प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतइस प्रकार से द्वितीय शिक्षाव्रत का नाम प्रोषधोपवास है।
श्री गौतमस्वामी स्वयं श्रावक प्रतिक्रमण में चतुर्थ प्रतिमा का वर्णन करते समय कहते हैं
‘‘उत्तममज्झजहण्णं तिविहं पोसहविहाणमुछिट्ठं।
सगसत्तीए मासम्मि चउसु पव्वेसु कायव्वं।।’’
प्रोषधविधान के तीन प्रकार माने गये हैं— उत्तम, मध्यम और जघन्य। प्रत्येक मास के चारों पर्वों में अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें करना चाहिये।
प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का लक्षण-
अष्टमी चतुर्दशि पर्वों में , अपने अंतर की इच्छा से। चारों प्रकार आहार त्याग, कर देना जिनवचशिक्षा से।।
यह है प्रोषध उपवास नाम,शिक्षाव्रत तप को सिखलावे।जो इसका पालन करते हैं, वे तनु से निर्मम बन जावें।।
प्रत्येक माह की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी को अपनी इच्छा से आगम के अनुसार चारों प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत इसलिये है कि तप करने की शिक्षा देता है। इस व्रत के धारी शरीर से निर्मम हो जाते हैं।
उपवास के दिन त्याज्य कार्य-
जिस दिन उपवास करो उस दिन,पांचों पापों का त्याग करो।
आरंभ गंध माला आदिक, सब अलंकार का त्याग करो।
स्नान और अंजन मंजन, नस्यादि क्रियाओं को तजिये।
तन से ममत्व परिहार हेतु, वैराग्यभाव को आचरिये।।
जिस दिन उपवास हो उस दिन पांचों पापों का त्याग करके आरंभ, गंध, माला, अलंकार, स्नान, अंजन, मंजन, नस्य आदि क्रियाओं का त्याग कर देना चाहिये। उस दिन शरीर से ममत्व दूर करने हेतु वैराग्यभाव को धारण करना चाहिये।
भावार्थ—उपवास के दिन स्नान आदि त्याग करने का विधान उनके लिये है जो कि जिनमंदिर या एकांत स्थान आदि पर रहकर २—३ दिन तक लगातार स्वाध्याय, ध्यान आदि ही किया करते हैं परन्तु जो घर में रहकर गृहस्थाश्रम के कार्यों का त्याग नहीं कर सकते उनका कर्तव्य है कि वे व्रत के दिन दान—पूजन अवश्य करें। तथा दान—पूजन आदि के लिये स्नान करना आवश्यक है यह बात ध्यान रखना चाहिये।
उपवास के दिन करने योग्य कार्य–
उपवास दिवस आलस्य रहित,होकर शास्त्रों का पठन करे।
उत्कण्ठित हो धर्मामृत को,निजकर्णों से भी पान करे।।
पर को भी धर्म सुधारस का,उस दिन वह पान करा देवे।
बस ज्ञान ध्यान में तत्पर हो, उपवास सफल निज कर लेवे।।
उपवास दिवस आलस्य रहित होकर शास्त्रों का स्वाध्याय करे। अति उत्कंठा से धर्मरूपी अमृत को स्वयं पीवे अर्थात् धर्म का श्रवण करे और अन्यों को भी धर्म श्रवण करावे। इस प्रकार वह श्रावक ज्ञान और ध्यान में तत्पर होता हुआ अपने उपवास को सफल कर लेवे।
प्रोषध और उपवास का लक्षण-–
जब अशन खाद्य औ लेह्य पेय, चउविध आहार का त्याग करे।
उपवास यही औ एक बार , भोजन प्रोषध यह नाम धरे।।
तेरस—पूनो एकाशन कर, चौदस का जब उपवास करे।
तब होता प्रोषधोपवासी, ऐसी विधि अष्टमि को भि करे।।
अशन, खाद्य, लेह्य और पेय आहार के ये चार भेद हैं। इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है और दिन में एक बार शुद्ध भोजन करना ‘प्रोषध’ है। विशेष यह है कि—तेरस को एकाशन करके चौदश को उपवास करना, पुन: पूनों को एकाशन करना यह प्रोषधोपवास कहलाता है। ऐसे ही सप्तमी को एकासन, अष्टमी को उपवास, पुन: नवमी को एकाशन करना यह प्रोषधोपवास का लक्षण है। इन व्रतों में एकाशन के दिन दूसरी बार जल ग्रहण करना भी वर्जित है। चूँकि सबसे जघन्य विधि एक बार भोजन है। यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत भी मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा देता है अतएव इसका शिक्षाव्रत का नाम सार्थक है। मुनि तो सदा ही एक भक्त— दिन में एक बार भोजन करते हैं अत: जो गृहस्थ इस प्रकार से प्रोषधव्रत किया करते हैं उन्हें एकाशन का अभ्यास हो जाने से मुनिपद में एक बार आहार लेने से कष्ट नहीं महसूस होता है और न उन्हें भूख—प्यास की बाधा ही सताती है। वैसे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी प्रत्येक महीने में कम से कम चार बार उपवास या एकाशन उचित ही है। इससे पाचन शक्ति अच्छी रहती है, अपच, वातप्रकोप, कफ आदि दोष भी शांत हो जाते हैं। इसलिये प्रत्येक गृहस्थ के लिये चाहे महिला हो या पुरुष, नवयुवक हो या नवयुवती, बालक हो या बालिकायें उन सबके लिये भी यह शिक्षाव्रत उपयोगी है। उपवास और एकाशन का अभ्यास जीवन में बहुत ही आवश्यक है। प्रसंगोपात्त धर्म की रक्षा के लिये उपवास का अवसर आ जावे तो कायरता नहीं होती है । सती सीता ने रावण के यहाँ नियम कर लिया कि ‘जब तक मैं श्रीरामचन्द्र का समाचार नहीं सुनूंगी तब तक के लिये मेरे चतुराहार का त्याग है।’ ऐसे अवसर पर उनके ग्यारह उपवास हो गये उसके बाद हनुमान के द्वारा रामचन्द्र का समाचार विदित होने पर सीता ने अन्न—जल ग्रहण किया था। यदि उन्होंने बचपन में या जीवन में कभी भी उपवास न किया होता तो इतना बड़ा धैर्य वैâसे कर पातीं। इसी प्रकार से सल्लेखना की सिद्धि के लिये भी जीवन में उपवास आदि का अभ्यास बहुत ही आवश्यक है।