अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना—व्यभिचार करना परस्त्री सेवन नाम का व्यसन है। परस्त्री की अभिलाषा मात्र से ही पाप लगता है, तो फिर उसके सेवन करने से तो महापाप का ही बन्ध होता है। इस व्यसन में रावण का नाम पौराणिक प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका है कि वह परस्त्री की अभिलाषा मात्र से नरक में चला गया और आज भी वहाँ भीषण दुःखों को भोग रहा है। रावण के पापाचार का विस्तार आप लोगों ने विभिन्न रामायणों के माध्यम से देखा और सुना है, उसका अत्यन्त संक्षिप्त रूपक यहाँ जैन रामायण के आधार से दिया जा रहा है— एक समय श्री रामचन्द्र जी, सीता और लक्ष्मण के साथ दण्डक वन में ठहरे हुए थे। वहाँ पर खरदूषण के युद्ध में रावण गया था तब उसने सीता को देखा, उसके रूप पर मुग्ध होकर युक्ति से उसने सीता सती का अपहरण कर लिया। सभी के समझाने पर भी जब रावण नहीं माना तब रामचन्द्र ने लक्ष्मण को साथ में लेकर अनेकों विद्याधरों की सहायता से रावण के साथ युद्ध ठान लिया पुनः दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। अन्त में रावण ने अपने चक्ररत्न को लक्ष्मण पर चला दिया किन्तु चक्र लक्ष्मण को मार न सका प्रत्युत लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ गया। लक्ष्मण ने उस समय भी रावण से कहा कि तुम सीताजी को वापस कर दो किन्तु रावण नहीं माना तब लक्ष्मण ने चक्ररत्न से रावण का मस्तक काट डाला, जिससे वह मरकर नरक में चला गया एवं रावण का नाम भी सदा के लिए बदनाम हो गया। पाँच अणुव्रतों में ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पालन करने वाले महानुभाव तो इस व्यसन के त्यागी होते ही हैं तब वे गृहस्थ में रहकर भी मुक्तिपथ के पथिक बने रहते हैं। देखो! सेठ सुदर्शन को परस्त्री सेवन का त्याग था अतः उसके ऊपर रानी द्वारा उपसर्ग किये जाने पर शूली भी उनके शील के प्रभाव से सिंहासन रूप में परिवर्तित हो गई थी। परस्त्री सेवन करने वाले पुरुषों को इहलोक-परलोक की निन्दा का किंचित् भय नहीं रह जाता है तथा इस व्यसन में फंसकर अपने माता-पिता, भाई-बन्धु एवं कुल की इज्जत का भी भान नहीं रहता है जैसा कि त्रिखंडाधिपती रावण का कथानक बतलाता है कि माता केकसी और पिता रत्नश्रवा का रोम-रोम, अस्थि-मज्जा सभी जिनधर्म से ओतप्रोत थे फिर भी उनकी कुक्षि से नरकगामी पुत्र ने जन्म लेकर कुल को भी अपमानित कर दिया। इस पापाचार से होने वाली हानियों का विचार कर बुद्धिमानों को इसका शुद्ध हृदय से परित्याग कर देना चाहिए। जो परस्त्री संसर्ग का त्याग कर देते हैं वे संसार में निर्भय हो जाते हैं, उनकी उज्ज्वल कीर्तिपताका सब दिशाओं में विस्तृत हो जाती है। भगवान् पार्श्वनाथ का चरित्र पढ़ने से भी ज्ञात होता है कि उनके ऊपर उपसर्ग करने वाला कमठ का जीव भी इसी व्यसन के कारण पतित हुआ था। उसका भी लघु कथानक यहाँ प्रस्तुत है— पोदनपुर के राजा अरविन्द के कमठ और मरुभूति नामक दो मन्त्री थे। ये दोनों सगे भाई होकर भी विष और अमृत से बने हुए के समान थे। एक बार राज्यकार्य से मरुभूति बाहर गया था उस समय कमठ ने मरुभूति की पत्नी के साथ व्यभिचार किया। राजा अरविन्द ने इस बात को जानकर कमठ को दण्डित करके देश से निकाल दिया। वह कमठ अपमान से दुःखी होकर एक तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला उठाकर कुतप करने लगा। कुछ दिन बात मरुभूति जब वापस घर आया और भाई का दुष्चरित्र समाचार सुना तब वह भाई को मनाकर घर लाने हेतु भ्रातृ प्रेमवश उसके पास पहुँचा। उसे देखते ही क्रोधावेश में आकर कमठ ने वह पत्थर की शिला मरुभूति के सिर पर पटक दी। मरुभूति का जीव आर्तध्यान से मरकर हाथी हो गया। एक दिन अरविन्द महाराज दिगम्बर मुनिराज के रूप में अपने संघ सहित विहार करते हुए उस जंगल में पहुचें, जहाँ हाथी उपद्रव करता हुआ भाग रहा था, हाथी ने जब अरविन्द महाराज को देखा तब उसे पूर्व भव का जातिस्मरण हो गया। उसने परम शान्तिपूर्वक मुनिराज के उपदेश से सम्यग्दर्शन एवं अणुव्रत ग्रहण कर लिया। उधर कमठ का जीव मरकर सर्प पर्याय में चला गया। एक दिन वह हाथी जंगल के सूखे प्रासुक पत्ते खाकर नदी में पानी पीने गया, वहाँ कीचड़ में फंस गया। उसी समय कमठ के जीव सर्प ने उसे डस लिया और हाथी मन में महामन्त्र का स्मरण करते हुए मरकर देव हो गया तथा सर्प मरकर नरक में गया। देव का जीव वहाँ से आकर रश्मिवेग राजा हुआ, वहाँ वह वैराग्यभाव से दीक्षा धारण कर मुनि बन गया और तपश्चरण करके स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से आकर मरुभूति का देव पर्यायी जीव वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ, वहाँ भी मुनिदीक्षा लेकर घोर तपस्या की, तब कमठ के नारकी जीव ने भील पर्याय में आकर मुनिराज पर पूर्वभव के वैर के कारण घोर उपसर्ग किया। पुनः चक्रवर्ती मुनिराज ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हो गये और वहाँ से निकलकर आनन्द नाम के मंडलेश्वर राजा हुए, उन्होंने उस राजवैभव का सदुपयोग कर सूर्य विमान बनवाकर उसमें अनेकों जिनप्रतिमाएँ विराजमान कीं। चतुर्मुख, सर्वतोभद्र, कल्पवृक्ष नाम वाली अनेक महामह पूजाएँ आनन्द महाराज के द्वारा सम्पन्न हुई, पुनः दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करके उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया तथा अन्त में मरकर सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हो गये। इसके पश्चात् कमठ का जीव ही भवान्तर में मनुष्य पर्याय में जन्मा एवं जब मरुभूति का जीव इन्द्र पर्याय से च्युत होकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ बना तब वह उनके नाना के रूप में मिथ्या तापसी बनकर एक बार पंचाग्नि तप कर रहा था और पार्श्वनाथ के सम्बोधन से उसने अपने समक्ष जलती लकड़ी को चीरकर मरणासन्न नागयुगल को देखा तब तापसी पूर्व भवों के वैर संस्कार के कारण पार्श्वनाथ से और भी अधिक द्वेष करने लगा, जिसके कारण मरकर वह शंवर नाम का ज्योतिषी देव हो गया। बालब्रह्मचारी तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली तब शंवर देव उधर से निकला और क्रोध के संस्कार से प्रभु पर महाभयंकर उपसर्ग करने लगा किन्तु पार्श्वनाथ उससे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए और उनकी तपोशक्ति से धरणेन्द्र-पद्मावती जो पूर्व भव की सर्प पर्याय से णमोकार मन्त्र सुनते हुए मरकर देव-देवी हुए थे, उन्होंने प्रगट होकर पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर किया। भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई पुनः उन्होंने समस्त कर्मों को नष्ट करके सम्मेदशिखर पर्वत से निर्वाण धाम प्राप्त कर लिया। उपर्युक्त कथानक का मूल देखने पर ज्ञात होता है कि कमठ ने परस्त्री सेवन करके अपना भव-भवान्तर बिगाड़ा तथा व्यर्थ में ही मरुभूति के जीव को तीर्थकर बनने तक कष्ट देता रहा। इस एक व्यसन ने उसकी आत्मा को इतना विकृत कर दिया कि वह भाई के निश्छल प्रेम को भी नहीं पहचान सका और वैर संस्कार बनाकर जन्म-जन्मान्तर में दुःख भोगता रहा। आज भी प्रतिदिन अखबारों में अनेक बलात्कार के किस्से पढ़ने को मिलते हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति के विरुद्ध हैं। यहाँ अपनी विवाहिता धर्मपत्नी के अतिरिक्त सभी महिलाओं को माता और बहन के रूप में देखने की बात महापुरुषों ने बताई है उसी सिद्धान्त पर सभी को अमल करना चाहिए । इस प्रकार क्रम-क्रम से आपने सातों व्यसन से होने वाली हानियों पर दृष्टिपात किया है। इसके द्वारा देशवासियों को व्यसन मुक्ति की प्रेरणा प्राप्त हो यही मंगल भावना है।