अपनी रसना इन्द्रिय की लोलुपता से तथा अपने शौक पूरे करने के लिये अथवा कौतुकवश जंगल के निरपराधी, मूक प्राणियों को मारना शिकार कहलाता है। प्राचीनकाल से ही इस धरती पर शिकारी राजा आदि होते आए हैं जो अत्यन्त निष्ठुर बनकर पशु, पक्षियों को मारकर अपनी वीरता का प्रदर्शन करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं किन्तु उनका वह सुख मात्र सुखाभास है एवं भविष्य में दारुण दुःख का कारण है। जो पशु-पक्षी जंगलों में रहकर पर्यावरण की रक्षा करते हैं, कृषि आदि कार्यों में मनुष्यों को सहयोग प्रदान करते हैं तथा पेड़—पौधों पर ही जिनका जीवन आधारित होता है, मनुष्यों से उन्हें किसी प्रकार की अपेक्षाएं नहीं होतीं, फिर भी निर्दयी मानव अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उनका शिकार करता है और अपने नरक का द्वार खोलता है। वीरों का कर्तव्य है कि निस्सहाय, गरीब, अनाथ जीवों की कष्ट से रक्षा करें, वहीं सच्चा बलवान क्षत्रिय है। जो बलवान होकर इस निंद्य दुष्कृत्य में अपने बल का प्रयोग करता है वह वीर नहीं किन्तु धर्महीन अविवेकी है। ऐसे प्राणी शिकार व्यसन के द्वारा इस लोक में निंद्य और दुःखी तो होते ही हैं तथा परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र महाग्रन्थ में आचार्य श्री उमास्वामी ने एक सूत्र कहा है—परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् प्रत्येक प्राणी परस्पर में एक दूसरे का उपकार करता है, इसी से संसार-मोक्ष की व्यवस्था चलती है। यद्यपि यह सूत्र मनुष्यों को जीव और पुद्गल का पारस्परिक उपकार बताने के लिए कहा गया है तथापि इसका पालन मानव कर नहीं पाता है। एकेन्द्रिय पेड़-पौधे तथा गाय-भैंस आदि तिर्यंच प्राणी तो मनुष्यों के ऊपर न जाने कितने अनुग्रह करते देखे जाते हैं किन्तु मनुष्य उनके प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता है। एक पौराणिक कथानक के अनुसार ब्रह्मदत्त नामक राजा ने शिकार व्यसन में प्रसिद्धि प्राप्त की और मरकर नरक में गया। उसकी कथा यहाँ प्रसंगानुसार दी जा रही है— किसी समय जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की उज्जयिनी नगरी में ब्रह्मदत्त राजा राज्य करता था। उसे शिकार खेलने में बड़ी रुचि थी तथा धर्मसेवन में उसकी तीव्र अरुचि थी क्योंकि हिंसा का धर्म के साथ क्या सम्बन्ध ? वह प्रतिदिन शिकार खेलने जाया करता था जब उसे शिकार मिल जाता तो बहुत प्रसन्न होता और जब नहीं मिलता तो अत्यधिक दुःखी होता। इस प्रकार राज्य करते-करते बहुत दिन व्यतीत हो गए। एक दिन की बात है कि जिस वन में वह शिकार के लिए गया उसी वन में एक मुनिराज के दर्शन हो गए। मुनिराज एक पाषाण की शिला पर ध्यानारूढ़ थे, उनके प्रभाव से उस दिन राजा ब्रह्मदत्त को कोई शिकार नहीं मिला। यह देखकर राजा बड़ा क्रोधित हुआ, उसने मुनि से बदला लेने की ठान ली। संयोगवश एक दिन जब वे महामुनि आहार के लिए शहर में गए थे उस समय ब्रह्मदत्त ने जंगल में जाकर उनके ध्यान करने की शिला को अग्नि की तरह गरम करवा दिया। मुनिराज आहार करने के पश्चात् आकर उसी शिला पर निःशंक होकर बैठ गए। बैठते ही मुनिराज का शरीर जलने लगा, असह्य वेदना होने लगी परन्तु मुनिराज निश्चल रूप से वह उपसर्ग सहन करते रहे। अन्त में बारह भावना का चिन्तन करते-करते शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि से कर्म का नाश कर वे अन्तकृत केवली बन गए और अक्षय अविनश्वर मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया। इधर सात दिन भी नहीं बीत पाये थे कि पापकर्म के तीव्र उदय से ब्रह्मदत्त राजा के सारे शरीर में कुष्ट रोग उत्पन्न हो गया जिसके कारण उसे मनुष्य पर्याय में ही नरक के दुःख भोगना पड़ा। जब वह इस असह्य वेदना को सहन नहीं कर सका तब व्याकुलता के कारण जलती अग्नि में कूद कर अपने प्राण गंवा दिए , पुनः आत्र्तध्यान से मरकर नरक में चला गया। वहाँ तेंतीस सागर तक भीषण दुःख भोगकर तिर्यंचगति में चला गया, पुनः जन्म मरण करता हुआ नरक में चला गया। देखो! एक शिकार व्यसन के कारण उस ब्रह्मदत्त राजा ने बेकसूर मुनिराज के ऊपर उपसर्ग किया और भव-भव में भयंकर कष्ट भोगे। शिकारी व्यक्ति की बुद्धि अत्यन्त क्रूर हो जाती है, उनके हृदय में निरन्तर छल, छिद्र और विश्वासघात रूप पाप वासनाएं जागृत रहती हैं। अपनी मौज—मस्ती के लिए मानव निरीह पशुओं का शिकार करके अपनी अमानवीयता का परिचय देता है। कवियों ने कहा भी है— यदि भला किसा का कर न सको, तो बुरा किसी का मत करना। अमृत न पिलाने को घर में, तो जहर पिलाने से डरना।। इन पंक्तियों को ध्यान में रखते हुए प्राणी मात्र के प्रति मैत्री और करुणा की भावना रखनी चाहिये तथा इस निर्दयी व्यसन को अति निंद्य, दुर्गति एवं दुःखों का पात्र जानकर उसे सर्वथा त्याग करना चाहिये।