रमेश-क्यों सुरेश! तुम भी मेरे साथ चलोगे क्या आज ?
सुरेश-कहाँ मेरे मित्र! बताओ तो,मैं तुम्हारा साथ कैसे छोड़ सकता हूं।
रमेश-तब तो बड़ा मजा आएगा। जंगल में भागते हुए पशुओं पर निशाना लगाने में बड़ा आनंद आता है।
सुरेश-अरे राम, राम! यह क्या कहा तुमने ? तब तो मैं किसी भी हालत में तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा।
रमेश-अरे यार! तुम तो बड़े कमजोर दिल वाले मालूम पड़ते हो। इतनी जल्दी अपने इरादे से फिसल गये।
सुरेश-मुझे तो लगता है कि तुम बड़े पापी आदमी हो। मैंने सोचा था जंगल में टहलने—घूमने चल रहे हो किन्तु तुम तो शिकार खेलने जा रहे हो इसलिये मैं तुम्हारे साथ नही जाऊंगा। रमेश! शिकार करके किसी जीव की हिंसा करना घोर पाप है।
रमेश-हिंसा, पाप, यह तो सभी कहते हैं लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि यदि इन पशुओं को मारा नहीं जायेगा तो एक दिन ऐसा आएगा कि दुनिया में पशु ही पशु रह जाएंगे, मनुष्य कोई रहेगा ही नहीं।
सुरेश-मतलब यह रहा कि तुमने दुनिया के सारे पशुओं को समाप्त करने का ठेका ले लिया है। धत् तेरे की! ऐसे-ऐसे पापी मनुष्य ही तो अगले जन्म में पशु होते हैं उन्हें निर्दयी मनुष्य मारते हैं। पशु कोई आकाश से तो टपकते नहीं हैं।
रमेश-अच्छा! तुम मुझे इतनी बड़ी दुराशीष दे रहे हो कि मैं अगले जन्म में पशु होकर दूसरों द्वारा मारा जाऊंगा। अरे मेरे मूर्ख मित्र ! यदि इतना पाप होता तो प्राचीनकाल के राजा—महाराजा शिकार क्यों खेलते। शास्त्र तो मैंने भी पढ़े हैं कि शिकार के शौकीन बहुत से राजा लोग होते थे तो क्या सभी मरकर पशु ही हो जाते थे।
सुरेश-इसमें बुरा मानने की क्या बात है ? झूठ बोलना,चोरी करना पाप है यह सभी जानते हैं लेकिन यदि कोई बड़ा आदमी चोरी कर ले तो मुझे बताओ वह चोरी का पाप धर्म बन जाएगा क्या ? पाप—पुण्य करने वाले को तो अपना-अपना फल भोगना ही पड़ता है। रमेश ! तुम सच्चे दिल से सोचो तो सही, जिस प्रकार हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार वे भी तो बेचारे जीवन की आशा रखते हैं। हमारे शरीर में कोई एक कांटा भी चुभा दे तो कितनी तकलीफ होती है।
रमेश-तुम भी खूब रहे सुरेश! मनुष्य और पशु की कोई बराबरी है। अभी मनुष्य को कोई मार दे तो सरकार उसे मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास की सजा देती है लेकिन पशु को मारने पर कोई सजा नहीं है।
सुरेश-यही तो कलियुग की विशेषता है। देखो! जंगल के पेड़ काटने वालों को सरकारी सजा होती है किन्तु जंगल के मूक पशुओं को मारने से कोई सजा नहीं मिलती है इसीलिए तो अत्याचार बढ़ रहा है और आज हिंसा की बढ़ोत्तरी हो रही है । बात यह है पाप और पुण्य दोनों अनादिकाल से इस संसार में चले आ रहे हैं किन्तु समझदार मनुष्य पाप को छोड़कर पुण्य में प्रवृत्ति करते हैं। मैं तो तुमको यही कहूँगा रमेश! शिकार खेलना छोड़ दो, अपने क्षणिक आनंद के लिए निरीह पशुओं को मत मारो। वे तो तुम्हारा कुछ बिगाड़ते भी नहीं हैं।
रमेश-सुरेश! तुम्हारी बात तो सही है लेकिन मुझे कोई ऐसा उदाहरण तो देखने में नहीं आया कि शिकार खेलने वाले को दुर्गति में जाना पड़ा हो।
सुरेश-तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। रमेश! हमारी आर्य संस्कृति में यह अनार्यों की कृति शोभा नहीं देती। तुम जरा पुराण ग्रन्थों को पढ़कर तो देखो कि शिकार करने वाले तो पशुगति में ही नहीं नरकों में जाकर अनंत कष्टों को भोगते हैं। उनकी गर्दन पर आरी चलाई जाती है, उन्हें कढ़ाई के गरम तेल में तला जाता है, वैतरणी नदी में फेंका जाता है किन्तु इन दुःखों को भोगते हुए भी वे मरते नहीं हैं। यह नरकगति में विशेष बात है कि आयु पूरी हुए बिना कोई नारकी मर नहीं सकता । सुनो, मैं तुम्हें एक छोटा सा उदाहरण सुनाता हूँ- एक राजकुमार को शिकार खेलने का बड़ा शौक था। वह प्रायः प्रातःकाल राजमहल से घोड़े पर बैठकर निकलता और जंगल से कोई न कोई शिकार अवश्य करके लौटता था। एक दिन जब वह घर से बाहर निकला ही था तभी एक दिगम्बर मुनिराज के दर्शन हो गए। राजकुमार ने सोचा-आज शुभ शकुन हुआ अतः मेरे कार्य की सिद्धी होगी और कोई अच्छा शिकार हाथ लगेगा। उसे यह क्या पता कि आज मेरे जीवन में परिवर्तन ही आ जाएगा ।
रमेश-अच्छा! तो क्या मुनिराज से उसने शिकार खेलने का त्याग कर दिया ?
सुरेश-नहीं रमेश! सुनो तो सही। वह राजकुमार घोड़े पर सवार होकर जंगल के अंदर बड़ी आशा से घुसा था कि आज बहुत जल्दी शिकार मिलेगा। किन्तु यह क्या? जंगल में घूमते-घूमते सारा दिन बीत गया, संध्या हो रही थी। राजकुमार खिन्न होकर घर लौटने का विचार कर ही रहा था कि तभी पास की झाड़ियों में कुछ हलचल हुई। राजकुमार उसी ओर भागा। मनुष्य की गंध पाकर एक हिरणी जल्दी-जल्दी अपनी जान बचाकर भाग रही थी तभी राजकुमार ने एक तीर मारा। निशाना अचूक था बेचारी हिरणी वहीं गिर पड़ी। तत्काल ही राजकुमार ने पास आकर उसे उठाया और पीछे घोड़े पर रख कर चल पड़ा महल की ओर। कुछ ही दूर घोड़ा पहुंचा था कि पीछे से किसी के आने की आवाज सुनकर राजकुमार ने मुड़कर देखा कि एक हिरण दौड़ा चला आ रहा है। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि शिकारी के पीछे शिकार स्वयं आ रहा है। क्या इसे अपने प्राणों का मोह नहीं है ? एक बार तो सोचा कि इसे भी मार दूं किन्तु विलम्ब हो जाने के कारण राजकुमार रुका नहीं। काफी दूर जाने के बाद राजकुमार ने फिर पीछे मुड़कर देखा कि हिरण मेरे पीछे आ रहा है। उसने कहा-अरे भोले प्राणी! जंगल में भाग जा वर्ना मेरे जैसा कोई भी शिकारी आकर तुझे मार देगा, तू क्यों अपनी जान गंवाने पर तुला है ? किन्तु हिरण के ऊपर कोई असर नहीं, वह तो भागा जा रहा था राजकुमार के ही पीछे। राजकुमार का शहर समीप आ गया था। उसने एक बार फिर पीछे देखा कि हिरण अविरल गति से मेरे ही पीछे आ रहा है और उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही है।
रमेश-अरे,क्या हिरण आदि पशु भी रोना जानते हैं ?
सुरेश-तो क्या सब कुछ तुम्हीं जानते हो ? पशु हमारे—तुम्हारे जैसी भाषा बोल नहीं सकते तो क्या हुआ! सुख—दुख तो उसे भी होता ही है।
रमेश-अच्छा, फिर क्या हुआ ?
सुरेश-सुनो, आगे क्या हुआ! राजकुमार आखिर घोड़े से उतर पड़ा,वहीं पर वह हिरण भी रुक गया और बार— बार घोड़े पर बन्धी हिरणी की ओर लपककर चूमने का प्रयास करने लगा। राजकुमार ने शिकार को भी उतार कर नीचे रख दिया। फिर क्या था, हिरण उससे लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ा। बड़ा मार्मिक दृश्य था वह रमेश ! जिसे देखकर उस निर्दयी राजकुमार की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। उसने सोचा अवश्य ही यह हिरणी जिसको मैंने मारा है इसकी पत्नी या कोई कुटुम्बी होगी। हिरण बार—बार अपनी मूक वाणी से हिरणी को देख—देखकर उससे बातें कर रहा था और रो रहा था किन्तु हिरणी कहां बोलने वाली थी ? वह तो परलोक सिधार चुकी थी। अब राजकुमार पश्चाताप करने लगा कि मैंने क्यों दो दिलों का आपस में वियोग कराया ? हे भगवान् ! अब मैं कैसे इन दोनों को मिला दूँ, क्या उपाय करूं। उस हिरण का इतना स्नेहयुक्त रुदन देखकर राजकुमार कहने लगा-हे परमात्मा! मेरी जान लेकर इस हिरण की हिरणी वापस दे दे। मैं तेरा उपकार जन्म—जन्म में नहीं भूलुंगा किन्तु तुम्हीं बताओ रमेश! शरीर से प्राण निकल जाने के बाद क्या वापस आ सकते हैं ?
रमेश-यह कैसे हो सकता है ? यदि ऐसे ही प्राण वापस आने लग जाएं तो मौत ही कैसी ?
सुरेश-इसी प्रकार हिरणी के प्राण तो राजकुमार उसमें डाल न सका! हां, पश्चाताप करके उसने अपने जीवन में यह शिक्षा अवश्य ली कि ‘यदि हम किसी प्राणी को प्राण देने के अधिकारी नहीं हैं तो लेने का अधिकार भी किसी प्रकार से नहीं हो सकता’।
रमेश-अच्छा,सुरेश! तब तो मैं आज से शिकार खेलने का त्याग करता हूँ और हम दोनों मिलकर भविष्य में खूब अहिंसा धर्म का प्रचार करेंगे।