गुरु महिमा
द्वारा -आर्यिका सुदृष्टिमति माताजी
प्र.३९४ : अंतेवासी किसे कहते हैं?
उत्तर : जो गुरु से ज्ञान और चारित्र की शिक्षा प्राप्त करने के अनंतर भी गुरु के जीवनपर्यन्त, उनकी सेवा सुश्रूषा करते हुये उनके चरम सानिध्य में रहकर अनवरत ज्ञान की आराधना करता है, उसे अन्तेवासी कहते हैं
प्र. ३९५: जिनकल्पी साधु का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : यदि जिनकल्पी महामुनियों के पैरों में कंटक लग जाता है अथवा नेत्रों में धूलि पड़ जाती है तो डे महामुनि अपने हाथ से काँटा नहीं निकालते हैं और न अपने हाथों से नेत्रों की धूलि दूर करते हैं। यदि कोई दूसरा मनुष्य काँटे को या धूलि को निकालता है तो ये यतीश्वर चुप रहते हैं। इस प्रकार वे वीतरागता के शिखर पर आरूढ़ रहते हैं।
वे मुनि ११ अंग के पाठी होते हैं, उत्तम संहनन के धारक होने से उनकी तपश्चर्या आश्चर्यप्रद होती है वे एकाकी रहते हैं तथा धर्म एवं शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। वे सम्पूर्ण कषायों के त्यागी, मौनव्रती तथा पर्वतों की कन्दराओं में निवास करते हैं। इस दुत्षम पंचमकाल में उच्च संहनन वाले जिनकल्पी साधुओं का सदभाव नहीं है।
प्र. ३९६ : स्थविरकल्पी मुनि का स्वरूप बतलाइये।
उत्तर: इस काल के मुनि स्थविरकल्पी कहे गये हैं। वे अकेले नहीं रहते हैं। इस पंचमकाल में शरीर के संहनन बलवान न होने से वे मुनि पुर, नगर तथा ग्रामवासी होते हैं। अपने तप के प्रभाव से स्थविरकल्पी कहे जाते हैं। वे स्थविरकल्पी मुनि इस काल में समुदायरूप से विहार करते हैं। अपनी शक्ति अनुसार धर्म की प्रभावना करते हैं। भव्यों को धर्मोपदेश देते हैं। शिष्यों को स्वीकार करते हैं तथा उनका रक्षण करते हैं।
प्र. ३९७ : गणधर का मन, वचन व कायबल कितना होता है?
उत्तर : जयधवला टीका में गौतमस्वामी की अद्भुत सामर्थ्य कही गयी है। उनका शारीरिक बल सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले देवों से अनंतगुणा बलवान है। इस शारीरिक बल के सिवाय उनका मनोबल वचन बल इतना होता है कि वे मुहूर्त में द्वादशांग के स्मरण तथा पाठ करने की क्षमता संपन्न रहते हैं।
प्र. ३९८ : गौतम शब्द का वाच्यार्थ क्या है?
उत्तर: जिनेन्द्र वाणी के पूर्ण रहस्य को जानने के कारण गौतम स्वामी का नाम सार्थक हुआ। महापुराण में लिखा है- उत्कृष्ट वाणी को गौतम कहते हैं। वह उत्कृष्ट वाणी सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि है, उसे आप जानते है, उसका अध्ययन करते हैं अतः आप गौतम माने गये हैं। (श्रेष्टा गौ गोतमा तामधीते वेद वा गौतमः) आचार्य जिनसेन स्वामी कहते हैं आपने इन्द्र द्वारा पूजा रूप विभूति को प्राप्त किया है, इससे आप इन्द्रभूति हैं। आपको सम्यग्ज्ञान रूपी कंठाभरण प्राप्त हुआ है अतः सर्वज्ञ वर्धमान भगवान के साक्षात् पुत्र सदृश हैं।
प्र. ३९९: गणधर के कितने गुण होते हैं?
उत्तर : गणधर के २८ मूलगुण व उपाध्याय परमेष्ठि के २५ गुण मिलाने पर ५३ गुण गणधर के होते हैं।
प्र. ४०० : क्या संसार में निग्रंथ स्वरूप ही सर्व सम्म्त श्रेष्ठ है?
उत्तर : संसार में निग्रंथ स्वरूप ही सर्व समस्त श्रेष्ठ है। जिनेंद्र देव का स्वरूप निग्रंथ हैं। यदि संसार की वस्तुओं को देखा जाये तो वे सभी निग्रंथ (अन्य पदार्थ के संयोग से रहित) हैं। निग्रंथ भाव के बिना कोई भी तपस्या नहीं हो सकती। निग्रंथ तपस्या ही इच्छित फल देने वाली है। चावल आदि धान्यों को दिगम्बर किये बिना वे खाये जाने पर हानिकारक होते हैं। केले और मूँगफली को दिगम्बर करके ही खाया जाता है। नारियल को भी ऊपर के परिधान उतारकर दिगम्बर कर मनुष्य खाते हैं।
अनेक प्रकार के ऐश्वर्यों को भोग करके भी अंततः मरण को प्राप्त होते समय, मनुष्य को सम्पूर्ण वस्त्रो आदि को छोड़कर दिगम्बर होना पड़ता हैं। बिना दिगम्बर हुये दूसरी गति नहीं मिलती। सौ वर्ष तक इन्द्रिय विषय को तुम करने वालों को परमात्म पद की प्राप्ति नहीं हुई। किन्तु उन्होंने जब दिगम्बर अवस्था धारण परमात्म पद प्राप्त हुआ। अता संसार में दिगम्बर अवस्था ही श्रेष्ठ है।
दिगम्बर रूप धारण किये बिना संसार में अनेक पाप करने वाले लोग अनेक कष्ट उठाते हैं। अंत में मरकर के दरिद्र और भिखारी बन जाते हैं। जिन्होंने मरते समय भी दिगम्बर दशा प्राप्त की, उन्हें सुख शान्ति मिली है |दिगम्बर स्वरूप को धारण किये बिना सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती है। स्त्रियों के मोह से मोहित संसार में पाण्डव और श्री रामचन्द्र को अनेक कष्ट उठाने पड़े। संसार में जो लिप्त रहे, उन्हें कभी सुख-शांति नहीं मिली | वस्त्रादि परिग्रह छोड़ने वाले दिगम्बर मुनि की निर्ग्रन्थ अवस्था में पूर्ण सुख आत्मानंद मिलता है। इसलिये वह सर्वश्रेष्ठ हैं।
भरत और शत्रुघ्न के समान संसार में अन्य कोई योद्धा नहीं हुआ। उन्होंने संसार में अनेक वर्षों तक राज्य सुख भोगा, परन्तु अंत में उनको भी दिगम्बर रूप धारण करना पड़ा। यदि संसार में दिगम्बरत्व बुरा होता है उन्होने अंत में दिगम्बरत्व रूप क्यों धारण किया? मनुष्य अपने बुरे भावों को छिपाने के लिये कपड़े सजाता है। जिसके मन में काम विकार नहीं होता वही निर्विकार दिगम्बर होता है। असत्य, चोरी, व्यभिचारादि कुकर्म करने से ही अधर्म होता है। नगर में रहने वाला ब्राह्मण हो, कुलीन हो, दीन हो, अनाथ हो किन्तु यदि वह चोरी करते समय या परस्त्रीगमन करते समय पकड़ा जाय तो कोतवाल उन्हें दंड देता है। क्या किसी दिगम्बर मुनि को देखने मात्र से अशुभ हो जाता है। यदि ऐसा मान लें तो संसार में दिगम्बर सुनियो को न देखने वाले अनेक लोग ऐसे हैं जो भिखारी हैं, दरिद्र हैं, दुःखी हैं। इन्हें तो सुखी होना चहिये या दुःखी नहीं। अता निष्कर्ष यही निकलता है कि दिगम्बर मुनियों के तिरस्कार और द्वेष से अनेक प्रकार के दुःख ही उठाने पड़ते हैं।
जैन मन्दिर, जैन ऋषियों का तिरस्कार और उनके प्रति अनेक प्रकार की दुर्भावना उत्पन्न करते जो मरण को प्राप्त होता है, वह मनुष्य मरणोपरांत दीर्घकाल तक नरक में दुःखों को भोगता है।
ज्वर से, वात से, उष्णता से, आँखों के रोग से, खाँसी से और शरीर की अन्य वेदना से अन्य साधु अशान्त कातर हो जाते हैं किन्तु दिगम्बर अवस्था को धारण करने वाले साधु अनेक प्रकार की बाधायें आने घर भी शान्ति से उसे सहन करते हैं। दिगम्बर साधु तो शान्ति और वीरता से कष्ट सहन करते ही हैं। किन्तु उनके भक्त गृहस्थ सच्चे श्रावक भी जिन्हें दिगम्बर साधुओं और धर्म के प्रति श्रद्धा है वे भी अनेक आपत्ति आने पर जिनेंद्र देव की श्रद्धा से विचलित नहीं होते, वे अपने धर्म पर अविचल रहते हैं। अन्यलिंगी साधुओं और गृहस्थों में दुःख सहन करने का साहस नहीं होता।
अतः आर्तध्यान के कारण उन्हें कुगति में जाकर अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। इसलिये दिगम्बर अवस्था साहस और वीरता तथा शान्ति की मूर्ति होती है। बिना साहस व धैर्य तपस्या संभव नहीं होती। दिगम्बर अवस्था में सम्पूर्ण वासनाओं, इन्द्रिय भोगों का महत्व मन, वचन, काय द्वारा त्याग देना पड़ता है। केवल नित्यानंद, अमूर्तिक सिद्धावस्था को ही दिगम्बर दशा में मनन करते हैं। इसलिये वे परमात्मदशा को प्राप्त करते हैं। अतः दिगम्बर अवस्था ही श्रेष्ठ है।
प्र. ४०१: कौन योगी सारे कर्ममल को धो डालता है?
उत्तर : जो योगी अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागकर इन्द्रिय व्यापार से रहित हुआ जितेन्द्रिय है और लोकाचार से परांग्मुख है, वह सारे कर्ममल को धो डालता है।
प्र. ४०२ : जिनलिंग का स्वरूप बतलाइये।
उत्तर : (१) जो सदा ज्ञान दर्शन रूप उपयोग से युक्त है, (२) सावध कर्म आरम्भ से रहित है, (३) जो दाढ़ी व मस्तक के केशों का लोच करते हैं, (४) तेल मर्वनादि रूप में शरीर का संस्कार नहीं करते हैं, (५) जो बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह से मुक्त-रहित हैं, (६) पर की अपेक्षा रहित है, (७) याचना विहीन हैं, (८) विकार विवर्जित हैं और (९) नवजात शिशु के समान वस्त्राभूषण से रहित दिगम्बर रूप को धारण किये हुये हैं। वह जिनलिंग है जो कि मुक्ति का कारण हैं।
प्र. ४०३ : किस योगी के श्रमणता की पूर्णता होती है?
उत्तर: सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप शुद्ध रत्नत्रय का धारक जो योगी मूलगुणों के पालने में सदा पूरा यत्न करता है, उसके पूर्ण श्रमणता होती है।
प्र. ४०४ : क्या प्रमादी साधु के निरन्तर हिंसा होती है?
उत्तर: हाँ, जो साधु खाने-पीने में, लेटने-सोने में, चलने-फिरने में, हस्तपादादिक के पसारने में, किसी वस्तु को पकड़ने में छोड़ने या उठाने धरने में, प्रमाद करता है, उसको निरन्तर हिंसा कहा गया है, भले ही वैसा कार्य करने में कोई जीव मरे या न मरे।
प्र. ४०५ : परपीड़क साधु में ज्ञान होते हुये चारित्र कैसा होता है?
उत्तर : पर को पीड़ा पहुँचाने वाले साधु में सम्यक् ज्ञान होने पर भी चारित्र मलिन होता है। ठीक है जैसे तापकारी दीपक में प्रकाश होते हुये भी काजल मलिन (काला) होता है।
प्र. ४०६ : मुक्ति मार्ग के आराधना तथा विराधना का फल क्या है?
उत्तर : जिस प्रकार सम्यक्ज्ञानादि रूप मुक्तिमार्ग की आराधना साधना करने पर उसका फल अति उत्तम मोक्ष सुख कहा गया है, उसी प्रकार उस मार्ग के मलिन करने पर उसका फल बहुत अनर्थ तथा दुखरूप कहा गया है।
प्र. ४०७ : उपसम्पत् का क्या अर्थ है?
उत्तर : उपसम्पत् का अर्थ है, उपसेवा अर्थात् अपना निवेदन करना। गुरुओं को अपना आत्मसमर्पण करना उपसम्पत् है।
प्र. ४०८ : विकथा किसे कहते हैं?
उत्तर: संयम के विरोधी कथा को विकथा कहते हैं।
प्र. ४०९: गौतम स्थविर का क्या अर्थ है?
उत्तर : गौतम स्थविर के तीन अर्थ हैं- (१) सिद्धपरमात्मा, (२) वर्द्धमान भगवान, (३) गौतम स्वामी।
प्र. ४१० : साधु विहार क्यों करते हैं?
उत्तर : अनादिकाल से आत्मा कर्मजाल से लिपटी आयी है। वह कर्मशक्ति, आत्मशक्ति से अन्योन्य रूप से मिल गयी है। दोनों के संयोग से एक तीसरी विलक्षण शक्ति पैदा हुई और उससे हुआ संसार परिभ्रमण। भ्रमण से भ्रमण को मिटाना है। विवेकपूर्वक यत्नाचार से किया गया विहार भी अशुभ को मिटा सकता है। इसीलिये साधुजन शुद्ध, सिद्ध, क्षेत्रों के वंदनार्थ, जिनदर्शनार्थ, गुरु वंदनाचार्थ, समाधिस्थान अन्वेषणार्थ एवं निर्यापकाचार्य की तलाश करने के लिये स्थानान्तर के लिए विहार करते हैं।
. ४११: गुरुजनों की क्रोधशान्ति का उपाय बतलाओ।
उत्तर: प्रणाभावाना कोपो गुरुणाम्।
अर्थ –: गुरुजनों का क्रोध प्रणाम करने पर्यन्त रहता है परन्तु प्रणाम करने के पश्चात नष्ट हो जाता है।
प्र . ४१२. गुरु सेवा के क्या साधन है?
उत्तर : स्वछन्द न रहना ,गुरु की आज्ञा पालना, इन्द्रियों का वशीकरण ,अहिंसादि सदाचार प्रवृत्ति एवं नम्रता का व्यवहार , ये गुण गुरु सेवा के साधन हैं। शिष्य की उक्त सत् प्रवृत्ति से गुरु प्रसन्न रहते हैं।
प्र .४१३. शिष्य गुरु के प्रति कर्तव्य बतलाओ।
उत्तर :अधर्म ,अनुचित आचार और अपने सत्कर्तव्यों में विघ्न की बातों को छोड़कर बाकी सभी स्थानों में योग्य -अयोग्य कर्तव्य को गुरु ही जानता है। गुरुजनों के कुपित होने पर शिष्य को जवाब न देना और वाद-विवाद करने वाला- पुरुष प्रशंसनीय है किन्तु गुरुजनों के सामने जाने वाला उनसे शत्रुता करने वाला शिष्य प्रशंसा के योग्य नहीं हैं। यदि पूज्य (गुरु आदि) अपने अधीन रहने वाले कादि के कच्याण की कामना करता है, तो उसे कुपित नाराज नहीं करना चाहिये। जो इहलोक और पोक संबंधी सुख को नष्ट करने की इच्छा नहीं करते उन्हें गुरुजनों की बात उल्लंघन नहीं करना चाहिये। सबेह युक्त शिष्य गुरु को नाराज न करके नम्रता से प्रश्न पूछे।
शिष्यों को गुरुजनों के सामने अपनी इच्छानुसार नहीं बैठना चाहिये। गुरुजनों को नमस्कार किये बिना उनले विद्यायक्षण नहीं करनी चाहिये। तीक्ष्ण बुद्धि छात्र को अपने सहपाठियों का तिरस्कार नहीं करना चाहिये।
प्र. ४१४ : गुरु का तिरस्कार करने से किस फल की प्राप्ति होती है?
उत्तर जो छात्र अधिक बुद्धिमान होने पर अपने गुरु को अनादर की दृष्टि से देखता है वह मरकर नरक में जाता है और संसार में अपकीर्ति प्राप्त करता है, तथा ज्ञानहीन, मतिमंद बनता है।
प्र. ५१५: छात्र को गुरु, गुरुपत्नी, गुरुपुत्र व अपने सहपाठी के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिये?
उत्तर : (१) पितरमिव गुरुमुपचरेत अर्थात् शिष्य को गुरु की पिता के समान सेवा करनी चाहिये।
(२) गुरुपत्नी जननीमिव पश्येत् अर्थ शिष्य गुरुपत्नी को माता के समान पूज्य समझे।
(३) गुरुमिव गुरुपुत्रं पश्येत् । अर्थ छात्र गुरुपुत्र को गुरु के सदृश पूज्य समझे। (उसके लिये गुरु प्रसन्न होकर अपनी समस्त विद्याएं पढ़ा देते हैं।)
(४) स ब्रह्मचारि बांधव इव स्नेहोत। अर्थ छात्र को अपने सहपाठी ब्रहाचारी से बंधु की तरह सोह करना चाहिये।
प्र. ४१६ : परगृह में प्रविष्ट हुये पुरुषों की प्रवृत्ति कैसी होती है?
उत्तर: परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्य यते। अर्थ सभी दूसरे के घर जाकर उसका धनादि व्यय कराने के लिये विक्रमादित्य राजा की तरह उदार हो जाते हैं। धनाढ्यों का अनुकरण करते हैं।
प्र. ४१७ : गुरु के सन्मुख ग्रहण की गई प्रतिज्ञा भंग करने का फल बतलाओ।
उत्तर: प्राण नाश का प्रसंग आने पर भी गुरु के सन्मुख ग्रहण की गई निज प्रतिज्ञा कभी त्यागनी नहीं चाहिये। क्योंकि यह प्रतिज्ञा प्राणों से बढ़कर हैं। जो मूर्ख, निर्लज्ज होकर दुर्बुद्धिवश अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, वह अपनी नौका में छिद्र कर लेता है। अथवा खेदपूर्वक कहना पड़ता है कि वह अपना वमन भी चाट जाता है।
प्र. ४१८ : गुरु के द्वारा दी गई वस्तु का ग्रहण और उनको वस्तु किस प्रकार देना चाहिये?
उत्तर: गुरु के द्वारा दी गई वस्तु दोनों हाथों से ही ग्रहण करनी चाहिये, उसी प्रकार उनके लिये दोनों हाथों से ही कोई वस्तु देना चाहिये क्योंकि विनय मोक्ष का द्वार है।
प्र. ४१९: गुरु की भक्ति बिना भी क्या शिष्यता प्राप्त होती है?
उत्तर: नहीं मनुष्य सर्वप्रथम गुरु का भक्त बनता है, पश्चात् वही शिष्य बनने योग्य हो जाता है। जैसे वृक्ष पर पहले फूल लगते हैं पश्चात् फल होते हैं। तात्पर्य यह हुआ जिस प्रकार पुष्प बिना फल नहीं होते, उसी प्रकार भक्ति के बिना शिष्यता नहीं आती है।
प्र. ४२० : गुरु शिष्य में किन तीन विकारों को पसंद नहीं करते और कौन तीन विकारों को पसंद करते हैं?
उत्तर : शिष्य का निरीक्षण करने वाले गुरु उसमें तीन विकारों को पसंद नहीं करते हैं। राग, द्वेष, मोह ये तीन विकार कहे गये हैं। शिष्य का निरीक्षण करने वाले गुरु उसमें तीन विकारों को पसंद करते ही हैं। विनय, विवेक और विराग। इन्हें तीन विकार जानना चाहिये। (वि से प्रारम्भ होने के कारण इन्हें विकार संज्ञा दी गई है।)
प्र. ४२१ : जो गुरु द्वारा किया जाता है, वह सब करने योग्य है या नहीं?
उत्तर: जो गुरु द्वारा किया गया है, वह सबका सब शिष्य के द्वारा करने योग्य नहीं होता है। उसे तो हमेशा वही करना चाहिये जो गुरु द्वारा उसके लिये निर्दिष्ट है।
प्र. ४२२ : मुनिराज के आहार के समय का प्रमाण क्या है?
उत्तर: तीन मुहूर्त दिन चढ़ जाने के बाद से लेकर जब तीन मुहूर्त दिन बाकी रह जाते हैं, तब तक मध्य के समय को टालकर आहार लेते हैं, ऐसा श्री वट्टेकर स्वामी विरचित मूलाचार के प्रथम अधिकार में लिखा है। मूलाचार प्रदीप में और भी लिखा है।
यह जो तीन मुहूर्त काल सुबह-शाम छोड़ने का बतलाया है वह उत्कृष्टकाल है, मध्यकाल दो मुहूर्त और जघन्यकाल १ मुहूर्त सुबह-शाम छोड़ने का समझना चाहिये।
प्र. ४२३ : दीक्षा किन्हें देना चाहिय ?
विप्राः क्षत्रिया वैश्या ये सम्यक्त्त्वविभूषिताः ।
तेषां दीक्षा विदातव्या, भिक्षा तत्रैव नान्यथा ।।
अर्थ- जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सम्यदर्शन से विभूषित हैं, उन्हें ही दीक्षा देना चाहिये तथा वे ही भिक्षा के पात्र हैं, अन्य नहीं।
प्र. ४२४ : दीक्षायोग्य मनुष्य कौ
उत्तर :
शान्तो दान्तो, दयायुक्तोमदमायाविविर्जित ।
शास्त्ररागी कषायन्धो दीक्षायोग्यो भवेन्नरः ।।
अर्थ- जो शान्त हो, जिनेन्द्रिय हो, दयालु हो, मदमाया से रहित हो, शास्त्रों का अनुरागी हो और कषाय को नष्ट करने वाला हो, वह मनुष्य दीक्षा के योग्य हो सकता हैं।
प्र. ४२५ : रागी और वीतरागी की विशेषता बतलाइये।
उत्तर : वीतरागी मनुष्य चक्रवर्ती आदि की प्रशस्त लक्ष्मी को छोड़कर जिनदीक्षा धारण कर लेता है और रागी मनुष्य तृण भी नहीं छोड़ता|
प्र. ४२६ भोगी कितने तरह के होते हैं, उनके नाम बतलाओ।
उत्तर- भोगी दो प्रकार के होते हैं- पहला सकाम भोगी और दूसरा निष्काम भोगी।
प्र . ४२७ । सकाम भोगी किसे कहते हैं?
सापोती के जीं का बंद होता रहता है, जिसे कगों का बंध होता है उसे सकान भोगी कहते हैं.
प्र .४२८ . निष्काम भोगी का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर-:निष्काम कर्म से नहीं बंधता। जैसे दमा बीज अंकुरोत्पत्ति करने में सर्वथा असमर्थ होता है क्योकि उसकी वह शक्ति नष्ट हो चुकी होती है, इसी प्रकार जब निष्काम भोगी ने कर्मन्दी बीजी के जो धाम ही काट कर दिये तब उसकी उत्पत्ति कैसे होगी? विकारमय संसार में रहते हुये भी उस विकारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे गरुड़ को नागलोक में वास करने पर रापी की बाधा नहीं होते है अथवा जैसे गारदी मंत्र सिद्ध किये जीव का विप कुछ भी विगाह नहीं सकता। संसार के जीदों को इचियजनित सुख अत्यन्त दुख देता है। वह निष्काम योगी, विज्ञानी जनों का कुछ नहीं बिगाड़ सकत योगीजन बाह्य परिग्रह का त्याग कर अंतरंग में निर्मल आत्मा का दर्शन करते हैं परन्तु सम्यगदृष्टि अदुर ऐश्वर्य रखते हुये भी अकिंचन्य तुल्य निर्मोही होकर सदैव आत्मा का अनुभव करते हैं।
प्र. ४२९। क्या गुरुभक्ति बिना सभी निष्फल है?
उत्तर: गुरुवसाद से ही संसारातीत अवस्था प्राप्त होती है। गुरु की महिमा निराली है। संसार का सभी सुख मिल भी आये परन्तु यदि गुरुप्रसाद नहीं है तो वह सब धूलि के समान व्यर्थ है, अधिक कष्टदायक ही है, का भी है
शरीर सुरुपं सवा रोग मुक्तं, यशश्वारु चित्रं धनं मेरु तुल्यं
गुरो रंधिपो मनश्चेन लग्नं ततः किंत तः ततः किम् ।।
अर्थात् यदि आपको सौम्य सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ है आरोग्य-स्वस्थता भी उपलब्ध हो गई है, यश भी विस्तृत हुआ है तथा सुमेरु पर्वत के समान अतुल सम्पदा-धन भी पूर्व पुण्योदय से मिल गया है तथापि यदि गुरुदेव चरणों में मन संलग्न नहीं हुआ है, चित्त में प्रगाढ़ गुरुभक्ति का संचार नहीं हो सका है तो इन समस्त साधनों से क्या प्रयोजन? ये सभी निष्फल, कटुफलदायी ही सिद्ध होंगे।
प्र .४३०: क्या गुरु के बिना ज्ञान अधूरा है?
उत्तर: हाँ, गुरु के बिना शान में त्रुटि रहती है। ज्ञानावर्ण में मयूर का दृष्टांत देकर समझाया है। मोर गुरु के बिना नृत्य कला सीखा है, अच्छा नाचता है किन्तु गुरुशिक्षा के बिना नाचने में उसका गुहा अंग दिखता रहता है। अतः ज्ञान, ध्यान, आचरण क्रियाओं में गुरु की शिक्षा आवश्यक है।
प्र. ४३१ : गणधरों के एक साथ कितनी ऋद्धियाँ पायी जाती है?
उत्तर: गणधरों के एक साथ सातो ही ऋद्धियाँ पायी जाती है।
प्र. ५३२ । उन दो शिष्यों के नाम बतलाओ, जो पुष्पदंत और भूतबली कहलाए।
उत्तर: एक का नाम था सुबुद्धि और दूसरे का नाम नरवाहन था।
प्र. ५३३ : सुबुद्धि मुनि को पुष्पदंत और नरवाहन को भूतवली नाम किसके द्वारा और क्यों प्राप्त हुये थे?
उत्तर: आषाढ़ सुदी एकादशी के पूर्वाद्ध काल में ग्रंथ समाप्त हुआ। धरसेन स्वामी ने श्रुत उपदेश का अपना पवित्र कार्य पूर्ण किया। इस महत्वपूर्ण घटना से आदत होती पुष्पों के द्वारा महान पूजा की और मधुर वायानि की। रखा। दूसरे मुनिराज की पूजा देवों ने की और अनेक दांतों की पथरा गुरुदेव ने पुष्पदंत रखा।
प्र. ५३४ : प्रज्ञाश्रमण किसे कहते हैं?
उत्तर : असाधारण प्रज्ञाशक्तियारी को प्रज्ञाश्रमण कहते हैं। असूर्य চিবারন সামলার কী १४ पूर्वी के विषय में पूछे जाने पर जो द्वादशांग चतुर्दश पूर्व उत्कृष्ट को और वीर्यातराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन से हैं तथा असाधारण वाताह निरूपण करते वे प्रज्ञाश्रमण हैं।
प्र. ४३५ : प्रज्ञा के ४ भेद बतलायें।
उत्तर : प्रज्ञा के ४ भेद (१) औत्पत्तिकी, (२) पारिणामिकी, (३) दैनथिली तथा(४) उत्तर में कृत श्रुत के विनय से उत्पन्न होने वाली औत्पत्तिकी प्रखा है। निजनिज जाति विशेष पारिणामिकी प्रज्ञा है। द्वादशांग श्रुत की विनय से उत्पन्न वैनयिकी प्रजा तथा उपदेश के दिन पि लाभ से उत्पन्न कर्मजा प्रज्ञा है।
प्र. ४३६ : द्रव्यलिंगी कितने अंग व पूर्व का पाठी होता है तथा क्या वह शुद्धात्मा में स्थिर हो जाता है?
उत्तर : द्रव्यलिंगी ११ अंग, नौ पूर्व तक के पाठी मुनि दूसरे भावलिंगी के सम्मान जप, तप,हैं फिर मिध्यात्व व अनंतानुबंधी कयाय के उदय से सम्यक्त्तव भाव को नहीं पाते हुये शुद्धता का अनुभव नहीं कर पाते हैं। इसका कारण यह है कि उनकी श्रद्धा अतीन्द्रिय सुख में नहीं हो पाती है। इन्द्रिय सुख में उनकी रुचि बनी रहती है, मोक्ष में भी उसी जाति का अनंत सुख होगा ऐसी कल्पना रहती है। इन्द्रियसुख से विपरीत ही सच्चा सुख निराकुल सुख है, ऐसी श्रद्धा स्वानुभव रूप नहीं हो पाती है। इसलिये मन म से मुक्त होकर अपनी शुद्धात्मा की ओर नहीं ठहरता है।
प्र. ४३७ : धर्मगुरु किसे कहते हैं?
उत्तर : जो धन-धान्य आदि १० प्रकार हैं वाह्यपरिग्रह तथा क्रोधादिक अंतरंग १४ परिवहाँ के तमामी अर्थात् निग्रंथ हैं किंतु ग्रंथ (शास्त्रों) से युक्त है जो कर्मभार नष्ट करने में लगे हुये हैं और ज्ञानादतम दर्शनावरण, मोहनीय अंतराय कर्मों के क्षमोपशम होने से सम्यन् ज्ञानादि गुर्गों से सहित हैं, वे धर्म गुरु होते
प्र. ४३८ : परमगुरु (गणधर) किसे कहते हैं?
उत्तर : जो तीर्थंकर की दिव्यध्वनि धारण करने की क्षमता रखते हैं, ऋद्धि के धारक होते हैं, उनको गणधर कहते हैं।
प्र. ४३९ : जिनलिंग सदा पूज्य हैं तो जिन लिंगधारी द्रव्यलिंगी, साधु भी पूज्य है क्या?
उत्तर : भावलिंगी, साधु की अपेक्षा द्रव्यलिंगी पूज्य नहीं हैं तो भी चारित्र से हीन मुनि अपूज्य हैं किन्तु ५ महाव्रत, ५ समिति आदि व्यवहार चारित्र धारी मुनि गृहस्थ श्रावक के लिये सादा पूज्य हैं। मुनि के भावलिंग को श्रावक जान भी नहीं सकता। अतः भावलिंगी मुनि में गुण अधिक होते हैं। द्रव्यलिंगी मुनि में उतने मुम नहीं होते इसलिये भावलिंगी मुनि की विनय न करें किंतु गृहस्थ को द्रव्यलिंगी की भी विनय करना चाहिये
प्र..४४०। जिसका गुरु कौन है?
उत्तर :जाति में (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) ब्राह्मण गुरु है, ब्राह्मण का गुरु अग्नि है, स्त्रियों का गुरु है और अतिथि सबका गुरु हैं। इसलिये अतिथि का आदर-सत्कार करना चाहिये। इससे कर्मों को टूर आती है।
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