तीसरे गुणव्रत में भोग—उपभोग वस्तुओं का परिसंख्यान—परिमाण किया जाता है। यहाँ पहले भोग और उपभोग इन दोनों शब्दों का अर्थ कहते हैं—
जो भोगे जाकर छुट जाते, वे भोग शब्द से कहलाते ।
ये भोजन गंध माल्य आदि, जो पुन: भोग में नहिं आते।।
जिस वस्तु का नर भोग करे, अरु पुन: भोगने में आवे।
ऐसे वस्त्राभूषण आदि , उपभोग नाम जग में पावे।।
जो पदार्थ एक बार भोगने में आते हैं उन्हें भोग शब्द से कहा जाता है। ये भोजन, गंध, माला आदि पदार्थ हैं क्योंकि पुन: इनका उपभोग नहीं हो सकता है। इनसे अतिरिक्त जो वस्तुयें पुन:—पुन: भोगने में आती हैं ऐसे वस्त्र, आभूषण, आसन आदि उपभोग नाम से जाने जाते हैं।सर्वथा त्यागयोग्य पदार्थों के नामइस व्रत का वर्णन करते हुये आचार्य महोदय कहते हैं कि कुछ पदार्थ सर्वथा ही त्याग करने योग्य हैं—
त्रस जीव घात के त्याग हेतु, मधु मांस त्याग निश्चित करिये।
त्रसहिंसा तथा प्रमाद त्याग,हेतुक मदिरा भी परिहरिये।।
इनके भक्षण से पाप अधिक, इसलिये व्रतिक जन मत लीजे।।
त्रसहिंसा से बचने के लिये शहद, अण्डे, मछली, मांस आदि तथा शराब इनका जीवन भर के लिये त्याग कर देना चाहिये। ये मद्य—मांस और मधु त्रसहिंसा के स्थान हैं, प्रमाद को बढ़ाने वाले हैं और प्रकृति को क्रूर— तामस बनाने वाले हैं। इसलिये जिसने जिनेन्द्रदेव के चरणों की शरण ले ली है ऐसा श्रावक इन तीनों मकारों का जीवनभर के लिये त्याग कर देता है। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी वस्तुयें हैं जिनमें त्रसजीवों की हिंसा तो नहीं है किन्तु स्थावर हिंसा अत्यधिक होती है। उन्हीं के बारे में जैनाचार्यों का ऐसा कहना है कि जिनके खाने में लाभ तो कम है स्वाद भी एक क्षण के लिये है किन्तु स्थावर हिंंसा बहुत ही अधिक है। ऐसे पदार्थ वंâदमूल आदि हैं। मूली, आलू, अरबी, गाजर आदि। गीली अदरक का निषेध करने से सूखी हुई सोंठ खाने का त्याग नहीं माना जाता है। उसी प्रकार और भी वस्तुयें है जैसे मक्खन अर्थात् दही को बिलोकर निकाला गया मक्खन ४८ मिनट के बाद अभक्ष्य हो जाता है उसके अन्दर ही उसे तपाकर घी निकाल लेना चाहिये। अन्यथा उसमें अनंत सम्मूर्छन जीवों का उत्पाद माना जाता है। ऐसे ही नीम के पूâल, केवड़ा के पूâल आदि भी अभक्ष्य हैं इनमें भी बहुत से अनंतकायिक जीव रहते हैं । इनके भक्षण करने से पाप ही पाप लगता है, लाभ और स्वाद कितना मात्र है ? अतएव व्रतिक श्रावकों को तो इन्हें सर्वथा ही छोड़ देना चाहिये। इनसे अतिरिक्त कुछ अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थ हैं उनका भी त्याग आवश्यक है। जो पदार्थ भक्ष्य तो हैं किन्तु स्वास्थ्य के लिये अहितकर हैं, अपथ्य हैं ऐसे पदार्थ ही अनिष्ट कहलाते हैं जैसे मूत्र आदि। इस प्रकार इन अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थों का त्याग करना भी आवश्यक है।
इस भोगोपभोग परिसंख्यान के विषय में श्री समंतभद्रस्वामी ने त्याग के दो प्रकार माने हैं— नियम और यम ।
मर्यादित काल तक किसी वस्तु का त्याग करना नियम कहलाता है
और यावज्जीवन किया गया त्याग यम कहलाता है।
भोजन, वाहन, शय्या, आसन, स्नान, गंध, माला, तांबूल, वस्त्र, आभूषण, कामभोग, संगीतश्रवण, गीत और नाटक आदि विषयों का कुछ दिन की मर्यादा से नियम करना। जैसे कि आज दो बार ही भोजन करूँगा, दो दिन वाहन से यात्रा नहीं करूँगा, दो चार दिन पलंग पर नहीं सोऊंगा, इत्यादि प्रकार से इनमें से किसी का कुछ समय या दिन आदि के लिये त्याग कर देना नियम है। यह नियम विषयों की लालसा को कम करने के लिये ही किया जाता है। तथा भक्ष्य होते हुए भी किसी वस्तु का जीवन भर के लिये त्याग कर देना यम है जैसे नमक का जीवन भर के लिये त्याग कर देना आदि। जिन खाद्य पदार्थों पर फफूँदी लग जाती है वे भी अभक्ष्य हो जाते हैं जैसे कच्चे आम की लौंजी, भीगा हुआ गीला कत्था, आम के रस का अमावट, बासी साग—सब्जी आदि। उसी प्रकार से बड़ी, पापड़, मुंगौड़ी आदि भी चौबीस घण्टे के बाद अभक्ष्य माने गये हैं चूँकि इनमें सम्मूच्र्छन जीव उत्पन्न हो जाते है। ऐसे ही वर्षा ऋतु में पत्ती के साग भी नहीं लेना चाहिये। कच्चा दूध यदि अड़तालीस मिनट तक तपा लिया जाता है तो ठीक अन्यथा ४८ मिनट के बाद में वह अभक्ष्य हो जाता है। छना हुआ पानी ४८ मिनट तक ग्राह्य है पुन: अनछने के समान है। यदि छानकर उसमें लवंग , इलायची या कपूर डाल देते हैं तो वह छह घण्टे तक प्रासुक रहता है तथा गरम किया हुआ जल चौबीस घण्टे तक प्रासुक माना गया है। ऐसे ही वर्षा ऋतु में कुटे हुये हल्दी आदि मसालों में भी छोटी—छोटी लटें पड़ जाती हैं अत: इन कुटे हुये मसालों को दो—तीन दिन ही काम में लेना चाहिये। व्रतिक श्रावकों का तो यह सब कर्तव्य है ही , भाद्रपद में शुद्ध खान—पान करने वाले पुरुषों को और महिलाओं को भी इन उपर्युक्त बातों की जानकारी रखते हुये शुद्ध, सात्विक, प्रासुक भोजन—पान करना चाहिये।