दंसणणाणचरित्ते तवेविरियाचारम्हि पंचविहे।
वोच्छं अदिचारेऽहं कारिदे अणुमोदिदे अ कदे।।१९९।।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य ये पाँच आचार हैं। इन आचार में कृत, कारित और अनुमोदना से हुए अतिचारों को मैं कहूँगा।
सम्यक्त्व-तत्त्वरुचि का नाम दर्शन है। यद्यपि दृश् धातु देखने में प्रसिद्ध है तो भी यहाँ श्रद्धान अर्थ लेना। जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान और उन्हीं रूप श्रद्धाविषयक अनुष्ठान दर्शनाचार है।
पाँच प्रकार के ज्ञान के लिए अध्ययन आदि क्रियाएं करना ज्ञानाचार है।
पापक्रिया से दूर होना, प्राणियों के वध त्याग और इन्द्रियनिरोध में प्रवृत्ति करना चारित्राचार है।
कायक्लेश आदि तपों का अनुष्ठान करना तप आचार है।
शक्ति को न छिपाकर शुभ कार्यों में उत्साह रखना वीर्याचार है।
दर्शनाचार-जिनेन्द्रदेव ने दर्शनाचार की विशुद्धि आठ प्रकार से कही है अत: दर्शन के अतिचारों का निराकरण करने का उपाय यहाँ कहते हैं-
णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदिगिंच्छा अमूढदिट्ठी य।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पभावणा य ते अट्ठ।।२०१।।
नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ शुद्धि हैं।
मार्ग और मार्ग का फल ये दो ही जिनशासन में कहे गये हैंं, उसमें सम्यक्त्व को मार्ग कहते हैं और मार्ग का फल निर्वाण है।
सम्यक्त्व का लक्षण-
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं१।।२०३।।
सत्यार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये ही सम्यक्त्व हैं। यहाँ पर सम्यग्दर्शन के विषयभूत पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है। चूँकि परमार्थरूप से जाने गये ये पदार्थ ही श्रद्धान के विषय हैं अत: ये श्रद्धान में कारण हैं और श्रद्धान होना कार्य है जो कि सम्यक्त्व है किन्तु कारणभूत पदार्थों में कार्यभूत श्रद्धान का अध्यारोप करके उन पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है।
इन नव पदार्थों में से जीव को कहते हैं-
जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त। संसारी जीव के छह भेद हैं और सिद्धि को प्राप्त हुए मुक्त जीव हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये संसारी जीव के छह भेद हैं। इनमें से पृथिवी के छत्तीस भेद होते हैं। मिट्टी, बालू, शर्करा, उपल, शिला, लवण, लोहा, तांबा, रांगा, सीसक, चांदी, सोना, हीरा, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सस्यक, अंजन, प्रवाल, अभ्रक, अभ्रबालू, गोमेदमणि, रुचकमणि, अंकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, चन्द्रप्रभमणि, वैडूर्य, जलकांत, सूर्यकांत, गेरू, चंदन, वप्पक, वक, मोच और मसारगल्ल ये ३६ भेद हैं। इन पृथ्वीकायिक जीवों को जानकर उनका परिहार करना चाहिए।
‘‘पृथिवी चतुष्प्रकारा-पृथिवी, पृथिवीशरीरं, पृथिवीकायिक, पृथिवीजीव:।’’
पृथिवी के चार भेद हैं-पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव।
मार्ग में पड़ी हुई धूलि आदि पृथिवी हैं। पृथिवीकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त ईंट आदि पृथिवीकाय हैं। जैसे-मृतक मनुष्यादि की काय। पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से जो जीव पृथिवी शरीर को ग्रहण किये हुए हैं, वे पृथिवीकायिक हैं जैसे-खान में स्थित पत्थर आदि। पृथिवी में उत्पन्न होने के पूर्व विग्रहगति में रहते हुए एक, दो या तीन समय तक जीव पृथिवीजीव हैं। इनमें से आदि के दो निर्जीव हैं, शेष दो जीव हैं। इनमें भी पृथिवीजीव विग्रहगति में है उसका घात संभव ही नहीं है मात्र पृथिवीकायिक जीवों के घात का त्याग करना ही अहिंसा व्रत है।
ऊपर में कहे गये छत्तीस भेद, ये सब बादर या स्थूल कहलाते हैं। इन छत्तीस भेदों में ही पृथिवी के विकार-भेदरूप बहुत सी पृथिवी हैं। ‘सात नरक की सात और ईषत्प्राग्भार नाम की सिद्धशिला की पृथिवी, ये ८ पृथिवी, मेरुपर्वत, कुलाचल, द्वीप और द्वीपों की वेदिकाएं, देवोें के विमान, भवन, जिनप्रतिमा, तोरणद्वार, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जंबूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष, इष्वाकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, विजयार्ध पर्वत, कांचनपर्वत, दधिमुख पर्वत, अंजनगिरि, रतिकर पर्वत, वृषभाचल तथा और भी सामान्य पर्वत, स्वयंप्रभ पर्वत, वक्षार पर्वत, रुचकवर पर्वत, कुण्डलवर पर्वत, गजदंत और रत्नों की खान आदि सब पृथिवी के भेदों में ही अंतर्भूत हैं।’’ अर्थात् मध्यलोक में होने वाले संपूर्ण पर्वत, वेदिकाएं, जंबूवृक्ष, जिनभवन और जिनप्रतिमाएं, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विमान, भवन, इनमें स्थित जिनमंदिर, जिनप्रतिमाएं, नरक की भूमियाँ, बिल तथा सिद्धशिला भूमि आदि सभी इन पृथिवीकायिक के ही भेद हैं।
ऐसे ही जल, वायु, अग्नि और वनस्पति के भी चार-चार भेद होते हैं। उनमें से भी जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक और वनस्पतिकायिक नाम के तृतीय भेद की हिंसा नहीं करना चाहिए।
पर्व, बीज, कंद, स्कंध तथा बीजबीज, इनसे उत्पन्न होने वाली और संमूर्च्छन वनस्पति कही गई है। ये प्रत्येक और अनंत काय ऐसे दो भेदरूप हैं। इनके विशेष भेद मूलाचार, गोम्मटसार ग्रंथों से ही समझना चाहिए।
त्रस के विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय दो भेद हैं। विकलेन्द्रिय में दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इंन्द्रिय जीवों की अपेक्षा तीन भेद हैं। सकलेन्द्रिय में संज्ञी और असंज्ञी दो भेद हैं।
अथवा सकलेन्द्रिय के जलचर, स्थलचर और नभचर की अपेक्षा तीन भेद हैं। देव, नारकी और मनुष्य ये सैनी पंचेन्द्रिय हैं।
इन सब जीवों को कुल, योनि, मार्गणा आदि से जानना चाहिए। अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। रूपी-पुद्गल के स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश और अणु ये चार भेद हैं। अरूपी के धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार भेद हैं। इनमें से रूपी पुद्गल द्रव्य ही कर्मबंध का कारण है।
पुण्य-पाप-सम्यक्त्व से, श्रुत से, विरति परिणाम से और कषायों के निग्रह रूप गुणों से जो परिणत हैं, वह पुण्य है और इससे विपरीत पाप है।
आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं।
संवर-मिथ्यात्व आदि से जो कर्म आते थे, उनको सम्यक्त्व, विरति परिणाम आदि से रोक देना संवर है।
निर्जरा-पूर्वकृत कर्मों का झड़ना निर्जरा है। उसके दो भेद हैं-सविपाक और अविपाक।
बंध-मोक्ष-रागी कर्मों को बांधता है और विरागसम्पन्न जीव कर्मों से छूटता है। बंध और मोक्ष के विषय में संक्षेप से जिनेन्द्र देव का यही उपदेश है।
नि:शंकित शुद्धि-जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित जो ये नव पदार्थ हैं उसमें जो शंका हो, तो यह दर्शन का घात करने वाली हो जाती है। जो कभी शंका न करके दृढ़ श्रद्धान करना है, वह प्रथम दर्शन शुद्धि है।
नि:कांक्षित शुद्धि-इहलोक में, परलोक में और कुधर्म में आकांक्षा होने से आकांक्षा के तीन भेद हो जाते हैं। जो इन तीनों को नहीं करता है, वह द्वितीय दर्शन शुद्धि को प्राप्त करता है।
निर्विचिकित्सा शुद्धि-विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि के द्रव्य-भाव की अपेक्षा दो भेद हैं-मल, मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं को देखकर उनमें ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है और भूख, प्यास, नग्नत्व आदि परीषहों में ग्लानि या अरुचि करना भाव विचिकित्सा है। द्रव्य विचिकित्सा न करके क्षुधा आदि परीषहों को जीतना ही निर्विचिकित्सा शुद्धि है।
अमूढ़दृष्टि शुद्धि-लौकिक आचार, वैदिक आचार, नैयायिक आदि से संबंधित सामयिक आचार इनमें और अन्य देवों में जो मूढ़ता है, वह दर्शन का घात करने वाली है। सर्वशक्ति से इनमें मोह को नहीं करना ही अमूढ़दृष्टित्व शुद्धि है।
उपगूहन शुद्धि-दर्शन या चारित्र से शिथिल हुए लोगों को देखकर धर्म की भक्ति से उनके दोषों को ढकना-छिपाना यह उपगूहन शुद्धि है।
यथा-‘चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघदोषापहरणं प्रमादाचरितस्य च संवरणं उपगूहनं’ चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ में हुए दोष को दूर करना अर्थात् प्रमाद से दोष रूप कोई आचरण हुआ हो, उसे ढक देना उपगूहन है।
स्थितिकरणशुद्धि-दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्मबुद्धि से हित-मित वचन से उन्हें उन दोषों से हटाकर पुन: उसी दर्शन और चारित्र में लगा देना स्थितीकरण शुद्धि है।
वात्सल्यशुद्धि-चतुर्गति संसार से पार करने में कारण ऐसे चतुर्विध संघ में प्रीति करना, जैसे-गाय का बछड़े पर अकृत्रिम प्रेम होता है, वैसा धर्म प्रेम करना वात्सल्य शुद्धि है।
प्रभावनाशुद्धि-धर्म कथाओं के कहने से, आतापन आदि योगों को धारण करके और जीवों की दया आदि के द्वारा धर्म की प्रभावना करना तथा-‘‘प्रभावना-वाद-पूजा-दान-व्याख्यान-मंत्रतंत्रादिभि: सम्यगुपदेशैर्मिथ्यादृष्टिरोधं
कृत्वार्हत्प्रणीतशासनोद्योतनं।’’ वाद-शास्त्रार्थ, पूजा-इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र आदि महापूजा, दान, व्याख्यान, मंत्र, तंत्रादि के द्वारा और सच्चे उपदेश के द्वारा मिथ्यादृष्टि जनों के प्रभाव को रोककर अर्हंत देव के द्वारा बतलाये गए जैनशासन को फैलाना प्रभावना शुद्धि है।
इस प्रकार सम्यक्त्व में शंका, कांक्षा आदि आठ दोषों को न लगाकार निर्दोष रूप से आठ अंगों से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करना वह दर्शनाचार है।
ज्ञानाचार-ज्ञानाचार भी आठ प्रकार का है-
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।।२६७।।
जिसके द्वारा तत्त्व का बोध होता है, जिसके द्वारा मन का निरोध होता है और जिसके द्वारा आत्मा विशुद्ध होता है, जैनशासन में उसे ही ज्ञान कहा है।
काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे।
वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो।।२६९।।
काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हव, व्यंजन, अर्थ और उभय, इन भेदों से ज्ञानाचार आठ प्रकार का है अर्थात् कालशुद्धि, विनयशुद्धि आदि अथवा कालाचार, विनयाचार आदि इनके नाम हैं, इनसे ज्ञान की आराधना होती है अत: ये ज्ञानाचार कहलाते हैं।
कालशुद्धि-स्वाध्याय की बेला में समीचीन शास्त्रों को पढ़ना, पढ़ाना, व्याख्यान आदि करना। सूर्योदय के दो घड़ी (४८ मिनट) बाद से लेकर मध्यान्ह के दो घड़ी पूर्व तक पूर्वाण्ह स्वाध्याय काल है। मध्यान्ह के दो घड़ी बाद से सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व तक अपराण्ह स्वाध्यायकाल है। सूर्यास्त के दो घड़ी बाद से अर्धरात्रि के दो घड़ी पूर्व तक पूर्वरात्रिक स्वाध्यायकाल है और अर्धरात्रि के दो घड़ी बाद से सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व तक वैरात्रिक या अपररात्रिक स्वाध्याय काल है। ऐसे ये चार स्वाध्याय काल होते हैं। इनमें भी दिशादाह, उल्कापात, विद्युत्पात, वङ्कापात, इंद्रधनुष, संध्याकाल, दुर्दिन, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, धूमकेतु, भूकंप, भयंकर मेघगर्जन, कलह, दुर्गंधि आदि के होने पर स्वाध्याय के लिए अकाल माना जाता है। इन दोषों से रहित स्वाध्याय काल में सिद्धांत ग्रंथ आदि को पढ़ना कालशुद्धि है।
इसी के अंतर्गत द्रव्य, क्षेत्र और भावशुद्धि भी देखना चाहिए। शरीर से रुधिर या पीव आदि बह रहा हो, कोई विशेष रोग हो तो द्रव्यशुद्धि नहीं होती, इनसे वर्जित द्रव्य शुद्धि होती है।
जहाँ बैठकर स्वाध्याय करना है उस क्षेत्र के सौ हाथ भीतर में यदि मांस आदि अपवित्र वस्तुएँ हों, तो क्षेत्र शुद्धि नहीं होती, इससे रहित क्षेत्र में पढ़ने से क्षेत्र शुद्धि होती है।
राग, द्वेष, अहंकार, आर्त-रौद्रध्यान आदि से रहित तथा महाव्रत, समिति आदि से सहित परिणाम ही भावशुद्धि है।
‘‘कालशुद्ध्यादिभि: शास्त्रं पठितं कर्मक्षयाय भवत्यन्यथा कर्मबन्धायेति।’’
इस तरह कालशुद्धि आदि से पढ़ा गया शास्त्र कर्मक्षय के लिए होता है अन्यथा कर्मबंध के लिए हो जाता है।
इन शुद्धियों का विस्तार धवला की नवमीं पुस्तक में भी विशेष है। वहाँ से देख लेना चाहिए।
प्रश्न-इन शुद्धियों से युक्त जिन शास्त्रों को पढ़ना है, वे किनके द्वारा रचित हों?
उत्तर- सुत्तं गणधरकहिदं तहेव पत्तेयबुद्धिकहिदं च।
सुदकेवलिणा कहिदं अभिण्ण दसपुव्वकहिदं च।।२७७।।
गणधर देव, प्रत्येक बुद्धि ऋद्धिधारी मुनि, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी मुनियों द्वारा कथित ग्रंथ, सूत्र ग्रंथ या सिद्धांत ग्रंथ कहलाते हैं। उन्हीं के लिए सब शुद्धि देखना आवश्यक है। यथा-
तं पढिदुमसज्झाए णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स।
एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए।।२७८।।
अस्वाध्याय काल में मुनिवर्ग और आर्यिकाओं को इन सूत्र ग्रंथ को नहीं पढ़ना चाहिए। इनसे अतिरिक्त अन्य ग्रंथ-आराधनासार आदि अस्वाध्यायकाल में भी पढ़ सकते हैं।
विनयशुद्धि-पर्यंकासन से बैठकर पिच्छिका से प्रतिलेखन करके अंजलि जोड़कर प्रणामपूर्वक सूत्र और उसके अर्थ में उपयोग को लगाते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना विनयशुद्धि है।
उपधानशुद्धि-घी, दूध आदि रसों में से किसी का त्याग कर ग्रंथ पढ़ना उपधान शुद्धि है।
बहुमानशुद्धि-आचार्य, उपाध्याय आदि तथा शास्त्र आदि को बहुमान देकर उनकी पूजा आदि पूर्वक पढ़ना बहुमान शुद्धि है।
अनिन्हव शुद्धि-अपने गुरु का नाम नहीं छिपाना और जिस शास्त्र से बोध हुआ हो, उसका नाम भी नहीं छिपाना अनिन्हव शुद्धि है। सामान्य यति आदि से पढ़कर जो तीर्थंकर आदि का नाम बताते हैं यह निन्हव दोष है, इससे रहित अनिन्हव शुद्धि होती है।
व्यंजनशुद्धि-अक्षर, पद, मात्रा से शुद्ध गाथा या सूत्रों को पढ़ना व्यंजनशुद्धि है।
अर्थशुद्धि-उन सूत्र, गाथा, श्लोक आदि का अर्थ शुद्ध समझना और शुद्ध ही प्रतिपादित करना अर्थशुद्धि है।
उभयशुद्धि-सूत्र और अर्थ दोनों को शुद्ध पढ़ना-पढ़ाना, प्रतिपादित करना उभयशुद्धि है।
यह ज्ञानाचार के आठ भेदरूप आठ शुद्धियों का कथन हुआ है। क्योंकि-
विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं।
तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि।।२८६।।
विनय से पढ़ा गया शास्त्र यदि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाए तो भी वह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है।
चारित्राचार-हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों से विरत होना यह पाँच प्रकार का चारित्राचार है।
तेसिं चेव वदाणं रक्खट्ठं रादि भोयणणियत्ती।
अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ।।२९५।।
इन व्रतों की रक्षा के लिए रात्रि भोजन का त्याग, आठ प्रवचन मातृकाएं और सर्व-पच्चीस भावनाएँ हैं।
मुनियों के लिए रात्रि भोजन त्याग नाम का छठा अणुव्रत माना है। पाँच समिति और तीन गुप्ति ये आठ प्रवचन माता कहलाती हैं और अहिंसा आदि पाँचों व्रतों को स्थिर रखने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएं ऐसी पच्चीस भावनाएँ होती हैं।
पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप यह चारित्राचार भी आठ प्रकार का है२।
गुप्ति-रागद्वेष आदि से मन का जो रोकना है, वह मनोगुप्ति है। असत्य वचनों से वचन को रोकना अथवा मौन रहना वचनगुप्ति है। काय क्रिया के अभावरूप कायोत्सर्ग करना कायगुप्ति है।
एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं।
रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ।।३३६।।
ये आठ प्रवचन माताएं, जैसे-माता पुत्र की रक्षा करती है, वैसे ही सदा मुनि के दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करती हैं।
एदाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं महिं विहरमाणो दु।
हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकाआउले साहू।।३२६।।
इन समितियों से युक्त साधु हमेशा ही जीव समूह से भरे हुए भूतल पर विहार करते हुए भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होते हैं।
जैसे-चिकनाई गुण से युक्त कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार साधु जीवों के मध्य समितिपूर्वक चर्या करता हुआ पापों से लिप्त नहीं होता है। जैसे-मजबूत कवच वाला मनुष्य पड़ती हुई बाण वर्षा से भी नहीं भिदता है, वैसे ही समिति से सहित साधु जीव समूह में विचरण करता हुआ भी नहीं बंधता है। जहाँ पर अज्ञानी विचरण करता है, वहीं पर जीवों का परिहार करता हुआ ज्ञानी भी विचरण करता है किन्तु अज्ञानी तो कर्मों से बंध जाता है और ज्ञानी जीवों का परिहार करता हुआ कर्मों से मुक्त हो जाता है इसलिए हे मुने! तुम्हें समितिपूर्वक ही प्रवृत्ति करनी चाहिए। इससे नये कर्म नहीं बंधेंगे और पुराने निर्जीर्ण हो जायेंगे।
पच्चीस भावनाएँ-एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्या समिति, मनोगुप्ति और आलोक्य-देखकर, शोधकर भोजन, पान ये अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएं हैं। क्रोध, भय, लोभ और हास्य का त्याग तथा अनुवीचि भाषण ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। याचना, समनुज्ञापना, अपनत्व का अभाव, त्यक्त प्रतिसेवना और साधर्मी को उपकरण का उनके अनुकूल सेवन ये पाँच भावनाएँ तृतीय अचौर्यव्रत की हैं। स्त्रियों का अवलोकन, पूर्व भोगों का स्मरण, संसक्त वसतिका स्ो विरति एवं विकथा से और प्रणीत रसों से विरति ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं। शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध इनमें राग-द्वेष आदि का त्याग करना ये पाँच परिग्रह त्याग व्रत की भावनाएँ हैं।
इन भावनाओं को भाते हुए साधु सोते हुए भी किंचित् मात्र भी व्रतों में विराधना नहीं करते हैं फिर जो इस समय जाग्रत हैं, उनके प्रति तो कहना ही क्या है ?
इस प्रकार संक्षेप से पाँच प्रकार का यह चारित्रासार कहा है।
तप आचार-बाह्य-अभ्यंतर भेद से तप आचार दो प्रकार का है। उनमें से प्रत्येक के भी छह-छह भेद हैं। तप के अनुष्ठान का नाम तप आचार है।
अनशन, अवमौदर्य, रस परित्याग, वृत्तपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छह बाह्य तप हैं।
चतुर्विध आहार का त्याग करना अनशन है। काल की मर्यादा सहित और जीवनपर्यंत के भेद से अनशन के दो भेद हैंं उसमें भी मर्यादा सहित तप साकांक्ष है और यावज्जीवन अनशन निराकांक्ष है।
बेला, तेला आदि तथा कनकावली, एकावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि सब अनशन के भेद हैं।
भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन ये जो मरण के भेद हैं, वे ही निराकांक्ष अनशन के भेद हैं।
अवमौदर्य-पुरुष का आहार बत्तीस कवल-ग्रास प्रमाण है। उसमें से एक ग्रास भी कम लेना या मात्र एक ग्रास लेना अवमौदर्य तप है।
रसपरित्याग-दूध, घी, दही, तेल, गुड़ और नमक इन रसों का त्याग करना या तिक्त, अम्ल, कटु, कषाय और मधुर इन रसों का या इनमें से एक, दो आदि का त्याग करना रस परित्याग तप है। इन प्रासुक भक्ष्य रसादि का तपश्चरण के लिए त्याग किया जाता है तथा महाविकृति नाम से जो वस्तु हैं उनको यावज्जीवन के लिए छोड़ ही देना चाहिए।
मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं। ये सर्वथा असंयम के लिए कारण हैं अत: सर्वथा त्याज्य हैं।
वृत्तपरिसंख्यान-गृहों का प्रमाण, दाता का या बर्तनों का नियम, ऐसे अनेक प्रकार के नियम लेकर जो आहार के लिए जाना है वह वृत्तपरिसंख्यान तप है।
कायक्लेश-खड़े होकर कायोत्सर्ग करना, प्रतिमायोग आदि के द्वारा व अनेक आसन के द्वारा आगम के अनुकूल काय को कष्ट देते हुए तप करना कायक्लेश तप है। आतापन, वृक्षमूल, अभ्रावकाश आदि योग सब इसी में शामिल हैं।
विविक्तशयनासन-अप्रमत्त-सावधानीपूर्वक सोने, बैठने, उठने और ठहरने आदि के लिए एकांतस्थान या गुरुओं के निकट आदि में रहना, तिर्यंचिनी, मनुष्य स्त्री, देवी और गृहस्थों से सहित मकान में नहीं रहना विवक्तिशयनासन तप है।
बाह्य तप वही है जिससे मन अशुभ को प्राप्त न हो, श्रद्धा उत्पन्न हो और योग हीन न हों।
अभ्यंतर तप-इसके भी छह भेद हैं-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग।
प्रायश्चित्त-अपराध को प्राप्त हुआ मुनि जिसके द्वारा किये हुए पाप से विशुद्ध हो जाता है-छूट जाता है, वह प्रायश्चित्त तप है।
इसके १० भेद हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान।
यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त क्रम से दोषों के अनुरूप होता है। गुरु के पास विनयपूर्वक बैठकर बालक के समान सरलता से
अपने दोषों को निवेदन कर उनके द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्त को ग्रहण करने से पापों का शोधन होता है।
विनय-नम्रवृत्ति का होना विनय है। इसके पाँच भेद हैं-दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और औपचारिक विनय।
शंकादि दोष रहित उपगूहन आदि गुणों को धारण करना दर्शन विनय है। काल शुद्धि आदि सहित ज्ञानाभ्यास करना ज्ञान विनय है।
इन्द्रिय, कषायों का निग्रह करके गुप्ति समिति में प्रवृत्त होना चारित्र विनय है।
उत्तर गुणों में उत्साह, उनका अभ्यास, श्रद्धा, उचित आवश्यकों में हानि-वृद्धि न करना तप विनय है।
मन-वचन-काय से प्रत्यक्ष या परोक्ष में गुरुओं का आदर, सत्कार, नमस्कार, आज्ञा पालन आदि करना औपचारिक विनय है।
इसका विस्तार मूलाचार में पढ़ने लायक है।
एक रात्रि भी अधिक दीक्षित (एक क्षण भी प्रथम दीक्षित) बड़ों में अपने से दीक्षा में जो छोटे हैं उनमें, आर्यिकाओं में और गृहस्थों में भी यथायोग्य विनय करना चाहिए१। जो अपने से छोटे हैं तथा आर्यिका आदि में बहुमान देकर आदरसूचक शब्द बोलना ही विनय है।
विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा।
विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।।३८५।।
विनय से हीन की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का फल सर्व कल्याण है।
वैयावृत्य-आचार्यादि पाँचों में बाल-वृद्ध से सहित गच्छ में सर्वशक्ति से वैयावृत्य करना चाहिए।
गुणों से अधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगण, कुल, संघ और मनोज्ञतासहित मुनि, आपत्ति के प्रसंग में इन सबकी वैयावृत्ति करनी चाहिए। वसति, स्थान, आसन तथा उपकरण इनका प्रतिलेखन उपकार करना, आहार, औषधि आदि से तथा उनका मल-मूत्र आदि दूर करने से और उनकी वंदना आदि के द्वारा वैयावृत्ति की जाती है।
स्वाध्याय-परिवर्तन, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा स्तुति-मंगल संयुक्त पाँच प्रकार का स्वाध्याय होता है।
ध्यान-आर्त और रौद्र ये ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं।
आज के मुनि आर्त-रौद्र को छोड़कर धर्मध्यान का अवलंबन लेवें। इसके आज्ञाविचय, अपाय विचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार भेद हैं।
पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय और कालद्रव्य ये आज्ञ्ाा के विषय हैं, इनको जिनाज्ञा मानकर चिंतवन करना आज्ञा विचय है।
जिनमत का आश्रय लेकर कल्याण को प्राप्त कराने वाले उपायों का चिंतन करना या जीवों के शुभ-अशुभ का चिंतवन करना अपाय विचय है।
जीवों के एक-अनेक भवों में होने वाले पुण्य-पापकर्म के फल का तथा कर्मों के उदय, उदीरणा, बंध और मोक्ष का चिंतवन करना विपाकविचय है।
भेद सहित और आकार सहित ऊर्ध्व, अध: और मध्यलोक का ध्यान करना, इनसे संबंधित द्वादश अनुप्रेक्षा का चिंतवन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
मेरूपर्वत, कुलाचल आदि, पूर्व विदेह-पश्चिम विदेह, भरत, ऐरावत क्षेत्र इनमें होने वाले ग्राम, नगर, पत्तन आदि, भोगभूमि, द्वीप, समुद्र, वन, नदी, वेदिका, जिनमंदिर, कूट आदि का, इनके आकार आदि का चिंतवन करना। ऊर्ध्वलोक के स्वर्ग, ग्रैवेयक, अनुदिश आदि का तथा अधोलोक के नरक बिलों का, नारकियों के दु:ख आदि का चिंतवन करना यह सब संस्थानविचय धर्मध्यान है।
अद्धुवमसरणमेगत्तमण्ण संसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोधिं च चिंतिज्जो।।४०३।।
अधु्रव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि- दुर्लभ ये द्वादश अनुप्रेक्षा हैं, इनका सतत चिंतवन करना चाहिए।
शुक्लध्यान के भेदों में किस ध्यान को कहाँ-कहाँ माना है ? सो इस मूलाचार में विशेष दृष्टव्य है-
उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं।
खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं।।४०४।।
सुहुमकिरियं सजोगी झायदि झाणं च तदियसुक्कंतु।
जं केवली अजोगी झायदि झाणं समुच्छिण्णं।।४०५।।
उपशांतकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि पृथक्त्वविर्तकवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान को ध्याते हैं। क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान को ध्याते हैं। सयोगी अर्हंत भगवान सूक्ष्मक्रिया नाम के तृतीय शुक्लध्यान के ध्याता हैं और अयोगिकेवली भगवान समुच्छिन्न-व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के चौथे शुक्लध्यान के ध्याता हैं।
यह कथन षट्खण्डागम सूत्र के अनुसार है। इनके परवर्ती श्री पूज्यपाद, अकलंक देव आदि ने प्रथम शुक्लध्यान को आठवें गुणस्थान से माना है किन्तु षट्खण्डागम के कर्ता और मूलाचार के कर्ता आचार्यों ने दशवें तक धर्मध्यान, ग्यारहवें से शुक्लध्यान माना है, यह स्पष्ट है।
व्युत्सर्ग-आभ्यंतर और बाह्य के भेद से व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। मिथ्यात्व, वेद, कषाय आदि १४ अभ्यंतर परिग्रह हैं और क्षेत्र आदि दश बाह्य परिग्रह हैं। इनका त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
इन बारह तपों में कौन अधिक महत्वशाली है, सो ही कहते हैं-
बारसविधम्हि वि तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे।
णवि अत्थि णवि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं।।४०९।।
कुशल महापुरुषों द्वारा देखे गये अभ्यंतर और बाह्य ऐसे बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय के समान न कोई तप हुआ है और न होगा ही। क्यों ?
सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य।
हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू।।४१०।।
विनय से सहित हुआ मुनि स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रिय से संवृत और तीन गुप्ति से गुप्त होकर एकाग्रमना हो जाता है, इसलिए स्वाध्याय तप ध्यान की सिद्धि तक पहुँचाने वाला होने से सर्वश्रेष्ठ है।
इस प्रकार यह बारह प्रकार का तप आचार कहा गया है।
वीर्याचार-जो मुनि अपने बल, वीर्य को न छिपाकर यथोक्त तप में यथास्थान आत्मा को लगाते हैं उन्हीं के यह वीर्याचार होता है।
बलवीरियसत्तिपरक्कमधिदिबलमिदि पंचधा उत्तं।
तेसिं तु जहाजोग्गं आचरणं वीरियाचारो।
बल, वीर्य, शक्ति, पराक्रम और धृतिबल ये पाँच प्रकार कहे गये हैं। इनके आश्रय से जो यथायोग्य आचरण है वह पाँच प्रकार का वीर्याचार है।
श्री गौतम स्वामी द्वारा रचित पाक्षिक प्रतिक्रमण में भी वीर्याचार के पाँच भेद माने हैं। यथा-
‘‘वीरियायारो पंचविहो परिहाविदो वरवीरियपरिक्कमेण, जहुत्तमाणेण, बलेण, वीरिएण, परिक्कमेण, णिगूहियं तवोकम्मं ण कदं णिसण्णेण, पडिक्कंतं तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।
वीर्याचार पाँच प्रकार का है उसका जो परिहापन किया-उसमें दोष लगाया हो। वरवीर्य पराक्रम से, यथोक्तमान से, शारीरिक बल से, आत्मशक्ति से एवं परिक्रम से तपश्चरण किया जाता है। इन पाँच प्रकार के वीर्याचार को प्रगट करने वाले मुनि के द्वारा जब तप किया जाता है तब पाँच प्रकार का वीर्याचार अनुष्ठित-पालित होता है और जब परीषह आदि से इनका पालन नहीं होता है, तब अपना वीर्य निगूहित-ढका जाता है। उस संबंधी मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे।
श्रेष्ठ वीर्य के पराक्रम-उत्साह का नाम वरवीर्य पराक्रम है। आगम में चान्द्रायण आदि की विधि जिस मान से कही है या कायोत्सर्ग का जो भी जहाँ पर मान-प्रमाण कहा है, वैसा ही करना यथोक्तमान है। आहारादि से शरीर बल होना बल है। वीर्यांतराय के क्षयोपशम से अंतरंग शक्ति का होना वीर्य है। आगम में जो मूलगुण पालन आदि में उत्कृष्ट क्रम कहा है, वह परिक्रम है। ये पाँच वीर्याचार है।
इस पाक्षिक प्रतिक्रमण में दर्शनाचार के नि:शंकित आदि आठ भेद कहे हैं। ज्ञानाचार के काल, विनय आदि आठ भेद किये हैं। चारित्राचार के पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति की अपेक्षा तेरह भेद किये हैं। तप आचार के बाह्याभ्यंतर के भेद से बारह भेद किये हैं। उनमें भी बाह्य तपों में पाँचवाँ कायक्लेश एवं छठा विविक्तशयनासन कहा है। ऐसे ही अभ्यंतर तपों में पाँचवाँ तप ध्यान एवं छठा व्युत्सर्ग कहा है। आगे वीर्याचार के पाँच भेद किये हैं।
इस मूलाचार में भी उसी पद्धति के अनुसार तपों में क्रम रखा है अत: मूलाचार के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव पूर्व के गौतम स्वामी के वचनों के अनुसार ही चले हैं। ऐसे ही चारित्रपाहुड़ में भी इन्होंने सल्लेखना को चौथा शिक्षाव्रत कहा है, सो भी इस पाक्षिक प्रतिक्रमण के अनुसार है, यह प्रकरण मैंने मूलाचार पूर्वार्ध के प्राक्कथन में दिया है।
इस प्रकार जो मुनि इन पंचाचारों से अपनी आत्मा का निग्रह करने में समर्थ हैं वे सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।