विजय-अरे अजय! तुमने आज अपनी कैसी हालत बना रखी है ? आखिर तुम्हें हुआ क्या है ? जो पागलों जैसी दशा हो रही है।
अजय-ऐं ऽऽ-क्या कहा ? पागल तो तुम होंगे। अब मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं करूंगा। मुझे तो अब बहुत अच्छ दोस्त मिल गया है उसके साथ बड़ा मजा आता है। आ हा हा हा़…..
विजय-वाह गुरू! मैं समझ गया कि तुम असली नशे में हो। शराबी आदमी की दोस्ती शराब पीना ही तो सिखाएगी। अब तुम्हें मेरी संगति क्यों अच्छी लगेगी।
अजय-तो क्या शराब पीना कोई खराब बात है ? इसमें तो आदमी सारा दुःख—शोक भूलकर मस्त हो जाता है। अरे तुम क्या जानो कितना मजा आता है ?
विजय-अरे! दुःख—शोक भूल कर नहीं निज आत्मतत्व को भूलकर इन्द्रिय विषयों में उन्मत्तता आती है। हे भगवान् ! इस शराब ने तो आज तक न जाने कितने परिवार तबाह कर दिये हैं।
अजय-क्यों ! ऐसी बात तो नहीं है, मैं देखता हूं कि शराब की दुकानों पर कितने सारे लोगों की भीड़ लगी रहती है तो क्या सबके परिवार तबाह हो गये हैं। शराब का परिवार से क्या मतलब ? वह तो अपने मजे के लिए पी जाती है।
विजय-हाँ, हाँ, यह तो मैं भी मानता हूं कि शराब अपने मजे के लिए पीते हैं किन्तु उसका चस्का लगने के बाद आदमी को प्रतिदिन और दिन में भी कई-कई बार पीने का मन होता है, जिसके कारण वे पैसे को पैसा नहीं समझते और घर में चाहे बच्चे भूखे मर रहे हों लेकिन उसे अपनी शराब के लिए पैसे अवश्य चाहिये।
अजय-खैर ! यह तो बेकार की बात है। जिसके पास पैसा नहीं होगा वह क्या पियेगा ? अरे विजय! भगवान् सब व्यवस्था किसी न किसी तरह बना ही देता है।
विजय-भगवान को क्यो दोष दो, वह तो बेचारे वीतरागी हैं। तुम कहते हो अजय कि जिसके पैसा नहीं होगा वह क्या पियेगा ? यह तो व्यसन ही ऐसा है जो पैसा समाप्त हो जाने पर पत्नी के जेवर पर हाथ डालता है, यदि वह न देवे तो उसे मारपीट कर प्राप्त करता है और भी न जाने कितने दुष्कृत्यों को करता हुआ चोरी,डकैती,वेश्यासेवन आदि सब कुछ करने लगता है, जिससे अच्छे-अच्छे परिवार बर्बाद हो जाते हैं। मेरा तो यही कहना है कि तुम इसे बिलकुल छोड़ दो।
अजय-अरे दोस्त! तुम कैसी बातें करते हो ? देखो! मैं बीमार बना रहता था और अभी २-४ दिन से ही पीना शुरू किया है बिलकुल ठीक हो गया हूं। इससे तो बदन में चुस्ती आती है। जरा एक बार पीकर तो देखो।
विजय-अरे राम—राम! तुम पागल तो नहीं हो गये हो, मैं शराब जैसे पाप का नाम भी नहीं सुनना चाहता। वह तो तुम्हें उस कुमार्ग से बचाने के लिए मैं अपनी जीभ से उसका नाम लेता हूं वर्ना तो नाम लेना भी पाप है। तुम्हारे ऊपर अभी नया—नया नशा है इसीलिये तुम्हें उसमें गुण ही दिखते हैं जबकि शराब पीकर व्यक्ति भले ही कुछ क्षण के लिए अपने शरीर में चुस्ती का अनुभव करे किन्तु जैसे ही उसका नशा उतरता है तब वही व्यक्ति अपने को इतना निढाल और कमजोर महसूस करता है जैसे महीनों से बीमार हो। तो सोचो, ऐसी क्षणिक चुस्ती और मादकता से क्या लाभ, जो भविष्य में आदमी की अन्तश्चेतना तक को बीमार कर दे।
अजय-विजय! लगता है तुमने भी कभी न कभी शराब का स्वाद अवश्य चखा है तभी इस प्रकार की अनुभूतियां बता रहे हो, यह बात तो बिलकुल सत्य है कि नशा उतरने के बाद बहुत कमजोरी महसूस होती है किन्तु तत्काल पीते ही फिर चुस्ती आ जाती है और घर जाने का मन ही नहीं करता। वहां तो आटा, दाल, नमक लाने की चिन्ता करनी पड़ती है जो मेरे बस की बात नहीं है । मै सोचता हूं कि इसी तरह मस्ती की जिन्दगी कटती रहे तो कितना अच्छा है।
विजय-अरे मेरे बेवकूफ मित्र! कब तक मस्त रहोगे। जिस दिन पैसा समाप्त हुआ उसी दिन वहां से भगा दिए जाओगे। मैंने शराब चखने की बात तो दूर कभी ऐसी संगति भी नहीं की है। हाँ! पीने वालों के बिगड़ते परिवार को देखा अवश्य है। सुनो विजय! यह शराब फेफड़ों को खोखला कर देती है, इससे कैंसर, टी़ वी जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदर की पूर्ति तो आटा-दाल से ही होगी, शराब तो मादक वस्तुओं को सड़ाकर बनाने के कारण उसमें मादकता आ जाती है।
अजय-मुझे तो नहीं लगता कि मैं शराब त्याग कर सकता हूँ क्योंकि इससे मुझे शान्ति मिलती है।
विजय-अजय! यह तुम्हारा भ्रम है। तुमने पुराण शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है इसीलिए तुम्हें पता नहीं कि इस लोक और परलोक दोनों में शारीरिक एवं आत्मिक दोनों दृष्टियों से यह मानव को निर्बल बनाती है।
अजय-पुराणों में तो न जाने क्या—क्या शिक्षाएं लिखी हैं सबका तुम पालन करते हो? उसमें तो कहा है कि कुछ भी न करके आत्मा का ध्यान करो तो क्या तुम आत्मध्यान में लवलीन रहते हो ?
विजय-अरे भाई! जब आत्मध्यान करने की योग्यता आ जाती है तभी किया जाता है। उससे पहले महापुरुषों के चारित्र पढ़ना चाहिए। मैं तुम्हें एक उदाहरण सुनाऊँ तो तुम रोमाँच करोगे कि इस शराब को पीकर यादवों ने एक आत्मध्यानी की तपस्या भंग कर दी जिसके कारण उन्हें गुस्सा आ गया और गुस्से के फलस्वरूप सारा नगर जलाकर भस्म कर दिया।
अजय-ओहो! मुनियों को भी इतना गुस्सा आता है क्या ? जरा सुनाओ तो सही।
विजय-भगवान नेमिनाथ के समय की बात है। उनकी दिव्यध्वनि से यह बात बलदेव और श्रीकृष्ण को ज्ञात हुई कि आज से बारह वर्ष बाद द्वीपायन मुनि के द्वारा यह द्वारिका नगरी भस्म की जाएगी। उसके अन्य और कारणों को जान करके उन्होंने नगरी में आकर घोषणा कर दी कि सभी लोग मदिरा और उसको बनाने की सारी सामग्री कादम्ब पर्वत की गुफा में फैक आवें। सारी प्रजा ने ऐसा ही किया।
अजय-अरे, इतनी जल्दी सबने शराब छोड़ दी ?
विजय-और क्या ? वहां कोई समझाने की बात थोड़े थी । राजतन्त्र में तो राजा की आज्ञा ही प्रधान होती है। आगे सुनो- द्वीपायन मुनि भी इस बात को जानकर द्वारिका से बहुत दूर जाकर ध्यान में लीन हुए। उस ध्यान के प्रभाव से उन्हें तैजस ऋद्धि प्राप्त हो गई।
अजय-यह तैजस ऋद्धि क्या होती है ?
विजय-यह जिसको प्रगट हो जाती है, वह यदि किसी प्राणी का हित करना चाहे तो उसके दाहिने कन्धे से एक शुभ तैजस का पुतला निकलकर उस प्राणी का कष्ट दूर करके पुनः उन्हीं मुनि के शरीर में आ जाता है और यदि इसी प्रकार उन मुनि को किसी के ऊपर क्रोध आ जावे तो बाएँ हाथ से अशुभ तैजस पुतला निकलकर उस व्यक्ति को भस्म करके स्वयं मुनि को भी भस्म कर देता है।
अजय-अरे भगवान् ! मुनि को भी जला देता है ?
विजय-हां, क्रोध तो सभी के लिए बुरा है, फिर तैजस पुतले का जो कार्य है वही तो करेगा। आगे फिर सुनो क्या हुआ ? जब बारह वर्ष बीत गए तब संयोगवश द्वीपायन मुनि फिर विहार करते हुए उसी द्वारिका नगरी के बाहर कादम्ब पर्वत के समीप आकर ध्यान करने लगे। उसी समय वनक्रीड़ा से थके एवं प्यास से पीड़ित शम्बु आदि कुमारों ने उस शराब को जल समझकर पी लिया और मदिरा के नशे में चूर वे सभी कुमार अश्लील गीत गाने लगे और यद्वा—तद्वा चेष्टा करने लगे। चारों तरफ घूमते-घूमते उन लोगों ने द्वीपायन मुनि को देखकर कहा—यह वही मुनि है जो हमारी नगरी का नाश करेगा, इसे मारो-मारो। इतना कहकर उन कुमारों ने निर्दयतापूर्वक मुनि के ऊपर पत्थर मारने शुरू कर दिये।
अजय-फिर क्या हुआ ? मेरे ख्याल में उन कुमारों को ऐसा नहीं करना चाहिए था। यह तो मुनि के क्रोध भड़काने वाली बात ही थी।
विजय-अजय, मैं यही तो कहता हूं कि शराब का नशा ही ऐसा होता है। वे कुमार जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे थे, नशे में चूर उन्हें हित—अहित थोड़े ही दिख रहा था। जो भगवान ने बताया था उसी के अनुसार कार्य हुआ। काफी देर तक तो मुनिराज ने चोटें सहन कीं फिर उनका क्रोध भड़क उठा कि ये लोग बिना कारण मुझे मार रहे हैं और तीव्र क्रोध उत्पन्न होते ही उनके बाएं कन्धे से अशुभ तैजस पुतला निकला, जिसने क्षण मात्र में द्वारिका नगरी को भस्म करके मुनि को भी भस्म कर दिया, जिसके कारण वे भी नरक में चले गये।
अजय-अच्छा ! यह घोर हत्याकांड।
विजय-हाँ, देखो! यदि उन कुमारों ने शराब नहीं पी होती तो यह कांड थोड़े ही होता। कुछ लोगों के शराब पीकर मुनि को कष्ट देने पर सारे नगर के लोगों को महान् कष्ट उठाना पड़ा, शराब पीना कभी भी हितकारी नहीं हो सकता । अगले भव में नरक में जाने पर इस पाप के फलस्वरूप लोहे को गरम कर—करके उसे पिलाया जाता है और न जाने कितने कष्ट भोगने पड़ते हैं । अरे! अपनी भारतीय संस्कृति आर्य संस्कृति है। अनार्यों के कार्य हमें कभी नहीं करने चाहिए ।
अजय-अच्छा दोस्त! तुमने मुझे इतनी अच्छी तरह से समझाया है, अब मैं शराब का सेवन अपने जीवन में नहीं करूंगा। अब तो तुम खुश हो ना ?
विजय-खुश नहीं, अति खुश। इस खुशी के उपलक्ष्य में चलो आज मेरे घर ही तुम्हारी दावत होगी। अच्छा,चलो चलें।