बिना दिये किसी की वस्तु लेने को चोरी कहते हैं। चोरी को ही अपनी आजीविका का साधन बना लेना चोरी व्यसन है। जिस मनुष्य को इस निंदनीय कर्म को करने की आदत पड़ जाती है वह धन संपत्तियुक्त होते हुए भी तीव्र लोभ अथवा अन्य व्यसनों में फँसकर इसे महान् कष्ट—आपदा का कारण जानते हुए भी चोरी करता है। जैसे—राजपुत्र होकर भी ललितांग ने चोरों के सरदार बनकर अंजन चोर की प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। चोर से संसारीजन भी भयभीत रहते हैं एवं चोर स्वयं राजदंड आदि के भय से व्याकुल रहता है। उसे कोई अपने पास बैठने भी नहीं देता है क्योंकि यदि वह चोरी नहीं भी करे तो भी दूसरे जन उसके प्रति सदैव शंकित ही रहते हैं। कभी-कभी यह आदत बच्चों में बचपन से ही पड़ जाती है पुनः आगे चलकर वह आदत व्यसन का रूप धारण कर परिवार की बदनामी का कारण बन जाती है अतः शालीन माता-पिताओं को अपने बच्चों के प्रति सदा सजग रहना चाहिए कि यदि वे स्कूल से दूसरे बच्चों की छोटी-छोटी चीजें भी चुरा कर ले आते हैं तो उन्हें समझाकर, चोरी के अवगुण बतलाकर उससे ही वस्तु वापस करावें ताकि भविष्य में पुनः बालक को चोरी करने की हिम्मत न पड़े एवं वह अपने दोस्तों को भी चोरी न करने की शिक्षा देगा। कुछ लोगों की ऐसी धारण बन जाती है कि चोरी करके हम धनाढ्य सेठ बन जाएंगे किन्तु प्रायः देखा जाता है कि चोरी करने वाला धनिक नहीं बन पाता है क्योंकि जो माल वह दूसरों का दिल दुखाकर हड़प कर जाता है वह बीमारी आदि किसी न किसी माध्यम से शीघ्र समाप्त हो जाता है और वह दरिद्री का दरिद्री ही बना रहता है। ईमानदारी अथवा परिश्रम से कमाया हुआ अल्प धन भी शरीर एवं मन को पुष्ट करता है तथा चोरी से लाया धन कभी भी आत्मशान्ति प्रदान नहीं कराता, प्रत्युत पारिवारिक कलह का ही कारण बनता है। एक पौराणिक सत्य कथानक है कि एक बार बनारस नगरी में शिवभूति नामक राजपुरोहित ने अपने सत्यवादित्व का ढिंढोरा पीटकर अपना नाम सत्यघोष प्रसिद्ध कर दिया था। उसके चंगुल में फँसकर धनपाल श्रेष्ठी ने अपने चार कीमती रत्न उसके पास रख दिये और विदेश में धन कमाने चला गया। वहाँ से कई वर्षों बाद वापस आने पर उसका सारा माल रास्ते में जहाज फट जाने से डूब गया, किसी तरह अपनी जान बचाकर वापस अपने नगर आकर उसने जब पुरोहित से अपने रत्न मांगे तो उसने साफ मना कर दिया कि मेरे पास तो तुम्हारे कोई रत्न नहीं हैं, तुम मुझे झूठमूठ चोर बनाना चाह रहे हो। वह बेचारा धनपाल जब बहुत दुःखी हुआ तब एक दिन महारानी ने युक्ति से उसके रत्नों का पता लगा दिया कि वे रत्न तो सत्यघोष के पास ही हैं। उन्हें उसके घर से मंगाकर राजा ने धनपाल को वापस दिये एवं सत्यघोष को कठोर दंड देकर देश से निकाल दिया। देखो ! चोरी कितनी बुरी आदत है, इस एक व्यसन से मनुष्य के अनेक गुण भी मिट्टी में मिल जाते हैं, धन का नाश हो जाता है, कुल भी कलंकित होता है तथा परलोक में नरक आदि दुःख भोगने पड़ते हैं। इसीलिए तीर्थंकरों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि सिद्धान्तों को श्रावकों-गृहस्थों के लिए भी अणुव्रत रूप में पालन करने का विधान बताया है किन्तु आज वे सिद्धान्त शास्त्रों एवं मंदिरों तक ही सीमित रह गए हैं तथा मनुष्य दोहरी जिन्दगी जीने का शौकीन हो गया है। वह मंदिर के सिद्धान्तों को मंदिर में तो पुकार-पुकार कर भगवान को सुनाता है और मंडी में जाकर वहाँ झूठ और चोरी का आश्रय लेकर अपनी पेटी भरने में लग जाता है। लोग कहते हैं कि पापी पेट के लिए मनुष्यों को न जाने कितने पाप कमाने पड़ते हैं किन्तु मुझे यह कथन नितान्त असत्य प्रतीत होता है क्योंकि पेट भरने के लिए व्यक्ति को कभी पाप करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, हाँ! पेटी भरने के लिए संसार में सभी पाप हो रहे हैं। नीतिकारों ने एक सूक्ति कही है कि पिछले जन्म के पुण्य कर्म के कारण यदि इस भव में खूब धन सम्पत्ति भी मिली है तो उसे दान एवं परोपकार में लगाने वाले व्यक्ति का धन सार्थक समझना चाहिए। लोग अपने परिवारजनों के पोषण हेतु झूठ-चोरी आदि पापों का सहारा लेते हैं किन्तु उन्हें यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि कर्म करने वाले को उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है, गृह-कुटुम्ब के लोग कभी उसमें सहभागी नहीं बन सकते हैं। प्रिय बन्धुओ ! कर्म सिद्धान्त अटल है अतः उसके रहस्य को समझकर चोरी व्यसन का पूर्णरूप से त्याग करके अपने परिश्रम के द्वारा धन कमाना चाहिए । चोरी का धन कभी स्थाई नहीं रहता है और न ही शारीरिक-आत्मिक पुष्टता को प्रदान करता है इसलिए व्यसन तजकर निव्र्यसनी बनना चाहिए एवं अचौर्याणुव्रत का पालन करना चाहिए।