चतुर्थ व्यसन वेश्या सेवन है, यह परभव से पूर्व इसी जन्म में नरक का द्वार दिखा देता है। स्त्री जाति का सबसे बड़ा अभिशाप वेश्यावृत्ति है, ऐसी कुल्टा स्त्रियों को ही विष की बेल कहा गया है। उन्हें गणिका, लज्जिका, विलासिनी, वेश्या आदि नामों से संबोधित किया गया है। जिन ग्राम-नगर और शहर की गलियों में वेश्यालय (कोठा) होते हैं वहाँ गाँव के प्रतिष्ठित पुरुष समाज का आवागमन भी निन्दा का कारण बनता है। नारी की परतन्त्रता, उसके अबलापने का दुरुपयोग करके आज भी अनेक स्थानों पर, होटलों में ये कोठे धन्धे के रूप में चलाए जा रहे हैं, जो कि अवैधानिक होते हुए रिश्वतखोरी के बल पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। नारियों को सरकारी स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु सबल कार्यवाही करनी चाहिये क्योंकि वर्तमान में ग्रामपंचायत, नगरपालिका, कलेक्टे्रट, शासन और प्रशासन आदि प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को सरकार समान रूप से अधिकार प्रदान कर रही है अतः पढ़ी—लिखी महिलाओं को इस ओर सक्रिय कदम उठाकर अपने नगर-शहरों के वेश्यालय बन्द कराना चाहिये। जो अविवेकिनी स्त्रियाँ तीव्र लोभ के वश में होकर वेश्यावृत्ति को अंगीकार करती हैं और अपने कौमार्य को, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं लज्जा को तथा अपने अमूल्य शीलव्रत को पैसे के कारण नीच-भोगी-दरिन्दों के हाथ बेच देती हैं ऐसी स्त्रियाँ तो असंख्य भवों में नरक-निगोदों के दुःख भोगती हैं, इनका सेवन करने वाले पुरुष भी निंद्य बन जाते हैं। जो पुरुष एक बार भी इनके जाल में फंस जाता है उसका निकलना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है। इस विषय में एक कवि ने कहा भी है—
दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शात् हरते बलम्। भोगात् हरते वीर्यं, वेश्या साक्षात् राक्षसी।।
अर्थात् इनको देखने मात्र से चित्त का हरण होता है (मन उन पर मोहित हो जाता है), इनके स्पर्श से बल का हरण होता है (पुरुष निर्बल होकर उसी के वश में हो जाता है) और इनके साथ कामसेवन करने से वीर्य का हरण होता है अतएव वेश्या साक्षात् राक्षसी है क्योंकि यह अपने आधीन हुए पुरुषों का सम्पूर्ण धन चूस कर उन्हें मृत्यु तक की स्थिति में पहुँचा देती है। ये अपवित्रता की भूमि और विष की बेल हैं। जैसा कि कहा भी है—
दृष्टि विषा यह नागिनी, देखत विष चढ़ जाय। जीवत काढ़े प्राण को, मरे नरक ले जाय।।
हीन दीन में लीन हैं, लेती अंग मिलाय। लेती सरवस सम्पदा, देती रोग लगाय।।
इनका अज्ञात अवस्था में भी सेवन करने वाले चारुदत्त सेठ का कथानक पुराणों में बहुत प्रसिद्ध है इसे पढ़कर इस व्यसन को दूर से तजकर शीलव्रत का आश्रय प्राप्त करना चाहिये। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की चम्पानगरी का यह कथानक है। वहाँ के राजा विमलवाहन थे, उनके राज्य में भानुदत्त नाम का एक सेठ अपनी पत्नी देविला के साथ धर्मध्यानपूर्वक निवास करता था। बहुत दिनों तक प्रतीक्षा के पश्चात् उन श्रेष्ठी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया—चारुदत्त। भानुदत्त ने पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में बहुत उत्सव किया, दान दिया और अपने को धन्य समझा। पुत्र अपने समय के अनुसार बड़ा होने लगा और बाललीलाओं से माता-पिता को हर्षित करने लगा। चारुदत्त की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी तथा गुरु की कृपा से ७-८ वर्ष की अवस्था में ही इसने अच्छी विद्वत्ता प्राप्त कर ली। युवावस्था प्राप्त होते-होते इसमें शास्त्र, अध्ययन का अपूर्व व्यसन लग गया अतः वह रात दिन पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहने लगा तदनन्तर उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर चम्पानगरी के दूसरे सेठ सिद्धार्थ ने अपनी पुत्री मित्रावती का विवाह चारुदत्त के साथ कर दिया। यद्यपि चारुदत्त ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर लिया फिर भी वह पत्नी के प्रति आसक्त न होकर पढ़ने-लिखने में ही सारा समय व्यतीत करने लगा किन्तु मित्रावती ने कभी अपनी माता या सासू से इस विषय में कुछ नहीं कहा, न उसने अपने पति को कभी उलाहना दिया। वह तो पतिव्रता-सहनशील नारी थी अतः पति के अध्ययन में बाधक बनना अपना धर्म न समझा। एक दिन वह अपने पीहर आई हुई थी तब माता ने उसकी वेशभूषा देखकर पुत्री से प्रश्न किया कि ‘‘बेटी! क्या तेरा पति तुझसे नाराज रहता है ? क्योंकि तेरी कल की वेशभूषा में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है।’’ यह सुनकर बेटी कहने लगी— माता! ऐसी कोई बात नहीं है किन्तु आपके जमाई जी पढ़ने में इतने व्यस्त रहते हैं कि मेरा उनसे समागम नहीं होने पाता है। खैर ! मुझे इस बात की कोई चिन्ता नहीं है, धीरे-धीरे उनमें परिवर्तन होगा तब दाम्पत्य जीवन सुखी बन जाएगा। पुत्री के वचन सुनकर माँ को बड़ा क्रोध आया, वह उसी क्षण चारुदत्त के घर जाकर उसकी माता पर बरस पड़ी और बेटी पर बीत रही सम्पूर्ण स्थिति से उन्हें अवगत कराते हुये कहने लगी—तुम्हें अपने इस बेटे का विवाह ही नहीं करना चाहिये था। जो पत्नी को भी कुछ समय नहीं दे सकता उसे तो वैरागी बनकर साधुओं के पास रहना चाहिये। मेरी बेटी के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों कर रहा है ? चारुदत्त की माँ ने उसे तो किसी तरह समझा—बुझाकर वापस कर दिया पुनः चिन्तित होकर अपने देवर रुद्रदत्त से कुछ प्रयत्न करने को कहने लगी। रुद्रदत्त ने भाभी को आश्वासन देकर चारुदत्त को विषयासक्त करने हेतु एक षडयंत्र रचा। उसने चम्पानगरी में रहने वाली बसन्ततिलका नामक वेश्या को कुछ समझा बुझाकर एक दिन भतीजे चारुदत्त को नगर की शोभा दिखाने के बहाने घर से प्रस्थान किया और उसी वेश्या वाली गली में आकर दोनों रुके ही थे कि पूर्व नियोजित छल के अनुसार महावत ने दो हाथियों को आपस में लड़ा दिया अतः मार्ग अवरुद्ध हो जाने से चाचा रुद्रदत्त उसे पकड़कर वेश्या के घर में ऊपर ले आया और बोला कि जब तक हाथियों की लड़ाई शान्त न हो जाए, तब तक यहीं ठहरो। चारुदत्त वहाँ मन्दिर जैसी शोभा देखकर चकित सा रह गया। वेश्या ने उनका खूब आदर-सत्कार किया और समय व्यतीत करने के छल से वह रुद्रदत्त के साथ चौपड़ खेलने बैठ गई। खेल में बार-बार रुद्रदत्त को हारते देखकर चारुदत्त भी खेलने लगा। यह देखकर बसन्ततिलका कहने लगी कि हे सेठ पुत्र! मैं तुम्हारी उम्र वाली अपनी पुत्री बसन्तसेना को तुम्हारे साथ चौपड़ खेलने भेज रही हूँ। मैं वृद्धा तुम्हारे साथ खेल खेलती शोभा नहीं देती हूँ। उसने बात-बात में बेटी को भेज दिया। खेलते-खेलते जब चारुदत्त को प्यास लगी तब बसन्तसेना जल में मोहिनी चूर्ण मिलाकर ले आई और चारुदत्त कामाग्नि से जलने लगा। उसने चाचा रुद्रदत्त को घर भेज दिया और बसन्तसेना के साथ विषयसुख का उपभोग करने लगा वहाँ उसे इतना आनन्द आने लगा कि घर से धन मंगा-मंगा कर वेश्या को समर्पित करने लगा और माता-पिता द्वारा बुलवाने पर भी किसी तरह घर जाने को तैयार नहीं हुआ। पिता की मृत्यु के समाचार आदि के बहाने से भी जब पुत्र घर न आया तब सभी लोग बड़े चिन्तित हुए। अन्ततोगत्वा चारुदत्त के पिता भानुदत्त ने संसार की स्थिति का चिन्तन कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। अब चारुदत्त की बुरी दशा होने लगी। जब घर से पैसा आना बन्द हो गया तब उसने घर भी गिरवी रख दिया, उसकी माँ और पत्नी एक झोपड़ी में रहने लगीं किन्तु ज्यों ही बसन्ततिलका वेश्या को ज्ञात हुआ कि चारुदत्त का धन अब समाप्त हो गया है त्यों ही उसने अपनी पुत्री बसन्तसेना से कहा कि बेटी। अब तू चारुदत्त को छोड़ दे क्योंकि वह दरिद्र हो चुका है। वेश्याओं का यही कर्तव्य है कि वे पैसे से पे्रम करें न कि किसी पुरुष विशेष से। पुत्री के न मानने पर उसने कहा कि अभी तू नादान बच्ची है लेकिन तुझे अपनी वेश्या परम्परा से मैंने परिचित करा दिया है, अब तू स्वयं सोचकर कर्तव्य पालन कर। बसन्तसेना की चारुदत्त के प्रति तीव्र आसक्ति देखकर उसकी माँ बसन्ततिलका ने एक दिन अवसर पाकर दोनों के भोजन में कुछ नशीली वस्तु मिलाकर खिला दिया अतः भोजन करने के बाद दोनों गहरी निद्रा में सो गये। पुनः बसन्ततिलका ने चारुदत्त को एक कपड़े में बाँधकर विष्टागृह पाखाने में डाल दिया। कुछ देर बाद वहाँ एक शूकर आ गया, वह चारुदत्त को चाटने लगा। चारुदत्त नशे में चूर हुआ कहने लगा—प्यारी बसन्तसेना! मुझे इस समय बहुत नींद आ रही है, अभी जरा मुझे सोने दो। वह बार-बार यही कह रहा था कि इतने में ही नगर का कोतवाल अपने नौकरों सहित इधर आ निकला। उसने पाखाने से आती इस आवाज को सुनकर चारुदत्त को वहाँ से निकलवाया और पूछा कि तू कौन है ? यहाँ इस पाखाने में कैसे गिर पड़ा है ? अब तक चारुदत्त को कुछ होश आ गया था, अपनी यह दशा देखकर वह बड़ा शर्मिंदा हुआ। कोतवाल ने उसे बहुत धिक्कारा तथा उसके व्यसन की घोर निन्दा की। चारुदत्त वहाँ से निकलकर लज्जापूर्वक अपने घर चला गया किन्तु वहाँ भी अब दूसरों का साम्राज्य था अतः झोपड़ी में रहने वाली अपनी माँ और पत्नी के पास पहुँचकर उसने क्षमायाचना की। उसे वेश्यासेवन का कुफल प्राप्त हो चुका था अतः अब करनी पर पश्चात्ताप करते हुए सुचारू गृहस्थी के संचालन हेतु धन कमाने की भावना जागृत हुई। पुनः उसने परदेश जाकर खूब धन कमाया और वापस घर आकर जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति करते हुए जीवन का उत्थान किया। भव्यात्माओं ! इतिहास प्रसिद्ध इस सत्य कथानक से आपको शिक्षा ग्रहण करनी है कि अज्ञात अवस्था में भी वेश्या के घर चले जाने मात्र से चारुदत्त की यह दुर्दशा हुई तब जो व्यक्ति जानबूझकर इन मायाचारिणी वेश्याओं के जाल में फंसकर क्षणिक, इन्द्रिय सुखों को भोगते हुए धन, इज्जत आदि सभी कुछ न्योछावर करके भी संसार में निवास कर रहे हैं उनके लिए क्या कहा जाय ? अर्थात् वे नरकगति में अग्नि से तप्तायमान लोह पुत्तलिकाओं के साथ आलिंगन करने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि कर्म किसी प्राणी को दण्ड दिये बिना नहीं रहते, उन्हें तो उसका फल भोगना ही पड़ेगा। धिक्कार है उन नारियों को, जो अपने कौमार्य एवं पातिव्रत्य धर्म को तिलांजलि देकर चांदी के चंद टुकड़ों पर शरीर को बेचती फिरती हैं। सीता, अंजना, द्रौपदी और चन्दनबाला जैसी सतियों के इस देश में वेश्यावृत्ति एक अभिशाप है। कोश में कहा है—
शुचि भूमिगतं तोयं, शुचिर्नारी पतिव्रता। शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः।।
अर्थात् चार पवित्र वस्तुओं में पतिव्रता नारी को भी परम पवित्र माना गया है। देखो! सती सीता ने अपने शील धर्म के प्रभाव से अग्नि को जल बना दिया, चन्दनबाला के [[ब्रह्मचर्य]] के बल पर लोहे की बेड़ियाँ टूट गर्इं। इसके विपरीत द्रौपदी ने एक पर्याय में अवस्था में एक वेश्या के साथ पाँच यारों को देखकर क्षण भर के लिए उसके समान सुख को प्राप्त करने की कल्पना मात्र की थी पुनः गणिनी माता से प्रायश्चित्त लेने के बावजूद भी उस आयि समय जो कर्मबन्ध हो गया उसका फल उसे द्रौपदी अवस्था में मिला जब एक अर्जुन का वरण करने पर भी लोगों ने उसका अपवाद फैला दिया कि द्रौपदी पंचभर्तारी है। जबकि हरिवंश पुराण में कहा है कि द्रौपदी को [[पंचभर्तारी]] कहने वालों की जिह्वा के सौ-सौ टुकड़े हो जाना चाहिये क्योंकि वह सती पतिव्रता नारी थी। सारांश यह है कि व्यसनों का त्याग कर जीवन में अणुव्रतों को धारण करना चाहिये और वेश्या का धन्धा करने वाली स्त्रियों को एवं वेश्यासेवन करने वाले पुरुषों को नरक के दुःखों से डरकर अपनी-अपनी पर्याय का मूल्यांकन करना चाहिये। एक कवि ने कहा भी है—
सच तो इस नारी की शक्ती नर ने पहचान न पाई है, मन्दिर में मीरा है तो वह रण में भी लक्ष्मीबाई है।
है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है, सच पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।