नारद का आगमन— किसी समय हस्तिनापुर में भीम से आदरणीय राजा युधिष्ठिर राज्यिंसहासन पर विराजे थे, उनके ऊपर चंवर ढुर रहे थे और छत्र लगा हुआ था। उसी समय नारद जी आकाशमार्ग से पाण्डवों की सभा में आये। पुण्यशाली पाण्डवों ने उठकर नारद ऋषि का सम्मान किया, हाथ जोड़कर उच्च आसन आदि दिये, मंगल वार्तालाप हुआ। अनन्तर वे नारद अन्त:पुर में चले गये। वहाँ द्रौपदी दर्पण के सामने अपना शृंगार कर रही थी इसलिए उसने नारदजी को नहीं देखा और उठकर विनय आदि नहीं किया। बस क्या था, नारद के क्रोध का पार नहीं रहा। वे वहाँ से चले गये और द्रौपदी के द्वारा हुए अपमान का बदला चुकाने के लिए अनेकों उपाय सोचते रहे। ==
अन्त में वे धातकीखण्डद्वीप के भरतक्षेत्र में गये, वहाँ के अमरकंकापुरी का राजा पद्मनाथ था उसके सामने द्रौपदी के लावण्य की बहुत ही प्रशंसा की। उस राजा ने वन में जाकर मंत्राराधना से संगमदेव को बुलाकर उसे द्रौपदी को लाने को कहा। उस देव ने भी रात्रि में सोई हुई द्रौपदी को ले जाकर वहाँ उत्तम उपवन में छोड़ दिया। प्रात:काल निद्रा भंग होने पर द्रौपदी को सब मालूम हुआ कि मैं हस्तिनापुर से बहुत ही दूर यहाँ हरण कर लायी गयी हूँ। पद्मनाभ राजा ने आकर द्रौपदी से बहुत अनुनय की किन्तु वह शीलव्रती द्रौपदी अचल रही। उसने अपने मस्तक पर वेणी बाँधकर अर्जुन के समाचार मिलने तक आहार और अलंकारों का त्याग कर दिया। इधर प्रात: द्रौपदी के न मिलने से ‘‘कोई शत्रु हरण कर ले गया है’’ ऐसा समझकर पाण्डवों ने सर्वत्र किंकर भेजे, श्रीकृष्ण को भी समाचार भेज दिये, सर्वत्र खोज चल रही थी। इसी बीच श्रीकृष्ण की सभा में नारद ने आकर कहा—हे केशव! द्रौपदी अमरकंका नामक नगरी में मैंने देखी है, आप उसे दु:ख से छुड़ाइये। इस समाचार से श्रीकृष्ण और पाण्डव आदि बहुत ही प्रसन्न हुये। श्रीकृष्ण रथ पर बैठकर दक्षिण समुद्र के तट पर जा पहुँचे और लवण समुद्र के अधिष्ठाता देव की आराधना की। अनन्तर लवणसमुद्र का रक्षकदेव पाँचों पाण्डवों सहित श्रीकृष्ण को छह रथों में बिठाकर क्षण मात्र में दो लाख योजन विस्तृत लवण समुद्र का उल्लंघन कर उन्हें धातकीखण्ड द्वीप के भरतक्षेत्र में ले गया। वहाँ श्रीकृष्ण ने पैरों के आघात से किले के दरवाजे को तोड़ दिया, नगर में सर्वत्र हाहाकार मचा दिया, तब द्रोही राजा पद्मनाभ घबड़ाकर द्रौपदी की शरण में पहुँचा और क्षमायाचना की।
द्रौपदी ने उसे क्षमा करके अभयदान दिलाया और भाई श्रीकृष्ण तथा ज्येष्ठ, देवर एवं पति अर्जुन से मिलकर प्रसन्न हुई। उस समय अर्जुन ने स्वयं अपने हाथों से द्रौपदी की वेणी की गाँठ खोली, पुन: स्नान आदि करके सभी ने भोजन पान ग्रहण किया। अनन्तर पांडव और द्रौपदी को साथ लेकर श्रीकृष्ण समुद्र के किनारे आये और शंखनाद किया जिससे सब दिशाओं में शब्द व्याप्त हो गया। उस समय वहाँ चम्पानगरी के बाहर स्थित जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करके धातकी खण्ड के नारायण ने पूछा—भगवन् ! मुझ समान शक्तिधारक किसने यह शंख बजाया है ? भगवान ने कहा कि यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का नारायण श्रीकृष्ण है, अपनी बहन द्रौपदी के हरण से यहाँ आया था। नारायण कपिल को श्रीकृष्ण से मिलने की इच्छा हुई किन्तु भगवान ने कहा कि तीर्थंकर तीर्थंकर से, चक्रवर्ती चक्रवर्ती से, नारायण नारायण से मिल नहीं सकते हैं, केवल चिह्न मात्र से ही उनका तुम्हारा मिलाप हो सकता है। तदनन्तर कपिल नारायण वहाँ आये और दूर से ही समुद्र में कृष्ण के ध्वज का साक्षात्कार हुआ। कपिल नारायण ने अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाभ को इस नीच कृत्य के कारण बहुत ही फटकारा।
कृष्ण तथा पांडव पहले की तरह महासागर को शीघ्र ही पार कर इस तट पर आ गये। वहाँ कृष्ण विश्राम करने लगे और पाण्डव चले गये। पाण्डव नौका के द्वारा गंगा को पार कर दक्षिण तट पर आ ठहरे। भीम ने क्रीड़ा के स्वभाव से वहाँ नौका तट पर छिपा दी। जब श्रीकृष्ण आये तब पूछा—आप लोग गंगा को कैसे पार किए ? तब भीम ने कृष्ण की सामथ्र्य को देखने के कुतूहल से कह दिया कि हम लोग भुजाओं से तैर कर आये हैं। श्रीकृष्ण भी घोड़ों सहित रथ को एक हाथ पर लेकर एक हाथ और जंघाओं से शीघ्रता से गंगा नदी के इस पार आ गये। तब पांडवों ने श्रीकृष्ण का अंलगन कर अपूर्व शक्ति की प्रशंसा की और भीम ने अपने द्वारा नौका छिपाने की हँसी की बात बता दी। उस समय श्रीकृष्ण को पाण्डवों पर क्रोध आ गया क्योंकि असमय की हँसी अच्छी नहीं लगती है। श्रीकृष्ण ने कहा—अरे पाण्डवों ! तुमने अनेकों बार मनुष्यों के लिए भी असंभव ऐसे अनेकों विशेष कार्य देखे हैं, फिर भला यहाँ मेरी शक्ति की क्या परीक्षा करनी थी ? इस प्रकार वे उन्हीं के साथ हस्तिनापुर गये और वहाँ अपनी बहन सुभद्रा के पौत्र (पोते) को राज्य देकर पाण्डवों को दक्षिण दिशा में भेज दिया। उस समय की घटना से अत्यधिक दु:खी हुए पाँचों पाण्डव अपनी स्त्री और अपने पुत्रों को साथ लेकर दक्षिण मथुरा को चले गये और वहाँ राज्य करने लगे।