं होता है किन्तु सुमरण हो जाता है अर्थात् पुन: जन्म ही नहीं होता है उस पण्डितमरण का ही अनुष्ठान करना चाहिए।
मरणकाल में समाधानी करते हुए आचार्य कहते हैं–
गाथार्थ–यदि जीव एक भव में समाधिमरण को प्राप्त कर लेता है तो वह सात या आठ भव लेकर पुन: सर्वश्रेष्ठ निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।।११८।।
आचारवृत्ति–एक भव में समाधिमरण के लाभ से यह जीव अधिक से अधिक सात या आठ भव में नियम से मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसीलिए समाधिमरण का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि शरीर के होने पर ही जन्म आदि दु:ख होते हैं इसीलिए सुमरण से ही शरीर का त्याग करना चाहिए।
जन्म आदि दु:ख क्या हैं ? सो बताते हैं–
गाथार्थ–मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्म के समान अन्य कोई दु:ख नहीं है अत: जन्म-मरण के कष्ट में निमित्त ऐसे शरीर के ममत्व को छोड़ो।।११९।।
आचारवृत्ति–इस जीव के लिए मरण के सदृश तो कोई भयकारी नहीं है और जन्म लेते समय के सदृश अन्य कोई दु:ख नहीं है। इसीलिए जन्म तथा मरण के आतंक का छेदन करो और शरीर-ममत्व को भी छोड़ो, क्योंकि शरीर के होने पर ही ये सब जन्म-मरण आदि दु:ख हैं।
त्रीणि प्रतिक्रमणानि आराधनायामुक्तानि तान्यत्रापि संक्षिप्ते काले संभवंतीत्याह–
पढमं सव्वदिचारं बिदियं तिविहं भवे पडिक्कमणं।
पाणस्स परिच्चयणं जावज्जीवायमुत्तमट्ठं च।।१२०।।
क्रमप्रतिपादनार्थं चैतत्। पढमं–प्रथमं। सव्वदिचारं–सर्वातिचारस्य तप:कालमाश्रित्य दोषविधानस्य। विदियं–द्वितियं। तिविहं–त्रिविधाहारस्य। भवे–भवेत्। पडिक्कमणं–प्रतिक्रमणं। परिहरणं। पाणस्स–पानकस्य। परिच्चयणं–परित्यजनं। यावज्जीवायं–यावज्जीवं। उत्तमट्ठ य–उत्तमार्थं च तन्मोक्षनिमित्तमित्यर्थ:। प्रथमं तावत्सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणं, द्वितीयं प्रतिक्रमणं त्रिविधाहारस्य, तृतीयमुत्तमार्थं पानकस्य परित्यजनं यावज्जीवं चेति तस्मिन् काले त्रिविधं प्रतिक्रमणमेव न केवलं किन्तु योगेन्द्रियशरीरकषायाणां च। तत्र त्रिविधस्य योगस्य निग्रहो योगप्रतिक्रमणं, पंचेन्द्रियाणां च निग्रह इन्द्रियप्रतिक्रमणं, पंचविधस्य च शरीरस्य च त्याग: कृशता वा शरीरप्रतिक्रमणं, षोडशविधकषायस्य नवविधस्य च नोकषायस्य निग्रह: कृशता कषायप्रतिक्रमणं, हस्तपादानां च।।१२०।।
आराधना में तीन ही प्रतिक्रमण कहे गये हैं। अकस्मात् होने वाले मरण के समय सम्भव उन्हीं को यहाँ पर भी संक्षिप्त से कहते हैं–
गाथार्थ–पहला सर्वातिचार प्रतिक्रमण है। दूसरा त्रिविध आहारत्याग प्रतिक्रमण है। यावज्जीवन पानक आहार का त्यागना यह उत्तमार्थ नाम का तीसरा प्रतिक्रमण होता है।।१२०।।
आचारवृत्ति–क्रम को बतलाने के लिए यह गाथा है। दीक्षाकाल का आश्रय लेकर आज तक जो भी दोष हुए है उन्हें सर्वातिचार कहा गया है। सल्लेखना ग्रहण करके यह क्षपक पहले सर्वातिचार प्रतिक्रमण करता है। पुन: तीन प्रकार के आहार का त्याग करना द्वितीय प्रतिक्रमण है और अन्त में यावज्जीवन मोक्ष के लिए पानक वस्तु का भी त्याग कर देना सो उत्तमार्थ नामक तृतीय प्रतिक्रमण कहलाता है।
अर्थात् प्रथम सर्वातिचार प्रतिक्रमण, द्वितीय त्रिविधाहार का प्रतिक्रमण और तृतीय यावज्जीवन पानक के त्यागरूप उत्तमार्थ प्रतिक्रमण, ये तीन प्रतिक्रमण ही केवल नहीं हैं किन्तु योग, इन्द्रिय, शरीर और कषायों के प्रतिक्रमण भी होते हैं। उनमें से तीन प्रकार के योगों का निग्रह करना योग प्रतिक्रमण है, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना इन्द्रिय प्रतिक्रमण है, पाँच प्रकार के शरीर का त्याग करना अथवा उन्हें कृश करना शरीर प्रतिक्रमण है, सोलह भेदरूप कषायों और नव नोकषायों का निग्रह करना–उन्हें कृश करना यह कषाय प्रतिक्रमण है। हाथ-पैरों का भी प्रतिक्रमण होता है।
ननु कषायशरीरसल्लेखना आराधनायां आगमे कथिता, एतेषां पुनर्योगेन्द्रियहस्तपादानां न श्रुता, नैतत्, एतेषां चागमेऽस्तीत्याह–
पंचवि इंदियमुंडा वचमुंडा हत्थपायमणमुंडा।
तणुमुंडेण वि सहिया दस मुंडा वण्णिया समए।।१२१।।
पंचानामपि इन्द्रियाणां मुण्डनं खण्डनं स्वविषयव्यापारान्निवर्तनं। वचिमुण्डा–वचनस्याप्रस्तुतप्रलापस्य खण्डनं। हस्तपादमनसां वाऽसंस्तुतसंकोचप्रसारणचिन्तननिवर्तनं तत: शरीरस्य च मुण्डनं एते दश मुण्डा: समये वर्णिता यतोऽतो न स्वमनीषया व्याख्यानमेतदिति। अथवा एतैर्मुण्डैर्मुण्डधारीभवति नान्यै: सावद्यैरिति।
।।इत्याचारवृत्तौ वसुनन्दिविरचितायां तृतीयं परिच्छेद:।।३।।
भावार्थ–सल्लेखना करने वाले क्षपक के लिए उपर्युक्त तीन प्रतिक्रमण तो हैं ही, किन्तु योग, इन्द्रिय आदि का निग्रह करना और हाथ-पैरों को उनकी चेष्टाएँ रोक कर स्थिर करना ये सब प्रतिक्रमण ही हैं।
आगम में, आराधना में कषाय सल्लेखना और काय सल्लेखना का वर्णन किया है किन्तु इन योग, इन्द्रिय और हस्त-पाद आदि का प्रतिक्रमण तो मैंने नहीं सुना है, शिष्य के द्वारा ऐसी आशंका उठाने पर आचार्य कहते हैं – ऐसी बात नहीं है। इन योग, इन्द्रिय आदि के प्रतिक्रमण का वर्णन भी आगम में है, सो ही बताते हैं-
गाथार्थ–पाँच इन्द्रियमुण्डन, वचनमुंडन और शरीरमुण्डन से सहित हस्त, पाद एवं मनोमुण्डन ऐसे दश मुण्डन आगम में कहे गये हैं।।१२१।।
आचारवृत्ति–पाँचों ही इन्द्रियों का मुण्डन करना–खंडन करना अर्थात् अपने विषयों के व्यापार से उन्हें अलग करना ये पाँच इन्द्रियमुण्डन हैं। अप्रासंगिक प्रलापरूप वचन का खण्डन करना या रोकना वचनमुण्डन है। हस्त और पाद का अप्रशस्तरूप से संकोचन नहीं करना और न फैलाना ये हस्तमुण्डन और पादमुण्डन हैं तथा मन को अप्रशस्त चिन्तन से रोकना यह मनोमुण्डन है। ऐसे ही शरीर का मुण्डन है। मुण्डन के ये दश भेद आगम में कहे गये हैं। इनका व्याख्यान हमने अपनी बुद्धि से नहीं किया है ऐसा समझना। अथवा इन दश मुण्डनों से मुण्डधारी मुण्डित कहलाते हैं, न कि अन्य सदोष प्रवृत्तियों से।
भावार्थ–शिर को मुण्डा कर लेने या केशलोंच कर लेने मात्र से ही कोई मुण्डित नहीं हो जाते हैं जब तक कि इन दश प्रकार के मुण्डन से सहित नहीं है ऐसा अभिप्राय है। इसलिए इन्द्रियों का नियन्त्रण और हाथ-पैर तथा शरीर की अप्रशस्त क्रियाओं का रोकना एवं मन में अशुभ परिणामों का नहीं होने देना ये सब संयम शिरोमुण्डन के साथ-साथ ही आवश्यक हैं।
इस प्रकार से श्री कुन्दकुन्द आचार्य विरचित मूलाचार ग्रन्थ की श्री वसुनन्दि
आचार्य कृत ‘आचारवृत्ति’ नामक टीका में तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।