दिगम्बर साधु संयम की रक्षा हेतु शरीर की स्थिति के लिए दिन में एक बार छ्यालीस दोष, चौदह मल दोष और बत्तीस अंतरायों को टालकर आगम के अनुकूल नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। उसी को पिंडशुद्धि या आहार शुद्धि कहते हैं।
उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च।
इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी दु।।४२१।।
उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, इंगाल, धूम और कारण, मुख्यरूप से आहार संबंधी ये आठ शुद्धि मानी गई हैं। इनसे विपरीत आठ दोष हो जाते हैं-
१. दातार के निमित्त से जो आहार में दोष लगते हैं, वे उद्गमदोष कहलाते हैं।
२. साधु के निमित्त से आहार में होने वाले दोष उत्पादन नाम वाले हैं।
३. आहार संबंधी दोष एषणा दोष है।
४. संयोग से होने वाला दोष संयोजना है।
५. प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है।
६. लंपटता से आहार लेना इंगाल दोष है।
७. निंदा करके आहार लेना धूम दोष है।
८. विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है।
इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४, ऐसे १६+१६+१०+४=४६ दोष हो जाते हैं।
इन सबके अतिरिक्त एक अध:कर्मदोष है, जो महादोष कहलाता है। इसमें वूâटना, पीसना, रसोई करना, पानी भरना और बुहारी देना, ऐसे पंचसूना नाम के आंरभ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसके करने वाले साधु उस साधु पद में नहीं माने जाते हैं।
(१) औद्देशिक-साधु, पाखंडी आदि के निमित्त से बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश दोष है।
(२) अध्यधि-आहारार्थ साधुओं को आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना।
(३) पूतिदोष-प्रासुक तथा प्रासुक को मिश्र कर देना।
(४) मिश्र दोष-असंयतों के साथ साधु को आहार देना।
(५) स्थापित-अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना।
(६) बलिदोष-यक्ष, देवता आदि के लिए बने हुए में से अवशिष्ट को देना।
(७) प्रावर्तित-काल की वृद्धि या हानि करके आहार देना।
(८) प्राविष्करण-आहारार्थ साधु के आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन आदि मांजना।
(९) क्रीत-उसी समय वस्तु खरीर कर लाकर देना।
(१०) प्रामृष्य-ऋण लेकर आहार बनाना।
(११) परिवर्तन-शालि आदि देकर बदले में अन्य धान्य लेकर आहार बनाना।
(१२) अभिघट-पंक्तिबद्ध सात घर से अतिरिक्त अन्य स्थान से अन्नादि लाकर मुनि को देना।
(१३) उद्भिन्न-भोजन के ढक्कन आदि को खोलकर अर्थात् सील, मुहर, चपड़ी आदि हटाकर वस्तु निकालकर देना।
(१४) मालारोहण-निसैनी से चढ़कर वस्तु लाकर देना।
(१५) आछेद्य-राजा आदि के भय से आहार देना।
(१६) अनीशार्थ-अप्रधान दातारों से दिया हुआ आहार लेना।
ये सोलह दोष श्रावक के आश्रित होते हैं, ज्ञात होने पर मुनि ऐसा आहार नहीं लेते हैं।
(१) धात्रीदोष-धाय के समान बालकों को भूषित करना, खिलाना, पिलाना आदि करना जिससे दातार प्रसन्न होकर अच्छा आहार देवें, यह मुनि के लिए धात्री दोष है।
(२) दूतदोष-दूत के समान किसी का समाचार अन्य ग्रामादि में पहुँचाकर आहार लेना।
(३) निमित्तदोष-स्वर, व्यंजन आदि निमित्तज्ञान से श्रावकों को हानि, लाभ बताकर खुश करके आहार लेना।
(४) आजीवकदोष-अपनी जाति, कुल या कला, योग्यता आदि बताकर दातार को अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजीवक दोष है।
(५) वनीपकदोष-किसी ने पूछा कि पशु, पक्षी, दीन, ब्राह्मण आदि को भोजन देने से पुण्य है या नहीं ? हाँ पुण्य है, ऐसा दातार के अनुकूल वचन बोलकर यदि मुनि आहार लेवें, तो वनीपक दोष है।
(६) चिकित्सादोष-औषधि आदि बताकर दातार को खुश कर आहार लेना।
(७) क्रोध दोष-क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना।
(८) मान दोष-मान करके आहार उत्पादन कराकर लेना।
(९) माया दोष-कुटिल भाव से आहार उत्पादन कराकर लेना।
(१०) लोभदोष-लोभाकांक्षा दिखाकर आहार कराकर लेना।
(११) पूर्वसंस्तुतिदोष-पहले दातार की प्रशंसा करके आहार उत्पादन कराकर लेना।
(१२) पश्चात् स्तुति दोष-आहार के बाद दातार की प्रशंसा करना।
(१३) विद्यादोष-दातार को विद्या का प्रलोभन देकर आहार लेना।
(१४) मंत्रदोष-मंत्र का माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना। श्रावकों को शांति आदि के लिए मंत्र देना दोष नहीं है किन्तु आहार के स्वार्थ से बताकर उनसे इच्छित आहार ग्रहण करना सो दोष है।
(१५) चूर्णदोष-सुगंधित चूर्ण आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना।
(१६) मूलकर्मदोष-अवश को वश करने आदि के उपाय बताकर आहार लेना।
ये सभी दोष मुनि के आश्रित होते हैं इसलिए ये उत्पादन दोष कहलाते हैं। मुनि इन दोषों से अपने को अलग रखते हैं।
(१) शंकित-यह आहार अध:कर्म से उत्पन्न हुआ है क्या ? अथवा यह भक्ष्य है या अभक्ष्य इत्यादि शंका करके आहार लेना।
(२) भुक्षित-घी, तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने चम्मच आदि से दिया हुआ आहार लेना।
(३) निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी, जल आदि से संबंधित आहार लेना।
(४) पिहित-प्रासुक या अप्रासुक ऐसे बड़े से ढक्कन आदि को हटाकर दिया हुआ आहार लेना।
(५) संव्यवहरण-जल्दी से वस्त्र, पात्रादि खींचकर बिना विचारे या बिना सावधानी के दिया हुआ आहार लेना।
(६) दायक-आहारदान के अयोग्य, मद्यपायी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त अथवा सूतक-पातक आदि से सहित दातारों से आहार लेना।
(७) उन्मिश्र-अप्रासुक वस्तु संमिश्रित आहार लेना।
(८) अपरिणत-अग्न्यादि से अपरिपक्व आहार-पान आदि लेना।
(९) लिप्त-पानी या गीले गेरू आदि से लिप्त ऐसे हाथों से दिया हुआ आहार लेना।
(१०) छोटित-हाथ की अंजुलि से बहुत कुछ नीचे गिराते हुए आहार लेना।
ये दश दोष मुनियों के भोजन से संबंध रखते हैं। मुनि इन दोषों से अपने को सदैव बचाते रहते हैं।
(१ ) संयोजना दोष-आहारादि के पदार्थों का मिश्रण कर देना, ठंडे जल आदि में उष्ण भात आदि मिला देना, अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तु का मिश्रण करना संयोजन दोष है।
(२) अप्रमाणदोष-उदर के दो भाग रोटी आदि से पूर्ण करना होता है, एक भाग रस, दूध, पानी आदि से भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है। यह आहार का प्रमाण है, इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है।
(३) अंगार दोष-जिह्वा इंद्रिय की लंपटता से भोजन ग्रहण करना।
(४) धूमदोष-भोज्य वस्तु आदि की मन में निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना।
इस प्रकार से उद्गम के १६ + उत्पादन के १६+एषणा के १०+और संयोजना आदि ४· सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं।
जो पहले ८ शुद्धि में एक कारण शुद्धि थी, वह इनसे अलग है। अब उसको बताते हैं-
‘‘छह कारणों से आहार ग्रहण करते हुए भी मुनि धर्म का पालन करते हैं और छह कारणों से ही आहार को छोड़ते हुए भी वे मुनि चारित्र का पालन करते हैं।’’
वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए।
तध पाण धम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं।।४७९।।
(मूलाचार श्री कुंद्कुंदकृत गाथा-४७९)
(१) क्षुधा की वेदना मिटाने के लिए,
(२) अपनी और अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने के लिए,
(३) सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं के पालन के लिए,
(४) संयम पालन के लिए,
(५) अपने दश प्राणों की चिंता अर्थात् प्राणों की रक्षा के लिए और
(६) दशधर्म आदि के चिंतन के लिए मुनि आहार ग्रहण करते हुए भी धर्म का पालन करते हैं।
अर्थात् यदि मैं भोजन नहीं करूँगा तो क्षुधा वेदना धर्मध्यान को नष्ट कर देगी, स्व अथवा अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने की शक्ति नहीं रहेगी, सामायिकादि आवश्यक क्रियाएं निर्विघ्नतया नहीं हो सकेंगी, षट्कायिक जीवों की रक्षारूप संयम नहीं निभेगा, अपने इन्द्रिय, बल, आयु प्राणों की रक्षा के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं होगी और आहार के बिना दश धर्मादि का पालन भी वैâसे होगा ? यही सोचकर साधु आहार ग्रहण करते हैं।
आदंके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ।
पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छेदो।।४८०।।
(१) आकस्मिक व्याधि के आ जाने पर
(२) भयंकर उपसर्ग के आ जाने पर
(३) ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा हेतु
(४) जीव दया हेतु
(५) अनशन आदि तप करने के लिए और
(६) सन्यासकाल के उपस्थित होने पर मुनि आहार का त्याग कर देते हैं।
दिगम्बर मुनि बल और आयु की वृद्धि के लिए, स्वाद के लिए, शरीर की पुष्टि या शरीर के तेज के लिए आहार ग्रहण नहीं करते हैं। प्रत्युत् ज्ञान की वृद्धि, संयम की वृद्धि और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं।
ये मुनि नवकोटि से विशुद्ध, बयालीस दोषों से रहित, संयोजना के दोष से शून्य, प्रमाणसहित और विधिवत्-नवधा भक्ति से प्रदत्त, अंगार और धूम दोष से भी हीन, छह कारण संयुत, क्रमविशुद्ध और प्राणयात्रा या मोक्षयात्रा के लिए साधन मात्र तथा चौदह मलदोष रहित ऐसा आहार ग्रहण करते हैं१।
श्रावकों के द्वारा आहार बनाने में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति नहीं करना और कृत, कारित या अनुमोदना भी नहीं करना, इस प्रकार से मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणित करने पर ३² + ३=९ नव भेद हो जाते हैं। नवकोटि से रहित आहार ‘नवकोटि विशुद्ध’ कहलाता है।
श्रावकों के श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्त्व-शक्ति ये सात गुण हैं तथा पड़गाहन करना, उच्चासन देना, चरण प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचनशुद्धि, काय की शुद्धि कहना और आहार की शुद्धि कहना, यह नवधा भक्ति है। इन सप्त गुण सहित, नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया आहार विधिवत् कहलाता है। ऐसे विधिवत् दिये गये तथा चौदह मल दोष रहित आहार को मुनि लेते हैं।
चौदह मल दोष-आहार में नख, बाल, हड्डी, मांस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का कलेवर, कण२, कुंड३, बीज, कंद, मूल और फल ये चौदह मल माने गये हैं। इनमें से कोई महामल है, कोई अल्पमल है, कोई महादोष है और कोई अल्पदोष है। रुधिर, मांस, अस्थि, चर्म और पीप ये महादोष हैं, आहार में इनके दीखने पर आहार छोड़कर प्रायश्चित्त भी लिया जाता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का शरीर-मृतक लट, चिंवटी, मक्खी आदि तथा बाल के आहार में आ जाने पर आहार का त्याग कर दिया जाता है, नख के आ जाने पर आहार छोड़कर गुरु से किंचित् प्रायश्चित्त भी लेना होता है। कण, कुंड, बीज, कंद, फल और मूल के आहार में आ जाने पर यदि उनको निकालना शक्य है तो निकाल कर आहार कर सकते हैं अन्यथा आहार का त्याग करना होता है।
सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि अपने शरीर में रक्त, पीप बहने लगे अथवा दातार के शरीर में बहने लगे तो आहार छोड़ देना होता है। मांस के देखने पर भी उस दिन आहार का त्याग कर दिया जाता है। द्रव्य से प्रासुक आहार भी यदि मुनि के लिए बनाया गया है तो वह अशुद्ध है। इसलिए ज्ञात कर ऐसा आहार मुनि नहीं लेते हैं। ‘‘जैसे मत्स्य के लिए किये गये मादक जल से मत्स्य ही मदोन्मत्त होते हैं किन्तु मेंढक नहीं, वैसे ही पर के लिए बनाये हुए आहार में प्रवृत्त हुए मुनि उस दोष से आप लिप्त नहीं होते हैं अर्थात् गृहस्थ अपना कर्तव्य समझकर शुद्ध भोजन बनाकर साधु को आहार देते हैं तब मुनि अपने रत्नत्रय की सिद्धि कर लेते हैं और श्रावक दान के फल से स्वर्ग मोक्ष को सिद्ध कर लेते हैं।
यदि आहार शुद्ध है फिर भी साधु अपने लिए बना हुआ समझकर उसे ग्रहण करता है तो वह दोषी है और यदि कृत, कारित आदि दोष रहित आहार लेने के इच्छुक साधु को अध:कर्मयुक्त सदोष भी आहार मिलता है किन्तु उसे वह शुद्ध समझकर ग्रहण कर रहा है, तो वह साधु शुद्ध है१।
सूरुदयत्थमणादो णालीतिय वज्जिदे असणकाले।
तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्ममुक्कस्से।।४९२।।
सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पहले तक आहार का समय है। आहारकाल में भी आहार का समय उत्कृष्ट एक मुहूर्त (४८ मिनट), मध्यम दो मुहूर्त और जघन्य तीन मुहूर्त प्रमाण तक है२। मध्यान्हकाल में दो घड़ी बाकी रहने पर प्रयत्नपूर्वक स्वाध्याय समाप्त कर देववंदना करके वे मुनि भिक्षा का समय जानकर पिच्छी कमण्डलु लेकर शरीर की स्थिति हेतु आहारार्थ अपने-अपने आश्रम से निकलते हैं। मार्ग में संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति का चिंतन करते हुए ईर्यापथशुद्धि से धीरे-धीरे गमन करते हैं। वे किसी से बात न करते हुए मौनपूर्वक चलते हैं। श्रावक द्वारा पड़गाहन हो जाने पर वे खड़े हो जाते हैं तब श्रावक उन्हें अपने घर में ले जाकर नवधाभक्ति करता है। मुनि अपने पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर खड़े होकर अपने दोनों करपात्रों को छिद्ररहित बना लेते हैं। अनंतर सिद्धिभक्ति करके क्षुधावेदना को दूर करने के लिए वे प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं।
आहार में पाँच प्रकार की वृत्ति-‘‘गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रामरीवृत्ति और श्वभ्रपूरण, इन पाँच प्रकार की वृत्ति को रखकर मुनि आहार ग्रहण करते हैं३।’’
इस प्रकार से आहार ग्रहण करते हुए यदि बत्तीस अंतरायों में से कोई भी अंतराय आ जाए, तो वे आहार छोड़ देते हैं। जो दाता और पात्र दोनों के मध्य में विघ्न आता है, वह अंतराय कहलाता है।
(१) काक-आहार को जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि बीट कर देवे तो काक नाम का अंतराय है।
(२) अमेध्य-अपवित्र विष्टा आदि से पैर लिप्त हो जावे।
(३) छर्दि-वमन हो जावे।
(४) रोधन-आहार को जाते समय कोई रोक देवे।
(५) रक्तस्राव-अपने शरीर से या अन्य के शरीर से चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुआ दीखे।
(६) अश्रुपात-दु:ख से अपने या पर के अश्रु गिरने लगें।
(७) जान्वध:परामर्श-यदि मुनि जंघा के नीचे के भाग का स्पर्श कर लें।
(८) जानूपरिव्यतिक्रम-यदि मुनि जंघा के ऊपर का व्यतिक्रम कर लें अर्थात् जंघा से ऊँची सीढ़ी पर-इतनी ऊँची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़ें, तो जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय है।
(९) नाभ्योनिर्गमन-यदि नाभि से नीचे शिर करके आहारार्थ जाना पड़े।
(१०) प्रत्याख्यात सेवन-जिस वस्तु का देव या गुरु के पास त्याग किया है, वह खाने में आ जाए।
(११) जंतुवध-कोई जीव अपने सामने किसी जीव का वध कर देवे।
(१२) काकादिपिंडहरण-कौवा आदि हाथ से ग्रास का अपहरण कर ले।
(१३) ग्रासपतन-आहार करते समय मुनि के हाथ से ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे।
(१४) पाणौ जंतुवध-आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खी आदि जंतु हाथ में मर जावे।
(१५) मांसादिदर्शन-मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेने से अंतराय है।
(१६) पादांतरजीव-यदि आहार लेते समय पैर के नीचे से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जावे।
(१७) देवाद्युपसर्ग-आहार लेते समय देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि उपसर्ग कर देवें।
(१८) भाजनसंपात-दाता के हाथ से कोई बर्तन गिर जावे।
(१९) उच्चार-यदि आहार के समय मल विसर्जित हो जावे।
(२०) प्रस्रवण-यदि आहार के समय मूत्र विसर्जन हो जावे।
(२१) अभोज्य गृह प्रवेश-यदि आहार के समय चांडालादि के घर में प्रवेश हो जावे।
(२२) पतन-आहार करते समय मूर्छा आदि से गिर जाने पर।
(२३) उपवेशन-आहार करते समय बैठ जाने पर।
(२४) सदंश-कुत्ते, बिल्ली आदि के काट लेने पर।
(२५) भूमिस्पर्श-सिद्धभक्ति के अनंतर हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर।
(२६) निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर।
(२७) उदरकृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदर से कृमि आदि निकलने पर।
(२८) अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई विंâचित् वस्तु ग्रहण कर लेने पर।
(२९) प्रहार-अपने ऊपर या किसी के ऊपर शत्रु द्वारा शस्त्रादि का प्रहार होने पर।
(३०) ग्रामदाह-ग्राम आदि में उसी समय आग लग जाने पर।
(३१) पादेन किंचिद्ग्रहण-पाद से किंचित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर।
(३२) करेण वस्तु ग्रहण-आहार करते समय हाथ से कुछ वस्तु उठा लेने पर।
इन उपर्युक्त कारणों से आहार छोड़ देने का नाम ही अंतराय है। इसी प्रकार से इन बत्तीस के अतिरिक्त चांडालादि स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक-सन्यासपतन, राज्य में किसी प्रधान का मरण आदि प्रसंगों से भी अंतराय होता है। अंतराय के अनंतर साधु आहार छोड़कर मुखशुद्धि कर आ जाते हैं। मन में वे विंâचित् भी खेद या विषाद को न करते हुए ‘लाभादलाभोवरं’ लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक कर्मनिर्जरा होती है, ऐसा चिंतन करते हुए वैराग्यभावना को वृद्धिंगत करते रहते हैं।
जेणेह पिंडसुद्धी उवदिट्ठा जेहि धारिदा सम्मं।
ते वीरसाधुवग्गा तिरदणसुद्धिं मम दिसंतु।।५०१।।
इस जगत में जिन्होंने पिंडशुद्धि का उपदेश दिया है और जिन्होंने सम्यक् प्रकार से इसे धारण किया है वे वीर साधुवर्ग मुझे तीन रत्न की शुद्धि प्रदान करें।