जिनदेव प्ररूपित तत्त्व यही , है ऐसा ही है अन्य नहीं।
निंह अन्य रूप हो सकता है, ऐसा अचलित श्रद्धान सहीत।।
ऐसी अवंâप असिधारावत्, सन्मारग में संशय विरहित।
रुचि होती जब वो ही श्रद्धा, कहलाती अंग सुनि:शंकित।।
अर्थ—जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य कुछ भी नहीं है और अन्य रूप भी नहीं है। तलवार की धार पर रखे हुए जल के सदृश ऐसा अचलित श्रद्धान करना और मोक्ष मार्ग में संशय रहित रुचि का होना नि:शंकित अंग है।
(२)नि:कांक्षित अंग का स्वरूप-जो सुख कर्मों के परवश हैं, और अन्त सहित क्षण भंगुर हैं। दु:खों से व्यवहित हो जाते, औ पाप हेतु ये बीज कहें।। जो ऐसे सांसारिक सुख की, काक्षा िंकचित् निंह करते हैं। इस आस्था के श्रद्धानी जन, नि:कांक्षित अंग को धरते हैं।।
अर्थ—जो सुख कर्मों के आधीन है, अन्त सहित है, दु:खों से मिश्रित है और पाप का बीज है ऐसे सांसारिक सुखों में नित्य बुद्धि से कांक्षा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है।
(३) निर्विचिकित्सा अंग की परिभाषा-– नरतन स्वभाव से अशुचिरूप, मलमूत्रादिक का िंपड कहा। यह रत्नत्रय गुण से पवित्र, हो जाता है आश्चर्य अहा।। इस रत्नत्रय युत मुनि शरीर में ग्लानि जो निंह करते हैं। वे निर्विचिकित्सा अंग सहित, बस गुण में प्रीति धरते हैं।।
अर्थ—यह मानव शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है क्योंकि यह मल मूत्रादि का िंपड है। फिर भी यह रत्नत्रय गुण से पवित्र हो जाता है। अत: रत्नत्रय से युत मुनि के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना और उनके गुणों में प्रीति करना र्नििवचिकित्सा अंग है।
(४) अमूढ़दृष्टि अंग का लक्षण –-मिथ्यात्व मार्ग दु:खों का पथ, इस मारग में जो चलते हैं। उस कुपथ और वूâपथिकों का, अनुमोदन कभी न करते हैं।। निंह उनका गुण कीर्तन करते, निंह उनकी संगति करते हैं। वे जन अमूढ़दृष्टि नामक सम्यक्त्व अंग को धरते हैं।।
अर्थ—मिथ्यात्व दु:खों का मार्ग है, इस मार्ग में चलने वाले भी दु:ख पथ में ही चलते हैं। उन कुपथ और कुपथिकों को मन से सहमति नहीं देना शरीर से उनकी सराहना नहीं करना और वचनों से भी उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़दृष्टि अंग है।
(५) उपगूहन अंग का लक्षण– यह मोक्षमार्ग है स्वयं शुद्ध जिनदेव कथित शाश्वत निश्चित। बस बूढ़ अशक्त जनों से ही, हो जाता मलिन कभी िंकचित्।। उनके दोषों को जैसे हो, वैसे जननीवत ढकते हैं। वे ही उपगूहन अंग सहित, सम्यक् दर्शन गुण लभते हैं।।
अर्थ—मोक्षमार्ग स्वयं शुद्ध है। मूढ़, अज्ञानी या असमर्थजनों के निमित्त से कभी इसमें कुछ दोष लग जाने से निंदा हो जाती है। सो जैसे बने वैसे माता के समान उनके दोषों को ढक देना उपगूहन अंग है।
(६) स्थितिकरण अंग की परिभाषा-– यदि कोई सम्यग्दर्शन से, च्युत होते हों या चारित से। जो धर्म प्रेमवश उनको फिर, उसमें वापस स्थिर करते।। वे बुद्धिमान स्थितीकरण सम्यक्त्व अंग को भजते हैं। वे ही अपनी आत्मा को भी निज में स्थिर कर सकते हैं।।
अर्थ—यदि कोई सम्यग्दर्शन से या सम्यक् चारित्र से च्युत हो रहा हो, तो धर्म प्रेमवश उसे वापस फिर उसी में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग है। इस तरह स्थिर करने वाले बुद्धिमान पुरुष ही अपनी आत्मा में अपने को स्थिर कर लेते हैं।ववा
(७) वात्सल्य अंग का लक्षण– सहधर्मी जन के प्रति नितप्रति, सद्भाव सहित प्रीती करते। छल कपट रहित हो यथायोग्य, भक्ती विनयादिक भी करते।। गोवत्स प्रीति सम सहज प्रीति करके वत्सल गुण धरते हैं। वात्सल्य अंगधारी भविजन, ही धर्म प्रेम कर सकते हैं।।
अर्थ—सहधर्मीजनों के प्रति जो हमेशा ही छल कपट रहित होकर सद्भावना रखते हुए प्रीति करते हैं और यथायोग्य उनके प्रति विनय, भक्ति आदि भी करते हैं वे ही वात्सल्य अंग के धारी होते हैं।
(८) प्रभावना अंग का स्वरूप —अज्ञान अन्धेरा सब जग में, सब तरफ व्याप्त हो रहा अरे। दृग होते भी अज्ञानी को, हा ! सचमुच अन्धे सदृश करे।। जैसे हो वैसे उसे दूर कर, जो स्वधर्म विस्तरते हैं। जिन शासन का माहात्म्य प्रकाशन कर प्रभावना करते हैं।।
अर्थ—अज्ञानरूपी अंधकार सर्व जगत में व्याप्त हो रहा है। जिससे नेत्र सहित भी अज्ञानी जीव अंधे के सदृश हो रहे हैं। जैसे होवे वैसे उस अज्ञान अंधकार को दूर कर अपने जैनधर्म के माहात्म्य का प्रकाश फैलाना प्रभावना अंग है।
(९) अंगहीन सम्यग्दर्शन की असमर्थता–इन आठ अंग में एक अंग भी, कम हो यदि तो वह सम्यक्। भव संतति का छेदन करने में, निंह समर्थ हो सकता सच।। इक अक्षर से भी न्यून मंत्र, क्या विष की व्यथा मिटा सकता। अतएव अंग वसु पूर्ण करो, तब दर्शन मुक्ति दिला सकता।।
अर्थ—इन आठ अंगों में से यदि एक अंग भी न हो तो वह सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा का नाश करने में समर्थ नहीं हो सकता है क्योंकि एक अक्षर से न्यून मंत्र क्या विष की वेदना को दूर कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता, अत: उन आठ अंगों से पूर्ण ही सम्यक्त्व मुक्ति को प्राप्त कराने वाला है।
आठ अंग में प्रसिद्ध भव्यों की कथायें —
(१) अंजन चोर की कथा (नि:शंकित अंग में) काश्मीर देश के अन्तर्गत विजयपुर के राजा अरिमंथन के ललितांग नाम का एक सुन्दर पुत्र था। इकलौता बेटा होने से माता—पिता के अत्यधिक लाड़—प्यार से वह विद्याध्ययन नहीं कर सका और दुव्र्यसनी बन गया। युवा होने पर प्रजा को अत्यधिक त्रास देने लगा, तब राजा ने उसे देश से निकाल दिया। वह चोर—डाकुओं का सरदार बन गया और अंजनगुटिका विद्या सिद्ध करके दूसरों से अदृश्य होकर मनमाने अत्याचार करने लगा जिसके कारण अंजन चोर नाम से प्रसिद्ध हो गया। किसी समय राजगृह नगर में रात्री में राजघराने से रत्नहार चुरा कर भागा। तब कोतवालों ने उसकी विद्या नष्ट करके उसका पीछा किया, वह श्मशान में पहुँच गया। वहाँ पर एक वट वृक्ष में सौ सींकों के एक छींके पर एक सेठ बैठा था। वह बार—बार चढ़—उतर रहा था। चोर ने पूछा, यह क्या है? सेठ ने कहा—‘‘मुझे जिनदत्त सेठ ने आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करने को दी है। किन्तु मुझे शंका है कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो मैं नीचे शस्त्रों पर गिरकर मर जाऊंगा।’’ अंजन चोर ने कहा—भाई ! तुम शीघ्र ही इसके सिद्ध करने का उपाय मुझे बता दो क्योंकि जिनदत्त सेठ मुनिभक्त हैं। उनके वचन कभी असत्य नहीं होंगे। सेठ ने विधिपूर्वक सब बता दिया। उसने शीघ्र ही ऊपर चढ़कर महामंत्र का स्मरण करते हुए एक साथ सभी डोरियाँ काट दी। नीचे गिरते हुए अंजन चोर को, बीच में ही आकाशगामिनी विद्या देवी ने आकर विमान में बैठा लिया और बोलीं—आज्ञा दीजिए मैं क्या करूं ? अंजन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास पहुँचा दो। विद्या देवता ने सुमेरु पर्वत पर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर उसने, चैत्यालयों की वंदना करते हुए जिनदत्त से मिलकर नमस्कार करके, सारी बातें बता दीं। अनंतर सम्पूर्ण पापों को छोड़कर देवर्षि नामक मुनिराज के पास दैगंबरी दीक्षा ले ली। तपश्चर्या के बल से चारण ऋद्धि प्राप्त कर ली। पुन: केवलज्ञान प्राप्त कर अन्त में कैलाश पर्वत से मोक्ष पधार गये। नि:शंकित अंग के प्रभाव से अंजन निरंजन (सिद्ध) बन गये।
(२) अनंतमती की कथा (नि:कांक्षित अंग में) चम्पापुर के सेठ प्रियदत्त और सेठानी अंगवती के अनंतमती नाम की एक सुन्दर कन्या थी। एक समय आष्टान्हिक पर्व में सेठ ने धर्मकीर्ति मुनिराज के पास पत्नी सहित आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। उसी समय विनोदवश अपनी पुत्री को भी ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया। युवावस्था में ब्याह के आयोजन में अनंतमती ने व्रतपालन की दृढ़ता रखते हुए ब्याह से इन्कार कर दिया। किसी समय अनंतमती अपनी सहेलियों के साथ बगीचे में झूला झूल रही थी कि एक विद्याधर उसके रूप पर मुग्ध होकर उसको (अनंतमती को) लेकर भागा लेकिन अपनी पत्नी के आ जाने से वह अनंतमती को भयंकर वन में छोड़कर चला गया। वन में भील ने उसे ले जाकर शील भंग करना चाहा, किन्तु वन देवी ने अनंतमती के शील की रक्षा की। पुन: इस भील ने अनंतमती को पुष्पक सेठ को सौंप दी। सेठ ने भी हार कर वेश्या को दे दी। वेश्या ने भी इसे िंसहाराज नृप को दे दिया। राजा ने भी जब इसका शील भंग करना चाहा तब पुन: वन देवी ने रक्षा की। अनंतर राजा ने इसे वन में भेज दिया। धीरे—धीरे अनंतमती अयोध्या में पद्मश्री र्आियका के पाच पहुँच गयी। कुछ दिन बाद वहाँ पिता से मिलाप हुआ, किन्तु अनंतमती ने वापस घर न जाकर र्आियका दीक्षा ले ली। तपश्चरण के प्रभाव से समाधिपूर्वक मरण करके वह बारहवें स्वर्ग में देव हो गयी।
(३) उद्दायन राजा की कथा (निर्विचिकित्सा अंग में) वत्स देश के रौरवकपुर के राजा उद्दायन बहुत ही धर्मनिष्ठ थे। उनकी रानी का नाम प्रभावती था। एक समय सौधर्म इन्द्र ने अपनी सभा में सम्यक्त्व गुण का वर्णन करते हुए निर्विचिकित्सा अंग में राजा उद्दायन की बहुत ही प्रशंसा की। इस बात को सुनकर एक वासव नामक देव यहाँ परीक्षा के लिए आ गया। उसने कुष्ठ रोग से गलित अत्यन्त दुर्गन्धि युक्त दिगम्बर मुनि का रूप बना लिया और आहारार्थ निकल पड़ा। उसकी दुर्गन्धि से तमाम श्रावक भाग खड़े हुए, किन्तु राजा उद्दायन ने रानी सहित उसे बड़ी भक्ति से पड़गाहन कर विविधत् आहार दान दिया। आहार के तत्काल बाद उस मायावी मुनि ने वमन कर दिया। उसकी दुर्गन्ध से सारे नौकर चाकर पलायमान हो गये, किन्तु राजा और रानी बड़ी विनय से मुनिराज की सुश्रूषा करते रहे तथा अपने दान की निन्दा करने लगे। तब देव ने प्रगट होकर राजा की स्तुति—भक्ति करते हुए सौधर्म इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा का हाल सुनाया। अनंतर स्वस्थान को चला गया। कालांतर में राजा विरक्त होकर मुनि बन गये और कर्मनाश कर मोक्ष चले गये।
(४) रेवती रानी की कथा (अमूढ़दृष्टि अंग में) दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ रहते थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वे तीर्थ वंदना के लिए उत्तर मथुरा आने लगे तब गुरु से आज्ञा लेकर पूछा—भगवन् ! किसी को कुछ कहना है ? गुरु ने कहा—वहाँ पर विराजमान सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहना। तीन बार पूछने पर भी गुरु ने यही कहा। तब क्षुल्लक महाराज वहाँ आकर सुव्रत मुनिराज को नमोऽस्तु कहकर, वहीं पर ठहरे हुए भव्यसेन मुनिराज के पास गये। उनकी चर्या को दूषित देखकर उनका अभव्यसेन नाम रखकर आ गये। पुन: रेवती रानी की परीक्षा के लिए अपनी विद्या से पूर्व दिशा में ब्रह्म का रूप बनाया। सब नगरवासी आ गये किन्तु रानी नहीं आई। पुन: उसने दक्षिण दिशा में जाकर श्रीकृष्ण का रूप प्रकट किया, अनंतर पश्चिम दिशा में जाकर पार्वती सहित महादेव का रूप बनाया। इस पर भी रेवती रानी के नहीं आने पर क्षुल्लक ने विद्या के बल से उत्तर दिशा में अरिहंत भगवान का समवसरण तैयार कर दिया। तब राजा वरुण ने कहा—प्रिये ! अब तो चलो, जिनेन्द्र भगवान का समवसरण आया है। रानी ने कहा—राजन् ! चौबीस तीर्थंकर तो हो चुके अब पच्चीसवें कहां से आयें यह कोई मायावी का जाल है। अनंतर क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक बनकर रानी के यहाँ आये। रानी ने विनयपूर्वक सुश्रुषा आदि की और आहार दान दिया। क्षुल्ल्क ने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई आदि की। तब क्षुल्लक जी विद्या को समेट कर वास्तविक रूप में गुरु के आशीर्वाद को सुनाकर, रानी की प्रशंसा करते हुए चले गये।
(५) जिनेन्द्रभक्त सेठ की कथा (उपगूहन अंग में) गौड़ देश के अन्तर्गत ताम्रलिप्ता नगरी में एक जिनेन्द्रभक्त सेठ रहते थे। उनके घर में सातवीं मंजिल पर पाश्र्वनाथ चैत्यालय था जिसमें रत्नमयी प्रतिमा के ऊपर छत्र में बहुमूल्य वैडूर्यमणि रत्न लगा हुआ था। एक दिन चोरों के सरदार ने कहा कि सेठ के यहाँ का वैडूर्यमणि कौन ला सकता है ? उनमें से एक सूर्यक नाम के चोर ने हामी भर ली। पुन: वह चोर मायावी क्षुल्लक बनकर वहाँ पहुँच गया और खूब उपवास आदि करते हुए सेठ जी के चैत्यालय में रहने लगा। किसी समय सेठ जी धन कमाने के लिए बाहर जाने लगे तब क्षुल्लक जी की इच्छा न होते हुए भी उनको चैत्यालय की रक्षा का भार सौंप दिया। सेठ जी चले गये और उस दिन गांव के बाहर ही डेरा डाल दिया। इधर आधी रात में क्षुल्लक जी वैडूर्यमणि लेकर भागे। रत्न की चमक से नौकरों ने उनका पीछा किया तब वे दौड़ते हुए गांव के बाहर उन्हीं सेठ के डेरे में घुस गये। चोर—चोर—चोर का हल्ला सुनते ही सेठजी ने क्षुल्लक जी को देखा, तब नौकर से बोले—अरे भाई ! मैने तो क्षुल्लक जी से यह रत्न यहाँ मंगवाया था, तुम लोग इन्हें चोर क्यों कह रहे हो ? बेचारे नौकर चुपचाप चले गये। इसके बाद सेठ जी ने क्षुल्लक जी को खूब फटकारा और कहा—पापी तू धर्मात्मा बनकर ऐसा पाप करते हुए नरकों में जायेगा। पुन: रत्न लेकर उसे भगा दिया। देखो ! यदि सेठ जी बात बनाकर उस क्षुल्लक के दोष को नहीं छिपाते तो नौकर, धर्म और धर्मात्माओं की हंसी उड़ाते। इसीलिए किसी के दोष को ढक लेना चाहिए और उसे एकान्त में सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।
(६) मुनि वारिषेण की कथा (स्थितिकरण अंग में) किसी समय वारिषेण मुनिराज पलासकूट ग्राम में आहारार्थ आए। मंत्रीपुत्र पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिए कुछ देर तक साथ चलने लगा। मुनिराज उसे अपने स्थान तक साथ ले आए। पुन: बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश देकर दीक्षा दिला दी। किन्तु पुष्पडाल मुनिराज अपनी स्त्री को नहीं भुला सके। धीरे—धीरे बारह वर्ष बीत गये। किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गए। तब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए निकले। मुनिराज वारिषेण उनके अन्तरंग को समझकर साथ ही चल पड़े और वे सीधे अपने राजघराने में पहुँच गए। रानी चेलना ने वारिषेण पुत्र को घर आया देख कुछ शंकित होते हुए दो प्रकार के आसन लगा दिए। वारिषेण मुनिराज काष्ठासन पर बैठ गए और बोले माता ! सभी मेरी स्त्रियों को बुलाओ। वे सब आ गई, तब मुनिराज ने कहा-मत्र ! ये मेरी बत्तीस स्त्रियाँ हैं और यह वैभव है। तुम इसे ले लो, इसका उपभोग करो। उसी समय पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया। उसने कहा—प्रभो ! आपने मोक्ष सुख के लिए इस अतुल वैभव को तृणवत् त्यागा है और मैं मूढ़ एक स्त्री के मोह को नहीं छोड़ सका। अनन्तर वन में पहुँचकर वारिषेण ने उन्हें यथोचित प्रायश्चित्त से शुद्धकर वापस मुनिपद में स्थिर कर दिया। तब पुष्पडाल ने भी घोर तपश्चरण करके अपने आपको पवित्र बना लिया।
(७) विष्णुकुमार मुनि की कथा (वात्सल्य अंग में) हस्तिनापुर के राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्मराज को राज्य देकर, छोटे पुत्र विष्णुकुमार के पास मुनि हो गये। राजा पद्म के चार मंत्री थे—बलि, वृहस्पति, नमुचि और प्रहलाद। किसी समय इन्होंने शत्रु राजा को जीतकर राजा पद्म से ‘वर’ प्राप्त किया था और उसे धरोहर रूप में राजा के पास रख दिया था। एक समय अवंâपनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ आकर वहां बगीचे में ठहर गये। मंत्री जिनधर्म के द्वेषी थे। उन्होंने राजा से अपना वर देने को कहा और उसमें सात दिन का राज्य मांग लिया। राजा को वर देना पड़ा। फिर क्या था, इन दुष्टों ने मुनियों को चारों तरफ से घेरकर बाहर से यज्ञ का बहाना करके आग लगा दी। उधर मिथिलानगरी में रात्रि में श्रवण नक्षत्र कंपित होते देख श्रुतसागर आचार्य के मुख से हाहाकार शब्द निकला। पास में बैठे हुए क्षुल्लक जी ने सारी बात पूछी और उपसर्ग दूर होने का उपाय समझकर, धरणीभूषण पर्वत पर आए। वहाँ विष्णुकुमार मुनि से कहा—भगवन् ! आपको विक्रिया ऋद्धि है आप शीघ्र ही जाकर उपसर्ग दूर कीजिये। मुनि विष्णुकुमार वहां आये और राजा पद्म से (भाई से) सारी बातें अवगत कर मुनिवेष छोड़कर बलि के पास वामन का रूप लेकर पहुँचे, जहाँ बलि राजा दान दे रहा था। बलि ने इनसे भी कुछ मांगने को कहा। वामन ने कहा—मुझे तीन पैर धरती दे दो। उसने कहा—आप अपने पैरों से ही नाप लें। बस ! वामन विष्णुकुमार ने अपनी विक्रिया से एक पैर सुमेरूपर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा। तीसरा पैर उठाया किन्तु उसके रखने को जगह ही नहीं थी। इतने में सर्वत्र हाहाकार मच गया, पृथ्वी कांप गई। देवों के विमान परस्पर में टकरा गये। चारों तरफ से क्षमा करो, क्षमा करो, ऐसी आवाज आने लगी। देवों ने आकर बलि को बांधकर विष्णुकुमार मुनि की पूजा की और सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर किया। विष्णुकुमार मुनि ने मुनियों के प्रति वात्सल्य करके उनका उपकार किया। अन्त में जाकर प्रायश्चित्त आदि लेकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। उसी दिन से रक्षा की स्मृति में श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।
(८) वङ्काकुमार मुनि की कथा (प्रभावना अंग में) मथुरा के राजा पूतिगंध की दो रानियाँ थी। उर्विला रानी सम्यग्दृष्टि थी और दूसरी बुद्धदासी रानी बौद्ध धर्मानुयायी थी। हमेशा रानी उर्विला आष्टान्हिक पर्व में रथयात्रा करके धर्म प्रभावना करती थी। एक बार बुद्धदासी ने कहा—महाराज ! पहले मेरा रथ निकलेगा। राजा ने मोहवश यह बात मान ली। तब रानी उर्विला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और क्षत्रियगुफा में विराजमान सोमदत्त तथा वङ्काकुमार मुनि के पास पहुँचकर प्रार्थना करे लगी—भगवन् ! धर्म की रक्षा कीजिए। मुनिराज ने उसे आश्वासन दिया और उसी समय दर्शन के लिए आए हुए दिवाकरदेव आदि विद्याधरों को प्रेरणा दी। तब गुरु की आज्ञा से उन विद्याधरों ने रानी उर्विला के रथ में अरहंत भगवान की प्रतिमा विराजमान करके आकाश मार्ग से खूब प्रभावना पूर्वक विशेष जुलूस के साथ रथ निकाला। इस अतिशय को देखकर राजा पूतिगंध, बुद्धदासी आदि सभी जैन बन गये। सर्वत्र जैनधर्म की जय जयकार हो गई। वङ्काकुमार मुनि ने जैनधर्म की प्रभावना कराके अपने यश को अमर कर दिया।