गुणनिधि तपोधन मुनियों को, बस स्वपर धर्म की वृद्धि हेतु।
जो दान दिया जाता अतिथिसंविभाग व्रत विशेष।।
यश मंत्र प्रती उपकार आदि, से अनपेक्षित हो भक्ति से।
निज शक्ति विभव के अनूसार, उपकार करे गुरु भक्ति से।।
गुणों के निधान और तपरूपी धन के धारक ऐसे मुनियों को स्वपर धर्म की वृद्धि हेतु जो दान दिया जाता है वह अतिथि—संविभागव्रत है। यश, मंत्र आदि प्रत्युपकार की अपेक्षा के बिना ही जो गृहत्यागी मुनियों का अपने वैभव व शक्ति के अनुसार उपकार किया जाना वह सब अतिथि—संविभागव्रत है।
पुन: कहते हैं—
मुनि के गुण में अनुरागी बन, उनके दु:खों को दूर करे।
पद संवाहन मर्दन आदि, औ अन्य सभी उपचार करे।।
इस विधि से मुनि आर्यिकादी, संयमियों की वैयावृत्ती।
यह चौथा शिक्षाव्रत माना, इससे होती सुख संपत्ती।।
मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुये उनके दु:खों को दूर करना, उनके पैर दबाना, तेल मालिश करना आदि यथायोग्य अन्य भी उपचार करना सब अतिथिसंविभागव्रत है। इस प्रकार से मुनि, आर्यिका आदि संयमी साधु —साध्वियों की वैयावृत्ति यह चौथा शिक्षाव्रतहै इससे श्रावक को सुख और संपत्ति की प्राप्ति होती है।
आहारदान की विधिअब दान देने की विधि बताते हैं—पड़गाहन उच्चस्थान पाद—प्रक्षालन पूजन नमस्कार। मन वचन काय शुद्धी भोजन,शुद्धी ये नवधा भक्तिसार।।
जो सात गुणों से युत श्रावक, रुचि से नवधाभक्ती पूर्वक।
देते संयमियों को आहार, उसको ही दान कहें गणभृत्।।
पड़गाहन करना,उच्च आसन पर बिठाना,चरण प्रक्षालन करना,पूजन करना, नमस्कार करना, मन,वचन, काय की शुद्धि और आहार की शुद्धि बोलना, इन नव प्रकार से नवधा भक्ति कहलाती है।
श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विज्ञान (विवेक), क्षमा, निर्लोभता और सत्त्व ये सात गुण दाता के माने गये हैं । इन सात गुणों से युक्त श्रावक मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक जो आहार दान देते हैं उसी का नाम दान है।आहारदान का फलपुन: इस दान का क्या फल है ?
सो कहते हैं—गृह कर्म रूप अग्नीज्वालन, आदिक ‘सूना’ जो पाँच कहे।
उनके करने से पापों का, संचय होता दिन रात रहे।।
गृहत्यागी अतिथि के आहार, से सर्व पाप धुल जाते हैं।
जिस तरह रुधिर से मलिन वस्त्र, जल से धो स्वच्छ बनाते हैं।।
अग्नि जलाना, जल भरना, वूâटना, पीसना और बुहारी लगाना ये पाँच कार्य ‘सूना’ शब्द से कहे जाते हैं चूँकि इनमें हिंसा अवश्यम्भावी है। प्रत्येक गृहस्थ को इन पाँच सूना को करना ही पड़ता है और इससे दिन—रात ही पाप कर्मों का संचय होता ही रहता है। वह सब पाप गृहत्यागी संयमी को आहार देने से नष्ट हो जाता है। जैसे रुधिर से गंदा हुआ वस्त्र जल से धुलकर स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही गृहस्थी के आरम्भ से संचित पाप कर्म को आहार दान से धो डालता है, इसमें रंचमात्र भी संशय नहीं है।
आहारदान के पात्र के भेद पात्र के तीन भेद हैं—उत्तम, मध्यम और जघन्य।महाव्रती मुनि उत्तम पात्र हैं। क्षुल्लक, ऐलक आदि व्रती मध्यम पात्र हैं। आर्यिकादीभी मध्यम पात्र में उत्कृष्ट हैं।
अणुव्रती सम्यग्दृष्टि श्रावक जघन्य पात्र हैं। इनसे अतिरिक्त सभी अपात्र या कुपात्र हैं।
संयमियों को करते प्रणाम, वे उच्चगोत्र को पाते हैं।
जो देते दान भोग पाते, सेवा से पूजा पाते हैं।
भक्ति से सुंदर रूप मिले, स्तुति प्रशंसा से कीर्ति।
गुरु की उपासना से इस विध, हो जाती सब सुख संपत्ती।।
तपोनिधि मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र में जन्म होता है, उनको दान देने से भोग मिलते हैं, उनकी उपासना करने से पूजा होती है, उनकी भक्ति करने से सुंदर रूप मिलता है और उनकी स्तुति करने से कीर्ति बढ़ती है। इस तरह गुरुओं की भक्ति , पूजा, उपासना आदि से सुख संपत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
अल्पदान से महाफलअल्पदान से भी महाफल होता है उसको उदाहरण देकर समझाते हैं—
अच्छी उपजाऊ भूमी में, वह बीज बड़ा सा वृक्ष बने।
निज काय पाय भारी छाया, देता औ फल दे मिष्ट घने।।
वैसे ही उत्तम पात्रों में, विधिवत् जो दान अल्प भी दे।
वह समय पाय बहु फल देता, इच्छानुवूâल सब वैभव दे।।
बढ़िया उपजाऊ जमीन में बोया गया छोटा सा भी बड़ का बीज एक दिन बहुत बड़ा वृक्ष बन जाता है। समय पर बहुत से लोगों को बहुत बड़ी छाया देता है और मीठे—मीठे फल भी खिलाता है। वैसे ही जो विधिवत् उत्तम पात्रों में यदि थोड़ा सा भी आहारदान देते हैं तो वह उनका दान समय के आने पर बहुत बड़ा फल देता है तथा इच्छा के अनुसार सभी प्रकार के वैभव प्रदान करता है।
जिनप्रतिमा विराजमान करने का फल-
कुत्थुंभरिदलमेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं।
सरिसवमेत्तं पिलहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं।।४८१।।
जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहि-तोरणसमग्गं।
णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कइ वण्णिउं सयलं।।४८२।।
-आचार्य वसुनन्दि
अर्थ-जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा को स्थापन करता है, वह तीर्थंकर पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है।