पंचाचाराधिकारप्रतिपादनार्थं नमस्कारमाह–
तिहुयणमन्दरमहिदे तिलोगबुद्धे तिलोगमत्थत्थे।
तेलोक्कविदिदवीरे तिविहेण य पणिविदे सिद्धे।।१९८।।
तिहुयणमंदरमहिदे–मन्दरे मेरौ महिता: पूजिता: स्नापिता: मन्दरमहिता: त्रयाणां भुवनानां लोकानां समाहारस्त्रिभुवनं तेन मन्दरमहितास्त्रिभुवनमन्दरमहिता:। अथवा त्रिभुवनस्य मन्दरा प्रधाना: सौधर्मेन्द्रादयस्तैर्महितांस्त्रिभुवनमन्दरमहितान्।। तिलोगबुद्धे–त्रिलोकानां त्रिलोकैर्वा बुद्धा ज्ञातार: ज्ञाता वा त्रिलोकबुद्धास्तांस्त्रिलोकबुद्धान्।
तिलोगमत्थत्थे–त्रिलोकस्य मस्तकं सिद्धिक्षेत्रं तस्मिंस्तिष्ठन्तीति त्रिलोकमस्तकस्थास्तांस्त्रिलोकमस्तकस्थान् सिद्धिक्षेत्रस्थान्। तेलोक्कविदिदवीरे–त्रिषु लोकेषु विदित: ख्यातो वीरो वीर्यं येषां, अथवा त्रिलोकानां विदिता: प्रख्यातास्ते च ते वीरा: शूराश्च त्रिलोकविदितवीरा त्रैलोक्यविदितवीर्यान् त्रिलोकविदितवीरान्वा। तिविहेण–त्रिविधेन त्रिप्रकारेण मनोवचनकर्मभि:।
पणिविदे–प्रणिपत्य क्त्वान्तोऽयं, अथवा प्रणिपतामि मिङन्तोऽयं क्रियाशब्द:। सिद्धे– सिद्धान् निराकृतनिर्मूलकर्माण:। न चात्र तेषामसिद्धता पूर्वापराविरुद्धागमतत्स्वरूपप्रतिपादकप्रमाणसद्भावात्, तत्सद्-अब पंचाचार अधिकार के प्रतिपादन हेतु नमस्कार-गाथा को कहते हैं—
गाथार्थ—त्रिभुवन के प्रधान पुरुषों से पूजित, तीन लोक को जानने वाले, तीन लोक के अग्रभाग पर स्थित, तीन लोक में विख्यात वीर-ऐसे सिद्धों को मन, वचन और काय से प्रणाम करता हूँ।।१९८।।
आचारवृत्ति—मन्दर-सुमेरु पर जिनका त्रिभुवन के इन्द्र द्वारा अभिषेक किया गया है वे त्रिभुवनमन्दर सहित हैं। अथवा त्रिभुवन के मन्दर-प्रधान जो सौधर्म आदि देव हैं उनसे जो महित-पूजित हैं। तीनों लोकों के जो जाननेवाले हैं अथवा तीनों लोकों के द्वारा जो बुद्ध-ज्ञात हैं वे त्रिलोकबुद्ध हैं।
त्रिलोक के मस्तक पर-सिद्धक्षेत्र पर जो विराजमान हैं, जिनका वीर्य तीनों लोकों में ख्यात है अथवा तीनों लोकों में वे प्रख्यातवीर-शूर हैं अथवा तीनों लोकों के वीर्य-शक्ति को जिन्होंने जान लिया है वे त्रिलोकविदितवीर हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों को निर्मूल कर दिया है वे सिद्ध परमेष्ठी हैं
ऐसे उपर्युक्त विशेषण युक्त अर्हंत और सिद्धपरमेष्ठी को मैं नमस्कार करके पाँच आचारों को कहूँगा। इस तरह यहाँ पर ‘वक्ष्ये’ क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए। और ‘पणिविदे’ क्रिया को क्त्वा-प्रत्ययान्त समझकर ‘नमस्कार करके’ ऐसा अर्थ करना अथवा ‘प्रणिपतामि’ ऐसा ‘मिङन्त’ क्रियापद ही समझना।
प्रश्न—सिद्धों का अस्तित्त्व यहाँ सिद्ध ही नहीं है इसलिए वे असिद्ध हैं ?
उत्तर—ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि पूर्वापर से विरोध रहित आगम और उन सिद्धों के या अर्हंतों के स्वरूप का प्रतिपादक प्रमाण विद्यमान है। अथवा सर्वज्ञ के सद्भाव को बाधित करनेवाले प्रमाण का अभाव है।
प्रश्न—इससे तो इतरेतराश्रय दोष आ जावेगा, क्योंकि जब सर्वज्ञ की सिद्धि हो तब उनसे प्ररूपित आगम प्रामाणिक सिद्ध हों और जब आगम की प्रामाणिकता सिद्ध हो तब उसके द्वारा सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध हो। इस तरह तो दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे।
उत्तर—नहीं, यहाँ इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है; क्योंकि द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से यह आगम अनादि-निधन है और वह अपनी महिमा से ही प्रामाणिक है तथा पर्यायार्थिकनय की विवक्षा करने से भावबाधकप्रमाणाभावाद्वा। न चेतरेतराश्रयसद्भाव:।
द्रव्यार्थिकनयार्पणयानादिनिधनस्यागमस्य स्वमहिम्नैव प्रामाण्यात्। पर्यायार्थिकनयाश्रयणाच्च घातिकर्मविनिर्मुक्तार्हत्प्रणीतत्वाद्वा। न च जीवानां कर्मबंधाभावाभावो हानिवृद्धिदर्शनादिति। त्रिभुवनमन्दरमहितानर्हतस्त्रिलोकमस्तकस्थांस्त्रैलोक्यविदितवीर्यान् सिद्धांश्च प्रणिपत्य वक्ष्ये, इति संबंध:। अथवा सर्वाणि शास्त्राणि नमस्कारपूर्वाणि, कुत: सर्वज्ञपूर्वकृत्वा तेषां यतोऽत: स्वतंत्रोऽयं नमस्कार: त्रिभुवनमन्दरमहितानर्हत: सिद्धांश्च प्रणिपतामि। शेषाणि विशेषणान्यनयोरेव। अथवा सिद्धानामेव नमस्कारोऽयं भूतपूर्वगतिन्यायेन विशेषणानां सद्भावादिति। वक्ष्ये इति क्रियापदमुक्तं।।१८९।।
किं वक्ष्ये ? किमर्थं वा नमस्कार इति पृष्टेऽत आह–
दंसणणाणचरित्ते तवेविरियाचारह्मि पंचविहे।
वोच्छं अदिचारेऽहं कारिदे अणुमोदिदे अ कदे।।१९९।।
घातिकर्म से रहित ऐसे अर्हन्तदेव के द्वारा प्रणीत है इसलिए वह प्रमाणभूत है। अत: ऐसे आगम से सर्वज्ञदेव की सिद्धि हो जाती है।
प्रश्न—जीवों के कर्मबन्ध का अभाव नहीं हो सकता है। अर्थात् एक अनादिनिधन ईश्वर को मानने वाले कुछ संप्रदायवादी ऐसे हैं जो किसी भी कर्मसहित जीवों के सम्पूर्ण कर्मों का अभाव होना स्वीकार नहीं करते हैं।
उत्तर—ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि संसारी जीवों में कर्मबन्ध के अभाव की हानि-वृद्धि देखी जाती है। अर्थात् किसी जीव में राग-द्वेष आदि या दु:ख-शोक कर्मबन्ध के कार्य कम-कम हैं, किन्हीं जीवों में अधिक-अधिक हैं इसलिए ऐसा निश्चय हो जाता है कि किसी-न-किसी जीव में सम्पूर्णतया कर्मों का अभाव अवश्य हो जाता होगा। इसलिए कर्मबन्ध का अभाव होना प्रसिद्ध ही है।
तात्पर्य यह है कि तीन लोक के जीवों द्वारा मंदर पर पूजा को प्राप्त अर्हन्त देव को और तीनलोक के मस्तक पर स्थित तथा तीन लोक में जिनकी शक्ति प्रसिद्ध है, ऐसे सिद्धों को नमस्कार करके मैं पंचाचार को कहूँगा, ऐसा गाथा में सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए।
अथवा सभी शास्त्र नमस्कार पूर्वक ही होते हैं अर्थात् सभी शास्त्रों के प्रारम्भ में इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है इसलिए यहां भी किया गया है।
प्रश्न—ऐसा क्यों ?
उत्तर—यत: वे सभी शास्त्र सर्वज्ञपूर्वक ही होते हैं अत: यह नमस्कार स्वतंत्र है।
त्रिभुवन के द्वारा मंदर पर पूजित अर्हन्तों को और सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ। शेष विशेषण इन दोनों के ही हैं। अथवा यों समझिए कि सिद्धों को ही नमस्कार किया गया है, क्योंकि भूतपूर्वगति के न्याय से सभी विशेषण उनमें लग जाते हैं। अर्थात् भूतपूर्व में वे अरहंत थे ही थे, अर्हन्त से ही सिद्ध हुए हैं। यहां पर ‘वक्ष्ये’ इस क्रियापद का अध्याहार किया गया है।
विशेष—यहाँ गाथा में सिद्धों को नमस्कार किया गया है, टीकाकार ने उसे अर्हन्तों में भी घटित किया है और ‘वक्ष्ये’ क्रिया को ऊपर से लेकर पंचाचार को कहने का संकेत दिया है।
क्या कहूँगा ? सो ही बताते हैं। अथवा किसलिए नमस्कार किया है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं-
गाथार्थ—दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच प्रकार के आचार में कृत, कारित और अनुमोदना से हुए अतीचारों को कहूँगा।।१९९।।
दंसणं–दर्शनं सम्यक्त्वं तत्त्वरुचि:। णाणं–ज्ञानं तत्त्वप्रकाशनं। चरित्तं–चरित्रं पापक्रियानिवृत्ति:। नात्रविभक्त्यन्तरं प्राकृतलक्षणेनाकारस्यैकार: कृतो यत:। तवे–तप: तपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तप: बाह्याभ्यन्तरलक्षणं कर्मदहनसमर्थं। वीरियाचारह्मि–वीर्यं शक्तिरस्थिशरीरगतबलं, एतेषां द्वन्द्व: दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याणि तेषां तान्येव वा आचारो अनुष्ठानं तस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याचारे।
तत्त्वार्थविषयपरमार्थश्रद्धानुष्ठानं दर्शनाचार:। नात्रावलोकनार्थवाची दर्शनशब्दोऽनधिकारात्। पंचविधज्ञाननिमित्तं शास्त्राध्ययनादिक्रिया ज्ञानाचार:। प्राणिवधपरिहारेन्द्रियसंयमनप्रवृत्तिश्चारित्राचार:।
कायक्लेशाद्यनुष्ठानं तप आचार:, वीर्यस्यानिह्नवो वीर्याचार: शुभविषयस्वशक्त्योत्साह:। पंचविधे–पंचप्रकारे। वोच्छं–वक्ष्ये कथयिष्यामि। अदिचारे–अतीचारान् प्रमादादन्यथाचरितानि। अहंकारादिदं अहं-आत्मन: प्रयोग:। कारिदे–कारितान्। अणुमोदिदे–अनुमतान्। च शब्द: समुच्चयार्थ:। कदे–कृतान्। आचारे–दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्यभेदे पंचप्रकारे कृतकारितानुमतानतीचारानहं वक्ष्ये इति संबंध:।।१९९।।
दर्शनातिचारप्रतिपादनार्थं तावदाह ते चाष्टौ शंकादिभेदेन कुतो यतः–
दंसणचरणविसुद्धी अट्ठविहा जिणवरेहिं णिद्दिट्ठा।
दंसणमलसोहणयं वोच्छं तं सुणह एयमणा।।२००।।
दंसणचरणविसुद्धी–दर्शनाचरणस्य विशुद्धिर्निर्मलता दर्शनाचरणविशुद्धि:। अट्ठविहा–अष्टविधाऽष्टप्रकारा। जिणवरेहिं–कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वरा: श्रेष्ठा: जिनवरास्तै:। णिद्दिट्ठा–निर्दिष्टा कथिता। दंसणमलसोहणयं–दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य मलमतीचारस्तस्य शोधनकं निराकरणं दर्शनमलशोधनकं। वोच्छं–वक्ष्ये। तं–तत्।
सुणह–आचारवृत्ति—सम्यक्त्व-तत्त्वरुचि का नाम दर्शन है। तत्त्व प्रकाशन का नाम ज्ञान है। पापक्रिया से दूर होना चारित्र है। जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है-दहन करता है वह तप है। वह बाह्य और अभ्यन्तर लक्षणवाला है और कर्मों को दहन करने में समर्थ है। हड्डी और शरीरगत बल को वीर्य कहते हैं। इन पाँचों का आचार-अनुष्ठान अथवा ये पाँच ही आचार-अनुष्ठान पंचाचार कहलाते हैं।
परमार्थभूत जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना और उन्हीं रूप श्रद्धाविषयक अनुष्ठान करना दर्शनाचार है। यहाँ पर दृश् धातु से दर्शन बना है। उसका अवलोकन अर्थ नहीं लेना, क्योंकि उसका यहाँ अधिकार नहीं है।
पाँच प्रकार के ज्ञान के निमित्त अध्ययन आदि क्रियाएँ करना ज्ञानाचार है। प्राणियों के वध का त्याग करना और इन्द्रियों के संयमन-निरोध में प्रवृत्ति होना चारित्राचार है।
कायक्लेश आदि तपों का अनुष्ठान करना तप-आचार है। शक्ति का नहीं छिपाना अर्थात् शुभविषय में अपनी शक्ति से उत्साह रखना वीर्याचार है।
प्रमाद से किये गये अन्यथा आचरण-विपरीत आचरण को अतिचार कहते हैं। उपर्युक्त पाँच प्रकार के आचारों में स्वयं करने से, कराने और करते हुए को अनुमति देने रूप से जो अतिचार होते हैं, उन अतिचारों को मैं कुंदकुंदाचार्य कहूँगा।
अब दर्शन के अतिचारों को पहले कहते हैं। वे शंका आदि के भेद से आठ हैं। कैसे ? उसे ही बताते हैं—
गाथार्थ—जिनेन्द्रदेव ने दर्शनाचरण की विशुद्धि आठ प्रकार की कही है। अत: दर्शनमल के शोधन को मैं कहूँगा। तुम एकाग्रमन होकर सुनो।।२००।।
आचारवृत्ति—जो कर्म-शत्रुओं को जीतते हैं वे जिन हैं। उनमें वर-श्रेष्ठ जिनवर हैं अर्थात् तीर्थंकर परमदेव को जिनवर कहते हैं। तीर्थंकर जिनेन्द्र ने दर्शनाचरण की विशुद्धि-निर्मलता को आठ प्रकार की कहा है। दर्शन-सम्यक्त्व के मल-अतीचार के शोधनक-निराकरण को मैं कहूँगा, उसे एकाग्रचित्त होकर आप सुनें।
शृणुत जानीध्वं। एयमणा–एकाग्रमनस: तद्गतचित्ता:। पूर्वसंग्रहसूत्रेण दर्शनातीचारार्थं जिनवरैर्दर्शनविशुद्धिरष्टप्रकारा निर्दिष्टा यतोऽतस्तद्भेदादशुद्धिरप्यष्टविधा तद्दर्शनमलशोधनकं वक्ष्येऽहं यूयं शृणुतैकाग्रमनस इति।।२००।।
अष्टप्रकारा शुद्धिरुक्ता के तेऽष्टप्रकारा इत्यत आह–
णिस्संकिद णिक्कंखिद णिव्विदिगिंच्छा अमूढदिट्ठीय।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पभावणा य ते अट्ठ।।२०१।।
णिस्संकिद–शंका निश्चयाभावः शुद्धपरिणामाच्चलनं शंकाया निर्गतो नि:शंकस्तस्य भावो निःशंकता तत्त्वरुचौ शुद्धपरिणामः। णिक्कंखिद–कांक्षा इहपरलोकभोगाभिलाषः, कांक्षाया निर्गतो निष्कांक्षस्तस्य भावो निष्कांक्षता सांसारिकसुखारुचि:। णिव्विदिगिंछा–विचिकित्साया जुगुप्सा अस्नानमलधारणनग्नत्वादिव्रतारुचिर्विचिकित्साया निर्गतो निर्विचिकित्सस्तस्य भावो निर्विचिकित्सता द्रव्यभावद्वारेण विपरिणामाभाव:।
अमूढदिट्ठीय–मूढान्यत्रगता न मूढा अमूढा, अमूढा दृष्टि: रुचिर्यस्यासावमूढदृष्टिस्तस्य भावोऽमूढदृष्टिता लौकिकसामयिकवैदिकमिथ्याव्यवहारापरिणाम:। उवगूहण–उपगूहनं चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघदोषापहरणं प्रमादाचरितस्य च संवरणं। ठिदिकरणं–अस्थिर: स्थिर: क्रियते सम्यक्त्वचारित्रादिषु स्थिरीकरणं रत्नत्रये शिथिलस्य दृढयनं हितमितोपदेशादिभि:।
वच्छल्ल–वत्सलस्य भावो वात्सल्यं पूर्व में संग्रहसूत्र के द्वारा पाँच आचारों को कहने की प्रतिज्ञा की है। पुन: इस संग्रहसूत्र से दर्शन के अतिचार को प्ररूपित करने के लिए कहा है। अत: जिनेन्द्रदेव ने दर्शन की विशुद्धि आठ प्रकार की कही है अत: उन आठ भेदों से दर्शन की अशुद्धि (अतिचार) भी आठ प्रकार की ही हो जाती है। मैं दर्शनाचार के शोधन को कहूँगा, तुम सावधान होकर सुनो, ऐसा ग्रन्थकार ने कहा है।
आपने शुद्धि आठ प्रकार की कही है। वे आठ प्रकार कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं—
गाथार्थ—नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ शुद्धि हैं।।२०१।।
आचारवृत्ति—शंका-निश्चय का अभाव होना या शुद्ध परिणाम से चलित होना। इस शंका से जो रहित है वह नि:शंक है उसका भाव नि:शंकता है अर्थात् तत्त्वों की रुचि में शुद्ध परिणाम का होना।
इसलोक परलोक सम्बन्धी भोगों की अभिलाषा कांक्षा है। कांक्षा जिसकी निकल गई है वह निष्कांक्ष है, उसका भाव निष्कांक्षता है अर्थात् सांसारिक सुखों में अरुचि का होना।
जुगुप्सा-ग्लानि को विचिकित्सा कहते हैं। अस्नानव्रत, मलधारण और नग्नत्व आदि में अरुचि होना। इस विचिकित्सा का न होना निर्विचिकित्सा है; उसका भाव निर्विचिकित्सता है अर्थात् द्रव्य और भाव के द्वारा विकाररूप (ग्लानि या निन्दा) परिणाम का नहीं होना।
अन्यत्र जानेवाली दृष्टि-रुचि मूढ़दृष्टि है और जिसकी मूढ़दृष्टि नहीं है वह अमूढ़दृष्टि है, उसका भाव अमूढ़दृष्टिता है। लौकिक, सामयिक, वैदिक मूढ़ताओं में मिथ्याव्यवहाररूप परिणाम न होना। अर्थात् अग्नि में जलकर मरना, सती होना आदि लोकमूढ़ता है। अन्य संप्रदाय को समय या परसमय कहते हैं उसमें मूढ़बुद्धि होना तथा वेदों में रुचि होना यह सब मूढ़दृष्टिता है, इनमें रुचि-श्रद्धा न होना अमूढ़दृष्टिता है।
चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ में हुए किसी भी दोष को दूर करना अर्थात् प्रमाद से कोई दोषरूप आचरण हुआ हो तो उसे ढाँक देना यह उपगूहन है।
अस्थिर को स्थिर करना अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र आदि में उसे स्थिर करना, जो रत्नत्रय में शिथिल हो रहा है उसको हितमित उपदेश आदि से उसी में दृढ़ कर देना स्थितीकरण है।
ाातुर्वर्ण्यश्रमणसंघे सर्वथानुपवर्तनं धर्मपरिणामेनापद्यनापदि सधर्मजीवानामुपकाराय द्रव्योपदेशादिना हितमाचरणं। पभावणाय–प्रभावना च प्रभाव्यते मार्गोऽनयेति प्रभावना वादपूजादानव्याख्यानमंत्रतंत्रादिभि: सम्यगुपदेशैर्मिथ्यादृष्टिरोधं कृत्वार्हत्प्रणीतशासनोद्योतनं ते एते निःशंकितादयो गुणा:। अट्ठ–अष्टौ वेदितव्या:। एतेषां वैपरीत्येन तावन्तोऽतीचारा व्यतिरेकद्वारेण कथिता एवातो नातिचारकथनं प्रतिज्ञाय शुद्धिकथनं दोषायेति।।२०१।।
अथ दर्शनं किं लक्षणं ? यस्य शुद्धयोऽतीचाराश्चोक्ता दर्शनं मार्ग: सम्यक्त्वंं कुत इत्यत आह–
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं।।२०२।।
मग्गो–मार्गो मोक्षमार्गाभ्युपाय: सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामन्योन्यापेक्षया वर्तनं। मग्गफलंति य–मार्गस्य फलं सम्यक्सुखाद्यवाप्तिःमार्गफलमिति च। इतिशब्दो व्यवच्छेदार्थ: नान्यत्त्रैविध्यमित्यर्थ:। दुविहं–द्वौ प्रकारावस्यद्विविधं तस्य भावो द्वैविध्यं। जिणसासणे–जिनस्य शासनमागमस्तस्मिन् जिनशासने।
समाक्खादं–समाख्यातं सम्यगुक्तं। अथवा प्रथमान्तमेतज्जिनशासनमिति। मग्गो–मार्ग:। खलु–स्फुटं। सम्मत्तं–सम्यक्त्वं ननु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि समुदितानि मार्गस्तत: कथं सम्यक्त्वमेव मार्ग:। नैष दोष: अवयवे समुदायोपचारात् मार्गं प्रति सम्यक्त्वस्य प्राधान्याद्वा।
वत्सल का भाव वात्सल्य है। चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ के अनुकूल ही सर्वथा वर्तन करना, सधर्मी जीवों के ऊपर आपत्ति के आने पर या बिना आपत्ति के भी उनके उपकार के लिए धर्मपरिणाम से प्रासुक द्रव्य व उपदेश आदि के द्वारा उनके हितरूप आचरण करना वात्सल्य है।
जिसके द्वारा मार्ग प्रभावित किया जाता है वह प्रभावना है। वाद-शास्त्रार्थ, पूजा, दान, व्याख्यान, मन्त्र, तन्त्र आदि के द्वारा और सच्चे उपदेश के द्वारा मिथ्यादृष्टि जनों के प्रभाव को रोककर अर्हन्त देव के द्वारा प्रणीत जैन शासन का उद्योतन करना प्रभावना है।
ये नि:शंकित आदि आठ गुण हैं ऐसा जानना चाहिए। इन आठ गुणों से विपरीत उतने ही अतिचार होते हैं जो कि व्यतिरेक द्वारा कहे ही गए हैं। इसलिए आचार्य ने अतिचार के कहने की प्रतिज्ञा करके जो यहाँ पर शुद्धियों का कथन किया है वह दोषास्पद नहीं हैं।
विशेष—गाथा क्र. २०० में आचार्य ने तो कहा है कि मैं दर्शन के अतिचारों को कहूँगा तथा गाथा क्र. २०१ में वे दर्शन की आठ शुद्धियों का वर्णन करते हैं। सो यह कोई दोष नहीं है क्योंकि ये नि:शंकित आदि आठ गुण कहे गए हैं। इनसे उल्टे ही आठ दोष हो जाते हैं जो कि इनके वर्णन से ही जाने जाते हैं।
उस दर्शन का लक्षण क्या है जिसकी शुद्धियाँ और अतिचारों को कहा गया है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि दर्शन मार्ग है अर्थात् सम्यक्त्व है। यह कैसे ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ—मार्ग और मार्गफल इस तरह दो प्रकार ही जिनशासन में कहे गये हैं। निश्चितरूप से सम्यक्त्व है मार्ग और मार्ग का फल है निर्वाण।।२०२।।
आचारवृत्ति—मोक्षमार्ग या मोक्ष के उपाय को यहाँ मार्ग कहा है अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का परस्पर में सापेक्ष वर्तन होना मार्ग है। सच्चे सुख आदि की प्राप्ति हो जाना मार्ग का फल है। इस तरह दो ही प्रकार जिनशासन में-जैन आगम में कहे गये हैं, अन्य तीसरा प्रकार नहीं है। अथवा
‘जिनशासन’ पद को प्रथमान्त मानकर ऐसा अर्थ करना कि यह जिनशासन दो प्रकार का ही है और वह मार्ग सम्यक्त्व ही है।
ाग्गफलं–मार्गस्य फलं मार्गफलं। होइ–भवति। णिव्वाणं–निर्वाणं अनंतचतुष्टयावाप्ति:। किमुक्तं भवति, जिनशासने मार्गमार्गफलाभ्यामेव द्वैविध्यमाख्यातं कार्यकारणभ्यां विनान्यस्याभावात्। अतो मार्ग: सम्यक्त्वं कारणं, मार्गफलं च निर्वाणं कार्यरूपं। अथवा मार्गमार्गफलाभ्यामिति कृत्वा जिनशासनं द्विविधमेव समाख्यातं। स मार्ग: सम्यक्त्वं, शेषश्च फलं निर्वाणमिति।।२०२।।
यद्यपि मार्ग: सम्यक्त्वं इति व्याख्यातं तथापि सम्यक्त्वस्याद्यापि स्वरूपं न बुध्यते तद्बोधनार्थमाह–
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं।।२०३।।
अवयवार्थपूर्विका वाक्यार्थप्रतिपत्तिरिति कृत्वा तावदवयवार्थो व्याख्यायते। भूदत्थेण–भूतश्चासावर्थश्च भूतार्थस्तेन। यद्यप्ययं भूतशब्द: पिशाचजीवसत्यपृथिव्याद्यनेकार्थे वर्तते तथाप्यत्र सत्यवाची परिगृह्यते, तथार्थशब्दो यद्यपि पदार्थ प्रयोजनस्वरूपाद्यर्थे वर्तते तथापि स्वरूपार्थे वर्तमान: परिगृहीतोऽन्यार्थवाचकेन प्रयोजनाभावात्, भूतार्थेन सत्यस्वरूपेण य्
शंका—सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मार्ग है। पुन: ‘आपने सम्यक्त्व को ही मार्ग कैसे कहा ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है। अवयव में समुदाय का उपचार कर लेने से यहाँ पर सम्यक्त्व को ही मार्ग कह दिया गया है। अथवा मार्ग के प्रति सम्यग्दर्शन प्रधान है इसलिए भी यहाँ सम्यक्त्व को ही ‘मार्ग’ शब्द से कह दिया है।
मार्ग का फल निर्वाण है जो कि अनंतचतुष्टय की प्राप्तिरूप है। अभिप्राय यह है कि जिनशासन में मार्ग और मार्गफल ये दो प्रकार कहे गये हैं, क्योंकि कार्य और कारण से अतिरिक्त अन्य कुछ तृतीय बात सम्भव नहीं है। अत: मार्ग तो सम्यक्त्व है वह कारण है और मार्ग का फल निर्वाण है जो कि कार्यरूप है। अथवा मार्ग और मार्गफल के द्वारा जिनशासन दो प्रकार का है। उसमें मार्ग तो सम्यक्त्व है और उसका फल निर्वाण है।
विशेष-नियमसार में श्री कुन्दकुन्ददेव की दूसरी गाथा यही है, किंचित् अन्तर के साथ—
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं।।
अर्थात् मार्ग और मार्गफल इन दो प्रकार का जिनशासन में कथन किया गया है। मार्ग तो मोक्ष का उपाय है और उसका फल निर्वाण है। अभिप्राय यह है कि यहाँ पर आचार्य ने मोक्ष के उपायरूप रत्नत्रय को मार्ग कहा है जिसके विषय में उपर्युक्त टीका में प्रश्न उठाकर समाधान किया गया है कि अवयव-एक सम्यग्दर्शन में भी रत्नत्रयरूप समुदाय का उपचार कर लिया गया है अथवा मोक्ष के मार्ग में सम्यग्दर्शन ही प्रमुख है उसके बिना ज्ञान अज्ञान है और चारित्र भी अचारित्र है।
मार्ग सम्यक्त्व है, यद्यपि आपने ऐसा बताया है फिर भी सम्यक्त्व का स्वरूप मुझे अभी तक मालूम नहीं है, ऐसा कहने पर आचार्य सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं—
गाथार्थ—सत्यार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये ही सम्यक्त्व हैं।।२०३।।
आचारवृत्ति—अवयवों के अर्थपूर्वक ही वाक्य के अर्थ का ज्ञान होता है, इसलिए पहले अवयव के अर्थ का व्याख्यान करते हैं। अर्थात् पदों से वाक्य रचना होती है इसलिए प्रत्येक पद का अर्थ पहले कहते हैं जिससे वाक्यों का ज्ञान हो सकेगा।
याथात्म्येन। अभिगदा–अभिगताः अधिगता: स्वेन स्वेन स्वरूपेण प्रतिपन्ना: जीवाश्चेतनलक्षणा ज्ञानदर्शनसुख-दुःखानुभवनशीला:। तद्व्यतिरिक्ता अजीवाश्च पुद्गलधर्माधर्मास्तिकायाकाशकाला: रूपादिगतिस्थित्यवकाशवर्तनालक्षणा:। पुण्णं–शुभप्रकृतिस्वरूपपरिणतपुद्गलपिंडो जीवाह्लादननिमित्त:। पावं–पापं चाशुभकर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलप्रचयो जीवस्यासुखहेतु:।
आसव–आसमंतात् स्रवत्युपढौकते कर्मानेनाश्रव:। संवर–कर्मागमनद्वारं संवृणोतीति संवरणमात्रं वा संवरोऽपूर्वकर्मागमननिरोध:। णिज्जर–निर्जरणं निर्जरयत्यनया वा निर्जरा जीवलग्नकर्मप्रदेशहानि:। बंधो–बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा बन्धो जीवकर्मप्रदेशान्योन्यसंश्लेषोऽस्वतंत्रीकरणं। मोक्खो–मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा मोक्षो जीवप्रदेशानां कर्मरहितत्वं स्वतंत्रीभाव:।
चशब्द: समुच्चयार्थ:। सम्मत्तं–सम्यक्त्वं। एतेषां यथाक्रम एव न्यायः१, जीवस्य प्राधान्यादुत्तरोत्तराणां पूर्वपूर्वोपकाराय प्रवृत्तत्वाद्वा। न चैतेषामभावो ज्ञानरूपमुपचारो वा धर्मार्थकाममोक्षाणामभावादा-श्रयाभावात्मुख्याभावाच्च प्रमाणप्रमेयव्यवहाराभावाल्लोकव्यवहाराभावाच्च। जीवाजीवा२ भूतार्थेनाधिगता: सम्यक्त्वं३। तथा पुण्यपापं चाधिगतं सम्यक्त्वं।
तथा आस्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाश्चाधिगता: सन्त: सम्यक्त्वं भवति। ननु कथमेतेऽधिगता: सम्यक्त्वं यावतैषामधिगतानां यत्प्रधानं तत् सम्यक्त्वमित्युक्तं, नैष दोषः, श्रद्धानरूपैवेयमधिगतिरन्यथा परमार्थाधिगतेरभावात् कारणे कार्योपचाराद्वा जीवादयोऽधिगता: सम्यक्त्वमित्युक्तं। जीवादीनां ४परमार्थानां यच्छ्रद्धानं तत्सम्यक्त्वं। अनेन न्यायेनाधिगमलक्षणं दर्शनमुक्तं भवति।।२०३।।
भूत और अर्थ इन दो पदों से भूतार्थ बना है। उसमें से यद्यपि भूत शब्द पिशाच, जीव, सत्य, पृथ्वी आदि अनेक अर्थों में विद्यमान है फिर भी यहाँ पर सत्य अर्थ में होना चाहिए। उसी प्रकार से अर्थ शब्द यद्यपि पदार्थ, प्रयोजन और स्वरूप आदि अनेक अर्थों का वाचक है फिर भी यहाँ पर स्वरूप अर्थ में लिया गया है क्योंकि यहाँ पर अन्य अर्थ का प्रयोजन नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से व्यवस्थित हैं वे अपने-अपने स्वरूप से ही जाने गये हैं, सम्यक्त्व हैं।
जीव का लक्षण चेतना है। वह चेतना ज्ञान, दर्शन, सुख और दु:ख के अनुभव स्वभाववाली है, उससे व्यतिरिक्त पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये अजीव द्रव्य हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणवाला पुद्गल है। धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलों की गति में सहायक होने से गति लक्षणवाला है। अधर्मद्रव्य इनकी स्थिति में सहायक होने से स्थितिलक्षण वाला है। आकाश द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला होने से अवकाश लक्षणवाला है और काल द्रव्य वर्तना लक्षणवाला है।
शुभ प्रकृति स्वरूप परिणत हुआ पुद्गल पिण्ड पुण्य कहलाता है जो कि जीवों में आह्लादरूप सुख का निमित्त है। अशुभ कर्मस्वरूप परिणत हुआ पुद्गलपिण्ड पापरूप है जो कि जीव के दु:ख का हेतु है। जिससे कर्म आ-सब तरफ से, स्रवति-आते हैं वह आस्रव है अर्थात् कर्मों का आना आस्रव है। कर्म के आगमन-द्वार को जो रोकता है अथवा कर्मों का रुकना मात्र ही संवर है अर्थात् आनेवाले कर्मों का आना रुक जाना संवर है। कर्मों का निर्जीर्ण होना अथवा जिसके द्वारा कर्म निर्जीर्ण होते हैं, झड़ते हैं, वह निर्जरा है।
अर्थात् जीव में लगे हुए कर्म प्रदेशों की हानि होना निर्जरा है। यहाँ व्याकरण के लक्षण की व्युत्पत्ति से ‘निर्जरणं अनया निर्जरयति वा’ इस प्रकार से भाव अर्थ में और करण-साधन में विवक्षित है, जिसका ऐसा अर्थ है कि कर्मों का झड़ना यह तो द्रव्यनिर्जरा है और जिन परिणामों से कर्म झड़ते हैं वे परिणाम ही भावनिर्जरा है।
जिसके द्वारा कर्म बँधते हैं अथवा बँधना मात्र ही बन्ध का लक्षण है ( बध्यतेऽनेन बन्धनमात्रं वा) इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी भावबन्ध और द्रव्यबन्ध विवक्षित हैं। जीव के प्रदेश और कर्म प्रदेश-परमाणुओंका परस्पर में संश्लेष हो जाना-एकमेक हो जाना बन्ध है, जो जीव और पुद्गलवर्गणा दोनों की स्वतन्त्रता को समाप्त कर उन्हें परतन्त्र कर देता है।
जिसके द्वारा जीव मुक्त होवे, छूट जाय अथवा छूटना मात्र ही मोक्ष है। इसमें भी व्युत्पत्ति (मुच्यतेऽनेन मुक्तिर्वा) के लक्षण से भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष विवक्षित है अर्थात् जिन परिणामों से आत्मा कर्म से छूटता है वह भावमोक्ष है और कर्मों से छूटना ही द्रव्य मोक्ष है, सो ही कहते हैं कि जीव के प्रदेशों का कर्म से रहित हो जाना, जीव की परतन्त्र अवस्था समाप्त होकर उसका पूर्ण स्वतन्त्र भाव प्रकट हो जाना ही मोक्ष है।
इन नव पदार्थों का जो यहाँ क्रम लिया है वही न्यायपूर्ण है, क्योंकि जीवद्रव्य ही प्रधान है अथवा आगे-आगे के पदार्थ पूर्व-पूर्व के उपकार के लिए प्रवृत्त होते हैं।
शंका—इन पदार्थों का अभाव है अथवा ये पदार्थ ज्ञानरूप ही हैं या ये उपचाररूप ही हैं ? अर्थात् शून्यवादी किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं मानते हैं सो वे ही सबका अभाव कहते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध सभी चर-अचर जगत् को एक ज्ञानरूप ही मानते हैं। तथा सामान्य बौद्ध या ब्रह्माद्वैतवादी सभी वस्तुओं को उपचार अर्थात् कल्पनारूप ही मानते हैं। उनका कहना है कि यह सम्पूर्ण विश्व अविद्या का ही विलास है। इन सम्प्रदायवादियों की अपेक्षा से ये तीन शंकाएँ उठाई गई हैं।
समाधान—आप ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि यदि जीव पदार्थों को या मात्र जीव को ही न माना जाय तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अभाव हो जायेगा।
अथवा यदि जीव को ज्ञानरूप ही मान लोगे तो ज्ञान तो एक गुण है और जीव गुणी है, ज्ञान गुण के ही मानने से उसके आश्रय का अभाव हो जायेगा अर्थात् आश्रयभूत जीव पदार्थ नहीं सिद्ध हो सकेगा। यदि जीवादि को उपचार कहोगे तो मुख्य का अभाव हो जायेगा और मुख्य के बिना उपचार की प्रवृत्ति भी कैसे हो सकेगी।
तथा इन एकान्त मान्यताओं से प्रमाण और प्रमेय अर्थात् ज्ञान और ज्ञेयरूप व्यवहार का भी अभाव हो जायेगा। और तो और, लोकव्यवहार का ही अभाव हो जाता है अर्थात् जो कुछ भी लोकव्यवहार चल रहा है वह सब समाप्त हो जावेगा।
सत्यार्थस्वरूप से जाने गये ये जीव-अजीव सम्यक्त्व हैं। उसी प्रकार से सत्यार्थ स्वरूप से जाने गये पुण्य और पाप ही सम्यक्त्व हैं। तथैव सत्यार्थ स्वरूप से जाने गये आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ही सम्यक्त्व हैं।
शंका—ये जाने गये सभी सम्यक्त्व कैसे हैं ? सत्यार्थरूप से जाने गये इनमें से जो प्रधान है वह सम्यक्त्व है ऐसा कहना तो युक्त हो भी सकता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह अधिगति-ज्ञान श्रद्धानरूप ही है अन्यथा—यदि ऐसा नहीं मानोगे, तो परमार्थरूप से जानने का अभाव हो जायेगा। अथवा कारण में कार्य का उपचार होने से जाने गये जीवादि पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है। किन्तु वास्तव में परमार्थरूप जीवादि पदार्थों का जो श्रद्धान है वह सम्यक्त्व है। इस न्याय से यहाँ पर अधिगम लक्षण सम्यग्दर्शन को कहा गया है-ऐसा समझना।
विशेषार्थ—यहाँ पर सम्यग्दर्शन के विषयभूत पदार्थों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। चूंकि परमार्थरूप में जाने गये ये पदार्थ ही श्रद्धा के विषय हैं अत: ये श्रद्धान में कारण हैं और श्रद्धान होना यह कार्य है जो कि सम्यक्त्व है किन्तु कारणभूत पदार्थों में कार्यभूत श्रद्धान का अध्यारोप करके उन पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है।
आदौ निर्दिष्टस्य जीवस्य भेदपूर्वकं लक्षणं प्रतिपादयन्नाह–
दुविहा य होंति जीवा संसारत्था य णिव्वुदा चेव।
छद्धा संसारत्था सिद्धिगदा णिव्वुदा जीवा।।२०४।।
यही गाथा ‘समयसार’ में भी है जिसका अर्थ भी श्री अमृतचन्द्र सूरि और श्री जयसेनाचार्य ने इसी प्रकार से किया है। यथा—
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मतं।।१३।।
अर्थात् परमार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव पदार्थ सम्यक्त्व कहे जाते हैं।
तात्पर्यवृत्ति—भूयत्थेण-भूतार्थेन निश्चयनयेन शुद्धनयेन अभिगदा-अभिगता निर्णीत निश्चिता ज्ञाता: संत: के से ? जीवाजीवा य पुण्णपावं च आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य—जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवर-निर्जरा-बंधमोक्षस्वारूपा नव पदार्था: सम्मत्तं। त एवाभेदोपचारेण सम्यक्त्वविषयत्वात्कारणत्वात्सम्यक्त्वं भवन्ति। निश्चयेन परिणाम एव सम्यक्त्वमिति। …….
अर्थ—भूतार्थरूप निश्चयनय—शुद्धनय के द्वारा निर्णय किये गये, निश्चय किये गये, जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष स्वरूप जो नव पदार्थ हैं वे ही अभेद उपचार के द्वारा सम्यक्त्व के विषय होने से, कारण होने से सम्यक्त्व हैं। किन्तु अभेदरूप से निश्चय से देखें तो आत्मा का परिणाम ही सम्यक्त्व है।
प्रश्न—भूतार्थ नय के द्वारा जाने हुए नव पदार्थ सम्यक्त्व होते हैं ऐसा जो आपने कहा, उस भूतार्थ के ज्ञान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर—यद्यपि ये नव पदार्थ तीर्थ की प्रवृत्ति में निमित्त होने से प्राथमिक शिष्य की अपेक्षा से भूतार्थ कहे जाते हैं। फिर भी अभेद रत्नत्रयलक्षण निर्विकल्प समाधि के काल में वे अभूतार्थ-असत्यार्थ ठहरते हैं अर्थात् वे शुद्धात्मा के स्वरूप नहीं होते हैं, किन्तु इस परम समाधि के काल में तो उन नव पदार्थों में शुद्ध निश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही झलकता है, प्रकाशित होता है, प्रतीति में आता है, अनुभव किया जाता है और जो वहाँ पर यह अनुभूति, प्रतीति अथवा शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है वही निश्चय सम्यक्त्व है।
वह अनुभूति ही गुण और गुणी में निश्चयनय से अभेद विवक्षा करने पर शुद्धात्मा का स्वरूप है ऐसा तात्पर्य है। और जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे केवल प्रारम्भ अवस्था में तत्त्वों के विचार के समय सम्यक्त्व के लिए सहकारी कारणभूत होते हें वे भी सविकल्प अवस्था में ही भूतार्थ हैं, किन्तु परमसमाधि काल में तो वे भी अभूतार्थ हो जाते हैं। उन सबमें भूतार्थरूप से एक शुद्ध जीव ही प्रतीति में आता है।
अभिप्राय यह है कि आचार्य ने यहाँ पर समीचीनतया जाने गये नव पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है सो अभेदोपचार करके कहा है। वास्तव में ये सम्यक्त्व के विषय हैं अथवा सम्यक्त्व के लिए कारण भी हैं।
अब आदि में जिसका निर्देश किया है उस जीव का भेदपूर्वक लक्षण बतलाते हुए आचार्य कहते हैं—
गाथार्थ—जीव दो प्रकार के होते हैं—संसार में स्थित अर्थात् संसारी और मुक्त। संसारी जीव छह प्रकार के हैं और मुक्तजीव सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं।।२०४।।
दुविहा य–द्विप्रकारा द्वौ प्रकारौ येषां ते द्विप्रकारा द्विभेदा: जीवा: प्राणिन:। संसारत्था य–संसारे तिष्ठन्तीति संसारस्थाश्चतुर्गतिनिवासिन:। णिव्वुदा चेय–निर्वृताश्चेति मुक्तिं गता इत्यर्थ:। छद्धा–षट्वा षट्प्रकारा:। संसारत्था–संसारस्था:। सिद्धिगदा–सिद्धिंगता उपलब्धात्मस्वरूपा:। णिव्वुदा–निर्वृता जीवास्तेषां भेदकारणाभावादभेदास्ते। संसारमुक्तिवासभेदेन द्विविधा जीवा:। संसारस्था: पुन: षट्प्रकारा एकरूपाश्च निर्वृता इति सम्बन्ध:।।२०४।।
के ते षट्प्रकारा इत्याह–
पुढवी आऊ तेऊ वाऊ य वणप्फदी तहा य तसा।
छत्तीसविहा पुढवी तिस्से भेदा इमे णेया।।२०५।।
पुढवी–पृथिवी चतुष्प्रकारा पृथिवी, पृथिवीशरीरं, पृथिवीकायिक:, पृथिवीजीव:। आपोऽप्कायोऽप्कायिकोऽप्जीव:। तेजस्तेजस्कायस्तैजस्कायिकस्तेजोजीव:। वायुर्वायुकायो वायुकायिको वायुजीव:। वनस्पतिर्वनस्पतिकायो वनस्पतिकायिको वनस्पतिजीव:। यथा पृथिवी चतुष्प्रकारा तथाप्तेजोवायुवनस्पतय:,चशब्दतथाशब्दाभ्यां सूचितत्वात्।
जीवाधिकाराद् द्वयोर्द्वयोराद्ययोस्त्याग: शेषयो: सर्वत्र ग्रहणम्। आद्यस्य प्रकारस्य भेदप्रतिपादनार्थमाह–छत्तीसविहा पुढवी–षडभीरधिका त्रिंशत् षट्त्रिंशद्विधा प्रकारा यस्या: सा षट्त्रिंशत्प्रकारा पृथिवी। तिस्से–तस्या:। भेदा–प्रकारा:। इमे–प्रत्यक्षवचनं। णेया–ज्ञेया ज्ञातव्या:।।२०५।।
आचारवृत्ति—संसार और मुक्ति में वास करने की अपेक्षा से जीव के मूल में दो भेद हैं। ‘संसारे तिष्ठन्तीति संसारस्था:’ संसार में जो ठहरे हुए हैं वे संसारी जीव हैं। ये चारों गतियों में निवास करने वाले हैं। मुक्ति को प्राप्त हुए जीव निर्वृत्त कहलाते हैं। संसारी जीव के छह भेद हैं और भेद के कारणों का अभाव होने से मुक्त जीव अभेद-एकरूप ही हैं।
वे छह प्रकार कौन हैं ?—
गाथार्थ—पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह भेद हैं। पृथ्वी के छत्तीस भेद हैं उसके ये भेद जानना चाहिए।।२०५।।
आचारवृत्ति—पृथिवी के चार प्रकार हैं-पृथिवी, पृथिवीशरीर, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव। जल, जलकाय, जलकायिक और जलजीव। अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक और अग्निजीव। वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव। वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जीव। अर्थात् जैसे पृथिवीं के चार भेद हैं वैसे ही जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भी चार भेद हैं यह गाथा के ‘च’ शब्द और ‘तथा’ शब्द से सूचित है। यहाँ जीवों का अधिकार-प्रकरण होने से पृथिवी आदि के प्रत्येक के आदि के दो-दो भेद छोड़ने योग्य हैं अर्थात् वे निर्जीव हैं और शेष दो-दो भेदों को सभी में ग्रहण करना है ‘क्योंकि वे ही जीव हैं।
अर्थात् प्रथम भेद सामान्य पृथ्वीरूप है जिसके अन्दर अभी जीव नहीं हैं लेकिन आ सकता है। पृथिवीकाय से जीव निकल चुका है पुन: उसमें जीव नहीं आयेगा। जो पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से पृथिवीपर्याय में पृथिवी शरीर को धारण किये हुए हैं तथा जिस जीव ने विग्रहगति में पृथिवी शरीर को अभी ग्रहण नहीं किया है वह पृथिवीजीव है। इनमें से आदि के दो निर्जीव और शेष दो जीव हैं। इनमें भी विग्रहगति सम्बन्धी पृथिवीजीव के घात का प्रश्न नहीं उठता है। एक प्रकार के, मात्र पृथिवीकायिक की ही रक्षा करने की बात रहती है।
जीव के छह भेदों में जो सर्वप्रथम पृथ्वी का कथन आया है उसी के प्रतिपादन हेतु कहते हैं-पृथ्वी के छत्तीस भेद होते हैं, उनके नाम आगे बताते हैं, ऐसा जानना चाहिए।
क इमे इत्यत आह–
पुढवी य बालुगा सक्करा य उवले सिला य लोणे य।
अय तंव तउय सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य।।२०६।।
हरिदाले हिंगुलये मणोसिला सस्सगंजण पवालेय।
अब्भपडलब्भवालुय बादरकाया मणिविधीय।।२०७।।
गोमज्झगेय रुजगे अंके फलिहे लोहिदंकेय।
चंदप्पभेय वेरुलिए जलकंते सूरकंतेय।।२०८।।
गेरुय चंदण वव्वग वय मोए तह मसारगल्ले य।
ते जाण पुढविजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।।२०९।।
विशेषार्थ—मार्ग में पड़ी हुई धूलि आदि पृथ्वी हैं। पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त ईंट आदि पृथ्वीकाय हैं। जैसे कि मृतक मनुष्यादि की काया। पृथ्वीकायिक नाम कर्म के उदय से जो जीव पृथ्वीशरीर को ग्रहण किये हुए हैं वे पृथिवीकायिक हैं जैसे खान में स्थित पत्थर आदि और पृथ्वी में उत्पन्न होने के पूर्व विग्रहगति में रहते हुए एक, दो या तीन समय तक जीव पृथिवीजीव हैं।
बिलोडा गया, इधर-उधर फैलाया गया और छना हुआ पानी सामान्य जल है। जलकायिक जीवों से छोड़ा गया पानी और गरम किया गया पानी जलकाय है। जिसमें जलजीव हैं वह जलकायिक और जलकाय में उत्पन्न होने वाला विग्रहगतिवाला जीव जलजीव है।
इधर-उधर फैली हुई या जिस पर जल सींच दिया गया है या जिसका बहुभाग भस्म बन चुका है या किंचित् गरम मात्र ऐसी अग्नि सामान्य अग्नि है। अग्निजीव के द्वारा छोड़ी हुई अग्नि, भस्म आदि अग्निकाय है। जिसमें अग्निजीव मौजूद है वह अग्निकायिक और अग्निकाय में उत्पन्न होने के लिए विग्रह गतिवाला अग्निजीव है।
जिसमें वायुकायिक जीव आ सकता है ऐसी वायु को अर्थात् केवल सामान्य वायु को वायु कहते हैं। वायुकायिक जीव के द्वारा छोड़ी गयी, पंखा आदि से चलाई गयी वायु, हमेशा विलोडित की गयी वायु वायुकाय है। वायुकायिक जीव से सहित वायुकायिक है और वायुकायिकी में उत्पन्न से पूर्व विग्रहगतिजीव वायुजीव है।
गीली, छेदी गयी, भेदी गयी या मर्दित की गयी लता आदि यह सामान्य वनस्पति है। सूखी आदि वनस्पति जिसमें वनस्पति जीव नहीं है वह वनस्पतिकाय है। वनस्पतिकायिक जीव सहित वनस्पतिकायिक है और वनस्पतिकाय में उत्पन्न होनेवाला विग्रहगति वाला जीव वनस्पति जीव है। इस प्रकार से इनके उदाहरण तत्वार्थवृत्ति अ. २ सूत्र १३ में दिये गये हैं।
वे भेद कौन हैं ? सो ही बताते हैं—
गाथार्थ—मिट्टी, बालू, शर्करा, उपल, शिला, लवण, लोहा, तांबा, रांगा, सीसक, चाँदी, सोना और हीरा।
हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सस्यक, अंजन, प्रवाल, अभ्रक और अभ्रबालू ये बादरकाय हैं। और अब मणियों के भेद कहते हैं—
गोमेदमणि, रुचकमणि, अंकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त और सूर्यकान्त ये मणि हैं।
गेरु, चन्दन, वप्पक, वक, मोच तथा मसारगल्ल ये मणि हैं। इन पृथिवीकायिक जीवों को जानो और जानकर उनका परिहार करना चाहिए।।२०६-२०९।।
पुढवी–पृथिवी मृद्रूपा। बालुया–बालुका रूक्षा गंगाद्युद्भवा। सक्करा–शर्करा पुरुषरूपा अत्र चतुरस्रादिरूपा। उबले–उपलानि वृत्तपाषाणरूपाणि। सिला य–शिला च वृहत्पाषाणरूपा। लोणे य–लवणभेदा: सामुद्रादय:। अय–अयो लोहरूपं। तंव–ताम्रं। तउय–त्रपुषं। सीसय–सीसकं श्यामवर्णं। रुप्प–रूप्यवर्णं शुक्लरूपं। सुवण्णेय–सुवर्णानि च रक्तपीतरूपाणि। वइरे य–वङ्कां च रत्नविशेष:।।२०६।।
हरिदाले–हरितालं नटवर्णकं। हिंगुलये–हिंगुलकं रक्तद्रव्यं। मणोसिला–मन:शिला काशप्रतिकाराय प्रवृत्तं। सस्सग–सस्यकं हरितरूपं। अंजणं–अञ्जनं अक्ष्युपकारकं (चक्षुरूपकारकं) द्रव्यं। पवालेय–प्रवालं च। अब्भपडल–अभ्रपटलं। अब्भबालुग–अभ्रवालुका चैक्यचिक्यरूपा। वादरकाया–स्थूलकाया:। मणिविधीय–इतं ऊर्ध्वं मणिविधयो मणिप्रकारा वक्ष्यन्त इति सम्बन्ध:।।२०७।।
शर्करोपलशिलावङ्काप्रवालवर्जिता: शुद्धा: पृथिवीविकारा: पूर्वे एते च खरपृथिवीविकारा:। गोमज्झगेय–गोमध्यको मणि: कर्वेâतनमणि:। रुजगे–रुचकश्च मणी राजवर्तकरूप:। अंके–अंको मणि: पुलकवर्ण:। फलिहे–स्फटिकमणि: स्वच्छरूप:। लोहिदंकेय–लोहितांको मणी रक्तवर्ण: पद्मराग:। चंदप्पभेय–चन्द्रप्रभो मणि:। देरुलिए–वैडूर्यो मणि:।
आचारवृत्ति—सामान्य मिट्टीरूप को पृथिवी कहते हैं। बालुका-जो रूक्ष है तथा गंगानदी आदि में उत्पन्न होती है। शर्करा-कंकरीली रेत जो कठोर होती है और चौकोन आदि आकारवाली होती है। उपल-गोल-गोल पत्थर के टुकड़े, शिला-पत्थर की चट्टानें, लवण-पहाड़ या समुद्र आदि के जल से जमकर होने वाला नमक, लोह-लोहा, रूप्य-चाँदी, सुवर्ण-सोना और वङ्का-हीरा ये सब रत्नविशेष हैं।
हरिताल—यह नटवर्ण का होता है। हिंगूल—यह लाल वर्ण का होता है। मनसिल यह पत्थर खाँसी के रोग में औषधि के काम आता है। सस्यक-(तूतिया) यह हरे वर्ण का होता है। अंजन-यह नेत्रों का उपकार करने वाला द्रव्य है। प्रवाल-इसे मूंगा भी कहते हैं। अभ्रपटल-अभ्रक, इसे भोडल भी कहते हैं। अभ्रबालुका-चमकने वाली कोई रेत। ये सब भेद बादर पृथिवीकायिक के हैं। इसके अनन्तर मणियों के भेदों को कहते हैं।
शर्करा, उपल, शिला, वङ्का और प्रवाल इनको छोड़कर बाकी के जो भेद ऊपर कहे हैं शुद्ध पृथिवी के विकार हैं अर्थात् उन्हें शुद्ध पृथिवी कहते हैं। इनके पूर्व में कहे गए (शर्करा आदि) भेद तथा इस गाथा में और अगली गाथा में कहे जाने वाले भेद खरपृथिवी के विकार हैं अर्थात् उन्हें खर पृथिवी कहते हैं। अन्यत्र पृथिवी के शुद्धपृथिवी और खरपृथिवी ऐसे दो भेद किये गये हैं।
गोमेद-कर्वेâतनमणि। रुचक-राजावर्तमणि जो अलसी के फूल के समान वर्णवाली होती है। अंक-पुलकमणि जो प्रवालवर्ण की होती है। स्फटिक-यह स्फटिक मणि स्वच्छ विशेष होती है। लोहितांक-पद्मरागमणि, यह लाल होती है। चन्द्रप्रभ-यह चन्द्रकान्त मणि है, इसमें चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से अमृत झरता है। वैडूर्य-यह नीलवर्ण की होती है। जलकान्त-यह मणि जल के समान वर्ण वाली है। सूर्यकांत-इस मणि पर सूर्य की किरणों के पड़ने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है।
गैरिक-यह मणि लालवर्ण की होती है। चंदन-यह मणि श्रीखण्ड और चन्दन के समान गन्धवाली है। वप्पक-यह मरकत मणि है। इसके अनेक भेद हैं। वक-यह मणि बगुले के समान वर्णवाली है, इसे ही पुष्परागमणि कहते हैं। मोच-यह मणि कदलीपत्र के समान वर्णवाली है, इसे नीलमणि भी कहते हैं। मसारगल्ल-यह चिकने-चिकने पाषाणरूपमणि है और मूंगे के वर्णवाली है। इन सबको पृथिवीकायिक जीव समझो।
शंका-इनके जानने का क्या प्रयोजन है ?
जलकंते–जलकान्तो मणिरुदकवर्ण:।
सूरकंतेय–सूर्यकान्तो मणि:।।२०८।।
गेरुय–गैरिकवर्णो मणी रुधिराक्ष:। चंदण–चन्दनो मणि: श्रीखंडचन्दनगन्ध:। वव्वग–वप्पको मणिर्मरकतमनेकभेदं। वग–वको मणि: वकवर्णाकार: पुष्पराग:। मोए–मोचो मणि: कदलीवर्णाकारो नीलमणि:। तह–तथा। मसारगल्लेय–मसृणपाषाणमणिर्विद्रुमवर्ण:। ते जाण–तान् जानीहि। पुढविजीवा–पृथिवीजीवान्। तैर्ज्ञातै: किं प्रयोजनं ? जाणित्ता–ज्ञात्वा।
परिहरेदव्वा–परिहर्तव्या रक्षितव्या: संयमपालनाय। तानेतान् शुद्धपृथिवीजीवान् तथा खरपृथिवीजीवांश्च मणिप्रकारान् स्थूलान् जानीहि ज्ञात्वा च परिहर्तव्या:। सूक्ष्मा: पुन: सर्वत्र ते विज्ञातव्या: आगमबलेन। षट्त्रिंंशद्भेदेषु पृथिवीविकारेषु पृथिव्यष्टक–मेरु-कुलपर्वत-द्वीप-वेदिका–विमान-भवन प्रतिमा–तोरण–स्तूप–चैत्यवृक्ष-ज़म्बू–शाल्मलीद्रुमेष्वाकार–मानुषोत्तरविजयार्ध–कांचनगिरि–दधिमुखाञ्जन–रतिकर–वृषभगिरि–सामान्यपर्वत–स्वयंभु–नगवरेन्द–वक्षार–रुचक–कुण्डलवर–दंष्ट्रा–पर्वतरत्नाकरादयोऽन्तर्भवन्तीति।।२०९।।
अप्कायिकभेदप्रतिपादनार्थमाह–
ओसाय हिमग महिगा १हरदणु सुद्धोदगे घणुदगे य।
ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।।२१०।।
समाधान-इन्हें जानकर संयम के हेतु इन जीवों की रक्षा करना चाहिए अर्थात् शुद्ध पृथिवी के जीवों को और खरपृथिवी के जीवों तथा मणियों के नाना प्रकाररूप बादरकायिक जीवों को जानकर उनका परिहार करना चाहिए, क्योंकि बादर-जीवों की ही रक्षा हो सकती है। पुन: सूक्ष्म जीव सर्वत्र लोक में तिल में तेल के समान भरे हुए हैं, उनको भी आगम के द्वारा जानना चाहिए।
इन छत्तीस भेदरूप पृथिवी के विकारों में सात नरक की पृथिवी और एक ईषत् प्राग्भार नामवाली सिद्धशिलारूप पृथ्वी ये आठ भूमियाँ, मेरुपर्वत, कुलाचल, द्वीप और द्वीपसमूहों की वेदिकाएं, देवों के विमान, भवन, जिनप्रतिमा आदि प्रतिमाएँ, तोरणद्वार, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जम्बूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष, इष्वाकारपर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, विजयार्धपर्वत, कांचनपर्वत, दधिमुखपर्वत, अंजनगिरि, रतिकरपर्वत, वृषभाचल तथा और भी सामान्यपर्वत, स्वयंप्रभपर्वत, वक्षारपर्वत, रुचकवरपर्वत, कुण्डलवरपर्वत, गजदन्त और रत्नों की खान आदि अन्तर्भूत हो जाते हैं।
अर्थात् मध्यलोक में होने वाले सम्पूर्ण पर्वत, वेदिकाएं, जिनभवन और जिनप्रतिमाएँ, नरक की भूमियाँ, बिल, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विमान, भवन इसमें स्थित जिनमन्दिर, जिनप्रतिमाएँ तथा सिद्धशिलाभूमि, जंबूवृक्ष आदि सभी इन छत्तीस भेदों में गर्भित हो जाते हैं।
भावार्थ-पृथिवी के भेद-१. मिट्टी, २. रेत, ३. कंकड़, ४. पत्थर, ५ . शिला ६ . नमक, ७. लोहा, ८. तांबा, ९. रांगा, १०. सीसा, ११. चाँदी, १२. सोना, १३ . हीरा, १४. हरताल, १५. हिंगुल, १६. मन:शिला, १७. गेरु, १८. तूतिया, १९ अंजन, २०. प्रवाल, २१. अभ्रक, २२. गोमेद, २३. राजवर्तमणि,
२४. पुलकमणि, २५. स्फटिकमणि, २६. पद्मरागमणि, २७. वैडूर्यमणि, २८. चन्द्रकांतमणि, २९. जलकान्त, ३०. सूर्यकान्त, ३१. गैरिकमणि, ३२. चन्दनमणि, ३३. मरकतमणि, ३४. पुष्परागमणि, ३५. नीलमणि और ३६. विद्रुममणि ये छत्तीस भेद हैं। इसी में मेरुपर्वत आदि सभी भेद सम्मिलित हो जाते हैं।
अब जलकायिक जीवों के भेद प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-ओस, हिम, कुहरा, मोटी बूंदें और छोटी बूंदें, शुद्धजल और घनजल इन्हें जलजीव जानो और जानकर उनका परिहार करो।।२१०।।
ओसाय–अवश्यायजलं रात्रिपश्चिमप्रहरे निरभ्रावकाशात् पतितसूक्ष्मोदकं। हिमग–हिमं प्रालेयं जलबन्धकारणं। महिगा–महिका धूमाकारजलं कुहडरूपं। हरद१–हरत्२ स्थूलविंदुजलं। अणु–अणुरूपं सूक्ष्मविन्दुजलं। सुद्ध–शुद्धजलं चंद्रकान्तजलं। उदगे–उदकं सामान्यजलं निर्झराद्युद्भवं। घणुदगे–घनोदकं समुद्रह्रदघनवाताद्युद्भवं घनाकारं।
अथवा हरदणु–महाहृदसमुद्राद्युद्भवं। घणुदए–मेघादुद्भवं घनाकारं, एवमाद्यप्कायिकान् जीवान् जानीहि तत: किं ? जाणित्ता– ज्ञात्वा। परिहरिदव्वा:–परिहर्त्तव्या: पालयितव्या: सरित्सागर-ह्रद- कूप–निर्झर–घनोद्भवाकाशज–हिमरूप–धूमरूप–भूम्युद्भव-चंद्रकान्तजघनवाताद्यप्कायिका अत्रैवान्तर्भवन्तीति।।२१०।।
तेज:कायिकभेदप्रतिपादनायाह–
इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणीय अगणी य।
ते जाण तेउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।।२११।।
इंगाल–अंगाराणि ज्वलितनिर्धूमकाष्ठादीनि। जाल–ज्वाला। अच्चि–अर्चि: प्रदीपज्वालाद्यग्रं। मुम्मुर–मुर्मुरं कारीषाग्नि:। सुद्धागणीय–शुद्धाग्नि: व्रजाग्निर्विद्युत्सूर्यकांताद्युद्भव:। अगणीय–सामान्याग्निर्धूमादिसहित:। वाडवाग्निनन्दीश्वरधूमकुण्डिकामुकुटानलादयोऽत्रैवान्तर्भवन्तीति। तानेतांस्तेज: कायिकजीवान् जानीहि ज्ञात्वा च परिहरणीया एतदेव ज्ञानस्य प्रयोजनमिति।।२११।।
आचारवृत्ति-रात्रि के पश्चिम प्रहर में मेघ रहित आकाश से जो सूक्ष्म जलकण गिरते हैं उसे ओस कहते हैं। जो पानी घन होकर नीचे ओले के रूप में हो जाता है वह हिम है, इसे ही बर्फ कहते हैं। धूमाकार जल जो कि कुहरा कहलाता है, इसे ही महिका कहते हैं। स्थूल-बिन्दुरूप जल हरत् नामवाला है। सूक्ष्म बिन्दुरूप जल अणुसंज्ञक है।
चन्द्रकान्त से उत्पन्न हुआ जल शुद्धजल है। झरना आदि से उत्पन्न हुआ सामान्यजल उदक कहलाता है। समुद्र, सरोवर, घनवात आदि से उत्पन्न हुआ जल, जो कि घनाकार है, घनोदक कहलाता है। अथवा महासरोवर, समुद्र आदि से उत्पन्न हुआ जल हरदणु है और मेघ आदि से उत्पन्न हुआ घनाकार जल घनोदक है। इत्यादि प्रकार के जलकायिक जीवों को तुम जानो।
उससे क्या होगा ? उन जीवों को जानकर उनकी रक्षा करनी चाहिए। नदी, सागर, सरोवर, कूप, झरना, मेघ से बरसने वाला, आकाश से उत्पन्न हुआ हिम-बर्फरूप, कुहरारूप, भूमि से उत्पन्न, चंद्रकान्तमणि से उत्पन्न, घनवात आदि का जल, इत्यादि सभी प्रकार के जलकायिक जीवों का उपर्युक्त भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है।
अब अग्निकायिक भेदों के प्रतिपादन हेतु कहते हैं-
गाथार्थ-अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धाग्नि और अग्नि इन्हें अग्निजीव जानों और जानकर उनका परिहार करो।।२११।।
आचारवृत्ति-जलते हुए धुएँ रहित काठ आदि अर्थात् धधकते कोयले अँगारे कहलाते हैं। अग्नि की लपटें ज्वाला कहलाती हैं। दीपक का और ज्वाला का अग्रभाग (लौ) अर्चि है। कपड़े की अग्नि का नाम मुर्मुर है। वङ्का से उत्पन्न हुई अग्नि, बिजली की अग्नि, सूर्यकान्त से उत्पन्न हुई अग्नि ये शुद्ध अग्नि हैं। धुएँ आदि सहित सामान्य अग्नि को अग्नि कहा है।
वडवा अग्नि, नन्दीश्वर के मन्दिरों में रखे हुए धूपघटों की अग्नि, अग्निकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न हुई अग्नि आदि सभी अग्नि के भेदों का उपर्युक्त भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। इन अग्निकायिक जीवों को जानो और जानकर उनकी रक्षा हेतु उनका परिहार करो, यही इनके जानने का प्रयोजन है।
वायुकायिकस्वरूपमाह–
वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घण तणू य।
ते जाण वाउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।।२१२।।
वादुब्भामो–वात: सामान्यरूप: उद्भ्रमो भ्रमन्नूर्ध्वं गच्छति। उक्कलि–उत्कलिरूपो। मंडलि–पृथिवीं लग्नो भ्रमन् गच्छति। गुंजा–गुंजन् गच्छति। महा–महावातो वृक्षादिभंगहेतु:। घण तणू य–घनोदधि: घननिलयस्तनुवात:, व्यजनादिकृतो वा तनुवातो लोकप्रच्छादक:। उदरस्थपंचवात–विमानाधार–भवनस्थानादिवाता अत्रैवान्तर्भवन्तीति। तानेतान् वायुकायिकजीवान् जानीहि ज्ञात्वा च परिहार: कार्य:।।२१२।।
वनस्पतिकायिकार्थमाह–
मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंधबीजबीजरुहा।
संमुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य।।२१३।।
मूल–मूलबीजा जीवा येषां मूलं प्रादुर्भवति ते च हरिद्रादय:। अग्ग–अग्रवीजा जीवा: कोरंटकमल्लिकाकुब्जकादयो येषामग्रं प्रारोहति। पोरबीया–पौरबीजजीवा इक्षुवेत्रादयो येषां पोरप्रदेश: प्रारोहति। कंदा–कन्दजीवा: कदलीपिण्डालुकादयो येषां कन्ददेश: प्रादुर्भवति। तह–तथा। खंधवीया–स्कन्धवीजजीवा: शल्लकीपालिभद्रकादयो येषां स्कन्धदेशो रोहति। वीयवीया–वीजवीजा जीवा यवगोधूमादयो येषां क्षेत्रोदकादिसामग्र्या: प्ररोह:। सम्मुच्छिमाय–सम्मूर्च्छिमाश्च
अब वायुकायिक का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-घूमती हुई वायु, उत्कलिरूप वायु, मंडलाकार वायु, गुंजा वायु, महावायु, घनोदधिवातवलय की वायु और तनुवातवलय की वायु वायुकायिक जीव जानो और जानकर उनका परिहार करो।।२१२।।
आचारवृत्ति-वात शब्द से सामान्य वायु को कहा है। जो वायु घूमती हुई ऊपर को उठती है वह उद्भ्रम वायु है। जो लहरों के समान होती है वह उत्कलिरूप वायु है। पृथ्वी में लगकर घूमती हुई वायु मण्डलि वायु है। गूँजती हुई वायु गुंजावायु है। वृक्षादि को गिरा देने वाली वायु महावायु है। घनोदधिवातवलय, तनुवातवलय की वायु घनाकार है और पंखे आदि से की गयी वायु अथवा लोक को वेष्टित करने वाली वायु तनुवात हैं।
उदर में स्थित पांच प्रकार की वायु होती है। अर्थात् हृदय में स्थित वायु प्राणवायु है, गुद में अपानवायु है, नाभिमण्डल में समानवायु है, कण्ठ प्रदेश में उदानवायु है और सम्पूर्ण शरीर में रहने वाली वायु व्यानवायु है। ये शरीर सम्बन्धी पाँच वायु हैं। इसी प्रकार से ज्योतिष्क आदि स्वर्गों के विमान के लिए आधारभूत वायु, भवनवासियों के स्थान के लिए आधारभूत वायु इत्यादि वायु के भेद इन्हीं उपर्युक्त भेदों में अन्तर्भूत हो जाते हैं इन्हें वायुकायिक जीव जानो और जानकर उनका परिहार करो, ऐसा तात्पर्य है।
अब वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-पर्व, बीज, कन्द, स्कन्ध तथा बीजबीज; इनसे उत्पन्न होनेवाली और संमूचर््िछम वनस्पति कही गयी हैं। ये प्रत्येक और अनन्तकाय ऐसे दो भेदरूप हैं।।२१३।।
आचारवृत्ति-मूल से उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ मूलबीज हैं; जैसे हल्दी आदि। अग्र से उत्पन्न होने वाली वनस्पति अग्रबीज हैं; जैसे कोरंटक, मल्लिका, कुब्जक-एक प्रकार का वृक्ष आदि। इनका अग्रभाग उग जाता है। जिनकी पर्व-पोरभाग से उत्पत्ति होती है वे पर्वबीज हैं; जैसे इक्षु, बेंत आदि। जिनकी कन्दभाग से उत्पत्ति होती है वे स्कन्धबीज जीव हैं; कदली, पिंडालु आदि। कोई स्कन्ध से उत्पन्न होते हैं वे स्कन्धबीज जीव हैं; जैसे सल्लकी, पालिभद्र आदि। कोई बीज से उत्पन्न होती हैं वे बीज-बीज कहलाती हैं;
मूलाद्यभावेऽपि येषां जन्म। भणिया–भणिता: कथिता:। क आगमे जिनवरै:। पत्तेया–प्रत्येकजीवा: पूगफल–नालिकेरादय:। अणंतकाया य–अनंतकायाश्च स्नुहीगुडूच्यादय:, ये छिन्ना भिन्नाश्च प्रारोहन्ति, एकस्य यच्छरीरं तदेवानंतानन्तानां साधारणाहारप्राणत्वात् साधाराणानां, एकमेकं प्रति प्रत्येकं पृथक्कायादया: शरीरं येषां ते प्रत्येककाया:। अनन्त: साधारण: कायो येषां तेऽनन्तकाया:। एते मूलादय: सम्मूर्च्छिमाश्च प्रत्येकानन्तकायाश्च भवन्ति।।२१३।।
१अवयविरूपं व्याख्यायावयवभेदप्रतिपादनार्थमाह। अथवा वनस्पतिजातिर्द्विप्रकारा भवतीति वीजोद्भवा सम्मूर्च्छिमा च तत्र वीजोद्भवा मूलादिस्वरूपेण व्याख्याता। सम्मूर्च्छिमाया: स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
कंदा मूला छल्ली खंधं पत्तं पवाल पुप्फफलं।
गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्व काया य।।२१४।।
कंदा–कन्दक: सूरणपद्मकन्दकादि:। मूला–मूलं २पिण्डाध: प्ररोहकं हरिद्रकार्दकादिकं। छल्ली–त्वक् वृक्षादिवहिर्वल्कलं शैलयुतकादिकं च। खंधं–स्कंध: ३पिंडशाखयोरन्तर्भाग: पालिभद्रादिका: पत्तं–पत्रं अंकुरोर्ध्वावस्था।
जैसे-जौ, गेहूँ आदि, इनकी खेत में मिट्टी, जल आदि सामग्री से उत्पत्ति होती है।
मूल, अग्र-बीज आदि के अभाव में भी जिनका जन्म होता है वे संमूर्च्छिम वनस्पति हैं। इन वनस्पतियों के प्रत्येक और अनन्तकाय ये दो भेद हैं। जिनका स्वामी एक है वे प्रत्येककाय हैं जैसे सुपारी, नारियल आदि के वृक्ष। जो अनन्तजीवों के काय हैं वे अनंतकाय हैं; जैसे स्नुही, गिलोय-गुरच आदि। ये छिन्नभिन्न हो जाने पर भी उग जाती हैं।
एक-एक के प्रति पृथक्-पृथक् शरीर जिनका होता है वे प्रत्येकशरीर कहलाते हैं और एक जीव का जो शरीर है वही अनंतानन्त जीवों का शरीर हो, उन का साधारण ही आहार और श्वासोच्छ्वास हो वे अनंतकाय हैं। अर्थात् जिनके पृथव्â-पृथव्â शरीर आदि हैं वे प्रत्येककाय जीव हैं और जिनका अनन्त-साधारण काय है वे अनन्तकाय नाम वाले हैं। ये मूल आदि और संमूर्च्छन आदि वनस्पति प्रत्येक और अनन्तकाय भेद से दो प्रकार की होती हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
भावार्थ-जो वनस्पति मूल-अग्र-पर्व-बीज आदि से उत्पन्न होती हैं उनमें ये मूलादि प्रधान हैं। तथा जो मिट्टी, पानी आदि के संयोग से बिना मूल, बीज आदि के उत्पन्न होती हैं वे संमूर्च्छन हैं। यद्यपि एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक जीव संमूर्च्छन ही होते हैं और पंचेंद्रियों में भी संमूर्च्छन होते हैं, फिर भी यहाँ मूल- पर्व-बीजादि की विवक्षा का न होना ही संमूर्च्छन वनस्पति में विवक्षित है; जैसे घास आदि।
अवयवी का स्वरूप बताकर अवयवों के भेद प्रतिपादन करने हेतु कहते हैं—अथवा वनस्पति जाति के दो प्रकार हैं-एक बीज से उत्पन्न होने वाली और दूसरी संमूर्च्छन। उसमें से बीज से होने वाली वनस्पतियाँ मूलज अग्रज आदि के स्वरूप से बतलाई जा चुकी हैं, अब संमूर्च्छन वनस्पतियों का स्वरूप बतलाते हुए अगली गाथा कहते हैं-
गाथार्थ-कन्द, मूल, छाल, स्कन्ध, पत्ता, कोंपल, फूल, फल, गुच्छा, गुल्म, बेल, तृण और पर्वकाय ये वनस्पति हैं।।२१४।।
आचारवृति-सूरण, पद्मकन्द आदि कन्द हैं। मूल अर्थात् पिण्ड के नीचे भाग से जो उत्पन्न होती हैं वें मूलकाय हैं; जैसे हल्दी, अदरख आदि। वृक्षादि के बाहर का वल्कल छाल कहलाता है। पिण्ड और शाखा
पवाल–प्रवालं पल्लवं पत्राणां पूर्वावस्था। पुप्फ–पुष्पं फलकारणं। फलं–पुष्पकार्यं पूगफलतालफलादिकं। गुच्छा– गुच्छो बहूनां समूह एककालीनोत्पत्ति: जातिमल्लिकादि:। गुम्म–गुल्मं करंजकंथारिकादि:। वल्ली–वल्लरी श्यामा लतादिका। तणाणि–तृणानि। तह–तथा। पव्व–पर्व ग्रंथिकयोर्मध्यं वेत्रादि। काया–काय: स प्रत्येकमभिसम्बध्यते कन्दकायो मूलकाय इत्यादि, एते सम्मूर्छिमा: प्रत्येकानन्तकायाश्च मूलमादायपत्रमादायोत्पद्यन्त इत्यर्थ:।
अथवा मूलकायावयव: कन्दकायावयव: इत्यादि, पूर्वाणां बीजमुपादानं कारणं एतेषां पुन: पृथिवीसलिलादिकं उपादानकारणं। तथा च दृश्यते शृङ्गाच्छर: गोमयाच्छालूकं बीजमन्तरेणोत्पत्ति: पुष्पमन्तरेण च यस्योत्पत्ति: फलानां स फल इत्युच्यते, यस्य पुष्पाण्येव भवन्ति स पुष्प इत्युच्यते, यस्य पत्राण्येव न पुष्पाणि न फलानि स पत्र इत्युच्यते इत्यादि सम्बन्ध: कर्तव्य इति।।२१४।।
सेवाल पणग केण्णग कवगो कुहणोय बादरा काया।
सव्वेवि सुहमकाया सव्वत्थ जलत्थलागासे।।२१५।।
सेवाल–शैवलं उदकगतकायिका हरितवर्णी। पणम–पणकं भूमिगतं शैवलं इष्टकादिप्रभवा कायिका। केण्णग– आलम्बकछत्राणि शुक्लहरितनीलरूपाणि अपस्कारोद्भवानि। कवगो–शृंगालम्बकच्छत्राणि जटाकाराणि। कुहणो य–आहारकांजिकादिगतपुष्पिका। बादरा काया–स्थूलकाया: अन्तर्दीपकत्वात् सर्वैरतीतपृथिव्यादिभि: सह सम्बध्यते का मध्यभाग स्कन्ध है; जैसे पालिभद्र िआदि।
अंकुर के अनन्तर की अवस्था पत्ता है। पत्तों की पूर्व अवस्था प्रवाल है जिसे कोंपल कहते हैं। जो फल में कारण है वह पुष्प है। पुष्पों के कार्य को फल कहते हैं; जैसे सुपारी फल आदि। अनेक के समूह का नाम गुच्छा है; जैसे एक काल में उत्पन्न होनेवाले जाति पुष्पों के, मालती पुष्पों के गुच्छे। करंज और कंथारिका आदि गुल्म कहलाते हैं।
लता, बेल आदि बल्ली संज्ञक हैं। हरित घास आदि तृण नाम वाले हैं। दो गाँठों के मध्य को, जिससे वेत्रादि उत्पन्न होते हैं, पर्व कहते हैं। गाथा के अन्त में जो काय शब्द है वह प्रत्येक के साथ लगेगा। जैसे कन्दकाय, मूलकाय, स्कन्धकाय, पत्रकाय, पल्लवकाय, पुष्पकाय, फलकाय, गुच्छकाय, गुल्मकाय, वल्लीकाय, तृणकाय और पर्वकाय। ये संमूर्च्छन वनस्पतियाँ प्रत्येक और अनन्तकाय होती हैं। ये मूल या पत्रों का आश्रय लेकर और भी इसी भाँति उत्पन्न होती हैं। अथवा इनको मूलकाय अवयव, कन्दकायावयव इत्यादि नामों से भी कहते हैं।
पूर्वगाथा (२१३) में जिनका वर्णन किया है उनका उत्पादन कारण बीज है। और इस (२१४) गाथा में जिनका वर्णन है उनका उत्पादन कारण पृथिवी, जल, वायु आदि हैं। देखा जाता है कि श्रृंग—सींग से शर—दर्भ उत्पन्न होता है, गोबर से शालूक उत्पन्न होता है अर्थात् ये बीज के बिना ही उत्पन्न हो जाते हैं। पुष्प के बिना भी जिसमें फल उत्पन्न हो जाते हैं वे फलवनस्पति कहलाती हैं। जिसमें मात्र पत्ते ही रहते हैं न फूल आते हैं और न फल लगते हैं वे पत्रवनस्पति हैं इत्यादिरूप से सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
गाथार्थ-काई, पणक, कचरे में होनेवाली वनस्पति, छत्राकार आदि फफूँदी-ये बादरकाय वनस्पति हैं। सभी सूक्ष्मकाय वनस्पति सर्वत्र जल, स्थल और आकाश में व्याप्त हैं।।२१५।। ि
आचारवृत्ति-जल में होनेवाली हरी-हरी काई शैवाल है। जमीन पर तथा ईंट आदि पर लग जाने वाली काई पणक है। वर्षाकाल में कूड़े-कचरे पर जो छत्राकार वनस्पति हो जाती है वह किण्व कहलाती है। सींग में उत्पन्न होनेवाली जटाकार वनस्पति कवक है। भोजन और कांजी आदि पर लग जाने वाली फूली(फफूँदी)
सर्वेपि पृथिवीकायिकादयो वनस्पतिपर्यन्ता व्याख्यातप्रकारा: स्थूलकाया इति। सूक्ष्मकायप्रतिपादनार्थमाह। सव्वेपि– सर्वेपि पृथिव्यादिभेदा वनस्पतिभेदाश्च सुहुमकाया–सूक्ष्मकायाश्चांगुलासंख्यातभागशरीरा:। सव्वत्थ–सर्वत्र सर्वस्मिन्लोके। जलत्थलागासे–जले स्थले आकाशे च। एते–पृथिव्यादयो वनस्पतिपर्यन्ता बादरकाया: सूक्ष्मकायाश्च भवन्ति, किंतु पृथिव्यष्टकविमानादिकमाश्रित्य स्थूलकाया:, सूक्ष्मकाया: पुन: सर्वत्र जलस्थलाकाशे।।२१५।।
सर्वत्र साधारणानां स्वरूपप्रतिपादनायाह–
गूढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं।
साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं।।२१६।।
गूढसिरसंधिपव्वं–गूढा अदृश्यमाना: शिरा:, सन्धयोऽङ्गबन्धा पर्वाणि ग्रन्थयो यस्य तदगूढशिरा–सन्धिपर्व। समभंगं–सम: सदृशो भंग: छेदो यस्य तत्समभंगं त्वग्रहितं१। अहीरुहं–न विद्यते हीरुकं बालरूपं यस्य तदहीरुहं पुन: सूत्राकारादिवर्जितं मंजिष्ठादिकं। छिन्नरुहं–छेदेन रोहतीति च्छेदरुहं छिन्नो भिन्नश्च यो रोहमागच्छति। साहारणं सरीरं–तत्साधारणं सामान्यं शरीरं साधारणशरीरं। तव्विवरीयं (च)–तद्विपरीतं च साधारणलक्षणविपरीतं। पत्तेयं– प्रत्येकं प्रत्येकशरीरं।।२१६।।
से लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त जितने भी प्रकार बतलाए गये हैं वे सभी स्थूलकाय के ही प्रकार हैं।
अब सूक्ष्मकाय का वर्णन करते हुए कहते हैं-सभी पृथिवी आदि से लेकर वनस्पति पर्यंन्त पांचों स्थावरकायों में सूक्ष्मकाय भी होते हैं। ये अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर की अवगाहना वाले हैं और सर्वत्र लोकाकाश में-जल में, स्थल में, आकाश में भरे हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि पृथिवी से लेकर वनस्पति पर्यन्त अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँचों प्रकार के स्थावर जीव बादरकाय और सूक्ष्मकाय के भेद से दो प्रकार के होते हैं। उनमें से जो आठ प्रकार की पृथिवी और विमान आदि का आश्रय लेकर होते हैं वे बादरकाय हैं और सर्वत्र जल, स्थल, आकाश में विना आधार से रहनेवाले जीव सूक्ष्मकाय कहलाते हैं।
सर्वत्र साधारण वनस्पति का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-जिनकी स्नायु, रेखाबंध और गाँठ अप्रगट हो, जिनका समान भंग होवे और दोनों भंगों में परस्पर हीरुक—अन्तर्गत सूत्र-तंतु नहीं लगा रहे तथा छिन्न करने पर भी जो उग जावे उसे साधारणशरीर वनस्पति कहते हैं और इससे विपरीत को प्रत्येकवनस्पति कहते हैं।।२१६।।
आचारवृत्ति-जिसकी शिरा अर्थात् बहि:स्नायु, संधि—रेखाबन्ध और पर्व—गांठें दिखती नहीं हैं वे गूढ शिरासंधि—पर्व वनस्पति हैं। जिनको तोड़ने पर समान भंग हो जाता है, छाल आदि नहीं रहती हैं वे समभंग हैं। जिनके तोड़ने पर हीरुक—बालरूप तंतु नहीं लगा रहता है, अन्तर्गत सूत्र नहीं लगा रहता है, वे अहीरुक हैं; जैसे कि मंजीठ आदि वनस्पतियाँ। जो छिन्न-भिन्न कर देने पर भी उग जाती हैं, छिन्नरुह हैं। इन लक्षण वाली वनस्पति को साधारणशरीर कहा है और इनसे विपरीत लक्षणवाली को प्रत्येकशरीर वनस्पति कहा है।
विशेषार्थ-यहाँ पर जो साधारण वनस्पति का लक्षण किया है इसके विषय में विशेष बात यह है कि ‘गोम्मटसार’ में इसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक का ही लक्षण माना है और आगे साधारण का लक्षण अलग किया है। अर्थात् पहले वनस्पति के प्रत्येक और साधारण दो भेद किये हैं। पुन: प्रत्येक के सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित ऐसे दो भेद कर दिये हैं। इसमें अप्रतिष्ठित प्रत्येक तो वह है जिसके आश्रित निगोदिया जीव नहीं हैं और सप्रतिष्ठित वह है जिसके आश्रित अनन्त निगोदिया जीव हैं। इसे ही अनन्तकाय कहा है और सप्रतिष्ठित और किंभूतमिति पृष्टेऽत उत्तरमाह–
होदि वणप्फदि वल्ली रुक्खतणादी तहेव एइंदी।
ते जाण हरितजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।।२१७।।
होदि–भवति। वणप्फदि–वनस्पति: फलवान् वनस्पतिर्ज्ञेय:। वल्ली–वल्लरी लता। रुक्ख–वृक्ष:
अप्रतिष्ठित के पहचान हेतु यही ‘गूढसिर संधिपव्वं…’ गाथा दी है इसी ‘मूलाचार’ की गाथा २१३ में भी जो ‘अनन्तकाया’ शब्द है वहाँ पर टीकाकार ने साधारण वनस्पति अर्थ किया है। किन्तु यही गाथा ‘गोम्मटसार’ में भी (गाथा क्रम १८६) है। उसमें ‘अनन्तकाय’ पद से सप्रतिष्ठित प्रत्येक अभिप्राय ग्रहण किया गया है। आगे साधारणशरीर वनस्पति का लक्षण करते हुए कहा है कि-
साहारणोदयेण णिगोदसरीरा हवंति सामण्णा।
ते पुण दुविहा जीवा वादरसुहुमा त्ति विण्णेया।।।१९।।
अर्थात् जिन जीवों का शरीर साधारण नामकर्म के उदय से निगोदरूप होता है उन्हीं को सामान्य या साधारण कहते हैं। इनके दो भेद हैं-एक बादर और दूसरा सूक्ष्म।
ियह वनस्पति और कैसी है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-वेल, वृक्ष, घास आदि वनस्पति हैं तथा पृथ्वी आदि की तरह ये एकेन्द्रिय जीव हैं इन्हें तुम हरितकाय जीव समझो और ऐसा समझकर इनका परिहार करो।।२१७।।
आचारवृत्ति-जो फलवाली है वह वनस्पति है। लताओं को बेल कहते हैं। पुष्प और फल जिसमें आते हैं उसे वृक्ष कहते हैं। घास आदि को तृण कहते हैं। ये सव पृथ्वीकायिक जीव आदि के समान
ही एकेन्द्रिय हैं। अथवा यह साधारण वनस्पति जीवों का विशेषण है। पूर्व में प्रत्येककाय जीवों का वर्णन
िनिम्नलिखित गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक हैं
वीजे जोणीभूदे जीवो उव्वकमदि सो व अण्णो वा।
जा विय लसुणादीया पत्तेया पढमदाए ते।।२२।।
अर्थात् जिस योनिभूत बीज में वही जीव या कोई अन्य जीव आकर उत्पन्न हो वह और लहसुन आदि वनस्पति प्रथम अवस्था में अप्रतिष्ठित प्रत्येक रहते हैं। अर्थात् मूल, कन्द आदि सभी वनस्पतियाँ जो कि सप्रतिष्ठित प्रत्येक मानी गई हैं वे भी अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहती हैं।
अर्थात् साधारण जीवों में जहाँ पर एक जीव मरण करता है वहाँ पर अनंत जीवों का मरण होता है और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है, वहाँ पर अनंत जीवों का उत्पाद होता है।
भावार्थ-साधारण जीवों में मरण और उत्पत्ति की अपेक्षा भी सादृश्य है। प्रथम समय में उत्पन्न होने वाले साधारण की तरह द्वितीयादि समयों में भी उत्पन्न होने वाले साधारण जीवों का जन्म-मरण साथ ही होता है। यहाँ इतना विशेष समझना कि एक बादर निगोद शरीर में साथ उत्पन्न होने वाले अनन्तानन्त साधारण जीव या तो पर्याप्तक ही होते हैं या अपर्याप्तक होते हैं किन्तु मिश्ररूप नहीं होते हैं।
साहारण माहारो साहारण माणपाणगहणं च।
साहारण जीवाणं साहारण लक्खणं भणियं।।२४।।
अर्थात् इन साधारण जीवों का साधारण (समान) ही तो आहार आदि होता है और साधारण-एक साथ श्वासोच्छ्वास ग्रहण होता है। इस तरह से साधारण जीवों का लक्षण परमागम में साधारण ही बताया है।
फली वणप्फदी णेया रुक्खफुल्लफलं गदो।
ओसही फलपक्कंता गुम्मा वल्ली च वीरुदा।।२५।।
अर्थात् जिसमें फली ही लगती है उसे वनस्पति कहते हैं। जिसमें पुष्प और फल आते हैं उसे वृक्ष कहते हैं फलों के पक जाने पर जो नष्ट हो जाते हैं ऐसी वनस्पति को औषधि कहते हैं। गुल्म और बल्ली को वीरुध कहते हैं। जिसकी शाखाएँ छोटी हैं और जिसके मूल जटाकार होते हैं ऐसे छोटे झाड़ गुल्म हैं। जो पेड़ पर चढ़ती हैं और वलयाकार रहती हैं वे वल्ली हैं।
पुष्पफलोपगत:। तणादी–तृणादीनि। तहेव–तथैव। एइंदी–एकेन्द्रिया:। अथवा साधारणानामेतद्विशेषणं पूर्वं प्रत्येककायानां एते मूलादिबीजा: कन्दादिकाया: साधारणशरीरा: प्रत्येककायाश्च सूक्ष्मा: स्थूलाश्च ये व्याख्यातास्तान् हरितकायान् जानीहि तथा१ एतेऽन्ये च पृथिव्यादाश्चैकेन्द्रिया ज्ञातव्या: परिहर्तव्याश्चान्तदीपकत्वात्। कथमेते जीवा इति चेन्नैषदोष:, आगमादनुमानात्प्रत्यक्षाद्वा, आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञास्तित्वादा।
सचेतना एते २संज्ञादिभीरागमे निरूप्यमाणत्वात्, सर्वत्वगपहरणे मरणात् उदकादिभि: साड्वलभावात्, स्पृष्टस्य ३लज्जरिकादे: संकोचकारणत्वात्४ वनितागण्डूषसेकाद्धर्षदर्शनात्५ वनितापादताडनात्पुष्पांकुरादि प्रादुर्भावात्, निधानादिदिशि पादादिप्रसारणादिति।।२१७।।
त्रसस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
दुविधा तसा य उत्ता विगला सगलेंदिया मुणेयव्वा।
बितिचउिंरदिय विगला सेसा सगिंलदिया जीवा।।२१८।।
दुविहा–द्विविधा द्विप्रकारा:। तसा–त्रसा उद्वेजनबहुला:। वुत्ता–उक्ता: प्रतिपादिता:। विकला–विकलेन्द्रिया:।
किया है। जो ये मूलादि बीज-वनस्पति, कंदादिकाय-वनस्पति, साधारणशरीर वनस्पति और प्रत्येककाय वनस्पति बतलायी हैं जिनका कि सूक्ष्म और स्थूलरूप से वर्णन किया है इनको हरितकाय जीव जानो तथा इनको और इनसे भिन्न पृथिवी, जल, अग्नि, वायुकायिक एकेन्द्रिय जीवों को भी जानो और जानकर इनकी दया पालो। यह ‘परिहर्तव्या:’ पद अन्तदीपक है इसलिए इसका सम्बंध सभी के साथ हो जाता है।
शंका-ये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जीव कैसे हैं ? अर्थात् इनमें जीव किस तरह माना जाए ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना ; क्योंकि आगम से, अनुमान प्रमाण से अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण से या आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह इन चारों संज्ञाओं के इनमें पाये जाने से, इन पृथ्वी आदि में जीव का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। ये आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन संज्ञाओं के द्वारा सचेतन हैं, ऐसा आगम में निरूपण किया गया है। देखा जाता है कि सम्पूर्णरूप से छाल को दूर कर दो तो वृक्ष आदि वनस्पति का मरण हो जाता है और जल, वायु आदि के मिलने से हरे-भरे हो जाते हें इसलिए आहार संज्ञा स्पष्ट है।
स्पर्श कर लेने पर लाजवंती आदि वनस्पतियाँ संकुचित हो जाती हैं अत: भय संज्ञा भी स्पष्ट है। स्त्रियों के कुल्ले के जल से सिंचित होने से कुछ लता आदि हर्षित अर्थात् पुष्पित हो जाती हैं तथा स्त्रियों के पैरों के ताडन से कुछेक में पुष्प, अंकुर आदि प्रादुर्भूत हो जाते हैं, इसलिए मैथुन संज्ञा मानी जाती है। निधान-खजाने आदि की दिशा में पाद-जड़ आदि फैल जाती हैं इसलिए परिग्रह संज्ञा भी स्पष्ट ही है। अर्थात् इन चारों संज्ञाओं को वनस्पतिकायिक में घटित कर देने से पृथ्वी आदि सभी स्थावरों में जीव है, ऐसा निर्णय हो जाता है।
अब त्रसजीवों का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय के भेद से त्रस दो प्रकार के कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिए।
दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय और चार-इन्द्रिय ये विकलेन्द्रिय जीव हैं। पंचेन्द्रिय जीव सकलेन्द्रिय हैं।।२१८।।
आचारवृत्ति-जो प्राय: उद्विग्न होते रहते हैं वे त्रस कहलाते हैं। उनके विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार हैं। दो-इन्दिय, तीन-इन्दिय और चार-इन्दिय जीव विकलेन्द्रिय कहलाते हैं और सकल
सकला:–सकलेन्द्रिया:। इन्द्रियशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। मुणेदव्वा–ज्ञातव्या:। वितिचउिंरदिय–द्वे त्रीणि चत्वारीन्द्रियाणि येषां ते द्वित्रिचतुरिन्द्रिया द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाश्चेति। विगला–विकला विकलेन्द्रिया एते। सेसा– शेषा: सकलेन्द्रिया: सकलानि पूर्णानीन्द्रियाणि येषां ते सकलेन्द्रिया: पंचेन्द्रिया इत्यर्थ:। जीवा–जीवा ज्ञानाद्युपयोगवन्त:। द्विप्रकारा विकलेन्द्रियसकलेन्द्रियभेदेन।।२१८।।
के विकलेन्द्रिया: के सकलेन्द्रिया इत्यत आह–
संखो गोभी भमरादिया दु विगिंलदिया मुणेदव्वा।
सकिंलदिया य जलथलखचरा सुरणारयणरा य।।२१९।।
संखो–शंख। गोभी–गोपालिका। भमर–भ्रमर:। आदिशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते, शंखादयो भ्रमरादय:। आदिशब्देन शुक्ति-कृमि-वृश्चिक-मत्कुण-मक्षिका पतंगादय: परिगृह्यन्ते। एते विगलेंदिया–विकलेन्द्रिया:। मुणेदव्वा– ज्ञातव्या:। शेषा: पुन: सकिंलदिया–सकलेन्द्रिया:। के ते जलथलखचरा–जले चरन्तीति जलचरा: मत्स्यमकरादय:, स्थले चरन्तीति स्थलचरा: िंसहव्याघ्रादय:, खेचरन्तीति खचरा हंससारसादय:। सुरणारयणरा य–सुरा देवा भवनवासिवानव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिन:, नारका: सप्तपृथिवीनिवासिनो दु:खबहुला:, नरा मनुष्या इति।।२१९।।
पुनरपि भेदप्रकरणायाह–
कुलजोणिमग्गणा विय णादव्वा सव्वजीवाणं।
णाऊण सव्वजीवे णिस्संका होदि कादव्वा।।२२०।।
कुल–कुलं जातिभेद:। जोणि–योनिरुत्पत्तिकारणं। कुलयोन्यो: को विशेष इति चेन्न, वटपिप्प-
अर्थात् पूर्ण हैं इन्द्रियाँ जिनकी ऐसे पंचेन्द्रिय जीव सकलेन्द्रिय कहलाते हैं। ये ज्ञान और दर्शनरूप उपयोग लक्षण वाले होने से जीव हैं ऐसा समझना।
विकलेन्द्रिय कौन हैं और सकलेन्द्रिय कौन है ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-शंख, गोपालिका और भ्रमर आदि जीवों को विकलेन्द्रिय जानना चाहिए। जलचर, थलचर और नभचर तथा देव, नारकी और मनुष्य ये सकलेन्द्रिय हैं।।२१९।।
आचारवृत्ति-‘भ्रमर’ के साथ में प्रयुक्त ‘आदि’ शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए। यथा—शंख, सीप, कृमि आदि दो-इन्द्रिय जीव हैं। गोपालिका-विच्छू, खटमल आदि तीन-इन्द्रिय जीव हैं। भ्रमर, मक्खी, पतंग आदि चार-इन्द्रिय जीव हैं। इनमें विकल-न्यून इन्द्रियाँ हैं, पूर्ण नहीं हुई हैं इसलिए ये विकलेंद्रिय कहे जाते हैं। इन विकलेंद्रिय तथा पूर्वकथित इन्द्रिय से बचे हुए पंचेन्द्रिय जीव सकलेंद्रिय हैं। उनमें से तिर्यंच के तीन भेद हैं-जलचर, थलचर और नभचर। जो जल में रहते हैं वे जलचर हैं; जैसे मत्स्य, मकर आदि।
जो थल पर विचरण करते हैं वे थलचर हैं; जैसे सिंह, व्याघ्र आदि। जो आकाश में उड़ते हैं वे नभचर हैं; जैसे हंस, सारस आदि। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी ये चारों प्रकार के देव सुर कहलाते हैं। सात पृथिवी में निवास करने वाले और दु:ख की अत्यन्त बहुलता वाले नारकी हैं और मनुष्य गति को प्राप्त जीव नरसंज्ञक हैं। ये तीन प्रकार के तिर्यंच, देव, नारकी और मनुष्य पंचेन्द्रिय जीव हैं।
पुनरपि इनके भेदों को बतलाते हैं-
गाथार्थ-सभी जीवों के कुल, उनकी योनि और मार्गणाओं को भी जानना चाहिए और सभी जीवों को जानकर शंका रहित हो जाना चाहिए।।२२०।।
आचारवृत्ति-जाति के भेद को कुल कहते हैं और उत्पत्ति के कारण को योनि कहते हैं। कुल और योनि में क्या अन्तर है ?
लकृमिशुक्तिमत्कुणपिपीलिकाभ्रमरमक्षिकागोश्वक्षत्रियादि कुलं। कन्दमूलाण्डगर्भरसस्वेदादिर्योनि:। मग्गणावि य–मार्गणाश्च गत्यादय:। णादव्वा–ज्ञातव्या:। सव्वजीवाणं–सर्वजीवानां पृथिव्यादीनां। णाऊण–ज्ञात्वा। सव्वजीवे– सर्वजीवान्। निस्संका–नि:शंका संदेहाभाव:। होदि–भवति। कादव्वा–कर्तव्या। कुलयोनिमार्गणाभेदेन सर्वजीवान् ज्ञात्वा नि:शंका भवति कर्तव्येति।।२२०।।
कुलभेदेन जीवान् प्रतिपादयन्नाह–
बावीस सत्ततिण्णि य सत्त य कुलकोडिसदसहस्साइं।
णेया पुढविदगागणिवाऊकायाण पडिसंखा।।२२१।।
बावीस–द्वािंवशति:। सत्त–सप्त। तिण्णि य–त्रीणि च। सत्तय–सप्त च। कुलकोडिसदसहस्साइं–कुलानां कोट्य: कुल कोट्य: कुलकोटीनां शतसहस्राणि तानि कुलकोटीशतससहस्राणि। द्वािंवशति: सप्त त्रीणि च सप्त च। णेया–ज्ञातव्या:। पुढवि–पृथिवीकायिकानां। दग–अप्कायिकानां। अगणि–अग्निकायिकानां। वाऊ–वायुकायिकानां।
पडिसंखा–परिसंख्या। पृथिवीकायानां कुलकोटिलक्षाणि द्वािंवशति:। अप्कायानां कुलकोटीलक्षाणि सप्त। अग्निकायिकानां कुलकोटि लक्षाणि त्रीणि। वायुकायिकानां कुलकोटी लक्षाणि सप्त यथाक्रमेण परिसंख्या ज्ञातव्येति।।२२१।।
कोडिसदसहस्साइं सत्तट्ठ व णव य अट्ठवीसं च।
वेइंदियतेइंदियचउिंरदियहरिदकायाणं ।।२२२।।
अद्धत्तेरस बारस दसयं कुलकोडिसदसहस्साइं।
जलचरपक्खिचउप्पयउरपरिसप्पेसु णव होंति।।२२३।।
छव्वीसं पणवीसं चउदस कुलकोडिसदसहस्साइं।
सुरणेरइयणराणं जहाकमं होइ णायव्वं।।२२४।।
बड़-पीपल, कृमि—सीप,खटमल-चींटीं, भ्रमर-मक्खी, गौ, अश्व, क्षत्रिय आदि ये कुल हैं। कन्द, मूल, अंड, गर्भ, रस, पसीना आदि योनि कहलाते हैं। गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाएँ हैं।
इन कुल योनि और मार्गणाओं के भेद से पृथिवीकायिक से लेकर पंचेन्द्रिय त्रस पर्यंत सभी जीवों को जानकर उनके विषय में संदेह नहीं करना चाहिए।
अब कुल के भेदों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों की संख्या क्रम से बाईस, सात, तीन और सात लाख करोड़ हैं। इन्हें कुल नाम से जानना चाहिए।।२२१।।
आचारवृत्ति-पृथिवीकायिक जीवों के कुलों की संख्या बाईस लाख करोड़ हैं। जलकायिक जीवों के कुलों की सात लाख करोड़ हैं। अग्निकायिक जीवों के कुलों की तीन लाख करोड़ है और वायुकायिक जीवों के कुलों की संख्या सात लाख करोड़ है ऐसा जानना चाहिए।
गाथार्थ-दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार-इन्द्रिय और हरितकायिक जीवों के कुल क्रमश: सात, आठ, नव और अट्ठाईस लाख करोड़ हैं।।२२२।।
जलचर, पक्षी, पशु और छाती के सहारे चलने वाले के कुल क्रम से साढ़े बारह, बारह, दश और नव लाख करोड़ होते हैं।।२२३।।
देव, नारकी और मनुष्यों के कुल क्रम से छब्बीस, पचीस और चौदह लाख करोड़ हैं।।२२४।।
आचारवृत्ति-‘यथाक्रम’ शब्द २२४वीं गाथा के अन्त में है वह अन्तदीपक है अत: तीनों गाथा केकोटीशत सहस्राणि सप्ताष्टौ नवाष्टािंवशतिश्च यथासंख्यं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियहरितकायानां। द्वीन्द्रियाणां कुलकोटी लक्षाणि सप्त। त्रींद्रियाणां कुलकोटी लक्षाण्यष्टौ। चतुरिंद्रियाणां कुलकोटी लक्षाणि नव। हरितकायानां कुलकोटी लक्षाण्यष्टािंवशतिरिति।।२२२।।
अर्धत्रयोदश, द्वादश, दश च कुलकोटीशतसहस्राणि जलचरपक्षिचतुष्पदां। उरसा परिसर्पन्तीति उर:परिसर्पा: गोधासर्पादयस्तेषामुर: परिसर्पाणां णव होंति–नव भवंति। जलचराणां मत्स्यादीनां कुलकोटी-लक्षाण्यर्धत्रयोदश। पक्षिणां हंसभेरुण्डादीनां कुलकोटीलक्षाणि द्वादश। चतुष्पदां िंसहव्याघ्रादीनां कुलकोटी लक्षाणि दश। उर:परिसर्पाणां कुलकोटी लक्षाणि दश। उर: परिसर्पाणां कुलकोटी लक्षाणि नव भवन्तीति सम्बन्ध:।।२२३।।
षड्िंवशति: पंचिंवशति: चतुर्दश कुलकोटीशतसहस्राणि सुरनारकनराणां च यथाक्रमं भवन्ति ज्ञातव्यं। देवानां कुलकोटी लक्षाणि षड्िंवशति:। नारकाणां कुलकोटी लक्षाणि पंचिंवशति:। मनुष्याणां कुलकोटी लक्षाणि चतुर्दश सर्वत्र यथाक्रमं भवन्ति ज्ञातव्यं यथोद्देशस्तथा निर्देश: क्रमानतिलङ्घनं वेदितव्यम्।।२२४।।
सर्वकुलसमासार्थं गाथोत्तरेति–
एया य कोडिकोडी णवणवदीकोडिसदसहस्साइं।
पण्णासं च सहस्सा संवग्गीणं कुलाण कोडीओ।।२२५।।
एका कोटीकोटी, नवनवति: कोटी शतसहस्राणि पंचाशत्सहस्राणि च। संवग्गेण–सर्वसमासेन कुलानां कोट्य:। सर्वसमासेन कुलानां एका कोटीकोटी नवनवतिश्च कोटीलक्षाणि पंचाशत्सहस्राणि च कोटीनामिति।।२२५।।
योनिभेदेन जीवान्प्रतिपादयन्नाह–
साथ उसका सम्बन्ध करके अर्थ करना चाहिए। अर्थात् द्वीन्द्रिय के कुल सात लाख करोड़, त्रीन्द्रिय के आठ लाख करोड़, चतुरिन्द्रिय के नव लाख करोड़ और वनस्पतिकायिक के अट्ठठाईस लाख करोड़ हैं। मत्स्य, मगर आदि जलचर हैं। हंस भेरुंड आदि पक्षी कहलाते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि चार पैर वाले जीव पशुसंज्ञक हैं और छाती के सहारे चलने वाले गोह, दुमुही, साँप आदि उर:परिसर्प नामक होते हैं। जलचर जीवों के साढ़े बारह लाख करोड़, पक्षियों के बारह लाख करोड़, पशुओं के दश लाख करोड़ और छाती के सहारे चलने वाले दुमुही आदि सर्पों के नव लाख करोड़ कुल होते हैं।
देवों के कुल छब्बीस लाख करोड़ , नारकियों के पच्चीस लाख करोड़ और मनुष्यों के कुल चौदह लाख करोड़ माने गये हैं।
अब सभी कुलों का जोड़ बताते हैं-
गाथार्थ-एक कोटाकोटि, निन्यानवे लाख करोड़ और पचास हजार करोड़ संख्या कुलों की है।।२२५।।
आचारवृत्ति-इस प्रकार पृथिवीकायिक से लेकर मनुष्यपर्यन्त समस्त कुलों की संख्या को जोड़ने से एक कोड़ाकोड़ी तथा निन्यानवे लाख और पचास हजार करोड़ है।
भावार्थ-सम्पूर्ण संसारी जीवों के कुलों की संख्या एक करोड़ निन्यानवें लाख पचास हजार को एक करोड़ से गुणा करने पर जितना प्रमाण लब्ध हो उतना अर्थात् १९९५००००००००००० है। गोम्मटसार में मनुष्यों के १२ लाख कोटि कुल गिनाये हैं। उस हिसाब से सम्पूर्ण कुलों का जोड़ एक करोड़ सत्तानवे लाख पचास हजार करोड़ होता है।१
अब योनि के भेदों से जीवों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-नित्य-निगोद, इतर-निगोद और पृथिवी, जल, अग्नि तथा वायु इन चार धातु में सात-सात
णिच्चिदरधादु सत्त य तरु दस विगिंलदिएसु छच्चेव।
सुरणरयतिरिय चउरो चउदश मणुएसु सदसहस्सा।।२२६।।
णिच्च–नित्यनिकोतं यैस्त्रसत्वं न प्राप्तं कदाचिदपि ते जीवा नित्यनिकोतशब्देनोच्यंते। इदर–इतरन्निकोतं चतुर्गतिनिकोतं यैस्त्रसत्वं प्राप्तं। यद्यप्यत्र निकोतशब्दो नास्ति तथापि द्रष्टव्यो देशामर्शकत्वात्सूत्राणां। धादु–धातव: पृथिव्यप्तेजोवायुकायाश्चत्वारो धातव इत्युच्यन्ते। सत्त य–सप्त च। तरु–तरूणां वृक्षाणां। दस–दश। विगिंलदिएसु– विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां। छच्चेव–षट्चैव। सुरणरयतिरिय–सुरनारकतिरश्चां। चउरो–चत्वार:।
चोद्दश–चतुर्दश। मणुएसु–मनुष्याणां। सदसहस्सा–शतसहस्राणि। नित्यनिकोतानां सप्त लक्षाणि योनीनामिति। चतुर्गतिनिकोतानां सप्तलक्षाणि, पृथिवीकायिकानां सप्तलक्षाणि, अप्कायिकानां सप्तलक्षाणि, तेज:कायिकानां सप्तलक्षाणि, वायुकायानां सप्तलक्षाणि योनीनामिति सम्बन्ध:। तरूणां दश लक्षाणि, द्वीन्द्रियाणां द्वे लक्षे, त्रींद्रियाणां द्वे लक्षे, चतुिंरद्रियाणां द्वे लक्षे, सुराणां चत्वारि लक्षाणि, नारकाणां चत्वारि लक्षाणि, तिरश्चां पञ्चेन्द्रियाणां संज्ञिकानामसंज्ञिकानां च चत्वारि लक्षाणि। मनुष्याणां चतुर्दश लक्षाणि योनीनामिति। सर्वसमासेन चतुरशीतियोनिलक्षाणि भवन्तीति।।२२६।।
मार्गणाद्वारेण च जीवभेदान् प्रतिपादयन्नाह–
तसथावरा य दुविहा जोगगइकसायइंदियविधीिंह।
बहुविह भव्वाभव्वा एस गदी जीवणिद्देसे।।२२७।।
कायमार्गणाद्वारेण तसथावराय–त्रसनशीलास्त्रसा द्वीन्द्रियादय: स्थानशीला: स्थावरा पृथिव्यादि वनस्पत्यन्ता:।
दुविहा– द्विप्रकारास्त्रसस्थावरभेदेन द्विप्रकारा जीवा:। जोग–योग आत्मप्रदेशपरिस्पन्दरूपो मनोवाक्कायलक्षणस्त्रिप्रकार-
लाख; वनस्पति के दश लाख और विकलेन्द्रियों के छह लाख; देव, नारकी और तिर्यंचों के चार-चार लाख और मनुष्य के चौदह लाख योनियाँ हैं।।२२६।।
आचारवृत्ति-जिन्होंने कदाचित् भी त्रसपर्याय नहीं प्राप्त की है वे नित्य निगोद शब्द से कहे जाते हैं। इनसे भिन्न जिन्होंने त्रसपर्याय को प्राप्त कर लिया, वे पुन: यदि निगोद जीव हुए हैं तो वे इतर-चतुर्गति निगोद कहलाते हैं। यद्यपि यहाँ गाथा में नित्य और इतर के साथ निगोद शब्द नहीं है तो भी उसे जोड़ लेना चाहिए, क्योंकि सूत्र देशामर्शक होते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चारों को धातु शब्द से कहा गया है।
नित्यनिगोद, इतरनिगोद और चार धातु, इनकी योनियाँ सात-सात लाख हैं। दो-इन्द्रिय की दो लाख, तीन- इन्द्रिय की दो लाख और चार- इन्द्रिय की दो लाख ऐसे विकलेन्द्रिय जीवों की योनियाँ छह लाख हैं। देव, नारकी और संज्ञी-असंज्ञी भेद सहित पंचेंद्रिय तिर्यंचों की चार-चार लाख योनियाँ हैं अर्थात् नित्यनिगोद की ७००००० ± चतुर्गतिनिगोद की ७००००० ± पृथिवीकायिक की ७००००० ± जलकायिक की ७००००० ± अग्निकायिक की ७००००० ± वायुकायिक की ७००००० ± वनस्पतिकायिक की १०००००० ± द्विन्द्रिय की २००००० ± त्रीन्द्रिय की २००००० ± चतुरिन्द्रिय की २००००० ± देवों की ४००००० ± नारकी की ४००००० ± तिर्यंचों की ४००००० ± मनुष्यों की १४००००० · ८४००००० योनियाँ होती हैं।
अब मार्गणाओं द्वारा जीवों के भेदों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-त्रस और स्थावर के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। योग, गति, कषाय और इन्द्रियों के प्रकारों से ये भव्य-अभव्य जीव अनेक प्रकार के हैं। जीव का वर्णन करने में यही गति है।।२२७।।
आचारवृत्ति-कायमार्गणा के द्वारा त्रस और स्थावर ऐसे दो भेद होते हैं। त्रसन स्वभाव-त्रस्त होने रूप स्वभाव वाले जीव त्रस कहलाते हैं, यहाँ त्रस् धातु त्रसित होने अर्थ में है। ये द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय हैं। जो स्थानशील अर्थात् स्थिर रहने के स्वभाव वाले हैं वे स्थावर हैं।
यहाँ ‘स्था’ धातु से स्वभाव अर्थ में स्तस्य विधिर्योगविधिस्तेन जीवास्त्रिप्रकारा मनोयोगिनो वाग्योगिन: काययोगिनश्चेति। मनोयोगिनश्चतुष्प्रकारा: सत्यानृत-सत्यानृतासत्यानृतभेदेन। एवं वाग्योगिनोऽपि चतुष्प्रकारा:। काययोगिन: सप्तविधा औदारिकवैक्रियिकाहारकतन्मिश्रकार्मणभेदेन। गदि–गतिर्भवान्तरप्राप्ति:, गतेर्विधिर्गति विधिस्तेन, गतिविधिना चतस्रो गतयस्तद्भेदेन जीवाश्चतुर्विधा भवन्ति नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदेन तेऽपि स्वभेदेनानेकविधा:।
कसाय–कषन्तीति कषाय: क्रोधमानमाया-लोभा:, अनंतानुबन्ध्य-प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनभेदेन चतु:प्रकारास्तद्भेदेन प्राणिनोऽपि भिद्यन्ते। इंदिय–इन्द्र आत्मा तस्य िंलगं इन्द्रेण नामकर्मणा वा निर्वर्तितिंमद्रियं तस्य विधििंरद्रियविधिस्तेनेन्द्रियविधिना जीवा: पंचप्रकारा एकेन्द्रिय-द्वींद्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियभेदेन। बहुबिहा–बहुविधा बहुप्रकारा।
अनेन किमुक्तं भवति स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन, ज्ञान-दर्शन-संयम-लेश्या-सम्यक्त्व-संज्ञाहारभेदेन च बहुविधास्ते सर्वेऽपि। (भव्व) भव्या निर्वाणपुरस्कृता:, (अभव्वा) अभव्यास्तद्विपरीता भवन्ति जीवसमासभेदेन गुणस्थानभेदेन च बहुविधा:। एसगदी–एषा गति:। जीवणिद्देसे–जीवनिर्देशे जीवप्रपंचे। गतींद्रियकाययोगवेदादिविधिभि: कुलयोन्यादिभिश्च बहुविधा जीवा इति, जीवनिर्देशे कर्तव्ये एतावती गति:।।२२७।।
‘वर’ प्रत्यय हुआ है। ये पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति पर्यन्त एकेन्द्रिय जीव होते हैं। अर्थात् ‘त्रस’ और ‘स्था’ धातु से इन त्रस, स्थावर शब्दों की व्युत्पत्ति होने से उपर्युक्त अर्थ किया है। यह अर्थ औपचारिक है क्योंकि त्रस और स्थावर नाम कर्म के उदय से जो त्रस-स्थावर पर्याय मिलती है वही अर्थ यहाँ विवक्षित है।
आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्द होना योग का लक्षण है। उसके मन, वचन और काय की अपेक्षा से तीन प्रकार हो जाते हैं। उस योग की विधि योगविधि है। इसके निमित्त से जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी ऐसे तीन प्रकार के हो जाते हैं। सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग के भेद से मनोयोगी के चार भेद हैं।
ऐसे ही वचनयोगी के भी सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग और अनुभय वचनयोग के निमित्त से चार भेद हो जाते हैं। औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रयोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रयोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्रयोग और कार्मण काययोग इन सात योगों की अपेक्षा से काययोगी के सात भेद होते हैं।
भवान्तर की प्राप्ति का नाम गति है। इसके चार भेद हैं। इन नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति के भेदों से जीवों के भी चार भेद हो जाते हैं। इनमें से भी प्रत्येक गति वाले जीव अनेक प्रकार के होते हैं।
जो आत्मा को कसती हैं-दुख देती हैं वे कषाय कहलाती हैं। उनके क्रोध, मान, माया, लोभ से चार भेद हैं। ये चारों कषायें भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार-चार भेदरूप हो जाती हैं। इन कषायों के भेद से प्राणियों के भी उतने ही भेद हो जाते हैं।
इन्द्र अर्थात् आत्मा, उसके लिंग-चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा इन्द्र अर्थात् नाम कर्म, उसके द्वारा जो बनाई गई हैं वे इन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों के भेद से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इस तरह जीव पाँच प्रकार के होते हैं।
स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से ये तीन प्रकार के होते हैं। इस प्रकार जीवों के अनेक प्रकार हैं। ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार इन मार्गणाओं के भेद से भी जीव नाना प्रकार के होते हैं।
ये सभी जीव भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार के होते हैं। जो निर्वाण से पुरस्कृत होने योग्य हैं वे भव्य हैं और उनसे विपरीत अभव्य हैं।
इसी तरह जीवसमास के भेद से और गुणस्थानों के भेद से भी जीव अनेक प्रकार के होते हैं। जीव का निर्देश करने में ये सभी प्रकार कहे गए हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद आदि विधानों से और कुल, योनि आदि के भेदों से
ननु जीवभेदा एते ये व्याख्यातास्ते िंकलक्षणा: ? इत्यत आह-
णाणं पंचविधं पिअ अण्णाणतिग च सागरूव ओगो।
चदुदंसणमणगारो सव्वे तल्लक्खणा जीवा।।२२८।।
णाणं–जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञानमात्रं वा ज्ञानं वस्तुपरिच्छेदकं। तच्च पंचविहं–पंचप्रकारं मतिश्रुतावधिमन:- पर्ययकेवलभेदेन। षट्िंत्रशत्त्रिंशतभेदं चावग्रहेहावायधारणाभि: षडिन्द्रयाणि प्रगुणितानि तानि चतुा\वशतिप्रकाराणि भवन्ति तत्र चतुर्षु व्यञ्जनावग्रहेषु प्रक्षिप्तेष्वष्टािंवशतिर्भवन्ति सा चाष्टािंवशतिर्बहुबहुविधक्षिप्रानि:सृतानुक्तध्रुवेतरभेदैर्द्वादशभिर्गुणिता: षट्िंत्रशत्त्रिशतभेदा भवन्ति मतिज्ञानमेतत्।
श्रुतज्ञानमंगांगबाह्यभेदेन द्विविधं अंगभेदेन द्वादशविधं पर्यायाक्षर-पद-संघात-प्रतिपत्तिकानुयोग-प्राभृतकप्राभृतक-प्राभृतक-वस्तु-पूर्वभेदेन िंवशतिविधं च। अवधिज्ञानं देशावधि-परमावधि-सर्वावधिभेदतस्त्रिप्रकारं। मन:पर्ययज्ञानं ऋजुमति-विपुलमतिभेदेन द्विप्रकारं। केवलमेकमसहायं। अण्णाणतिगं– अज्ञानमयथात्मवस्तुपरिच्छित्तिस्वरूपं तस्य त्रयमज्ञानत्रयं मत्यज्ञानश्रुताज्ञान-विभंगज्ञानभेदेन संशयविपर्ययानध्य-जीव अनेक प्रकार के होते हैं। जीव के वर्णन करने में यही व्यवस्था होती है।
जिन जीवों के ये भेद बतलाये हैं उन जीवों का लक्षण क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-पाँच प्रकार का ज्ञान और तीन प्रकार का अज्ञान ये आठ साकारोपयोग हैं। चार प्रकार का दर्शन अनाकार उपयोग है। सभी जीव इन ज्ञान-दर्शन लक्षण वाले हैं।।२२८।।
आचारवृत्ति-जो जानता है; जिसके द्वारा जाना जाता है अथवा जो जानना मात्र है वह ज्ञान है। यह ज्ञान पदार्थों को जाननेरूप लक्षणवाला है। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल के भेद से इसके पाँच भेद हैं।
उसमें से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं। पहले मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद होते हैं। इन चारों से पाँच इन्द्रिय और मन-इन छहों का गुणा करने से (६ ² ४) चौबीस भेद हो जाते हैं। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है अतः चार इन्द्रियों से होने की अपेक्षा इस व्यंजनावग्रह के चार भेद इन चौबीस में मिला देने से २८ भेद हो जाते हैं।
पुन: अट्ठाईस को बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त, ध्रुव तथा इनमे उल्टे अर्थात् अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और अध्रुव इन बारह भेदों से गुणा करने पर (२८ ² १२ · ३३६) तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं। अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है; उसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद है। अवग्रह के अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह की अपेक्षा दो भेद हैं। व्यक्तपदार्थ को ग्रहण करनेवाला अर्थावग्रह होता है और अव्यक्त को ग्रहण करने वाला व्यंजनावग्रह है।
व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है तथा इस अवग्रह के बाद ईहा आदि नहीं होते हैं और अर्थावग्रह पाँच इन्द्रियों तथा मन से भी होता है और इसके बाद ईहा, अवाय, धारणा भी होते हैं। पुन: इन ज्ञान के विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविध आदि के भेद से बारह भेदरूप हैं अत: उस सम्बन्धी ज्ञान के भी बारह भेद हो जाते हैं। इस प्रकार से अवग्रह आदि चार को छह इन्द्रियों से गुणित करके व्यंजनावग्रह के चार भेद मिला देने पर पुन: उन अट्ठाईस को बारह से गुणा करने पर तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं।
जो मतिज्ञानपूर्वक होता है वह श्रुतज्ञान है। उसके अंग और अंगबाह्य की अपेक्षा से दो भेद हैं। अंग के बारह भेद हैं जो कि आचारांग आदि के नामों से प्रसिद्ध हैं। अंगबाह्य के बीस भेद होते हैं।
पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृतक, प्राभृतक-प्राभृतक, वस्तु और पूर्व ये दश वसायाकिञ्चित्करादिभेदेन चानेक-प्रकारं। सागरुवजोगो–सहाकारेण व्यक्त्यार्थेन वर्तत इति साकार: सविकल्पो गुणीभूतसामान्यविशेषग्रहणप्रवण उपयोग:।
ज्ञानं पंचप्रकारमज्ञानत्रयं च साकार उपयोग: चदुदंसणं–चत्वारि दर्शनानि चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदेन। अणगारो–अनाकारोऽविकल्पको गुणीभूतविशेषसामान्यग्रहणप्रधान: चत्वारिदर्शनान्यनाकार उपयोग:। सव्वे–सर्वे। तल्लक्खणा–तौ ज्ञानदर्शनोपयोगौ लक्षणं येषां ते तल्लक्षणा ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा: सर्वे जीवा ज्ञातव्या इति।।२२८।।
जीवभेदोपसंहारादजीवभेदसूचनाय गाथा–
एवं जीवविभागा बहु भेदा वण्णिया समासेण।
एवंविधभावरहियमजीवदव्वेत्ति विण्णेयं।।२२९।।
एवं–व्याख्यातप्रकारेण। जीवविभागा–जीवविभागा:। बहुभेदा–बहुप्रकारा:। वण्णिदा–वर्णिता:। समासेण– संक्षेपेण। एवंविधभावरहियं–व्याख्यातस्वरूपविपरीतमजीवद्रव्यमिति विज्ञेयम्।।२२९।।
भेद हुए। पुन: प्रत्येक के साथ समास पद जोड़ने से दश भेद होकर बीस हो जाते हैं। अर्थात् पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिकसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतक, प्राभृतकसमास, प्राभृतकप्राभृतक, प्राभृतकप्राभृतकसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास ये बीस भेद माने हैं।
अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार होते हैं।
मन:पर्यय ज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति की अपेक्षा दो भेद हैं।
केवलज्ञान एक असहाय है। अर्थात् यह ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता से रहित होने से असहाय और परिपूर्ण होने से एक है।
अयथात्मक वस्तु-जो वस्तु जैसी है उसको उससे विपरीत जाननेरूप लक्षणवाला ज्ञान अज्ञान कहलाता है। उसके तीन भेद हैं-मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान तथा संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, और अकिंचित्कर आदि के भेद से यह अज्ञान अनेक प्रकार का भी है।
यह ज्ञान साकार है। अर्थात् आकार के साथ, व्यक्तिरूप से पदार्थ को जानता है इसलिए इसे साकार या सविकल्प कहते हैं। अर्थात् सामान्य को गौण करके विशेष को ग्रहण करने में कुशल जो उपयोग है वह साकारोपयोग है। पाँच प्रकार का ज्ञान और तीन प्रकार का अज्ञान ये आठ प्रकार का साकारोपयोग होता है।
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के भेद से दर्शनोपयोग चार प्रकार का है। यह अनाकार या अविकल्पक है। जो विशेष को गौण करके सामान्य को ग्रहण करने में प्रधान है वह अनाकारोपयोग है। ये चारों दर्शन अनाकारोपयोग कहलाते हैं।
ये ज्ञान-दर्शन हैं लक्षण जिनके ऐसे जीव तल्लक्षणवाले होते हैं। अर्थात् सभी जीव ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षणवाले होते हैं ऐसा जानना चाहिए।
जीव के भेदों को उपसंहार करके अब अजीव के भेदों को सूचित करने हेतु अगली गाथा कहते हैं-
गाथार्थ-इस तरह से अनेक भेदरूप जीवों के विभाग का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है। उपर्युक्त प्रकार के भावों से रहित अजीव द्रव्य है ऐसा जानना चाहिए।।२२९।।
आचारवृत्ति-उपर्युक्त कहे गये प्रकार से जीव विभागों के विविध प्रकार मैंने संक्षेप में कहे हैं। इन कहे गये लक्षण से विपरीत लक्षणवाले द्रव्य को अजीवद्रव्य जानना चाहिए।
अजीवभेदप्रतिपादनायाह–
अज्जीवा विय दुविहा रूवारूवा य रूविणो चदुधा।
खंधा य खंधदेसो खंधपदेसो अणू य तहा।।२३०।।
अज्जीवा विय–अजीवाश्चाजीवपदार्थाश्च। दुविहा–द्विप्रकारा:। रूवा–रूपिणो रूपरसगन्धस्पर्शवन्तो यतो रूपाविनाभाविनो रसादयस्ततो रूपग्रहणेन रसादीनामपि ग्रहणं। अरूवा य–अरूपिणश्च रूपादिवर्जिता:। रूविणो– रूपिण: पुदगला:। चदुधा–चतु:प्रकारा:। के ते चत्वार: प्रकारा इत्यत आह–खंधा य–स्कन्ध:। खंधदेसो– स्कन्धदेश:। खंधपदेसो–स्कन्धप्रदेश:। अणू य तहा–अणुरपि तथा परमाणु:। रूप्यरूपिभेदेनाजीवपदार्था द्विप्रकारा:, रूपिण: पुन: स्कन्धादिभेदेन चतु:प्रकारा इति।।२३०।।
स्कन्धादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसोत्ति।
अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेय अविभागी।।२३१।।
खंधं–स्कन्ध:। सयल–सह कलाभिर्वर्तते इति सकलं सभेदं परमाण्वन्तं। समत्थं–समस्तं सर्वपुद्गलद्रव्यं। सभेदं स्कन्ध: सामान्यविशेषात्मकं पुदगलद्रव्यमित्यर्थ:। अतो न सकलसमस्तयो: पौनरुत्क्त्यं। तस्स दु–तस्य तु स्कन्धस्य। अद्धं–अर्धं सकलं। भणंति–वदन्ति। देसोत्ति–देश इति तस्य समस्तस्य पुद्गलद्रव्यस्यार्धं देश इति वदन्ति जिना:। अद्धद्धं च–अर्धस्यार्धस्यार्धमर्धार्धं तत्समस्तपुदगलद्रव्यार्धं तावदर्धेनार्धेन कर्तव्यं यावद् द्व्यणुकस्कन्ध:
अजीव के भेदों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-अजीव भी रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। रूपी के स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और अणु ये चार भेद हैं।।२३०।।
आचारवृत्ति-अजीव पदार्थ रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का है। रूपी शब्द से रूप, रस, गंध और स्पर्श इन चारों गुणवाले को लिया जाता है क्योंकि रस, गंध और स्पर्श ये रूप के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाले हैं।
इसलिए रूप के ग्रहण करने से रस आदि का भी ग्रहण हो जाता है। जो रूपादि से वर्जित हैं वे अरूपी कहलाते हैं। पुद्गल द्रव्य रूपी है। उसके चार भेद हैं-स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु।
तात्पर्य यह हुआ कि रूपी और अरूपी के भेद से अजीव पदार्थ दो प्रकार का है। पुन: रूपी पुद्गल के स्कंध आदि के भेद से चार प्रकार होते हैं।
अब स्कंध आदि का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-भेद सहित सम्पूर्ण पुद्गल स्कंध है , उसके आधे को देश कहते हैं। उस आधे के आधे को प्रदेश और अविभागी हिस्से को परमाणु कहते हैं।।२३१।।
आचारवृत्ति-जो कलाओं के साथ-अपने अवयवों के साथ रहता है वह सकल है अर्थात् परमाणु पर्यंत भेदों से रहित सभी पुद्गल सकल है। ‘समत्थ’ पद का अर्थ समस्त है अर्थात् सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य समस्त है। भेद सहित स्कंधरूप; सामान्य विशेषात्मक पुद्गल द्रव्य को यहाँ ‘सकलसमस्त’ पद से कहा गया है। इसलिए सकल और समस्त इन दोनों में पुनरुक्ति दोष नहीं है अर्थात् सकल और समस्त का अर्थ यदि एक ही सम्पूर्णतावाचक लिया जाय तो पुनरुक्ति दोष आ सकता है
किन्तु यहाँ पर तो सकल का अर्थ कलाओं से रहित-परमाणु से लेकर महास्कंध पर्यंत ग्रहण किया गया है और समस्त का अर्थ सामान्य विशेष धर्म सहित सर्वपुद्गल द्रव्य विवक्षित किया गया है। इस स्कंध के आधे को स्कंधदेश कहते हैं। अर्थात् उस समस्त पुद्गल द्रव्य के आधे को जिनेंद्र देव ने ‘देश’ शब्द से कहा है। उस आधे के आधे को अर्थात् समस्त पुद्गल द्रव्य
ते सर्वे भेदा: प्रदेशवाच्या भवन्ति। परमाणूचेव–परमाणुश्च। अविभागी–निरंशो यस्य विभागो नास्ति तत्परमाणुद्रव्यम्।।२३१।।
अरूपिद्रव्यभेदनिरूपणार्थमाह–
ते पुणु धम्माधम्मागासा य अरूविणो य तह कालो।
खंधा देस पदेसा अणुत्ति विय पोग्गला रूवी।।२३२।।
के आधे को आधा करना, पुन: उस आधे का आधा करना, इस प्रकार जब तक द्व्यणुक स्कंध न हो जावे तब तक आधा आधा करते जाना, ये सभी भेद प्रदेश शब्द से कहे जाते हैं और निरंश भाग-जिसका दूसरा विभाग अब नहीं हो सकता है उस अविभागी पुद्गल को परमाणु कहते हैं।
अरूपी द्रव्य के भेदों का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-पुन: वे धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल अरूपी हैं तथा स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और अणु इन भेद सहित पुद्गल द्रव्य रूपी हैं।।२३२।।
आचारवृत्ति-‘तत्’ शब्द पूर्व प्रकरण का परामर्श करने वाला है। वे पुन: अरूपी अजीव द्रव्य हैं।
िफलटन से प्रकाशित मूलाचार में दो गाथाएँ किंचित् बदली हुई हैं और एक अधिक है।
खंधा देसपदेसा जाव अणुत्तीवि पोग्गलारूवी।
वण्णादिमंत जीवेण होंति बंधा जहाजोग्गं।।४१।।
अर्थ-स्कंध, स्कन्धदेश, स्कंधप्रदेश आदि अणु तक होने वाले जो जो विभाग हैं वे सब पुद्गल हैं। ये सब रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणों से युक्त होने से रूपी हैं और जीव के साथ यथायोग्य कर्म-नोकर्मरूप होकर बद्ध होते हैं।
पुढवी जलं च छाया चउरिंदिय विसय कम्मपरमाणू। छव्विहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणवरेहिं।।४२।।
अर्थ-पुद्गल द्रव्य को जिनेन्द्र देव ने छह प्रकार का बतलाया है। जैसे-पृथिवी, जल, छाया, नेत्रेन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों का विषय, कर्म और परमाणु।
बादरबादर बादर बादरसुहुमं च सुहुमथूलं च।
सुहुमं सुहुमसुहुमं धरादियं होदि छब्भेयं।।४३।।
अर्थ-जिसका छेदन-भेदन और अन्यत्र प्रापण हो सके उस स्कन्ध को बादरबादर कहते हैं। जैसे-पृथिवी, काष्ठ, पाषाणादि। जिसका छेदन-भेदन न हो सके किन्तु अन्यत्र ले जाया जा सके वह स्कन्धबादर है जैसे-जल, तेल आदि। जिसका छेदन-भेदन और अन्यत्र प्रापण भी न हो सके ऐसे नेत्र से दिखने योग्य स्कन्ध को बादरसूक्ष्म कहते हैं जैसे-छाया, आतप, चांदनी आदि।
नेत्र को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों के विषयभूत पुद्गल-स्कंध को सूक्ष्मस्थूल कहते हैं जैसे-शब्द, रस, गंध आदि। जिसका किसी इन्द्रिय से ग्रहण न हो सके उस पुद्गल स्कन्ध को सूक्ष्म कहते हैं जैसे-कर्मवर्गणाएँ। जो स्कन्धरूप नहीं हैं ऐसे अविभागी परमाणु को सूक्ष्म-सूक्ष्म कहते हैं।
विशेषार्थ-अन्त की ये दो गाथाएँ गोम्मटसार जीवकांड में भी हैं, जोकि पुद्गलद्रव्य के छह भेद करके परमाणु तक भेद कर देती हैं। किन्तु कुन्दकुन्द देव ने नियमसार में स्कन्ध के छह भेद किये हैं और परमाणु के भेद अलग किये हैं। उसमें सूक्ष्म-सूक्ष्म भेद के उदाहरण में कर्म के अयोग्य पुद्गल वर्गणाएँ ली गई हैं।
यथा-
अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च।
सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होति छब्भेयं।।२१।।
भूपव्वदमादीया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा।
थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेलमादीया।।२२।।
छायातवमादीया थूलेदरखंंधमिदि वियाणाहि।
सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य।।२३।।
सुहुमा हवंति खंधा पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो।
तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंति।।२४।।
अर्थ-अतिस्थूलस्थूल, स्थूल,स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म ऐसे पृथिवी आदि स्कन्धों के छह भेद हैं। भूमि, पर्वत आदि अतिस्थूल स्कन्ध कहे गये हैं। घी, जल, तेल आदि स्थूल स्कन्ध हैं। छाया, आतप आदि स्थूलसूक्ष्म स्कन्ध हैं। चार इन्द्रिय के विषयभूत स्कन्ध सूक्ष्मस्थूल हैं। कर्मवर्गणा योग्य स्कन्ध सूक्ष्म हैं। उनसे विपरीत अर्थात् कर्मवर्गणा के अयोग्य स्कन्ध अतिसूक्ष्म कहे गये हैं। पंचास्तिकाय में भी स्कन्धों के ही छह भेद और ये ही उदाहरण हैं।
ते पुणु–तच्छब्द: पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शी ते पुनररूपिणोऽजीवा:। धम्माधम्मागासा य–धर्माधर्माकाशानि। िंकलक्षणानि अरूविणोय–अरूपीणि रूपरसगन्धस्पर्शरहितानि। तह कालो–तथा कालश्चारूपीलोकमात्र: सप्तरज्जूनां घनीकृतानां यावन्त: प्रदेशास्तावत्परिमाणानि, अलोकाकाशं पुनरनन्तं। स्कन्धादय: के ते आह–स्कन्धदेश प्रदेशा अणुरिति च पुदगला: पूरणगलनसमर्था:।
रूवी–रूपिणो रूपरसगन्धस्पर्शवन्तोऽनन्तपरिमाणा:। ननु काल: किमिति कृत्वा पृथग्व्याख्यातश्चेत् नैष दोष:, धर्माधर्माकाशान्यस्तिकायरूपाणि काल: पुनरनास्तिकायरूप एवैâकप्रदेशरूप:, निचयाभावप्रतिपादनाय पृथग्व्याख्यात इति। रूपिण: पुदगला इति ज्ञापनार्थं पुन: स्कंधादिग्रहणमतो न पौनरुत्क्यं। धर्मादीनां च स्कन्धादिभेदप्रतिपादनार्थं च पुनर्ग्रहणम्।।२३२।।
ननु यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थं सत् तदेषां धर्मादीनां िंक कार्य ? केषामेतानि कारणान्यत आह–
गदिठाणोग्गाहणकारणाणि कमसो दु वत्तणगुणोय।
रूवरसगंधफासदि कारणा१ कम्मबंधस्स।।२३३।।
गदि–गतिर्गमनक्रिया। ठाणं–स्थानं स्थितिक्रिया। ओगाहण–अवगाहनमवकाशदानमेषां। कारणाणि–निमित्तानि। कमसो–क्रमश: यथाक्रमेण। वत्तणगुणोय–वर्तनागुणश्च परिणामकारणं। गते: कारणं धर्मद्रव्यं जीवपुद्गलानां।
अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश ये अजीव द्रव्य रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित होने से अरूपी हैं। उसी प्रकार से काल द्रव्य भी अरूपी है। यह लोकमात्रप्रमाण है अर्थात् घनरूप सात राजू (७²७²७·३४३) के जितने प्रदेश हैं यह काल द्रव्य उतने प्रमाण है। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, इनके प्रदेश लोकाकाश प्रमाण हैं। अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है।
जो स्कंधादि हैं वे क्या हैं ?
स्कंध, देश, प्रदेश और अणु ये सब पुद्गल द्रव्य हैं। यह पूरण और गलन में समर्थ है अर्थात् पूरण गलन स्वभाव वाला है। यह पुद्गलद्रव्य रूप, रस, गंध और स्पर्श वाला है अनन्तपरिमाण है।
प्रश्न-आपने काल का अलग से व्याख्यान क्यों किया ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन अरूपी द्रव्य अस्तिकायरूप हैं और काल अस्तिकायरूप नहीं है क्योंकि वह एक-एक प्रदेशरूप ही है उसमें निचय-प्रदेशों के अभाव को बतलाने के लिए ही उसको पृथक्रूप से कहा है।
यहाँ इस गाथा में जो रूपी हैं वे पुद्गल हैं ऐसा बतलाने के लिये पुन: स्कंध आदि को लिया है इसलिए पुनरुक्ति दोष नहीं आता है। धर्म आदि का प्रतिपादन करके पुद्गल के स्कंध आदि के भेद बतलाने के लिए यहाँ उनका पुन: ग्रहण किया गया है।
जो अर्थ क्रियाकारी होता है वही परमार्थ सत् है। इसलिए इन धर्म आदि का क्या कार्य है ? और किनके लिए ये कारण हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-क्रम से अरूपी द्रव्य गमन करने, ठहरने और अवकाश देने में कारण हैं तथा काल वर्तन गुणवाले हैं। रूप, रस, गंध और स्पर्शवाला (पुद्गल) द्रव्य कर्मबंध का कारण है।।२३३।।
आचारवृत्ति-जाने की क्रिया का नाम गति है, ठहरने की क्रिया का नाम स्थान है, अवकाश देने का नाम अवगाहन है। परिणमन का कारण वर्तनागुण है। क्रम से चार अरूपी द्रव्य इन गति आदि में कारण हैं। अर्थात् जीव और पुद्गल के गमन में धर्मद्रव्य कारण है। इन्हीं जीव और पुद्गलों के ठहरने में अधर्मद्रव्य
तथा तेषामेव स्थिते: कारणमधर्मद्रव्यं। अवकाशदाननिमित्तमाकाशद्रव्यं पंचद्रव्याणां। तथा तेषामपि वर्तनालक्षणं कालद्रव्यं स्वस्य च परमार्थकालग्रहणात्।
धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि स्वपरिणामनिमित्तानि परेषां गत्यादीनां निमित्तान्यपि भवन्ति, अनेककार्यकारित्वाद् द्रव्याणां तस्मान्न विरोधो यथा मत्स्य: स्वगते: कारणं, जलमपि च कारणं तद्गते:, स्वगते: कारणं पुरुष: सुख: पन्थाश्च। तथा स्वस्थिते: कारणं पुरुष:, छायादिकं च कारणं। अथ रूपादय: कस्य कारणमिति चेत्, रूपरसगन्धस्पर्शादय: कारणं कर्म बन्धस्य, जीवस्वरूपान्यथानिमित्तकर्मबन्धस्योपादानहेतव: रूपादिवन्त: पुद्गला:। कथं पुद्गला इति लभ्यन्ते, तेनाभेदोपचारात् तात्स्थ्याद्वा बन्ध: पुद्गलरूपो भवतीत्यर्थ:।।२३३।।
कर्मबन्धो द्विधा पुण्यपापभेदादतस्तत्स्वरूपं तन्निमित्तं च प्रतिपादयन्नाह–
सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेिंह।
जो परिणदो स पुण्णो तव्विवरीदेण पावं तु।।२३४।।
सम्यक्त्वेन, श्रुतेन, विरत्या पंचमहाव्रतपरिणत्या तथा कषायनिग्रहगुणैरुत्तमक्षमामार्दवार्जवसन्तोषगुणै: चशब्दादिन्द्रियनिरोधैश्च। जो परिणदो–य: परिणतो जीवस्तस्य यत्कर्मसंश्लिष्टं तत्पुण्यमित्युच्येत, अथवा सम्यक्त्वादिगुण-परिणतो जीवोऽपि पुण्यमित्युच्यते अभेदात्। तव्विवरीदेण–तद्विपरीतेन मिथ्यात्वाज्ञानासंयमकषायगुणैर्य: परिणत: पुद्गलनिचयस्तत्पापमेव। शुभप्रकृतय:
कारण है। पांच द्रव्यों को अवकाश देने में निमित्त आकाश द्रव्य है तथा इन पाँच द्रव्यों में परिणमन के लिए कारणभूत वर्तनालक्षण वाला कालद्रव्य है और वह अपने में भी परिणमन का कारण है क्योंकि यहाँ परमार्थ काल को लिया गया है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य अपने परिणाम में निमित्त हैं और पर-द्रव्यों की गति, स्थिति आदि में भी निमित्त होते हैं, क्योंकि सभी द्रव्य अनेक कार्य को करने वाले होते हैं इसलिए कोई विरोध नहीं आता है।
जैसे मछली अपने गमन में कारण है और जल भी उसकी गति में कारण है। पुरुष अपनी गति में कारण है और सुखकारी मार्ग भी उसके गमन में कारण है। उसी प्रकार से पुरुष अपने ठहरने में कारण है तथा छायादिक भी उसके ठहरने में कारण है।
ये रूपादि किसके कारण हैं ?
ये रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि कर्मबन्ध के लिए कारण हैं, क्योंकि जीव के स्वरूप से अन्यथाभूत जो रागादि परिणाम हैं उनके निमित्त से जो कर्मबन्ध होता है, उस कर्मबन्ध के लिए उपादानकारण रूपादिमान् पुद्गल द्रव्य वर्गणाएँ हैं।
यहाँ गाथा में पुद्गल शब्द नहीं है पुन: आपने पुद्गल को कैसे लिया ?
रूपादि से अभिन्न उपचार से पुद्गल द्रव्य आ जाता है अथवा ये रूपादि उस पुद्गल में ही स्थित हैं इसलिए कर्मबंध पुद्गलरूप होता है ऐसा समझना। कर्मबंध पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार का है, इसलिये उसका स्वरूप और उसके कारणों को बतलाते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-सम्यक्त्व से, श्रुतज्ञान से, विरतिपरिणाम से और कषायों के निग्रहरूप गुणों से जो परिणत है वह पुण्य है और उससे विपरीत पाप है।।२३४।।
आचारवृत्ति-सम्यक्त्व से, श्रुतज्ञान से, पाँच महाव्रतों के परिणतिरूप चारित्र से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों को निग्रह करने वाले उत्तम , क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा संतोषरूप गुणों से, एवं च शब्द से समझना कि इंद्रियों के निरोध से जो जीव परिणत हो रहा है उसके जो कर्मों का संश्लेष होता है वह पुण्य कहलाता है। अथवा सम्यक्त्व आदि गुणों से परिणत हुआ जीव भी पुण्य कहलाता है क्योंकि जीव से उन गुणों में अभेद पाया जाता है। अथवा सम्यक्त्व आदि कारणों से जो कर्मबन्ध होता है वह पुण्य कहा
पुण्यमशुभप्रकृतय: पापमिति पुण्य पापास्रवकौ जीवौ वानेन व्याख्यातौ।।२३४।।
इत ऊर्ध्वं पुण्यपापास्रवकारणमाह–
पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो।
विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणाहि।।२३५।।
पुण्यस्य सुखनिमित्तपुद्गलस्कन्धस्यास्रवभूता आस्रवत्यागच्छत्यनेनेत्यास्रव: आस्रवणमात्रं वास्रव: आस्रवभूता द्वारभूता कारणरूपा अनुकम्पा कृपा दया शुद्धोपयोगश्च शुद्धोमनोवाक्कायक्रिया इत्यर्थ: शुद्धज्ञानदर्शनोपयोगश्चाभ्यामनुकम्पा शुद्धोपयोगाभ्यां।
विवरीदं–विपरीतोऽननुकम्पाऽशुद्धमनोवाक्कायक्रिया: मिथ्याज्ञानदर्शनोपयोग:। पावस्सा दु– पापस्यैव। आसव–आस्रव आगमहेतुस्तमास्रवहेतुं। वियाणाहि–विजानीहि बुध्यस्व। पूर्वगाथार्थेनास्य गाथार्थस्य नैकार्थ बन्धास्रवोपकारेण प्रतिपादनात्। पूर्वै: कारणै: पुण्यबन्ध: पापबन्धश्च व्याख्यात:, आभ्यां पुन: कारणाभ्यां शुभकर्मागमोऽशुभास्रवोऽशुभकर्मागमोव्याख्यात:। पुण्यस्यागमनहेतू अनुकम्पाशुद्धोपयोगौ जानीहि, पापागमस्य तु विपरीतावननुकंपाऽशुद्धोपयोगौ हेतू विजानीहीति।।२३५।।
जाता है और उससे विपरीत अर्थात् मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम तथा कषायरूप गुणों से जो परिणत हुआ पुद्गलसमूह है वह पाप ही है। शुभ प्रकृतियां पुण्य हैं और अशुभ प्रकृतियां पाप हैं। अथवा पुण्याश्रव और पापाश्रव को करने वाला जीव है ऐसा इस पुण्य और पाप पदार्थ का व्याख्यान किया गया है।
भावार्थ-पुण्य और पाप पदार्थ के जीव और अजीव की अपेक्षा दो-दो भेद हो जाते हैं। सम्यक्त्व आदि परिणामों से युक्त जीव पुण्यजीव है और मिथ्यात्व आदि से परिणत जीव पाप जीव है। उसी प्रकार से सातावेदनीय आदि प्रकृतियां पुण्यरूप हैं ये पौद्गलिक हैं और असाता आदि प्रकृतियाँ पापरूप हैं ये भी पुद्गलरूप हैं।
इसके अनन्तर पुण्यास्रव और पापास्रव के कारणों को बताते हैं-
गाथार्थ-दयाभावना और शुद्ध उपयोग ये पुण्यास्रव के कारण हैं और इससे विपरीत कार्य पाप के आस्रव में कारण हैं ऐसा तुम जानो।।२३५।।
आचारवृत्ति-सुख के लिए निमित्तभूत पुद्गल स्कन्ध जिसके द्वारा आते हैं वह पुण्य का आश्रव है अथवा सुख निमित्तरूपकर्मों का आना मात्र ही पुण्य का आश्रव है। ऐसे आस्रवभूत कर्मों के आने के लिए द्वारस्वरूप या कारणस्वरूप को बताते हैं। अनुकम्पा-दया, शुद्ध उपयोग-शुद्ध मनवचनकाय की क्रिया को शुद्धोपयोग कहते हैं। अर्थात् शुद्धज्ञानोपयोग, शुद्धदर्शनोपयोग और अनुकम्पा इनके द्वारा पुण्य का आस्रव होता है।
इनसे विपरीत अर्थात् दया न करना तथा अशुद्ध मनवचनकाय की क्रिया अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानोपयोगरूप से परिणत होना-ये पाप के आस्रव के लिए कारण हैं ऐसा जानो।
पूर्व गाथा के अर्थ से इस गाथा का अर्थ एक नहीं है क्योंकि वहाँ बन्ध को आश्रव के उपकार द्वारा कहा गया है। अर्थात् पूर्व गाथा कथित सम्यक्त्व आदि कारणों से पुण्यबंध और मिथ्यात्वादि कारणों से पाप बंध होता है ऐसा कहा गया है।
इस गाथा से अनुकंपा और शुद्ध उपयोग द्वारा शुभ कर्मों के आगमनरूप शुभास्रव और अदया आदि से अशुभकर्मों के आगमनरूप अशुभास्रव होता है ऐसा कहा गया है। इस गाथा का तात्पर्य यही है कि पुण्य कर्म के आने में हेतु अनुकंपा और शुद्धोपयोग हेतु हैं ऐसा समझो। यहाँ मन-वचन-काय की निर्मल प्रवृत्ति को ही शुद्ध उपयोग शब्द से कहा है।
अमूर्तिक जीव प्रदेशों का मूर्तिक कर्म-पुद्गलों के साथ संबंध कैसे होता है ? ऐसा पूछने पर आचार्य
ननु जीवप्रदेशानाममूर्तानां कथं कर्मपुद्गलैर्मूतै: सह सम्बन्धोऽत आह–
णेहोउप्पिदगत्तस्स रेणुओ लग्गदे जधा अंगे।
तह रागदोससिणेहोल्लिदस्स कम्मं मुणेयव्वं।।२३६।।
स्नेहो घृतादिकं तेनार्द्रीकृतस्य गात्रस्य शरीरस्य रेणव: पांसवो लगन्ति संश्रयंति यथा तथा रागद्वेष–स्नेहार्द्रस्य जीवस्यांगे शरीरे कर्मपुद्गला ज्ञातव्यास्तैजसकार्मणयो: शरीरयो: सतोरित्यर्थ:। राग: स्नेह:, कामादिपूर्विका रति:, द्वेषोऽप्रीति: क्रोधादिपूर्विकाऽरतिरिति।।२३६।।
तद्विपरीतेन पापस्यास्रव इत्युक्तं तन्मुख्यरूपेण किमित्यत आह–
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति।
अरिहंतवुत्तअत्थेसु विमोहो होइ मिच्छत्तं।।२३७।।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाया योगश्चैते आस्रवा भवन्ति। अथ मिथ्यात्वस्य िंक लक्षणमित्यत आह–अर्हदुक्तार्थेषु सर्वज्ञभाषितपदार्थेषु विमोह: संशयविपर्ययानध्यवसायरूपो मिथ्यात्वमिति भवति।।२३७।।
अविरमणादीन्प्रतिपादयन्नाह–
अविरमणं हिंसादी पंचवि दोसा हवंति णादव्वा।
१कोधादी य कसाया जोगो जीवस्स चेट्ठा दु।।२३८।
कहते हैं-
गाथार्थ-जैसे तेल का मर्दन करने से, मर्दन करने वाले के शरीर में धूलि चिपक जाती है उसी प्रकार से राग-द्वेष और स्नेह से लिप्त हुए जीव के कर्म चिपकते हैं ऐसा जानना चाहिए।।२३६।।
आचारवृत्ति-घृत, तेल आदि को स्नेह कहते हैं। उससे आर्द्र-गीला या चिकना है शरीर जिसका ऐसे मनुष्य के शरीर में जैसे धूलि चिपक जाती है उसी प्रकार से राग-द्वेष और स्नेह से लिप्त हुए जीव के अंग में कर्म पुद्गल चिपक जाते हैं। अर्थात् जीव के तैजस और कार्मण शरीर से कार्मण वर्गणाएँ सम्बन्धित हो जाती हैं। राग और स्नेह शब्द से काम पूर्वक रति को लेते हैं और द्वेष-अप्रीति अर्थात् क्रोधादि पूर्वक अरति को द्वेष कहते हैं।
जो आपने कहा है कि अनुकंपा आदि के विपरीत कारणों से पाप का आस्रव होता है वे मुख्यरूप से कौन कौन हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव कहलाते हैं। अर्हंत देव के कथित पदार्थों में विमोह होना मिथ्यात्व है।।२३७।।
आचारवृत्ति-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। मिथ्यात्व का क्या लक्षण है ? सो बताते हैं। सर्वज्ञ के द्वारा भाषित पदार्थों में संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप परिणाम का नाम मिथ्यात्व है।
अब अविरति आदि का लक्षण बतलाते हैं-
गाथार्थ-हिंसादि पांच पाप ही अविरति होते हैं ऐसा जानना चाहिए। क्रोधादि कषाय हैं और जीव की चेष्टा का नाम योग है।।२३८।।
आचारवृत्ति-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच दोष ही अविरति नाम से जाने जाते
हिंसादयः पंचापि दोषाः हिंसासत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहा अविरमणं ज्ञातव्यं भवति। क्रोधमानमायालोभाः कषायाः। जीवस्य चेष्टा तु योगः।।२३८।।
संवरपदार्थस्य व्याख्यानायाह–
मिच्छत्तासवदारं रुंभइ सम्मत्तदढकवाडेण।
हिंसादिदुवाराणिवि दढवदफलिहेहिं रुब्भंति।।२३९।।
मिथ्यात्वमेवास्रवद्वारं मिथ्यात्वास्रवद्वारं। रुब्भन्ति- रुंधन्ति निवारयन्ति। सम्मत्तदढकवाडेण–सम्यक्त्वमेव दृढकपाटं तेन सम्यक्त्चदृढकपाटेन तत्त्वार्थश्रद्धानविधानेन हिंसादीनि द्वाराणि दृढव्रतफलवैâ रुन्धन्ति प्रच्छादयन्तीति।।२३९।।
आसवदि जंतु कम्मं कोधादीहिं तु अयदजीवाणं।
तप्पडिवक्खेहिं विदु रुंभंति तमप्पमत्ता दु।।२४०।।
क्रोधादिभिर्यत्कर्मास्रवत्युपढौकतेऽयत्नपरजीवानां तत्प्रतिपक्षैस्तत्प्रतिकूलैः क्षमादिभिरप्रमत्ताः प्रमादरहिता विद्वांसो रुन्धन्ति प्रतिकूलयन्ति। अनेन संवारको जीवो व्याख्यात इति।।२४०।।
आस्रवसंवरसमुच्चयप्रतिपादनायोत्तरगाथा संवरकारणाय वा–
मिच्छत्ताविरदीहि य कसायजोगेहिं जं च आसवदि।
दंसणविरमणणिग्गहणिरोधणेहिं तु णासवदि।।२४१।।
हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषायें हैं तथा जीव की चेष्टा-प्रवृत्ति (आत्म प्रदेशों का परिस्पंदन) का नाम योग है। अर्थात् इन मिथ्यात्व आदि चार कारणों से कर्मों का आस्रव होता है इस प्रकार से आस्रव पदार्थ का व्याख्यान किया है।
अब संवर पदार्थ का व्याख्यान करते हैं-
गाथार्थ-मिथ्यात्वरूप आस्रव द्वार को सम्यक्त्वरूपी दृढ़ कपाट से रोकते हैं और हिंसा आदि अविरतिरूप द्वारों को भी दृढ़ व्रतरूपी दरवाजों से रोक देते हैं।।२३९।।
आचारवृत्ति-मिथ्यात्व ही कर्मों के आने का द्वार है। सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वार्थ श्रद्धानरूपी मजबूत कपाट के द्वारा मिथ्यात्व व आस्रव को रोक देते हैं। हिंसा आदि आस्रव द्वारों को व्रतरूपी मजबूत फलकों के दरवाजों के द्वारा ढक देते हैं।
गाथार्थ-अयत्नाचारी जीवों के क्रोधादि द्वारा जो कर्म आते हैं, अप्रमत्त विद्वान उनके प्रतिपक्षों के द्वारा उन्हें रोक देते हैं।।२४०।।
आचारवृत्ति-अयत्नाचारी अर्थात् असंयत जीव क्रोध आदि के द्वारा जो कर्मों का आस्रव करते हैं, प्रमादरहित विद्वान साधु उनसे प्रतिकूल क्षमा आदि के द्वारा उन आते हुए आस्रव को रोक देते हैं। इस कथन से संवर करनेवाले जीव का व्याख्यान किया है। अर्थात् पदार्थ का व्याख्यान किया गया समझना चाहिए।
अब आस्रव और संवर को समुच्चयरूप से प्रतिपादित करने हेतु अथवा संवर के कारणों को कहने के लिए अगली गाथा कहते हैं-
गाथार्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनसे जो कर्म आते हैं, वे सम्यग्दर्शन, विरतिपरिणाम, निग्रह और निरोध से नहीं आते हैं।।२४१।।
आचारवृत्ति-मिथ्यात्व से जो कर्म आता है वह सम्यग्दर्शन से नहीं आता है। अविरतिपरिणाम से जो कर्म
मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगैर्यत्कर्मास्रवति, दर्शनविरतिनिग्रहनिरोधनैस्तु नास्रवति। न च पूर्वगाथानां पौनरुक्त्यं बन्धास्रवसंवरभेदेन व्याख्यानाद् द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकशिष्यसंग्रहाद्वा।।२४१।।
निर्जरार्थप्रतिपादनायोत्तरप्रबन्धः–
संयमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविधं।
सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्ठदे जीवो।।२४२।।
निर्जरकनिर्जरानिर्जरोपायास्तत्र निर्जरकः किंविशिष्ट इत्यत आह–संयमो द्विविध इन्द्रियसंयमः प्राणसंयमश्च। जोगे–योगे यत्नः शुभमनोवचनकायो ध्यानं वा। संयमयोगयुक्तो यस्तपसा तपसि वा चेष्टते प्रवर्ततेऽनेकविधे द्वादशविधे वा, द्वादशविधं तपो यः करोति यत्नपरः स कर्मनिर्जरायां कर्मविनाशे वर्तते जीवः।
अनेन निर्जरोपायश्च व्याख्यातः। पूर्वसूत्रेष्वप्येवं व्याख्येयं, बन्धको बन्धो बन्धोपायः। आवस्रक आस्रव आस्रवोपायः। संवरकः संवरः संवरोपायः। अनेन व्याख्यानेन पौनरुक्त्यं च न भवतीति।।२४२।।
दृष्टान्तद्वारेण जीवकर्मणोः शुद्धिमाह–
जह धाऊ धम्मंतो सुज्झदि सो अग्गिणा दु संतत्तो।
तवसा तधा विसुज्झदि जीवो कम्मेहिं कणयं व।।२४३।।
आता है वह व्रतपरिणामों से नहीं आता है। कषायों से जो कर्म आते हैं वे कषायों के निग्रह से अर्थात् क्षमा आदि भावों से नहीं आते हैं और योग से जो कर्म आते हैं वे योग के निरोध से नहीं आते हैं। पूर्व गाथा में और इसमें एक बात होने से पुनरुक्ति दोष होता है ऐसा नहीं कहना, क्योंकि क्रम से बन्ध, आस्रव और संवर के भेद से व्याख्यान किया गया है। अथवा द्रव्यार्थिक नय से और पर्यायार्थिक नय से समझने वाले शिष्यों के लिए ही ऐसा कथन किया गया है।
अब निर्जरा पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-संयम के योग से युक्त जो जीव तपश्चर्या से अनेक प्रकार प्रवृत्ति करता है वह जीव विपुल कर्म-निर्जरा में प्रवृत्त होता है।।२४२।।
आचारवृत्ति-निर्जरा करनेवाला, निर्जरा और निर्जरा के उपाय ये तीन जानने योग्य है। उसमें से निर्जरा करने वाला आत्मा कैसा होता है ? सो ही बताते हैं। संयम दो प्रकार का है-इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम।
प्रयत्न को, शुभ मन-वचन-काय को अथवा ध्यान को योग कहते हैं। जो मुनि द्विविध संयम से और शुभ योग से सहित हैं और अनेक प्रकार के अथवा बारह प्रकार के तपश्चरण में प्रवृत्ति करते हैं अथात् जो प्रयत्नपूर्वक बारह प्रकार का तप करते हैं वे बहुत सी कर्म निर्जरा को करते हैं। इस से निर्जरा के उपायों का कथन किया गया है। अर्थात् संयमी साधु निर्जरक हैं। कर्मों का निर्जीण होना निर्जरा है और तपश्चरण निर्जरा का उपाय है।
पूर्व सूत्रों में भी इसी प्रकार से व्याख्यान कर लेना चाहिए। जैसे बन्ध पदार्थ के कथन में बन्धक, बन्ध और बन्ध के उपाय इन तीनों को समझना चाहिए। आस्रव पदार्थ के कथन में आस्रवक, आस्रव और आस्रव के उपाय; संवर पदार्थ के कथन में संवरक, संवर और संवर के उपाय, ऐसा इन सभी को जानना चाहिए। इस कथन से पुनरुक्त दोष नहीं आता है।
अब दृष्टान्त के द्वारा जीव और कर्म की शुद्धि को कहते हैं-
गाथार्थ-जैसे तपाया हुआ स्वर्ण-पाषाण अग्नि से संतप्त होकर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार, स्वर्णपाषाण की भाँति ही, यह जीव तप के द्वारा कर्मों से शुद्ध हो जाता है।।२४३।।
आचारवृत्ति-जैसे धातुपाषाण-स्वर्णपत्थर तपाया हुआ शुद्ध हो जाता है अर्थात् वह अग्नि से
यथा धातुपाषाणः कनकोपलो धम्यमानस्तप्यमानः शुद्ध्यते सोऽग्निना तु संतप्तो दग्धः किट्टकालिकादिरहितः संजायते, तथा तपसा विशुद्धते जीवः कर्मभि: कनकमिव। यथा धातुः कनकं अग्निसंयोगेन शुद्धं भवति, तथा तपोयोगेन जीवः शुद्धो भवति।।२४३।।
किमर्थं सकारणा निर्जरा व्याख्याता बन्धादयश्च सहेतवः नित्यपक्षेऽनित्यपक्षे च किमर्थमिति। तत्सर्वं न घटते यतः कुतः ?
जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागं कसायदो कुणदि।
अपरिणदुच्छिण्णेसु य बंधट्ठिदिकारणं णत्थि।।२४४।।
चतुर्विधो बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन, कार्मणवर्गणागतपुद्गलानां ज्ञानावरणादिभावेन परिणामः प्रकृतिबन्धः। तेषां कर्मस्वरूपपरिणतानामनन्तानन्तानां जीवप्रदेशैः सह संश्लेष: प्रदेशबन्धः।
तेषां जीवप्रदेशानुश्लिष्टानां जीवस्वरूपान्यथाकरण१स्सोऽनुभागबन्धः। तेषामेव कर्मरूपेण परिणतानां पुद्गलानां जीवप्रदेशैः सह यावत्कालमवस्थितिः स स्थितिबन्धः। योगाज्जीवाः प्रकृतिबन्धं च करोति। कषायेण स्थितिबन्धमनुभागबन्धं च करोति अथवा योगः प्रकृतिबन्धं प्रदेशबन्धं च करोति। कषायाः स्थितिबन्धमनुभागबन्धं च कुर्वन्ति। यतोऽतोऽपरिणतस्य नित्यस्य, उच्छिन्नस्य निरन्वयक्षणिकस्य
दग्ध हुआ कीट और कालिमा से रहित हो जाता है। उसी प्रकार से, स्वर्ण के समान ही, यह आत्मा तपश्चरण के द्वारा कर्मों से शुद्ध हो जाता है अर्थात् जैसे सुवर्ण धातु अग्नि के संयोग से शुद्ध होती है वैसे ही जीव तप के योग से शुद्ध हो जाता है।
निर्जरा को सहेतुक और बन्ध आदि को भी सहेतुक क्यों बतलाया ? तथा नित्य पक्ष में और अनित्य पक्ष में ये सभी कार्य-कारण सम्बन्ध क्यों नहीं घटित होते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-यह जीव योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध करता है। कषायों के अपरिणत और उच्छिन्न हो जाने पर स्थितिबन्ध के कारण नहीं रहते।।२४४।।
आचारवृत्ति-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा बन्ध के चार भेद हैं।
कार्मण वर्गणारूप से आये हुए पुद्गलों का ज्ञानावरण आदि भाव से परिणमन कर जाना प्रकृतिबन्ध है। उन्हीं कर्मस्वरूप से परिणत अनन्तानन्त पुद्गलों का जीव के प्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध (गाढ़ सम्बन्ध) हो जाना प्रदेशबन्ध है। उन्हीं जीव के प्रदेशों में संश्लिष्ट हुए पुद्गलों का जीव के स्वरूप को अन्यथा करना अर्थात् जीव के प्रदेश में लगे हुए पुद्गल कर्म द्वारा जीव को सुख-दुःखरूप फल का अनुभव होना अनुभागबन्ध है। कर्मरूप से परिणत हुए उन्हीं पुद्गलों का जीव के प्रदेशों के साथ जितने काल तक सम्बन्ध रहता है उसे स्थितिबन्ध कहते हैं।
यह जीव योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध करता है तथा कषाय से स्थितिबन्ध और अनुभागबंध करता है। अथवा योग प्रकृति और प्रदेशबन्ध करता है और कषायें स्थिति तथा अनुभागबन्ध को करती हैं। जिस कारण से ऐसी बात है उसी कारण से अपरिणत-नित्य और उच्छिन्न-निरन्वय क्षणिक पक्ष में अर्थात् आत्मा को सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक मान लेने पर बन्ध स्थिति के कारण नहीं बनते हैं।
अथवा ऐसा सम्बन्ध करना कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशवें गुणस्थान पर्यन्त यह (बंध का) व्याख्यान समझना चाहिए; क्योंकि योग प्रकृति और प्रदेश बंध करते हैं तथा कषायें स्थिति और अनुभाग बन्ध करती हैं इसलिए अपरिणत अर्थात् उपशान्तमोह और उच्छिन्न अर्थात् क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में स्थितिबन्ध के कारण नहीं हैं। उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय सत्ता में तो रहती है, परन्तु
च बन्धस्थितेःकारणं नास्ति। अथवाऽयमभिसम्बन्धः कर्तव्यो मिथ्यादृष्ट्याद्युपशान्तानामेतद् व्याख्यानं वेदितव्यं। कुतो यतो योगः प्रकृतिप्रदेशबन्धौ करोति कषायाश्च स्थित्यनुभागौ कुर्वन्ति, अतोऽपरिणतयोरयोगिसिद्धयोः सयोग्ययोगिनोर्वोच्छिन्नस्य क्षीणकषायस्य च बन्धस्थितेः कारणं नास्ति। ननु क्षीणकषायसयोगिनोर्योगोऽस्ति, सत्यमस्ति, किंतु तस्याकिंचित्करत्वादभाव एवेति।।२४४।।
निर्जराभेदार्थमाह–
पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुविहा।
पढमा विवागजादा विदिया अविवागजादा य।।२४५।।
अथ का निर्जरा ? पूर्वकृतकर्मसटनं गलनं निर्जरेत्युच्यते सा पुनर्निर्जरा द्विविधा द्विप्रकारा भवेत्। प्रथमा विपाकजातोदयस्वरूपेण कर्मानुभवनं। द्वितीया निर्जरा भवेदविपाकजातानुभवमन्तरेणैकहेलया कारणवशात् कर्मविनाशः।।२४५।।
विपाकजाताविपाकजातयोर्निर्जरयोर्दृष्टान्तद्वारेण स्वरूपमाह–
कालेण उवाएण य पच्चंति जधा वणप्फदिफलाणि।
तध कालेण १उवाएण य पच्चंति कदाणि कम्माणि।।२४६।।
उदय में न होने से अपरिणत रहती है और क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में कषाय की सत्ता उच्छिन्न हो जाती है। इस तरह मिथ्यादृष्टि से लेकर दशम गुणस्थान तक चारों बन्ध होते हैं और ११, १२ तथा १३ वें गुणस्थान में मात्र प्रकृति और प्रदेशबन्ध होते हैं। अयोगकेवली गुणस्थान में योग और कषाय-दोनों का अभाव हो जाने से पूर्ण अबन्ध रहता है।
शंका-क्षीणकषाय और सयोगकेवली के तो योग है। पुन: उनके योग का अभाव होने से बंध के कारण का न होना कैसे कहा ?
समाधान-आपका कहना सत्य है किन्तु वहाँ उनके वह योग अकिंचित्कर है अर्थात् कुछ कार्य करने में समर्थ नहीं है अतएव उसका अभाव ही कह दिया है। अर्थात् दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म निर्मूल नाश हो जाने से उसके निमित्त से होने वाले स्थिति और अनुभागबंध नहीं होते हैं।
पुन: सयोगकेवली तक यद्यपि योग से प्रकृति-प्रदेशबन्ध हो रहा है जो कि एक समय मात्र का है उसकी यहाँ पर विवक्षा नहीं करने से ही योग का अभाव कहकर बन्ध के कारण का अभाव कह दिया है; क्योंकि वहाँ का योग और उसके निमित्त से हुए प्रकृति, प्रदेशबन्ध अकिंचित्कर होने से अभावरूप ही हैं।
अब निर्जरा के भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-पूर्वकृत कर्मों का झड़ना निर्जरा है। उसके पुन: दो भेद हैं। विपाक से होने वाली पहली है और अविपाक से होने वाली दूसरी है।।२४५।।
आचारवृत्ति-निर्जरा किसे कहते हैं ? पूर्व में किये गये कर्मों का झड़ना-गलना निर्जरा है। इसके दो भेद होते हैं। उदयरूप से कर्मों के फल का अनुभव करना विपाकजा निर्जरा है और अनुभव के बिना ही लीलामात्र में कारणों के निमित्त से-तपश्चरण आदि से जो कर्म झड़ जाते हैं वह अविपाकजा निर्जरा है।
इन सविपाक और अविपाक निर्जरा को दृष्टांत द्वारा कहते हैं-
गाथार्थ-जैसे वनस्पति और फल समय के साथ तथा उपाय-प्रयोग से पकते हैं, उसी प्रकार संचित किये हुए कर्म समय पाकर तथा उपाय के द्वारा फल देते हैं।।२४६।।
आचारवृत्ति-जैसे काल से-क्रम परिणाम से अर्थात् समय के अनुसार जौ, गेहूँ आदि वनस्पति
यथा कालेन क्रमपरिणामेनोपायेन च यवगोधूमादेर्वनस्पतेः फलानि पच्यन्ते तथा कालेनोदयागतगोपुच्छैरुपायेन च सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोभिः कृतानि कर्माणि पच्यन्ते विनश्यन्ति ध्वस्तीभवन्तीत्यर्थः।।२४६।।
मोक्षपदार्थं निरूपयन्नाह–
रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपण्णो।
एसो जिणोवएसो समासदो बंधमोक्खाणं।।२४७।।
अत्रापि मोचको मोक्षो मोक्षकारणं च प्रतिपादयति बन्धस्य च बन्धपूर्वकत्वान्मोक्षस्य। रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागः पुनर्जीवो मुच्यते। एष जिनोपदेशः आगमः समासतः संक्षेपात् कयोर्बन्धमोक्षयोः। संक्षेपेणायमुपदेशो जिनस्य, रागी बध्नाति कर्माणि वैराग्यं संप्राप्तः पुनर्मुच्यते इति।।२४८।।
अथ पदार्थान् संक्षेपयन् प्रकृतेन च योजयन्नाह–
णव य पदत्था एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा।
एत्थ भवे जा संका दंसणघादी हवदि एसो।।२४८।।
अथ का शंका नाम, एते ये व्याख्याता नवपदार्था जिनोपदिष्टाः, अनेन किमुक्तं भवति वक्तुः प्रामाण्याद्वचनस्य प्रामाण्यं, वर्णिता व्याख्याता मया। तच्चा–तत्त्वभूताः, जिनमतानुसारेण मयानुवर्णिता इत्यर्थः। एत्थभवे–एतेषु
तथा फल पकते हैं और उपाय से भी पकाये जाते हैं। उसी प्रकार से काल से उदय में आये हुए गोपुच्छरूप से तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणरूप उपाय के द्वारा पूर्वसंचित कर्म पकते हैं अर्थात् नष्ट हो जाते हैं, ध्वस्त हो जाते हैं।
भावार्थ-योग्य काल में जैसे-आम, केला आदि पकते हैं तथा उन्हें पाल से असमय में भी पका लिया जाता है। उसी प्रकार से जीव के द्वारा बाँधे गये कर्म समय पर उदय में आकर फल देकर झड़ जाते हैं यह विपाकजा निर्जरा है और समय के पहले ही रत्नत्रय और तपश्चरणरूप प्रयोग के द्वारा उन्हें निर्जीण कर दिया जाता है यह अविपाकजा निर्जरा है। इसके अनौपक्रमिक और औपक्रमिक ऐसे भी सार्थक नाम होते हैं।
अब मोक्ष पदार्थ का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-रागी कर्मों को बाँधता है और विरागसंपन्न जीव कर्मों से छूटता है। बन्ध और मोक्ष के विषय में संक्षेप से यही जिनेन्द्र देव का उपदेश है।।२४७।।
आचारवृत्ति-यहाँ पर भी मोचक, मोक्ष और मोक्ष के कारण इन तीनों का प्रतिपादन करते हैं और बंध का भी व्याख्यान करते हैं क्योंकि बन्धपूर्वक ही मोक्ष होता है। रागी जीव कर्मों को बाँधता रहता है जबकि वीतरागी जीव कर्मों से छूट जाता है। बन्ध और मोक्ष के कथन में संक्षेप से यही जिनेन्द्रदेव का उपदेश-आगम है। तात्पर्य यही है कि जिनेन्द्रदेव का संक्षेप में यही उपदेश है कि राग सहित जीव ही कर्मों का बंध करता है तथा वैराग्य से सहित हुआ जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
अब पदार्थों के कथन को संकुचित करते हुए अपने प्रकृत विषय नि:शंकित अंग को कहते हैं-
गाथार्थ-जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित जो ये नव पदार्थ हैं मैंने उनका वास्तविक वर्णन किया है। उसमें जो शंका हो तो यह दर्शन का घात करने वाली हो जाती है।।२४८।।
आचारवृत्ति-शंका किसे कहते हैं ? जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित जो नव पदार्थ हैं, उन्हीं का यहाँ व्याख्यान किया गया है। इससे क्या समझना ? वक्ता की प्रमाणता से ही वचनों में प्रमाणता मानी जाती है। अर्थात् जिनोपदिष्ट कहने से यह अभिप्राय निकलता है कि अर्हन्त भगवान् वक्ता हैं, वे प्रमाण हैं अतएव उनके
पदार्थेषु भवेत् यस्य शंका स जीवो दर्शनघात्येष मिथ्यादृष्टि:। अथवा शंका सन्दिग्धाभिप्राया सैषा दर्शनघातिनी स्यात्।।२४७।।
किमेते पदार्था नित्या आहोस्विदनित्याः, किं सन्त आहोस्विदविद्यमानाः, यथैते वर्णिता एतैरन्यैरपि बुद्धकणादाक्ष-पादादिभिश्च वर्णिता न ज्ञायन्ते के सत्या इति संशयो दर्शनविनाशहेतुरिति शंकां प्रतिपाद्याकांक्षां निरूपयन्नाह–
तिविहा य होइ कंखा इह परलोए तधा कुधम्मे य।
तिविहं पि जो ण कुज्जा दंसणसुद्धीमुवगदो सो।।२४९।।
त्रिविधा भवति कांक्षाभिलाष इह लोकविषया परलोकविषया तथा कुधर्मविषया च। इह लोके मम यदि
वचन भी प्रामाणिक हैं। अभिप्राय यही है कि जिनमत के अनुसार ही मैंने इन नव पदार्थों का वर्णन किया है, स्वरुचि से नहीं। इन पदार्थों में जिस जीव को ‘यह ऐसा है या नहीं’ ऐसी शंका हो जावे वह जीव सम्यग्दर्शन का घात करने वाला मिथ्यादृष्टि हो जाता है। अथवा संदिग्ध अभिप्राय को भी शंका कहते हैं सो यह भी दर्शन का घात करने वाला है।
क्या ये पदार्थ नित्य हैं अथवा अनित्य ? क्या ये विद्यमान हैं या अविद्यमान ? जैसे ये नव पदार्थ यहाँ बताये गये हैं वैसे ही अन्य बुद्ध, कणाद ऋषि, आचार्य अक्षपाद आदि ने भी वर्णित किये हैं। पुन: समझ में नहीं आता है कि कौन से सत्य हैं और कौन से असत्य हैं, इस प्रकार का जो संशय है
वह सम्यग्दर्शन के विनाश का कारण है ऐसा समझना। इस शंका से रहित साधु नि:शंकित शुद्धि को धारण करने वाले होते हैं।
शंका का स्वरूप बताकर अब आकांक्षा का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-इह लोक में, परलोक में तथा कुधर्म में आकांक्षा होने से यह तीन प्रकार की होती है। जो तीन प्रकार की भी आकांक्षा नहीं करता है वह दर्शन की शुद्धि को प्राप्त हुआ है।।२४९।।
आचारवृत्ति-कांक्षा अर्थात् अभिलाषा के तीन भेद हैं-इह लोक सम्बन्धी, परलोक संबंधी और कुधर्म संबन्धी। यदि मुझे इस लोक में हाथी, घोड़े, द्रव्य, पशु, पुत्र, स्त्री आदि मिलते हैं तब तो यह धर्म सुन्दर
िनिम्नलिखित गाथाएँ फलटन से प्रकाशित में अधिक हैं–
अरहंतसिद्धसाहूसुदभत्ती धम्मम्हि जा हि खलु चेट्ठा।
अणुगमणं य गुरुणं पसत्थरागोत्ति उच्चदि सो।।
अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, साधु और श्रुत इनमें भक्ति रखना; इनके गुणों में प्रेम करना, धर्म में-व्रतादिकों में उत्साह रखना तथा गुरुओं का स्वागत करना, उनके पीछे– पीछे नम्र होकर चलना, अंजलि जोड़ना इत्यादि कार्यों को प्रशस्त राग कहते हैं। (यह गाथा ‘पञ्चास्तिकाय’ में है )
प्रशस्त राग पुण्यसंचय का प्रधान कारण है–
अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपुण्णो। बज्झदि बहु सो पुण्णं ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।।
अर्थात् अर्हंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन–परमागम, गण–चतुर्विध संघ और ज्ञान में जो भक्ति संपन्न है वह बहुत से पुण्य का संचय करता है किन्तु वह कर्मक्षय नहीं करता है। अर्थात् सम्यक्त्व सहित प्रशस्त राग से परम्परया मुक्ति है साक्षात् नहीं है। (यह गाथा भी ‘पंचास्तिकाय’ में है )
अशुभोपयोग का स्वरूप–
विसयकसाओ गाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो।
उग्गो उम्मग्गपरो उबओगो जस्स सो असुहो।।
अर्थात् जो विषय और कषायों में आबद्ध हैं, जो कुशास्त्र के पठन या श्रवण में लगे हैं, अशुभ परिणाम वाले हैं, दुष्टों की गोष्ठी में आनन्द मानते हैं, उग्र स्वभावी हैं और उन्मार्ग में तत्पर हैं; उपर्युक्त प्रकार से जिनका उपयोग है वह अशुभ कहलाता है। (यह गाथा ‘प्रवचनसार’ में है)
गजतुरगद्रव्यपशुपुत्रकलत्रादिकं भवति तदानीं शोभनोऽयं धर्मः। परलोके चैतन्मम स्यात्, भोगा मे सन्तु लोकधर्मश्च शोभनः सर्वपूज्यस्तमहमपि करोमीति कांक्षा। तां त्रिप्रकारामपि यो न कुयात् स जीवो दर्शनशुद्धिमुपगतः। कांक्षामन्तरेण यदि सर्व लभ्यते किमिति कृत्वा काङ्क्षा क्रियते। निंद्यते च सर्वै: काङ्क्षावानिति।।२४९।।
इह लोकाकाङ्क्षां परलोकाकांक्षां च प्रतिपादयन्नाह–
बलदेवचक्कवट्टीसेट्ठीरायत्तणादिअहिलासो।
इहपरलोगे देवत्तपत्थणा दंसणाभिघादी सो।।२५०।।
बलदेवचक्रवर्तिश्रेष्ठ्यादीनां राज्याभिलाष इहलोके यो भवति सेहलोकाकाङ्क्षा। परलोके च स्वर्गादौ देवत्वप्रार्थना यस्य स्यात् दर्शनाभिघाती सः। इहलोके षट्खण्डाधिपतित्वं, बलदेवत्वं, राजश्रेष्ठित्वं, परलोके इन्द्रत्वं, सामान्यदेवत्वं, महर्द्धिकत्वं, १स्वस्वरूपत्वमित्येवमादि प्रार्थयन् मिथ्यादृष्टिर्भवति, निदानशल्यत्वाकांक्षयेति।।२५०।।
है, ऐसा सोचना इहलोक आकांक्षा है। परलोक में ये वस्तुएं मुझे मिलें, भोग प्राप्त होवें, यह सोचना परलोक आकांक्षा है। लौकिक धर्म सुन्दर है, सर्वजनों से पूज्य है, इसको धारण कर लूँ ऐसी आकांक्षा होना कुधर्माकांक्षा है। इन तीनों कांक्षाओं को जो नहीं करता है, वह जीव दर्शनविशुद्धि प्राप्त कर लेता है।
क्योंकि यदि कांक्षा के बिना भी सभी कुछ मिल सकता है, तो क्यों कर कांक्षा करना तथा कांक्षावान् मनुष्य सभी के द्वारा निंदित भी होता है, इसलिए कांक्षा नहीं करना चाहिए।
अब इह लोकाकांक्षा और परलोकाकांक्षा को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-जिसके इस लोक में बलदेव, चक्रवर्ती, सेठ, राजा आदि होने की अभिलाषा होती है और परलोक में देवपने की चाहना होती है वह सम्यग्दर्शन का घाती है।।२५०।।
आचारवृत्ति–जो इस लोक में बलदेव, चक्रवर्ती आदि के राज्य की अभिलाषा करता है, श्रेष्ठी पद चाहता है उसके वह इह-लोकाकांक्षा है। जिसके परलोक में-स्वर्ग आदि में देवपने की प्रार्थना होती है वह परलोकाकांक्षा करता है। ये दोनों आकांक्षाएँ सम्यक्त्व का घात करती हैं। अर्थात् इस लोक में मुझे षट्खण्ड का साम्राज्य, बलदेव पद, राजश्रेष्ठी पद मिले और परलोक में मुझे इन्द्रपद, सामान्य देवपद या महान् ऋद्धिधारी देवपद तथा सुंदर रूप मिले इत्यादि रूप से प्रार्थना करता हुआ जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है, क्योंकि कांक्षा निदानशल्य रूप है, ऐसा समझना।
अब कुधर्माकांक्षा का स्वरूप कहते हैं-
शुद्धोपयोग का लक्षण–
सुविदिदपदत्थजुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगोत्ति।।
अर्थात् सम्यक्प्रकार से जीवादि पदार्थों को जानकर श्रद्धालु संयम और तप से संयुक्त वैराग्य सम्पन्न या वीतरागी और सुख-दुःख में समभावी श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाता है। (यह गाथा भी ‘प्रवचनसार’ में है)
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का स्वरूप–
जं खलु जिणोवदिट्ठं तमेव तत्थमिदि भावदो गहणं।
सम्मद्दंसण भावो तं विवरीदं च मिच्छत्तं।।
अर्थात् जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों का जो स्वरूप है वह सत्य है, ऐसा मानकर उसको परमार्थ से ग्रहण करना सम्यग्दर्शन है और उससे विपरीत ग्रहण करना मिथ्यादर्शन है।
१. क स्वरूप।
कुधर्मकांक्षास्वरूपमाह–
रत्तवडचरगतावसपरि १हत्तादीणमण्णतित्थीणं।
धम्मह्मि य अहिलासो कुधम्मकंखा हवदि एसा।।२५१।।
रक्तपट-चरक-तापस-परिव्राजकादीनामन्यतीर्थिकानां धर्मविषये योऽभिलाषः कुधर्मकांक्षैषा भवति। चत्वारो रक्तपटा वैभाषिकसौत्रान्तिकयोगाचारमाध्यमिकभेदात्। नैयायिकवैशेषिकदर्शने चरकशब्देनोच्येते कणचरादिर्वा। कन्दफलमूलाद्याहारा भस्मोद्गुण्ठनपरा जटाधारिणो विनयपरास्तापसाः।
सांख्यदर्शनस्थाः पंचविंशतितत्त्वज्ञाः परिव्राजकशब्देनोच्यन्ते इत्येवमाद्यन्येष्वपि तैर्थिकमतेष्वभिलाषः कुधर्मकांक्षेति। कथमेषां कुधर्मत्वं चेत् पदार्थानां तदीयानां विचार्यमाणानामयोगात्सर्वथा नित्यक्षणिकोभयत्वात्। इन्द्रियसंयमप्राणसंयमजीवविज्ञानपदार्थसर्वज्ञपुण्यपापादीनां परस्परविरोधाच्चेति।।२५१।।
गाथार्थ-रक्त पट, चरक, तापसी और परिव्राजक आदि के तथा अन्य संप्रदाय वालों के धर्म में जो अभिलाषा है वह कुधर्माकांक्षा है।।२५१।।
आचारवृत्ति-रक्तवस्त्र वाले साधुओं के चार भेद हैं-वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक। अर्थात् बौद्धों के वैभाषिक आदि चार भेद होते हैं। उन्हीं संप्रदायों की अपेक्षा उनके साधुओं के भी चार भेद हो जाते हैं। चरक शब्द से नैयायिक और वैशेषिक दर्शन कहे गये हैं अत: इन सम्प्रदायों के साधु भी चरक कहे जाते हैं।
अथवा कणचर आदि भी चरक हैं अर्थात् खेत के कट जाने पर जो उञ्छावृत्ति से-वहाँ से धान्य बीनकर, लाकर उदर-पोषण करते हैं, वे कणचर हैं। ऐसे साधू चरक कहलाते हैं। कन्दमूल, फल आदि खानेवाले, भस्म से शरीर को लिप्त करने वाले, जटा धारण करनेवाले और सभी की विनय करने वाले तापसी कहलाते हैं।२
सांख्य सम्प्रदाय में कहे गये पच्चीस तत्त्व को मानने वाले परिव्राजक कहलाते हैं। इसी प्रकार और भी जो अन्य सम्प्रदाय हैं उनके मतों की अभिलाषा होना कुधर्माकांक्षा है।
इनमें कुधर्मपना कैसे है ?
इन सभी के यहाँ के मान्य पदार्थों का विचार करने पर उनकी व्यवस्था नहीं बनती है; क्योंकि इनमें कोई पदार्थों को सर्वथा नित्य मानते हैं, कोई सर्वथा क्षणिक मानते हैं और कोई सर्वथा रूप से ही उभय रूप मानते हैं। इसलिए इनकी मान्यताएँ कुधर्म हैं।
तथा इन सभी के यहाँ इन्द्रियसंयम, प्राणीसंयम, जीव का लक्षण, विज्ञान, पदार्थ, सर्वज्ञदेव, पुण्य तथा पाप आदि के विषय में परस्पर विरोध देखा जाता है।
इस प्रकार से इन तीनों कांक्षाओं को नहीं करने वाला जीव निःकांक्षित अंग की शुद्धि का पालन करने वाला है।
विशेषार्थ-बौद्ध दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है ‘सर्व क्षणिकं सत्त्वात्’ सभी पदार्थ क्षणिक हैं, क्योंकि सत्रूप हैं। अर्थात् वे सभी अन्तरंग, बहिरंग पदार्थ को सर्वथा एक क्षण ठहरने वाले मानते हैं। इनके चार भेद हैं-माध्यमिक, योगाचार, सौत्रांतिक और वैभाषिक। माध्यमिक बाह्य और अभ्यंतर सभी वस्तुओं का अभाव कहते हैं अत: ये शून्यवादी अथवा शून्याद्वैतवादी हैं।
योगाचार बाह्य वस्तु का अभाव मानते हैं और मात्र एक विज्ञान तत्व ही स्वीकार करते हैं अत: ये विज्ञानाद्वैतवादी हैं। सौत्रांतिक बाह्य वस्तु को मानकर उसे अनुमान ज्ञान का विषय कहते हैं और वैभाषिक बाह्य वस्तु को प्रत्यक्ष मानते हैं। अर्थात् ये दोनों अन्तरंग, बहिरंग वस्तु
विचिकित्सास्वरूपमाह–
बिदिगिंच्छा वि य दुविहा दव्वे भावे य होइ णायव्वा।
उच्चारादिसु दव्वे खुधादिए भावविदिगिंछा।।२५२।।
विचिकित्सापि द्विप्रकारा द्रव्यभावभेदात् भवति ज्ञातव्या उच्चारप्रश्रवणादिषु मूत्रपुरीषादिदर्शने विचिकित्सा द्रव्यगता क्षुदादिषु क्षुत्तृष्णानग्नत्वादिषु भावविचिकित्सा व्याधितस्य वान्यस्य वा यतेर्मूत्राशुचिच्छर्दिश्लेष्मलालादिकं यदि दुर्गन्धिविरूपमिति कृत्वा घृणां करोति वैयावृत्यं न करोति स द्रव्यविचिकित्सायुक्तः स्यात्। सर्वमेतच्छोभनं न क्षुधातृष्णानग्नत्वेन केशोत्पाटनादिना च दुःखं भवति एतद्विरूपकमित्येवं भावविचिकित्सेति।।२५२।।
को तो मानते हैं किन्तु सभी को सर्वथा क्षणिक कहते हैं।
बौद्ध के इन चार भेदों की अपेक्षा उनके साधुओं में भी चार भेद हो जाते हैं।
नैयायिक सम्प्रदाय वाले ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं। इनके यहाँ सोलह तत्त्व माने गये हैं-प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान। इन्हें ये पदार्थ भी कहते हैं।
वैशेषिक भी ईश्वर को सृष्टि का कर्ता सिद्ध करते हैं। इन्होंने सात पदार्थ माने हैं-द्रव्य, गुण, कर्म , सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव।
इन पदार्थों के अतिरिक्त अन्य विषयों में प्राय: नैयायिक और वैशेषिक की मान्यताएँ एक ही हैं।
‘‘एक महर्षि कणाद नाम के हुए हैं इन्होंने ही वैशेषिक दर्शन को जन्म दिया है। कहा जाता है कि ये इतने संतोषी थे कि खेतों से चुने हुए अन्न को लाकर ही अपना जीवनयापन करते थे। इसलिए उपनाम कणाद या कणचर हो गया। इनका वास्तविक नाम उलूक था।’’
तापसियों का लक्षण तो स्पष्ट ही है।
सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्त्व माने गये हैं। इनके यहाँ मूल में दो तत्त्व हैं-प्रकृति और पुरुष। प्रकृति से हो तो सारा संसार बनता है और पुरुष भोक्ता मात्र है; कर्ता नहीं है।।२५१।।
अब विचिकित्सा का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ–द्रव्य और भाव के विषय की अपेक्षा विचिकित्सा दो प्रकार की होती है ऐसा जानना। मल-मूत्र आदि द्रव्यों में द्रव्य विचिकित्सा और क्षुधा आदि भावों में भाव विचिकित्सा होती है।।२५२।।
आचारवृत्ति-विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि के द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं। मल- मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं को देखकर उनमें ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है और भूख, प्यास, नग्नत्व आदि में ग्लानि करना भाव विचिकित्सा है।
अर्थात् व्याधि से पीड़ित अथवा अन्य मुनि के मूत्र, मल, वमन, कफ और थूक, लार आदि के विषय में ये दुर्गंधित हैं, खराब हैं, ऐसा सोचकर घृणा करता है, उन मुनि की वैयावृत्ति नहीं करता है वह द्रव्य विचिकित्सा करने वाला कहलाता है। जैन मत में और तो सभी सुंदर है, किन्तु जो भूख, प्यास या नग्नता से तथा केशलोंच आदि से दु:ख होता है वह बुरा है, ठीक नही है, ऐसा सोचना भाव विचिकित्सा है।
द्रव्य विचिकित्सा को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
द्रव्यविचिकित्साप्रपंचनार्थमाह–
उच्चार पस्सवणं खेलं सिंहाणयं च चम्मट्ठी।
पूयं च मंससोणिदवंतं जल्लादि साधूणं।।२५३।।
उच्चारं, प्रश्रवणं, खेलं-श्लेष्मा, सिंहानकं, चर्मं, अस्थिपूयं च क्लिन्नरुधिरं, मांसं१, मलं, शोणितं, वान्तं, जल्लं, सर्वांगीनं, मलं अंगैकदेशाच्छादकं, लालादिकं च साधूनामिति।।२५३।।
भावविचिकित्सां प्रपंचयन्नाह–
छुहतण्हा सीदुण्हा दंसमसयमचेलभावो य।
अरदिरदिइत्थिचरियाणिसीधिया सेज्जअक्कोसो२।।२५४।।
बधजायणं अलाहो रोग तणप्फास जल्लसक्कारो।
तह चेव पण्णपरिसह अण्णाणमदंसणं खमणं।।२५५।।
छुह–क्षुत् चारित्रमोहनीयवीर्यान्तरायापेक्षाऽसातावेदनीयोदयादशनाभिलाषः। तण्हा–तृषा चारित्रमोहनीय-वीर्यान्तरायापेक्षाऽसातावेदनीयोदयादुदकपानेच्छा। सीद–शीतं तद्द्वयपेक्षाऽसातोदयात्प्रावरणेच्छाकाररणपुद्गलस्कंधः। उण्हा–उष्णं पूर्वोक्तप्रकारेण सन्निधानाच्छीताभिलाषकारणादित्यज्वरादिसन्तापः।
दंसमसयं–दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकं दंशमशवैâः खाद्यमानस्य शरीरपीडा दंशमशकमित्युच्यते कार्ये कारणोपचारात्। अचेलभावो य–अचेलकत्वं नाग्न्यमिति यावत्। अरदिरदि–अरतिरती चारित्रमोहोदयात् चारित्रद्वेषासंयमाभिलाषौ। इत्थि–स्त्रीकटाक्षेक्षणादिभिर्योषिद्वाधा कार्ये
गाथार्थ-साधुओं के मल, मूत्र, कफ, नाक का मल, चर्म, हड्डी, पीव, मांस, खून, वमन और पसीने तथा धूलि से युक्त मल को देखकर ग्लानि होना द्रव्य विचिकित्सा है।।२५३।।
आचारवृत्ति-मल, मूत्रादि का अर्थ सरल है। सर्वांगीण मल को जल्ल कहते हैं और शरीर के एक देश को प्रच्छादित करने वाला मल कहलाता है। आदि शब्द से थूक, लार आदि को देखकर ग्लानि होना द्रव्य विचिकित्सा है।
भाव विचिकित्सा को कहते हैं-
गाथार्थ-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, रति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इनके परीषह को सहन नहीं करना भावविचिकित्सा है।।२५४-२५५।।
आचारवृत्ति-१चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तराय कर्म की अपेक्षा लेकर असाता वेदनीय का उदय होने से जो भोजन की अभिलाषा है वह क्षुधा है।
२. चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तराय की सहायता से तथा असातावेदनीय के उदय से जो जल पीने की इच्छा है वह तृषा है।
३. चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तराय की अपेक्षा करके और असाता के उदय से जो शरीर को ढकने की इच्छा के कारणभूत पुद्गलस्कन्ध हैं उसे शीत कहते हैं।
४. पूर्वोक्त प्रकार तीनों कर्मों के सन्निधान से ठण्ड की अभिलाषा के लिए कारणभूत सूर्य अथवा ज्वर आदि से जो संताप होता है वह उष्ण कहलाता है।
५. डांस और मच्छरों के द्वारा डसने पर जो शरीर में पीड़ा होती है वह दंसमशक कहलाती है। अर्थात्
कारणोपचारात्। चरिया–चर्या आवश्यकाद्यनुष्ठानपरस्यातिश्रान्तस्याप्युपानत्कादिरहितस्यापि मार्गयानं। निसीधिया–निषिद्या श्मशानोद्यानशून्यायतनादिषु वीरासनोत्कुटिकाद्यासनजनितपीडा। सेज्जा–शय्या स्वाध्यायध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य खरविषमप्रचुरशर्कराद्याकीर्णभूमौ शयनस्यैकपार्श्वे दण्डशयनादिशय्याकृतपीडा। अक्कोसो–आक्रोशस्तीर्थयात्राद्यर्थपर्यटतः मिथ्यादृष्टिविमुक्तावज्ञासंघनिन्दावचनकृताबाधा।
वह–बधः मुद्गरादिप्रहरणकृतपीडा। जायणं–अयाञ्चा अकारोत्र लुप्तो द्रष्टव्यः प्राणात्ययेऽपि रोगादिभिः पीडितस्यायाचयतः अयाञ्चापीडा। अथवा वरं मृतो न कश्चिद्याचितव्यः शरीरादिसंदर्शनादिभिः यांचा तु नाम महापीडा। अलाहो–अलाभः अंतरायकर्मोदयादाहाराद्यलाभकृतपीडा। रोय–रोगो ज्वरकासभगन्दरादिजनितव्यथा। तणफ्फास–तृणस्पर्शः शुष्कतृण-परुषशर्कराकण्टकनिशितमृत्तिकाकृतशरीरपादवेदना।
यहाँ कार्य में कारण का उपचार किया है। इसलिए दंशमशक को ही परिषह कह दिया है।
६. नग्न अवस्था का नाम अचेलकत्व है।
७. चारित्रमोह के उदय से चारित्र में द्वेष-अरुचि होना और असंयम की अभिलाषा होना सो अरतिरति-परिषह है।
८. स्त्रियों का कटाक्ष से देखना आदि द्वारा जो बाधा है यह स्त्री-परीषह है। यहाँ पर भी कार्य से कारण का उपचार किया है।
९. आवश्यक आदि क्रियाओं के अनुष्ठान में तत्पर, जो कि अत्यन्त थके हुए हैं, उनका पादत्राण आदि से रहित होकर भी-नंगे पैरों जो मार्ग में चलना है वह चर्या-परीषह है।
१०. श्मशान में, उद्यान में या शून्य मकान आदि में वीरासन, उत्कुटिकासन आदि आसनों से बैठने पर जो पीड़ा होती है वह निषद्या-परीषह है।
११. स्वाध्याय, ध्यान या मार्ग का श्रम, इनसे थके हुए मुनि तीक्ष्ण, विषम-ऊँची–नीची या अधिक कंकरीली रेत आदि से व्याप्त भूमि में जो एक पसवाड़े से या दण्डाकार आदिरूप से शयन करते हैं उस शयन आदि में जो शय्या के निमित्त से शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती हैं वह शय्या-परिषह है।
१२. तीर्थ यात्रा आदि के लिए जाते हुए मुनि के प्रति जो मिथ्यादृष्टि जन अवज्ञा करते हैं या संघ की निन्दा के वचन बोलते हैं उससे हुई बाधा आक्रोश-परिषह है।
१३. मुद्गर आदि के प्रहार से की गयी पीड़ा बध-परीषह है।
१४. रोगादि के निमित्त से पीड़ा होने पर भले ही प्राण चले जायें किन्तु कुछ भी याचना नहीं करते हुए मुनि के अयाचना-परीषह होती है। यहाँ पर याञ्चा पद में अकार का लोप समझना चाहिए इसलिए याञ्चा शब्द से अयाञ्चा ही ग्रहण करना चाहिए अथवा मरना अच्छा है। किन्तु कुछ भी याचना करना बुरा है, क्योंकि याचना यह बहुत बड़ा दु:ख है, ऐसा सोचकर शरीर से या मुख के म्लान आदि किसी संकेत के द्वारा कुछ भी नहीं माँगना यह याञ्चा-परीषहजय है।
१५. अंतराय कर्म के उदय से आहार आदि का लाभ न होने से जो बाधा होती है वह अलाभ परीषह है।
१६. ज्वर, खांसी, भगंदर आदि व्याधियों से हुई पीड़ा रोग-परीषह है।
१७. सूखे तृण, कठिन कंकरीली रेत, काँटा, तीक्ष्ण, मिट्टी आदि से जो शरीर या पैर में वेदना होती है वह तृणस्पर्श परीषह है।
१८. सर्वांगीण मल को जल्ल कहते हैं अर्थात् स्नान आदि के नहीं करने से तथा पसीने आदि से उत्पन्न
जल्ल–सर्वांगीणं मलमस्नानादिजनितप्रस्वेदाद्युद्भवा पीडा। सक्कारो–सत्कारः पूजाप्रशंसात्मकः। पुरस्कारो–नमनक्रियारम्भादिष्वग्रतः करणमामंत्रणं। तह चैव–तथा चैव। पण्ण–प्रज्ञा विज्ञानमदोद्भूतगर्वः। परिसह–परीषहः। पीडाशब्दः सर्वत्रापि सम्बध्यते। क्षुत्परिषहः, तृणपरिषहः, दंशमशकपिपीलिकामत्कुणादिभक्षणपरीषह इत्यादि।
अण्णाणं–अज्ञानं सिद्धान्तव्याकरणतर्कादिशास्त्रापरिज्ञानोद्भूतमनःसन्तापः। अदंसणं–अदर्शनं महाव्रतानुष्ठानेनाप्यदृष्टातिशयबाधा, उपलक्षणमात्रमेतत् अन्येप्यत्र पीडाहेतवो द्रष्टव्याः। एतैः परीषहैर्व्रताद्यभंगेऽपि संक्लेशकरणं भावविचिकित्सा। खमणं–क्षमणं सहनं तत्प्रत्येकमभिसम्बध्यते क्षुत्परीषहक्षमणं तृट्परीषहक्षमणमित्यादि। ततः परीषहजयो भवति ततश्च भावविचिकित्सा दर्शनमलं निराकृतं भवतीति।।२५४-२५५।।
दृष्टिमोहप्रपंचनार्थमाह–
लोइयवेदियसामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं।
णच्चा दंसणघादी ण य कायव्वं ससत्तीए।।२५६।।
लोइय–लोकः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रास्तस्मिन् भवो लौकिक : आचार इति सम्बन्धः। वेदेषु–सामऋग्यजुःषु भवो वैदिकः आचारः। समयेषु–नैयायिकवैशेषिकबौद्धमीमांसकापिललोकायतिकेषु भव आचारः सामयिकस्तेषु लौकिकवैदिकसामयिकेषु आचारेषु क्रियाकलापेषु तथान्यदेवकेषु। मूढत्तं–मूढत्वं मोहः परमार्थरूपेण ग्रहणं तद्दर्शनघाति। सम्यक्त्वविनाशं ज्ञात्वा तस्मात्तन्मूढत्वं सर्वशक्त्या न कर्तव्यं।।२५६।।
लौकिकमूढत्वप्रपंचनार्थमाह–
कोडिल्लमासुरक्खा भारहरामायणादि जे धम्मा।
होज्जु व तेसु विसुत्ती लोइयमूढो हवदि एसो।।२५७।।
कोडिल्ल–कुटिलस्य भाव: कौटिल्यं तदेव प्रयोजनं यस्य धर्मस्य स: कौटिल्यधर्म: ठकादिव्यवहारो लोकप्रतारणाशीलो धर्म: परलोकाद्यभावप्रतिपादनपरो व्यवहार:। आसुरक्खा–असव: प्राणास्तेषां छेदनभेदन- ताडनत्रासनोत्पाटनमारणादिप्रपंचेन वञ्चनादिरूपेण वा रक्षा यस्मिन् धर्मे स आसुरक्षो धर्मो नगराद्यारक्षिकोपायभूत:।
अथवा कौटिल्यधर्म:, इंद्रजालादिकं पुत्रबन्धुमित्रपितृमातृस्वाम्यादिघातनोपदेश:, चाणक्योद्भव आसुरक्ष: मद्यमांसखादना-द्युपदेश:। बलाधानरोगाद्यपनयनहेतु: वैद्यधर्म:। भारतरामायणादिका: पंचपाण्डवानामेका योषित्, कुंतिश्च पंचभर्तृका, विष्णुश्च सारथि:, रावणादयो राक्षसा:, हनुमानादयश्च मर्कटा: इत्येवमादिका असद्धर्मप्रतिपादनपरा ये धर्मास्तेषु या भवेद्विश्रुतिर्विपरिणाम: एतेपि धर्मा इत्येवं मूढो लौकिकमूढो भवत्येष इति।।२५७।।
आचार लौकिक आचार है। सामवेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद इनमें कथित आचार वैदिक आचार है। नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, मीमांसक, सांख्य और चार्वाक इनसे सम्बन्धित आचार सामयिक आचार है। अर्थात् लौकिक आदि क्रियाकलापों में तथा अन्य देवों में जो मूढ़ता-मोह है उसे परमार्थरूप से जो ग्रहण करता है वह दर्शन का घात करनेवाला है। इस मूढ़ता से सम्यक्त्व का विनाश जानकर सर्वशक्ति से इनमें मोह को प्राप्त नहीं होना चाहिए।
लौकिक मूढ़त्व को कहते हैं-
गाथार्थ-कौटिल्य, प्राणिरक्षण, भारत, रामायण आदि सम्बन्धी जो धर्म हैं, उनमें जो विपरिणाम का होना है-यह लौकिक मूढ़ता है।।२५७।।
आचारवृत्ति-कुटिल का भाव कुटिलता है। वह कुटिलता ही जिस धर्म का प्रयोजन है वह कौटिल्य धर्म है। जो ठगने आदि का व्यवहाररूप लोगों की वंचना में तत्पर धर्म है अर्थात् जो परलोक आदि के अभाव को कहनेवाला धर्म है वह सब कौटिल्यधर्म है।
जिस धर्म में असु-प्राणों के छेदन, भेदन, ताड़न, त्रास देना, उत्पाटन करना, मारना इत्यादि प्रकार से अथवा वंचना आदि प्रकार से प्राणों की रक्षा की जाती है वह आसुरक्ष धर्म है अर्थात् नगर आदि की रक्षा में नियुक्त हुए कोतवाल आदि के जो धर्म हैं वे आसुरक्ष धर्म हैं।
अथवा इन्द्रजाल आदि कार्य; पुत्र, भाई, मित्र, पिता, माता, स्वामी आदि के घात करने का उपदेश जो कि चाणक्य द्वारा उत्पन्न हुआ है, कौटिल्यधर्म है। मद्य पीना, मांस खाना इत्यादि का उपदेश आसुरक्ष है। बल को बढ़ाने, रोगादि को दूर करने आदि के लिए उपायभूत वैद्य का धर्म है।
भारत और रामायण आदि में जो कहा गया है कि पाँचों पाण्डवों की एक पत्नी द्रोपदी थी और कुन्ती भी पाँच पतिबाली थी, पाण्डवों के युद्ध में विष्णु भगवान सारथी थे, रावण आदि राक्षस थे, हनुमान् आदि बन्दर थे, इत्यादि रूप से असत् धर्म के प्रतिपादन करनेवाले जो धर्म हैं उन धर्मों के विषय में जो विश्रुति–विपरिणाम है अर्थात् ये भी सब धर्म हैं इत्यादि रूप से मोह को प्राप्त होना लौकिक मूढ़ता है ऐसा समझना।
वैदिक मोह का प्रतिपादन करते हैं-
वैदिकमोहप्रतिपादनार्थमाह–
रिव्वेदसामवेदा वागणुवादादिवेदसत्थाइं।
तुच्छाणित्तिण१ गेण्हइ वेदियमूढो हवदि एसो।।२५८।।
रिव्वेद–ऋग्वेद:। सामवेद:। वाग्–वाव्â, ऋच:। अणुवाग्–अनुवाक् कंडिकासमुदाय:। अथवा वाव्â- ऋग्वेदप्रतिबद्धप्रायश्चित्तादि:, अनुवाव्â मन्वादिस्मृतय:। आदि शब्देन यजुर्वेदाथर्वणादय: परिगृह्यन्ते। वेदसत्थाइं– वेदशास्त्राणि िंहसोपदेशकानि अग्न्यादिकार्यप्रतिपादकानि। गृह्यसूत्रारण्यगर्भाधानपुंसवननामकर्मान्नप्राशनचौलोपन-यनव्रतबन्धनसौत्रामण्यादिप्रतिपादकानि
नन्दकेशर२गौतमयाज्ञवल्क्यपिप्पलादवररुचिनारदवृहस्पतिशुक्रबुद्धा३दिप्रणीतानि तुच्छानि धर्मरहितानि निरर्थकानीति यदि न गृþाति (यदि गृह्णाति) वैदिकाचारमूढो भवत्येष इति।।२५८।।
सामयिकमोहप्रतिपादनार्थमाह–
रत्तवडचरगतावसपरिहत्ता४दीय अण्णपासंढा।
संसारतारगत्ति य जदि गेण्हइ५ समयमूढो सो।।२५९।।
रक्तवड–रक्तपट:। चरग–चरक:। काजवाहेन कणभिक्षाहारा:, अथवा भिक्षावेलायां हस्तलेहनशीला उत्सिष्टा: कालमुखादय:। तावसा–तापसा: कन्दमूलफलाद्याहारा वनवासिन: जटाकौपीनादि–धारिण:। परिहत्ता–
गाथार्थ-ऋग्वेद, सामवेद, उनके वाक् और अनुवाद आदि से सम्बन्धित तुच्छ जो वेदशास्त्र हैं उन्हें जो ग्रहण करता है वह वैदिक मूढ़ होता है।।२५८।।
आचारवृत्ति-ऋग्वेद सामवेद, वाक्-ऋचाएँ, अनुवाक्-कंडिका का समूह। अथवा वाक् अर्थात् ऋग्वेद में कहे गये प्रायश्चित्त आदि तथा अनुवाक् अर्थात् मनु आदि ऋषियों द्वारा बनाये गये मनुस्मृति आदि।
आदि शब्द से यजुर्वेद, अथर्ववेद आदि का भी ग्रहण किया जाता है। हिंसा आदि के प्रतिपादक वेदशास्त्र, अग्नि-होम आदि कार्य के प्रतिपादक गृह्यसूत्र, आरण्य, गर्भाधान, पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल-मुंडन, उपनयन, व्रतबन्धन, सौत्रामणि-यज्ञविशेष आदि के प्रतिपादक जो शास्त्र हैं तथा जो नंदि केश्वर, गौतम, याज्ञवल्क्य, पिप्पलाद, वररुचि, नारद, वृहस्पति, शुक्र और बुद्ध आदि के द्वारा प्रणीत हैं ये सब शास्त्र तुच्छ हैं-धर्मरहित, निरर्थक हैं। यदि कोई मुनि इनको ग्रहण करता है तो वह वैदिकाचारमूढ़ कहलाता है।
भावार्थ-ऋग्वेद आदि वेदों में हिंसा का उपदेश तथा परस्परविरोधी एकान्त कथन है। ऐसे ही मनुस्मृति भी कुशास्त्र हैं। इनमें कहे आचरण का मानने वाला वैदिकाचारमूढ़ माना जाता है। वह अपने सम्यक्त्व का नाश कर देता है।
सामयिक मोह का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-रक्तवस्त्रवाले साधु, चरक, तापस, परिव्राजक आदि तथा अन्य भी पाखंडी साधु संसार से तारनेवाले हैं इस तरह यदि कोई ग्रहण करता है तो वह समयमूढ़ होता है।।२५९।।
आचारवृत्ति-रक्तपट और चरक साधुओं का लक्षण पहले किया जा चुका है। अर्थात् बौद्ध भिक्षुओं को रक्तपट और नैयायिक, वैशेषिक साधुओं को चरक कहते हैं। अथवा भिक्षा की बेला में हाथ चाटने का जिनका स्वभाव है और जो धान्य का कण बीनकर आहार करनेवाले हैं ऐसे अन्यमतीय साधु ‘चरक’ हैं। इनमें कालमुख आदि भेद हैं। कंद, मूल और फल आदि भक्षण करनेवाले, वन में रहने वाले और जटा, कौपीन आदि को धारण करने वाले तापस कहलाते हैं। एक दण्डी, त्रिदण्डी आदि साधू परिव्राजक हैं। ये स्नान में धर्म
परिव्राजका एकदण्डित्रिदण्डयादय: स्नानशीला शुचिवादिन:। आदिशब्देन शैव–पाशुपति– कापालिकादय: परिगृह्यन्ते। (अण्ण पासंडा)। एते िंलगिन: संसारतारका: शोभनानुष्ठाना यद्येवं गृþाति समश्मूढोऽसाविति।।२५९।।
देवमोहप्रतिपादनार्थमाह–
ईसरबंभाविण्हूअज्जाखंदादिया य जे देवा।
थे देवभावहीणा देवत्तणभावणे मूढो।।२६०।।
ईश्वर– ब्रह्म– विष्णु– भगवती– स्वामिकार्तिकादयो ये देवास्ते देवभावहीना: चतुर्णिकायदेवस्वरूपेण सर्वज्ञत्वेन च रहितास्तेषूपरि यदि देवत्वपरिणामं करोति तदानीं देवत्वभावेन मूढो भवतीत्यर्थ।।२६०।।
उपगूहनस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
दंसणचरणविवण्णे जीवे दट्ठूण धम्मभत्तीए।
उपगूहणं किंरतो दंसणसुद्धो हवदि एसो।।२६१।।
दर्शनचरणविपन्नान् सम्यग्दर्शनचारित्रम्लानान् जीवान् दृष्ट्वा धर्मभक्त्या वा उपगूहयन् उज्वलयन् संवरयन्वा एतेषामूपगूहनं संवरणं कुर्वन् दर्शनशुद्धो भवत्येष उपगूहनकर्तेति।।२६१।।
मानने वाले और अपने को पवित्र मानने वाले हैं। आदि शब्द से शैव, पाशुपति, कापालिक आदि का भी संग्रह किया जाता है और भी अन्य पाखण्डी साधू जो अनेक लिंग धारण करने वाले हैं। ये संसार से तारनेवाले हैं, इनके आचरण सुंदर है-यदि ऐसा कोई ग्रहण करता है तो वह समयमूढ़ कहलाता है।
देवमोह का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, कार्तिक आदि जो देव हैं वे देवपने से रहित हैं उनमें देवभावना करने पर वह देवमूढ़ होता है।।२६०।।
आचारवृत्ति-ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, भगवती-पार्वती, स्वामीकार्तिक आदि जो कि देव माने गये हैं। ये चतुर्निकाय के देवों के स्वरूप से भी देव नही हैं और सर्वज्ञदेव के स्वरूप से भी देव नहीं है, अत: सभी तरह से ये देवभाव से रहित हैं। यदि कोई इन पर देवत्व परिणाम करता है तब वह देवत्व भाव से मूढ़ हो जाता है।
भावार्थ-अमूढ़दृष्टि अंग से विपरीत मूढ़दृष्टि होती है जिसका अर्थ है मूढ़दृष्टि का होना। यहाँ पर इसे ही दृष्टिमूढ़ कहा है और उसके चार भेद किये है-लौकिकमोह, वैदिकमोह, सामयिकमोह और देवमोह। इन चारों प्रकार के मोह से रहित होनेवाले साधु अमूढ़दृष्टि अंग का पालन करते हुए अपने दर्शनाचार को निर्मल बना लेते है।
अब उपगूहन का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-दर्शन या चारित्र से शिथिल हुए जीवों को देखकर धर्म की भक्ति से उनका उपगूहन करते हुए यह दर्शन से शुद्ध होता है।।२६१।।
आचारवृत्ति-जो सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र में म्लान हैं-भ्रष्ट हैं, ऐसे जीवों को देखकर धर्म की भक्ति से उनके दर्शन और चारित्र को उज्जवल करते हुए अथवा उनके दोषों को ढकते हुए उनका उपगूहन-दोषों का छादन करते हुए मुनि सम्यक्त्व की शुद्धि को प्राप्त करता है। यह साधू उपगूहन का करनेवाला होता है।
भावार्थ-सम्यक्त्व या चारित्र में दोष लगाने वालों को देखकर उनके दोषों को दूर करते हुए, उनके
स्थिरीकरणस्वरूपं प्रतिपादनायाह–
दंसणवरणुवभट्ठे१ जीवे द्टठूण धम्मबुद्धीए।
हिदमिदमवगूहिय ते खिप्पं तत्तो णियत्तेइ।।२६२।।
दर्शनचरणोपभ्रष्टान् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो भ्रष्टान्निर्गतान् जीवान् दृष्ट्वा धर्मबुद्ध्या हितमितवचनै: सुखनिमित्तै: पूर्वापरविवेकसहितैर्वचनैरवगूह्य स्वीकृत्य तेभ्यो दोषेभ्य: क्षिप्रं शीघ्रं तान्निर्वर्तयन् निवर्तयति य: स स्थिरीकरणं कुर्वन् दर्शनशुद्धो भवतीति सम्बन्ध:।।२६२।।
वात्सल्यार्थं प्रतिपादयन्नाह–
चादुव्वण्णे संघे चदुगदिसंसारणित्थरणभूदे।
वच्छल्लं कादव्वं वच्छे गावी जहा गिद्धी।।२६३।।
चातुर्वर्णे ऋष्यार्यिकाश्रावकश्राविकासमूहे संघे चतुर्गतिसंसारनिस्तरणभूते नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिषु यत्संसरणं भ्रमणं तस्य विनाशहेतौ वात्सल्यं यथा नवप्रसूता गौर्वत्से स्नेहं करोति। एवं वात्सल्यं कुर्वन् दर्शनविशुद्धो भवति। वात्सल्यं च कायिक-वाचिक-मानसिकानुष्ठानै: सर्वप्रयत्नेनोपकरणौषधाहारावकाश–शास्त्रादिदानै: संघे कर्तव्यमिति।।२६३।।
गुणों को बढ़ाना और उनके दोषों को प्रकट नहीं करना उपगूहन अंग है। यह सम्यक्त्व को निर्मल बनाता है।
स्थिरीकरण का स्वरूप बताते हैं-
गाथार्थ-सम्यग्दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्म की बुद्धि से हितमित वचन से उन्हें स्वीकार करके उनको शीघ्र ही उन दोषों से हटाना स्थिरीकरण है।।।२६२।।
आचारवृत्ति-सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्म की बुद्धि से सुख के लिए कारणभूत पूर्वापर विवेक सहित ऐसे हित-मित वचनों से उन्हें स्वीकार करके या समझा करके शीघ्र ही उन दोषों से उनको वापस करना-उन दोषों से उन्हें हटा देना, वापस पुनः उन्हीं दर्शन या चारित्र में स्थिर कर देना स्थिरीकरण है।
इस स्थिरीकरण को करते हुए मुनि अपने सम्यग्दर्शन को विशद्ध कर लेता है। अर्थात् अन्य को च्युत होते हुए देख उन्हें जैसे-तैसे वापस उसी में दृढ़ करना स्थिरीकरण अंग है।
वात्सल्य का अर्थ प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-चारों गतिरूप संसार से पार करने में कारणभूत ऐसे चतुर्विध संघ में वात्सल्य करना चाहिए। जैसे, बछड़े में गौ की आसक्ति का होना।।२६३।।
आचारवृत्ति-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में जो संसरण है, भ्रमण है, उसी का नाम संसार है। ऐसे संसार के नाश हेतु ऋषि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के समूहरूप चतुर्विध संघ में वात्सल्य करना चाहिए। जैसे नवीन प्रसूता गौ अपने बछड़े में स्नेह करती है उसी तरह वात्सल्य को करते हुए मुनि दर्शनशुद्धि सहित होते हैं। अर्थात् कायिक, वाचिक और मानसिक अनुष्ठानों के द्वारा सम्पूर्ण प्रयत्न से संघ में उपकरण, औषधि, आहार, आवास-स्थान और शास्त्र आदि का दान करके वात्सल्य करना चाहिए।
भावार्थ-जैसे गाय का अपने बछड़े पर सहज प्रेम होता है वैसे ही चतुर्विध संघ के प्रति अकृत्रिम प्रेम होना वात्सल्य है। यह धर्मात्माओं का धर्मात्माओं के प्रति होता है। ऐसे वात्सल्य अंगधारी मुनि अपने सम्यक्त्व को निर्दोष करते हैं।
प्रभावना का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कहते हैं-
प्रभावनास्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
धम्मकहाकहणेण य बाहिरजोगेिंह चावि१ णवज्जेिंह।
धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए।।२६४।।
धर्मकथाकथनेन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिताख्यानेन सिद्धान्ततर्कव्याकरणादिव्याख्यानेन धर्मपापादिस्वरूपकथनेन वा बाह्ययोगैश्चापि अभ्रावकाशातापनवृक्षमूलानशनाद्यनवद्यैर्हिंसादिदोषरहितैर्धर्म: प्रभावयितव्यो मार्गस्योद्योत: कर्तव्यो जीवदयानुकम्पायुक्तेन, अथवा जीवदयानुकम्पया च धर्म: प्रभावयितव्य: तथापि-शब्दसूचितै: परवादिजयाष्टांगनिमित्त-दानपूजादिभिश्च धर्म: प्रभावयितव्य इति।।२६४।।
अधिगमस्वरूपं प्रतिपाद्य नैसर्गिकसम्यक्त्वस्वरूपप्रतिपादनायाह–
जं खलु जिणोवदिट्ठं तमेव तत्थित्ति भावदो गहणं।
सम्मद्दंसणभावो तव्विवरीदं च मिच्छत्तं।।२६५।।
गाथार्थ-धर्म कथाओं के कहने से, निर्दोष बाह्य योगों से और जीवों में दया की अनुकम्पा से धर्म की प्रभावना करना चाहिए।।२६४।।
आचारवृत्ति-चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव वासुदेव और नव प्रतिवासुदेव ये त्रेसठ शलाकापुरुष हैं। इनके चरित्र का आख्यान-वर्णन करना, सिद्धान्त, तर्क, व्याकरण आदि का व्याख्यान करना अथवा धर्म और पाप आदि के स्वरूप का कथन करना यह धर्मकथा है। शीत ऋतु में खुले मैदान में ध्यान करना अभ्रावकाश है। ग्रीष्म ऋतु में पर्वत की चोटी पर ध्यान करना आतापन है। वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान करना वृक्षमूल है।
जीव दया की अनुकम्पा से युक्त होकर धर्म कथाओं के कहने से, इन बाह्य योगों से, निर्दोष-हिंसा आदि दोषरहित अनशन-उपवास आदि तपश्चरणों से धर्म की प्रभावना करना चाहिए अर्थात् जिनमार्ग को उद्योतित करना चाहिए। अथवा जीवदया रूप अनुकम्पा से भी धर्म की प्रभावना करना चाहिए। तथा ‘अपि’ शब्द से सूचित होता है कि परवादियों से शास्त्रार्थ करके उन पर जय से अष्टांग निमित्त के द्वारा तथा दान, पूजा आदि के द्वारा भी धर्म की प्रभावना करना चाहिए।
भावार्थ-धर्मोपदेश के द्वारा घोर-घोर तपश्चरण और ध्यान आदि के द्वारा, जीवों की रक्षा के द्वारा तथा परवादियों से विजय द्वारा, अष्टांग निमित्त के द्वारा; आहार, औषधि, अभय और ज्ञानदान द्वारा तथा महापूजा महोत्सव आदि के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना की जाती है।
इस प्रकार से अधिगम सम्यक्त्व का स्वरूप प्रतिपादित करके अब नैसर्गिक सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-जो जिनेन्द्र देव ने कहा है वही वास्तविक है इस प्रकार से जो भाव से ग्रहण करना है सो सम्यग्दर्शन है और उससे विपरीत मिथ्यात्व है।।२६५।।
आचारवृत्ति-जिन तत्त्वों का जिनेन्द्रदेव ने उपदेश किया है स्पष्टरूप से वे ही सत्य हैं इस प्रकार
१. क वि अण्णवज्जो।
ि फलटन से प्रकाशित प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्नलिखित गाथा दी है-
संवेगो वेरग्गो णिंदा गरिहा य उवसमो भत्ती।
अणुकंपा वच्छल्ला गुणा य सम्मत्तजुत्तस्स।।
अर्थ-संवेग, वैराग्य, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य-सम्यक्त्व के ये आठ गुण होते हैं।
यत्तत्त्वं जिनैरुपदिष्टं प्रतिपादितं तदेव तथ्यं सत्यं खलु व्यक्तमित्येवं भावत: परमार्थेन ग्रहणं यत्सम्यग्दर्शनभाव: आज्ञासम्यक्त्वमिति यावत्। तद्विपरीतं मिथ्यात्वमसत्यरूपेण जिनोपदिष्टस्य तत्त्वस्य ग्रहणं मिथ्यात्वं भवतीति।।२६५।।
दर्शनाचारसमर्पणाय ज्ञानाचारसूचनायोत्तरगाथा–
दंसणचरणो एसो णाणाचारं च वोच्छमट्ठविहं।।
अट्ठविहकम्ममुक्को जेण य जीवो लहइ सििंद्ध।।२६६।।
दर्शनाचार एष मया वर्णित: समासेनेऽत ऊर्ध्वं ज्ञानाचारं वक्ष्ये कथयिष्याम्यष्टविधं येन ज्ञानाचारेणाष्टविधकर्ममुक्तो जीवो लभते सििंद्ध, ज्ञानभावनया कर्मक्षयपूर्विका सिद्धिरिति भावार्थ:।।२६६।।
िंक ज्ञानं यस्याचार: कथ्यते इति चेदित्याह–
जेण तच्चं विबुज्भâेज्ज जेण चित्तं णिरुज्भâदि।
जेण अत्ता विसुज्भâेज्जं तं णाणं जिणसासणे।।२६७।।
येनं तत्त्वं वस्तुयाथात्म्यं विबुध्यते परिच्छिद्यते येन च चित्तं मनोव्यापारो निरुद्ध्यते आत्मवशं क्रियते येन चात्मा जीवो विशुद्ध्यते वीतराग: क्रियते परिच्छिद्यते तज्ज्ञानं जिनशासने प्रमाणं मोक्षप्रापणाभ्युपायं संशयविपर्ययान-ध्यवसायािंकञ्चित्करविपरीतं प्रत्यक्षं परोक्षं च।
तत्र प्रत्यक्षं द्विप्रकारं मुख्यममुख्यं च, मुख्यं द्विविधं देशमुख्यं परमार्थमुख्यं, देशमुख्यमवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं च, परमार्थमुख्यं केवलज्ञानं, सर्वद्रव्यपर्याय-परिच्छेदात्मकं। अमुख्यं प्रत्यक्षेन्द्रिय-विषयसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसविकल्पकमीषत्प्रत्यक्षभूतं। परोक्षं श्रुतानुमानार्थापत्तितर्कोपमानादिभेदेनानेकप्रकारं, श्रुतं मतिपूर्वकं
जो परमार्थ से ग्रहण करना है वह आज्ञा सम्यक्त्व है और उससे विपरीत अर्थात् जिनोपदिष्ट तत्त्वों को असत्यरूप से ग्रहण करना मिथ्यात्व है, ऐसा समझना।
भावार्थ-इस सम्यक्त्व में आठ प्रकार के शंकादि दोषों को न लगाकर निर्दोषरूप से आठ अंगपूर्वक जो सम्यग्दर्शन का पालन करना है वह दर्शनाचार कहलाता है।
अब दर्शनाचार को पूर्ण करने हेतु और ज्ञानाचार को कहने की सूचना हेतु अगली गाथा कहते हैं-
गाथार्थ-यह दर्शनाचार हुआ। अब आठ प्रकार का ज्ञानाचार कहेंगे जिससे जीव आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।।२६६।।
आचारवृत्ति-मैंने यह दर्शनाचार का वर्णन किया है। अब इसके बाद संक्षेप में आठ प्रकार का ज्ञानाचार कहूँगा जिसके माहात्म्य से यह जीव आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर सिद्धिपद को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् ज्ञान की भावना से कर्मक्षय पूर्वक सिद्धि होती है ऐसा समझना।
वह ज्ञान क्या है कि जिसका आचार आप कहेंगे ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-जिससे तत्त्व का बोध होता है, जिससे मन का निरोध होता है, जिससे आत्मा शुद्ध होता है जिनशासन में उसका नाम ज्ञान है।।२६७।।
आचारवृत्ति-जिसके द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, जिसके द्वारा मन का व्यापार रोका जाता है अर्थात् मन अपने वश में किया जाता है और जिसके द्वारा आत्मा शुद्ध हो जाती है, जीव वीतराग हो जाता है, वह ज्ञान जिनशासन में प्रमाण है, अर्थात् वही ज्ञान मोक्ष को प्राप्त कराने के लिए उपायभूत है।
वह ज्ञान संशय, विपर्यय, अनध्वसाय और अकिंचित्कर से रहित है। उसके प्रत्यक्ष ओर परोक्ष ऐसे दो भेद हैं। उसमें मुख्य और अमुख्य की अपेक्षा प्रत्यक्ष के भेद हैं। मुख्य प्रत्यक्ष भी देश मुख्य और परमार्थ मुख्य से दो भेदरूप है। देश मुख्य के अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ये दो भेद हैं। केवलज्ञान परमार्थ मुख्य है। वह
इन्द्रियमनोविषयादन्यार्थविज्ञानं यथाग्निशब्दात् खर्पर-विज्ञानं। अंगपूर्व वस्तुप्राभृतकादि सर्वं श्रुतज्ञानं। अनुमानं त्रिरूपं त्रिविधिंलगादुत्पन्नं साध्याविनाभाविलिङ्गिादुत्पन्नं वा एतच्छ्रुतज्ञानेप्यन्तर्भवति। एकमर्थं जातं दृष्ट्वाविनाभावेनान्यस्यार्थस्य परिच्छित्तिरर्थापत्तिर्यथा शूनपीनांगो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते अर्थादापन्नं रात्रौ भुंक्ते इति। प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानं यथा गौस्तथा गवय इति। साध्य-साधनसम्बन्धग्राहकस्तर्क: सर्वमेतत्परोक्षं ज्ञानम्।।२६७।।
सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जाननेवाला है। इन्द्रिय और विषयों के सन्निपात के अनन्तर उत्पन्न हुआ जो सविकल्पक ज्ञान है वह अमुख्य प्रत्यक्ष है, यह ईषत् प्रत्यक्षभूत है।
परोक्ष प्रमाण भी आगम, अनुमान, अर्थापत्ति, तर्क, उपमान आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक होता है। वह इन्द्रिय और मन के विषय से भिन्न अन्य अर्थ के विज्ञानरूप है, जैसे अग्नि शब्द से खर्पर का विज्ञान होता है।
अंग और पूर्वरूप तथा वस्तु प्राभृतक आदि सभी जान श्रुतज्ञान हैं। अनुमान तीन रूप है। तीन प्रकार के लिंग से उत्पन्न अथवा साध्य के साथ अविनाभावी लिंग से उत्पन्न हुआ ज्ञान अनुमान ज्ञान है। यह श्रुतज्ञान में अन्तर्भूत हो जाता है।
एक अर्थ को हुआ देखकर उसके अविनाभाव से अन्य अर्थ का ज्ञान होना अर्थापत्ति है; जैसे ‘हृष्ट-पुष्ट अंगवाला देवदत्त दिन में नहीं खाता है’ ऐसा कहने पर अर्थ से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह रात्रि में खाता है यह अर्थापत्ति है। साधर्म्य अर्थात् सदृशता की प्रसिद्धि से साध्य-साधन का ज्ञान होना उपमान है, जैसे- जिस प्रकार की गौ है वैसे ही गवय (रोझ नाम का पशु) है। साध्य-साधन के संबंध को ग्रहण करनेवाला तर्कज्ञान है। ये सभी परोक्ष है।
विशेष-न्यायग्रन्थों में भी स्व और अपूर्व अर्थ का निश्चायक ज्ञान प्रमाण कहा गया है। परीक्षामुख में आचार्य ने इस प्रमाण के दो भेद किये हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष के भी दो भेद किए हैं-सांव्यवहारिक और मुख्य अर्थात् पारमार्थिक। इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान सांव्यवहारिक है। उसे ही यहाँ अमुख्य प्रत्यक्ष कहा है। तथा मुख्य प्रत्यक्ष के भी देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद हैं। परोक्ष-प्रमाण के पाँच भेद किये हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम।
यहाँ पर जो अर्थापत्ति और उपमान को परोक्ष में लिया है। तथा और भी अनेक भेद होते हैं, ऐसा कहा है। सो ये सभी इन्हीं पाँचों में ही सम्मिलित हो जाते हैं। यथा-
श्री अकलंक देव कहते हैं, कि अनुमान, उपमान, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव ये सभी प्रमाण हैं। इनमें से उपमान आदि प्रमाण अनुमान में अन्तर्भूत है। एवं अनुमान प्रमाण और ये भी स्वप्रतिपत्ति काल में अनक्षर श्रुत में अन्तर्भूत हैं और परप्रतिपत्ति काल में अक्षरश्रुत में अन्तर्भूत हैं। इस कथन से यह स्पष्ट है कि परोक्ष प्रमाण के अनेक भेद हैं।
प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान को तीनरूप माना है-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट। इन्हें क्रम से केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी भी कहते हैं। (तत्वार्थवार्तिक)
इन तीन प्रकार के लिंग से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अनुमान है। अथवा साध्य के साथ अविनाभावी रहनेवाला ऐसा अन्यथानुपत्ति रूप हेतु से होनेवाला साध्य का ज्ञान अनुमान है। ये सभी परोक्षज्ञान हैं। विशेष बात यह है कि यहाँ पर टीकाकार ने न्यायग्रन्थों की अपेक्षा से ही मतिज्ञान को ईषत्प्रत्यक्ष कहा है परन्तु
सम्यक्त्वसहचरं ज्ञानस्वरूपं व्याख्याय चारित्रसहचरस्य ज्ञानस्य प्रतिपादयन्नाह–
जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मित्तीं पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे।।२६८।।
येन रागात् स्नेहात् कामक्रोधादिरूपाद्विरज्यते पराङ्मुखो भवति जीव:। येन च श्रेयसि रज्यते रक्तो भवति। येन मैत्रीं द्वेषाभावं प्रभावयेत् तज्ज्ञानं जिनशासने। किमुक्तं भवति-अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवताभिप्रायोऽनागमे आगमबुद्धिरचारित्रे चारित्रबुद्धिरनेकान्ते एकान्तबुद्धिरित्यज्ञानम्।।२६८।।
ज्ञानाचारस्य कति भेदा इति पृष्टेऽत आह–
काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे।
वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो।।२६९।।
काले–स्वाध्यायवेलायां पटनपरिवर्तनव्याख्यानादिकं क्रियते सम्यक् शास्त्रस्य यत्स कालोऽपि ज्ञानाचार इत्युच्यते, साहचर्यात्कारणे कार्योपचाराद्वाय विणए–कायिकवाचिकमानसशुद्धपरिणामै: स्थितस्य तेन वा योऽयं श्रुतस्य पाठो व्याख्यानं परिवर्तनं यत्स विनयाचार:।
उवहाणे–उपधानं अवग्रहविशेषेण पठनादिकं साहचर्यात् उपधानाचारे (र:)। बहुमानं पूजासत्कारादिकेन पाठादिकं बहुमानाचार:। तथैवानिह्नवनं यस्मात्पठितं श्रुतं स एव प्रकाशनीय: यद्वा पठित्वा
सिद्धान्त ग्रन्थों में मति, श्रुत दोनों को परोक्ष ही कहा है। (तत्त्वार्थवार्तिक प्र. अ.)
सम्यक्त्व के सहचारी ज्ञान का स्वरूप कहकर अब चारित्र के सहचारी ज्ञान का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-जिसके द्वारा जीव राग से विरक्त होता है जिसके द्वारा मोक्ष में राग करता है, जिसके द्वारा मैत्री को भावित करता हैं जिनशासन में वह ज्ञान कहा गया है।।२६८।।
आचारवृत्ति-जिसके द्वारा जीव राग-स्नेह से और काम-क्रोध आदि से विरक्त होता है-पराङ्मुख होता है और जिसके द्वारा मोक्ष में अनुरक्त होता है, जिसके द्वारा मैत्री भावन अर्थात् द्वेष का अभाव करता है जिनशासन में वही ज्ञान है। तात्पर्य क्या हुआ ? अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि, अदेव में देवता का अभिप्राय, जो आगम नहीं हैं उनमें आगम की बुद्धि, अचारित्र में चारित्र की बुद्धि और अनेकान्त में एकान्त की बुद्धि यह सब अज्ञान है।
ज्ञानाचार के कितने भेद हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-
गाथार्थ-काल, विनय, उपधान, बहुमान और अनिह्नव सम्बन्धी तथा व्यंजन, अर्थ और उभयरूप ऐसा ज्ञानाचार आठ प्रकार का है।।२६९।।
आचारवृत्ति-काल में अर्थात् स्वाध्याय की बेला में सम्यक् शास्त्र का पढ़ना, पढ़े हुए को फेरना और व्याख्यान आदि कार्य किये जाते हैं वह काल भी ज्ञानाचार है। साहचर्य से अथवा कारण में कार्य का उपचार करने से काल को भी ज्ञानाचार कह दिया है। विनय-काय, वचन और मन संबंधी शुद्ध भावों से स्थित हुए मुनि के विनयाचार होता है अथवा कायिक, वाचिक, मानसिक, शुद्ध परिणामों से सहित मुनि के द्वारा जो शास्त्र का पढ़ना, परिवर्तन करना और व्याख्यान करना वह विनयाचार है।
उपधान में अर्थात् उपधान-अवग्रह नियम विशेष करके पठन आदि करना उपधानाचार है। यहाँ भी साहचार्य से उसे ही उपधान-आचार कह दिया है। बहुमान-पूजा सत्कार आदि के द्वारा पठन आदि करना बहुमान आचार है। उसी प्रकार से अनिन्हव अर्थात् जिससे शास्त्र पढ़ा है उसका ही नाम प्रकाशित करना चाहिए। अथवा जिस शास्त्र को पढ़कर और सुनकर ज्ञानी हुए हैं उसी शास्त्र का नाम बताना चाहिए यह अनिह्नवाचार है।
व्यंजन-श्रुत्वा ज्ञानी सञ्जातस्तदेव श्रुतं ख्यापनीयमिति१ अनिह्नवाचार:। व्यञ्जनं–वर्णपदवाक्यशुद्धि:, व्याकरणोपदेशेन वा तथा पाठादिर्व्यञ्जनाचार:। अत्थ–अर्थोऽभिधेयोऽनेकान्तात्मकस्तेन सह पाठादि अर्थाचार:। शब्दार्थशुद्ध्या पाठादि तदुभयाचार:। सर्वत्र साहचर्यात् कार्ये कारणाद्युपचाराद्वाऽभेद:। कालादिशुद्धिभेदेन वा ज्ञानाचारोऽष्टfवध एव, अधिकरणभेदेन वाधारस्य भेद:। प्रथमा विभक्ति: सप्तमी वा द्रष्टव्या।।२६९।।
कालाचारप्रपंचप्रतिपादनार्थमाह–
पादोसियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता।
उभये कालह्मि पुणो सज्भâाओ होदि कायव्वो।।२७०।।
प्रकृष्टा दोषा रात्रिर्यस्मिन् काले स प्रदोष: काल: रात्रे: पूर्वभाग इत्यर्थ:। तत्सामीप्याट्टिनपश्चिमभागोऽपि प्रदोष इत्युच्यते। तत: प्रदोषग्रहणेन द्वौ कालौ गृह्येते। प्रदोष एव प्रादोषिक:। विगता रात्रिर्यस्मिन् काले सा विरात्री रात्रे: पश्चिमभाग:, द्विघटिकासहितार्धरात्रादूर्ध्वकाल:, विरात्रिरेव वैरात्रिक:। गवां पशूनां सर्गो निर्गमो यस्मिन् काले स कालो गोसर्ग:।
गोसर्ग एव गौसर्गिको द्विघटिकोदयादूर्ध्वकालो द्विघटिकासहित: मध्याह्नात्पूर्व:। एतत्कालचतुष्टयं गृहीत्वोभयकाले दिवसस्य पूर्वाण्हकालेऽपराण्हकाले च तथा रात्रे: पूर्वकालेऽपरकाले च पुन: अभीक्ष्णं स्वाध्यायो भवति कर्तव्य: पठनपरिवर्तनव्याख्यानादीनि कर्तव्यानि भवन्तीति।।२७०।।वर्ण, पद और वाक्य की शुद्धि अथवा व्याकरण के उपदेश से वैसा ही शुद्ध पाठ आदि करना व्यंजनाचार है।
अर्थ-अभिधेय अर्थात् वाच्य को अर्थ कहते हैं। वह अर्थ अनेकान्तात्मक है उसके साथ पठन आदि करना अर्थाचार है। शब्द और अर्थ की शुद्धि से पठन आदि करना उभयाचार है। सर्वत्र साहचर्य से अथवा कार्य में कारण आदि के उपचार से अभेद होने से इन्हीं काल आदि को ही आचार शब्द से कहा है।
ऐसा समझना कि कालादि की शुद्धि के भेद से ज्ञानाचार आठ प्रकार का ही है। अथवा अधिकरण के भेद से आचार में भेद हो गये हैं। काले, विनये आदि में प्रथमा या सप्तमी दोनों विभक्तियों का अर्थ किया जा सकता है। इस तरह कालाचार, विनयाचार आदि ज्ञानाचार के भेद हैं।
अब कालाचार को विस्तार से प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-प्रादोषिक, वैरात्रिक और गौसर्गिक काल को ही लेकर दोनों कालों में पुन: स्वाध्याय करना होता है।।२७०।।
आचारवृत्ति-प्रकृष्टरूप दोषा अर्थात् रात्रि है जिस काल में वह प्रदोषकाल कहलाता है। अर्थात् रात्रि के पूर्व भाग को प्रदोष कहते हैं। उस प्रदोषकाल की समीपता से दिन का पश्चिम भाग भी प्रदोष कहा जाता है। इसलिए प्रदोष के ग्रहण करने से दो काल ग्रहण किए जाते हैं। प्रदोष ही प्रादोषिक कहलाता है। विगत-बीत गई है रात्रि जिस काल में वह विरात्रि है।
रात्रि के पश्चिम भाग को विरात्रि कहते हैं अर्थात् दो घड़ी सहित अर्धरात्रि के ऊपर का काल विरात्रि है। विरात्रि ही वैरात्रिक है। गायों का सर्ग-निकलना जिसकाल में हो वह गोसर्ग काल है। गोसर्ग ही गौसर्गिक है। दो घड़ी सहित उदय काल से ऊपर का यह काल दो घड़ी सहित मध्यान्ह से पूर्व तक होता है।
इन चारों कालों को लेकर के दोनों कालों में अर्थात् दिवस के पूर्वाह्न काल और अपराह्न काल में तथा रात्रि के पूर्वकाल और अपरकाल में अभीक्ष्ण-निरन्तर स्वाध्याय करना होता है अर्थात् पठन, परिवर्तन, व्याख्यान आदि करने होते हैं।
भावार्थ-चौबीस मिनट की एक घड़ी होती है अत: दो घड़ी से अड़तालीस मिनट विवक्षित हैं। स्वाध्यायस्य ग्रहणकालं परिसमाप्तिकालं च
प्रतिपादयन्नाह–
सज्भâाये पट्ठवणे जंघच्छायं वियाण सत्तपयं।
पुव्वण्हे अवरण्हे तावदियं चेव णिट्ठवणे।।२७१।।
स्वाध्यायस्य परमागमव्याख्यानादिकस्य प्रस्थापने प्रारम्भे, जंघयोश्छाया तां जंघच्छाया तां जंघच्छायां विजानीहि सप्तपदां सप्तवितस्तिमात्रां पूर्वाण्हेऽपराण्हे च तावन्मात्रां स्वाध्यायसमाप्तिकालेच्छायां विजानीहि। सवितुरुदये यदा जंघाच्छाया सप्तवितस्तिमात्रा भवति तदा स्वाध्यायो ग्राह्य:। अपराण्हे च सवितुरस्तमनकाले यदा जंघाच्छाया सप्तवितस्तिमात्रा तिष्ठति तदा स्वाध्याय उपसंहरणीय इति।।२७१।।
पूर्वाण्हे स्वाध्यायस्य परिसमाप्ति: कस्यां वेलायां क्रियते इति पृष्टेऽत आह–
आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा।
वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला।।२७२।।
जंघाच्छाया इत्यनुवर्तते। मिथुनराशौ यदा तिष्ठत्यादित्य: स काल आषाढमास इत्युच्यते। मासस्ंित्रशद्रात्र: समुदाये वर्तमानोऽप्यत्र मासावसाने दिवसे वर्तमानो गृह्यते। समुदायेषु हि वृत्ता: शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्त इति न्यायात्। एवं पुष्यमासेऽपि निरूपयितव्य:। आषाढमासे यदा द्विपदा जंघाच्छाया पूर्वाण्हे तदा स्वाध्याय उपसंहर्त्तव्य:। अत्र षडंगुल: सूर्योदय के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर मध्याह्न काल के अड़तालीस मिनट पहले तक पूर्वाह्न स्वाध्याय का काल है। इसी को ‘गौसर्गिक’ कहा है।
मध्याह्न के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर सूर्यास्त के अड़तालीस मिनट पहले तक अपराह्न स्वाध्याय का काल है इसे ‘प्रादोषिक’ कहा है। सूर्यास्त के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर अर्धरात्रि के अड़तालीस मिनट पहले तक पूर्वरात्रि के स्वाध्याय का काल है इसे भी ‘प्रादोषिक’ कहा है। पुन: अर्धरात्रि के अड़तालीस मिनट बाद से लेकर सूर्योदय के अड़तालीस मिनट पहले तक अपररात्रि के स्वाध्याय का काल है। इसे ‘वैरात्रिक’ कहा हैं। अर्थात् चारों संधिकालों में छियानवे मिनट (लगभग डेढ़ घंटे) तक का काल अस्वाध्याय काल माना गया है।
अब स्वाध्याय के ग्रहण काल और परिसमाप्ति को कहते हैं-
गाथार्थ-पूर्वाह्न में, स्वाध्याय-प्रारम्भ काल में जंघाछाया सात पद प्रमाण समझो और अपराह्न में स्वाध्याय समाप्ति में उतनी ही जानो।।२७१।।
आचारवृत्ति-परमागम के व्याख्यान आदि करने रूप स्वाध्याय के प्रारम्भ में पूर्वाह्न काल में जंघा छाया सात पाद वितस्ति प्रमाण है, अपराह्न में अपरान्हिक स्वाध्याय के निष्ठापन में भी सात वितस्ति मात्र है। सूर्य के उदय होने पर जब जंघा की छाया सात वितस्ति मात्र होती है तब स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए और अपराह्न में सूर्यास्त के काल में जब जंघा छाया सात वितस्ति मात्र रहती है तब स्वाध्याय को समाप्त कर देना चाहिए।
पूर्वाह्न में स्वाध्याय की समाप्ति किस बेला में की जाती है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-आषाढ़ में दो पाद छाया और पौष मास में चार पाद छाया रहने पर स्वाध्याय समाप्त करे। मास-मास में वह दो-दो अंगुल बढ़ती और घटती है।।२७२।।
आचारवृत्ति-जंघाच्छाया की अनुवृत्ति चली आ रही है। जब सूर्य मिथुनराशि में रहता है वह काल आषाढ़ मास कहलाता है। तीस रात्रि का मास होता है। इस तरह समुदाय में रहते हुए भी यहाँ पर मास के अन्तिम दिन में वर्तमान अर्थ लेना, क्योंकि समुदायों में रहनेवाले शब्द अवयवों में भी रहते हैं ऐसा न्याय है। ऐसे ही पुष्य मास में निरूपण करना चाहिए। अर्थात् यद्यपि मास शब्द का प्रयोग तीस दिन के लिए होता है
पाद: परिगृह्यते। तथा पुष्यमासे मध्याह्नोदये यदा चतुष्पदा जंघाच्छाया भवति तदा स्वाध्यायो निष्ठापयितव्य:। आषाढमासान्तदिवसादारभ्य मासे मासे द्वे द्वे अङ्गुले तावद्वृद्धिमागच्छते यावत्पुष्यमासे चतुष्पदाच्छाया सञ्जाता।
पुनस्तस्मादारभ्य द्वे द्वे अंङ्गुले मासे मासे हानिमुपनेतव्ये यावदाषाढे मासे द्विपदाच्छाया संजाता। कर्कटसंक्रान्ते: प्रथमदिवसमारभ्य यावद्धनु: संक्रान्तेरन्त्यदिनं तावद्दिनं प्रति दिनं प्रति अंगुलस्य पंचदशभागो वृद्धिं गच्छति ततो हानिम्। अत्र त्रैराशिकक्रमेण हानिवृद्धी साधितव्ये। अपराण्ह स्वाध्यायप्रारम्भकालस्य रात्रौ स्वाध्यायकालस्य च कालपरिमाणं न ज्ञातं तज्ज्ञात्वा वक्तव्यम्।
मध्याह्नादुपरिघटिकाद्वये स्वाध्यायो ग्राह्य:, तथा रात्रौ प्रथमघटिकाद्वये सर्वासु संध्यादावन्ते च घटिकाद्वये वर्जयित्वा स्वाध्यायो ग्राह्यो हातव्यश्चेति।।२७२।।
फिर भी यहाँ मास के अंतिम दिन को मास कहा है; क्योंकि समुदायरूप अर्थों को दिखाने वाले शब्दों का प्रयोग अवयव अर्थ में भी होता है। अत: यहाँ आषाढ़ और पौषमास शब्द से मास का अन्तिम दिन लिया गया है।
आषाढ़ मास में पूर्वाह्न काल में जब जंघाछाया दो पाद प्रमाण रहे तब स्वाध्याय का उपसंहार कर देना चाहिए। यहाँ पर छह अंगुल का पाद लिया गया है। वैसे ही पौष मास में मध्याह्न के उदयकाल में जब जंघाछाया चार पाद प्रमाण रहती है तव स्वाध्याय निष्ठापन कर देना चाहिए। अर्थात् आषाढ़ में पौर्वाण्हिक स्वाध्याय करके मध्याह्न के पहले जब छाया दो पाद रह जाती है तब स्वाध्याय समाप्ति का काल है। ऐसे ही पौष में इसी समय चार पाद छाया के रहने पर स्वाध्याय समाप्ति का काल होता है।
आषाढ़ मास के अन्तिम दिन से प्रारम्भ करके महिने-महिने में दो-दो अंगुल छाया बढ़ते हुए तब तक बढ़ती है जब तक पौष मास में छाया चार पाद प्रमाण नहीं हो जाती है।
पुन: पौष सुदी पूर्णिमा के बाद से लेकर महीने-महीने में छाया दो-दो अंगुल तब तक घटती जाती है जब तक कि आषाढ़ मास में वह दो पादप्रमाण नहीं हो जावे।
कर्कट संक्रांति के प्रथम दिन से प्रारम्भ करके धनुःसंक्रांति के अन्तिम दिनपर्यंत तक दिन प्रति-दिन अंगुल के पन्द्रहवें भाग प्रमाण छाया बढ़ती जाती है। पुन: आगे इतनी-इतनी ही घटती जाती है। यहाँ पर त्रैराशिक के क्रम से हानि और वृद्धि को निकाल लेना चाहिए।
अपराह्न काल के स्वाध्याय का प्रारम्भकाल और रात्रि में स्वाध्याय के काल का प्रमाण नहीं मालूम हुआ उसको जानकर कहना चाहिए। अर्थात् मध्यान्हकाल के ऊपर दो घड़ी हो जाने पर अपराह्न स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए तथा रात्रि में सूर्यास्त के बाद दो घड़ी बीत जाने पर पूर्वरात्रिक स्वाध्याय करना चाहिए।
अर्थात् सभी संध्याओं के आदि और अन्त में दो-दो घड़ी छोड़कर स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए और समाप्त करना चाहिए।
भावार्थ-आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के बाद मध्याह्न होने के कुछ पहले जब जंघाछाया दो पाद (१२ अंगुल) प्रमाण रहती है तब पूर्वान्ह स्वाध्याय निष्ठापन का काल है। पुन: श्रावण के अन्तिम दिन १४ अंगुल, भाद्रपद के अन्तिम दिन १६ अंगुल, आश्विन के अन्तिम दिन
१८ अंगुल, कार्तिक की पूणिमा को २० अंगुल, मगसिर की पूर्णिमा को २२ अंगुल और पौष की पूर्णिमा को चार पाद अर्थात् २४ अंगुल हो जाती है। तब स्वाध्याय निष्ठापन का काल होता है। आगे पुन: दो-दो अंगुल घटाइए-माघ के अन्तिम दिन २२ अंगुल, फाल्गुन की पूर्णिमा को २० अंगुल, चैत्र की पूर्णिमा को १८ अंगुल, वैशाख की पूर्णिमा को
१६ अंगुल, ज्येष्ठ की पूणिमा के दिन १४ अंगुल, आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन दो पाद अर्थात् १२ अंगुल दिग्विभागशुद्ध्यर्थमाह–
णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोहीए।
पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्भâाए।।२७३।।
दिशां विभागो दिग्विभागस्तस्य शुद्धिरुल्कापातादिरहितत्वं दिग्विभागशुद्धेर्निमित्तं कायोत्सर्गमास्थाय प्रतिदिशं पूर्वाण्हकाले स्वाध्यायविषये नव नव गाथापरिमाणं जाप्यं।
तत्र यदि दिशादाहादीनि भवन्ति तदा कालशुद्धिर्न भवतीति वाचनाभंगो भवति। एषा कालशुद्धी रात्रिपश्चिमयाम १स्वाध्याये कर्तव्या। एवमपराण्हे स्वाध्यायनिमित्तं कायोत्सर्गमास्थाय प्रतिदिशं सप्तसप्तगाथापरिमाणं पाठ्यम्। अपराण्हस्वाध्याये तथा प्रदोषवाचनानिमित्तं पंच पंच गाथाप्रमाणं प्रतिदिशं घोष्यमिति। सर्वत्र दिशादाहाद्यभावे कालशुद्धिरिति।।२७३।।
िजंघाछाया रहे तब पूर्वाह्न स्वाध्याय निष्ठापन का काल होता है।
दिग्विभाग की शुद्धि के लिए कहते हैं-
गाथार्थ-पूर्वाह्न, अपराह्न और प्रदोषकाल के स्वाध्याय करने में दिशाओं के विभाग की शुद्धि के लिए नव, सात और पाँच बार गाथा प्रमाण णमोकार मन्त्र को पढ़ें।।२७३।।
आचारवृत्ति-दिशाओं का विभाग दिग्विभाग हैं। उसकी शुद्धि अर्थात् दिशाओं का उल्कापात आदि से रहित होना। पूर्वाह्न काल के स्वाध्याय के विषय में इस दिग्विभाग की शुद्धि के निमित्त प्रत्येक दिशा में कायोत्सर्ग से स्थित होकर नव-नव गाथा परिमाण जाप्य करना चाहिए। उसमें यदि दिशादाह आदि होते हैं तब कालशुद्धि नही होती है इसलिए वाचनाभंग होती है अर्थात् वाचना नामक स्वाध्याय नहीं किया जाता है। यह कालशुद्धि रात्रि के पश्चिम भाग में अस्वाध्याय काल में करना चाहिए।
इसी अपराह्न स्वाध्याय के निमित्त कायोत्सर्ग में स्थित होकर प्रत्येक दिशा में सात-सात गाथा प्रमाण अर्थात् सात-सात बार णमोकार मन्त्र पढ़ना चाहिए। तथा अपराह्न स्वाध्याय के अनन्तर प्रदोषकाल की वाचना निमित्त पाँच-पाँच बार णमोकार मन्त्र प्रत्येक दिशा में बोलना चाहिए। सर्वत्र दिशादाह आदि के अभाव में कालशुद्धि होती है
विशेष-सिद्धान्तग्रन्थ में भी कालशुद्धि के करने का विधान है। यथा-पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय समाप्त कर बाहर निकल कर प्रामुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारण काल से पूर्वदिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणारूप से पलट कर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशा को शुद्ध कर लेने पर छत्तीस गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा एक सौ आठ उच्छ्वास काल से (एक बार णमोकार मन्त्र में तीन उच्छ्वास होने से चार दिशा सम्बन्धी नव नव के छत्तीस १. क यामे स्वाध्याय: कर्तव्य:।
िफलटन से प्रकाशित प्रति में यह गाथा अधिक है-
आसाढे सत्तपदे आउड्ढपदे य पुस्समासम्हि।
सत्तंगुलखयवुड्ढी मासे मासे तदिदराग्हि।।
अर्थात् आषाढ़ मास की पूर्णिमा में जब सूर्योदय के समय में सात पाद प्रमाण छाया होती है तब स्वाध्याय प्रारम्भ करना और सूर्यास्तकाल में सात पाद प्रमाण छाया होने पर अपराह्न स्वाध्याय समाप्त करना। पौष मास की पूर्णिमा में सूर्योदय के समय साढ़े तीन पाद प्रमाण छाया होने पर पूर्वाह्न स्वाध्याय करना और सूर्यास्त के समय साढ़े तीन पाद प्रमाण छाया होने पर अपराह्न स्वाध्याय समाप्त करना।
तदनंतर प्रतिमास छाया में हानि-वृद्धि होती है। अर्थात् आषाढ़ मास को प्रारम्भ कर मगसिर तक सात पाद प्रमाण छाया में हानि होती है और पुष्यमास से ज्येष्ठमास तक वृद्धि होते-होते सप्तपाद प्रमाण छाया होती है।अथ के ते दिग्दाहादय इति पृष्टे तानाह–
दिसदाह उक्कपडणं विज्जु चडक्कासिंणदधणुगं च।
दुग्गंधसंज्भâदुद्दिण – चंदग्गहसूरराहुजुज्भâं च।।२७४।।
कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्जं च।
इच्चेवमाइबहुया सज्भâाए वज्जिदा दोसा।।२७५।।
दिशां दाह उत्पातेन दिशोऽग्निवर्णा:। उल्काया: पतनं गगनात् तारकाकारेण पुद्गलपिण्डस्य पतनं। विद्युच्चैक्यचिक्यं, चडत्कार: वङ्कां मेघसंघट्टोद्भवं। अशनि: करकनिचय:। इन्द्रधनु: धनुषाकारेण पंचवर्णपुद्गलनिचय:। दुर्गन्ध: पूतिगन्ध:। ९ ² ४·३६, णमोकार के ३६ ² ३ ·१०८ एक सौ आठ उच्छ्वासों से) कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराह्न काल में भी इसी प्रकार कालशुद्धि करनी चाहिए। विशेष इतना है कि इस समय की कालशुद्धि एक एक दिशा में सात-सात गाथाओं के उच्चारण से होती है।
यहाँ सब गाथाओं का प्रमाण अट्ठाईस अथवा उच्छ्वासों का प्रमाण चौरासी है। पश्चात् सूर्य के अस्त होने से पहले क्षेत्रशुद्धि करके सूर्यास्त हो जाने पर पूर्व के समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल शुद्धि बीस गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अर्थात् साठ उच्छ्वास प्रमाण है ।
अपररात्रि के समय वाचना नहीं है, क्योंकि उस समय क्षेत्रशुद्धि करने का उपाय नहीं है। अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी समस्त अंगश्रुत के धारक, आकाश स्थित चारणमुनि तथा मेरु व कुलाचलों के मध्य स्थित चारण ऋषियों के अपररात्रिक वाचना भी है, क्योंकि वे क्षेत्रशुद्धि से रहित हैं।’१
अभिप्राय यह हुआ कि पिछली रात्रि के स्वाध्याय में आजकल मुनि और आर्यिकाएँ सूत्रग्रन्थों का वाचना नामक स्वाध्याय न करें।
एवं उनसे अतिरिक्त आराधना ग्रन्थ आदि का स्वाध्याय करके सूर्योदय के दो घड़ी (४८ मिनट) पहले स्वाध्याय समाप्त कर बाहर निकलकर प्रासुक प्रदेश में खड़े होकर चारों दिशाओं में तीन-तीन उच्छ्वासपूर्वक नव-नव बार णमोकार मन्त्र का जाप्य करके दिशा-शुद्धि करें। पुन: पूर्वाह्न स्वाध्याय समाप्ति के बाद भी अपराह्न स्वाध्याय हेतु चारों दिशाओं में सात-सात बार महामन्त्र जपें।
तथैव अपराह्न स्वाध्याय के अनन्तर भी पूर्वरात्रिक स्वाध्याय हेतु पाँच-पाँच महामन्त्र से दिशाशोधन कर लेवें। अपररात्रिक के लिए दिक् शोधन का विधान नहीं है, क्योंकि उस काल में ऋद्धिधारी महामुनि ही वाचना स्वाध्याय करते हैं और उनके लिए दिशा शुद्धि की आवश्यकता नहीं है।
वे दिग्दाह आदि क्या हैं ? ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-दिशादाह, उल्कापात, विद्युत्पात, वङ्का का भयंकर शब्द, इन्द्रधनुष, दुर्गन्ध उठना, संध्या समय, दुर्दिन, चन्द्रग्रहण, सूर्य और राहु का युद्ध, कलह आदि तथा धूमकेतु, भूकम्प और मेघगर्जन तथा इसी प्रकार के और भी दोष हैं जो कि स्वाध्याय में वर्जित हैं।।२७४-२७५।।
आचारवृत्ति-दिशादाह-उत्पात से दिशाओं का अग्नि वर्ण हो जाना, उल्कापतन-उल्का का गिरना अर्थात् आकाश से तारे के आकार के पुद्गल पिण्ड का गिरना, बिजली चमकना, मेघ के संघट्ट से उत्पन्न हुए वङ्का का चटचट शब्द होना या वङ्कापात होना, ओला-बर्फ के टुकड़ों का बरसना, इन्द्रधनुष-धनुष सन्ध्या
लोहितपीतवर्णाकार: दुर्दिन: पतदुदकाभ्रसंयुक्तो दिवस:। चन्द्रयुद्धं, ग्रहयुद्धं, सूरयुद्धं राहुयुद्धं च। चन्द्रस्य ग्रहेण भेद: संघट्टो वा, ग्रहस्यान्योन्यग्रहेण भेदा: संघट्टादिर्वा, सूर्यस्य ग्रहेण भेदादि:, राहोश्चन्द्रेण सूर्येण वा संयोगो ग्रहणमिति। चशब्देन निर्घातादयो गृह्यन्त इति।।२७५।।
कलह: क्रोधाद्याविष्टानां वचनप्रतिवचनैर्जल्प: महोपद्रवरूप:। आदिशब्देन खङ्ग–कृपाणी–लकुटादिभिर्युद्धानि परिगृह्यन्ते। धूमकेतुर्गगने धूमाकाररेखाया दर्शनं। धरणीकम्प: पर्वतप्रसादादिसमन्विताया भूमेश्चलनं। चकारेण शोणितादिवर्षस्य ग्रहणं। अभ्रगर्जनं मेघध्वनि:। चकारेण महावातादिवर्षस्य ग्रहणं। अभ्रगर्जनं मेघध्वनि:।
चकारेण महावाताग्निदाहादय: परिगृह्यन्ते। इत्येवमाद्यन्येऽपि बहव: स्वाध्यायकाले वर्जिता: परिहरणीया दोषा: सर्वलोकानामुपद्रवहेतुत्वात्। एते कालशुद्ध्यां क्रियमाणायां दोषा: पठनोपाध्याय संघराष्ट्रराजादिविघ्नकारिणो यत्नेन त्याज्या इति।।२७५।।
कालशुद्धिं विधाय द्रव्यक्षेत्रभावशुद्ध्यर्थमाह–
रुहिरादिपूयमंसं दव्वे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं।
कोधादिसंकिलेसा भावविसोही पढणकाले।।२७६।।
रुधिरं रक्तं। आदिशब्देनाशुचिशुक्रास्थिव्रणादीनि परिगृह्यन्ते, पूयं–कुथितक्लेद:। मांसं आर्द्रं पंचेन्द्रियावयव:। द्रव्ये आत्मशरीरेऽन्यशरीरे वैतानि वर्जनीयानि। क्षेत्रे स्वाध्यायकरणप्रदेशे चतसृषु दिक्षु हस्तशतचतुष्टयमात्रेण सर्वाणि के आकार में पाँच वर्ण के पुद्गल समूह का दिखना, दुर्गन्ध आना, लाल-पीले आकार की संध्या का खिलना, जलवृष्टि करते मेघों से युक्त दिन का होना१
अथवा मेघों से व्याप्त अंधकारमय दिन का हो जाना। चंद्रयुद्ध, ग्रहयुद्ध, सूर्ययुद्ध और राहुयुद्ध का होना। चंद्र का ग्रह के साथ भेद या संघट्ट होना, ग्रहों का परस्पर में ग्रहों के साथ भेद या संघट्ट आदि होना, सूर्य का ग्रह के साथ भेद आदि का होना। राहु का चंद्र के साथ अथवा सूर्य के साथ संयोग होना ग्रहण कहलाता है। ‘च’ शब्द से निर्घात आदि ग्रहण किये जाते हैं।
कलह-क्रोध के आवेश में हुए जनों का वचन और प्रतिवचनों से, बोलने और उत्तर देने से जो जल्प होता है, जो कि महाउपद्रव रूप है, कलहनाम से प्रसिद्ध है। ‘आदि’ शब्द से तलवार, छुरी, लाठी आदि से जो युद्ध होता है वह भी यहाँ ग्रहण करना चाहिए। धूमकेतु-आकाश में घूमाकार रेखा का दिखना। धरणीकम्प-पर्वत, महल आदि सहित पृथ्वी का कम्पायमान होना।
‘च’ शब्द से रुधिर आदि की वर्षा होना, मेघों का गर्जना। पुन: ‘चकार’ से आँधी, अग्निदाह आदि होना। इत्यादि प्रकार से और भी बहुत से दोष होते हैं जो कि स्वाध्याय के काल में वर्जित हैं क्योंकि ये सभी लोगों के लिए उपद्रव में कारण है। कालशुद्धि के करने में ये दोष पठन, उपाध्याय, संघ, राष्ट्र और राजा आदि के विनाश को करने वाले हैं, इसलिए इन्हें प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए।
कालशुद्धि को कहकर अब द्रव्य, क्षेत्र और भाव-शुद्धि को कहते हैं-
गाथार्थ-रुधिर आदि का पीव शरीर में होना और क्षेत्र में सौ हाथ प्रमाण तक मांस आदि अपवित्र वस्तु का वर्जन द्रव्य-क्षेत्र शुद्धि है और पठनकाल में क्रोधादि संक्लेश का वर्जन भावविशुद्धि है। यहाँ वर्जन शब्द की अनुवृत्ति ग्रहण करके अर्थ किया गया है।।२७६।।
आचारवृत्ति-रुधिर आदि शब्द से अपवित्र, शुक्र, हड्डी और घाव आदि ग्रहण किये जाते हैं। पीव अर्थात् सड़ा खून, माँस-पंचेन्द्रिय जीव का अवयव, ये अपने शरीर में हों या अन्य के शरीर में हों अर्थात् अपने या पर के शरीर से यदि ये अपवित्र पदार्थ निकल रहे हों तो द्रव्य शुद्धि न होने से स्वाध्याय वर्जित है। वर्जनीयानि। यदि शोधयितुं न शक्यन्ते तत्क्षेत्रं द्रव्यं च त्याज्यं तस्मिन् सजीवे सति स्वाध्यायो न १कर्तव्प:।
प्रवत्तृâश्रोत्रादिभिरुष्णोदकादीनि ग्राह्याणि, वातप्रचुरहेत्वाहारादिर्न ग्राह्य:, अजीर्णादयोऽपि न कर्तव्या:। द्रव्यशुिंद्ध क्षेत्रशुद्धिं क्षेत्र में-स्वाध्याय करने के प्रदेश में चारों ही दिशाओं में चार सौ हाथ प्रमाण तक अर्थात् प्रत्येक दिशा में सौ-सौ हाथ प्रमाण तक इन सब अपवित्र वस्तुओं का वर्जन करना चाहिए। यदि इनका शोधन करना-दूर करना शक्य नहीं है तो उस क्षेत्र को और द्रव्य को छोड़ देना चाहिए। जीव सहित प्रदेश के होने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
प्रवक्ता-प्रवचन करने वालों या पढ़ाने वालों को तथा श्रोता आदि को उष्ण जल आदि वस्तुएँ आहार में लेनी चाहिए। जिसमें वात प्रचुर मात्रा में हो ऐसे आहार आदि नहीं ग्रहण करना चाहिए। अजीर्ण आदि भी नहीं करना चाहिए अर्थात् गरिष्ठ भोजन करके अजीर्ण आदि दोष उत्पन्न हों ऐसा नहीं करना चाहिए।
इस तरह द्रव्यशुद्धि और क्षेत्र शुद्धि को चाहने वाले मुनियों को क्रोधादि संक्लेश परिणामों का भी त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि क्रोध-मान-माया-लोभ, असूया, ईर्ष्या आदि का अभाव होना भावशुद्धि है। पठनकाल में इस भावशुद्धि को करते हुए अत्यर्थरूप से उपशम आदि भाव रखना चाहिए। इस तरह कालशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि और भावशुद्धि के द्वारा पढ़ा गया शास्त्र कर्मक्षय के लिए होता है अन्यथा-इन शुद्धियों के अभाव में पढ़ा गया शास्त्र कर्मबन्ध के लिए हो जाता है, ऐसा समझना।
विशेष-सिद्धान्त ग्रन्थ में चार प्रकार की शुद्धि का वर्णन है जो निम्न प्रकार हैं-
यहाँ व्याख्यान करने वालों और सुनने वालों को भी अर्थात् सिद्धान्त ग्रन्थ को पढ़ाने वाले गुरुओं एवं पढ़ने वाले मुनियों को भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि से व्याख्यान करना चाहिए-पढ़ाना चाहिए। ि
उनमें ज्वर, कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सितस्वप्न, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, लेप, अतीसार और पीव का बहना-इत्यादिकों का शरीर में न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश से चारों दिशाओं में २८ हजार धनुषप्रमाण क्षेत्र में विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और चमड़े आदि के अभाव को तथा समीप में पंचेन्द्रिय जीव के शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिर के सम्बन्ध के अभाव को क्षेत्रशुद्धि कहते हैं।२
बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, अकाल-वृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आछन्न दिशाएँ, दिशादाह, धूमिकापात-कुहरा, संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा, जिन महिमा इत्यादि के अभाव को कालशुद्धि कहते हैं। तथा पूर्वाह्न आदि वाचना हेतु दिशा की शुद्धि करना भी कालशुद्धि है जो नव, सात और पाँच गाथाओं द्वारा पहले कही जा चुकी है।
राग-द्वेष, अहंकार, आर्त-रौद्र ध्यान इनसे रहित पाँच महाव्रत, समिति और गुप्ति से सहित दर्शनाचार आदि समन्वित मुनियों के भावशुद्धि होती है।
इस विषय की उपयोगी गाथाएँ दी गयी हैं यथा-
यमपटह का शब्द सुनने पर, अंग से रक्तस्राव होने पर, अतिचार के हो जाने पर तथा दातारों के अशुद्ध १. क कार्य:। िएत्थ वक्खाणंतेहि सुणंतेहि वि दव्व-खेत्त-काल-भावसुद्धीहि वक्खाण-पढणवावारो कायव्वो। तत्र…..। (धवला पु. ९, पृ. २५३)। २. प्रत्येक दिशा में सौ-सौ हाथ का प्रमाण भी आया है। यथा-‘चतसृषु दिक्षु हस्तशतचतुष्मात्रेण……।
(मूलाचार, गाथा २७६)। चेच्छुभि: क्रोधादयोऽपि संक्लेशा वर्जनीया:। क्रोधमानमाया–लोभासूयेर्ष्यादीनामभावो भावशुद्धि: पठनकाले कर्तव्या अत्यर्थमुपशमादयो भावयितव्या:। कालशुद्ध्यादिभि: शास्त्रं पठितं कर्मक्षयाय भवत्यन्यथा कर्मबन्धायेति।।२७६।।काय होते हुए भोजन कर लेने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।१
तिल, मोदक, चिउड़ा, लाई, पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनों के करने पर तथा दावानल का धुआँ होने पर, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। एक योजन के घेरे में (चार कोश में) संन्यास विधि होने पर तथा महोपवास-विधि, आवश्यक क्रिया एवं केशलोच के समय अध्ययन नहीं करना चाहिए। आचार्य का स्वर्गवास होने पर सात दिन तक अध्ययन का निषेध है। आचार्य का स्वर्गवास एक योजन दूर होने पर तीन दिन तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन निषिद्ध है।
प्राणी के तीव्र दु:ख से मरणासन्न होने पर या अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा एक निवर्तन (एक बीघा या गुठा) मात्र में तिर्यंचों का संचार होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए । उतने मात्र में स्थावरकाय के घात होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्ध के आने पर या ग्रन्थ का ठीक अर्थ समझ में न आने पर अथवा अपने शरीर के शुद्ध न होने पर मोक्ष इच्छुक मुनि को सिद्धान्त का अध्ययन नहीं करना चाहिए ।
मल-विसर्जन भूमि से सौ अरत्नि प्रमाण दूर, मूत्र-विसर्जन के स्थान से पचास अरत्नि दूर, मनुष्य शरीर के लेश मात्र अवयव के स्थान से पचास धनुष और तिर्यंचों के शरीर सम्बन्धी अवयवों के स्थान से उससे आधी मात्र-पच्चीस धनुष प्रमाण भूमि को शुद्ध करना चाहिए ।
व्यन्तरों द्वारा भेरी ताड़न करने पर, उनकी पूजा का संकट होने पर, कर्षण के होने पर, चाण्डाल बालकों के द्वारा समीप में झाडू-बुहारी करने पर; अग्नि, जल व रुधिर की तीव्रता होने पर तथा जीवों के मांस व हड्डियों के निकाले जाने पर क्षेत्र विशुद्धि नहीं होती, जैसा कि सर्वज्ञों ने कहा है।
मुनि क्षेत्र की शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरों को शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देश में स्थित होकर वाचना को ग्रहण करे। बाजू, काँख आदि अपने अंग का स्पर्श न करता हुआ उचित रीति से अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययन करके, पश्चात् शास्त्रविधि से वाचना को छोड़ दे।
साधुओं ने बारह तपों में भी स्वाध्याय को श्रेष्ठ तप कहा है। पर्व दिनों में-नन्दीश्वर के श्रेष्ठ महिम दिवसों-आष्टाहिन्क दिनों में और सूर्य, चन्द्र का ग्रहण होने पर विद्वान् व्रती को अध्ययन नहीं करना चाहिए।
अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों के वियोग को करता है। पौर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशी के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है। यदि साधु जन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या के दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। मध्याह्न काल में किया गया अध्ययन जिन रूप को नष्ट करता है। दोनों संध्याकालों में किया गया अध्ययन व्याधि को करता हैं तथा मध्यम रात्रि में किये गये अध्ययन से अनुरक्त जन भी द्वेष को प्राप्त हो जाते हैं।
अतिशय दु:ख से युक्त और रोते हुए प्राणियो को देखने या समीप में होने पर, मेघों की गर्जना व बिजली के चमकने पर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिए।
‘‘सूत्र और अर्थ की शिक्षा के लोभ से जो मुनि द्रव्य-क्षेत्र आदि की शुद्धि को न करके अध्ययन करते कालशुद्ध्यां१ यद्यत्सूत्रं पठ्यते
तत्तत्केनोक्तमत आह–
सुत्तं गणहरकहिदं तहेव पत्तेयबुद्धिकहिदं च।
सुदकेवलिणा कहिदं अभिण्णदसपुव्वकहिदं च।।२७७।।
सूत्र अंगपूर्ववस्तुप्राभृतादि गणधरदेवै: कथितं सर्वज्ञमुखकमलादर्थं गृहीत्वा ग्रन्थस्वरूपेण रचितं गौतमादिभि:। तथैवैकं कारणं प्रत्याश्रित्य बुद्धा: प्रत्येकबुद्धा:। धर्मश्रवणाद्युपदेशमन्तरेण चारित्रावरणादि-क्षयोपशमात् ग्रहणोल्कापातादिदर्शनात् संसारस्वरूपं विदित्वा गृहीतसंयमा: प्रत्येकबुद्धास्तै: कथितं।
श्रुतकेवलिना कथितं रचितं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वधरेणोपदिष्टं। अभिन्नानि रागादिभिरपरिणतानि दशपूर्वाणि उत्पादपूर्वादीनि येषां तेऽभिन्नदशपूर्वास्तै: कथितं प्रतिपादितमभिन्नदशपूर्वकथितं च सूत्रमिति सम्बन्ध:।।२७७।।हैं वे असमाधि अर्थात् सम्यक्त्व की विराधना, अस्वाध्याय-शास्त्र आदिकों का अलाभ, कलह, व्याधि या वियोग को प्राप्त होते हैं।’’
काल शुद्धि में जो जो सूत्र पढ़े जाते हैं वे वे सूत्र किनके द्वारा कथित होते हैं ? इसका उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-गणधर देव द्वारा कथित, प्रत्येकबुद्धि ऋद्धिधारी द्वारा कथित, श्रुतकेवली द्वारा कथित और अभिन्न दशपूर्वी ऋषियों द्वारा कथित को सूत्र कहते हैं।।२७७।।
आचारवृत्ति-सर्वज्ञदेव के मुखकमल से निकले हुए अर्थ को ग्रहण कर गौतम देव आदि गणधर देवों द्वारा ग्रन्थरूप से रचित जो अंग, पूर्व, वस्तु और प्राभृतक आदि हैं वे सूत्र कहलाते हैं। जो किसी एक कारण को निमित्त करके प्रबुद्ध हुए हैं वे प्रत्येकबुद्ध हैं अर्थात् जो धर्म-श्रवण आदि उपदेश के बिना ही चारित्र के आवरण करने वाले ऐसे चरित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से बोध को प्राप्त हुए हैं,
जिन्होंने ग्रहण-सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण या उल्कापात आदि देखने से संसार के स्वरूप को जानकर संयम ग्रहण किया है वे प्रत्येकबुद्ध हैं अर्थात् प्रत्येकबुद्धि नाम की एक प्रकार की ऋद्धि से सहित जो महर्षि हैं उनके द्वारा कथित शास्त्र सूत्रसंज्ञक है।
उसी प्रकार से द्वादशांग और चौदहपूर्व ऐसे सम्पूर्ण श्रुत के धारक जो श्रुतकेवली हैं उनके द्वारा कथित-उपदिष्ट-रचित शास्त्र भी सूत्र संज्ञक हैं। जो ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व से लेकर विद्यानुवाद नामक दशवें पूर्व को पढ़कर पुन: रागादि भावों में परिणत नहीं हुए हैं वे अभिन्न दशपूर्वी हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित शास्त्र भी सूत्र हैं ऐसा समझना।
विशेष-दशवें पूर्व को पढ़ते समय मुनि के पास अनेक विद्यादेवता आती हैं और उन्हें नमस्कार कर उनसे आज्ञा माँगती हैं। तब कोई मुनि चारित्रमोहनीय के उदय से चारित्र से शिथिल होकर उन विद्याओं को स्वीकार करके चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। इनमें रुद्र तो नियम से दशवें पूर्व को पढ़कर भ्रष्ट होकर दुर्गति के भाजन बनते हैं और कुछ मुनि वापस चारित्र में स्थिर हो जाते हैं वे भिन्न दशपूर्वी कहलाते हैं और कुछ मुनि इन विद्या देवताओं को वापस कर देते हें, स्वयं चारित्र से चलायमान नहीं होते हैं वे अभिन्न दशपूर्वी कहलाते हैं।
इन सूत्रों के लिए क्या विधान है-तत्सूत्रं किम्–
तं पढिदुमसज्भâाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स।
एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्भâाए।।२७८।।
तत्सूत्रं पठितुमस्वाघ्याये न कल्प्यते न युज्यते विरतवर्गस्य संयतसमूहस्य स्त्रीवर्गस्य चार्यिकावर्गस्य च। इतोऽस्मादन्यो ग्रन्थ: कल्प्यते पठितुमस्वाध्यायेऽन्यत्पुन: सूत्रं कालशुद्ध्याद्यभावेऽपि युक्तं पठितुमिति।।२७८।।
िंक तदन्यत्सूत्रमित्यत आह–
आराहणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ।
पच्चक्खाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ।।२७९।।
आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामुद्योतनोद्यवननिर्वाहणसाधनादीनि तस्या निर्युक्तराराधनानिर्युक्ति:। मरणविभक्ति: सप्तदशमरणप्रतिपादकग्रन्थरचना। संग्रह: पंचसंग्रहादय:। स्तुतय: देवागमपरमेष्ठ्यादय:। प्रत्याख्यानं त्रिविधचतुर्विधाहार-दिपरित्यागप्रतिपादनो ग्रन्थ: सावद्यद्रव्यक्षेत्रादिपरिहारप्रतिपादनो वा।
आवश्यका: सामायिकचतुर्विंशतिस्तववन्दना-दिस्वरूपप्रतिपादको ग्रन्थ:। धर्मकथास्त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितानि द्वादशानुप्रेक्षादयश्च। ईदृग्भूूतोऽन्योऽपि ग्रन्थ: पठितुमस्वाध्यायेऽपि च युक्त:।।२७९।।
गाथार्थ-अस्वाध्याय काल में मुनिवर्ग और आर्यिकाओं को इन सूत्रग्रन्थ का पढ़ना ठीक नहीं है। इनसे भिन्न अन्य ग्रन्थ को अस्वाध्याय काल में पढ़ सकते हैं।।२७८।।
आचारवृत्ति-विरतवर्ग अर्थात् संयतसमूह को और स्त्रीवर्ग अर्थात् आर्यिकाओं को अस्वाध्यायकाल में पूर्वोक्त कालशुद्धि आदि से रहित काल में इन सूत्रग्रन्थों का स्वाध्याय करना युक्त नहीं है किन्तु इन सूत्रग्रन्थों से अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को कालशुद्धि आदि के अभाव में भी पढ़ा जा सकता है ऐसा समझना।
इनसे भिन्न अन्य सूत्रग्रन्थ कौन-कौन से हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-
गाथार्थ-आराधना के कथन करने वाले ग्रन्थ, मरण को कहने वाले ग्रन्थ, संग्रह ग्रन्थ, स्तुतिग्रन्थ, प्रत्याख्यान, आवश्यक क्रिया और धर्मकथा संबंधी ग्रन्थ तथा और भी ऐसे ही ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकते हैं।।२७९।।
आचारवृत्ति-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-इन चारों के उद्योतन, उद्यवन, निर्वाहण, साधन और निस्तरण आदि का वर्णन जिन ग्रन्थों में है, वे आराधनानिर्युक्ति ग्रन्थ हैं। सत्रह प्रकार के मरणों के प्रतिपादक ग्रंथों की जो रचना है वह मरणविभक्ति है। संग्रह ग्रन्थ से ‘पंचसंग्रह’ आदि लिये जाते है। स्तुतिग्रन्थ से देवागमस्तोत्र, पंचपरमेष्ठीस्तोत्र आदि सम्बन्धी ग्रन्थ होते हैं।
तीन प्रकार और चार प्रकार आहार के त्याग के प्रतिपादक ग्रन्थ प्रत्याख्यान ग्रन्थ हैं। अथवा सावद्य-सदोष द्रव्य, क्षेत्र आदि के परिहार करने के प्रतिपादक ग्रन्थ प्रत्याख्यान ग्रन्थ हैं। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना आदि के स्वरूप को कहने वाले ग्रन्थ आवश्यक ग्रन्थ हैं। त्रेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र को कहने वाले ग्रन्थ तथा द्वादश अनुप्रेक्षा आदि ग्रन्थ धर्मकथा ग्रन्थ है। इन ग्रन्थों को और इन्हीं सदृश अन्य ग्रन्थों को भी अस्वाध्याय काल में पढ़ा जा सकता है।
विशेषार्थ-वर्तमानकाल में षट्खंडागम सूत्र, कसायपाहुड़ सूत्र और महाबंध सूत्र अर्थात् धवला, जयधवला और महाधवला को सूत्रग्रन्थ माना जाता है। चूंकि श्री वीरसेनाचार्य ने धवला, जयधवला टीका में इन्हें सूत्र सदृश मानकर सूत्र-ग्रन्थ कहा है। इनके अतिरिक्त ग्रन्थों को अस्वाध्याय काल में भी पढ़ा जा सकता है।
कालशुद्धि के अनन्तर किस ग्रन्थ के विषय में और किस अवसर पर क्या क्रियाएं करना चाहिए ? ऐसा कालशुद्ध्यनन्तरं कस्मिन् ग्रन्थे कस्मिंश्चावसरे का: क्रिया: कर्तव्या इति पृष्टेऽत आह–
उद्देस समुद्देसे अणुणापणए अ होंति पंचेव।
अंगसुदखंधभâेणुवदेसा विय पदविभागी य।।२८०।।
उद्देशे प्रारम्भकाले, समुद्देशे शास्त्रसमाप्तौ, अनुज्ञार्पणायां गुरोरनुज्ञायां भवन्ति पंचैव। नात्र केचन निर्दिष्टास्तथाप्यु-पदेशादुपवासा: कायोत्सर्गा वा ग्राह्या:। अथवा अनुज्ञायां एतावत्पंच पणका व्यवहारा: प्रायश्चित्तानि पंचैव भवन्ति ते चोपवासा: कायोत्सर्गा वा। अंगं द्वादशाङ्गानि। श्रुतं चतुर्दशपूर्वाणि। स्कन्ध: वस्तूनि। झेणुव–प्राभृतं।
देशश्च प्राभृतप्राभृतं। पदविभागादेवैâकश:। अंगस्याध्ययनप्रारम्भे समाप्तौ बुद्धिमच्छिष्यानुज्ञायामुपवासा: कायोत्सर्गा वा पंच कर्तव्या भवन्ति। एवं पूर्वाणां, वस्तूनां, प्राभृतानां, प्राभृत-प्राभृतानां प्रारम्भे समाप्तौ अनुज्ञायामेवैâकश: पंच पंचोपवासा: कायोत्सर्गा वा कर्तव्या भवन्तीति।।२८०।।पूछने पर कहते हैं-
गाथार्थ-अंग, पूर्व, वस्तु, प्राभृत, प्राभृतक इनमें से किसी एक-एक के प्रारम्भ में, समाप्ति में और अनुज्ञा के लेने में पाँच ही (क्रियाएँ) होती हैं।।२८०।।
आचारवृत्ति-अंग-बारहअंग, श्रुत–चौदहपूर्व, स्कन्ध-वस्तु, प्राभृत-प्राभृतक, देश-प्राभृतप्राभृत, इन ग्रन्थों में से पदविभागी-एक-एक का अध्ययन प्रारम्भ करने में अर्थात् अंग या बारह अंगों में से किसी एक के उद्देश्य-अध्ययन के प्रारम्भ में, समुद्देश-उस ग्रन्थ के अध्ययन की समाप्ति में और अनुज्ञा-गुरु से उस विषय में आज्ञा लेने पर पाँच ही होते हैं।
यहाँ पर पाँच कहकर किसी क्रिया का निर्देश नहीं किया है कि पाँच क्या होते हैं? फिर भी उपदेश के निमित्त से पाँच उपवास या पाँच कायोत्सर्ग ग्रहण करना चाहिए। अथवा अनुज्ञा में इतने ही पाँच पणक-व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त समझना। अर्थात् पाँच ही उपवास या पाँच कायोत्सर्गरूप प्रायश्चित्त होते हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि बुद्धिमान शिष्य को अंग का अध्ययन प्रारम्भ करने तथा समाप्ति में और गुरु से आज्ञा लेने में ये पाँच उपवास अथवा पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए। ऐसे ही पूर्वग्रन्थ, वस्तुग्रन्थ, प्राभृतग्रन्थ, प्राभृतप्राभृत-ग्रन्थ-इन ग्रन्थों में किसी एक के भी प्रारम्भ में, समाप्ति में और उस विषय में गुरु की आज्ञा लेने पर पाँच-पाँच उपवास या पाँच-पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए।
विशेषार्थ-‘‘अर्थाक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत, वस्तु और पूर्व ये नव तथा इनमें प्रत्येक के साथ समास पद जोड़ने से हुए नव अर्थात् अक्षरसमास, पदसमास आदि ऐसे ये अठारह भेद द्रव्यश्रुत के होते हैं। इन्हीं में पर्याय और पर्यायसमास के मिलाने से बीस भेद ज्ञानरूप श्रुत के होते हैं।
ग्रन्थरूप श्रुत की विवक्षा करने पर आचारांग आदि बारह अंग और उत्पाद, पूर्व आदि चौदह पूर्व होते हैं अर्थात् द्रव्यश्रुत और भावश्रुत की अपेक्षा दो भेद किये गये हैं। उनमें से शब्दरूप और ग्रन्थरूप सब द्रव्यश्रुत हैं। ज्ञानरूप को भावश्रुत कहते हैं। तथा अंगबाह्य नाम से चौदह प्रकीर्णक भी लिये जाते हैं।’’
उपर्युक्त अठारह भेदों के अन्तर्गत जो प्राभृतप्राभृत कहे हैं उनमें से एक-एक वस्तु अधिकार में बीस-बीस प्राभृत होते हैं और एक-एक प्राभृत में चौबीस-चौबीस प्राभृत-प्राभृत होते हैं। आगे पूर्व नामक श्रुतज्ञान के चौदह भेद हो जाते हैं। इन सबका विशेष लक्षण गोम्मटसार जीवकाण्ड की ज्ञानमार्गणा से समझना चाहिए।१
पदविभाग से-एक-एक रूप से पृथक्-पृथक् कालशुद्धि को कहकर अब विनयशुद्धि को कहते हैं-पदविभागत: पृथक्पृथक्कालशुिंद्ध व्याख्याय
विनयशुद्ध्यर्थमाह–
पलियंकणिसेज्जगदो पडिलेहिय अंजलीकदपणामो।
सुत्तत्थजोगजुत्तो पढिदव्वो आदसत्तीए।।२८१।।
िपर्यंकेण निषद्यां गत उपविष्ट: पर्यंकनिषद्यागत: पर्यंकेन वीरासनादिभिर्वा सम्यग्विधानेनोपविष्टस्तेन, प्रतिलिख्य चक्षुषा पिच्छिकया शुद्धजलेन च पुस्तकं भूमिहस्तपादादिकं च सम्मार्ज्य। अञ्जलिना कृत: प्रणामो येनासावञ्जलिकृतप्रणामस्तेन करमुकुलाज्र्तिचक्षुषा सूत्रार्थसंयोग: सम्पर्कस्तेन युक्त: समन्वित: सूत्रार्थयोगयुक्तोऽङ्गादिग्रन्थ: पठितव्योऽध्येतव्य:। आत्मशक्त्या सूत्रार्थाव्यभिचारेण शुद्धोपयोगेन शक्तिमनवगुह्य यत्नेन जिनोक्तं सूत्रमर्थयुक्तं पठनीयमिति।।२८१।।
उपधानशुद्ध्यर्थमाह–
आयंविल णिव्वियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं।
तं तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो।।२८२।।
आचाम्लं सौवीरौदनादिकं, विकृतेर्निर्गतं निर्विकृतं घृतदध्यादिविरहितौदन: अन्यद्वा पक्वान्नादिकं यस्य शास्त्रस्य कर्तव्यमुपधानं सम्यक्सन्मानं तदुपधानं कुर्वाणस्तस्य शास्त्रस्योपधानयुक्तो भवत्येष:। साधुनावग्रहादिकं कृत्वा शास्त्रं सर्वं श्रोतव्यमिति तात्पर्यं पूजादरश्च कृतो भवति।।२८२।।
गाथार्थ-पर्यंकासन से बैठकर पिच्छिका से प्रतिलेखन करके अंजलि जोड़कर प्रणामपूर्वक सूत्र और उसके अर्थ में उपयोग लगाते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना चाहिए।।२८१।।
आचारवृत्ति-मुनि पर्यंकासन से अथवा वीरासन आदि से सम्यक् प्रकार की विधि से बैठकर शुद्ध जल से हाथ-पैर आदि धोकर तथा चक्षु से अच्छी तरह निरीक्षण करके और पिच्छिका से भूमि को, हाथ-पैर आदि को और पुस्तक को परिमार्जित करके मुकुलित हाथ बनाकर अंजलि जोड़कर प्रणाम करके सूत्र और अर्थ के संयोग युक्त अंग आदि ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए।
अपनी शक्ति के अनुसार सूत्र और अर्थ में व्यभिचार न करते हुए अर्थात् सूत्र के अनुसार उसका अर्थ समझते हुए शुद्धोपयोग पूर्वक अर्थात् उपयोग को निर्मल बनाकर और शक्ति को न छिपाकर प्रयत्न पूर्वक जिनेन्द्र देव द्वारा कथित सूत्र को अर्थ सहित पढ़ना चाहिए। यह दूसरी विनयशुद्धि हुई है। अब उपधान का लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-आचाम्ल निर्विकृति या अन्य भी कुछ नियम जिस स्वाध्याय के लिए करना होता है उसके लिए उस नियम को कहते हुए ये मुनि उपधान आचार सहित होते हैं।।२८२।।
आचारवृत्ति-सौवीर-कांजी के साथ भात आदि को आचाम्ल कहते हैं। जो विकृति से रहित है अर्थात् घी, दूध आदि से रहित भात निर्विकृति है। अथवा अन्य पके हुए अन्न आदि भी निर्विकृति हैं। अर्थात् जिस चावल या रोटी आदि में कोई रस-नमक, घी आदि या मसाला आदि कुछ भी नहीं डाला है वह भोजन निर्विकृति है। कोई एक शास्त्र के स्वाध्याय को प्रारम्भ करके उस शास्त्र के पूर्ण हुए पर्यंन्त इन आचाम्ल या िफलटन से प्रकाशित प्रति में निम्नलिखित दो गाथाएँ और हैं-
सुत्तत्थं जप्पंतो अत्थविसुद्धंं च तदुभयविसुद्धं।
पयदेण य वाचंतो णाणविणीदो हवदि एसो।।
अर्थ-अंगपूर्वादि सूत्रों को शुद्ध बोलते हुए उसके अर्थ को भी शुध्द समझते हुए तथा सूत्र और अर्थ दोनों को शुद्ध पढ़ते हुए प्रयत्नपूर्वक जो मुनि वाचना स्वाध्याय करते हैं वे ज्ञानविनीत होते हैं।
विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं। तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि।
यह गाथा आगे आठों ज्ञानाचारों के अनंतर क्र. २८६ की है।
बहुमानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
सुत्तत्थं जप्पंतो वायंतो चावि णिज्जराहेदुं।
आसादणं ण कुज्जा तेण किदं होदि बहुमाणं।।२८३।।
अङ्गश्रुतादीनां सूत्रार्थं यथास्थितं तथैव जल्पन्नुच्चरन् पाठयन् वाचयंश्चापि प्रतिपादयंश्चाप्यन्यस्य निर्जराहेतो: कर्मक्षयनिमित्तं च आचार्यादीनां शास्त्रादीनामन्येषामपि आसादनं परिभवं न कुर्याद् गर्वितो न भवेत्तेन शास्त्रादीनां बहुमानं पूजादिकं कृतं भवति। शास्त्रस्य गुरोरन्यस्य वा परिभवो न कर्तव्य: पूजावचनादिकं च वक्तव्यमिति तात्पर्यार्थ:।।२८३।।
अनिह्नवस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
कुलवयसीलविहूणे सुत्तत्थं सम्मगागमित्ताणं।
कुलवयसीलमहल्ले णिण्हवदोसो दु जप्पंतो।।२८४।।
कुलं गुरुसन्तति:, व्रतानि िंहसादिविरतय:, शीलं व्रतपरिरक्षणाद्यनुष्ठानं तैर्विहीना म्लाना: कुलव्रतशीलविहीना:। मठादिपालनेनाज्ञानादिना वा गुरु: सदोषस्तस्य शिष्यो ज्ञानी तपस्वी च कुलहीन इत्युच्यते। अथवा तीर्थंकरगणधर-सप्तर्धिसंप्राप्तेभ्योऽन्ये यतय: कुलव्रतशीलविहीनास्तेभ्य: कुलव्रतशीलविहीनेभ्य: सम्यक्शास्त्रमवगम्य ज्ञात्वा कुलव्रतशीलैर्ये महान्तस्तान् यदि कथयति तेभ्यो मया शास्त्रं ज्ञातमित्येवं तस्य जल्पतो निह्नवदोषो भवति। आत्मनो गर्वमुद्वहता
निर्विकृति आदि का आहार लेना अर्थात् इस ग्रन्थ के पूर्ण होने तक मेरा आचाम्ल भोजन का नियम है या अमुक रस का त्याग है इत्यादि नियम करना उपधान है। यह उस ग्रन्थ के लिए सम्यक् सम्मानरूप है। ऐसा उपधान-नियम विशेष करके स्वाध्याय करते हुए मुनि उस ग्रन्थ के विषय में उपधानशुद्धि से युक्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि साधु को कुछ नियम आदि करके ग्रन्थ पढ़ने या सुनने चाहिए। इससे उस ग्रन्थ की पूजा और आदर होता है। यह तीसरी शुद्धि हुई।
अब बहुमान का स्वरूप कहते हैं-
गाथायें-निर्जरा के लिए सूत्र और उसके अर्थ को पढ़ते हुए तथा उनकी वाचना करते हुए भी आसादना नहीं करे। इससे बहुमान होता है।।२८३।।
आचारवृत्ति-मुनि निर्जरा के लिए-कर्मों के क्षय हेतु-अंग, पूर्व आदि के सूत्र और अर्थ को, जो जैसे व्यवस्थित हैं वैसे ही उनका उच्चारण करते हुए, पढ़ाते हुए, वाचना करते हुए और अन्यों का भी प्रतिपादन करते हुए आचार्य आदि की, शास्त्रों की और अन्य मुनियों की भी आसादना (तिरस्कार) नहीं करे अर्थात् गर्विष्ठ नहीं होवे। इससे शास्त्रादि का बहुमान होता है, पूजादिक करना होता है। तात्पर्य यह हुआ कि शास्त्र का, गुरु का अथवा अन्य किसी मुनि या आचार्य का तिरस्कार नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके प्रति पूजा, बहुमान आदि सूचक वचन बोलना चाहिए। यह बहुमानशुद्धि चौथी है।
अब अनिह्रव का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-कुल, व्रत और शील से हीन व्यक्ति से सूत्र और अर्थ को ठीक से पढ़कर ‘कुल, व्रत और शील से महान् व्यक्ति से मैंने पढ़ा है’ ऐसा कहना निन्हव दोष है।।२८४।।
आचारवृत्ति-गुरु की संतति-परम्परा का नाम कुल है। हिंसा आदि पाँच पापों से विरति होना व्रत है। व्रतों के रक्षण आदि हेतु जो अनुष्ठान हैं उसे शील कहते हैं। इन कुल, व्रत और शील से जो हीन हैं, म्लान हैं, वे कुल, व्रत और शील विहीन हैं। अर्थात् मठादिकों का पालन करने से अथवा अज्ञान आदि से गुरु सदोष होते हैं ऐसे गुरु के शिष्य यद्यपि ज्ञानी और तपस्वी हैं फिर भी वे शिष्य कुलहीन कहे जाते हैं। अथवा तीर्थंकर भगवान, गणधर देव और सप्तऋद्धि सम्पन्न महामुनियों से अतिरिक्त जो अन्य यतिगण हैं, वे यहां पर कुल,
शास्त्रनिह्नवो गुरुनिह्नवश्च कृतो भवति। ततश्च महान् कर्मबन्ध:। जैनेन्द्रं च शास्त्रं पठित्वा श्रुत्वा पश्चाज्जल्पति न मया तत्पठितं, न तेनाहं ज्ञानीति किन्तु नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसा-धर्मकीर्त्यादिभ्यो मम बोध: संजात इति निर्ग्रन्थयतिभ्य:शास्त्रमवगम्यान्यान् प्रतिपादयति ब्राह्मणादीन्, कस्माल्लोकपूजाहेतोर्यदा मिथ्यादृष्टिरसौ तदाप्रभृति मन्तव्य: निह्नवदोषेणेति। सामान्ययतिभ्यो ग्रन्थं श्रुत्वा तीर्थंकरादीन् प्रतिपादयत्येवमपि निह्नवदोष इति।।२८४।।
व्यंजनार्थोभयशुद्धिस्वरूपार्थमाह–
िंवजणसुद्धं सुत्तं अत्थविसुद्धं च तदुभयविसुद्धं।
पयदेण य जप्पंतो णाणविसुद्धो हवइ एसो।।२८५।।
िव्यञ्जनशुद्धं अक्षरशुद्धं पदवाक्यशुद्धं च दृष्टव्यं देशामर्षकत्वात्सूत्राणां। अर्थविशुद्धं-अर्थसहितं। तदुभयविशुद्धं
व्रत और शील से विहीन माने गए हैं। उन कुलव्रतशील से विहीन यतियों से समाचीन शास्त्रों को समझकर, पढ़कर जो ऐसा कहते हैं कि ‘मैंने कुल, व्रत और शील में महान् ऐसे गुरु से यह शास्त्र पढ़ा है’ इस प्रकार से कहने वाले उन मुनि के निह्नव नाम का दोष होता है। अपने आप में गर्व को धारण करते हुए मुनि के शास्त्र-निह्नव और गुरुनिह्नव दोष होता है और इससे महान् कर्मबन्ध होता है।
जिनेन्द्रदेव कथित शास्त्रों को पढ़कर या सुनकर पुन: यह कहता है कि मैंने वह शास्त्र नहीं पढ़ा है, उस शास्त्र से मैं ज्ञानी नही हुआ हूँ। किन्तु नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा, बौद्ध गुरु-धर्मकीर्ति आदि से मुझे ज्ञान उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार निर्ग्रन्थ यतियों से शास्त्र समझकर अन्य का नाम, ब्राह्मण आदि का नाम प्रतिपादित करने लगता है।
ऐसा किसलिए ?
लोक में पूजा के लिए। अर्थात् लोक में कोई अन्य ख्यातिप्राप्त है और अपने गुरु कुछ कम ख्यात हैं, इसलिए इनका-प्रसिद्ध गुरु या ग्रन्थ का नाम लेने से मेरी लोक में पूजा होगी। यदि ऐसा समझकर कोई मुनि गुरुनिह्नव या शास्त्रनिह्नव करते हैं तो वे निह्नव दोष के निमित्त से उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। सामान्य यतियों से ग्रन्थ को सुनकर जो तीर्थंकर आदि का नाम प्रतिपादित कर देते हैं ऐसा करने से भी वे निह्नव दोष के भागी होते हें। यह अनिह्नव शुद्धि पाँचवीं है।
व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि और तदुभय शुद्धि का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-व्यंजन से शुद्ध, अर्थ से विशुद्ध और इन उभय से विशुद्ध सूत्र को प्रयत्नपूर्वक पढ़ते हुए यह मुनि ज्ञान से विशुद्ध होता है।।२८५।।
आचारवृत्ति-व्यंजनशुद्ध-शब्द से अक्षरों से शुद्धि। पद और वाक्यों से शुद्धि को भी लेना चाहिए, क्योंकि सूत्र देशामर्षक होते हैं अर्थात् सूत्र में एक अवयव का उल्लेख अनेक अवयवों के उल्लेख के लिए उपलक्षणरूप रहता है। अत: व्यंजनशुद्ध शब्द से अक्षर, पद और वाक्यों की शुद्धि को भी समझना चाहिए। उन सूत्रों का अर्थ शुद्ध समझना अर्थशुद्ध है। इन दोनों को शुद्ध पढ़ना तदुभयशुद्ध है। सूत्र का सम्बन्ध
िफलटन से प्रकाशित प्रति में यह अधिक है-
तित्थयकहियं अत्थ गणहररचिदं यदीहिं अणुचरिदं।
णिव्वाणहेदुभूदं सुदमहमखिलं पणिवदामि।।
अर्थ-जो श्रुत तीर्थंकर के द्वारा अर्थरूप से कथित है, गणधर देव के द्वारा द्वादशांगरूप से रचित हैं और अन्य यतियों के द्वारा अनुचरित है अर्थात् परम्परा से कथित है और जो निर्वाण के लिए कारणभूत है, ऐसे सम्पूर्ण-द्वादशांगमय श्रुत को मैं नमस्कार करता हूँ।
च व्यंजनार्थसहितं सूत्रमिति सम्बन्ध:। प्रयत्नेन च व्याकरणद्वारेणोपदेशेन वा जल्पन् पठन् प्रतिपादयन् वा ज्ञानविशुद्धो भवत्येष:। सिद्धांतादीनक्षरविशुद्धानर्थशुद्धान् ग्रंथार्थशुद्धांश्च पठन् वाचयन् प्रतिपादयंश्च ज्ञानविशुद्धो भवत्येष:। अक्षरादिव्यत्ययं न करोति यथा व्याकरणं यथोपदेशं पठतीति ।।२८५।।
किमर्थं विनय: क्रियत इत्याह–
विणएण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं।
तमुवट्ठादि१ परभवे केवलणाणं च आवहदि।।२८६।।
विनयेन श्रुतमधीतं यद्यपि प्रमादेन विस्मृतं भवति तथापि परभवेऽन्यजन्मनि तत्सूत्रमुपतिष्ठते, केवलज्ञानं चावहति प्रापयति तस्मात्कालादिशुद्ध्या पठितव्यं शास्त्रमिति।।२८६।।
ज्ञानाचारप्रबन्धमुपसंहरंश्चारित्राचारप्रबन्धं सूचयन्नाह–
णाणाचारो एसो णाणगुणसमण्णिदो मए वुत्तो।
एत्तो चरणाचारं चरणगुणसमण्णिदं वोच्छं।।२८७।।
ज्ञानाचारो ज्ञानगुणसमन्वितो मयोक्त:। इत उर्ध्वं चरणाचारं चरणगुणसमन्वितं वक्ष्ये कथयिष्येऽनुवदिष्यामीति। तेनात्रात्मकर्तृत्वं परिहृतमाप्तकर्तृत्वं च ख्यापितं।।२८७।।
तीनों के साथ करना चाहिए अर्थात् सूत्रों को अक्षर मात्रादिक से शुद्ध पढ़ना, उनका ठीक-ठीक अर्थ समझना और सूत्र तथा अर्थ दोनों को सही पढ़ना। प्रयत्नपूर्वक व्याकरण के अनुसार अथवा गुरु के उपदेश के अनुसार इन सूत्र, अर्थ और उभय को पढ़ते हुए अथवा अन्य को वैसा प्रतिपादन करते हुए मुनि ज्ञान में विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है।
अभिप्राय यह हुआ कि सिद्धांत आदि ग्रन्थों को अक्षर से शुद्ध, अर्थ से शुद्ध और ग्रन्थ तथा अर्थ इन दोनो से शुद्ध पढ़ता हुआ, उनकी वाचना करता हुआ और उनको प्रतिपादित करता हुआ मुनि ज्ञानविशुद्ध हो जाता है। वह अक्षर आदि का विपर्यय नहीं करता है, व्याकरण के अनुकूल और गुरु उपदेश के अनुकूल पढ़ता है। इस प्रकार से इन तीन शुद्धियों का अर्थात् छठी, सातवीं और आठवीं शुद्धियों का कथन किया गया है। यहाँ तक ज्ञानाचार के आठ भेदरूप आठ शुद्धियों का वर्णन हुआ।
किसलिए ज्ञान किया जाता है ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-विनय से पढ़ा गया शास्त्र यद्यपि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी यह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है।।२८६।।
आचारवृत्ति-विनय से जो शास्त्र पढ़ा गया है, प्रमाद से यदि उसका विस्मरण भी हो जावे, तो अन्य जन्म में वह सूत्र ग्रन्थ उपस्थित हो जाता है, स्मरण में आ जाता है और यह पढ़ा हुआ शास्त्र केवलज्ञान को भी प्राप्त करा देता है। इसलिए काल आदि की शुद्धिपूर्वक शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए।
अब ज्ञानाचार के कथन का उपसंहार करते हुए और चारित्राचार के कथन की सूचना करते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-ज्ञान गुण से सहित यह ज्ञानाचार मैंने कहा है। इससे आगे चारित्र गुण से सहित चारित्राचार को कहूँगा।। २८७।।
आचारवृत्ति-ज्ञानगुण समन्वित ज्ञानाचार मैंने कहा। अब मैं चरण गुण से समन्वित चरणाचार को कहूँगा। यहाँ पर ‘वक्ष्ये’ क्रिया का अर्थ ऐसा समझना कि ‘जैसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है उसी के अनुसार मैं १
तथा प्रतिज्ञानिर्वहन्नाह–
पाणिवहमुसावाद–अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरदी।
एस चरित्ताचारो पंचविहो होदि णादव्वो।।२८८।।
प्राणिवधमृषावादादत्तमैथुनपरिग्रहाणां विरतयो निवृत्तय एष चारित्राचार: पंचप्रकारो भवति ज्ञातव्य:। येन प्राण्युपघातो जायते तत्सर्वं मनसा वचसा कायेन च परिहर्तव्यं येनानृतं, येन च स्तैन्यं, येन मैथुनेच्छा, येन च परिग्रहेच्छा तत्सर्वं त्याज्यमिति।।२८८।।
प्रथमव्रतप्रपंचनार्थमाह–
एइंदियादिपाणा पंचविहावज्जभीरुणा सम्मं।
ते खलु ण हिंसिदव्वा मणवचिकायेण सव्वत्थ।।२८९।।
एकमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रिया:, एकेन्द्रिया आदिर्येषां प्राणानां जीवानां त एकेन्द्रियादय: प्राणा:, ते कियन्त: पंचविधा: पंचप्रकारास्ते, खलु स्फुटं अवद्यभीरुणा सम्यग्विधानेन न िंहसितव्या:, मनसा वचसा कायेन च सर्वत्र पीडा न कर्तव्या न कारयितव्या नानुमन्तव्येति। सर्वस्मिन् काले, सर्वस्मिन् देशे सर्वस्मिन्वा भावे चेति।।२८९।।
कहूँगा।’ इस कथन से यहाँ पर ग्रन्थकर्ता ने आत्मकर्तृत्व का परिहार किया है और आप्तकर्तृत्व को स्थापित किया है। अर्थात् इस ग्रन्थ में जो भी मैं कह रहा हूँ वह मेरा नहीं है किन्तु आप्त के द्वारा कहे हुए को मैं किंचित् शब्दों में कह रहा हूँ। इससे इस ग्रन्थ की प्रमाणता स्पष्ट हो जाती है।
उसी चारित्राचार को कहने की प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-हिंसा और असत्य से तथा अदत्तवस्तुग्रहण, मैथुन और परिग्रह से विरति होना-यह पाँच प्रकार का चारित्राचार है ऐसा जानना चाहिए।।२८८।।
आचारवृत्ति-जीववध, असत्यभाषण, अदत्तग्रहण, मैथुनसेवन और परिग्रह से निवृत्त होना यह पाँच प्रकार का चारित्राचार है। जिसके द्वारा प्राणियों का उपघात होता है उन सब का मन से, वचन से और काय से परिहार करना चाहिए। ऐसे ही, जिनसे असत्य बोलना होता है, जिनसे चोरी होती है, जिनसे मैथुन की इच्छा होती है और जिनसे परिग्रह की इच्छा होती है उन सभी कारणों का त्याग करना चाहिए।
अब प्रथम व्रत का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-एकेन्द्रिय आदि जीव पाँच प्रकार के हैं। पापभीरु को सम्यक् प्रकार से मन-वचन-काय पूर्वक सर्वत्र उन जीवों की निश्चितरूप से हिंसा नहीं करना चाहिए।।२८९।।
आचारवृत्ति-एक इन्द्रिय है जिनकी वे एकेन्द्रिय हैं। यहाँ ‘प्राण’ शब्द से जीवों को लिया है। वे कितने हैं ? पाँच प्रकार के हैं। पापभीरु मुनि को स्पष्टतया, सम्यक् विधान से, उनकी हिंसा नहीं करना चाहिए। मन-वचन-काय से सर्वत्र अर्थात् सर्वकाल में, सर्वादेश में अथवा सभी भावों में इन जीवों को पीड़ित नहीं करना चाहिए, न कराना चाहिए और न करते हुए की अनुमोदना ही करना चाहिए। यह अहिंसा महाव्रत है।
द्वितीय व्रत का स्वरूप निरूपण करने हेतु कहते हैं-
द्वितीयव्रतस्वरूपनिरूपणार्थमाह–
हस्सभयकोहलोहा मणिवचिकायेण सव्वकालम्मि।
मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो।।२९०।।
हास्यभयलोभक्रोधैर्मनोवाक्कायप्रयोगेण सर्वस्मिन् कालेऽतीतानागतवर्तमानकालेषु मृषावादं–परपीडाकरं वचनं नो वदेत्। यत एष मृषावाद: प्रत्ययघाती भवतीति न कस्यापि विश्वासस्थानं जायते। अतो हास्यात्, कोधात्, भयाल्लोभाद्वा परपीडाकरं वस्तुयाथात्म्यविपरीतप्रतिपादकं वचनं मनसा न चिन्तयेत, ताल्वादिव्यापारेण नोच्चारयेत्, कायेन नानुष्ठापयेदिति।।२९०।।
अस्तेयव्रतस्वरूपनिरूपणायाह–
गामे णगरे रण्णे थूलं सचित्त बहु सपडिवक्खं।
तिविहेण वज्जिदव्वं अदिण्णगहणं च तण्णिच्चं।।२९१।।
ग्रामो वृत्त्यावृत:। नगरं चतुर्गोपुरोद्भासि शालं। अरण्यं महाटवीगहनं। उपलक्षणमात्रमेतत्। तेन ग्रामे, नगरे, पत्तने, अरण्ये, पथि, खले, मटंवे, खेटे, कर्वटे, संवाहने, द्रोणमुखे, सागरे, द्वीपे, पर्वते, नद्यां वेत्येवमाद्यन्येष्वपि प्रदेशेषु स्थूलं सूक्ष्मं, सचित्तमचित्तं, बहु स्तोकं वा सप्रतिपक्षं द्रव्यं सुवर्णादिकं धनधान्यं वा द्विपदचतुष्पदजातं वा कांस्यवस्त्राभरणादिकं
गाथार्थ-हास्य, भय, क्रोध और लोभ से मन-वचन-काय के द्वारा सभी काल में असत्य नहीं बोले; क्योंकि वैसा करने वाला असत्यभाषी विश्वासघाती होता है।।२९०।।
आचारवृत्ति-हास्य से, भय से, क्रोध से अथवा लोभ से भूत, भविष्यत् और वर्तमानरूप त्रिकाल में भी पर-पीड़ा उत्पन्न करनेवाले तथा वस्तु के यथावत् स्वरूप से विपरीत प्रतिपादक वचनों को मन में भी नहीं लावे, तालु आदि व्यापार से उनका उच्चारण नहीं करे और काय से उन असत्य वचनों का अनुष्ठान नहीं करे। अर्थात् सदैव मन-वचन-कायपूर्वक असत्य बोलनेवाला सर्वत्र विश्वास का पात्र नहीं रह जाता। यह द्वितीय महाव्रत हआ।
अचौर्यव्रत का स्वरूप-निरूपण करने हेतु कहते हैं-
गाथार्थ-ग्राम में, नगर में तथा अरण्य में जो भी स्थूल, सचित्त और बहुत तथा इनसे प्रतिपक्ष सूक्ष्म, अचित्त और अल्प वस्तु है, बिना दिए हुए उसके ग्रहण करनेरूप उसका सर्वथा ही मन-वचन-कायपूर्वक त्याग करना चाहिए।।२९१।।
आचारवृत्ति-बाड़ से वेष्टित को ग्राम कहते हैं। चार गोपुर वाले परकोटे से सहित को नगर कहते हैं। महाअटवी को अरण्य कहते हैं। ये उपलक्षण मात्र हैं। इससे ग्राम, नगर, पत्तन, अरण्य, मार्ग, खलिहान, मटम्ब, खेट, कर्वट, संवाहन, द्रोणमुख, सागर, द्वीप, पर्वत और नदी तथा अन्य और भी जो कोई प्रदेश-स्थान हैं उन सब में जो भी वस्तु है वह चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल, सचित्त हो या अचित्त, बहुत हो या थोड़ी अथवा सुवर्ण आदि द्रव्य हो या धनधान्य हो या द्विपद-दासी, दास, चतुष्पद-गौ, भैंस आदि हों, कांस्य के बर्तन आदि या वस्त्र, आभरण आदि हों
या पुस्तक, कपलिका-कमण्डलु, नखकतरनी हों या पिच्छिका आदि हों, इनमे से कोई वस्तु उन स्थानों में नष्ट हुई-किसी की खो गई हो, भूल से रह गई हो, किसी की गिर गई हो या किसी ने रखी हो या किसी अन्य के द्वारा संग्रहीत हो-मन-वचन-काय से और कृत-कारित-अनुमोदना से इनमें से बिना दी हुई किसी भी वस्तु का जो ग्रहण है वह चोरी है।
उसका सर्वथा ही वा पुस्तिकाकपलिकानखरदनपिच्छिकादिकं वा, नष्टं वा विस्मृतं पतितं स्थापितं परसंगृहीतं त्रिविधेन मनोवाक्कायै: कृतकारितानुमतैर्वादत्तग्रहणं नित्यं तत्सर्वं वर्जितव्यं। अन्यदप्येवमादिधनादिकं विरोधकारणं नेहितव्यं। यतस्तत्सर्वमदत्तं स्तेयस्वरूपमिति।।२९१।।
चतुर्थव्रतस्वरूपनिरूपणायाह–
अच्चित्तदेवमाणुसतिरिक्खजादं च मेहुणं चदुधा।
तिविहेण तं ण सेवदि णिच्चं पि मुणी हि पयदमणो।।२९२।।
अचित्तं; चित्र–लेप–पुस्त-भांड-शैल-बंधादिकर्मनिर्वर्तितस्त्रीरूपाणि, भवनवानव्यन्तरज्योतिष्क–कल्पवासदेवस्त्रिय:, ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रस्त्रियश्च, वडवागोमहिष्यादितिरश्च्यश्च, एताभ्योजातमुत्पन्नं चतुर्धा मैथुनं रागोद्रेकात्कामाभिलाषां त्रिविधेन मनोवचनकायकर्मभि: कृतकारितानुमतैस्तन्न सेवते। नित्यमपि मुनि: प्रयत्नमना:। हि स्फुटं। स्वाध्यायपरो लोकव्यापाररहित: सर्वा: स्त्रीप्रतिमा: मातृदुहितृभगिनीवत् चिंतेत्।
नैकाकी ताभि: सहैकान्ते तिष्ठेत्। न वर्त्मनि गच्छेत्। न च रहसि मंत्रयेत्। नाप्येकाकी सन्नेकस्या: प्रतिक्रमणादिकं कुर्यात्। येन येन जुगुप्सा भवेत् तत्सर्वं त्याज्यमिति।।२९२।।त्याग करना चाहिए। अन्य भी जो कुछ इसी प्रकार का धन आदि, जो कि विरोध का कारण हो, उसकी भी इच्छा नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह सब विना दिया हुआ धनादि चोरी स्वरूप है। तात्पर्य यह है कि किसी भी स्थान में कोई भी वस्तु कैसी भी क्यों न हो यदि वह उसके स्वामी द्वारा दी हुई नहीं है तो उसको लेना चोरी है। उस चोरी का त्याग करना यह अचौर्य महाव्रत है।
चतुर्थव्रत का स्वरूप निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-अचेतन, देव, मनुष्य और तिर्यंच इन सम्बन्धी स्त्रियों से होने वाला चार प्रकार का जो मैथुन है, प्रयत्नचित्त वाले मुनि निश्चितरूप से, नित्य ही मनवचनकाय से उसका सेवन नहीं करते हैं।।२९२।।
आचारवृत्ति-चित्र, लेप, पुस्त, भांड, शैल-बंध आदि के बने हुए स्त्री-रूप अचेतन हैं। अर्थात् वस्त्र, कागज, दीवाल आदि पर बने हुए स्त्रियों के चित्र, लेप से निर्मित स्त्रियों की मूर्तियाँ, सोने पीतल आदि धातु तथा पाषाण आदि से निर्मित मूर्तियाँ या पत्थर पर उकेरे गये स्त्रियों के आकार ये सब अचेतन स्त्रीरूप हैं।
भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवों की देवागंनाएँ देवस्त्री हैं। बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनकी स्त्रियाँ मनुष्यस्त्री हैं और घोड़ी, गाय, भैंस आदि तिर्यंच तिर्यंचस्त्री हैं। इन चार प्रकार की स्त्रियों से उत्पन्न हुआ जो मैथून है अर्थात् राग के उद्रेक से होनेवाली जो कामसेवन की अभिलाषा है, प्रयत्नमना मुनि नित्य ही मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से (अर्थात् ३²३·९ नव कोटि से) निश्चित ही इस मैथुन का सेवन नहीं करते हैं।
तात्पर्य यह है कि स्वाध्याय में तत्पर हुए मुनि लोक-व्यापार से रहित होते हुए इन सभी स्त्रियों को माता, पुत्री और बहिन के समान समझें। एकाकी मुनि इन स्त्रियों के साथ एकान्त में नहीं रहे, न मार्ग में गमन करे और न एकान्त में इनके साथ किंचित् ही विचारविमर्श करे। एकाकी मुनि एक आर्यिका के साथ प्रतिक्रमण आदि भी नहीं करे। कहने का सार यही है कि जिस-जिस व्यवहार से निन्दा होवे वह सब व्यवहार छोड़ देना चाहिए । यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
पाँचवें व्रत का स्वरूप कहते हैं-पंचमव्रतप्रपंचनार्थमाह–
गामं णगरं रण्णं थूलं सच्चित्त बहु सपडिवक्खं।
अज्झत्थ बाहिरत्थं तिविहेण परिग्गहं वज्जे।।२९३।।
ग्रामं, नगरं, अरण्यं, पत्तनं, मटंवादिकं च। स्थूलं क्षेत्रगृहादिकं। सचित्तं दासीदासगोमहिष्यादिकं। बहुमनेकभेदभिन्नं। सप्रतिपक्षं सूक्ष्मं१ चित्रैकरूपं नेत्रचीनकौशेयद्रव्यमणिमुक्ताफलसुवर्णभाण्डादिकं। अध्यात्मं मिथ्यात्व–वेद-राग-हास्य- रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-क्रोध-मान-माया-लोभात्मकं बहिस्थं क्षेत्रवास्त्वादिकं दशप्रकारं। मनोवाक्कायकर्मभि: कृतकारितानुमतै: परिग्रहं श्रामण्यायोग्यं वर्जयेत्। सर्वथा मूर्च्छा त्याज्येति नै:सर्ग्य (नै:संग्य)-माचरेत्।।२९३।।
अथ महाव्रतानामन्वर्थव्युत्पिंत्त प्रतिपादयन्नाह–
साहंति जं महत्थं आचरिदाणी य जं महल्लेिंह।
जं च महल्लाणि तदो महव्वयाइं भवे ताइं।।२९४।।
यस्मान्महार्थं मोक्षं साधयन्ति, यस्माच्च महद्भिस्तीर्थकरादिभिराचरितानि सेवितानि, यतश्च स्वत एव महान्ति सर्वसावद्यत्यागात् ततस्तानि महाव्रतानि भवन्ति। न पुन: कपालादिग्रहणेनेति।।२९४।।
गाथार्थ-ग्राम, नगर, अरण्य, स्थूल, सचित्त और बहुत तथा स्थूल आदि से उल्टे सूक्ष्म, अचित्त, स्तोक ऐसे अंतरंग और बहिरंग परिग्रह को मन-वचन-काय से छोड़ देवें।।२९३।।
आचारवृत्ति-ग्राम, नगर, वन, पत्तन और मटंब आदि स्थूल अर्थात् खेत, घर आदि; सचित्त-दासी, दास, गौ, महिषी आदि; बहु-अनेक भेदरूप; इनसे उलटे सूक्ष्म-नेत्र, चीनपट्ट, रेशम, द्रव्य, मणि, मोती, सोना और भांड-बर्तन आदि परिग्रह; अध्यात्म-अन्तरंग परिग्रह-मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चौदह प्रकार का है।
बाह्य परिग्रह-क्षेत्र, वस्तु आदि भेद से दश प्रकार का है। उपर्युक्त ग्राम आदि भेद इन दश में ही सम्मिलित हो जाते हैं। मुनिपने के अयोग्य ऐसे इन चौबीस प्रकार के परिग्रह का मुनि मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदनारूप (३²३·९ नव कोटि) से त्याग कर देवे। अर्थात् मूर्च्छा ही परिग्रह है, उस मूर्च्छा का सर्वथा ही त्यागकर देना चाहिए। इस प्रकार से नि:संग प्रवृत्ति का आचरण करना चाहिए।
अब महाव्रतों की अन्वर्थ व्युत्पत्ति प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-जिस हेतु से ये महान् पुरुषार्थ को सिद्ध करते हैं और जिस हेतु से ये महापुरुषों के द्वारा आचरण में लाये गए हैं और जिस हेतु से ये महान् हैं उसी हेतु से ये महाव्रत कहलाते हैं।।२९४।।
आचारवृत्ति-जिस कारण से ये महान् मोक्ष को सिद्ध करते हैं, जिस कारण से तीर्थंकर आदि महापुरुषों के द्वारा सेवित हैं और जिस कारण से ये स्वत: ही महान् हैं क्योंकि ये सर्वसावद्य के त्यागरूप हैं, उसी कारण से ये महाव्रत कहलाते हैं। किन्तु कपाल आदि पात्रों को ग्रहण करने से कोई महान् नहीं होते हैं। अर्थात् कपाल आदि का जैनागम में निषेध है, ये महाव्रत के लक्षण नहीं हैं, अपितु उपर्युक्त अर्थ ही महाव्रत का अन्वर्थ है।
रात्रिभोजननिवृत्ति आदि निरूपण के लिए जो उत्तरप्रबन्ध है वह किसलिए है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-अथ
रात्रिभोजननिवृत्त्यादिनिरूपणोत्तरप्रबन्ध: किमर्थ इति पृष्टेऽत आह–
तेिंस चेव वदाणं रक्खट्ठं रादिभोयणणियत्ती१।
अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ।।२९५।।
तेषामेव महाव्रतानां रक्षणार्थं रात्रिभोजननिवृत्ति:। रात्रौ भोजनं तस्य निवृत्ती रात्रिभोजननिवृत्ति:। बुभुक्षितोऽपि भोजनकालेऽतिक्रान्ते नैवाहारं चिन्तयति। नाप्युदकादिकं। अष्टौ प्रवचनमातृका-पंच समितयस्त्रिगुप्तय:। भावनाश्च सर्वा: पंचिंवशतय: महाव्रतानां पालनाय वक्ष्यन्त इति।।२९५।।
यते रात्रौ भोजनक्रियायां प्रविशतो दोषानाह–
तेिंस पंचण्हं पि य ण्हयाणमावज्जणं च संका वा।
आदविवत्ती अ हवे रादीभत्तप्पसंगेण।।२९६।।
तेषां पंचानामप्यह्नवानां व्रतानामासमन्ताच्चावर्जनं भंग: म्लानता, आशङ्का वा लोकस्य किमितिकृत्वायं प्रव्रजितो रात्रौ प्रविष्टो दुरारेक: स्यात्। गृहस्थानामात्मविपत्तिश्च भवेत्। स्थाणुपशुिंसह-चौरसारमेयनगररक्षकादिभ्यो रात्रिभक्तप्रसंगेन रात्रावाहारार्थं पर्यटतस्तस्माद्रात्रिभोजनं त्याज्यमिति।
गाथार्थ-उन ही व्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन का त्याग, आठ प्रवचन मातृकाएँ और सभी भावनाएँ हैं।।२९५।।
आचारवृत्ति-उन्हीं ही पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन-त्याग व्रत है। मुनि क्षुधा से पीड़ित होते हुए भी भोजनकाल निकल जाने पर आहार का विचार नहीं करते हैं। प्रवचनमातृका आठ हैं-पाँच समिति और तीन गुप्ति। सभी भावनाएँ पच्चीस हैं। महाव्रतों के पालन हेतु इन सबको आगे कहेंगे।
यदि मुनि रात्रि में भोजन के लिए प्रवेश करते हैं तो क्या दोष आते हैं ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-रात्रिभोजन के प्रसंग से उन पाँचों व्रतों में भी मलिनता अथवा आशंका और अपने पर विपत्ति भी हो जाती है।।२९६।।
आचारवृत्ति-यदि मुनि रात्रि में भोजन के लिए निकलते हैं तो उन पाँचों में भी अह्नव-व्रतों में सब तरह से भंग, म्लानता-मलिनता हो जाती है। अथवा लोगों को आशंका हो सकती है कि यह दीक्षित हुए मुनि किसलिए यहाँ रात्रि में प्रवेश करते हैं? अर्थात् ये चोरी के लिए आ रहे हैं या व्यभिचार के लिए आ रहे हैं इत्यादि आशंकाएँ भी लोगों के मन में उठने लगेंगी। गृहस्थों की विपत्ति अथवा स्वयं को भी विपत्तियाँ आ सकती हैं। अर्थात् ठूँठ लग जाने से, पशुओं के त्रास से, चोरों के द्वारा त्रास देने से या कुत्ते के भौंकने से-काट देने से या कोतवाल द्वारा पकड़ लिए जाने आदि के प्रसंगों से अपने पर संकट भी आ सकता है। इसलिए रात्रिभोजन का त्याग कर देना चाहिए।
विशेष-मुनियों के लिए रात्रिभोजन त्याग को अन्यत्र आचार्यों ने छठा अणुव्रत नाम दिया है। यथा-मुनियों के जो दैवसिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण हैं वे गौतमस्वामीकृत है उनके विषय में टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य ने ऐसा कहा है कि ‘श्रीगौतम स्वामी’ मुनियों को दुःषमकाल में दुष्परिणाम आदि के द्वारा प्रतिदिन उपार्जित कर्मों की विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुए उसके आदि में मंगल हेतु इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करतें हैं२-
इन प्रतिक्रमणों में स्थल-स्थल पर छठे अणुव्रत का उल्लेख है। जैसे कि ‘‘आहावरे छट्ठे अणुव्वदे सव्वं पंचविधमाचारं व्याख्याय
समित्यादिद्वारेणाष्टविधं व्याख्यातुकाम: प्राह–
पणिधाणजोगजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु।
एस चरित्ताचारो अट्ठविहो होइ णायव्वो।।२९७।।
प्रणिधान परिणामस्तेन योग: सम्पर्क: प्रणिधानयोग:। युक्तो न्याय्य: शोभनमनोवाक्कायप्रवृत्तय:। पंचसमितिषु त्रिषु गुप्तिषु। एष चारित्राचारोऽष्ट विधो भवति ज्ञातव्य:। महाव्रतभेदेन पंचप्रकार: आचार:। अथवा समितिगुप्तिविषयपरिणाम-भेदेनाष्टप्रकारो न्याय्य आचार इति।।२९७।।
अथ युक्त इति विशेषणं किमर्थमुपात्तमित्याशंकायामाह–
पणिधाणं पि य दुविहं पसत्थ तह अप्पसत्थं च।
समिदीसु य गुत्तीसु य पसत्थ सेसमप्पसत्थं तु।।२९८।।
प्रणिधानमपि द्विप्रकारं। प्रशस्तं शुभं। तथाऽप्रशस्तमशुभमिति। समितिषु गुप्तिषु प्रशस्तं प्रणिधानं। तथाशेषमप्रशस्तमेव। भंत्ते। राइभोयणं पच्चक्खामि जावज्जीवं।’’१
अकलंक देव पाँच व्रतों के वर्णन करने वाले सूत्र के भाष्य में कहते हैं-
‘‘रात्रिभोजन विरति को यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यह भी छठा अणुव्रत है ? उत्तर देते हैं-नहीं, क्योंकि अहिंसाव्रत की भावनाओं में यह अन्तर्भूत हो जाता है।’’ इत्यादि।
कहने का मतलब यही है कि इस व्रत को छठा अणुव्रत कहा गया है। इसे अणुव्रत कहने का अभिप्राय यह भी हो सकता है कि भोजन का सर्वथा त्याग न होकर रात्रि में ही है। अतएव ‘अणुव्रत’ संज्ञा सार्थक है।
पाँच प्रकार के आचार महाव्रत का व्याख्यान करके अब समिति आदि के द्वारा अष्टविध प्रवचनमातृका को कहने के इच्छुक आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-पाँच समिति और तीन गुप्तियों में शुभ मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप यह चारित्राचार आठ प्रकार का है ऐसा जानना चाहिए।।२९७।।
आचारवृत्ति-प्रणिधान परिणाम को कहते हैं। उसके साथ योग-संपर्क सो प्रणिधानयोग है। युक्त का अर्थ न्यायरूप है। अर्थात् शोभन मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को प्रणिधानयोग युक्त कहा है। पाँच समिति और तीन गुप्तियों में जो शुभ परिणाम युक्त प्रवृत्ति है सो यह आठ प्रकार का चारित्राचार है। और महाव्रत के भेद से पांच प्रकार का आचार अथवा समिति, गुप्ति विषयक परिणाम के भेद से आठ प्रकार का यह न्याय रूप आचार है।
भावार्थ-चारित्राचार के पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे तेरह भेद होते हैं। उन्हें ही यहाँ पर पृथक्-पृथक् कहा है।
यहाँ ‘युक्त’ यह विशेषण किसलिए ग्रहण किया है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-प्रणिधान के भी दो भेद हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। समितियों और गुप्तियों में तो प्रशस्त है और शेष प्रणिधान अप्रशस्त है।।२९८।।
आचारवृत्ति-प्रशस्त-शुभ और अप्रशस्त-अशुभ के भेद से प्रणिधान भी दो प्रकार का है। समिति और गुप्ति में प्रशस्त प्रणिधान है तथा शेष प्रणिधान अप्रशस्त ही है। सम्यक् प्रकार से अयन अर्थात् सम्यगयनं जीवपरिहारेण मार्गोद्योते धर्मानुष्ठानाय गमनं प्रयत्नपरस्य यतेर्यत् सा समिति:।
अशुभमनोवाक्कायानां गोपनं स्वाध्यायध्यानपरस्य मनोवाक्कायसंवृतिर्गुप्ति:। एतासु यत्प्रणिधानं स युक्तोऽष्टप्रकारश्चारित्राचार इति। शेषं पुनर्यदप्रशस्तं प्रणिधानं तद्विविधमिन्द्रियनोइंद्रियभेदेन।।२९८।।
इन्द्रियप्रणिधानस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
सद्दरसरूवगंधे फासे य मणोहरे य इदरे य।
जं रागदोसगमणं पंचविहं होइ पणिधाणं।।२९९।।
शब्दरसरूपगन्धस्पर्शेषु मनोहरेषु शोभनेषु, इतरेष्वशोभनेषु, यद्रागद्वेषयोर्गमनं प्रापणं तत्पंचप्रकारमिन्द्रियप्रणिधानं भवति। स्त्रीपुरुषादिप्रवृत्तेषुषड्जर्षभ-गान्धार-मध्यम-पंचम-धैवत-निषादभेदभिन्नेषु आरोह्यवरोहिस्थायिसंचारिचतुर्वर्णयुक्तेषु षडलंकारद्विविधकाकुभिन्नेषु मूर्च्छनास्त्यानादिप्रयुक्तेषु सुस्वरेषु यद्रागप्रापणं, तथा कोकिलमयूरभ्रमरादिशब्देषु वीणारावणहस्तवंशादिशब्देषयद्रागकरणं, तथोष्ट्रखर-करभादिप्रयुक्तेषु दु:स्वरेषु उर:कण्ठशिरस्त्रिस्थानभेदभिन्नेष्वनिष्टेष गमन
को या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। अर्थात जीवों के परिहारपूर्वक जैनमार्ग के प्रकाश में, प्रयत्न में तत्पर हुए यति का धर्मानुष्ठान के लिए जो गमन है या प्रवृत्ति है वह समिति है। गोपनं गुप्ति: अर्थात् अशुभ मन-वचन-काय को गोपन करना गुप्ति है।
स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर यति के जो मन-वचन-काय का संवृत करना या नियन्त्रित करना-रोकना है वह गुप्ति है। इन पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में जो प्रणिधान है वह युक्त अर्थात् न्यायरूप है, प्रशस्त है वही आठ प्रकार का चरित्राचार है।
पुन: शेष जो अप्रशस्त प्रणिधान है वह इन्द्रिय और नो इन्द्रिय के भेद से दो प्रकार का है।
भावार्थ-प्रशस्त परिणाम समिति और गुप्तिरूप से आठ प्रकार का है और अप्रशस्त परिणाम इन्द्रिय और मन के विषय के भेद से दो प्रकार का है।
अब इन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-मनोहर और अमनोहर ऐसे शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श में जो राग-द्वेष को प्राप्त होना है वह पाँच प्रकार का इन्द्रिय प्रणिधान है।।२९९।।
आचारवृत्ति-शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श ये पाँचों इन्द्रियों के विषय मनोहर और अमनोहर ऐसे दो प्रकार के होते हैं। इन दोनों प्रकार के विषयों में जो राग-द्वेष का होना है वह पाँच प्रकार का इन्द्रिय प्रणिधान है।
स्त्री-पुरुष आदि के द्वारा प्रयुक्त किये गये षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात स्वर हैं। ये आरोही, अवरोही, स्थायी और संचारी ऐसे चार प्रकार के वर्णों से युक्त हैं। छह प्रकार के अलंकार और दो प्रकार की काकु ध्वनि से भेदरूप है। तथा मूच्छर्ना, स्त्यान आदि के द्वारा जो प्रयुक्त किये जाते हैं ये सुस्वर हैं।
इनमें राग करना तथा कोयल, मयूर, भ्रमर आदि के शब्द और वीणा, रावण के हस्त की वीणा एवं बाँसुरी आदि से उत्पन्न हुए शब्दों में राग करना; तथा ऊँट, गधा, करभ आदि के द्वारा प्रयुक्त दुस्वरों में जो ह्रदय, कण्ठ और मस्तक इन तीनों स्थानों से उत्पन्न होने के भेदों से सहित हैं और अनिष्ट-अमनोहर हैं इनसे द्वेष करना यह श्रोत्रेन्द्रिय प्रणिधान है।
तिक्त, कटु, कषायला, अम्ल और मधुर ये पाँच प्रकार के रस है। ये मनोहर और अमनोहर होते हैं। तथा तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर और मन्दतम ऐसे भेद वाले गुड़, खांड, दही, घी, दूध आदि पीने वाले पदार्थ मनोहर हैं एवं नीम, काँजीर, विष, खल, यवस, कुष्ठ आदि पदार्थ अमनोहर हैं। इन इष्ट या यद्द्वेषकरणं। तथा तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदभिन्नेषु सुप्रयुक्तेषु मनोहरेष्वमनोहरेषु तीव्रतीव्रतरतीव्रतम-मन्दमन्दतरमन्दतमेषु गुडखंडदधिघृतपय:-
पानादिगतेषु िंनबकांजीरविषखल१यवसकुष्ठादिगतेषु च रसेषु यद्रागद्वेषयो: करणं। तथा स्त्रीपुरुषादिगतेषु गौरश्यामादिवर्णेषु रूपेषु हावभावहेलांगजभावप्रयुक्तेषु २लीलाविलासविच्छित्तिविभ्रमकिलिंकचित-मोट्टायितकु-ट्टिमितविव्वोकललितविहृतैर्दशभि: स्वाभाविवैâर्भावैर्युक्तेषु शोभाकान्तिमाधुर्यधैर्यप्रागल्भ्यौदार्यैरयत्नजै: प्रयोजितेषु द्वािंत्रशत्करणयुक्तेषु कटाक्षनिरीक्षणपरेषु नृत्तगीतहास्यादिमनोहरेषु रूपेषु तद्विपरीतेष्वमनोहरेषु रागद्वेषप्रयुक्तेषु (क्तं) द्विविधगन्धेषु शोभनाशोभनभेदभिन्नेषु
आर्द्रमहिषीयक्षकर्दमकस्तूरीकर्पूरकालागुरुचन्दनकुंकुमजातिमल्लिका–पाटलादिविभिन्नेषु तथा विभीतकाशुचिस्वेदव्रणादिप्रभवेष्वनिष्टेषु यद्रागद्वेषयो: करणं। तथाष्टप्रकारेषु स्पर्शेषु मृदुकर्कशशीतोष्णस्निग्धरूक्षगुरुलघुभेदभिन्नेषु स्त्रीवस्त्र३ सूलीकादिप्रभवेषु तथा भूमिशिलातृणशर्करादिप्रभवेषु यद्रागद्वेषकरणं तत्सर्वमिन्द्रियप्रणिधानमस्तीति४।।२९९।।
इन्द्रियप्रणिधानमुक्तमीषदिन्द्रयप्रणिधानं िंकस्वरूपमिति पृष्टेऽत आह–
णोइंदियपणिधाणं कोहे माणे तहेव मायाए।
लोहे य णोकसाए मणपणिधाणं तु तं वज्जे।।३००।।
अनिष्ट रसों में जो राग-द्वेष करना है वह रसनेन्द्रिय-प्रणिधान है।
स्त्री-पुरुष आदि में होने वाले गौर, श्याम आदि वर्ण रूप कहलाते हैं। उन रूपों में स्वाभाविक भाव, अंगजभाव आदि उत्पन्न होने से वे मनोहर लगते हैं। यथा-हाव, भाव और हेला ये अंगजभाव हैं। ४लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोहायित, कुट्टिमित, विव्वोक, ललित और विहृत ये दश स्त्रियों के स्वाभाविक भाव हैं।
शोभा, कांति, माधुर्य, धैर्य, प्रगल्भता और औदार्य ये अयत्नज भाव हैं।५ बत्तीस करण होते हैं। कटाक्ष से देखना, नृत्य, गीत, हास्य आदि का प्रयोग करना इत्यादि सब मनोहर रूप के ही भेद हैं। इनसे राग करना तथा इनसे विपरीत अमनोज्ञरूप में द्वेष करना यह चक्षुइन्द्रियप्रणिधान है।
गन्ध के भी शोभन और अशोभन दो भेद होते हैं। आर्द्रमहिषी (सुगंधित पदार्थ), यक्षकर्दम-महासुगंधियुक्त द्रव्य, कस्तूरी, कपूर, कालागुरु, चन्दन, कुंकुम (केशर), जातिपुष्प, मल्लिका पुष्प, पाटलपुष्प (गुलाब) आदि से उत्पन्न होने वाली सुगन्ध अनेक प्रकार है। तथा विभीतक-अपवित्र वस्तु, पसीना या व्रण आदि से उत्पन्न हुआ दुर्गन्ध अनेक प्रकार है। इन सुगन्ध-दुर्गन्ध में राग-द्वेष करना घ्राणेन्द्रिय-प्रणिधान है।
स्पर्श आठ प्रकार के हैं-मृदु, कठोर, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु और लघु। स्त्री , वस्त्र, शय्या आदि से उत्पन्न सुखकर स्पर्श में राग करना तथा भूमि, शिला, तृण, शर्करा (मोटी रेत) आदि से उत्पन्न हुए दु:खकर स्पर्श में द्वेष करना यह स्पर्शनेंद्रिय-प्रणिधान है। इस प्रकार से सभी इन्द्रियसम्बन्धी प्रणिधान का वर्णन किया गया है।
इन्द्रिय प्रणिधान के स्वरूप का कथन किया। ईषत् इन्द्रिय अर्थात् मन:प्रणिधान् का क्या स्वरूप है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-क्रोध, मान, माया तथा लोभ में नोइन्द्रिय प्रणिधान और नव नोकषायों में जो मन का प्रणिधान है उनको छोड़ देवे।।३००।।
आचारवृत्ति-क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषायें चार हैं। इन प्रत्येक के भी चार-चार भेद- क्रोधे माने मायायां तथैव लोभे चैकस्ंिमश्चतुर्विधे एतद्विषये यदेतन्मन:प्रणिधानं मनोव्यापारस्तन्नोइन्द्रियप्रणिधानं। तदेतदिन्द्रियप्रणिधानं नोइन्द्रियप्रणिधानं चाप्रशस्तमयुक्तं वर्जयेत् वर्जयितव्यमिति।।३००।।
समितिगुप्तिविषय: प्रणिधानयोगोऽष्टविध आचारोक्त१ इति प्रतिपादितं तत: का: समितयो गुप्तयश्चेत्याशंकायामाह–
णिक्खेवणं च गहणं इरियाभासेसणा य समिदीओ।
पदिठावणियं च तहा उच्चारादीणि पंचविहा।।३०१।।
निक्षेपणं निक्षेप: पुस्तिकाकुण्डिकादिव्यवस्थापनं। तेषामेव ग्रहणमादानं समीक्ष्य, सैषादाननिक्षेपणसमिति:। धर्मार्थिनो यत्नपरस्य गमनमीर्यासमिति:। सावद्यरहितभाषणं भाषासमिति: कृतकारितानुमतरहिताहारादानमशनसमिति:। समितिशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। उच्चारादीनां मूत्रपुरीषादीनां प्रासुकप्रदेशे प्रतिष्ठापनं त्याग: प्रतिष्ठापनासमिति:। इत्येवं पंचविधा समितिरिति।।३०१।।
तत्र तावदीर्यासमितिस्वरूपप्रपंचार्थमाह–
मग्गुज्जोवुवओगालंबणसुद्धीिंह इरियदो मुणिणो।
सुत्ताणुवीचि भणिया इरियासमिदी पवयणम्मि।।३०२।।
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन रूप होते हैं। अर्थात् अनन्तानुबन्धी आदि के भेद से क्रोधादि कषायें सोलह भेदरूप हैं। इन कषायों के विषय में जो मन का प्रणिधान अर्थात् व्यापार है वह नोइन्द्रिय-प्रणिधान है तथा जो हास्य आदि नोकषायों में मन का व्यापार है वह भी नोइन्द्रिय-प्रणिधान है।
पूर्वकथित इन्द्रिय-प्रणिधान और यहाँ पर कथित नोइन्द्रिय-प्रणिधान, ये दोनों ही अप्रशस्त होने से अयुक्त हैं इसलिए इनका त्याग कर देना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों में जो राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति होती है और क्रोधादिक विषयों में जो मन की प्रवृत्ति होती है यह सब अशुभ है इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
समिति और गुप्ति के विषय में जो प्रणिधानयोग-शुभ परिणाम की प्रवृत्ति है वह आठ प्रकार का आचार कहा गया है ऐसा आपने प्रतिपादन किया। पुन: वे समितियाँ और गुप्तियाँ कौन-कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-ईर्या, भाषा, एषणा तथा निक्षेपणग्रहण और मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापन ये समितियाँ पाँच प्रकार की हैं।।३०१।।
आचारवृत्ति-यत्न में तत्पर हुए धर्मार्थी अथवा धर्म की इच्छा रखते हुए मुनि का गमन ईर्यासमिति है। सावद्यरहित वचन बोलना भाषा समिति है। कृत, कारित अनुमोदना से रहित आहार को ग्रहण करना एषणा समिति है। पुस्तक, कमण्डलु आदि का देख-शोधकर रखना तथा उन्हें ग्रहण करना आदान-निक्षेपण समिति है। मलमूत्र का प्रासुक स्थान में प्रतिष्ठापन-त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है। इस तरह पाँच प्रकार की समिति होती हैं।
अब पहले ईर्या समिति के स्वरूप को विस्तार से कहते हैं-
गाथार्थ-मार्ग में प्रकाश, उपयोग और अवलम्बन की शुद्धि से गमन करते हुए मुनि के सूत्र के अनुसार आगम में ईर्या समिति कही गयी है।।३०२।।
आचारवृत्ति-चलने का रास्ता मार्ग है। चक्षु से देखना और सूर्य का प्रकाश होना आदि उद्योत है। मग्ग–मार्ग: पन्था:। उज्जोव–उद्योतश्चक्षुरादित्यादिप्रकाश:। उवओग–उपयोगो ज्ञानदर्शन विषयो यत्न:। आलंबण–देवतानिर्ग्रन्थयतिधर्मादिकारणं। एतेषां शुद्धयस्ताभिर्मार्गोद्योतोपयोगालम्बनशुद्धिभि:ईर्यतो गच्छतो मुने: सूत्रानुवीच्या प्रायश्चित्तादिसूत्रानुसारेण प्रवचने ईर्यासमितिर्भणिता गणधरदेवादिभिर्भणितेति शेष:।।३०२।।
तावद्गमनं विचार्यत उत्तरगाथयेति–
इरियावहपडिवण्णेणवलोगंतेण होदि गंतव्वं।
पुरदो जुगप्पमाणं सयापमत्तेण संतेण।।३०३।।
वैâलाशोर्जयन्तचम्पापावादितीर्थयात्रासंन्यासदेवधर्मादिकारणेन शास्त्रश्रावणादिकेन वा सप्रतिक्रमणश्रवणादिप्रयोजनेन वोदिते सवितरि प्रकाशप्रकाशिताशेषदिगन्ते विशुद्धदृष्टिसंचारे विशुद्धसंस्तरप्रदेशे ईर्यापथमार्गं प्रतिपन्नेन समीहमानेन कृतस्वाध्यायप्रतिक्रमणदेववन्दनेन पुरतोऽग्रतो युगमात्रं
हस्तचतुष्टयप्रमाणमवलोकयता सम्यक्पश्यता स्थूलास्थूलजीवान-प्रमत्तेन यत्नपरेण श्रुतशास्त्रार्थं स्मरता परिशुद्धमनोवाक्कायक्रियेण स्वाध्यायध्यानोपयुक्तेन सता सदा भवति गन्तव्यमिति।।३०३।।ज्ञानदर्शन विषयक प्रयत्न उपयोग है और देववन्दना, निर्ग्रन्थ यतियों की वन्दना एवं धर्म आदि का निमित्त होना आलम्बन है। इनकी शुद्धियाँ अर्थात् आगम के अनुकूल प्रवृत्तियाँ होना चाहिए।
इन मार्ग शुद्धि, प्रकाश शुद्धि, उपयोग शुद्धि और आलम्बन शुद्धि के द्वारा जो मुनि प्रायश्चित्तादि सूत्र के अनुसार गमन करते हैं उसे ही प्रवचन में गणधर देव आदि महर्षियों ने ईर्या समिति कहा है।
अब अगली गाथा द्वारा गमन के विषय में विचार करते हैं-
गाथार्थ-ईर्यापथपूर्वक हमेशा प्रमादरहित होते हुए चार हाथ प्रमाण भूमि को सामने देखते हुए चलना चाहिए।।३०३।।
आचारवृत्ति-कैलाश पर्वत, ऊर्जयंतगिरि, चंपापुरी, पावापुरी आदि तीर्थों की यात्रा के लिए, मुनियों के संन्यास के देखने या कराने के लिए, देवदर्शन या वन्दना के लिए, अन्य किसी धर्म आदि कारणों से अथवा शास्त्र सुनने या सुनाने, पढ़ने-पढ़ाने आदि प्रयोजन से अथवा प्रतिक्रमण को गुरु से सुनना आदि कार्यों के निमित्त से मुनि को गमन करना चाहिए।
सूर्य का उदय हो जाने पर जब सभी दिशाएँ प्रकाश से प्रकाशित हो जाती हैं और अपनी दृष्टि का विशुद्ध संचार हो जाता है अर्थात् नेत्रों से स्पष्ट दिखने लगता है उस समय संस्तर प्रदेश-सोने के स्थान में संस्तर अर्थात् पाटा, चटाई आदि का शोधन कर चुकने पर, ईर्यापथपूर्वक मार्ग में चलने की इच्छा रखते हुए,
जिन्होंने अपररात्रिक स्वाध्याय, रात्रिक-प्रतिक्रमण और पौर्वान्हिक देववन्दना कर ली है ऐसे मुनि को चाहिए कि वह आगे चार हाथ प्रमाण पृथ्वी को अर्थात् चार हाथ प्रमाण तक पृथ्वी पर स्थित स्थूल और सूक्ष्म जीवों को सम्यक् प्रकार से अवलोकन करते हुए, उनकी रक्षा करते हुए सावधानीपूर्वक गमन करे।
वह श्रुत और शास्त्रों के अर्थ का स्मरण करते हुए, मन-वचन-काय को निर्मल बनाकर, अपने उपयोग को स्वाध्याय और ध्यान में उपयुक्त-तत्पर रखते हुए ही गमन करे।
भावार्थ-मुनि तीर्थयात्रा, देव वन्दना, गुरु वन्दना, साधुओं की सल्लेखना या गुरु के पास शास्त्र पढ़ना, सुनना तथा उनके पास प्रतिक्रमण करना आदि प्रयोजन के निमित्त से ही गमन करते हैं। व्यर्थ ही टहलने आदि के हेतु से नहीं चलते हैं। पहले ये मुनि पिछली रात्रि में अपररात्रिक स्वाध्याय करके रात्रिक प्रतिक्रमण करते हैं और पौर्वान्हिक देववन्दना-सामायिक करते हैं।
अनन्तर ही जब विहार करते हैं, वे अपने शयन के स्थान का भी पिच्छिका से परिशोधन करके पाटा, चटाई, घास आदि को देख-शोधकर एक तरफ करके बाहर निकलते हैं। चलते समय मार्ग में अपने उपयोग को धर्मध्यान में तन्मय रखते हुए गमन पुनरपि श्लोकत्रयेण मार्गशुद्धिस्वरूपप्रतिपादनायाह–
सयडं जाण जुग्गं वा रहो वा एवमादिया।
बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे।।३०४।।
शकटं वलीवर्दादियुक्तं काष्ठमयं यत्रं। यानं मत्तवारणयुक्तं पल्यङ्कजातं, हस्त्यश्वमनुष्यादिभिरुह्यमानं युग्यं पीठिकादिरूपं मनुष्यद्वयेनोह्यमानं। रथो विशिष्टचक्रादियुक्तो मुद्गरभुषुंढितोमरादिप्रहरणपूर्णो जात्यश्वादिभिरुह्यमान: इत्येवमादयोऽन्येऽपि बहुशोऽनेकबारं येन मार्गेण गच्छन्ति स मार्ग: प्रासुको भवेदिति ।।३०४।।
के ते एवमादिका इत्यत आह–
हत्थी अस्सो खरोढो वा गोमहिसगवेलया।
बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे।।३०५।।
हस्तिनोऽश्वा गर्दभा उष्ट्रा गावो महिष्य: गवेलिका अजा अविकादयो बहुशो येन मार्गेण गच्छन्ति स मार्ग: प्रासुको भवेत्।।३०५।।
करना होता है, न कि इधर-उधर देखते हुए या मनोरंजन करते हुए। जीवरक्षा हेतु चार हाथ आगे को जमीन देखते हुए और जीवदया पालते हुए चलना ही ईर्यासमिति है।
इस गाथा के द्वारा आचार्य ने प्रकाशशुद्धि, उपयोगशुद्धि और आलम्बनशुद्धि का वर्णन कर दिया है। आगे मार्गशुद्धि पर प्रकाश डाल रहे हैं।
पुनरपि तीन श्लोक के द्वारा मार्गशुद्धि का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-बैलगाड़ी, अन्य वाहन, पालकी या रथ अथवा ऐसे ही और भी अनेकों वाहन जिस मार्ग से बहुत बार गमन कर जाते हैं वह मार्ग प्रासुक है।।३०४।।
आचारवृत्ति-बैल आदि से युक्त काठी का यंत्र-वाहन बैलगाड़ी है। इसे ही शकट कहते हैं। मत्त हाथी पर रखे हुए हौदा आदि यान है। अथवा हाथी-घोड़े या मनुष्य आदि द्वारा ले जाये जाने वाले यान नाम के वाहन हैं। दो मनुष्यों के द्वारा ले जाये जाने वाले पालकी, डोली आदि युग्य है। विशेष चक्र-पहिए आदि से युक्त को रथ कहते हैं। इसमें मुद्गर, भुषुंढि, तोमर आदि शस्त्र भरे रहते हैं और ये उत्तम जाति के घोड़ों आदि द्वारा ले जाये जाते हैं इसी प्रकार के और भी वाहन हैं। वे सभी अनेक बार जिस मार्ग से चलते रहते हैं वह मार्ग प्रासुक हो जाता है।
विशेष-यहाँ पर बैलगाड़ी, हाथी, घोड़े, पालकी, रथ आदि वाहन को लिया है तथा और भी अन्यों के लिए कहा है। इससे आजकल की बसें, कारें, साइकिल आदि जिस मार्ग पर चलते हैं वह भी प्रासुक हो जाता है, ऐसा समझें।
‘इसी प्रकार से और भी जो कुछ होवें’ ऐसा जो आपने कहा है वे और क्या क्या हैं ? सो ही आचार्य बताते हैं-
गाथार्थ-हाथी, घोड़ा, गधा, ऊँट अथवा गाय, भैस, बकरी या भेड़े जिस मार्ग से बहुत बार चलते हैं वह मार्ग प्रासुक हो जाता है।।३०५।।
आचारवृत्ति-हाथी, घोड़े, गधे, ऊँट, गायें, भैंसें, बकरे और भेड़ आदि जिस मार्ग से बार बार निकलते हैं वह मार्ग प्रासुक-जीवरहित शुद्ध हो जाता है।
गाथार्थ-जिस पर स्त्री-पुरुष चलते रहते हैं, जो आतप अर्थात् सूर्य की किरण आदि से संतप्त हो इत्थी पुंसा व गच्छन्ति आदवेण य जं हदं।
सत्थपरिणदो चेव सो मग्गो फासुओ हवे।।३०६।।
स्त्रिय: पुरुषाश्च येन वा गच्छन्ति। आतापेनादित्यदावानलतापेन यो हत:। शस्त्रपरिणत: कृषीकृत: स मार्ग: प्रासुको भवेत्। तेन मार्गेण यत्नवता स्वकार्येणोद्योतेन गन्तव्यमिति।।३०६।।
भाषासमितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्जं।
वदमाणस्सणवीची भासासमिदी हवे सुद्धा।।३०७।।
सच्चं–सत्यं स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयास्ति, परद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया नास्ति, उभयापेक्षयास्ति च नास्ति च, अनुभयापेक्षयावक्तव्यमित्येवमादि वदतोऽवितथं वचनं। तथा प्रमाणनयनिक्षेपैर्वदत: सत्यं वचनं। असच्चमोसं–असत्यमृषा यत्सत्यं न भवति, अनृतं च न भवति सामान्यवचनं। अलीको–मृषावाद आदिर्येषां दोषाणां ते व्यलीकादिदोषास्तैर्वर्जितं व्यलीकादिदोषवर्जितं परप्रतारणादिदोषरहितं।
अणवज्जं–अनवद्यं िंहसादिपापागमनवचनरहितं। इत्येवं सूत्रानुवीच्या प्रवचनानुसारेण वाचनापृच्छनानुप्रेक्षादिद्वारेणान्येनापि धर्मकार्येण वदतो भाषासमितिभवेच्छुद्धेति।।३०७।।
सत्यस्वरूपं विवृण्वन्नाह-
जमवदसम्मदठवणा णामे रूवे पडुच्चसच्चे य।
संभावणववहारे भावे१ ओपम्मसच्चे य।।३०८।।
सत्यशब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते। जनपदसत्यं, बहुजनसम्मतसत्यं, स्थापनासत्यं, नामसत्यं, रूपसत्यं, प्रतीतिसत्यमन्या-पेक्षसत्यमित्यर्थ:, संभावनासत्यं, व्यवहारसत्यं, भावसत्यं, उपमानसत्यं इति दशधा सत्यं वाच्यमिति सम्बन्ध:।।३०८।।
चुका है और जो शस्त्रों से क्षुण्ण हो गया है वह मार्ग प्रासुक हो जाता है।।३०६।।
आचारवृत्ति-जिस मार्ग से स्त्री-पुरुष गमन करते रहते हैं, जो सूर्य के घाम से अथवा दावानल से संतप्त या दग्ध हो चुका है अर्थात् जिस मार्ग पर सूर्य की किरणें पड़ चुकी हैं या जो अग्नि आदि के संसर्ग से जल चुका है, जिसमें हल आदि चलाये जा चुके हैं अर्थात् जहाँ से किसानों के हल निकल चुके होते हैं वे सभी मार्ग प्रासुक हो जाते हैं। इन-इन प्रासुक मार्गों से सावधानीपूर्वक अपने कार्य के निमित्त से प्रकाश में मुनि को गमन करना चाहिए। यह ईर्यासमिति का लक्षण हुआ।
विशेष-उपर्युक्त प्रकार से जो मार्ग प्रासुक हो जाते हैं। उन मार्गों से चलते हुए भी मुनि दिवस में ही चलें, न कि रात्रि में। सूर्य के प्रकाश में और चक्षु-इन्द्रिय के प्रकाश में ही चले, वह भी प्रयत्नपूर्वक। इसी का नाम ईर्यासमिति है।
अब भाषा समिति का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-असत्य आदि दोषों से वर्जित निर्दोष, ऐसा सत्य और असत्यमृषा वचन आगम के अनुकूल बोलते हुए मुनि के निर्दोष भाषासमिति होती है।।३०७।।
आचारवृत्ति-प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से अस्ति रूप है, वही वस्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से नास्ति रूप है। स्वपर की अपेक्षा से अस्ति और नास्ति इस तृतीय भंग रूप है। अनुभय-स्वपर की अपेक्षा नहीं करने से वही वस्तु अवक्तव्य है। इत्यादि सप्तभंगी रूप या ऐसे ही अन्य भी यथार्थ वचन बोलना सत्य है। तथा प्रमाण, नय और निक्षेपों के द्वारा वचन बोलना भी सत्य है।एतानि
दशसत्यानि विवृण्वन्नाह-
जणपदसच्चं जध ओदणादि य वुच्चदि य सव्वभासेण१।
बहुजणसम्मदमवि होदि जं तु लोए जहा देवी।।३०९।।
जनपदसत्यं देशसत्यं। यथौदनादिरुच्यते सर्वभाषाभि: द्रविडभाषया चौर इत्युच्यते। कर्णाटभाषया कूल इत्युच्यते। गौडभाषया भक्तमित्युच्यते। एवं नानादेशभाषाभिरुच्यमान ओदनो जनपदसत्यमिति जानीहि। बहुभिर्जनैर्यत्सम्मतं तदपि सत्यमिति भवति। यथा महादेवी, मानुष्यपि लोके महादेवीति। यथा देवो वर्षतीत्यादिकं वचनं लोकसम्मतं सत्यमिति वाच्यं। न प्रतिबन्ध: कार्य: एवं न भवतीति कृत्वा। प्रतिबन्धे सत्यमसत्यं स्यादिति।।३०९।।जो सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है ऐसे सामान्य वचन असत्यमृषा अर्थात् अनुभय वचन हैं। ऐसे सत्य और अनुभय वचन बोलना भाषासमिति है।
अलोक-झूठवचन आदि दोषों से रहित अर्थात् पर को ठगने आदि के वचनों से रहित और हिंसा आदि पाप का आगमन कराने वाले वचनों से रहित ऐसे निर्दोष वचन बोलना। सूत्र के अनुसार अर्थात् आगम के अनुकूल वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा आदि के द्वारा या अन्य भी किसी धर्म कार्य के निमित्त बोलना या अनुभयवचन बोलना अथवा शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने रूप, उनके विषय में प्रश्न रूप या अनुप्रेक्षा आदि रूप वचन बोलना अथवा अन्य भी किसी धर्म कार्य रूप वचन बोलना-यह निर्दोष भाषासमिति है।
अब सत्य का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-जनपद, सम्मत, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, संभावना, व्यवहार, भाव और उपमा इनके विषय में वचन सत्यवचन है।।३०८।।
आचारवृत्ति-सत्य शब्द का प्रत्येक के साथ संबध कर लेना चाहिए। जनपदसत्य, बहुजनसम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीतिसत्य-अन्य की अपेक्षा सत्य, संभावनासत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य और उपमानसत्य। इस प्रकार से दशभेद रूप इन सत्य वचनों को बोलना चाहिए।
इन दशभेदरूप सत्य का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-जनपदसत्य-जैसे सभी भाषाओं में व्यवहृत ओदन आदि शब्द। बहुजनसम्मत सत्य भी यह है कि जैसे लोक में मानुषी को महादेवी कहना।।३०९।।
आचारवृत्ति-जनपदसत्य अर्थात् देशसत्य। जैसे जनपद की सभी भाषाओं में ओदन (भात) आदि को अन्य-अन्य शब्दों से कहा जाता है। द्रविड़ भाषा में ओदन को ‘चौर’ कहते हैं, कर्णाटक भाषा में ‘कूल’ कहते हैं और गौड़ भाषा में ‘भक्त’ कहते हैं। ऐसे ही नाना देशों में उन-उन भाषाओं के द्वारा कहा गया ‘ओदन’ जनपद सत्य है ऐसा तुम जानो।
जो बहुत जनों को सम्मत है वह भी सत्य है। जैसे किसी मनुष्य-स्त्री को भी लोक में महादेवी कहते हैं और जैसे ‘देव बरसता है’ इत्यादि वचन लोकसम्मत सत्य हैं। अर्थात् मेघ बरसता है किन्तु व्यवहार में लोग कहते है कि देव बरसता है यह सम्मत सत्य है। इन वचनों में ‘यह ऐसा नहीं है’ ऐसा कहकर आप प्रतिबन्ध नहीं लगा सकते और यदि आप प्रतिबन्ध लगायेंगे तो आपके सत्यवचन भी असत्य कहे जायेंगे। इस गाथा में जनपद सत्य और सम्मत सत्य को कहा है।
ठवणा ठविदं जह देवदादि णामं च देवदत्तादि।
उक्कडदरोत्तिं वण्णे रूवे सेओ जध बलाया।।३१०।।
यद्यपि देवतादिप्रतिरूपं स्थापनाया स्थापितं। तथा च देवदत्तादिनाम। न हि तत्र देवतादिस्वरूपं विद्यते। नापि तं (?) देवैर्दत्तोऽसौ। तथापि व्यवहारनयापेक्षया स्थापनासत्यं, नामसत्यं च सत्यमित्युच्यते सद्भिरिति। अर्हत्प्रतिमा–सिद्धप्रतिमादि तथा नागयक्षेन्द्रादिप्रतिमाश्च तत्सर्वं स्थापनासत्यं।
तथा देवदत्त इन्द्रदत्तो यज्ञदत्तो विष्णुमित्र इत्येवमादिवचनं नामसत्यमिति। तथा वर्णेनोत्कटतरेति श्वेता बलाका। यद्यपि तत्रान्यानि रक्तादीनि सम्भवन्ति रूपाणि, तथापि श्वेतेन वर्णेनोत्कृष्टतरा बलाका, अन्येषामविवक्षितत्वादिति रूपसत्यं द्रव्यार्थिकनयापेक्षया वाच्यमिति।।३१०।।
अण्णं अपेक्खसिद्धं पडुच्चसच्चं जहा हवदि दिग्घं।
ववहारेण य सच्चं रज्भâदि कूरो जहा लोए।।३११।।
अन्यद्वस्तुजातमपेक्ष्य िंकचिदुच्यमानं प्रतीत्यसत्यं भवति। यथा दीर्घोऽयमित्युच्यते। वितस्तिमात्राद्धस्तमात्रं दीर्घं तथा द्विहस्तमात्रात्पंचहस्तमात्रं। पंचहस्तमात्राद्दशहस्तमात्रं। एवं यावन्मेरुमात्र। तथैवं (व) हृस्ववृत्तचतुरस्रादि, कुरूप- सुरूप-पंडित-मूर्ख-पूर्वापरादिकमपेक्ष्यसिद्धं निष्पन्नमपेक्ष्य सत्यमित्युच्यते। न तत्र विवाद: कार्य:। तथा-रध्यदे, पच्यते
गाथार्थ-जिसमें स्थापना की गई है वह स्थापना-सत्य है; जैसे यह देवता है, इत्यादि। नामकरण को नाम सत्य कहते हैं, जैसे देवदत्त आदि। रूप में वर्ण की उत्कृष्टता से कहना रूपसत्य है, जैसे बगुला सफेद है।।३१०।।
आचारवृत्ति-यद्यपि देवता आदि की प्रतिमाएँ स्थापना निक्षेप के द्वारा स्थापित की गई हैं उसी प्रकार से देवदत्त आदि नाम रखे जाते हैं। उनमें देवता आदि का स्वरूप विद्यमान नहीं है और न ही देवदत्त आदि पुरुष देवों के द्वारा दिये गये हैं। फिर भी, व्यवहार नय की अपेक्षा से सज्जन पुरुषों द्वारा वे स्थापनासत्य और नामसत्य कहे जाते हैं।
अर्थात् अर्हन्त प्रतिमा, सिद्ध प्रतिमा आदि तथा नागयक्ष की प्रतिमा और इन्द्र की प्रतिमा आदि जो हैं वे सभी स्थापना-सत्य हैं। तथा देवदत्त, इन्द्रदत्त, यज्ञदत्त और विष्णुमित्र इत्यादि प्रकार के वचन नाम सत्य हैं अर्थात् देवदत्त को देव ने नहीं दिया है, इन्द्रदत्त को इन्द्र ने नहीं दिया है इत्यादि; फिर भी नामकरण से उन्हें उसी नाम से जाना जाता है।
उसी प्रकार से वर्ण से उत्कृष्टतर होने से बगुला को सफेद कहते हैं। यद्यपि उस बगुला में लाल चोंच, काली आँखें आदि अन्य अनेक रूप सम्भव हैं, फिर भी श्वेत वर्ण इसमें उत्कृष्टतर होने से इसे श्वेत कहते हैं, क्योंकि अन्य वर्ण वहाँ पर अविवक्षित है इसलिए यह रूपसत्य द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वाच्य हैं।
विशेषार्थ-किसी वस्तु में यह वही है ऐसी स्थापना स्थापनासत्य है, जैसे पाषाण की प्रतिमा में यह महावीर प्रभु हैं। किसी में जाति आदि गुण की अपेक्षा न करके नाम रख देना यह नाम सत्य है; जैसे किसी बालक का नाम आदीश कुमार रखा जाना। किसी वस्तु में अनेक वर्ण होने पर भी उसमें जो प्रधान है, अधिक है उसी की अपेक्षा रखना यह रूपसत्य है जैसे बगुला सफेद होता है। यहाँ तीन प्रकार के सत्य का वर्णन हुआ।
गाथार्थ-अन्य की अपेक्षा करके जो सिद्ध हो वह प्रतीति सत्य है; जैसे यह दीर्घ है। व्यवहार से कथन व्यवहार सत्य है; जैसे भात पकाया जाता है ऐसा कथन लोक में देखा जाता है।।३११।।
आचारवृत्ति-अन्य वस्तु की अपेक्षा करके जो कुछ कहा जाता है वह प्रतीत्य सत्य है; जैसे किसी ह्रस्व की अपेक्षा करके कहना कि यह दीर्घ है। एक वितस्ति के प्रमाण से एक हाथ दीर्घ है, उसी प्रकार से दो हाथ प्रमाण से पाँच हाथ का प्रमाण बड़ा है और पाँच हाथ मात्र से दश हाथ का प्रमाण बड़ा है, इस प्रकार से
क्रूर ओदन: मण्डका: घृतपूरा: इत्यादि लोके वचनं व्यवहारसत्यमिति वाच्यं। न तत्र विवाद: कार्य:। यद्यौदन: पच्यते भस्म भवति, मण्डका यदि पच्यन्ते भस्मीभवन्तीति कृत्वेति व्यवहारसत्यं वचनं सत्यमिति।।३११।।
संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति।
जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लत्थे।।३१२।।
यदि नामैतदेवमिच्छेत् , एवं कुर्यात् यदेतत्संभावना सत्यं। संभाव्यत इति संभावना। सा द्विविधाभिनीतानभिनीतभेदेन। शक्यानुष्ठानाभिनीता। अस्ति सामर्थ्यं यदुत नाम तथा न सम्पादयेदनभिनीता। यथा यदि नाम शक्र इच्छेज्जम्बूद्वीपं परिवर्तयेत्। संभाव्यत एतत्सामर्थ्यमिन्द्रस्य यज्जम्बूद्वीपमन्यथा कुर्यात्। अपि शिरसा पर्वतं भिन्द्यात्। सर्वमेतदनभिनीता संभावना सत्यं। अपि भवान् प्रस्थं भक्षयेत्। बाहुभ्यां गंगा तरेदेतदभिनीतं सम्भावनासत्यमिति सम्पाद्यासम्पाद्यभेदेनेति।।३१२।।
िंहसादिदोसविजुदं सच्चमकप्पियवि१ भावदो भावं।
ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया।।३१३।।
मेरुपर्यन्त तक भी आप बड़े की व्यवस्था कर सकते हैं। तीन लोक में सबसे बड़ा मेरुपर्वत है।
उसी प्रकार से हृस्व, गोल और चौकोन आदि भी एक दूसरे की अपेक्षा से ही हैं। तथा कुरूप-सुरूप, पण्डित-मूर्ख, पूर्व-पश्चिम ये सब एक-दूसरे को अपेक्षित करके होते हैं अत: इनका कथन अपेक्षित सत्य या प्रतीत्य सत्य है। इसमें किसी को विवाद नहीं करना चाहिए।
उसी प्रकार भात पकाया जाता है, मंडे-रोटी या पुआ पकाये जाते हैं। इत्यादि प्रकार के वचन लोक में देखे जाते हैं यह सब व्यवहार सत्य है। इसमें भी विवाद नहीं करना चाहिए। वास्तव में यदि भात पकाया जावे तो वह भस्म हो जाए और यदि रोटी पकायी जावें तो वे भी भस्मीभूत हो जाएँ, किन्तु फिर भी व्यवहार में वैसा कथन होता है अत: यह व्यवहार सत्य है। यहाँ पर प्रतीत्य सत्य और व्यवहार सत्य इन दो का लक्षण बताया है।
गाथार्थ-‘यदि चाहे तो ऐसा कर डाले’ ऐसा कथन सम्भावना सत्य है। यदि इन्द्र चाहे तो जम्बूद्वीप को पलट दे।।३१२।।
आचारवृत्ति-‘यदि यह ऐसी इच्छा करे तो कर डाले’ जो ऐसा कथन है वह संभावना सत्य है। जो संभावित किया जाता है उसे संभावना कहते हैं। इसके दो भेद हैं-अभिनीत और अनभिनीत। जो शक्यानुष्ठानरूप वचन हैं अर्थात् जिनका करना शक्य है वे वचन अभिनीत संभावना सत्य हैं और जिसकी सामर्थ्य तो है किन्तु वैसा करते नहीं है
ऐसे (अशक्यानुष्ठान) वचन अनभिनीत संभावना सत्य हैं। जैसे-‘इन्द्र चाहे तो जंबूद्वीप को पलट दे’ इस वचन में इन्द्र की यह सामर्थ्य संभावित की जा रही है कि यह चाहे तो जंबूद्वीप को अन्य रूप कर सकता है किन्तु वह ऐसा कभी करता नहीं है। और भी उदाहरण है, जैसे-यह शिर से पर्वत को फोड़ सकता है,
ये सभी वचन अनभिनीत संभावना सत्यरूप हैं। यदि यह चाहे तो प्रस्थ (सेर भर) खा जावे, यह अपनी भुजाओं से गंगा को तिर सकता है। यह सब वचन अभिनीत संभावना सत्य हैं। इस प्रकार से सम्पाद्य और असम्पाद्य के भेद से संभावना सत्य दो प्रकार का है। अर्थात् सम्पादित होने योग्य और न होने योग्य की अपेक्षा अथवा अभिनीत-शक्य और अनभिनीत-अशक्य की अपेक्षा से इस सत्य के दो भेद हो जाते हैं।
गाथार्थ-हिंसा आदि दोष से रहित भाव से अकल्पित भी वचन भाव सत्य हैं और उपमा से कहे गये पल्योपम आदि उपमा सत्य हैं।।३१३।।
िंहसा आदिर्येषां दोषाणां ते िंहसादयस्तैर्वियुक्तं विरहितं िंहसादिदोषवियुक्तं। िंहसास्तैन्याब्रह्मपरिग्रहादिग्राहकवचनरहितं सत्यं। अकल्पितमपि भावतोऽयोग्यमपि भावयत: परमार्थत: सत्यं तत्। केनचित् पृष्टस्त्वया चौरो दृष्टो न मया दृष्टएवं वक्तव्यं। यद्यपि वचनमेतदेवासत्यं तथापि परमार्थत: सत्यं िंहसादि-दोषरहितत्वात्।
यथा येन येन परपीडोत्पद्यते परलोकं प्रतीहलोकं च प्रति, तत्तद्वचनं सत्यमपि त्याज्यं रागद्वेष सहितत्वात्। सत्यमपि िंहसादिदोषसहितं न वाच्यमिति भावसत्यं। औपम्येन च युक्तं यद्वचनं तदपि सत्यं जानीहि। यथा पल्योपमादिवचनं। उपमामात्रमेतत्। न हि कुशलो योजनमात्र: केनापि रोमच्छेदै: पूर्यते।
एवं सागरो रज्जु: प्रतरांगुलं सूच्यंगुलघनांगुलं श्रेणी लोकप्रतरो लोकश्चन्द्रमुखी कन्या इत्येवमादय: शब्दा: उपमानवचनानि उपमासत्यानीति वाच्यानि। न तत्र विवाद: कार्य:। इत्येतद्दशप्रकारं सत्यं वाच्यं।
तथा सन्धिनामतद्धितसमासाख्यातकृदौणादियुक्तं, पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनसहितं, छलजातिनिग्रहस्थानादिविवर्जितं, लोकसमयस्ववचनविरोधरहितं प्रमाणोपपन्नं, नैगमादिनयपरिगृहीतं, जातियुक्तियुक्तं मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थवचनसहितं, अनिष्ठुरमकर्कशमनुद्धतमर्थवत्, श्रवणकान्तं, सुललिताक्षरपदवाक्यविरचितं, हेयोपादेयसंयुक्तं–इत्थंभूतं सत्यं वाच्यं। लिंगसंख्याकालकारकपुरुषोपग्रहसमेतं धातुनिपात-बलाबलच्छन्दोऽलंकारादिसमन्वितं, वाच्यमिति सम्बन्ध:।।३१३।।
आचारवृत्ति-हिंसा, चौर्य, अब्रह्म, परिग्रह आदि को ग्रहण करने वाले वचनों से रहित वचन हिंसादि दोष रहित हैं, अकल्पित भी हैं अर्थात् अयोग्य भी वचन परमार्थ से सत्य होने से भाव सत्य हैं। जैसे किसी ने पूछा-‘तुमने चोर देखा है तो कहना कि मैंने नहीं देखा है’ यद्यपि ये वचन असत्य ही हैं फिर भी परमार्थ से सत्य हैं क्योंकि हिंसादि दोषों से रहित हैं।
इसी तरह जिन किन्हीं वचनों से इहलोक और परलोक के प्रति पर को पीड़ा उत्पन्न होती है अर्थात् जिन वचनों से इहलोक परलोक बिगड़ता है और पर को कष्ट होता है वे सभी वचन सत्य होकर भी त्याग करने योग्य हैं, क्योंकि रागद्वेष से सहित हैं। तात्पर्य यह है कि हिंसादि दोषों से सहित वचन सत्य भी हों तो भी नहीं बोलना चाहिए। इसी का नाम भावसत्य है।
उपमा से युक्त जो वचन हैं वे भी सत्य हैं ऐसा समझो। जैसे-पल्योपम आदि वचन; ये वचन उपमा मात्र ही हैं, क्योंकि किसी के द्वारा भी योजन प्रमाण का गड्ढा रोमों के अतीव सूक्ष्म-सूक्ष्म टुकड़ों से भरा नहीं जा सकता है। इसी प्रकार से सागर, राजू, प्रतरांगुल, सूच्यंगुल, घनांगुल, श्रेणी, लोकप्रतर और लोक ये सभी उपमावचन हैं। तथा ‘चन्द्रमुखी’ कन्या इत्यादि वचन भी उपमान वचन होने से उपमासत्य वचन हैं। इसमें विवाद नहीं करना चाहिए। इस प्रकार से यहाँ तक दश तरह के सत्यों का वर्णन हुआ।
तात्पर्य यह है कि सन्धि, नाम, लिंग, तद्धित, समास, आख्यात, कृदन्त और औणादि से युक्त अर्थात् व्याकरण से शुद्ध, पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन से सहित अर्थात् न्याय ग्रन्थ के आधार से पांच अवयव वाले अनुमान वाक्य रूप, छल, जाति, निग्रह स्थान आदि दोषों से वर्जित अर्थात् तर्क ग्रन्थों में कथित इन छल आदि दोषों से रहित, लोक विरोध, समय-आगमविरोध और स्ववचन विरोध से रहित, प्रमाण से उपपन्न-प्रमाणीक, नैगम आदि
नयों की अपेक्षा सहित, जाति और युक्ति से युक्त; मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ वचनों से सहित, निष्ठुरता रहित, कर्कशता रहित, उद्धता रहित, अर्थ सहित, कानों को सुनने में मनोहर, सुललित अक्षर, पद और वाक्यों से विरचित, हेय और उपादेय से संयुक्त ऐसे सत्य वचन बोलना चाहिए।
तथा लिंग, संख्यक, काल, कारक, उत्तम-मध्यम-जघन्य पुरुष, उपग्रह से सहित धातु निपात, बलाबल, छन्द, अलंकार आदि से समन्वित भी सत्य वचन बोलना चाहिए अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, आगम और लोकव्यवहार आदि के अनुरूप सत्य वचन बोलना ही श्रेयस्कर है।
एतद्वयतिरिक्तमसत्यमिति प्रतिपादयन्नाह-
तव्विवरीदं मोसं तं उभयं जत्थ सच्चमोसं तं।
तव्विवरीदा भासा असच्चमोसा हवदि दिट्ठा।।३१४।।
तद्दशप्रकारसत्यविपरीतं पूर्वोक्तस्य सर्वस्य प्रतिकूलमसत्यं मृषा। तयो: सत्यासत्ययोरूभयं यत्र पदे वाक्ये वा सत्यमृषावचनं तत् गुणदोषसहितत्वात्। तस्मात्सत्यमृषावादाद्विपरीता भाषा वचनोक्तिरसत्य मृषोक्ति:। सा भवति दृष्टा जिनै:। न सा सत्या न मृषेति सम्बन्ध:।।३१४।।
असत्यमृषाभाषां विवृण्वन्नाह-
आमंतणि आणवणी जायणिसंपुच्छणी य पण्णवणी।
पच्चक्खाणी भासा छट्ठी इच्छाणुलोमा य।।३१५।।
संसयवयणी य तहा असच्चमोसा य अट्ठमी भासा।
णवमी अणक्खरगया असच्चमोसा हवदि दिट्ठा।।३१६।।
आमंत्र्यतेऽनयामंत्रणी। गृहीतवाच्यवाचकसंबन्धो व्यापारान्तरं प्रत्यभिमुखी क्रियते यया सामंत्रणी भाषा। यथा हे देवदत्त इत्यादि। आज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञापना आज्ञां तवाहं ददामीत्येवमादि वचनमाज्ञापनी भाषा। याच्यतेऽनया याचना। यथा याचयाम्यहं त्वां िंकचिदिति।
पृच्छ्यतेऽनयेति पृच्छना। यथा पृच्छाम्यहं त्वामित्यादि। प्रज्ञाप्यतेऽनयेति प्रज्ञापना। यथा प्रज्ञापनाम्यहं त्वामित्यादि। प्रत्याख्यायतेऽनयेति प्रत्याख्याना यथा प्रत्याख्यानं मम दीयतामित्यादि भाषासमिति:
इनसे व्यतिरिक्त जो वचन हैं वे असत्य हैं ऐसा प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-उपर्युक्त सत्य वचन से जो विपरीत है वह असत्य है। जिसमें सत्य और असत्य दोनों हैं वह सत्यमृषा है। इन उभय से विपरीत अनुभय वचन असत्यमृषा कहे गये हैं।।३१४।।
आचारवृत्ति-पूर्वोक्त सभी दश प्रकार के सत्य वचनों से प्रतिकूल वचन को मृषा कहते हैं। जिस पद या वाक्य में ये सत्य और असत्य दोनों ही वचन मिश्र हों वह सत्यमृषा नाम को प्राप्त होता है क्योंकि वह उभयवचन गुण-दोष, दोनों से सहित हैं। इस सत्यमृषा कथन से विपरीत भाषा असत्यमृषा है, क्योंकि यह न सत्य है न असत्य है अतः अनुभय रूप है। ऐसा जिनेन्द्रदेव ने देखा है अर्थात् कहा है।
तात्पर्य यह है कि सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के भेद से वचन चार प्रकार के हैं। उनमें से असत्य वचन और उभयवचन को छोड़ देना चाहिए और सत्यवचन तथा अनुभय वचन बोलना चाहिए। इसी बात को भाषा समिति के लक्षण (गाथा ३०७) में कहा है।
अब असत्यमृषा भाषा का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-आमंत्रण करने वाली, आज्ञा करने वाली, याचना करने वाली, प्रश्न करने वाली, प्रज्ञापन करने वाली, प्रत्याख्यान कराने वाली छठी भाषा और इच्छा के अनुकूल बोलने वाली भाषा सातवीं है।
उसी प्रकार संशय को कहने वाली असत्यमृषा भाषा आठवीं हैं तथा नवमी अनक्षरी भाषा रूप असत्यमृषा भाषा देखी गयी है।।३१५-३१६।।
आचारवृत्ति-जिसके द्वारा आमंत्रण किया जाता है, वह आमंत्रणी भाषा है। जिसने वाच्य-वाचक संबंध जान लिया है उस व्यक्ति को अन्य कार्य से हटाकर अपनी तरफ उद्यत करना आमंत्रणी भाषा है। जैसे-हे देवदत्त! इत्यादि सम्बोधन वचन बोलना। इस शब्द से वह देवदत्त अन्य कार्य को छोड़कर बुलाने वाले की तरफ उद्यत होता है।
सर्वत्र संबन्ध:। इच्छया१ लोमानुकूलेच्छा२ लोमा सर्वत्रानुकूला। यथा एवं करोमीत्यादि।।३१५।।
संशयमव्यक्तं वक्तीति संशयवचनी। संशयार्थप्रख्यापनानभिव्यक्तार्था यस्माद्वचनात्संदेहरूपादर्थो न प्रतीयते तद्वचनं संशयवचनी भाषेत्युच्यते। यथा दन्तरहितातिबालातिवृद्धवचनं, महिष्यादीनां च शब्द:। तथैवासत्यमृषा साष्टमी भाषा। नवमी पुनरनक्षरगता। यस्यां नाक्षराण्यभिव्यक्तानि ककारचकारमकारादीनामनभिव्यक्तिर्यत्र सा नवमी भाषानक्षरगता।
सा च द्वीन्द्रियादीनां भवत्येव। सा सत्यमृषा भाषा नव प्रकारा भवति। विशेषाप्रतिपत्तेरसत्या सामान्यस्य प्रतिपत्तेर्न मृषा। आमन्त्रणरूपेणाभिमुखीकरणेन न मृषा पश्चादन्यस्यार्थस्याप्रतिपत्तेरसत्या। तथाज्ञादानेन न मृषा पश्चािंत्क दास्यतीति न ज्ञायते तेन न सत्या। तथा याञ्चामात्रेण न मृषा, उत्तरकालं िंक याचयिष्यतीति न ज्ञायते ततो न सत्या। तथा प्रश्नमात्रेण
जिसके द्वारा आज्ञा दी जाती है वह आज्ञापनी भाषा है। जैसे-‘मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ।’ इत्यादि वचन बोलना।
जिसके द्वारा याचना की जाती है, वह याचनी भाषा है। जैसे-‘मैं तुमसे कुछ माँगता हूँ।’
जिसके द्वारा प्रश्न किया जाता है वह पृच्छना है। जैसे-‘मैं आपसे पूछता हूँ’ इत्यादि।
जिसके द्वारा प्रज्ञापना की जाये, वह प्रज्ञापनी भाषा है। जैसे-‘मैं आपसे कुछ निवेदन करता हूँ’ इत्यादि।
जिसके द्वारा कुछ त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यानी है। जैसे-‘मुझे प्रत्याख्यान दीजिए’ इत्यादि।
जो इच्छा के अनुकूल है वह इच्छानुलोमा है जो कि सर्वत्र अनुकूल रहती है। जैसे-‘मैं ऐसा करता हूँ।’ इत्यादि।
इन सभी के साथ भाषा समिति का संबंध लगा लेना चाहिए अर्थात् ये सातों भेद भाषासमिति के अन्तर्गत हैं।
जो संशय अर्थात् अव्यक्त अर्थ को कहती है वह संशयवचनी भाषा है।
अर्थात् जिन सन्देह रूप वचनों से अर्थ की प्रतीति नहीं हो पाती है, वे वचन संशयवचनी हैं। जैसे-दाँत रहित अतिबाल और अतिवृद्ध के वचन तथा भैंस आदि पशुओं के शब्द। यह आठवीं भाषा है।
नवमी भाषा अनक्षरी है। जिसमें ककार, चकार, मकार आदि अक्षर अभिव्यक्त नहीं हैं, स्पष्ट नहीं है वह अनक्षरी भाषा है। यह द्वीन्द्रिय आदि जीवों में तो होती ही है।
इस प्रकार से असत्यमृषा भाषा के नौ भेद कहे गये हैं। इन भाषाओं से विशेष का ज्ञान नहीं हो पाता है अत: इन्हें सत्य भी नहीं कह सकते और सामान्य का ज्ञान होता रहता है अत: इन्हें असत्य भी नहीं कह सकते। इसी कारण ‘न सत्यमृषा इति असत्यमृषा’ ऐसा नञ समास होने से वह शब्द सत्य और मृषा दोनों का निषेध कर रहा है।
इसी अर्थ को और स्पष्ट करते हैं-आमंत्रणी भाषा में आमंत्रण-सम्बोधन रूप से अपनी तरफ अभिमुख करने से यह असत्य नहीं है, पश्चात् किसलिए सम्बोधन किया ऐसा कोई अन्य अर्थ ज्ञात न होने से यह सत्य नहीं है। अत: असत्यमृषा है।
उसी प्रकार आज्ञापनी में आज्ञा देने से असत्य नहीं है, पश्चात् क्या आज्ञा देंगे यह जाना नहीं जाता है, इसलिए सत्य भी नहीं है। वैसे ही याचनी में याचना मात्र से असत्य नहीं है, उत्तर काल में क्या मांगेगा यह नहीं जाना गया है अत: सत्य भी नहीं है। पृच्छना भाषा में प्रश्न मात्र से वह झूठ भी नहीं है, पुन: यह नहीं जाना जाता है कि यह क्या पूछेगा अत: सत्य भी नहीं है। वैसे ही प्रत्याख्यानी भाषा में प्रत्याख्यान सामान्य के त्यागने की प्रतीति होने से असत्य भी नहीं है, पश्चात् किस वस्तु का त्याग देंगे
न मृषा पश्चान्न ज्ञायते िंक पृच्छ्यतेऽनेनेति न सत्या। तथा प्रत्याख्यानसामान्यरूपस्य याचनाया: प्रतीतेर्न मृषा पश्चात्कस्य प्रत्याख्यानं दास्यतीति न ज्ञायते तेन न सत्या। तथेच्छाया एवं करोमीति भणनेन न मृषा िंकचित् पश्चािंत्क करिष्यतीति न ज्ञायते तेन न सत्या। तथाक्षराणि संदिग्धानि प्रतीयन्ते तेन न मृषा, अर्थ: सन्दिग्धो न प्रतीयते तेन न सत्या। यथा शब्दमात्रं प्रतीयते तेन न मृषा, अक्षराणामर्थस्य चाप्रतीतेर्न सत्येति। अनेन न्यायेन नवप्रकारा असत्यमृषाभाषा व्याख्यातेति।।३१६।।
पुनरपि यद्वचनं सत्यमुच्यते तदर्थमाह-
सावज्जजोग्गवयणं वज्जंतोऽवज्जभीरु गुणकंखी।
सावज्जवज्जवयणं णिच्चं भासेज्ज भासंतो।।३१७।।
यदि मौनं कर्तुं न शक्नोति तत एवं भाषते–सावद्यं सपापमयोग्यं यकारभकारादियुक्तं वचनं वर्जयेत्। अवद्यभीरु: पापभीरु:। गुणाकांक्षी िंहसादिदोषवर्जनपर:। सावद्यवर्जं वचनं नित्यं सर्वकालं भाषयन् भाषयेत्। अन्वयव्यतिरेकेण वचनमेतत्। नैतस्य पौनरुत्क्यं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकशिष्यानुग्रहपरादिति।।३१७।।
यह नहीं जाना जाता है अत: सत्य भी नहीं है। वैसे ही इच्छानुलोमा में इच्छा के अनुकूल ‘‘मैं ऐसा करता हूँ।’’ कहने से असत्य भी नहीं है, पश्चात् क्या करेगा यह नहीं जाना जाता है अत: सत्य भी नहीं है। वैसे ही अनक्षरगता में अक्षर संदिग्ध प्रतीति में आ रहे हैं इसलिए असत्य भी नहीं है और अर्थ संदिग्ध होने से स्पष्ट प्रतीति में नहीं आता है इसलिए सत्य भी नहीं है। अर्थात् शब्द मात्र तो प्रतीति में आ रहे हैं इसलिए असत्य नहीं है और अक्षरों का अर्थ प्रतीति में नहीं आ रहा है इसलिए सत्य भी नहीं है। इस न्याय से नव प्रकार की असत्यमृषा भाषा का व्याख्यान किया गया है।
भाषा समिति में इन वचनों को बोलना वर्जित नहीं है।
पुनरपि जो वचन सत्य कहे जाते हैं उन्हीं को बताते हैं-
गाथार्थ-पापभीरु और गुणाकांक्षी मुनि सावद्य और अयोग्य वचन को छोड़ता हुआ तथा नित्य ही पाप योग से वर्जित वचन बोलता हुआ वर्तता है।।३१७।।
आचारवृत्ति-यदि मुनि मौन नहीं कर सकता है तो इस प्रकार से बोले-पाप सहित वचन और यकार, मकार आदि सहित अर्थात् ‘रे’, ‘तू’ आदि शब्द अथवा गालीगलौज आदि अभद्र शब्द से युक्त वचन नहीं बोले। पापभीरु और गुणों का आकांक्षी अर्थात् हिंसादि दोषों के वर्जन में तत्पर होता हुआ मुनि यदि बोले तो हमेशा ही उपर्युक्त दोष रहित सत्य वचन बोले।
यह अन्वय और व्यतिरेक रूप से कहा गया है इसलिए इसमें पुनरुक्त दोष नहीं आता है क्योंकि द्रव्यार्थिकनयापेक्षी और पर्यायार्थिकनयापेक्षी शिष्यों के प्रति अनुग्रह करना ही गुरुओं का कार्य है।
विशेष-पहले जो दश प्रकार के सत्य और नव प्रकार के अनुभय वचन बताये और उनके बोलने का आदेश दिया वह तो अन्वय कथन है अर्थात् विधिरूप कथन है और यहाँ पर सावद्य और अयोग्य वचनों का त्याग के लिए कहा गया व्यतिरेक अर्थात् निषेधरूप कथन है। द्रव्यार्थिक नयापेक्षी शिष्य एक प्रकार के वचन से ही दूसरे प्रकार का बोध कर लेते हैं किन्तु पर्यायार्थिक नयापेक्षी शिष्यों को विस्तारपूर्वक कहना पड़ता है।
अशनसमितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
उग्गम उप्पादणएसणेिंह िंपडं च उवधि सज्जं१च।
सोधंतस्य मुणिणो परिसुज्भâइ एसणासमिदी।।३१८।।
उद्गच्छत्युत्पद्यत आहारो यैर्दोषैस्त उद्गमदोषा:। उत्पाद्यते निष्पाद्यत आहारो यैस्त उत्पादनादोषा:। अश्यते भुज्यते आहारो वसत्यादयो वा यैस्तेऽशनदोषास्तै:। पिण्ड आहार:। उपधि: पुस्तकपिच्छकादि:। शय्या वसत्यादीन् शोधयत: सुष्ठु सावद्यपरिहारेण निरूपयतो, मुने: परिशुद्ध्यतेऽशनसमिति:।
अशनस्य सम्यग्विधानेन दोषपरिहारेणेति वा चरणमशनसमिति:। उद्गमोत्पादनाशनदोषै: पिण्डं उपधि शय्यां शोधयतो मुने: परिशुद्ध्यतेऽशनसमितिरिति। एत उद्- गमादयो दोषा: सप्रपंचेन पिण्डशुद्धौ वक्ष्यन्त इति नेह प्रतन्यन्ते, पुनरुक्तदोषभयात्।
कथमेतान् दोषान्परिहरति मुनिरित्याशंकायामाह चकार: (र) सूचितार्थं। सवितुरुदये देववन्दनां कृत्वा घटिकाद्वयेऽतिक्रान्ते श्रुतभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं स्वाध्यायं गृहीत्वा वाचनापृच्छनानुप्रेक्षापरिवर्तनादिकं सिद्धान्तादेर्विधाय घटिकाद्वयमप्राप्त२ मध्याह्नादरात् स्वाध्यायं श्रुतभक्तिपूर्वकमुपसंहृत्यावसथो३ दूरतो मूत्रपूरीषादीन् कृत्वा पूर्वापरकायविभागमवलोक्य हस्तपादादिप्रक्षालनं विधाय कुण्डिकां पिच्छिकां गृहीत्वा मध्याह्न-देववन्दनां कृत्वा पूर्णोदरबालकान् भिक्षाहारान् काकादिवलीनन्यानपि
अब अशनसमिति का स्वरूप प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों के द्वारा आहार, उपकरण और वसति आदि का शोधन करते हुए मुनि के एषणा समिति शुद्ध होती है।।३१८।।
आचारवृत्ति-जिन दोषों से आहार उद्गच्छति अर्थात् उत्पन्न होता है वे उद्गम दोष हैं। जिन दोषों से आहार उत्पाद्यते अर्थात् उत्पन्न कराया जाता है वे उत्पादन दोष हैं और जिन दोषों से सहित आहार अथवा वसति आदि का अश्यते भुज्यते अर्थात् उपभोग किया जाता है वे अशन दोष हैं।
पिण्ड आहार को कहते हैं।
उपधि से पुस्तक, पिच्छिका आदि उपकरण लिये जाते हैं और शय्या शब्द से वसतिका आदि ग्राह्य हैं। इन आहार, उपकरण और वसतिका आदि का शोधन करते हुए अर्थात् अच्छी तरह से सावद्य का त्याग करके इन्हें स्वीकार करते हुए मुनि के विशुद्ध अशन समिति होती है। अथवा अशन-भोजन को सम्यग्विधान से सहित दोषों का परिहार करके ग्रहण करना अशनसमिति है।
तात्पर्य यह हुआ कि उद्गम, उत्पादन और अशन दोषों से रहित आहार, उपकरण और वसतिका की शुद्धि करनेवाले मुनि शुद्ध अशनसमिति का पालन करते हैं। ये उद्गम आदि दोष विस्तार सहित पिण्डशुद्धि अधिकार में कहे जायेंगे, इसलिए पुनरुक्त दोष के भय से यहाँ पर इनका विस्तार नहीं करते हैं।
स्पष्टीकरण यह है कि-उत् उपसर्ग पूर्वक गम् धातु से उद्गम शब्द बना है जिसका अर्थ है उत्पन्न होना। ये उद्गम दोष श्रावक के आश्रित हैं। उत् उपसर्ग पूर्वक पद् धातु से णिजन्त में उत्पादन शब्द बना है जिसका अर्थ है उत्पन्न कराया जाना। ये उत्पादन दोष मुनि के आश्रित माने गये हैं। अश् धातु का अर्थ है भोजन करना।
इसी से अशन बना है। ये अशन सम्बन्धी दोष मुनि के भोजन के सम्बन्ध में हैं। ये ही दोष पुस्तक, पिच्छी, वसतिका आदि में भी निषिद्ध किये गये हैं। वहाँ पर अशन के स्थान में भुज् धातु से भोग या उप उपसर्ग पूर्वक उपभोग बनाकर उसका अर्थ ऐसा हो जाता है कि पिच्छी, पुस्तक आदि वस्तु के उपभोग के ये दोष हैं।
शंका-मुनि इन दोषों का परिहार कैसे करते हैं ?
िंलगिनो भिक्षावेलायां ज्ञात्वा प्रशान्ते धूममुशलादिशब्दे गोचरं प्रविशेन्मुनि:। तत्र गच्छन्नातिद्रुतं, न मन्दं, न विलम्बितं गच्छेत्। ईश्वरदरिद्रादि-कुलानि न विवेचयेत्। न वर्त्मनि जल्पेत्तिष्ठेत्। हास्यादिकान् विवर्जयेत्। नीचकुलेषु न प्रविशेत्। सूतकादिदोषदूषितेषु शुद्धेष्वपि कुलेषु न प्रविशेत्। द्वारपालादिभिर्निषिद्धो न प्रविशेत्। यावन्तं प्रदेशमन्ये भिक्षाहारा: प्रविशन्ति तावन्तं प्रदेशं प्रविशेत्।
विरोधनिमित्तानि स्थानानि वर्जयेत्। दुष्टखरोष्ट्रमहिषगोहस्तिव्यालादीन् दूरत: परिवर्जयेत्। मत्तोन्मत्तमदावलिप्तान् सुष्ठु वर्जयेत्। स्नानविलेपनमण्डनरतिक्रीडाप्रशक्ता योषितो नावलोकयेत्। विनयपूर्वकं विधृतस्तिष्ठेत्। सम्यग्विधानेन दीयमानमाहारं प्रासुकं सिद्धभिंक्त कृत्वा प्रतीच्छेत्। स (श) तनपतनगलनमकुर्वन् निश्छिद्रं पाणिपात्रं नाभिप्रदेशे कृत्वा शुरशुरशब्दादिवर्जितं भुञ्जीत। योषितां स्तनजघनोरुनाभिकटिनयनललाटमुखदन्तौष्ठबाहु-
समाधान-गाथा में ‘चकार’ शब्द से जो अर्थ सूचित किया है उसे ही हम कहते हैं।
सूर्योदय होने पर देववन्दना करके दो घड़ी (४८ मिनट) के बीत जाने पर श्रुतभक्ति, गुरुभक्ति पूर्वक स्वाध्याय ग्रहण करके सिद्धान्त आदि ग्रन्थों की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और परिवर्तन आदि करके मध्याह्न काल से दो घड़ी पहले श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय समाप्त कर देवे।
पुनः वसतिका से दूर जाकर मल-मूत्र आदि विसर्जित करके अपने शरीर के पूर्वापर अर्थात् आगे-पीछे के भाग का अवलोकन-पिच्छिका से परिमार्जन करके हस्तपाद आदि का प्रक्षालन करके मध्यान्हकाल की देववन्दना-सामायिक करे अर्थात् मध्याह्न के पहले दो घड़ी जो शेष रही थी उसमें सामायिक करे।
पुन: जब बालक भोजन करके निकलते हैं, काक आदि को बलि (दाने आदि) भोजन डाला जाता है और भिक्षा के लिए अन्य सम्प्रदायवाले साधू भी विचरण कर रहे होते हैं तथा गृहस्थों के घर में धुआँ और मूसल आदि शब्द शान्त हो चुका होता है अर्थात् भोजन बनाने का कार्य पूर्ण हो चुका होता है, इन सब कारणों से मुनि आहार की बेला जानकर गोचरी के लिए निकले।
उस समय चलते हुए न ही अधिक जल्दी-जल्दी और न अधिक धीरे-धीरे तथा न ही विलम्ब करते हुए चले। धनी और निर्धन आदि के घरों का विचार-भेदभाव न करे। न मार्ग में किसी से बात करे और न ठहरे अर्थात् आहार के लिए निकल कर आहार-ग्रहण कर चुकने तक मौन रहे।
मार्ग में हास्य आदि भी न करे, हँसते हुए या अन्य कोई चेष्टा करते हुए न चले। नीच कुलों के घर में प्रवेश न करे और सूतक, पातक आदि दोषों से दूषित शुद्ध कुल वाले घरों में भी नहीं जावे। द्वारपाल आदि के द्वारा रोके जाने पर वहाँ प्रवेश न करे। जितने प्रदेश-स्थान तक अन्य लोग भिक्षा के लिए प्रवेश करते हैं,
मुनि भी उतने प्रदेश तक प्रवेश करे। जिन स्थानों में आहारार्थ जाने का विरोध है उन स्थानों को छोड़ देवे। दुष्टजन, गधे, ऊँट, भैंस, गाय, सर्प आदि जीवों को दूर से ही छोड़ देवे अर्थात् इनसे दूर से बचकर निकले। मत्त अर्थात् पागल या उन्मत्त अर्थात् मदिरा आदि से उन्मत्त या गर्विष्ठ जनों को भी बिलकुल छोड़ देवे। स्नान, विलेपन, मण्डन अर्थात् श्रृंगार या रतिक्रीड़ा में आसक्त हुई महिलाओं का अवलोकन न करे।
श्रावक यदि विनय पूर्वक ठहराये-पड़गाहन करे तो वहां ठहरे। सम्यग्विधि-नवधाभक्ति से दिये गये प्रासुक आहार को सिद्धभक्ति करके (सिद्धभक्ति पूर्वक पूर्व दिन गृहीत प्रत्याख्यान का निष्ठापन करके) ग्रहण करे। नीचे भोज्य वस्तु आदि न गिराते हुए या पेय वस्तु न झराते-गिराते हुए छिद्र रहित अपने पाणिपात्र को नाभि प्रदेश के पास करके शुर-शुर शब्द आदि को न करते हुए आहार करे।
स्त्रियों के स्तन, जघन, घुटनों, नाभि, कमर, नेत्र, ललाट, मुख, दाँत, ओठ, काँख, जंघा, पैर आदि अवयवों का या उनके लीलापूर्वक गमन, विलास, गीत, नृत्य, हास्य, स्नेह दृष्टि, कटाक्षपूर्वक देखना आदि चेष्टाओं का अवलोकन न करे।
कक्षान्तरजंघापादलीलागतिविलासगीतनृत्तहासस्निग्धदृष्टिकटाक्षनिरीक्षणादीन्नावलोकयेत्। एवं भुक्त्वा पूर्णोदरोऽन्तरायाद-पूर्णोदरो वा मुखहस्तपादान् प्रक्षाल्य शुद्धोदकपूर्णां कुण्डिकां गृहीत्वा निर्गच्छेत्। धर्मकार्यमन्तरेण न गृहान्तरं प्रविशेत्। एवं जिनालयादिप्रदेशं सम्प्राप्य प्रत्याख्यानं गृहीत्वा प्रतिक्रामेदिति।।३१८।।
आदाननिक्षेपणसमितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
आदाणे णिक्खेवे पडिलेहिय चक्खुणा पमज्जेज्जो।
दव्वं च दव्वठाणं संजमलद्धीए सो भिक्खू।।३१९।।
आदाने ग्रहणे। निक्षेपे त्यागे। प्रतिलेख्य सुष्ठु निरीक्षयित्वा चक्षुषा पश्चात्पिच्छिकया सम्मार्जयेत् प्रतिलेखयेत्। द्रव्यं द्रव्यस्थानं च। कवलिका कुण्डिकादि द्रव्यं, यत्र तद्व्यवस्थितं तत्स्थानं। संयमलब्ध्या स भिक्षुर्यति:। श्रामण्ययोग्यवस्तुनो ग्रहणकाले निक्षेपकाले वा चक्षुषा द्रव्यं द्रव्यस्थानं च प्रतिलेख्य पिच्छिकया सम्मार्जयेदिति।।३१९।।
येन प्रकारेणादाननिक्षेपसमिति: शुद्धा भवति तमाह-
इस प्रकार पूर्ण उदर आहार करके अथवा अन्तराय आ जाने पर अपूर्ण उदर आहार करके, मुख-हाथ-पैरों का प्रक्षालन करके , शुद्ध प्रासुक जल से भरे हुए कमण्डलु को लेकर आहारगृह से निकले। धर्म कार्य के बिना अन्य किसी के घर में प्रवेश न करे। इस तरह से जिनालय आदि स्थान में आकर प्रत्याख्यान ग्रहण करके गोचर प्रतिक्रमण करे।
विशेष-मध्याह्न की सामायिक करके १२ बजे के बाद मुनि आहारार्थ निकलें। यहाँ ऐसा आदेश है, किन्तु वर्तमान में साधु ९ बजे से लेकर ११ बजे तक आहारार्थ निकलते हैं, पश्चात् आहार के बाद मध्याह्न की सामायिक करते हैं ऐसी परम्परा चल रही है। वर्तमान में श्रावकों के भोजन की दो बेलाएँ हैं-प्रात: और सायं (सूर्यास्त से पहले तक)।
प्रात: की भोजनबेला प्राय: ९ बजे से ११ बजे है तथा सायं की ४ बजे से सूर्यास्त तक। यही कारण है कि साधू प्रात: की भोजनबेला में आहारार्थ निकलते हैं। कदाचित् विशेष प्रसंगवश यदि प्रात: नहीं निकले हैं तो मध्याह्न सामायिक के उपरान्त सूर्यास्त से तीन घटिका पहले तक भी निकलते हैं क्योंकि सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त से तीन घड़ी पहले तक साधु दिन में एक बार ही आहार ग्रहण करें, ऐसा इसी मूलाचार की गाथा ३५ में कहा है। अत: आहार के लिए भी यदि प्रात: नहीं निकले हैं तो मध्याह्न सामायिक के बाद निकलते हैं ऐसा देखा जाता है।
अब आदान-निक्षेपण समिति का स्वरूप कहते है-
गाथार्थ-संयमलब्धि से सहित वह भिक्षु ग्रहण करते और रखते समय वस्तु को और उसके स्थान को चक्षु से देखकर पुनः पिच्छी से परिमार्जित करे।।३१९।।
आचारवृत्ति-कवलिका-शास्त्र रखने की चौकी आदि तथा कमण्डलु आदि वस्तुएँ द्रव्य हैं। जहाँ पर ये रखी हैं वह द्रव्यस्थान है। मुनि किसी भी वस्तु को उठाने में या रखने में पहले उसको अपनी आँखों से अच्छी तरह देख ले, फिर पिच्छिका से परिमार्जित करे। तभी उस वस्तु को ग्रहण करे या वहाँ पर रखे। इस तरह संयम की उपलब्धि से वह भिक्षु यति कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि श्रमणपने के योग्य ऐसी वस्तु को ग्रहण करते समय अथवा उन्हें रखते समय अपनी आँखों से वस्तुओं और स्थान का अवलोकन करके पुनः पिच्छिका से झाड़ पोंछ कर उन वस्तुओं को ग्रहण करे या रखे।
जिन दोषों के छोड़ने से आदाननिक्षेपण समिति शुद्ध होती है उन्हें कहते हैं-
सहसाणाभोइयदुप्पमज्जिद अप्पच्चुवेक्खणा दोसा।
परिहरमाणस्स हवे समिदी आदाणणिक्खेवा।।३२०।।
सहसा शीघ्रं व्यापारान्तरं प्रत्युद्गतमनसा निक्षेपमादानं व। अनाभोगितमनालोकनं स्वस्थचित्तवृत्त्याग्रहणमादानं वा अनालोक्य द्रव्यं द्रव्यस्थानं यत्क्रियते तदानाभोगितं। दुष्टप्रमार्जितं दुष्प्रमार्जितं पिच्छिकयावष्टभ्य प्रतिलेखनं। अप्रत्युपेक्षणं िंकचित् संस्थाप्य पुन: कालान्तरेणालोकनं। एतान् दोषान् परिहरतो भवेदादाननिक्षेपसमितिरिति। किमुक्तं भवति, स्वस्थवृत्त्या द्रव्यं द्रव्यस्थानं च चक्षुषावलोक्य मृदुप्रतिलेखनेन सम्मार्ज्यादानं ग्रहणं वा कर्तव्यं। स्थापितस्य पुस्तकादे: पुन: कतिपयदिवसैरालोकनं कर्तव्यमिति।।३२०।।
उच्चारप्रस्रवणसमितिस्वरूपनिरूपणायाह-
वणदाहकिसिमसिकदे थंडिल्लेणुप्परोध वित्थिण्णे।
अवगदजंतु विवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो।।३२१।।
वनदाहो दावानल:। कृषि: शीरेणाऽनेकवारभूमेर्विदारणं। मषी श्मशानांगारानलादिप्रदेश:। कृतशब्द: प्रत्येकमभि-
गाथार्थ-सहसा, अनाभोगित, दुष्प्रमाजित और अप्रत्युपेक्षित दोषो को छोड़ते हुए मुनि के आदान- निक्षेपण समिति होती है।।३२०।।
आचारवृत्ति-अन्य व्यापार के प्रति मन लगा हुआ होने से सहसा किसी वस्तु को उठा लेना या रख देना सहसा दोष है। स्वस्थ चित्त की प्रवृत्ति से अवलोकन न करके कोई वस्तु ग्रहण करना या रखना अथवा कमण्डलु आदि वस्तु और उसके स्थान को बिना देखे ही वस्तु का रखना-उठाना आदि यह अनाभोगित दोष है। पिच्छिका से ठीक-ठीक परिमार्जन न करके, जैसे-तैसे कर देना यह दुष्प्रमार्जित दोष है। कुछेक पुस्तक आदि वस्तु कहीं पर रखकर पुन: कई दिन बाद उनका अवलोकन-प्रतिलेखन करना यह अप्रत्युपेक्षण दोष है। इन दोषों का परिहार करते हुए मुनि के आदाननिक्षेपण समिति होती है।
तात्पर्य क्या हुआ ? मन की स्वस्थवृत्ति से उपयोग को स्थिर करके पुस्तक आदि वस्तुएँ और उनके रखने-उठाने के स्थान को अपनी आँखों से देखकर पुन: कोमल मयूर पंख की पिच्छिका से उसे झाड़-पोंछ कर उस वस्तु को ग्रहण करना या रखना चाहिए। तथा रखी हुई पुस्तक आदि का थोड़े दिनों में ही पुन: अवलोकन सम्मार्जन करना चाहिए।
भावार्थ-दिन में जितनी बार भी पुस्तक, कमण्डलु, चौकी आदि वस्तुओं को उठाना या रखना हो तो भलीभाँति देखकर और पिच्छी से परिमार्जित करके ही ग्रहण करना चाहिए। यदि रात्रि में प्रसंगवश या करवट आदि लेना हो तो भी पिच्छिका से परिमार्जन करना चाहिए। तथा जिनका प्रतिदिन उपयोग नहीं होता ऐसी पुस्तक आदि यदि वसतिका में रखी हुई हैं
तो उन्हें भी कुछ दिनों में पुन: देखकर, पिच्छिका से परिमार्जित करके रखना चाहिए, अन्यथा उनमें मकड़ी के जाले या वर्षा की सीलन से फपूँâदी आदि लग जाने का अथवा सूक्ष्म त्रस जन्तु उत्पन्न हो जाने का भय रहता है। उन्हें दूसरे, तीसरे दिन सँभालते रहने से ऐसा प्रसंग नहीं आता है।
उच्चारप्रस्रवण-प्रतिष्ठापन समिति का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-दावानल से, हल से या अग्नि आदि से दग्ध हुए, बंजरस्थान, विरोधरहित, विस्तीर्ण, जन्तुरहित और निर्जन स्थान में मलमूत्र आदि का विसर्जन करे।।३२१।।
आचारवृत्ति-दावानल को वनदाह कहते हैं। हल से अनेक बार भूमि का विदारण होना कृषि है।
सम्बध्यते। वनदाहीकृते, कृषीकृते, मषीकृते, स्थ्ांडिलीकृते, ऊषरीकृते। अनुपरोधे लोकोपरोधवर्जिते। विस्तीर्णे विशाले। अपगता अविद्यमाना जन्तवो द्वीन्द्रियादयो यत्र सोऽपगतजन्तुस्तस्मिन्नपगतजन्तौ। विविक्तेऽशुच्याद्यपस्कररहिते जनरहिते वा उच्चारादीन् विसर्जयेत् परित्यज्येत् । अचित्तभूमिदेश इत्यनेन सह सम्बन्ध: कर्तव्य इति।।३२१।।
अथ के ते उच्चारादय इत्याशंकायामाह-
उच्चारं पस्सवणं खेलं िंसघाणयादियं दव्वं।
अच्चित्तभूमिदेसे पडिलेहित्ता विसज्जेज्जो।।३२२।।
उच्चारं अशुचि:। प्रस्रवणं मूत्रं। खेलं श्लेष्प्राणं। िंसघाणकं नासिकापस्करं। आदिशब्देन केशोत्पाटबालान् मदप्रमादवातपित्तादिदोषान् सप्तमधातुं छर्द्यादिकं च पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट अचित्तभूमिदेशे हरिततृष्णादिरहिते प्रतिलेखयित्वा सुष्ठु निरूप्य विसर्जयेत्। पूर्वं सामान्यव्याख्यात१मिदं तु सप्रपंचमिति कृत्वा न पौनरुक्त्यमिति।।३२३।।
अथ रात्रौ कथमिति चेदित्यत आह-
रादो दु पमज्जित्ता पण्णसमणपेक्खिदम्मि ओगासे२।
आसंकविसुद्धीए अवहत्थगफासणं कुज्जा।।३२३।।
श्मशान प्रदेश, अँगारों के प्रदेश और अग्नि आदि से जले प्रदेश को मषि कहते हैं। कृत शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना चाहिए। अर्थात् जहाँ दावानल (अग्नि) लग चुकी है ऐसा प्रदेश, जहाँ हल चल चुका है ऐसा प्रदेश तथा श्मशान भूमि, अंगारों से अग्नि आदि से जला हुआ प्रदेश, स्थण्डिली कृत-ऊसर प्रदेश, जिसे बंजर भी कहते हैं अर्थात् जहाँ पर घास आदि नहीं उगती है
ऐसी कड़ी भूमि का प्रदेश, जहाँ पर लोगों का विरोध नही है ऐसा प्रदेश, विशाल-खुला हुआ बड़ा स्थान, जहाँ पर दो-इन्द्रिय आदि (चिंवटी आदि) जन्तु नहीं है ऐसा निर्जंतुक स्थान और विविक्त अर्थात् अपवित्र विष्ठा तथा कूड़ा-कचरा आदि रहित स्थान या जनरहित स्थान इन उपर्युक्त प्रकार के स्थानों में मुनि मल-मूत्रादि का त्याग करे अर्थात् अचित्त भूमि प्रदेश में शौचादि के लिए जावे ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
मलमूत्रादि से क्या-क्या लेना ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-मल, मूत्र, कफ, नाक-मल आदि वस्तु को अचित्त भूमि प्रदेश में देख-शोधकर विसर्जित करे।।३२२।।
आचारवृत्ति-उच्चार-विष्ठा, प्रस्रवण-मूत्र, खेल-कफ, सिंघाणक-नाक का मल, ‘आदि’ शब्द से लोंच करके उखाड़े गये बाल, मद, प्रमाद या वात-पित्त आदि से उत्पन्न हुए दोष-विकार, वीर्य और वमन आदि अनेक प्रकार के शरीर के मल संगृहीत हैं। इन सभी मलों का पूर्वोक्त गाथा कथित विशेषणों से विशिष्ट हरे तृण, अंकुर आदि रहित अचित्त भूमिप्रदेश में पहले देखकर पुन: पिच्छिका से परिमार्जित करके त्याग करे।
पूर्व में सामान्य कथन था और इस गाथा में सविस्तार कथन है इसलिए यहाँ पुनरुक्ति दोष नहीं है अर्थात् पूर्व गाथा में निर्जंतुक स्थान के अनेक विशेषण बताये थे किन्तु वहाँ मलमूत्रादि का विसर्जन करे ऐसा सामान्य कथन किया था। यहाँ पर शरीर मल के अनेकों प्रकार बताकर विशेष कथन कर दिया है, इसलिए पुन: एक ही बात को कहने रूप पुनरुक्ति दोष नहीं आता है।
अब रात्रि में कैसे मलमूत्रादि विसर्जन करे ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-रात्रि में बुद्धिमान मुनि के द्वारा देखकर बताये गए स्थान में परिमार्जन करके जीवों की आशंका दूर करने हेतु बायें हाथ से स्पर्श करे, पुन: मलमूत्रादि विसर्जन करे।।।३२३।।
रात्रौ तु प्रज्ञाश्रवणेन वैयावृत्यादिकुशलेन साधुना विनयपरेण सर्वसंघप्रतिपालकेन वैराग्यपरेण जितेन्द्रियेण प्रेक्षिते सुष्ठुदृष्टेऽवकाशैकप्रदेशे पुनरपि स चक्षुषा प्रतिलेखनेन प्रमार्जयित्वोच्चारादीन् विसृजेत्। अथ यदि तत्र सूक्ष्मजीवाद्याशंका भवेत्तत आशंकाविशुद्धये आशंकाविशुद्ध्यर्थं अपहस्तकस्पर्शनं कुर्यात्–विपरीतकरतलेन मृदुना स्पर्शनं कर्तव्यमिति।।३२३।।
तेन प्रज्ञाश्रवणेन सति सवितरि चक्षुर्विषये च सति त्रीणि स्थानानि द्रष्टव्यानि भवन्ति किमर्थमित्याह-
जदि तं हवे असुद्ध बिदियं तदियं अणुण्णए साहू।
लहुए अणिच्छयारे ण देज्ज साधम्मिए गुरुए।।३२४।।
यदि तत्प्रथमस्थानं प्रेक्षितमशुद्धं भवेद् द्वितीयं स्थानमनुजानात्यनुमन्येत। तदपि यद्यशुद्धं तृतीयं स्थानमनुजानाति जानीत (ते) गच्छेद्वा साधु: संयत:। अथ कदाचित्तस्य साधोर्व्याधितस्यान्यस्य वा लघुशीघ्रमशुद्धेऽपि प्रदेशे मलच्युतिरनिच्छया विनाभिप्रायेण भवेत् ततस्तस्मिन् सधर्मिणि धार्मिके साधौ १अए अय: प्रायश्चित्तं तद्गुरु न दातव्यं।
अय: पुण्यं, अयनिमित्तत्वात् प्रायश्चित्तमप्ययमित्युच्यते। यत्नपरस्य न बहु प्रायश्चित्तं भवति यत:। अथवा लहुए–लघु शीघ्रं। अणिच्छयारे अनिच्छया कुर्वति मलच्युिंत सधर्मिणि महत्प्रायश्चित्तं न दातव्यं । यद्यपि प्रायश्चितं नात्रोपात्तं तथापि सामर्थ्याल्लभ्यते-ऽन्यस्याश्रुतत्वात्। अथवा लघुकेन कुशलेनेच्छाकारेणानुकूलेन प्रज्ञाश्रवणेन यदि प्रथमस्थानं शुद्धं द्वितीयं तृतीयं स्थानं वानुज्ञाप्य सम्बोध्य सधर्मिणि साधौ गुरौ वा प्रासुकं स्थानं दातव्यमिति।।३२४।।
आचारवृत्ति-जो साधु वैयावृत्ति आदि में कुशल हैं, विनयशील हैं, सर्व संघ के प्रतिपालक हैं, वैराग्य में तत्पर हैं, जितेन्द्रिय हैं उन्हें प्रज्ञाश्रमण कहते हैं। ये प्रज्ञाश्रमण मुनि रात्रि के लिए किसी एक स्थान को अच्छी तरह देखकर अन्य साधुओं को बता देते हैं। ऐसे इन मुनि के द्वारा देखे हुए स्थान में रात्रि में मुनि पुनरपि अपनी दृष्टि से देखकर और पिच्छिका से परिमार्जित करके मलमूत्रादि का त्याग करे। और यदि वहाँ पर सूक्ष्मजीव आदि की आशंका होवे तो आशंका की विशुद्धि के लिए बायें हाथ से उस स्थान का स्पर्श करना चाहिए।
विशेष-यदि जीवों का विकल्प है तो बायें हाथ से स्पर्श करने से जीवों का पता चल जायेगा, पुन: वह मुनि उस स्थान से हटकर किंचित् दूर जाकर मलमूत्रादि विसर्जित करे ऐसा अभिप्राय समझना।
उन प्रज्ञाश्रमण को सूर्य के रहते हुए प्रकाश में अपने नेत्रों के द्वारा तीन स्थान देखना चाहिए। ऐसा
क्यों ? सो बताते हैं-
गाथार्थ-यदि वह स्थान अशुद्ध हो तो साधु दूसरे या तीसरे स्थान की अनुमति देवे। जल्दी में किसी की इच्छा बिना अशुद्ध स्थान में मलादि च्युत हो जाने पर उस धर्मात्मा मुनि को बड़ा प्रायश्चित्त नहीं देवे।।।३२४।।
आचारवृत्ति-प्रज्ञाश्रमण ने पहले जो स्थान देखा है यदि वह अशुद्ध हो तो वे मुनि दूसरे स्थान को देखकर उसकी स्वीकृति देवें। यदि वह भी अशुद्ध हो तो वे प्रज्ञाश्रमण साधु तीसरे स्थान का निरीक्षण करके स्वीकृति देवें। अथवा तीसरे स्थान में संयत शौच आदि के लिए जावें। यदि कदाचित् कोई साधु अस्वस्थ है अथवा अन्य कोई साधू जो कि अस्वस्थ नहीं भी है, उससे बाधा हो जाने से अकस्मात् अशुद्ध भी प्रदेश में शीघ्र ही विना अभिप्राय के मलच्युति हो जावे, उसे मल विसर्जन करना पड़ जावे तब उस धार्मिक साधु के लिए आचार्यदेव को बड़ा प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए।
अय: का अर्थ पुण्य है। पुण्य का निमित्त होने से प्रायश्चित्त को भी यहाँ गाथा में ‘अयः’ शब्द से कहा गया है। प्र ± अय: चित्तं इति प्रायश्चित्तं अर्थात् संस्कृत में प्रकृष्टरूप से अय: अर्थात् पुण्यरूप चित्त-
अनेन क्रमेण िंककृतं भवतीति चेदत आह-
पदिठवणासमिदी वि य तेणेव कमेण वण्णिदा होदि।
वोसरणिज्जं दव्वं तु थंडिले वोसरंतस्स।।३२५।।
तेनैवोक्तक्रमेण प्रतिष्ठापनासमितिरपि वर्णिता व्याख्याता भवति। तेनोक्तक्रमेण व्युत्सर्जनीयं त्यजनीयं। स्थंडिले व्यावर्णितस्वरूपे व्युत्सृजत: परित्यजत: प्रतिष्ठापनाशुद्धि: स्यादिति।।३२५।।
एताभि: समितिभि: सह विहरन् िंकविशिष्ट: स्यादित्याह-
एदािंह सया जुत्तो समिदीिंह मिंह विहरमाणो१ दु।
िंहसादीिंह ण लिप्पइ जीवणिकाआउले साहू।।३२६।।
परिणाम को प्रायश्चित्त कहा है।
यहाँ पर कहना यह है कि जो साधु प्रयत्न में तत्पर हैं,सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले हैं उनके द्वारा यदि कदाचित् बिना इच्छा से अकस्मात् रात्रि में अशुद्ध अप्रासुक भी स्थान में मल विसर्जित हो जाता है तो भी उन्हें उसे बड़ा प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए।
यद्यपि यहाँ गाथा में प्रायश्चित्त शब्द का ग्रहण नहीं है फिर भी सामर्थ्य से उसी का ज्ञान होता है; क्योंकि अन्य और कुछ इस विषय में सुनने में नहीं आता है। अथवा ‘लहुए अणिच्छायारेण’ इस पाठ को ऐसा संधिरूप कर दीजिए ‘लहुएण इच्छाकारेण’ और अर्थ ऐसा कीजिए लघुक-कुशल, इच्छाकार-अनुकूल ऐसा प्रज्ञाश्रमण मुनि यदि प्रथम स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा या तीसरा स्थान बताकर सहधर्मी साधु या गुरु को प्रासुक स्थान देवे।
विशेष-संघ में उस-उस कार्यभार में कुशल मुनि को ही वह वह कार्य सौंपा जाता है। इसलिए गाथा ३२३ में प्रज्ञाश्रमण मुनि के विशेषण बताये गए हैं। उन गुणों से विशिष्ट मुनि रात्रि में साधुओं के दीर्घशंका या लघुशंका आदि के हेतु जाने के लिए स्थान का दिन में निरीक्षण कर लेते हैं और गुरुदेव को तथा अन्य मुनियों को बता देते हैं।
अत: कदाचित् ऐसा प्रसंग किसी को आ जावे कि सहसा बाधा हो जाने पर लाचारी में अशुद्ध स्थान में भी मलादि त्याग करना पड़ जावे तो गुरु उसे बड़ा प्रायश्चित्त न देवें। दूसरा एक अर्थ यह किया है कि प्रज्ञाश्रमण मुनि द्वारा एक, दो या तीन ऐसे स्थान भी देखकर शुद्ध प्रासुक स्थान गुरु के लिए या मुनियों के लिए बताना चाहिए जहाँ कि वे रात्रि में बाधा निवृत्ति करके भी दोष के भागी न बनें। उनके बताए अनुसार ही संघस्थ मुनियों को प्रवृत्ति करना चाहिए। इससे संघ में व्यवस्था बनी रहेगी।
इस क्रम से क्या विशेषता होती है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-
गाथार्थ-त्याग करने योग्य मलादि को अचित्त स्थान में-निर्जंतुक त्याग करते हुए मुनि के उसी क्रम से प्रतिष्ठापना समिति कही जाती है।।३२५।।
आचारवृत्ति-उपर्युक्त कथित क्रम से त्याग करने योग्य मलमूत्रादि को पूर्वोक्त निर्जन्तुक स्थान में विसर्जित करते हुए मुनि के प्रतिष्ठापना नाम की पाँचवीं समिति शुद्ध होती है ऐसा समझना। इस प्रकार से पाँचों समितियों का व्याख्यान हुआ।
इन समितियों के साथ विहार करते हुए मुनि के कौन-सी विशेषता प्राप्त होती है ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-इन समितियों से युक्त साधु हमेशा ही जीव समूह से भरे हुए भूतल पर विहार करते हुए भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होते हैं।।।३२६।।
एताभि: समितिभि: सया–सदा सर्वकालं युक्तो महय्यां सर्वत्र विहरमाण: साधुा\हसादिभिर्न लिप्यते जीवनिकायाकुले लोके इति।।३२६।।
ननु जीवसमूहमध्ये कथं साधुा\हसादिभिर्न लिप्यते ? चेदित्थं न लिप्यते इति दृष्टान्तमाह-
पउमिणिपत्तं व जहा उदएण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं।
तह समिदीिंह ण लिप्पदि साहू काएसु इरियंतो।।३२७।।
पद्मिनीपत्रं जले वृिंद्धगतमपि यथोदकेन न लिप्यते, स्नेहगुणयुक्तं यत: तथा समितिभि: सह विहरन् साधु: पापेन न लिप्यते कायेषु जीवेषु तेषां वा मध्ये विहरन्नपि यत्नपरो यत: इति।।३२७।।
पुनरपि दृष्टान्तेन पोषयन्नाह-
सरवासेिंह पडंते िंह जह दिढकवचो ण भिज्जदि सरेिंह।
तह समिदीिंह ण लिप्पइ साहू काएसु इरियंतो।।३२८।।
शरवर्षै: पता: संग्रामे यथा दृढकवचो दृढवर्म न भिद्यते शरैस्तीक्ष्णनाराचतोमरादिभिस्तथा षड्जीवनिकायेषु समितिभिर्हेतुभूताभि: साधु: पापेन न लिप्यते पर्यटन्नपीति।।३२८।।
यत्नपरस्य गुणमाह-
आचारवृत्ति-इन समितियों से सदाकाल युक्त हुए मुनि जीव-समूह से भरे हुए इस लोक में पृथ्वी पर सर्वत्र विहार करते हुए भी हिंसा आदि पापों से लिप्त नहीं होते हैं।
जीव-समूह के मध्य रहते हुए साधु हिंसादि दोषों से कैसे लिप्त नहीं होता है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य दृष्टान्त पूर्वक कहते हैं कि इस प्रकार से वह लिप्त नहींहोता है-
गाथार्थ-जैसे चिकनाई गुण से युक्त कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार से साधु जीवों के मध्य समितियों से चर्या करता हुआ लिप्त नहीं होता है।।३२७।।
आचारवृत्ति-जैसे कमलिनी का पत्ता जल में वृद्धिंगत होते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह स्नेह गुण से युक्त है अर्थात् उस पत्ते में चिकनाई पाई जाती है। उसी प्रकार से समितियों के साथ विहार करता हुआ साधु पाप से लिप्त नहीं होता है। यद्यपि वह जीवों के समूह में रहता है अथवा जीवों के मध्य विहार करता है तो भी वह प्रयत्नपूर्वक क्रियाएं करता है अर्थात् सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करता है। यही कारण है कि वह पापों से नहीं बँधता है।
पुनरपि दृष्टांत के द्वारा इसी का पोषण करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-पड़ती हुई वाण की वर्षा के द्वारा जैसे मजबूत कवच वाला मनुष्य बाणों से नहीं भिदता, उसी प्रकार साधू समितियों से सहित हो जीव-निकायों में चलते हुए पाप से लिप्त नहीं होता है।।३२८।।
आचारवृत्ति-जैसे संग्राम में बाणों की वर्षा होते हुए भी, जिसने मजबूत कवच धारण किया है वह मनुष्य तीक्ष्ण बाण या तोमर आदि शस्त्रों से नहीं भिदता है, उसी प्रकार छह जीवनिकायों में पर्यटन करता हुआ भी समितियों के द्वारा प्रवृत्त हुआ साधु पाप से लिप्त नहीं होता है।
जो प्रयत्न में तत्पर हैं उनके गुणों को बताते हैं-
जत्थेव चरदि बालो परिहारण्हूवि चरदि तत्थेव।
वज्भâदि पुण सो बालो परिहारण्हू विमुच्चदि१ सो।।३२९।।
यत्रैव चरति भ्रमत्याचरतीति वा बालोऽज्ञानी जीवादिभेदातत्त्वज्ञ:। परिहरमाणोऽपि चरत्यनुष्ठानं करोति भ्रमतीति वा तत्रैव लोके बध्यते कर्मणा लिप्यते पुनरसौ बाल अज्ञान:। परिहरमाणो यत्नपर: पुन: स विमुच्यते कर्मणा यस्मादेवंगुणा समितय:।।३२९।।
तम्हा चेट्ठिदुकामो जइया तइया भवाहि तं समिदो।
समिदो हु अप्ण ण दियदि खवेदि पोराणयं कम्मं।।३३०।।
तस्माच्चेष्टितुकाम: पर्यटितुमना यदा तदा यत्र तत्र यथा तथा भव त्वं समित: समितिपरिणत:। हि यस्मात् समितोऽन्यन्नवं कर्म नाददाति न गृþाति। पुराणकं सत्कर्म च क्षपयति निर्जरयतीति।।३३०।।
एवं समितिस्वरूपं व्याख्याय गुप्तीनां सामान्यविशेषभूतं च लक्षणमाह-
मणवचकायपउत्ती भिक्खू सावज्जकज्जसंजुत्ता।
खिप्पं णिवारयंतो तीिंह दु गुत्तो हवदि एसो।।३३१।।
प्रवृत्तिशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। मन:प्रवृत्तिं वाक्प्रवृत्तिं कायप्रवृिंत्त च। िंकविशिष्टां, सावद्यकार्यसंयुक्तां िंहसादिपापविषयां। भिक्षु: साधु: शीघ्रं निवारयंस्त्रिगुप्तो भवत्येष:। गुप्ते: सामान्यलक्षणमेतत्।।३३१।।
गाथार्थ-जहाँ पर अज्ञानी विचरण करता है वहीं पर जीवों का परिहार करता हुआ ज्ञानी भी विचरण करता है। किंतु कर्मबन्धन से वह अज्ञानी तो बँध जाता है लेकिन जीवों का परिहार करता हुआ वह मुनि कर्मबंध से मुक्त रहता है।।३२९।।
आचारवृत्ति-जो जीवादि के भेदरूप तत्त्व को जानने वाला नहीं है ऐसा बाल-अज्ञानी जीव जिस स्थान पर विचरण करता है, भ्रमण करता है या आचरण करता है और जो जीवों का परिहार करने वाला है वह मुनि भी वहीं पर उसी लोक में विचरण करता है, अनुष्ठान करता है अथवा भ्रमण करता है किन्तु अज्ञानी जीव तो कर्मों से बंध जाता है और जीवों का परिहार करता हुआ प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्तिवाला मुनि कर्मों के बन्धन से मुक्त रहता है यह समितियों का ही गुण अर्थात् माहात्म्य है, ऐसा समझना।
गाथार्थ-इसलिए जब तुम चेष्टा करना चाहो तब समितिपूर्वक प्रवृत्त होओ। निश्चितरूप से समिति सहित मुनि अन्य कर्म ग्रहण नहीं करता है और पुराने कर्म का क्षय कर देता है।।३३०।।
आचारवृत्ति-इसलिए जब चेष्टा करने की इच्छा हो, पर्यटन करने की इच्छा हो अर्थात् कोई भी प्रवृत्ति करने की इच्छा हो तब तुम समिति से परिणत होओ; क्योंकि समिति से तत्पर हुए मुनि अन्य नवीन कर्मों को ग्रहण नहीं करते हैं तथा पुराने-सत्ता में स्थित हुए कर्मों की निर्जरा कर देते हैं।
इस प्रकार से समिति का स्वरूप बताकर अब गुप्तियों का सामान्य-विशेष लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-पापकार्य से युक्त मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को शीघ्र ही निवारण करता हुआ यह मुनि तीन गुप्तियों से गुप्त होता है।।३३१।।
आचारवृत्ति-प्रवृत्ति शब्द को प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए। अतः जो मुनि सावद्य कार्य संयुक्त-हिंसादि पापविषयक मन की प्रवृत्ति को, वचन की प्रवृत्ति को और काय की प्रवृत्ति को शीघ्र ही दूर करता है वह तीन गुप्तियों से गुप्त अर्थात् रक्षित होता है। यह गुप्ति का सामान्य लक्षण है।
विशेषलक्षणमाह-
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती।
अलियादिणियत्ती वा मोणं वा होदि वचिगुत्ती।।३३२।।
रागद्वेषादिभ्यो मनसो या निवृत्तिश्चेतसा तेषां परिहारस्तां जानीहि मनोगुप्तिं मन:संवृत्तिं। अलीकादिभ्यश्चासत्याभिप्रायेभ्यश्च वचसो या निवृत्ति: मौनं ध्यानाध्ययनचिंतनं च यत्तूष्णींभावेनासौ वा वाग्गुप्तिर्भवति।।३३२।।
कायगुप्त्यर्थमाह-
कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती।
िंहसादिणियत्ती वा सरीरगुत्ती हवदि एसा।।३३३।।
कायक्रियानिवृत्ति: शरीरचेष्टाया अप्रवृत्ति: शरीरगुप्ति: कायोत्सर्गो वा कायगुप्ति:। िंहसादिभ्यो निवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिर्भवत्येषा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि गुप्यन्ते रक्ष्यन्ते यकाभिस्ता गुप्तय:। अथवा मिथ्यात्वासंयमकषायेभ्यो गोप्यते रक्ष्यते आत्मा यकाभिस्ता गुप्तय इति।।३३३।।
दृष्टान्तद्वारेण तासां माहात्म्यमाह-
खेत्तस्स वई णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो।
तह पावस्स णिरोहो ताओ गुत्तीउ साहुस्स।।३३४।।
यथा क्षेत्रस्य शस्यस्य वृति: रक्षा नगरस्य वा खातिकाथवा प्राकारो यथा गुप्तिस्तथा पापस्याशुभ-कर्मणो निरोध: संवृतिस्ता गुप्तय: साधो: संयतस्येति।।३३४।।
अब गुप्तियों का विशेष लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-मन से जो रागादि निवृत्ति है उसे मनोगुप्ति जानो। असत्य आदि से निवृत्ति होना या मौन रहना वचन गुप्ति है।।३३२।।
आचारवृत्ति-राग-द्वेष आदि से मन का जो रोकना है अर्थात् मन से जो रागादि भावों का त्याग करना है उसे मन के संवरणरूप मनोगुप्ति जानो। और जो असत्य अभिप्रायों से वचन को रोकना है अथवा मौन रहना है, ध्यान-अध्ययन, चिंतनशील होना अर्थात् वचन के व्यापार को रोककर मौन धारण करना अथवा असत्य वचन नहीं बोलना, यह वचनगुप्ति का लक्षण है।
अब कायगुप्ति का लक्षण कहते हैं-
गाथार्थ-काय की क्रिया का अभावरूप कायोत्सर्ग करना काय से संबंधित गुप्ति है अथवा हिंसादि कार्यों से निवृत्त होना कायगुप्ति होती है।।३३३।।
आचारवृत्ति-शरीर की चेष्टा की प्रवृत्ति नहीं होना अथवा कायोत्सर्ग करना काय-गुप्ति है। अथवा हिंसा आदि से निवृत्ति होना शरीर गुप्ति है। जिसके द्वारा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र गोपित किये जाते हैं, रक्षित किये जाते हैं वे गुप्तियाँ हैं। अथवा जिनके द्वारा मिथ्यात्व, असंयम और कषायों से आत्मा गोपित होती है, रक्षित होती है वे गुप्तियाँ हैं।
अब दृष्टान्त के द्वारा उन गुप्तियों का माहात्म्य दिखलाते हैं-
जैसे क्षेत्र की बाड़, नगर की खाई अथवा परकोटा होता है उसी प्रकार से पाप का निरोध होने रूप से साधु की वे गुप्तियाँ हैं।।३३४।।
आचारवृत्ति-जैसे खेत की रक्षा के लिए बाड़ है और नगर की रक्षा के लिए खाई अथवा परकोटा है उसी प्रकार से जो अशुभ कर्म को रोकना है या संवृत होना है वही संयत की गुप्तियाँ कहलाती हैं।
यस्मादेवंगुणा गुप्तय:-
तम्हा तिविहेण तुमं णिच्चं मणवयणकायजोगेिंह।
होहिसु समाहिदमई णिरंतरं भâाण सज्भâाए।।३३५।।
तस्मात्त्रिविधेन कृतकारितानुमतैस्त्वं साधो! मनोवाक्काययोगैर्भव सुसमाहितमति: सम्यक्स्थापितबुद्धि:। निरन्तरमभीक्ष्णं ध्याने स्वाध्याये चेति।।३३५।।
समितिगुप्तिस्वरूपं संक्षेपयन्नाह-
एताओ अट्ठपवयणमादा णाणदंसणचरित्तं।
रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ।।३३६।।
एता अष्टप्रवचनमातृका: पंचसमितयस्त्रिगुप्तय: प्रवचनमातरो मुनेर्ज्ञानदर्शनचारित्राणि रक्षन्ति पालयन्ति। कथं ? यथा माता जननी पुत्रं पालयति तथैषा: पालयन्तीति सम्बन्ध अत्रोकारस्य ह्रस्वत्वं प्राकृतबलाद् द्रष्टव्यं।।३३६।।
अष्टप्रवचनमातृका: प्रतिपाद्य भावनास्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
एसणणिक्खेवादाणिरियासमिदी तहा मणोगुत्ती।
आलोयभोयणंपि य अिंहसाए भावणा पंच।।३३७।।
अशनसमितिर्निक्षेपादानसमितिरीर्यासमितिस्तथा मनोगुप्ति रालोक्यभोजनमपि चा िंहसाव्रतस्यैता भावना: पंच। एता भावयन् जीवदयां प्रतिपालयति। प्रथममहाव्रतं परिपूर्णं तिष्ठति। तस्य साधनत्वेन पंच भावना जानीहीति।।३३७।।
क्योंकि इन गुणों वाली गुप्तियाँ हैं-
गाथार्थ-इसलिए तुम त्रिविध पूर्वक नित्य मन-वचन-काय योगों द्वारा सतत ध्यान और स्वाध्याय में एकाग्रमति होओ।।३३५।।
आचारवृत्ति-इसलिए हे साधु! तुम मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से सम्यक् प्रकार से एकाग्रमना होओ। निरन्तर ध्यान में और स्वाध्याय में तत्पर होओ।
अब समिति और गुप्ति का स्वरूप संक्षिप्त करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-ये आठ प्रवचन-माताएँ, जैसे माता पुत्र की रक्षा करती है वैसे ही सदा मुनि के दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करती हैं।।।३३६।।
आचारवृत्ति-पांच समिति और तीन गुप्तिरूप ये आठ प्रवचन-माताएँ मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सदा रक्षा करती हैं अर्थात् उनका पालन करती हैं। कैसे ? जैसे माता पुत्र का पालन करती है वैसे ही ये मुनि के रत्नत्रय का पालन करती हैं, इसीलिए इनका प्रवचनमातृका यह नाम सार्थक है। यहाँ पर गाथा में ओकार शब्द में ह्रस्वत्व प्राकृत व्याकरण के बल से समझना चाहिए।
आठ प्रवचन-माताओं का स्वरूप बताकर अब भावनाओं के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्यासमिति तथा मनोगुप्ति और आलोकित भोजन-अहिंसाव्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं।।३३७।।
आचारवृत्ति-एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्यासमिति तथा मनोगुप्ति और आलोक्य भोजन अर्थात् आगम और सूर्य के प्रकाश में देख-शोधकर भोजन करना अहिंसा व्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं। मुनि इन भावनाओं को भाते हुए जीवदया का पालन करते हैं। अर्थात् उनके प्रथम महाव्रत परिपूर्ण होता है। तुम इन पाँच भावनाओं को उस व्रत के साधन हेतु जानो।
द्वितीयस्य निरूपयन्नाह-
कोहभयलोहहासपइण्णा अणुवीचिभासणं चेव।
बिदियस्स भावणाओ वदस्स पंचेव ता होंति।।३३८।।
क्रोधभयलोभहास्यानां प्रतिज्ञा प्रत्याख्यानं। क्रोधस्य प्रत्याख्यानं भयस्य प्रत्याख्यानं लोभस्य प्रत्याख्यानं हास्यस्य प्रत्याख्यानं। अनुवीचिभाषणं चैव सूत्रानुसारेण भाषणं च द्वितीयस्य सत्यव्रतस्य भावना: पंचैव भवन्ति। पंचैता भावना भावयत: सत्यव्रतं सम्पूर्णं स्यादिति।।३३८।।
तृतीयव्रतस्य भावनास्वरूपं विवृण्वन्नाह-
जायणसमणुण्णमणा अणण्णभावोवि चत्तपडिसेवी।
साधम्मिओवकरणस्सणुवीचीसेवणं चावि।।३३९।।
याञ्चा प्रार्थना समनुज्ञापना यस्य सम्बन्धि िंकचिद्वस्तु तमनुमन्य ग्रहणं गृहीतस्य वा सम्बोधनं। अनन्यभावोऽदुष्टभावोऽनात्मभाव: परवस्तुन: परिगृहीतस्यात्मभावो न कर्तव्य:। त्यक्तं श्रामण्ययोग्यं , अन्ये चार्थिनो न तस्य, सावद्यरहितं च त्यक्तमित्युच्यते। अथवा वियत्त आचार्य इत्युच्यते। प्रतिसेवयतीति प्रतिसेवी।
स प्रत्येकमभिसम्बध्यते। यांचया प्रतिसेवी समनुज्ञापनया प्रतिसेवी अनात्मभावप्रतिसेवी, निरवद्यस्य श्रामण्ये योग्यस्य त्यक्तस्याचार्यस्य वा प्रतिसेवी। समानो धर्मोऽनुष्ठानं यस्य सधर्मा तस्य यदुपकरणं पुस्तकपिच्छिकादि तस्यानुवीच्यागमानुसारेण सेवनं सधर्मोपकरणस्य सूत्रानुकूलतया सेवनं चापि। एता: पंच भावनास्तृतीयव्रतस्य भवन्तीति। एताभिरस्तेयाख्यं व्रतं सम्पूर्णं भवतीति।।३३९।।
अब द्वितीय व्रत की भावना का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-क्रोध, भय, लोभ और हास्य का त्याग तथा अनुवीचिभाषण द्वितीय व्रत की ये पाँच ही भावनाएँ होती हैं।।३३८।।
आचारवृत्ति-क्रोध का त्याग, भय का त्याग, लोभ का त्याग और हास्य का त्याग तथा सूत्र के अनुसार वचन बोलना ये पाँच भावनाएँ सत्य महाव्रत की हैं। अर्थात् इन भावनाओं को भाते हुए सत्यव्रत परिपूर्ण हो जाता है।
विशेषार्थ-ये भावनाएँ श्रीगौतम स्वामी और उमास्वामी ने इसी रूप मानी हैं।
अब तृतीय व्रत की भावना का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-याचना, समनुज्ञापना, अपनत्व का अभाव, त्यक्तप्रतिसेवना और साधर्मिकों के उपकरण का उनके अनुकूल सेवन ये पाँच भावनाएँ तृतीय व्रत की हैं।।३३९।।
आचारवृत्ति-याञ्चा-प्रार्थना करना अर्थात् अपेक्षित वस्तु के लिए गुरु या सहधर्मी मुनि से विनय- पूर्वक माँगना।
समनुज्ञापना-किसी मुनि की कोई भी वस्तु उनकी अनुमति लेकर ग्रहण करना। अथवा कदाचित् बिना अनुमति के ले भी ली हो तो पुन: उनसे निवेदन कर देना।
अनन्यभाव-अदुष्ट भाव या अनात्मभाव रखना अर्थात् जो परवस्तु-पर के उपकरण कमण्डलु, शास्त्र आदि लिये हैं उनमें आत्मभाव-अपनापन नहीं रखना।
त्यक्तपरिसेवना-त्यक्त अर्थात् जो मुनिपने के योग्य है और जिसके अन्य कोई इच्छुक नहीं हैं ऐसी सावद्यरहित अर्थात निर्दोष वस्तु त्यक्त कहलाती है। गाथा से ‘वियत्त’ पाठ निकाल कर उसका ‘आचार्य’ अर्थ करना चाहिए। इस प्रकार से श्रमण योग्य वस्तु का अथवा आचार्य का जो अनुकूलतया सेवन है वह त्यक्त प्रतिसेवना है। अथवा निर्दोष वस्तु या आचार्य को उनके अनुकूल सेवन करने वाला-आश्रय लेनेवाला मुनि त्यक्तप्रतिसेवी है।
चतुर्थव्रतस्य भावनास्वरूपं विकल्पयन्नाह-
महिलालोयण पुव्वरदिसरणसंसत्तवसधिविकहािंह।
पणिदरसेिंह य विरदी य भावणा पंच बह्मह्मि।।३४०।।
महिलानां योषितामवलोकनं दुष्टपरिणामेन निरीक्षणं महिलालोकनं। पूर्वस्य (स्या) रते: गृहस्थावस्थायां चेष्टितस्य स्मरणं चिन्तनं पूर्वरतिस्मरणं। संसक्तवसति: सद्रव्या सरागा वा। विकथा दुष्टकथा:। पणिदरस–प्रणीतरसा इष्टाहार १समदकरा:। विरतिशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते। महिलालोकनाद्विरति: पूर्वरतिस्मरणाद्विरति: संसक्तवसतेर्विरति: विकथाभ्य: स्रीचौरराज्यभक्तकथाभ्यो विरति: समीहितरसेभ्यो विरति:। एता: पंच भावना: चतुर्थस्य ब्रह्मव्रतस्य भावना भवन्ति। एताभिश्चतुर्थब्रह्मव्रतं सम्पूर्णं तिष्ठतीति।।३४०।।
पंचमव्रतभावनां विकल्पयन्नाह-
अपरिग्गहस्स मुणिणो सद्दप्फरिसरसरूवगंधेसु।
रागद्दोसादीणं परिहारो भावणा पंच।।३४१।।
यह प्रतिसेवी शब्द उपर्युक्त भावनाओं के साथ भी लगा लेना। जैसे, याचनापूर्वक उपकरण आदि वस्तु का प्रतिसेवन करना। अनुमतिपूर्वक उनकी वस्तु का प्रतिसेवन करना-प्रयोग करना। अन्य के शास्त्र आदि को अपनेपन की भावना से रहित, अनात्मभाव से, सेवन या उपयोग करना तथा निर्दोष, मुनि अवस्था के योग्य त्यक्त-वस्तु का अथवा आचार्य का प्रतिसेवन करना-ये चार भावनाएँ हुईं।
साधर्मिकोपकरण अनुवीचिसेवन-समान है धर्म अर्थात् अनुष्ठान जिनका वे सधर्मा या सहधर्मी मुनि कहलाते हैं। उनके पुस्तक, पिच्छिका आदि उपकरणों का अनुवीचि अर्थात् आगम के अनुसार सेवन करना।
ये पाँच भावनाएँ तृतीय महाव्रत की हैं। अर्थात् इन भावनाओं से अचौर्यव्रत परिपूर्ण होता है।
विशेषार्थ-श्री गौतमस्वामी ने कहा है कि-
अदेहणं भावणं चावि ओग्गहं च परिग्गहे।
संतुट्ठो भत्तपाणेसु तदियं वदमस्सिदो।।
अर्थात् तृतीय व्रत का आश्रय लेने वाले जीव के ये पाँच भावनाएँ होती हैं-देहधनं-शरीर ही मेरा धन-परिग्रह है और कुछ मेरा परिग्रह नहीं है। भावनां चापि-शरीर में भी ऐसी भावना करना कि यह अशुचि और अनित्य है इत्यादि। परिग्रहे अवग्रह-परिग्रह के विषय में त्याग की भावना करना। भक्तपानेषु संतुष्ट-भोजन और पान में संतोष धारण करता हूँ।
श्री उमास्वामी ने शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सहधर्मियों में अविसंवाद ये पाँच भावनाएँ मानी हैं। जिनका स्पष्टीकरण-गिरि, गुफा, वृक्ष की कोटर आदि में निवास करना, परकीय-छोड़े या छुड़ाये हुए में रहना; दूसरों को नहीं रोकना; आचार शास्त्र के अनुसार शुद्ध आहार लेना और ‘यह मेरा है यह तेरा है’ ऐसा सहधर्मियों के साथ विसंवाद नहीं करना।
अब चतुर्थव्रत की भावनाओं का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-स्त्रियों का अवलोकन, पूर्वभोगों का स्मरण तथा संसक्त वसतिका से विरति एवं विकथा से और प्रणीत रसों से विरति ये ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।।३४०।।
अपरिग्रहस्य मुने: शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु रागद्वेषादीनां परिहार: भावना: पंच भवन्ति। शब्दादि-विषये रागद्वेषादीनामकरणानि यानि तै: सम्पूर्णं पंचमं महाव्रतं स्यादिति।।३४१।।
किमर्थमेता भावना भावयितव्या यस्मात्-
ण करेदि भावणाभाविदो हु पीलं वदाण सव्वेसिं।
साधू पासुत्ता स १मणागवि िंक दाणि वेदंतो।।३४२।।
आचारवृत्ति-दुष्ट परिणामों से-कुशील भाव से महिलाओं का अवलोकन करना, महिलालोकन है। पूर्व में अर्थात् गृहस्थावस्था में जो भोगों का अनुभव किया है उसका स्मरण करना, चिंतन करना पूर्वरतिस्मरण है। द्रव्य सहित वसतिका या सरागी वसतिका संसक्तवसति है। अर्थात् जहाँ स्त्रियों का निवास है या सोना, चाँदी आदि गृहस्थों का धन रखा हुआ है या जहाँ पर रागोत्पादक वस्तुएँ विद्यमान हैं वह स्थान यहाँ संसक्त वसति नाम से कही गयी है।
दुष्टकथा अथवा स्त्रीकथा, भक्तकथा, चोरकथा और राज्यकथा आदि को विकथा कहते हैं। प्रणीतरस-इष्ट आहार अथवा मद को करने वाला आहार अर्थात् इंद्रियों को उत्तेजित करने वाला, विकार को जागृत करनेवाला आहार। यह ‘विरति’ शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए। अर्थात् महिलालोकन से विरति, पूर्वरतिस्मरण से विरति, संसक्तवसतिका से विरति, विकथा से विरति और प्रणीतरसों से विरति-ये पाँच भावनाएँ चौथे व्रह्मचर्य व्रत की होती हैं अर्थात् इन भावनाओं से चौथा ब्रह्मव्रत परिपूर्ण स्थिर रहता है।
विशेषार्थ-श्री गौतमस्वामी के अनुसार स्त्रीकथा, स्त्रीसंसर्ग, स्त्रियों के हास्य-विनोद, स्त्रियों के साथ क्रीड़ा और उनके मुख आदि का रागभाव से अवलोकन-इन सबकी विरति रूप ये पाँच भावनाएँ हैं। श्री उमास्वामी ने स्त्रियों की कथाओं का रागपूर्वक सुनने का त्याग, उनके मनोहर अंगों के अवलोकन का त्याग, पूर्व के भोगे हुए विषयों के स्मरण का त्याग, कामोद्दीपक गरिष्ठ रसों के सेवन का त्याग और स्वशरीर के संस्कार का त्याग-ये पाँच भावनाएँ ब्रह्मचर्यव्रत की मानी हैं।
अब पाँचवें व्रत की भावना को कहते हैं-
गाथार्थ-परिग्रहरहित मुनि के शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-इनमें राग-द्वेष आदि का त्याग करना-ये पाँच भावनाएँ हैं।।३४१।।
आचारवृत्ति-पाँच इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-ये पाँच प्रकार के विषय हैं। इनमें राग-द्वेष आदि का नहीं करना-ये पाँचों भावनाएँ हैं। इन भावनाओं से पाँचवाँ महाव्रत पूर्ण होता है।
विशेषार्थ-श्री गौतमस्वामी ने कहा है कि सचित्त-दासीदास आदि से विरति, अचित्त-धन- धान्य आदि से विरति, बाह्य-वस्त्र, आभरण आदि से विरति, अभ्यंतर-ज्ञानावरण आदि से विरति और परिग्रह-गृह, क्षेत्र आदि से विरति अर्थात् मैं इन पाँचों से विरत होता हूँ।
श्री उमास्वामी ने कहा है कि इष्ट और अनिष्ट ऐसे पाँच इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों से राग-द्वेष का छोड़ना ये पाँच भावनाएँ हैं।
किसलिए इन भावनाओं को भाना चाहिए ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-भावना को भाने वाला वह साधु सोता हुआ भी किंचित् मात्र भी सम्पूर्ण व्रतों में विराधना को नहीं करता है। फिर जो इस समय जाग्रत है उसके प्रति तो क्या कहना।।३४२।।
हु यस्मात् पंचविंशतिभावनाभावित: साधु: प्रसुप्तोऽपि निद्रांगतोऽपि समुदहोऽपि मूर्छांगतोऽपि सर्वेषां व्रतानां मनागपि पीडां विराधनां न करोति िंक पुनश्चेतयमान:। स्वप्नेऽपि ता एव भावना: पश्यति, न व्रतविराधना: पश्यतीति।।३४२।।
एदाहि भावणािंह दु तम्हा भावेहि अप्पमत्तो त्तं।
अच्छिद्दाणि अखंडाणि ते भविस्संति हु वदाणि।।३४३।।
तस्मादेताभिर्भावनाभि: भावयात्मानमप्रमत्त: स त्वं। ततोऽच्छिद्राण्यखण्डानि सम्पूर्णानि भविष्यन्ति हि स्फुटं ते तव व्रतानीति।।३४३।।
चारित्राचारमुपसंहरस्तप आचारं च सूचयन्नाह-
एसो चरणाचारो पंचविधो वण्णिदो समासेण।
एत्तो य तवाचारं समासदो वण्णयिस्सामि।।३४४।।
एष चरणाचार: पंचविधोऽष्टfिवधश्च वर्णितो मया समासेन इत ऊर्ध्वं तप आचारं समासतो वर्णयिष्यामीति।।३४४।।
दुविहा य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो।
एक्कक्को विय छद्धा जधाकमं तं परूवेमो।।३४५।।
द्विप्रकारस्तप आचारस्तपोऽनुष्ठानं। बाह्यो बाह्यजनप्रकट:। अभ्यन्तरोऽभ्यन्तरजनप्रकट:। एवैâकोऽपि च
आचारवृत्ति-इन पच्चीस भावनाओं को जिसने भाया हुआ है ऐसा साधू यदि निद्रा को अथवा मूर्च्छा को प्राप्त हुआ है तो भी वह अपने सभी व्रतों में किंचित् मात्र भी विराधना नहीं करता है। पुन: जब वह जाग्रत है-सावधानी से प्रवृत्त हो रहा है तब तो कहना ही क्या। अर्थात् स्वप्न में भी वह मुनि इन भावनाओं को ही देखता है किन्तु व्रतों की विराधना को नहीं करता।
गाथार्थ-इसलिए तुम अप्रमादी होकर इन भावनाओं से आत्मा को भावो। निश्चित रूप से तुम्हारे व्रत छिद्र रहित और अखण्ड-परिपूर्ण हो जावेंगे।।३४३।।
आचारवृत्ति-इसलिए तुम प्रमाद छोड़कर अप्रमत्त होते हुए इन भावनाओं के द्वारा अपनी आत्मा को भावो। इससे तुम्हारे व्रत निश्चित रूप से छिद्र रहित अर्थात् दोषरहित, अखण्ड-परिपूर्ण हो जावेंगे, ऐसा समझो।
चारित्राचार का उपसंहार करते हुए और तप-आचार को सूचित करते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्र्थ-संक्षेप से यह पाँच प्रकार का चारित्राचार मैंने कहा है। इससे आगे संक्षेप से तप आचार को कहूँगा।।।३४४।।
आचारवृत्ति-यह पाँच महाव्रत रूप पाँच प्रकार का और अष्ट प्रवचनमातृका रूप आठ प्रकार का चारित्राचार मैंने संक्षेप से कहा है, इसके बाद अब मैं तप-आचार को संक्षेप में कहूँगा।
भावार्थ-चारित्राचार के मुख्यतया पाँच ही भेद हैं जो कि महाव्रतरूप हैं। अत: गाथा में पंचविध: शब्द का उल्लेख है। किन्तु जो आठ प्रवचनमातृका हैं वे तो उन व्रतों की रक्षा के लिए ही विवक्षित हैं। अथवा चारित्राचार के अन्यत्र ग्रन्थों में तेरह भेद भी माने हैं।
अब तप आचार को कहते हैं-
गाथार्थ-बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप-आचार दो प्रकार का जानना चाहिए। उसमें एक-एक भी छह प्रकार का है। उनको मैं क्रम से कहूँगा।।३४५।।
आचारवृत्ति-तप के अनुष्ठान का नाम तप-आचार है। उसके दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर। जो बाह्य जनों में प्रकट है वह बाह्य तप है और जो आभ्यन्तर जनों-अपने धार्मिक जनों में प्रकट है उसे
बाह्याभ्यन्तरश्चैवैâक: षोढा षड्प्रकार: यथाक्रमं क्रममनुल्लंघ्य प्ररूपयामि कथयिष्यामीति।।३४५।।
बाह्य षड्भेदं नामोद्देशेन निरूपयन्नाह-
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा।
कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठं।।३४६।।
अनशनं चतुर्विधाहारपरित्याग:। अवमौदर्यमतृप्तिभोजनं। रसानां परित्यागो रसपरित्याग: स्वाभिलषितस्निग्धमधुराम्ल-कटुकादिरसपरिहार:। वृत्ते: परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या गृहदायकभाजनौदनकालादीनां परिसंख्यानपूर्वको ग्रह:। कायस्य शरीरस्य परिताप: कर्मक्षयाय बुद्धिपूर्वकं शोषणं आतापनाभ्रावकाशवृक्षमूलादिभि:। विविक्तशयनासनं स्त्रीपशुषण्डकविवर्जितं स्थानसेवनं षष्ठमिति।।३४६।।
अनशनस्य भेदं स्वरूपं च प्रतिपादयन्नाह-
इत्तिरियं जावजीवं दुविहं पुण अणसणं मुणेयव्वं।
इत्तिरियं साकंखं णिरावकंखं हवे बिदियं।।३४७।।
अनशनं पुनरित्तिरिययावज्जीवभेदाभ्यां द्विविधं ज्ञातव्यं इत्तिरियं साकांक्षं कालादिभि: सापेक्षं एतावन्तं कालमहमशनादिकं नानुतिष्ठामीति। निराकांक्षं भवेद् द्वितीयं यावज्जीवं आमरणान्तादपि न सेवनम्।।३४७।।
आभ्यन्तर तप कहते हैं। ये बाह्य-आभ्यन्तर दोनों ही तप छह-छह प्रकार के हैं। मैं इन सभी का क्रम से वर्णन करूँगा।
बाह्य तप के छहों भेदों के नाम और उद्देश्य का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्त परिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशयनासन ये छह बाह्य तप हैं।।३४६।।
आचारवृत्ति-चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है। अतृप्ति भोजन अर्थात् पेटभर भोजन न करना अवमौदर्य है। रसों का ‘परित्याग करना-अपने लिए इष्ट स्निग्ध, मधुर, अम्ल, कटुक आदि रसों का परिहार करना रसपरित्याग है। वृत्ति-आहार की चर्या में परिसंख्या-गणना अर्थात् नियम करना।
गृह का, दातार का, बर्तनों का, भात आदि भोज्य वस्तु का या काल आदि का गणनापूर्वक नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान है अर्थात् आहार को निकलते समय दातारों के घर का या किसी दातार आदि का नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। काय अर्थात् शरीर को परिताप-क्लेश देना, आतापन, अभ्रावकाश और वृक्षमूल आदि के द्वारा कर्मक्षय के लिए बुद्धिपूर्वक शोषण करना कायक्लेश तप है।
स्त्री, पशु और नपुंसक से वर्जित स्थान का सेवन करना विविक्तशयनासन तप है। ऐसे इन छह बाह्य तपों का नाम निर्देशपूर्वक संक्षिप्त लक्षण किया है। आगे प्रत्येक का लक्षण आचार्य स्वयं कर रहे हैं।
अनशन का स्वरूप और उसके भेद बतलाते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-काल की मर्यादा सहित और जीवनपर्यन्त के भेद से अनशन तप दो प्रकार जानना चाहिए। काल की मर्यादा सहित साकांक्ष है और दूसरा यावज्जीवन अनशन निराकांक्ष होता है।।३४७।।
आचारवृत्ति-इत्तिरिय-इतने काल तक और यावज्जीवं-जीवनपर्यन्त तक के भेद से अनशन तप दो प्रकार का है। उसमें ‘इतने काल पर्यन्त’ मैं अनशन अर्थात् भोजन आदि का अनुष्ठान नहीं करूँगा’ ऐसा काल आदि सापेक्ष जो अनशन होता है वह इत्तिरिय-साकांक्ष अनशन तप है। जिसमें मरण पर्यन्त अशन आदि का त्याग कर दिया जाता है वह यावज्जीवन निराकांक्ष नाम का दूसरा तप होता है।
साकांक्षानशनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह-
छट्ठट्ठमदसमदुवादसेिंह मासद्धमासखमणाणि।
कणगेगावलिआदी तवोविहाणाणि णाहारे१।।३४८।।
अहोरात्रस्य मध्ये द्वे भक्तवेले तत्रैकस्यां भक्तवेलायां भोजनमेकस्या: परित्याग एकभक्त:। चतसृणां भक्तवेलानां परित्यागे चतुर्थ:। षण्णां भक्तवेलानां परित्यागे षष्ठो द्विदिनपरित्याग:। अष्टानां परित्यागेऽष्टमस्त्रय उपवासा:। दशानां त्यागे दशमश्चत्वार उपवासा:। द्वादशानां परित्यागे द्वादश: पंचोपवासा:। मासार्धपंचदशोपवासा: पंचदशदिनान्याहारपरित्याग:। मास-मासोपवासािंस्त्रशदहोरात्रमात्रा अशनत्याग:। क्षमणान्युपवासा:। आवलीशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते।
कनकावली चैकावली च कनकावल्येकावल्यौ तौ विधी आदिर्येषां तपोविधानानां कनवैâकावल्यादीनि। आदिशब्देन मुरजमध्य-विमानपंक्ति-िंसहनिष्क्रीडितादीनां ग्रहणं। कनकावल्यादीनां प्रपंच: टीका२राधनायां द्रष्टव्यो विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते। अनाहारोऽनशनं षष्ठाष्टमदशमद्वादशैर्मासार्धमासादिभिश्च यानि क्षमणानि कनवैâकावल्यादीनि च यानि तपोविधानानि तानि सर्वाण्य-नाहारो यावदुत्कृष्टेन षण्मासास्तत्सर्वं साकांक्षमनशनमिति।।३४८।।
निराकांक्षस्यानशनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह-
भत्तपइण्णा इंगिणि पाउवगमणाणि जाणि मरणाणि।
अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकंखाणि।।३४९।।
अब साकांक्ष अनशन का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-बेला, तेला, चोला, पाँच उपवास, पन्द्रह दिन और महीने भर का उपवास, कनकावली, एकावली आदि तपश्चरण के विधान अनशन में कहे गये हैं।।३४८।।
आचारवृत्ति-अहोरात्र के मध्य भोजन की दो बेला होती हैं। उनमें से एक भोजन बेला में भोजन करना और एक भोजन बेला में भोजन का त्याग करना यह एकभक्त है। चार भोजन बेलाओं में चार भोजन का त्याग करना चतुर्थ है। अर्थात् धारणा और पारणा के दिन एकाशन करना तथा व्रत के दिन दोनों समय भोजन का त्याग करके उपवास करना-इस तरह चार भोजन का त्याग होने से जो उपवास होता है उसे चतुर्थ कहते हैं।
छह भोजन बेलाओं के त्याग में षष्ठ कहा जाता है। अर्थात् धारणा-पारणा के दिन एकाशन तथा दो दिन का पूर्ण उपवास इसे ही षष्ठ-बेला कहते हैं। आठ भोजन बेलाओं में आठ भोजन का त्याग करने से अष्टम अर्थात् तेला कहा जाता है। दश भोजन बेलाओं के त्याग करने पर दशम-चार उपवास होते हैं। बारह भुक्तियों के त्याग से द्वादश-पाँच उपवास हो जाते हैं।
पन्द्रह दिन तक आहार का त्याग करने से अर्धमास का उपवास होता है। तीस दिन-रात तक भोजन का त्याग करने से एक मास का उपवास होता है। तथा कनकावली, एकावली आदि भी तपोविधान है। यहाँ आदि शब्द से मुरजबन्ध, विमानपंक्ति, सिंहनिष्क्रीड़ित आदि व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। इन कनकावली आदि व्रतों का विस्तृत कथन आराधना टीका में देखना चाहिए। विस्तार के भय से उनको यहाँ पर हम नहीं कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि आहार का त्याग करना अनशन है। वेला; तेला, चौला, पाँच उपवास, पन्द्रह दिन, एक महीने आदि के उपवास, कनकावली, एकावली आदि व्रतों का आचरण, ये सब उपवास उत्कृष्ट से छह मास पर्यन्त तक होते हैं। ये सब साकांक्ष अनशन हैं।
अब निराकांक्ष अनशन का स्वरूप निरूपित करते हैं-
गाथार्थ-भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन जो ये मरण हैं ऐसे और भी जो अनशन हैं वे निराकांक्ष जानना चाहिए।।३४९।।
भक्तप्रत्याख्यानं द्व्याद्यष्टचत्वािंरशन्निर्यापवैâ: परिचर्यमाणस्यात्मपरोपकारसव्यपेक्षस्य यावज्जीवमाहारत्याग:। इङ्गणीमरणं नामात्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनमरणं नामात्मपरोपकारनिरपेक्षं। एतानि त्रीणि मरणानि। एवमादीन्यन्यान्यपि प्रत्याख्याता (ना) नि निराकांक्षाणि यानि तानि सर्वाण्यनिराकांक्षमनशनं बोद्धव्यं ज्ञातव्यमिति।।३५०।।
अवमौदर्यस्वरूपं निरूपयन्नाह-
बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पयदि आहारो।
एगकवलादििंह१ तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं।।३५०।।
द्वािंत्रशत्कवला: पुरुषस्य प्रकृत्याहारो भवति। ततो द्वािंत्रशत्कवलेभ्य एककवलेनोनं द्वाभ्यां त्रिभि:, इत्येवं यावदेककवल: शेष: एकसिक्थो वा। किलशब्द आगमार्थसूचक: आगमे पठितमिति। एककवलादिभिर्नित्यस्याहारस्य ग्रहणं यत् सावमौदर्यवृत्ति:। सहस्रतंदुलमात्र: कवल आगमे पठित: द्वािंत्रशत्कवला: पुरुषस्य स्वाभाविक आहारस्तेभ्यो यन्न्यूनग्रहणं तदवमोदर्यं तप इति।।३५१।।
किमर्थमवमोदर्यवृत्तिरनुष्ठीयत इति पृष्टे उत्तरमाह-
धम्मावासयजोगे णाणादीए उवग्गहं कुणदि।
ण य इंदियप्पदोसयरी उम्मोदरितवोवुत्ती।।३५१।।
आचारवृत्ति-दो से लेकर अड़तालीस पर्यन्त निर्यापकों के द्वारा जिनकी परिचर्या की जाती है, जो अपनी और पर के उपकार की अपेक्षा रखते हैं ऐसे मुनि का जो जीवन पर्यन्त आहार का त्याग है वह भक्त प्रत्याख्यान नाम का समाधिमरण है। जो अपने उपकार की अपेक्षा सहित है और पर के उपकार से निरपेक्ष है वह इंगिनीमरण है।
जिस मरण में अपने और पर के उपकार की अपेक्षा नहीं है वह प्रायोपगमन मरण है। ये तीन प्रकार के मरण होते हैं। अर्थात् छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीवों के मरण का नाम पण्डितमरण है, उसके ही ये तीनों भेद हैं। इसी प्रकार से और भी जो अन्य उपवास होते है वे सब निराकांक्ष अनशन कहलाते हैं।
अब अवमौदर्य का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-पुरुष का निश्चित रूप से स्वभाव से बत्तीस कवल आहार होता है। उस आहार में से एक कवल आदि रूप से कम ग्रहण करना अवमौदर्य तप है।।३५०।।
आचारवृत्ति-पुरुष का प्राकृतिक आहार बत्तीस कवल प्रमाण होता है। उन बत्तीस ग्रासों में से एक ग्रास कम करना, दो ग्रास कम करना, तीन ग्रास कम; इस प्रकार से जब तक एक ग्रास न हो जाए तब तक कम करते जाना अथवा एक सिक्थ-भात का कण मात्र रह जाय तब तक कम करते जाना यह अवमौदर्य तप है। गाथा में आया ‘किल’ शब्द आगम अर्थ का सूचक है
अर्थात् आगम में ऐसा कहा गया है। एक ग्रास आदि से प्रारम्भ करके एक ग्रास कम तक जो आहार का ग्रहण करना है वह अवमौदर्य चर्या है।आगम में एक हजार चावल का एक कवल कहा गया है। अर्थात् बत्तीस ग्रास पुरुष का स्वाभाविक आहार है उससे जो न्यून है वह अवमौदर्य तप है।
किसलिए अवमौदर्य तप का अनुष्ठान किया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-धर्म, आवश्यक क्रिया और योगों में तथा ज्ञानादिक में उपकार करता है, क्योंकि अवमौदर्य तप की वृत्ति इन्द्रियों से द्वेष करने वाली नहीं है।।३५१।।
धर्मे क्षमादिलक्षणे दशप्रकारे। आवश्यकक्रियासु समतादिषु षट्सु। योगेषु वृक्षमूलादिषु। ज्ञानादिके स्वाध्याये चारित्रे चोपग्रहमुपकारं करोतीत्यवमोदर्यतपोवृत्ति:। न चेन्द्रियप्रद्वेषकरी न चावमोदर्यवृत्येन्द्रियाणि प्रद्वेषं गच्छन्ति किन्तु वशे तिष्ठन्तीति। वह्वाशीर्धर्मं नानुतिष्ठति। आवश्यकक्रियाश्च न सम्पूर्णा: पालयति। त्रिकालयोगं च न क्षेमेण समानयति। स्वाध्यायध्यानादिकं च न कर्तुं शक्नोति। तस्येन्द्रियाणि च स्वेच्छाचारीणि भवन्तीति। मिताशिन: पुनर्धर्मादय: स्वेच्छया वर्तन्त इति।।३५१।।
रसपरित्यागस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
खीरदहिसप्पितेल गुडलवणाणं च जं परिच्चयणं।
तित्तकटुकसायंविलमधुररसाणं च जं चयणं।।३५२।।
अथ को रसपरित्याग इति पृष्टेऽत आह-क्षीरदधिसर्पिस्तैलगुडलवणानां घृतपूरलडुकादीनां च यत् परिच्चयणं–परित्यजनं एवैâकश: सर्वेषां वा तिक्तकटुुकषायाम्लमधुररसानां च यत्त्यजनं स रसपरित्याग:। एतेषां प्रासुकानामपि तपोबुद्ध्या त्यजनम्।।३५२।।
या: पुनर्महाविकृतयस्ता: कथमिति प्रश्नेऽत आह-
चत्तारि महावियडी य होंति णवणीदमज्जमंसमधू।
कंखापसंगदप्पासंजमकारीओ१ एदाओ।।३५३।।
आचारवृत्ति-उत्तम क्षमा आदि लक्षण वाले दशप्रकार के धर्म में, समता वन्दना आदि छह आवश्यक क्रियाओं में, वृक्षमूल आदि योगों में, ज्ञानादिक-स्वाध्याय और चारित्र में यह अवमौदर्य तप उपकार करता है। इस तपश्चरण से इन्द्रियाँ प्रद्वेष को प्राप्त नहीं होती हैं किन्तु वश में रहती हैं। बहुत भोजन करने वाला धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता है।
परिपूर्ण आवश्यक क्रियाओं का पालन नहीं कर पाता है। आतापन, अभ्रावकाश और वृक्षमूल इन तीन काल सम्बन्धी योगों को भी सुख से नहीं धारण कर सकता है तथा स्वाध्याय और ध्यान करने में भी समर्थ नही हो पाता है। उस मुनि की इन्द्रियाँ भी स्वेच्छाचारी हो जाती हैं। किन्तु मितभोजी साधू में धर्म, आवश्यक आदि क्रियाएँ स्वेच्छा से रहती हैं।
भावार्थ-भूख से कम खाने वाले साधू के प्रमाद नहीं होने से ध्यान, स्वाध्याय आदि निर्विघ्न होते हैं किन्तु अधिक भोजन करने वाले के प्रमाद से सभी कार्यों में बाधा पहुँचती है। इसलिए यह तप गुणकारी है।
अब रस-परित्याग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और लवण इन रसों का जो परित्याग करना है और तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल तथा मधुर इन पाँच प्रकार के रसों का त्याग करना है वह रसपरित्याग है।।३५२।।
आचारवृत्ति-रसपरित्याग क्या है ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक तथा घृतपूर्ण पुआ, लड्डू आदि का जो त्याग करना है। इनमें एक-एक का या सभी का छोड़ना तथा तिक्त, कटुक, कषायले, खट्टे और मीठे इन रसों का त्याग करना रसपरित्याग तप है। इस तप में इन प्रासुक वस्तुओं का भी तपश्चरण की बुद्धि से त्याग किया जाता है।
जो महाविकृतियाँ हैं वे कौन सी हैं ? ऐसे प्रश्न होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ होती हैं। ये अभिलाषा, प्रसंग-व्यभिचार, दर्प और असंयम को करने वाली हैं।।३५३।।
या: पुनश्चतस्रो महाविकृतयो महापापहेतवो भवन्तीति नवनीतमद्यमांसमधूनि, कांक्षाप्रसंगदर्पासंयमकारिण्य एता:। नवनीतं कांक्षां–महाविषयाभिलाषं करोति। मद्यं–सुराप्रसंगमगम्यगमनं करोति। मांसं–पिशितं दर्पं करोति। मधु असंयमं िंहसां करोति।।३५३।।
एता: िंककर्तव्या इति पृष्टेऽत आह-
आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण।
ताओ जावज्जीवं णिव्वुड्ढाओ पुरा चेव।।३५४।।
सर्वज्ञाज्ञाभिकांक्षिणा–सर्वज्ञमतानुपालकेन। अवद्यभीरुणा–पापभीरुणा, तप:कामेन–तपोनुष्ठानपरेण, समाधिकामे–न च ता नवनीतमद्यमांसमधूनि विकृतयो यावज्जीवं–सर्वकालं निर्व्यूढा:–निसृष्टा: त्यक्ता: पुरा चैव पूर्वस्मिन्नेव काले संयमग्रहणान्पूर्वमेव। आज्ञाभिकांक्षिणा नवनीतं सर्वथा त्याज्यं दुष्टकांक्षाकारित्वात्। अवद्यभीरुणा मांसं सर्वथा त्याज्यं दर्पकारित्वात्। तत: तप:कामेन मद्यं सर्वथा त्याज्यं प्रसंगकारित्वात्। समाधिकामेन मधु सर्वथा त्याज्यं असंयमकारित्वात्। व्यस्तं समस्तं वा योज्यमिति।।३५४।।
वृत्तिपरिसंख्यानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह-
गोयरपमाण दायगभायण णाणाविहाण जं गहणं।
तह एसणस्स गहणं विविहस्स य वुत्तिपरिसंखा।।३५५।।
आचारवृत्ति-मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चारों ही महाविकृति पाप के हेतु हैं। नवनीत विषयों की महान् अभिलाषा को उत्पन्न करता है। मद्य प्रसंग, अगम्य अर्थात् वेश्या या व्यभिचारिणी स्त्री का सहवास कराता है। मांस अभिमान को पैदा करता है और मधु हिंसा में प्रवृत्त कराता है।
इन्हें क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-आज्ञापालन के इच्छुक, पापभीरु, तप और समाधि की इच्छा करनेवाले ने पहले ही इनका जीवनभर के लिए त्याग कर दिया है।।३५४।।
आचारवृत्ति-सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करने वाले, पापभीरु, तप के अनुष्ठान में तत्पर और समाधि की इच्छा करने वाले भव्य जीव ने संयम ग्रहण करने के पूर्व में ही इन मक्खन, मद्य, मांस और मधु नामक चारों विकृतियों का जीवनभर के लिए त्यागकर दिया है।
आज्ञापालन करने के इच्छुक को नवनीत का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वह दुष्ट अभिलाषा को उत्पन्न करने वाला है। पापभीरु को मांस का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वह दर्प-उत्तेजना का करने वाला है। तपश्चरण की इच्छा करने वाले को चाहिए कि वह मद्य को सर्वथा के लिए छोड़ दे, क्योंकि वह अगम्या-वेश्या आदि का सेवन कराने वाला है तथा समाधि की इच्छा करने वाले को मधु का सर्वथा त्यागकर देना चाहिए, क्योंकि वह असंयम को करने वाला है। इनको पृथक्-पृथक् या समूहरूप से भी लगा लेना चाहिए।
भावार्थ-एक-एक गुण के इच्छुक को एक-एक के त्यागने का उपदेश दिया है। वैसे ही एक-एक गुण के इच्छुक को चारों का भी त्याग कर देना चाहिए अथवा चारों गुणों के इच्छुक को चारों वस्तुओं का सर्वथा ही त्याग कर देना चाहिए।
वृत्तिपरिसंख्यान तप का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-गृहों का प्रमाण, दाता का, बर्तनों का नियम ऐसे अनेक प्रकार का जो नियम ग्रहण करना है तथा नाना प्रकार के भोजन का नियम ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान व्रत है।।३५५।।
गोचरस्य प्रमाणं गोचरप्रमाणं गृहप्रमाणं एतेषु गृहेषु प्रविशामि नान्येषु बहुष्विति। दायका दातारो भाजनानि परिवेष्यपात्राणि तेषां यन्नानाविधानं नानाकरणं तस्य ग्रहणं स्वीकरणं–दातृविशेषग्रहणं पात्रविशेषग्रहणं च। यदि वृद्धो मां विधरेत् तदानीं तिष्ठामि नान्यथा। अथवा बालो युवा स्त्री उपानत्करहितो वर्त्मनि स्थितोऽन्यथा वा विधरेत् तदानीं तिष्ठामीति। कांस्यभाजनेन रूप्यभाजनेन सुवर्णभाजनेन मृन्मयभाजनेन वा ददाति तदा गृहीष्यामीति यदेवमाद्यं। तथाशनस्य विविधस्य नानाप्रकारस्य यद्ग्रहणमवग्रहोपादानं, अद्य मकुष्ठं भोक्ष्ये नान्यत्। अथवाद्य मंडकान् सक्तून् ओदनं वा ग्रहीष्यामीति यदेवमाद्यं१ ग्रहणं तत्सर्वं वृत्तिपरिसंख्यानमिति।।३५५।।
कायक्लेशस्वरूपं विवृण्वन्नाह-
ठाणसयणासणेिंह य विविहेिंह य उग्गयेिंह बहुएहिं।
अणुवीचीपरिताओ कायकिलेसो हवदि एसो।।३५६।।
स्थानं–कायोत्सर्ग। शयनं–एकपार्श्वमृतकदण्डादिशयनं। आसनं–उत्कुटिका-पर्यंक-वीरासन-मकरमुखाद्यासनं। स्थानशयनासनैर्विविधैश्चावग्रहैर्धर्मोपकारहेतुभिरभिप्रायैर्बहुभिरनुवीचीपरिताप: सूत्रानुसारेण कायपरितापो वृक्षमूलाभ्राव-काशातापनादिरेष कायक्लेशो भवति।।३५६।।
आचारवृति-गृहों के प्रमाण को गोचर प्रमाण कहते हैं। जैसे ‘आज मैं इन गृहों में आहार हेतु जाऊँगा और अधिक गृहों में नहीं जाऊँगा’ ऐसा नियम करना। दायक अर्थात् दातार और भाजन अर्थात् भोजन रखने के या भोजन परोसने के बर्तन-इनकी जो नाना प्रकार से विधि लेना है वह दायक-भाजन विधि अर्थात् दाता विशेष और पात्र विशेष की विधि ग्रहण करना है।
जैसे-‘यदि वृद्ध मनुष्य मुझे पड़गाहेगा तो मैं ठहरूँगा अन्यथा नहीं अथवा बालक, युवक, महिला या जूते अथवा खड़ाऊँ आदि से रहित कोई पुरुष मार्ग में खड़ा हुआ मुझे पड़गाहे तो मैं ठहरूँगा अथवा ये अन्य अमुक विधि से मुझे पड़गाहे तो मैं ठहरूँगा’ इत्यादि नियम लेकर चर्या के लिए निकलना। ऐसे ही बर्तन सम्बन्धी नियम लेना : जैसे, ‘मुझे आज यदि कोई कांसे के बर्तन से, सोने के बर्तन से या मिट्टी के बर्तन से आहार देगा तो मैं ले लूँगा या इसी प्रकार से अन्य और भी नियम लेना।
तथा नानाप्रकार के भोजन सम्बंधी जो नियम लेना है वह सब वृत्तिपरिसंख्यान है। जैसे-‘आज मैं मोठ ही खाऊँगा अन्य कुछ नही’ ‘अथवा आज मंडे (रोटी), सत्तू या भात ही ग्रहण करूँगा।’ इत्यादि रूप से जो भी नियम लिये जाते हैं वे सब वृत्तिपरिसंख्यान तप कहलाते हैं।
भावार्थ-इन्द्रिय और मन के निग्रह के लिए नाना प्रकार के तपश्चरणों का अनुष्ठान किया जाता है। और इस वृत्तिपरिसंख्यान के नियम से भी इच्छाओं का निरोध होकर भूखप्यास को सहन करने का अभ्यास होता है।
कायक्लेश तप का स्वरूप बतलाते हैं-
गाथार्थ-खड़े होना-कायोत्सर्ग करना, सोना, बैठना और अनेक विधिनियम ग्रहण करना, इनके द्वारा आगमानुकूल कष्ट सहन करना-यह कायक्लेश नाम का तप है।।३५६।।
आचारवृत्ति-स्थान-कायोत्सर्ग करना। शयन-एक पसवाड़े से या मृतकासन से या दण्डे के समान लंबे पड़कर सोना। आसन-उत्कुटिकासन, पर्यंकासन, वीरासन, मकरमुखासन आदि तरह-तरह के आसन लगाकर बैठना। इन कायोत्सर्ग, शयन और आसनों द्वारा तथा अनेक प्रकार के धर्मोपकार हेतु नियमों
विविक्तशयनासनस्वरूपमाह-
तेरिक्खिय माणुस्सिय सविगारियदेवि गेहि संसत्ते।
वज्जेंति अप्पमत्ता णिलए सयणासणट्ठाणे।।३५७।।
तिर्यंचो–गोमहिष्यादय:। मानुष्य:–स्त्रियो वेश्या: स्वेच्छाचारिण्यादय:। सविकारिण्यो–देव्यो भवनवानव्यन्तरादियोषित:। गेहिनो गृहस्था:। एतै: संसक्तान्–सहितान्, निलयानावसान् वर्जयन्ति–परि हरन्त्यप्रमत्ता यत्नपरा: सन्त: शयनासनस्थानेषु कर्तव्येषु एवमनुतिष्ठतो विविक्तशयनासनं नाम तप इति।।३५७।।
बाह्यं तप उपसंहरन्नाह-
सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि।
जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण हीयंते।।३५८।।
तन्नाम बाह्यं तपो येन मनोदुष्कृतं-चित्तसंक्लेशो नोत्तिष्ठfित नोत्पद्यते। येन च श्रद्धा शोभनानुरागो जायत उत्पद्यते येन च योगा मूलगुणा न हीयन्ते।।३५८।।
के द्वारा सूत्र के अनुसार कार्य को ताप देना अर्थात् शरीर को कष्ट देना, वृक्षमूल, अभ्रावकाश और आतापन आदि नाना प्रकार के योग धारण करना यह सब कायक्लेश तप है।
भावार्थ-इस तपश्चरण द्वारा शरीर में कष्ट-सहिष्णुता आ जाने से, घोर उपसर्ग या परीषहों के आ जाने पर भी साधु अपने ध्यान से चलायमान नहीं होते हैं। इसलिए यह तप भी बहुत ही आवश्यक है।
श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है-
अदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ।
तस्माद् यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेद मुनि:।।१०२।। (समाधिशतक)
सुखी जीवन में किया गया तत्त्वज्ञान का अभ्यास दुःख के आ जाने पर क्षीण हो जाता है इसलिए मुनि अपनी शक्ति के अनुसार दु:खों के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करे अर्थात् कायक्लेश के द्वारा दुःखों को बुलाकर अपनी आत्मा का चिन्तवन करते हुए अभ्यास दृढ़ करे।
विविक्तशयनाशन तप का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-अप्रमादी मुनि सोने, बैठने और ठहरने में तिर्यंचिनी, मनुष्य-स्त्री, विकार सहित देवियाँ और गृहस्थों से सहित मकानों को छोड़ देते हैं।।३५७।।
आचारवृत्ति-अप्रमत्त अर्थात् यत्न में तत्पर होते हुए सावधान मुनि सोना, बैठना और ठहरना इन प्रसंगों में अर्थात् अपने ठहरने के प्रसंग में-जहां गाय, भैंस आदि तिर्यंच हैं; वेश्या, स्वेच्छाचारिणी आदि महिलायें हैं; भवनवासिनी, व्यंतरवासिनी आदि विकारी वेषभूषा वाली देवियां हैं अथवा गृहस्थजन हैं। ऐसे इन लोगों से सहित गृहों को, वसतिकाओं को छोड़ देते हैं। इस तरह इन तिर्यंच आदि से रहित स्थानों में रहनेवाले मुनि के यह विविक्त शयनासन नाम का तप होता है।
अब बाह्य तपों का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-बाह्य तप वही है जिससे मन अशुभ को प्राप्त नहीं होता है जिससे श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिससे योगहीन नहीं होते हैं।।३५८।।
आचारवृत्ति-बाह्य तप वही है कि जिससे मन में संक्लेश नहीं उत्पन्न होता है, जिससे श्रद्धा-शुभ अनुराग उत्पन्न होता है और जिससे योग अर्थात् मूलगुण हानि को प्राप्त नहीं होते हैं। अर्थात् बाह्य तप का
एसो दु बाहिरतवो बाहिरजणपायडो परम घोरो।
अब्भंतरजणणादं बोच्छं अब्भंतरं वि तवं।।३५९।।
तद्बाह्यं तप: षड्विधं बाह्यजनानां मिथ्यादृष्टिजनानामपि प्रकटं प्रख्यातं परमघोरं सुष्ठु दुष्करं प्रतिपादितं। अभ्यन्तरजनज्ञातं आगमप्रविष्टजनैर्ज्ञातं वक्ष्ये कथयिष्याम्यभ्यन्तरमपि षड्विधं तप:।।३५९।।
के ते षट्प्रकारा इत्याशंकायामाह-
पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्भâायं।
भâाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो।।३६०।।
प्रायश्चित्तं–पूर्वापराधशोधनं। विनयं-अनुतद्धत वृत्ति:। वैयावृत्यं–स्वशक्त्योपकार:। तथैव स्वाध्याय: सिद्धान्ताद्यध्ययनं। ध्यानं-चैकाग्रचिंतानिरोध:। व्युत्सर्ग:। अभ्यन्तरतप एतदिति।।३६०।।
प्रायश्चित्तस्वरूपं निरूपयन्नाह-
पायच्छित्त त्ति तवो जेण विसुज्भâदि हु पुव्वकयपावं।
पायच्छित्त पत्तोत्ति तेण वुत्तं दसविहं तु।।३६१।।
प्रायश्चित्तमपराधं प्राप्त: सन् येन तपसा पूर्वकृतात्पापात् विशुद्ध्यते हु–स्फुटं पूर्वं व्रतै: सम्पूर्णो भवति तत्तपस्तेन कारणेन दशप्रकारं प्रायश्चित्तमिति।।३६१।।
अनुष्ठान वही अच्छा माना जाता है कि जिसके करने से मन में संक्लेश न उत्पन्न हो जावे या शुभ परिणामों का विघात न हो जावे अथवा मूलगुणों की हानि न हो जावे।
गाथार्थ-यह बाह्य तप बाह्य (जैन मत से बहिर्भूत) जनों में प्रगट है, परम घोर है, सो कहा गया है। अब मैं अभ्यन्तर-जैनदृष्टि लोगों में प्रसिद्ध ऐसे अभ्यन्तर तप को कहूँगा।।३५९।।
आचारवृत्ति-यह छह प्रकार के बाह्य तप का, जो मिथ्यादृष्टिजनों में भी प्रख्यात है और अत्यन्त दुष्कर है, मैंने प्रतिपादन किया है। अब आगम में प्रवेश करने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टिजनों के द्वारा जाने गये छह भेद वाले अभ्यन्तर तप को भी कहूँगा।
अभ्यन्तर तप के वे छह प्रकार कौन से हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-ये अभ्यन्तर तप है।।३६०।।
आचारवृत्ति-पूर्व के किये हुए अपराधों का शोधन करना प्रायश्चित्त है। उद्धतपन-रहित वृत्ति का होना अर्थात् नम्र वृत्ति का होना विनय है। अपनी शक्ति के अनुसार उपकार करना वैयावृत्य है। सिद्धांत आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना स्वाध्याय है। एक विषय पर चिन्ता का निरोध करना ध्यान है और उपधि (परिग्रह) का त्याग करना व्युत्सर्ग है। ये छह अभ्यन्तर तप हैं।
अब प्रायश्चित्त का स्वरूप निरूपित करते हैं-
गाथार्थ-अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिसके द्वारा पूर्वकृत पाप से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त तप है। इस कारण से वह प्रायश्चित्त दश प्रकार का कहा गया है।।३६१।।
आचारवृत्ति-अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिस तप के द्वारा अपने पूर्वसंचित पापों से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त है। जिससे स्पष्टतया पूर्व के व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है वह तप भी प्रायश्चित्त कहलाता है। वह प्रायश्चित्त दश प्रकार का है।
के ते दशप्रकारा इत्याशंकायामाह-
आलोयणपडिकमणं उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो।
तव छेदो मूलं विय परिहारो चेव सद्दहणा।।३६२।।
आलोचना–आचार्याय देवाय वा चारित्राचारपूर्वकमुत्पन्नापराधनिवेदनं। प्रतिक्रमणं–रात्रि भोजनत्यागव्रतसहितपंचमहाव्रतोच्चारणं संभावनं दिवसप्रतिक्रमणं पाक्षिकं वा। उभयं–आलोचनप्रतिक्रमणे । विवेको- द्विप्रकारो गणविवेक: स्थानविवेको वा। तथा व्युत्सर्ग:–कायोत्सर्ग:। तपोऽनशनादिकं। छेदो–दीक्षाया: पक्षमासादिभिर्हानि:।
मूलं–पुनरद्य प्रभृति व्रतारोपणं। अपि च परिहारो द्विप्रकारो गणप्रतिबद्धोऽप्रतिबद्धो वा। यत्र प्रश्रवणादिकं कुर्वन्ति मुनयस्तत्र तिष्ठन्ति पिच्छिकामग्रत: कृत्वा यतीनां वन्दनां करोति तस्य यतयो न कुर्वन्ति, एवं या गणे क्रिया गणप्रतिबद्ध: परिहार:। यत्र देशे धर्मो न ज्ञायते तत्र गत्वा मौनेन तपश्चरणानुष्ठानकरणमगणप्रतिबद्ध: परिहार:।
तथा श्रद्धानं तत्वरुचौ परिणाम: क्रोधादिपरित्यागो वा। एतद्दशप्रकारं प्रायश्चित्तं दोषानुरूपं दातव्यमिति। कश्चिद्दोष: आलोचनमात्रेण निराक्रियते। कश्चित्प्रतिक्रमणेन कश्चिदालोचनप्रतिक्रमणाभ्यां कश्चिद्विवेकेन कश्चित्कायोत्सर्गेण कश्चित्तपसा कश्चिच्छेदेन कश्चिन्मूलेन कश्चित्परिहारेण कश्चिच्छ्रद्धानेनेति।।३६२।।
प्रायश्चित्तस्य नामानि प्राह–
वे दश प्रकार कौन से हैं ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद हैं।।३६२।।
आचारवृत्ति-आचार्य अथवा जिनदेव के समक्ष अपने में उत्पन्न हुए दोषों का चारित्राचारपूर्वक निवेदन करना आलोचना है। रात्रिभोजनत्याग व्रत सहित पाँच महाव्रतों का उच्चारण करना, सम्यक् प्रकार से उनको भाना अथवा दिवस और पाक्षिक सम्बन्धी प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण हैं। आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों को करना तदुभय है। विवेक के दो भेद हैं-गण विवेक और स्थानविवेक। कायोत्सर्ग को व्युत्सर्ग कहते हैं। अनशन आदि तप हैं। पक्ष-मास आदि से दीक्षा की हानि कर देना छेद है। आज से लेकर पुनः व्रतों का आरोपण करना अर्थात् फिर से दीक्षा देना मूल है।
परिहार प्रायश्चित्त के भी दो भेद हैं-गणप्रतिबद्ध और गण अप्रतिबद्ध। जहाँ मुनिगण मूत्रादि विसर्जन करते हैं, इस प्रायश्चित्त वाला पिच्छिका को आगे करके वहाँ पर रहता है, वह यतियों की वंदना करता है किन्तु अन्य मुनि उसको वन्दना नहीं करते हैं। इस प्रकार से जो गण में क्रिया होती है वह गणप्रतिबद्ध-परिहार प्रायश्चित्त है। जिस देश में धर्म नहीं जाना जाता है वहाँ जाकर मौन से तपश्चरण का अनुष्ठान करते हैं उनके अगण-प्रतिबद्ध परिहार प्रायश्चित्त होता है। तत्त्वरुचि में जो परिणाम होता है अथवा क्रोधादि का त्याग रूप जो परिणाम है वह श्रद्धान प्रायश्चित्त है।
यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त दोषों के अनुरूप देना चाहिए। कुछ दोष आलोचनामात्र से निराकृत हो जाते हैं, कुछ दोष प्रतिक्रमण से दूर किये जाते हैं तो कुछेक दोष आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के द्वारा नष्ट किये जाते हैं, कई दोष विवेक प्रायश्चित्त से, कई कायोत्सर्ग से, कई दोष तप से, कई दोष छेद से, कई मूल प्रायश्चित्त से, कई परिहार से एवं कई दोष श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त से दूर किये जाते हैं।
विशेष-आजकल ‘परिहार’ नाम के प्रायश्चित्त को देने की परम्परा नहीं रही।
प्रायश्चित्त के पर्यायवाची नामों को कहते हैं।
पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं।
पुंच्छणमुछिवण छिदणं त्ति पायच्छित्तस्स णामाइं।।३६३।।
पुराणस्य कर्मण: क्षपणं विनाश:, क्षेपणं निर्जरणं, शोधनं, धावनं, पुच्छणं, निराकरणं, उत्क्षेपणं, छेदनं द्वैधीकरणमिति प्रायश्चित्तस्यैतान्यष्टौ नामानि ज्ञातव्यानि भवन्तीति।।३६३।।
विनयस्य स्वरूपमाह–
दंसणणाणे विणओ चरित्ततवओवचारिओ विणओ।
पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ।।३६४।।
दर्शने विनयो ज्ञाने विनयश्चारित्रे विनयस्तपसि विनय: औपचारिको विनय: पंचविध: खलु विनय: पंचमीगतिनायक: प्रधान: भणित: प्रतिपादित इति।।३६४।।
दर्शनविनयं प्रतिपादयन्नाह–
उवगूहणादिआ पुव्वुत्ता तह भत्तिआदिआ य गुणा।
संकादिवज्जणं पि य दंसणविणओ समासेण।।३६५।।
उपगूहनस्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावना: पूर्वोक्ता:। तथा भक्त्यादयो गुणा: पंचपरमेष्ठिभक्त्यानुरागस्तेषामेव पूजा तेषामेव गुणानुवर्णनं, नाशनमवर्णवादस्यासादनापरिहारो भक्त्यादयो गुणा:। शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसानां वर्जनं परिहारो दर्शनविनय: समासेनेति।।३६५।।
गाथार्थ-पुराने कर्मों का क्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछन, उत्क्षेपण और छेदन ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं।।३६३।।
आचारवृत्ति-पुराने कर्मों का क्षपण-क्षय करना अर्थात् विनाश करना, क्षेपण-दूर करना, निर्जरण-निर्जरा करना, शोधन-शोधन करना, धावन-धोना, पुंछन-पोछना अर्थात् निराकरण करना, उत्क्षेपण-फेंकना, छेदन-दो टुकड़े करना, इस प्रकार ये प्रायश्चित्त के आठ नाम जानने चाहिए।
अब विनय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तपोविनय और औपचारिक विनय, यह पाँच प्रकार का विनय पंचम गति को प्राप्त करने वाला नायक कहा गया है।।३६४।।
आचारवृत्ति-दर्शन में विनय, ज्ञान में विनय, चारित्र में विनय, तप में विनय और औपचारिक विनय, यह पाँच प्रकार का विनय निश्चित रूप से पाँचवीं गति अर्थात् मोक्षगति में ले जाने वाला प्रधान कहा गया है, ऐसा समझना। अर्थात् विनय मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है।
दर्शन विनय का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-पूर्व में कहे गये उपगूहन आदि तथा भक्ति आदि गुणों को धारण करना और शंकादि दोषों का वर्जन करना यह संक्षेप से दर्शन विनय है।।३६५।।
आचारवृत्ति-उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये पूर्व में कहे गये हैं। तथा पंच परमेष्ठियों में अनुराग करना, उन्हीं की पूजा करना, उन्हीं के गुणों का वर्णन करना, उनके प्रति लगाये गये अवर्णवाद अर्थात् असत्य आरोप का विनाश करना और उनकी आसादना अर्थात् अवहेलना का परिहार करना-ये भक्ति आदि गुण कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और अन्यदृष्टि-मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा, इनका त्याग करना यह संक्षेप से दर्शन विनय है।
जे अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेिंह सुदणाणे।
ते तह रोचेदि णरो दंसणविणयो हवदि एसो।।३६६।।
येऽर्थपर्याया जीवाजीवादय: सूक्ष्मस्थूलभेदेनोपदिष्टा: स्फुटं जिनवरै: श्रुतज्ञाने द्वादशांगेषु चतुर्दशपूर्वेषु तान् पदार्थास्तर्थंव तेन प्रकारेण याथात्म्येन रोचयति नरो भव्यजीवो येन परिणामेन स एष दर्शनविनयो ज्ञातव्य इति।।३६६।।
ज्ञानविनयं प्रतिपादयन्नाह–
काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे।
वंजणअत्थतदुभयं विणओ णाणम्हि अट्ठविहो।।३६७।।
द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां कालशुद्ध्या पठनं व्याख्यानं परिवर्तनं वा। तथा हस्तपादौ प्रक्षाल्य पर्यंकेऽवस्थितस्वाध्ययनं। अवग्रहविशेषेण पठनं। बहुमानं यत्पठति यस्माच्छृणोति तयो: पूजागुणस्तवनं। तथैवानिह्नवो यत्पठति यस्मात्पठति तयो: कीर्तनं। व्यञ्जनशुद्धं, अर्थशुद्धं, व्यञ्जनार्थोभयशुद्धं च यत्पठनं। अनेन न्यायेनाष्टप्रकारो ज्ञाने विनय इति।।३६७।।
तथा–
णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि।
णाणेण कुणदि णायं णाणविणीदो हवदि एसो।।३६८।।
भावार्थ-शंकादि चार दोषों का त्याग, उपगूहन आदि चार अंग जो विधिरूप हैं उनका पालन करना तथा पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि करना, यही सब दर्शन की विशुद्धि को करने वाला दर्शनविनय है।
गाथार्थ-जिनेन्द्र देव ने आगम में निश्चित रूप से जिन द्रव्य और पर्यायों का उपदेश किया है, उनका जो मनुष्य वैसा ही श्रद्धान करता है वह दर्शन विनय वाला होता है।।३६६।।
आचारवृत्ति-सूक्ष्म और बादर के भेद से जिन जीव-अजीव आदि पदार्थों का जिनेन्द्रदेव ने द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व रूप श्रुतज्ञान में स्पष्टरूप से उपदेश दिया है, जो भव्य जीव उन पदार्थों का उसी प्रकार से जैसे का तैसा विश्वास करता है तथा जिस परिणाम से श्रद्धान करता है वह परिणाम ही दर्शनविनय है।
ज्ञानविनय का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-काल, विनय (ज्ञान विनय), उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय-विनय करना, यह ज्ञानसंबंधी विनय आठ प्रकार का है।।३६७।।
आचारवृत्ति-द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वों को कालशुद्धि से पढ़ना, व्याख्यान करना अथवा परिवर्तन-फेरना कालविनय है।
उन्हीं ग्रन्थों का (या अन्य ग्रन्थों का) हाथ पैर धोकर पर्यंकासन से बैठकर अध्ययन करना विनयशुद्धि नाम का ज्ञानविनय है। नियम विशेष लेकर पढ़ना उपधान है। जो ग्रन्थ पढ़ते हैं और जिनके मुख से सुनते हैं उस पुस्तक और उन गुरु इन दोनों की पूजा करना और उनके गुणों का स्तवन करना बहुमान है।
उसी प्रकार से जिस ग्रन्थ को पढ़ते हैं और जिनसे पढ़ते हैं उनका नाम कीर्तित करना अर्थात् उस ग्रन्थ या उन गुरु के नाम को नहीं छिपाना यह अनिह्नव है। शब्दों को शुद्ध पढ़ना व्यंजनशुद्ध विनय है। अर्थ शुद्ध करना अर्थशुद्ध विनय है और इन दोनों को शुद्ध रखना व्यंजनार्थ उभयशुद्ध विनय है। इस न्याय से ज्ञान का विनय आठ प्रकार से करना चाहिए।
उसी ज्ञान की विशेषता को कहते हैं-
गाथार्थ-ज्ञान शिक्षित करता है, ज्ञान गुणी बनाता है, ज्ञान पर को उपदेश देता है, ज्ञान से न्याय किया जाता है। इस प्रकार यह जो करता है वह ज्ञान से विनयी होता है।।३६८।।
ज्ञानं शिक्षते विद्योपादानं करोति। ज्ञानं गुणयति परिवर्तनं करोति। ज्ञानं परस्मै उपदिशति प्रतिपादयति। ज्ञानेन करोति न्यायमनुष्ठानं। य एवं करोति ज्ञानविनीतो भवत्येष इति। अथ दर्शनाचारदर्शनविनययो: को भेदस्तथा ज्ञानाचारज्ञानविनययो: कश्चन भेद इत्याशंकायामाह–शंकादिपरिणाम–परिहारे यत्न: उपगूहनादिपरिणामानुष्ठाने च यत्नो दर्शनविनय:।
दर्शनाचार: पुन: शंकाद्यभावेन तत्त्वश्रद्धान-विषयो यत्न इति। तथा कालशुद्ध्यादिविषयेऽनुष्ठाने यत्न: कालादिविनय:, तथा द्रव्यक्षेत्रभावादिविषयश्च यत्न:। ज्ञानाचार: पुन: कालशुद्ध्यादिषु सत्सु श्रुतं पठनयत्नं। ज्ञानविनय: श्रुतोपकरणेषु च यत्न: श्रुतविनय:। तथापनयति तपसा तमोऽज्ञानं उपनयति च मोक्षमार्गे आत्मानं तपोविनय: नियमितमति: सोऽपि तपोविनय इति ज्ञातव्य इति।।३६८।।
चारित्रविनयस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
इंदियकसायपणिहाणंपि य गुत्तीओ चेव समिदीओ।
एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।।३६९।।
इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि कषाया: क्रोधादय: तेषामिन्द्रियकषायाणां प्रणिधानं प्रसरहानिरिन्द्रिय–कषायप्रणिधानं इन्द्रियप्रसरनिवारणं कषायप्रसरनिवारणं। अथवेन्द्रियकषायाणां अपरिणामस्तदगतव्यापार-निरोधनं।
अपि च गुप्तयो मनोवचनकायशुभप्रवृत्तय:। समितय ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोच्चारप्रस्रवणप्रतिष्ठापना:। एष चारित्रविनय: समासत: संक्षेपतो भवति ज्ञातव्य:। अत्रापि। समितिगुप्तय आचार:। तद्रक्षणोपाये यत्नश्चारित्रविनय इति।।३६९।।
आचारवृत्ति-ज्ञान विद्या को प्राप्त कराता है। ज्ञान अवगुण को गुणरूप से परिवर्तित करता है। ज्ञान पर को उपदेश का प्रतिपादन करता है। ज्ञान से न्याय-सत्प्रवृत्ति करता है जो ऐसा करता है वह ज्ञानविनीत होता है।
प्रश्न-दर्शनाचार और दर्शनविनय में क्या अन्तर है ? उसी प्रकार ज्ञानाचार और ज्ञानविनय में क्या अन्तर है ?
उत्तर-शंकादि परिणामों के परिहार में प्रयत्न करना और उपगूहन आदि गुणों के अनुष्ठान में प्रयत्न करना दर्शनविनय है। पुनः शंकादि के अभावपूर्वक तत्त्वों के श्रद्धान में यत्न करना दर्शनाचार है। उसी प्रकार कालशुद्धि आदि विषय अनुष्ठान में प्रयत्न करना काल आदि विनय हैं तथा द्रव्य, क्षेत्र और भाव आदि के विषय में प्रयत्न करना यह सब ज्ञानाचार है।
काल शुद्धि आदि के होने पर श्रुत के पढ़ने का प्रयत्न करना ज्ञान विनय है और श्रुत के उपकरणों में अर्थात् ग्रन्थ, उपाध्याय आदि में प्रयत्न करना श्रुतविनय है।
उसी प्रकार से जो तप से अज्ञानतम को दूर करता है और आत्मा को मोक्षमार्ग के समीप करता है वह तपोविनय है और नियमितमति होना है वह भी तप का विनय है ऐसा जानना चाहिए।
चारित्र विनय का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं-
गाथार्थ-इन्द्रिय और कषायों का निग्रह, गुप्तियाँ और समितियाँ संक्षेप से यह चारित्र विनय जानना चाहिए।।३६९।।
आचारवृत्ति-चक्षु आदि इन्द्रियाँ और क्रोधादि कषायों का प्रणिधान-प्रसार की हानि का होना अर्थात् इन्द्रिय के प्रसार का निवारण करना और कषायों के प्रसार का निवारण करना। अथवा इन्द्रिय और कषायों का परिणाम अर्थात् उनमें होने वाले व्यापार का निरोध करना-यह इन्द्रिय कषाय प्रणिधान है। मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्ति गुप्तियाँ हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उच्चारप्रस्रवण प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ हैं। यह सब चारित्र विनय संक्षेप से कहा गया है। यहाँ पर भी समिति और गुप्तियाँ चारित्राचार हैं और उनकी रक्षा के उपाय में जो प्रयत्न है वह चारित्र विनय है।
तपोविनयस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
उत्तरगुणउज्जोगो सम्मं अहियासणा य सद्धा य।
आवासयाणमुचिदाणं अपरिहाणीयणुस्सेहो।।३७०।।
आतापनाद्युत्तरगुणेषूद्योग उत्साह:। सम्यगध्यासनं तत्कृतश्रमस्य निराकुलतया सहनं। तदगतश्रद्धा–तानुत्तरगुणान् कुर्वत: शोभनपरिणाम:। आवश्यकानां समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गाणामुचितानां कर्मक्षयनिमित्तानां परिमितानामपरिहाणिरनुत्सेध: न हानि: कर्तव्या नापि वृद्धि:। षडेव भावाश्चत्वार: पंच वा न कर्तव्या:। तथा सप्ताष्टौ न कर्तव्या:। या यस्यावश्यकस्य वेला तस्यामेवासौ कर्तव्यो नान्यस्यां वेलायां हानिं वृद्धिं प्राप्नुयात्। तथा यस्यावश्यकस्य यावन्त: पठिता: कायोत्सर्गास्तावन्त एव कर्तव्या न तेषां हानिर्वृद्धिर्वा कार्या इति।।३७०।।
भत्ती तवोधियम्हि१ य तवम्हि अहीलणा य सेसाणं।
एसो तवम्हि विणओ जहुत्तचारित्तसाहुस्स।।३७१।।
भक्ति: स्तुतिपरिणाम: सेवा वा। तपसाधिकस्तपोऽधिक: तिंस्मस्तपोधिके। आत्मनोऽधिकतपसि तपसि च
भावार्थ-इन्द्रियों का निरोध और कषायों का निग्रह होना तथा समिति, गुप्ति की रक्षा में प्रयत्न करना यह सब चारित्रविनय है।
अब तपो विनय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-उत्तर गुणों में उत्साह, उनका अच्छी तरह अभ्यास, श्रद्धा, उचित आवश्यकों में हानि या वृद्धि न करना तपोविनय है।।३७०।।
आचारवृत्ति-आतापन आदि उत्तर गुणों में उद्यम-उत्साह रखना, उनके करने में जो श्रम होता है उसको निराकुलता से सहन करना, उन उत्तर गुणों को करने वाले के प्रति श्रद्धा-शुभ भाव रखना। समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं। ये उचित हैं, कर्मक्षय के लिए निमित्त हैं। ये परिमित हैं, इनकी हानि और वृद्धि नहीं करना अर्थात् ये आवश्यक छह ही हैं, इन्हें चार वा पाँच नहीं करना तथा सात या आठ भी नहीं करना। जिस आवश्यक की जो वेला है उसी वेला में वह आवश्यक करना चाहिए, अन्य वेला में नहीं। अन्यथा हानि, वृद्धि हो जावेगी। तथा जिस आवश्यक के जितने कायोत्सर्ग बताये गये हैं उतने ही करना चाहिए उनकी हानि या वृद्धि नहीं करना चाहिए।
भावार्थ-उत्तर गुणों के धारण करने में उत्साह रखना, उनका अभ्यास करना और उनके करने वालों में आदर भाव रखना तथा आवश्यक क्रियाओं को आगम की कथित विधि से उन्हीं-उन्हीं के काल में कायोत्सर्ग की गणना से करना यह सब तपोविनय है। जैसे दैवसिक प्रतिक्रमण में वीरभक्ति में १०८ उच्छ्वास पूर्वक ३६ कायोत्सर्ग, रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ उच्छ्वासपूर्वक १८ कायोत्सर्ग, देववंदना में चैत्य, पंचगुरुभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग इत्यादि कहे गये हैं सो उतने प्रमाण से विधिवत् करना।
गाथार्थ-तपोधिक साधु में और तप में भक्ति रखना तथा और दूसरे मुनियों की अवहेलना नहीं करना, आगम में कथित चारित्र वाले साधु का यह तपोविनय है।।३७१।।
आचारवृत्ति-जो तपश्चर्या में अपने से अधिक हैं वे तपोधिक होते हैं। उनमें तथा बारह प्रकार के तपश्चरण के अनुष्ठान में भक्ति अर्थात् अनुराग रखना। स्तुति के परिणाम को अथवा सेवा को भक्ति कहते हैं
द्वादशविधतपोऽनुष्ठाने च भक्तिरनुराग:। शेषाणामनुत्कृष्टतपसामहेलना अपरिभव:। एष तपसि विनय: सर्वसंयतेषु प्रणामवृत्तिर्यथोक्तचारित्रस्य साधोर्भवति ज्ञातव्य इति।।३७१।।
पंचमौपचारिकविनयं प्रपंचयन्नाह–
काइयवाइयमाणसि ओ त्ति अ तिविहो दु पंचमो विणओ।
सो पुण सव्वो दुविहो पच्चक्खो तह परोक्खो य।।३७२।।
काये भव: कायिक:। वाचि भवो वाचिक:। मनसि भवो मानसिक:। त्रिविधस्त्रिप्रकारस्तु पंचमो विनय:। स्वर्गमोक्षादीन् विशेषेण नयतीति विनय:। कायाश्रयो वागाश्रयो मानसाश्रयश्चेति। स पुन: सर्वोऽपि कायिको वाचिको मानसिकश्च द्विविधो द्विप्रकार: प्रत्यक्षश्चैव परोक्षश्च। गुरो: प्रत्यक्षश्चक्षुरादिविषय:। चक्षुरादिविषयादतिक्रान्त: परोक्ष इति।।३७२।।
कायिकविनयस्वरूपं दर्शयन्नाह–
अब्भुट्ठाणं किदिअम्मं णवणं अंजलीय मुंडाणं।
पच्चूगच्छणमेत्ते पच्छिदस्सणुसाहणं चेव।।३७३।।
अभ्युत्थानमादरेणासनादुत्थानं। क्रियाकर्म सिद्धभक्तिश्रुतभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गादिकरणं। नमनं शिरसा प्रणाम:। अञ्जलिना करकुंडलेनाञ्जलिकरणं वा मुण्डानामृषीणां। अथवा मुण्डा सामान्यवन्दना। पच्चूगच्छणमेत्ते–आगच्छत: प्रतिगमनमभिमुखयानं। प्रस्थितस्य प्रयाणके व्यवस्थितस्यानुसाधनं चानुव्रजनं च साधूनामादर: कार्य:। तथा
सो इनकी भक्ति करना। शेष जो मुनि अनुत्कृष्ट तप वाले हैं अर्थात् अधिक तपश्चरण नही करते हैं उनका तिरस्कार-अपमान नहीं करना। सभी संयतों में प्रणाम की वृत्ति होना-यह सब तपोविनय है जो कि आगमानुकूल चारित्रधारी साधु के होता है।
पाँचवें औपचारिक विनय का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं-
भावार्थ-कायिक, वाचिक और मानसिक इस प्रकार पाँचवाँ औपचारिक विनय तीन भेद रूप है। पुन: वह तीन भेद रूप विनय प्रत्यक्ष तथा परोक्ष की अपेक्षा से दो प्रकार का है।।३७२।।
आचारवृत्ति-काय से होनेवाला कायिक है, वचन से होने वाला वाचिक और मन से होने वाला मानसिक विनय है। जो स्वर्ग मोक्षादि में विशेष रूप से ले जाता है वह विनय है। इस तरह औपचारिक नामक पाँचवाँ विनय तीन प्रकार का है। अर्थात् काय के आश्रित, वचन के आश्रित और मन के आश्रित से यह विनय तीन भेद रूप है।
वह तीनों प्रकार का विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार है अर्थात् प्रत्यक्ष विनय के भी तीन भेद हैं और परोक्ष के भी तीन भेद हैं। जब गुरु प्रत्यक्ष में हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों के गोचर हैं तब उनका विनय प्रत्यक्षविनय है तथा जब गुरु चक्षु आदि से परे दूर हैं तब उनकी जो विनय की जाती है वह परोक्षविनय है।
कायिक विनय का स्वरूप दिखलाते हैं-
गाथार्थ-केशलोंच से मुण्डित हुए अत: जो मुण्डित कहलाते हैं ऐसे मुनियों के लिए उठकर खड़े होना, भक्तिपाठ पूर्वक वन्दना करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, आते हुए के सामने जाना और प्रस्थान करते हुए के पीछे-पीछे चलना।।३७३।।
आचारवृत्ति-मुण्ड अर्थात् ऋषियों को सामने देखकर आदरपूर्वक आसन से उठकर खड़े हो जाना, क्रियाकर्म-सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, गुरुभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि करके वन्दना करना, अंजलि जोड़कर शिर झुकाकर नमस्कार करना नमन है। यहाँ मुण्ड का अर्थ ऋषि है अथवा ‘मुण्ड’ का अर्थ सामान्य वन्दना है अर्थात् भक्तिपाठ के बिना नमस्कार करना मुण्ड-वन्दना है। जो साधु सामने आ रहे हैं उनके सम्मुख जाना,
तेषामेव क्रियाकर्म कर्तव्यम्। तथा तेषामेव कृताञ्जलिपुटेन नमनं कर्तव्यं। तथा साधोरागत: प्रत्यभिमुखगमनं कर्तव्यं तथा तस्यैव प्रस्थितस्यानुव्रजनं कर्तव्यमिति।।३७३।।
तथा–
णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं।
आसणदाणं उवगरणदाण ओगासदाणं च।।३७४।।
देवगुरुभ्य: पुरतो नीचं स्थानं वामपार्श्वे स्थानं। नीचं च गमनं गुरोर्वामपार्श्वे पृष्ठतो वा गन्तव्यं। नीचं च न्यग्भूतं चासनं पीठादिवर्जनं। गुरोरासनस्य पीठादिकस्य दानं निवेदनं। उपकरणस्य पुस्तिकाकुंडिका-पिच्छिकादिकस्य प्रसुकस्यान्विष्य दानं निवेदनं। अथवा नीचं स्थानं करचरणसंकुचितवृत्तिर्गुरो: सधर्मणोऽन्यस्य वा व्याधितस्येति।।३७४।।
तथा–
पडिरूवकायसंफासणदा य पडिरूपकालकिरिया य।
पेसणकरणं संथरकरणं उवकरण पडिलिहणं।।३७५।।
प्रतिरूपं शरीरबलयोग्यं कायस्य शरीरस्य संस्पर्शनं मर्दनमभ्यंगनं वा। प्रतिरूपकालक्रिया चोष्णकाले शीतक्रिया शीतकाले उष्णक्रिया वर्षाकाले तद्योग्यक्रिया। प्रेष्यकरणं–आदेशकरणं। संस्तरकरणं–चट्टिकादिप्रस्तरणं। उपकरणानां पुस्तिकाकुण्डिकादीनां प्रतिलेखनं सम्यग्निरूपणम्।।३७५।।
प्रस्थान करने वाले के पीछे-पीछे चलना। तात्पर्य यह है कि साधुओं का आदर करना चाहिए। उनके प्रति भक्तिपाठ करते हुए कृतिकर्म करना चाहिए तथा उन्हें अंजलि जोड़कर नमस्कार करना चाहिए। साधुओं के आते समय सन्मुख जाकर स्वागत करना चाहिए और उनके प्रस्थान करने पर कुछ दूर पहुँचाने के लिए उनके पीछे-पीछे जाना चाहिए।
गाथार्थ-गुरुओं से नीचे खड़े होना, नीचे अर्थात् पीछे चलना, नीचे बैठना, नीचे स्थान में सोना, गुरु को आसन देना, उपकरण देना और ठहरने के लिए स्थान देना-यह सब कायिक विनय है।।३७४।।
आचारवृत्ति-देव और गुरु के सामने नीचे खड़े होना (विनय से एक तरफ खड़े होना) गुरु के साथ चलते समय उनके बायें चलना या उनके पीछे चलना, गुरु के नीचे आसन रखना अथवा पीठ पाटे आदि आसन को छोड़ देना। गुरु को आसन आदि देना, उनके लिए आसन देकर उन्हें विराजने के लिए निवेदन करना।
उन्हें पुस्तक, कमण्डलु, पिच्छिका आदि उपकरण देना, वसतिका या पर्वत की गुफा आदि प्रासुक स्थान अन्वेषण करके गुरु को उसमें ठहरने के लिए निवेदन करना। अथवा ‘नीच स्थान’ का अर्थ यह है कि गुरु, सहधर्मी मुनि अथवा अन्य कोई व्याधि ग्रसित मुनि के प्रति हाथ-पैर संकुचित करके बैठना। तात्पर्य यही है कि प्रत्येक प्रवृति में विनम्रता रखना।
उसी प्रकार से-
गाथार्थ-गुरु के अनुरूप उनके अंग का मर्दनादि करना, उनके अनुरूप और काल के अनुरूप क्रिया करना, आदेश पालन करना, उनके संस्तर लगाना तथा उपकरणों का प्रतिलेखन करना।।३७५।।
आचारवृत्ति-गुरु के शरीर बल के योग्य शरीर का मर्दन करना अथवा उनके शरीर में तेल मालिश करना, उष्ण काल में शीत क्रिया, शीतकाल में उष्णक्रिया करना और वर्षाकाल में उस ऋतु के योग्य क्रिया करना। अर्थात् गुरु की सेवा आदि ऋतु के अनुकूल और उनकी प्रकृति के अनुकूल करना। उनके आदेश का पालन करना, उनके लिए संस्तर अर्थात् चटाई, घास, पाटा आदि लगाना, उनके पुस्तक, कमण्डलु आदि उपकरणों को ठीक तरह से पिच्छिका से प्रतिलेखन करके उन्हें देना।
इच्चेवमादियो जो उवयारो कीरदे सरीरेण।
एसो काइयविणओ जहारिहं साहुवग्गस्स।।३७६।।
इत्येवमादिरुपकारो गुरोरन्यस्य वा साधुवर्गस्य य: शरीरेण क्रियते यथायोग्यं स एष कायिको विनय: कायाश्रितत्वादिति।।३७६।।
वाचिकविनयस्वरूपं विवृण्वन्नाह–
पूयावयणं हिदभासणं मिदभासणं च मधुरं च।
सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।।३७७।।
पूजावचनं बहुवचनोच्चारणं यूयं भट्टारका इत्येवमादि। हितस्य पथ्यस्य भाषणं इहलोकपरलोकधर्मकारणं वचनं। मितस्य परिमितस्य भाषणं चाल्पाक्षरबह्वर्थं। मधुरं च मनोहरं श्रुतिसुखदं। सूत्रानुवीचि-वचनमागमदृष्ट्या भाषणं यथा पापं न भवति। अनिष्ठुरं दग्धमृतप्रलीनेत्यादिशब्दै रहितं। अकर्कशं वचनं च वर्जयित्वा वाच्यमिति।।३७७।।
उवसंतवयणमगिहत्थवयणकिरियमहीलणं वयणं।
एसो वाइयविणओ जहारिहं होदि कादव्वो।।३७८।।
उपशान्तवचनं क्रोधमानादिरहितं। अगृहस्थवचनं गृहस्थानां मकारवकारादि यद्वचनं तेन रहितं बन्धनत्रासन-ताडनादिवचनरहितं। अकिरियं असिमसिकृष्यादिक्रिया (दि) रहितं अथवा सक्रियमिति पाठ:। सक्रियं
गाथार्थ-साधु वर्ग का इसी प्रकार से और भी जो उपकार यथायोग्य अपने शरीर के द्वारा किया जाता है यह सब कायिक विनय है।।३७६।।
आचारवृत्ति-इसी प्रकार से अन्य और भी जो उपकार गुरु या साधु वर्ग का शरीर के द्वारा योग्यता के अनुसार किया जाता है वह सब कायिक विनय है, क्योंकि वह काय के आश्रित है।
वाचिक विनय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-पूजा के वचन, हित वचन, मित वचन और मधुर वचन, सूत्रों के अनुकूल वचन, अनिष्ठुर और कर्कशता रहित वचन बोलना वाचिक विनय है।।३७७।।
आचारवृत्ति-‘आप भट्टारक!’ इत्यादि प्रकार बहुवचन का उच्चारण करना पूजा वचन हैं। हित-पथ्य वचन बोलना अर्थात् इस लोक और परलोक के लिए धर्म के कारणभूत वचन, हित वचन हैं। मित-परिमित बोलना जिसमें अल्प अक्षर हों किन्तु अर्थ बहुत ही मित वचन हैं। मधुर-मनोहर अर्थात् कानों को सुखदायी वचन मधुर वचन हैं।
आगम के अनुकूल बोलना कि जिस प्रकार से पाप न हो सूत्रानुवीचि वचन हैं। तुम जलो मरो, प्रलय को प्राप्त हो जाओ इत्यादि शब्दों से रहित वचन अनिष्ठुर वचन हैं और कठोरता रहित वचन अकर्कश वचन हैं। अर्थात् उपर्युक्त प्रकार के वचन बोलना ही वाचिक विनय है।
गाथार्थ-कषायरहित वचन, गृहस्थी सम्बन्ध से रहित वचन, क्रिया रहित और अवहेलना रहित वचन बोलना-यह वाचिक विनय है जिसे यथायोग्य करना चाहिए।।३७८।।
आचारवृत्ति-क्रोध, मान आदि से रहित वचन उपशान्त वचन हैं। गृहस्थों के जो मकार-वकार आदि रूप वचन हैं उनसे रहित वचन तथा बन्धन, त्रासन, ताडन आदि से रहित वचन अगृहस्थ वचन हैं। असि, मषि, कृषि आदि क्रियाओं से रहित वचन अक्रियवचन है। अथवा ‘सक्रियं’ ऐसा भी पाठ है जिसका अर्थ यह है कि क्रियायुक्त वचन बोलना किन्तु अन्य की चिन्ता और अन्य के दोष रूप वचन नहीं बोलना चाहिए। जैसा
क्रियायुक्तमन्यच्चिन्तान्यदोषयोरिति न वाच्यं, तदुच्यते यन्निष्पाद्यते। अहीलं – अपरिभववचनं। इत्येवमादिवचनं यत्र स एष वाचिको विनयो यथायोग्यं भवति कर्तव्य इति।।३७८।।
मानसिकविनयस्वरूपमाह–
पापविसोत्तिअपरिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो।
णादव्वो संखेवेणेसो माणसिओ विणओ।।३७९।।
पापविश्रुतिपरिणामवर्जनं पापं िंहसादिकं विश्रुति: सम्यग्विराधना तयो: परिणामस्तस्य वर्जनं परिहार:। प्रिये धर्मोपकारे हिते च सम्यग्ज्ञानादिके च परिणामो ज्ञातव्य:। संक्षेपेण स एष मानसिकश्चित्तोद्भवो विनय इति ।।३७९।।
इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओवि जं गुरुणो।
विरहम्मिवि वट्टिज्जदि आणाणिद्देसचरियाए।।३८०।।
इत्येष प्रत्यक्षविनय: कायिकादि: गुर्वादिषु सत्सु वर्तते यत: पारोक्षिकोऽपि विनयो यद्गुरोर्विरहेऽपि गुर्वादिषु परोक्षीभूतेषु यद्वर्तते। आज्ञानिर्देशेन चर्याया वार्हद्भट्टारकोपदिष्टेषु जीवादिपदार्थेषु श्रद्धानं कर्तव्यं तथा तैर्या चर्योद्दिष्टा व्रतसमित्यादिका तथा च वर्तनं परोक्षो विनय:। तेषां प्रत्यक्षतो य: क्रियते स प्रत्यक्षमिति ।।३८०।।
पुनरपि त्रिविधं विनयमन्येन प्रकारेणाह–
अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहा समासदो भणिओ।
सत्त चउव्विह दुविहो बोधब्वो आणुपुव्वीए।।३८१।।
करना वैसा ही बोलना चाहिए। किसी का तिरस्कार करने वाले वचन नहीं बोलना अहीलन वचन हैं। और भी ऐसे ही वचन जहाँ होते हैं वह सब वाचिक विनय है जो कि यथायोग्य करना चाहिए।
मानसिक विनय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-पाप विश्रुत के परिणाम का त्याग करना और प्रिय तथा हित में परिणाम करना संक्षेप से यह मानसिक विनय है।।३७९।।
आचारवृत्ति-हिंसादि को पाप कहते हैं और सम्यक्त्व की विराधना को विश्रुति कहते हैं। इन पाप और विराधना विषयक परिणामों का त्याग करना। धर्म और उपकार को प्रिय कहते हैं तथा सम्यग्ज्ञानादि के लिए हित संज्ञा है। इन प्रिय और हित में परिणाम को लगाना। संक्षेप से यह चित्त से उत्पन्न होनेवाला मानसिक विनय कहलाता है।
गाथार्थ-इस प्रकार यह प्रत्यक्ष विनय है। तथा जो गुरु के न होने पर भी उनकी आज्ञा, निर्देश और चर्या में रहता है उसके परोक्ष सम्बन्धी विनय होता है।।३८०।।
आचारवृत्ति-यह सब ऊपर कहा गया कायिक आदि विनय प्रत्यक्ष विनय हैं, क्योंकि यह गुरु के रहते हुए उनके पास में किया जाता है। और गुरुओं के विरह में उनके परोक्ष रहने पर अर्थात् अपने से दूर हैं उस समय भी जो उनका विनय किया जाना हैं वह परोक्ष विनय है। वह उनकी आज्ञा और निर्देश के अनुसार चर्या करने से होता है।
अथवा अर्हन्त भट्टारक द्वारा उपदिष्ट जीवादि पदार्थों में श्रद्धान करना तथा उनके द्वारा जो भी व्रत, समिति आदि चर्याएँ कही गई हैं, उन रूप प्रवृत्ति करना यह सब परोक्ष विनय है। अर्थात् उनके प्रत्यक्ष में किया गया विनय प्रत्यक्ष विनय तथा परोक्ष में किया गया नमस्कार, आज्ञा पालन आदि विनय परोक्ष विनय है।
पुनः इन्हीं तीन प्रकार की विनय को अन्य रूप से कहते हैं-
गाथार्थ-यह औपचारिक संक्षेप से कायिक, वाचिक और मानसिक ऐसा तीन प्रकार कहा गया है। वह क्रम से सात भेद, चार भेद और दो भेदरूप जानना चाहिए।।३८१।।
अथौपचारिको विनय उपकारे धर्मादिकपरचित्तानुग्रहे भव औपचारिक: खलु स्फुटं त्रिविधस्त्रिप्रकार: कायिकवाचिकमानसिकभेदेन समासत: संक्षेपतो भणित: कथित:। सप्तविधश्चतुर्विधो द्विविधो-बोद्धव्य:। आनुपूर्व्यानुक्रमेण कायिक: सप्तप्रकारो वाचिकश्चतुर्विध: मानसिको द्विविध इति।।३८१।।
कायिकविनयं सप्तप्रकारमाह–
अब्भुट्ठाणं सण्णदि आसणदाणं अणुप्पदाणं च।
किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।।३८२।।
िअभ्युत्थानम् आदरेणोत्थानं। सन्नति: शिरसा प्रणाम:। आसनदानं पीठाद्युपनयनं। अनुप्रदानं च पुस्तकपिच्छिका-द्युपकरणदानं। क्रियाकर्म श्रुतभक्त्यादिपूर्वककायोत्सर्ग: प्रतिरूपं यथायोग्यं अथवा शरीरप्रतिरूपं कालप्रतिरूपं भावप्रतिरूपं च क्रियाकर्म शीतोष्णमूत्रपुरीषाद्यपनयनं।
आसनपरित्यागो गुरो: पुरत उच्चस्थाने न स्थातव्यं। अनुव्रजनं प्रस्थितेन सह िंकचिद्गमनमिति। अभ्युत्थानमेक: सन्नतिर्द्वितीय आसनदानं तृतीय: अनुप्रदानं चतुर्थ: प्रतिरूपक्रियाकर्म पंचम: आसनत्याग: षष्ठोऽनुव्रजनं सप्तम: प्रकार: कायिकविनयस्येति।।३८२।।
आचारवृत्ति-जो उपचार अर्थात् धर्मादि के द्वारा पर के मन पर अनुग्रह करने वाला होता है वह औपचारिक विनय कहलाता है। यह औपचारिक विनय प्रकट रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक भेदों की अपेक्षा संक्षेप में तीन प्रकार का कहा गया है। उसमें क्रम से सात, चार और दो भेद माने गये हैं अर्थात् कायिक विनय सात प्रकार का है, वाचिक विनय चार प्रकार का है और मानसिक विनय दो प्रकार का है।
कायिक विनय के सात प्रकार को कहते हैं-
गाथार्थ-गुरुओं को आते हुए देखकर उठकर खड़े होना, उन्हें नमस्कार करना, आसन देना, उपकरणादि देना, भक्ति पाठ आदि पढ़कर वंदना करना या उनके अनुकूल क्रिया करना, आसन को छोड़ देना और जाते समय उनके पीछे जाना ये सात भेदरूप कायिकविनय है।।३८२।।
आचारवृत्ति-अभ्युत्थान-गुरुओं को सामने आते हुए देखकर आदर से उठकर खड़े हो जाना। संनति-शिर से प्रणाम करना। आसनदान-पीठ, काष्ठासन, पाटा आदि देना। अनुप्रदान-पुस्तक, पिच्छिका आदि उपकरण देना। प्रतिरूप क्रियाकर्म यथायोग्य-श्रुतभक्ति आदि पूर्वक कायोत्सर्ग करके वन्दना करना अथवा गुरुओं के शरीर के प्रकृति के अनुरूप, काल के अनुरूप और भाव के अनुरूप सेवा- शुश्रूषा आदि क्रियाएं करना; जैसे कि शीतकाल में उष्णकारी और उष्णकाल में शीतकारी आदि परिचर्या करना, अस्वस्थ अवस्था में उनके मल-मूत्रादि को दूर करना आदि।
आसनत्याग-गुरु के सामने उच्चस्थान पर नहीं बैठना। अनुव्रजन-उनके प्रस्थान करने पर साथ-साथ कुछ दूर तक जाना। इस प्रकार से
(१) अभ्युत्थान, (२ ) सन्नति, (३) आसनदान, (४) अनुप्रदान; (५) प्रतिरूपक्रियाकर्म, (६) आसनत्याग और (७) अनुव्रजन-ये सात प्रकार कायिक विनय के होते हैं।
वाचिकमानसिकविनयभेदानाह–
हिदमिदपरिमिदभासा अणवीचीभाषणं च बोधव्वं।
अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।।३८३।।
िहितभाषणं मितभाषणं परिमितभाषणमनुवीचिभाषणं च। हिंत धर्मसंयुक्तं। मितमल्पाक्षरं वह्वर्थं। परिमितं कारणसहितं। अनुवीचीभाषणमागमाविरुद्धवचनं चेति चतुर्विधो वचनविनयो ज्ञातव्य:। तथाऽकुशलमनसो रोध: पापादानकारकचित्तनिरोध:। कुशलमनसो धर्मप्रवृत्तचित्तस्य प्रवर्तकश्चेति द्विविधो मनोविनय इति ।।३८३।।
स एवं द्विविधो विनय: साधुवर्गेण कस्य कर्तव्य इत्याशंकायामाह–
रादिणिए उणरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवग्गे।
विणओ जहारिओ सो कायव्वो अप्पमत्तेण।।३८४।।
रादिणिए–रात्र्यधिके दीक्षागुरौ श्रुतगुरौ तपोधिके च। उणरादिणिएसु य–ऊनरात्रिकेषु च तपसा कनिष्ठेषु गुणकनिष्ठेषु वयसा कनिष्ठेषु च साधुषु। अज्जासु–आर्यिकासु। गिहिवग्गे–गृहिवर्गे श्रावकलोके च। विनयो यथार्हो यथायोग्य: कर्तव्य:। अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन। साधूनां यो योग्य: आर्यिकाणां यो योग्य:, श्रावकाणां यो योग्य:
वाचिक और मानसिक विनय के भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-हितवचन, मितवचन, परिमितवचन और सूत्रानुसार वचन, इन्हें वाचिक विनय जानना चाहिए। अशुभ मन को रोकना और शुभ मन की प्रवृत्ति करना ये दो मानसिक विनय हैं।।३८३।।
आचारवृत्ति-हित भाषण-धर्मसंयुक्त वचन बोलना, मित भाषण-जिसमें अक्षर अल्प हों अर्थ बहुत हो ऐसे वचन बोलना, परिमित भाषण-कारण सहित वचन बोलना अर्थात् बिना प्रयोजन के नहीं बोलना, अनुवीचिभाषण-आगम से अविरुद्ध वचन बोलना, इस प्रकार से वचन विनय चार प्रकार का है। पाप आस्रव करने वाले अशुभ मन का रोकना अर्थात् मन में अशुभ विचार नहीं लाना तथा धर्म में चित्त को लगाना ये दो प्रकार का मनोविनय है।
यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दोनों प्रकार का विनय साधुओं को किनके प्रति करना चाहिए ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-एक रात्रि भी अधिक गुरु में, दीक्षा में एक रात्रि न्यून भी मुनि में, आर्यिकाओं में और गृहस्थों में अप्रमादी मुनि को यथायोग्य यह विनय करना चाहिए।।३८४।।
आचारवृत्ति-जो दीक्षा में एक रात्रि भी बड़े हैं वे रात्र्यधिक गुरु हैं। यहाँ रात्र्यधिक शब्द से दीक्षा गुरु, श्रुतगुरु और तप में अपने से बड़े गुरुओं को लिया है। जो दीक्षा से एक रात्रि भी छोटे हैं वे ऊनरात्रिक कहलाते हैं। यहाँ पर ऊनरात्रिक से जो तप में कनिष्ठ-लघु हैं, गुणों में लघु हैं और आयु में लघु हैं उन साधुओं को लिया है।
इस प्रकार से दीक्षा आदि बड़े गुरुओं में, अपने से छोटे मुनियों में, आर्यिकाओं में और श्रावक वर्गों में प्रमादरहित मुनि को यथायोग्य विनय करना चाहिए। अर्थात् साधुओं के जो योग्य हो, आर्यिकाओं के जो योग्य हो, श्रावकों के जो योग्य हो और अन्यों के भी जो योग्य हो वैसा ही करना चाहिए।
अन्येषामपि यो योग्य: स तथा कर्तव्य:, केन ? साधुवर्गेणाप्रमत्तेनात्मतपोऽनुरूपेण प्रासुकद्रव्यादिभि: स्वशक्त्या चेति।
किमर्थं विनय: क्रियते इत्याशंकायामाह–
विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा।
विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।।३८५।।
विनयेन विप्रहीणस्य विनयरहितस्य भवति शिक्षा श्रुताध्ययनं निरर्थिका विफला सर्वा सकला विनय: पुन: शिक्षा या विद्याध्ययनस्य फलं, विनयफलं सर्वकल्याणान्यभ्युदयनि:श्रेयससुखानि। अथवा स्वर्गावतरणजन्मनिष्क्रमणकेवल-ज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणादीनि कल्याणादीनीति।।३८५।।
विनयस्तवमाह–
विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणाराहिज्जदि आइरिओ सव्वसंघो य।।३८६।।
विनयो मोक्षस्य द्वारं प्रवेशक:। विनयात्संयम:। विनयात्तप:। विनयाच्च ज्ञानं। भवतीति सम्बन्ध:। विनयेन चाराध्यते आचार्य: सर्वसंघश्चापि।।३८६।।
आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्जंजा।
अज्जवमद्दवलाहवभत्तीपल्हादकरणं च।।३८७।।
किसको ? प्रमादरहित हुए साधु को अपने तप अर्थात् अपने व्रतों के, अपने पद के अनुरूप ही प्रासुक द्रव्यादि के द्वारा अपनी शक्ति से उन सबका विनय करना चाहिए।
विशेष-यहां पर जो मुनियों द्वारा आर्यिकाओं की और गृहस्थों की विनय का उपदेश है सो नमस्कार नहीं समझना, प्रत्युत यथायोग्य शब्द से ऐसा समझना कि मुनिगण आर्यिकाओं का भी यथायोग्य आदर करें, श्रावकों का भी यथायोग्य आदर करें, क्योंकि ‘यथायोग्य’ पद उनके अनुरूप अर्थात् पदस्थ के अनुकूल विनय का वाचक है। उससे आदर, सम्मान और बहुमान ही अर्थ सुघटित है।
विनय किसलिए किया जाता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-
गाथार्थ-विनय से हीन हुए मनुष्य की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का फल सर्व कल्याण है।।३८५।।
आचारवृत्ति-विनय से रहित साधु का सम्पूर्ण श्रुत का अध्ययन निरर्थक है। विद्या अध्ययन का फल विनय है और अभ्युदय तथा नि:श्रेयसरूप सर्वकल्याण को प्राप्त कर लेना विनय का फल है। अथवा स्वर्गावतरण, जन्म, निष्क्रमण; केवलज्ञानोत्पत्ति और परिनिर्वाण ये पांचकल्याणक आदि कल्याणों की प्राप्ति का होना भी विनय का फल है।
अब विनय की स्तुति करते हैं-
गाथार्थ-विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है। विनय के द्वारा आचार्य और सर्वसंघ आराधित होता है।।३८६।।
आचारवृत्ति-विनय मोक्ष का द्वार है अर्थात् मोक्ष में प्रवेश कराने वाला है। विनय से संयम होता है, विनय से तप होता है और विनय से ज्ञान होता है। विनय से आचार्य और सर्वसंघ आराधित किये जाते हैं अर्थात् अपने ऊपर अनुग्रह करने वाले हो जाते हैं।
गाथार्थ-विनय से आचार, जीत, कल्प आदि गुणों का उद्योतन होता है तथा आत्मशुद्धि, निर्द्वंद्वता, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और आह्लादगुण प्रकट होते हैं।।३८७।।
आचारस्य गुणा जीदप्रायश्चित्तस्य कल्पप्रायश्चित्तस्य गुणास्तद्गतानुष्ठानानि तेषां दीपनं प्रकटनं। आत्म-शुद्धिश्चात्मकर्मनिर्मुक्ति:। निर्द्वन्द्व: कलहाद्यभाव:। ऋजोर्भाव आर्जवं स्वस्थता, मृदोर्भावो मार्दवं मायामानयोर्निरास:।
लघोर्भावो लाघवं नि:संगता लोभनिरास:। भक्तिर्गुरुसेवा। प्रहलादकरणं च सर्वेषां सुखोत्पादनं। यो विनयं करोति तेनाचारजीदकल्पविषया ये गुणास्ते दीपिता उद्योतिता भवंति। आर्जव-मार्दवलाघवभक्तिप्रहलादकरणानि च भवंति विनयकर्तुरिति।।३८७।।
कित्ती मित्ती माणस्स भंजण गुरुजणे य बहुमाणं।
तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।।३८८।।
कीर्ति: सर्वव्यापी प्रताप: ख्यातिश्च। मैत्री सर्वै: सह मित्रभाव:। मानस्य गर्वस्य भंजनमामर्दनं। गुरुजने च बहुमानं पूजाविधानं। तीर्थंकराणामाज्ञा पालिता भवति। गुणानुमोदश्च कृतो भवति। एते विनयगुणा भवन्तीति। विनयस्य कर्ता कीा\त लभते। तथा मैत्री लभते। तथात्मनो मानं निरस्यति। गुरुजनेभ्यो बहुमानं लभते। तीर्थकराणामाज्ञां च पालयति। गुणानुरागं च करोतीति।।३८८।।
वैयावृत्यस्वरूपं निरूपयन्नाह–
आइरियादिसु पंचसु सबालवुड्ढाउलेसु गच्छेसु।
वेज्जावच्चं वुत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए।।३८९।।
आचारवृत्ति-विनय से आचार के गुण, जीदप्रायश्चित्त और कल्पप्रायश्चित्त के गुण तथा उनमें कहे हुए का अनुष्ठान, इन गुणों का दीपन अर्थात् प्रकटन होता है। विनय से आत्मशुद्धि अर्थात् आत्मा की कर्मों से निर्मुक्ति होती है, निर्द्वन्द्व-कलह आदि का अभाव हो जाता है। आर्जव-स्वस्थता आती है, मृदु का भाव मार्दव अर्थात् माया और मान का निरसन हो जाता है, लघु का भाव लाघव-निःसंगपना होता है अर्थात् लोभ का अभाव हो जाने से भारीपन का अभाव हो जाता है।
भक्ति-गुरु के प्रति भक्ति होने से गुरु सेवा भी होती है और विनय से प्रहलादकरण-सभी में सुख का उत्पन्न करना आ जाता है। तात्पर्य यह है कि जो विनय करता है उसके उस विनय के द्वारा आचार जीद और कल्पविषयक जो गुण हैं वे उद्योतित होते हैं। आजर्व, मार्दव, लाघव, भक्ति और आह्लादकरण ये गुण विनय करनेवाले में प्रकट हो जाते हैं।
गाथार्थ-कीर्ति, मैत्री, मान का भंजन, गुरुजनों में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन ये सब विनय के गुण हैं।।३८८।।
आचारवृत्ति-विनय से सर्वव्यापी प्रताप और ख्याति रूप कीर्ति होती है। सभी के साथ मित्रता होती है, गर्व का मर्दन होता है, गुरुजनों में बहुमान अर्थात् पूजा या आदर मिलता है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और गुणों की अनुमोदना की जाती है। ये सब विनय के गुण हैं। तात्पर्य यह है कि विनय करने वाला मुनि कीर्ति को प्राप्त होता है, सबसे मैत्री भाव को प्राप्त हो जाता है, अपने मान का अभाव करता है, गुरुजनों से बहुमान पाता है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करता है और गुणों में अनुराग करता है।
अब वैयावृत्य का स्वरूप निरूपित करते हैं-
गाथार्थ-आचार्य आदि पाँचों में बाल-वृद्ध से सहित गच्छ में वैयावृत्य को कहा गया है सो सर्वशक्ति से करनी चाहिए।।३८९।।
आचार्योपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरेषु पंचसु। बाला नवकप्रव्रजिता:। वृद्धा वयोवृद्धास्तपोवृद्धा गुणवृद्धास्तैराकुलो गच्छस्तथैव बालवृद्धाकुले गच्छे सप्तपुरुषसन्ताने वैयावृत्यमुक्तं यथोक्तं कर्तव्यं सर्वशक्त्या सर्वसामर्थ्येन उपकरणाहार-भैषजपुस्तकादिभिरुपग्रह: कर्तव्य इति।।३८९।।
पुनरपि विशेषार्थं श्लोकेनाह–
गुणाधिए उवज्भâाए तवस्सि सिस्से य दुव्वले।
साहुगण कुले संघे समणुण्णे य चापदि।।३९०।।
गुणैरधिको गुणाधिकस्तस्मिन् गुणाधिके। उपाध्याये श्रुतगुरौ। तपस्विनि कायक्लेशपरे। शिक्षके शास्त्रशिक्षणतत्परे दु:शीले वा दुर्बले व्याध्याक्रान्ते वा। साधुगणे ऋषियतिमुन्यनगारेषु। कुले १शुक्रकुले स्त्रीपुरुषसन्ताने। संघे चातुर्वर्ण्ये श्रवणसंघे। समनोज्ञे सुखासीने सर्वोपद्रवरहिते। आपदि चोपद्रवे संजाते वैयावृत्यं कर्तव्यमिति।।३९०।।
वैâ: कृत्वा वैयावृत्यं कर्तव्यमित्याह–
सेज्जोग्गासणिसेज्जो तहोवहिपडिलेहणा २हि उवग्गहिदे।
आहारोसहवायण वििंकचणं वंदणादीिंह३।।३९१।।
आचारवृत्ति-आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक और गणधर ये पाँच हैं। नवदीक्षित को बाल कहते हैं। वृद्ध से वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और गुणों से वृद्ध लिये गये हैं। सात पुरुष की परम्परा को अर्थात् सात पीढ़ी को गच्छ कहते हैं। इन आचार्य आदि पांच प्रकार के साधुओं की तथा बाल, वृद्ध से व्याप्त ऐसे संघ की आगम में कथित प्रकार से सर्वशक्ति से वैयावृत्य करना चाहिए। अर्थात् अपनी सर्वसामर्थ्य से उपकरण, आहार, औषधि, पुस्तक आदि से इनका उपकार करना चाहिए।
भावार्थ-तप और त्याग में आचार्यों ने शक्ति के अनुसार करना कहा है किन्तु वैयावृत्ति में सर्वशक्ति से करने का विधान है। इससे वैयावृत्ति के विशेष महत्त्व को सूचित किया गया है।
पुनरपि विशेष अर्थ के लिए आगे के श्लोक (गाथा) द्वारा कहते हैं-
गाथार्थ-गुणों से अधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगण, कुल, संघ और मनोज्ञतासहित मुनियों पर आपत्ति के प्रसंग में वैयावृत्ति करना चाहिए।।३९०।।
आचारवृत्ति-गुणाधिक-अपनी अपेक्षा जो गुणों में बड़े हैं, उपाध्याय-श्रुतगुरु, तपस्वी-कायक्लेश में तत्पर, शिक्षक-शास्त्र के शिक्षण में तत्पर, दुर्बल-दुःशील अर्थात् दुष्टपरिणाम वाले अथवा व्याधि से पीड़ित, साधुगण-ऋषि, यति, मुनि और अनगार, कुल-गुरुकुल-परम्परा, संघ-चतुर्विध श्रमण संघ, समनोज्ञ-सुख से आसीन या सर्वोपद्रव से रहित ऐसे साधुओं पर आपत्ति या उपद्रव के आने पर वैयावृत्ति करना चाहिए।
विशेष-यहाँ पर कुल का अर्थ गुरुकुल-परम्परा से है। तीन पीढ़ी की मुनिपरम्परा को कुल तथा सात पीढ़ी की मुनिपरम्परा को गच्छ कहते हैं। ‘मूलाचार-प्रदीप’ (अध्याय ७ गाथा ६८-६९) के अनुसार, जिस मुनि-संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणाधीश ये पाँच हों, उस संघ की कुल संज्ञा है।
क्या करके वैयावृत्ति करना चाहिए ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-वसति, स्थान, आसन तथा उपकरण इनका प्रतिलेखन द्वारा उपकार करना; आहार, औषधि आदि से; मलादि दूर करने से और उनकी वन्दना आदि के द्वारा वैयावृत्ति करना चाहिए।।३९१।।
शय्यावकाशो वसतिकावकाशदानं निषद्याऽऽसनादिकं। उपधि: कुण्डिकादि। प्रतिलेखनं पिच्छिकादि:। इत्येतैरुपग्रह उपकार:। अथवैतैरुपगृहीते स्वीकृते। तथाहारौषधवाचनाव्याख्यानवििंकचनमूत्रपुरीषादिव्युत्सर्गवन्दनादिभि:। आहारेण भिक्षाचर्यया। औषधेन शुंठिपिप्पल्यादिकेन। शास्त्रव्याख्यानेन। च्युतमलनिर्हरणेन। वन्दनया च। शय्यावकाशेन निषद्ययोपधिना प्रतिलेखनेन च पूर्वोक्तानामुपकार: कर्तव्य:। एतैस्ते प्रतिगृहीता आत्मीकृता भवन्तीति।।३९१।।
केषु स्थानेषूपकार: क्रियतेऽत आह–
अद्धाणतेणसावदरायणदीरोधणासिवे ओमे।
वेज्जावच्चं वुत्तं संगहसारक्खणोवेदं।।३९२।।
अध्वनि श्रान्तस्य। स्तेनैश्चौरैरुपद्रुतस्य। श्वापदै: िंसहव्याघ्रादिभि: परिभूतस्य। राजभि: खंचितस्य। नदीरोधेन पीडितस्य। अशिवेन मारिरोगादिव्यथितस्य। ओमे–दुर्भिक्षपीडितस्य। वैयावृत्यमुक्तं संग्रहसारक्षणोपेतं। तेषामागतानां संग्रह: कर्तव्य:। संगृहीतस्य रक्षणं कर्तव्यं। अथचैवं सम्बन्ध; कर्तव्य:। एतेषु प्रदेशेषु संग्रहोपेतं सारक्षणोपेतं च वैयावृत्यं कर्तव्यमिति। अथवा रोधशब्दा: प्रत्येक मभिसम्बध्यते। पथिरोधयचौररोध: श्वापदरोध; राजरोधो नदीरोध एतेषु रोधेषु तथा अशिवे दुर्भिक्षे च वैशवृत्यं कर्तव्यमिति।।३९४।।
स्वाध्यायस्वरूपमाह–
परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्भâाओ।।३९३।।
आचारवृत्ति-शय्यावकाश-मुनियों को वसतिका का दान देना, निषद्या-मुनियों को आसन आदि देना, उपधि-कमण्डलु आदि उपकरण देना, प्रतिलेखन-पिच्छिका आदि देना,इन कार्यों से मुनियों का उपकार करना चाहिए, अथवा इनके द्वारा उपकार करके उन्हें स्वीकार करना।
आहारचर्या द्वारा, सोंठ, पिप्पल आदि औषधि द्वारा, शास्त्र-व्याख्यान द्वारा, कदाचित् मल-मूत्र आदि च्युत होने पर उसे दूर करने द्वारा और वन्दना आदि के द्वारा वैयावृत्ति करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि वसतिका-दान, आसनदान, उपकरण-दान, प्रतिलेखन आदि के द्वारा पूर्वोक्त साधुओं का उपकार करना चाहिए। इन उपकारों से वे अपने किये जाते हैं।
किन स्थानों में उपकार करना ? सो ही बताते हैं-
गाथार्थ-मार्ग, चोर, हिंस्रजन्तु, राजा, नदी का रोध और मारी के प्रसंग में, दुर्भिक्ष में, सारक्षण से सहित वैयावृत्ति करना चाहिए।।३९२।।
आचारवृत्ति-मार्ग में चलने से जो थक गये हैं, जिन पर चोरों ने उपद्रव किया है, सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं से जिनको कष्ट हुआ है, राजा ने जिनको पीड़ा दी है, नदी की रुकावट से जिनको बाधा हुई है, अशिव अर्थात् मारी-रोग आदि से जो पीड़ित हैं, दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं ऐसे साधु यदि अपने संघ में आये हैं तो उनका संग्रह करना चाहिए। जिनका संग्रह किया है उनकी रक्षा करनी चाहिए।
इसका ऐसा सम्बन्ध करना कि इन स्थानों में संग्रह से सहित और उनकी रक्षा से सहित वैयावृत्य करना चाहिए। अथवा रोध शब्द को प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए। जैसे मार्ग में जिन्हें रोका गया हो, चोरों ने रोक लिया है, हिंस्र जन्तुओं ने रोक लिया हो, राजा ने रुकावट डाली हो, नदी से रुकावट हुई हो ऐसे रोध के प्रसंग में तथा दु:ख में, दुर्भिक्ष में वैयावृत्ति करना चाहिए।
स्वाध्याय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-परिवर्तन, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा स्तुति-मंगल संयुक्त पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए।।३९३।।
परिवर्तनं पठितस्य ग्रन्थस्यानुवेदनं। वाचना शास्त्रस्य व्याख्यानं। पृच्छना शास्त्रश्रवणं। अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षाऽ-नित्यत्वादि। धर्मकथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितानि। स्तुतिर्मुनिदेववन्दना मंगल इत्येवं संयुक्त: पंचप्रकारो भवति स्वाध्याय:। परिवर्तनमेको वाचना द्वितीय: पृच्छना तृतीयोऽनुप्रेक्षा चतुर्थो धर्मकथास्तुतिमंगलानि समुदितानि पंचम: प्रकार:। एवं पंचविध: स्वाध्याय: सम्यग्युक्तोऽनुष्ठेय इति ।।३९३।।
ध्यानस्वरूपं विवृण्वन्नाह–
अट्टं च रुद्दसहियं दोण्णिवि भâाणाणि अप्पसत्थाणि।
धम्मं सुक्कं च दुवे पसत्थभâाणाणि णेयाणि।।३९४।।
आर्तध्यानं रौद्रध्यानेन सहितं। एते द्वे ध्याने अप्रशस्ते नरकतिर्यग्गतिप्रापके। धर्मध्यानं शुक्लध्यानं चैते द्वे प्रशस्ते देवगतिमुक्तिगतिप्रापके। इत्येवं विधानि ज्ञातव्यानि। एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमिति।।३९४।।
आर्तध्यानस्य भेदानाह–
अमणुण्णजोगइट्ठविओगपरीसहणिदाणकरणेसु।
अट्टं कसायसहियं भâाणं भणिदं समासेण।।३९५।।
अमनोज्ञेन ज्वरशूलशत्रुरोगादिना योग: सम्पर्क:। इष्टस्य पुत्रदुहितृमातृपितृबन्धुशिष्यादिकस्य वियोगोऽभाव:। परीषहा: क्षुत्तृट्छीतोष्णादय:। निदानकरणं इहलोकपरलोकभोगविषयोऽभिलाष:। इत्येतेषु प्रदेशेष्वार्तमन:संक्लेश: कषायसहितं ध्यानं भणितं समासेन संक्षेपत:। कदा ममानेनामनोज्ञेन वियोगो भविष्यतीत्येवं चिन्तनमार्तध्यानं प्रथमं। इष्टै: सह सर्वदा
आचारवृत्ति-पढ़े हुए ग्रन्थ को पुन: पुन: पढ़ना या रटना परिवर्तन है। शास्त्र का व्याख्यान करना वाचना है। शास्त्र का श्रवण करना पृच्छना है। अनित्यत्व आदि बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है। त्रेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र पढ़ना धर्मकथा है। स्तुति-मुनि
वन्दना, देव-वन्दना और मंगल इनसे संयुक्त स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है कि (१) परिवर्तन, (२) वाचना,
(३) पृच्छना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) समूहरूप धर्मकथा स्तुतिमंगल-इन पाँच प्रकार के स्वाध्याय का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान करना चाहिए।
ध्यान का स्वरूप वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-आर्त और रौद्र सहित दो ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान हैं ऐसा जानना चाहिए।।३९४।।
आचारवृत्ति-आर्तध्यान और रौद्र ध्यान ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं। ये नरकगति और तिर्यंचगति को प्राप्त कराने वाले हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रशस्त हैं। ये देवगति और मुक्ति को प्राप्त करानेवाले हैं, ऐसा समझना। एकाग्रचिन्तानिरोध-एक विषय पर चिन्तन का रोक लेना यह ध्यान का लक्षण है।
आर्तध्यान के भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-अनिष्ट का योग, इष्ट का वियोग; परीषह और निदानकरण इनमें कषाय सहित जो ध्यान है वह संक्षेप से आर्तध्यान कहा गया है।।३९५।।
आचारवृत्ति-अमनोज्ञयोग-ज्वर, शूल, शत्रु, रोग आदि का सम्पर्क होना, इष्ट-वियोग-पुत्र, पुत्री, माता, पिता, बंधु, शिष्य आदि का वियोग होना, परिषह-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि बाधाओं का होना; निदान-इस लोक या परलोक में भोग-विषयों की अभिलाषा करना। इन स्थानों में जो आर्त अर्थात् मन का संक्लेश होता है वह कषाय सहित ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। इनका वर्णन यहाँ संक्षेप से किया
यदि मम संयोगो भवति वियोगो न कदाचिदपि स्याद्यद्येवं चिन्तनमार्तध्यानं द्वितीयं। क्षुत्तृटछीतोष्णादिभिरहं व्यथित: कदैतेषां ममाभाव: स्यात्। कथं मयौदनादयो लभ्या येन मम क्षुधादयो न स्यु:। कदा मम वेलाया: प्राप्ति: स्याद्येनाहं भुंजे पिबामि वा। हाकारं पूत्कारं जलसेकं च कुर्वतोऽपि न तेन मम प्रतीकार इति चिन्तनमार्तध्यानं तृतीयमिति। इहलोके यदि मम पुत्रा: स्यु: परलोके यद्यहं देवो भवामि स्त्रीवस्त्रादिकं मम स्यादित्येवं चिन्तनं चतुर्थमार्तध्यानमिति।।३९५।।
रौद्रध्यानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह–
तेणिक्कमोससारक्खणेसु तध चेव छव्विहारंभे।
रुद्दं कसायसहिदं भâाणं भणियं समासेण।।३९६।।
स्तैन्यं परद्रव्यापहरणाभिप्राय:। मृषाऽनृते तत्परता। सारक्षणं यदि मदीयं द्रव्यं चोरयति तमहं निहन्मि, एवमायुधव्य-ग्रहस्तमारणाभिप्राय:। स्तैन्यमृषावादसारक्षणेषु। तथा चैव षड्विधारम्भे पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतित्रसकायिकविराधने- च्छेदनभेदनबंधनवधताडनदहनेषूद्यम: रौद्रं कषायसहितं ध्यानं भणितं।
समासेन संक्षेपेण। परद्रव्यहरणे तत्परता प्रथमं रौद्रं। परपीडाकरे मृषावादे यत्न: द्वितीयं रौद्रं। द्रव्यपशुपुत्रादिरक्षणविषये चौरदायादिमारणोद्यमे यत्नस्तृतीयं रौद्रं। तथा षड्विधे जीवमारणारम्भे कृताभिप्रायश्चतुर्थं रौद्रमिति।।३९६।। तत:–
गया है। जैसे-कब मेरा इस अनिष्ट से वियोग होगा इस प्रकार से चिन्तन करना पहला आर्तध्यान है। इष्टजनों के साथ यदि मेरा संयोग होता है तो कदाचित् भी वियोग न होवे ऐसा चिन्तन होना दूसरा आर्तध्यान है। क्षुधा, तृषा आदि के द्वारा पीड़ित हो रहा हूँ, मुझसे कब इनका अभाव होवे ?
मुझे कैसे भात-भोजन आदि प्राप्त होवे कि जिससे मुझे क्षुधा आदि बाधाएँ न होवें ? कब मेरे आहार की बेला आवे कि जिससे मैं भोजन करूँ अथवा पानी पिऊँ ? हाहाकार या पूत्कार और जल -सिंचन आदि करते हुए भी उन बाधाओं से मेरा प्रतीकार नहीं हो रहा है अर्थात् घबराने से, हाय-हाय करने से, पानी छिड़कने से भी प्यास आदि बाधाएँ दूर नहीं हो रही हैं इत्यादि प्रकार से चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है।
इस लोक में यदि मेरे पुत्र हो जावें, परलोक में यदि मैं देव हो जाऊँ तो ये स्त्री, वस्त्र आदि मुझे प्राप्त हो जावें इत्यादि चिन्तन करना चौथा आर्तध्यान है।
रौद्रध्यान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
भावार्थ-चोरी, असत्य, परिग्रहसंरक्षण और छह प्रकार की जीव हिंसा के आरम्भ में कषाय सहित होना रौद्रध्यान है, ऐसा संक्षेप से कहा है।।३९६।।
आचारवृत्ति-स्तैन्य-परद्रव्य के हरण का अभिप्राय होना, मृषा-असत्य बोलने में तत्पर होना, सारक्षण-यदि मेरा द्रव्य कोई चुरायेगा तो मैं उसे मार डालूँगा इस प्रकार से आयुध को हाथ में लेकर मारने का अभिप्राय करना, षड्विधारम्भ-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की विराधना करने में, इनका छेदन-भेदन करने में, इनको बाँधने में, इनका वध करने में, इनका ताड़न करने में और इन्हें जला देने में उद्यम का होना अर्थात् इन जीवों को पीड़ा देने में उद्यत होना-कषाय सहित ऐसा ध्यान रौद्र कहलाता है। यहाँ पर इसका संक्षेप से कथन किया गया है।
तात्पर्य यह है कि परद्रव्य के हरण करने में तत्पर होना प्रथम रौद्रध्यान है। पर को पीड़ा देनेवाले असत्य वचन के बोलने में यत्न करना दूसरा रौद्रध्यान है। द्रव्य अर्थात् धन, पशु,पुत्रादि के रक्षण के विषय में, चोर, दायाद अर्थात् भागीदार आदि के मारने में प्रयत्न करना यह तीसरा रौद्रध्यान है और छह प्रकार के जीवों के मारने के आरम्भ में अभिप्राय रखना यह चौथा रौद्रध्यान है।
अवहटटु अट्टरुद्दे महाभए सुग्गदीयपच्चूहे।
धम्मे वा सुक्के वा होहि समण्णागदमदीओ।।३९७।।
यत एवंभूते आर्तरौद्रे। किंविशिष्टे, महाभये महासंसारभीतिदायिनि (नी) सुगतिप्रत्यूहे–देवगतिमोक्षगतिप्रतिकूले। अपहृत्य निराकृत्य। धर्मध्याने शुक्लध्याने वा भव सम्यग्विधानेन गतमति:। धर्मध्याने शुक्लध्याने च सादरो सुष्ठु विशुद्धं मनो विधेहि समाहितमतिर्भवेति।।३९७।।
धर्मध्यानभेदान् प्रतिपादयन्नाह–
एयग्गेण मणं णिरुंभिऊण धम्मं चउव्विहं भâाहि।
आणापायविवायविचओ य संठाणविचयं च।।३९८।।
एकाग्रेण पंचेन्द्रियव्यापारपरित्यागेन कायिकवाचिकव्यापारविरहेण च। मनो मानसव्यापारं। निरुध्यात्मवशं कृत्वा। धर्मं चतुर्विधं चतुर्भेदं ध्याय चिन्तय। के ते चत्वारो विकल्पा इत्याशंकायामाह–आज्ञाविचयोऽपायविचयो विपाकविचय: संस्थानविचयश्चेति।।३९८।।
विशेष-इन्हीं ध्यानों के हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ऐसे नाम भी अन्य ग्रन्थों में पाये जाते हैं। जिसका अर्थ है हिंसा में आनंद मानना, झूठ में आनन्द मानना, चोरी में आनन्द मानना और परिग्रह के संग्रह में आनंद मानना। यह ध्यान रुद्र अर्थात् क्रूर परिणामों से होता है। इसमें कषायों की तीव्रता रहती है अत: इसे रौद्रध्यान कहते हैं।
इसके बाद-क्या करना ? सो कहते हैं-
गाथार्थ-सुगति के रोधक महाभयरूप इन आर्त, रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान में अथवा शुक्लध्यान से एकाग्रबुद्धि करो।।३९७।।
आचारवृत्ति-महासंसार भय को देनेवाले और देवगति तथा मोक्षगति के प्रतिकूल ऐसे इन आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान, शुक्लध्यान में अच्छी तरह अपनी मति लगाओ। अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान में आदर सहित होकर अच्छी तरह अपने विशुद्ध मन को लगाओ, उन्हीं में एकाग्रबुद्धि को करो।
धर्मध्यान के भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-एकाग्रता पूर्वक मन को रोककर उस धर्म का ध्यान करो जिसके आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हैं।।३९८।।
आचारवृत्ति-पंचेंद्रिय विषयों के व्यापार का त्याग करके और कायिक, वाचिक व्यापार से भी रहित होकर, एकाग्रता से मानस-व्यापार को रोककर अर्थात् मन को अपने वश करके, चार प्रकार के धर्मध्यान का चिन्तवन करो। वे चार भेद कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते है-आज्ञाविचय, अपाययिचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद धर्मध्यान के हैं।
भावार्थ-यहां एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षणवाला ध्यान कहा गया है। पंचेन्द्रियों के विषय का छोड़ना और काय की तथा वचन की क्रिया नहीं करना ‘एकाग्र’ है, तथा मन का व्यापार रोकना चिन्तानिरोघ है। इस प्रकार से ध्यान के लक्षण में इन्द्रियों के विषय से हटकर तथा मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से छूटकर जब मन अपने किसी ध्येय विषय में टिक जाता है, रुक जाता है, स्थिर हो जाता है उसी को ध्यान यह संज्ञा आती है।
तत्राज्ञाविचयं विवृण्वन्नाह–
पंचत्थिकायछज्जीवणिकाये कालदव्वमण्णे य।
आणागेज्भâे भावे आणाविचयेण विचिणादि।।३९९।।
पंचास्तिकाया: जीवास्तिकायोऽजीवास्तिकायो धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायो वियदास्तिकाय इति तेषां प्रदेशबन्धोऽस्तीति कृत्वा काया इत्युच्यन्ते। षड्जीवनिकायश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसा:। कालद्रव्यमन्यत्। अस्य प्रदेशबन्धाभा-वादस्तिकायत्वं नास्ति। एतानाज्ञाग्राह्यान् भावान् पदार्थान्। आज्ञाविचयेनाज्ञास्वरूपेण।
विचिनोति विवेचयति ध्यायतीति यावत्। एते पदार्था: सर्वज्ञनाथेन वीतरागेण प्रत्यक्षेण दृष्टा न कदाचिद् व्यभिचरन्तीत्यास्तिक्यबुद्ध्या तेषां पृथक्पृथग्विवेच-नेनाज्ञाविचय:। यद्यप्यात्मन: प्रत्यक्षबलेन हेतुबलेन वा न स्पष्टा तथापि सर्वज्ञाज्ञानिर्देशेन गृþाति नान्यथावादिनो जिना यत इति।।३९९।।
अपायविचयं विवृण्वन्नाह–
कल्लाणपावगाओ पाए विचिणादि जिणमदमुविच्च।
विचिणादि वा अपाये जीवाण सुहे य असुहे य।।४००।।
कल्याणप्रापकान् पंचकल्याणानि यै: प्राप्यन्ते तान् प्राप्यान् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि। विचिनोति ध्यायति। जिनमतमुपेत्य जैनागममाश्रित्य। विचिनोति वा ध्यायति वा। अपायान् कर्मापगमान् स्थितिखण्डाननुभागखण्डानुत्कर्षापकर्षभेदान्।
गाथार्थ-उसमें से पहले आज्ञाविचय का वर्णन करते हैं-पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय और कालद्रव्य ये आज्ञा से ग्राह्य पदार्थ हैं। इनको आज्ञा के विचार से चिन्तवन करना है।।३९९।।
आचारवृत्ति-जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, (पुद्गलास्तिकाय) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय हैं। इन पाँचों में प्रदेश का बन्ध अर्थात् समूह विद्यमान है अत: इन्हें काय कहते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये षट्जीवनिकाय हैं। और अन्य-छठा कालद्रव्य है।
इसमें प्रदेशबंध का अभाव होने से यह अस्तिकाय नहीं है। अर्थात् काल एक प्रदेशी होने से अप्रदेशी कहलाता है इसलिए यह ‘अस्ति’ तो है किन्तु काय नहीं है। ये सभी पदार्थ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से ग्रहण करने योग्य होने से आज्ञाग्राह्य हैं। आज्ञाविचय से अर्थात् आज्ञारूप से इनका विवेचन करना-ध्यान करना आज्ञाविचय है।
तात्पर्य यह कि वीतराग सर्वज्ञदेव ने इन पदार्थों को प्रत्यक्ष से देखा है। ये कदाचित् भी व्यभिचरित नहीं होते हैं अर्थात् ये अन्यथा नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार से आस्तिक्य बुद्धि के द्वारा उनका पृथक्-पृथक् विवेचन करना, चिन्तवन करना यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। यद्यपि ये पदार्थ स्वयं को प्रत्यक्ष से या तर्क के द्वारा स्पष्ट नहीं हैं फिर भी सर्वज्ञ की आज्ञा के निर्देश से वह उनको ग्रहण करता है; क्योंकि ‘नान्यथावादिनो जिना:’ जिनन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं हैं।
अपायविचय का वर्णन करते है।
गाथार्थ-जिनमत का आश्रय लेकर कल्याण को प्राप्त कराने वाले उपायों का चिन्तन करना अथवा जीवों के शुभ और अशुभ का चिन्तन करना अपायविचय है।।४००।।
आचारवृत्ति-जिनके द्वारा पंचकल्याणक प्राप्त किये जाते हैं वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र प्राप्य हैं अर्थात् उपायभूत हैं। जैनागम का आश्रय लेकर इनका ध्यान करना उपायविचय धर्मध्यान है; क्योंकि इसमें पंचकल्याणक आदि कल्याणकों के प्राप्त कराने वाले उपायों का चिन्तन किया जाता है। इसी प्रकार अपाय
जीवानां सुखानि जीवप्रदेशसंतर्पणानि। असुखानि दु:खानि चात्मनस्तु विचिनोति भावयतीति। एतै: कर्तर्व्यैर्जीवा दूरतो भवन्ति शासनात् एतैस्तु, शासनमुपढौकते , एतै: परिणामै: संसारे भ्रमन्ति जीवा:, एतैश्च संसाराद्विमुञ्चन्तीति चिन्तनमपायचिन्तनं नाम द्वितीयं धर्मध्यानमिति।।४००।।
विपाकविचयस्वरूपमाह–
एआणेयभवगयं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं।
उदओदीरणसंकमबंधं मोक्खं च विचिणादि।।४०१।।
एकभवगतमनेकभवगतं च जीवानां पुण्यकर्मफलं पापकर्मफलं च विचिनोति। उदयं स्थितिक्षयेण गलनं विचिनोति ये कर्मस्कन्धा उत्कर्षापकर्षादिप्रयोगेण स्थितिक्षयं प्राप्यात्मन: फलं ददते तेषां कर्मस्कन्धानामुदय इति संज्ञा तं ध्यायति। तथा चोदीरणमपक्वपाचनं।
ये कर्मस्कन्धा; सत्सु स्थित्यनुभागेषु अवस्थिता: सन्त आकृष्याकाले फलदा: क्रियन्ते तेषां कर्मस्कन्धानामुदीरणमिति संज्ञा तद् ध्यायति। संक्रमणं परप्रकृति-स्वरूपेण गमनं विचिनोति। तथा बन्धं जीवकर्मप्रदेशान्योन्यसंश्लेषं ध्यायति। मोक्षं
जीवकर्मप्रदेशविश्लेषमनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपं विचिनोतीति सम्बन्ध:। तथा शुभ प्रकृतीनां गुडखण्डशर्करामृतस्वरूपेणानुभागचिन्तनम् अशुभप्रकृतीनां निम्बकांजीरविषहालाहलस्वरूपेणानुभागचिन्तनम्
अर्थात् स्थिति खंडन, अनुभागखंडन, उत्कर्षण और अपकर्षण रूप से कर्मों का अपाय-अपगम-अभाव का चिन्तवन करना यह अपायविचय धर्मध्यान है। जीव के प्रदेशों को संतर्पित करने वाला सुख है और आत्मा के प्रदेशों में पीड़ा उत्पन्न करनेवाला दुख है।
इस तरह से जीवों के सुख और दुख का चिन्तवन करना अर्थात् जीव इन कार्यों के द्वारा जिनशासन से दूर हो जाते हैं और इन शुभ कार्यों के द्वारा जिनशासन के निकट आते हैं उसे प्राप्त कर लेते हैं। या इन परिणामों से संसार में भ्रमण करते हैं और इन परिणामों से संसार से छूट जाते हैं। इस प्रकार से चिन्तवन करना यह अपायविचय नाम का दूसरा धर्मध्यान है।
भावार्थ-कल्याण के लिए उपायभूत रत्नत्रय का चिन्तवन करना उपायविचय तथा कर्मों के अपाय-अभाव का चिन्तवन करना अपायविचय है।
अब विपाकविचय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-जीवों के एक और अनेक भव में होनेवाले पुण्य-पाप कर्म के फल को तथा कर्मों के उदय, उदीरणा, बंध और मोक्ष को जो ध्याता है उसके विपाकविचय धर्मध्यान होता है।।४०१।।
आचारवृत्ति-मुनि विपाकविचय धर्मध्यान में जीवों के एक भव में होने वाले या अनेक भव में होनेवाले पुण्यकर्म के और पापकर्म के फल का चिन्तन करते हैं कर्मों के उदय का विचार करते हैं। स्थिति के क्षय से गलन होना उदय है अर्थात् जो कर्मस्कन्ध उत्कर्षण या अपकर्षण आदि प्रयोग द्वारा स्थिति क्षय को प्राप्त करके आत्मा को फल देते हैं उन कर्म स्कंधों की उदय यह संज्ञा है।
वे जीवों के कर्मोंदय का विचार करते हैं। अपक्वपाचन को उदीरणा कहते हैं अर्थात् जो कर्मस्कन्ध स्थिति और अनुभाग के अवशेष रहते हुए विद्यमान हैं उनको खींच करके जो अकाल में हो उन्हें फल देनेवाला कर लेना है सो उदीरणा है अर्थात् प्रयोग के बल से अकाल में ही कर्मों को उदयावली में ले आना उदीरणा है। इसका ध्यान करते हैं किसी प्रकृति का पर-प्रकृतिरूप से होना संक्रमण है।
जीव के और कर्म के प्रदेशों का परस्पर में संबंध होना बन्ध है। जीव और कर्म के प्रदेशों का पृथक्करण होकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य स्वरूप को प्राप्त हो जाना मोक्ष है। इस संक्रमण का बंध और मोक्ष का चिन्तवन करते हैं।
तथा घातिकर्मणां लतादार्वस्थिशिलासमानानुिंचतनं। नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिप्रापककर्मफलचिन्तनं इत्येवमादिचिन्तनं विपाकविचयधर्म्यध्यानं नामेति।।४०१।।
संस्थानविचयस्वरूपं विवृण्वन्नाह–
उड्ढमहतिरियलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे।
एत्थेव अणुगदाओ अणुपेक्खाओ य विचिणादि।।४०२।।
ऊर्ध्वलोकं सपर्ययं सभेदं ससंस्थानं त्र्यस्रचतुरस्रवृत्तदीर्घायतमृदंगसंस्थानं पटलेन्द्रकश्रेणीबद्धप्रकीर्णकविमानभेदभिन्नं विचिनोति ध्यायति। तथाधोलोकं सपर्ययं ससंस्थानं वेत्रासनाद्याकृतिं त्र्यस्रचतुरस्रवृत्तदीर्घायतादिसंस्थानभेदभिन्नं
सप्तपृथिवीन्द्रकश्रेणिविश्रेणिबद्धप्रकीर्णकप्रस्तरस्वरूपेण स्थितं शीतोष्णनारकसंहितं महावेदनारूपं च विचिनोति। तथा तिर्यग्लोकं सपर्ययं सभेदं ससंस्थानं झल्लर्याकारं मेरुकुलपर्वतादि ग्रामनगरपत्तन-भेदभिन्नं पूर्वविदेहापरविदेहभरतैरावतभोग-
भूमिद्वीपसमुद्रवननदीवेदिकायतनकूटादिभेदभिन्नं दीर्घह्नस्ववृत्तायतत्र्यस्रचतुरस्रसंस्थानसहितं विचिनोति ध्यायतीति सम्बन्ध:। अत्रैवानुगता अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षा विचिनोति।।४०२।।
कास्ता अनुप्रेक्षा इति नामानीति दर्शयन्नाह–
अद्धुवमसरणमेगत्तमण्ण संसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोिंध च िंचतिज्जो।।४०३।।
उसी प्रकार से शुभ प्रकृतियों के गुड़, खांड और शर्करा अमृत रूप अनुभाग का चिंतवन करना तथा अशुभ प्रकृतियों का नीम, कांजीर, विष और हालाहलरूप अनुभाग का विचार करना तथा घातिकर्मों का लता, दारू, हड्डी और शिला के समान अनुभाग है ऐसा सोचना नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति को प्राप्त कराने वाले ऐसे कर्मों के फल का चिन्तन करना इत्यादि प्रकार से जो भी कर्मसम्बंधी चिन्तन करना है। यह सब विपाकविचय नाम का धर्मध्यान है।
संस्थानविचय का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ-भेदसहित और आकार सहित ऊर्ध्व, अध: और तिर्यग्लोक का ध्यान करते हैं और इसी से सम्बन्धित द्वादश अनुप्रेक्षा का भी विचार करते हैं।।४०२।।
आचारवृत्ति-ऊर्ध्वलोक पर्याय सहित अर्थात् भेदों सहित तथा आकार सहित-त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल, दीर्घ, आयत और मृदंग के आकारवाला है। इसमें पटलों में इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानों से अनेक भेद हैं। इसका मुनि ध्यान करते हैं। अधोलोक भी भेद सहित और वेत्रासन आदि आकार सहित है। त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल, दीर्घ आदि आकार इसमें भी घटित होते हैं। इसमें सात पृथिवियाँ हैं। इन्द्रक, श्रेणी, विश्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक प्रस्तार हैं। कुछ नरकविल शीत हैं और कुछ उष्ण हैं।
ये महावेदनारूप हैं इत्यादि का ध्यान करना। उसी प्रकार से तिर्यग्लोक भी नाना भेदों सहित और अनेक आकृतिवाला है, झल्लरी के समान है, मेरु पर्वत, कुलपर्वत आदि तथा ग्राम, नगर, पत्तन आदि से भेद सहित है। पूर्वविदेह, अपरविदेह, भरत, ऐरावत, भोगभूमि, द्वीप, समुद्र, वन, नदी, वेदिका, आयतन और कूटादि से युक्त है। दीर्घ, ह्रस्व, गोल, आयत, त्रिकोण, चतुष्कोण आकारों से सहित है।
मुनि इसका भी ध्यान करते हैं। अर्थात् मुनि तीनों लोक सम्बन्धी जो कुछ आकार आदि का चिन्तवन करते हैं वह सब संस्थानविचय धर्मध्यान है। और इन्हीं के अन्तर्गत द्वादश अनुप्रेक्षाओं का भी चिन्तवन करते हैं।
उन अनुप्रेक्षाओं के नाम बताते हैं-
गाथार्थ-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इनका चिन्तवन करना चाहिए।।४०३।।
अध्रुवमनित्यता। अशरणमनाश्रय:। एकत्वमेकोऽहं। अन्यत्वं शरीरादन्योऽहं। संसारश्चतुर्गतिसंक्रमणं। लोक ऊर्ध्वाधोमध्यवेत्रासनझल्लरीमृदंगरूपश्चतुर्दशरज्ज्वायत:। अशुचित्वं। आस्रव: कर्मास्रव:। संवरो महाव्रतादिकं। निर्जरा कर्मसातनं। धर्मोऽपि दशप्रकार: क्षमादिलक्षण:। बोधिं च सम्यक्त्वसहिता भावना एता द्वादशानुप्रेक्षाश्चिन्तय। तत् एतच्चतुर्विधं धर्मध्यानं नामेति।।४०३।।
शुक्लध्यानस्य स्वरूपं भेदांश्च विवेचयन्नाह–
उवसंतो दु पुहुत्तंं भâायदि झाणं विदक्कवीचारं।
खीणकसाओ भâायदि एयत्तविदक्कवीचारं।।४०४।।
उपशान्तकषायस्तु पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं। द्रव्याण्यनेकभेदभिन्नानि त्रिभिर्योगैर्यतो ध्यायति तत: पृथक्त्वमित्युच्यते। वितर्क: श्रुतं यस्माद्वितर्वेâण श्रुतेन सह वर्तते यस्माच्च नवदशचतुर्दशपूर्वधरैरारभ्यते तस्मात्सवितर्वंâ तत्। विचारोर्थव्यंजनयोग: (ग) संक्रमण:। एकमर्थं त्यक्त्वार्थान्तरं ध्यायति मनसा संिंचत्य वचसा प्रवर्तते कायेन प्रवर्तते एवं परंपरेण संक्रमो योगानां द्रव्याणां व्यंजनानां च स्थूलपर्यायाणामर्थानां सूक्ष्म-पर्यायाणां वचनगोचरातीतानां संक्रम: सवीचारं ध्यानमिति।
अस्य त्रिप्रकारस्य ध्यानस्योपशान्तकषाय: स्वामी। तथा क्षीणकषायो ध्यायत्येकत्वं वितर्कमवीचारं। एकं द्रव्यमेकार्थपर्यायमेकं व्यंजनपर्यायं च योगेनैकेन ध्यायति तद्ध्यानमेकत्वं, वितर्क: श्रुतं पूर्वोक्तमेव, अवीचारं अर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिरहितं। अस्य त्रिप्रकारस्यैकत्ववितर्कवीचारभेदभिन्नस्य क्षीणकषाय: स्वामी ।।४०४।।
आचारवृत्ति-अध्रुव-सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। अशरण-कोई आश्रयभूत नहीं है। एकत्व-मैं अकेला हूँ। अन्यत्व-मैं शरीर से भिन्न हूँ। संसार-चतुर्गति में संसरण करना-भ्रमण करना ही संसार है। लोक-यह ऊर्ध्व, अध: और मध्यलोक की अपेक्षा वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के आकार का है और चौदह राजू ऊँचा है। अशुचि-शरीर अत्यन्त अपवित्र है।
आश्रव-कर्मों का आना आश्रव है। संवर-महाव्रत आदि से आते हुए कर्म रुक जाते हैं। निर्जरा कर्मों का झड़ना निर्जरा है। धर्म-उत्तम क्षमा आदि लक्षणरूप धर्म दश प्रकार का है। बोधि-सम्यक्त्व सहित भावना ही बोधि है। इस प्रकार से इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए।
शुक्लध्यान का स्वरूप और उसके भेदों को कहते हैं-
गाथार्थ-उपशान्तकषाय मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान को ध्याते हैं। क्षीणकषाय मुनि एकत्ववितर्क अवीचार नामक ध्यान करते हैं।।४०४।।
आचारवृत्ति-उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान को ध्याते हैं। जीवादि द्रव्य अनेक भेदों से सहित हैं, मुनि इनको मन, वचन और काय इन तीनों योगों के द्वारा ध्याते हैं। इसलिए इस ध्यान का पृथक्त्व यह सार्थक नाम है। श्रुत को वितर्क कहते हैं। वितर्क-श्रुत के साथ रहता है अर्थात् नवपूर्वधारी, दशपूर्वधारी या चतुर्दश पूर्वधरों के द्वारा प्रारम्भ किया जाता है इसलिए वह वितर्क कहलाता है।
अर्थ, व्यंजन और योगों के संक्रमण का नाम वीचार है अर्थात् जो एक अर्थ-पदार्थ को छोड़कर भिन्न अर्थ का ध्यान करता है, मन से चिन्तवन करके वचन से करता है, पुन: काययोग से ध्याता है। इस तरह परम्परा से योगों का संक्रमण होता है। अर्थात् द्रव्यों का संक्रमण होता है और व्यंजन अर्थात् पर्यायों का संक्रमण होता है।
पर्यायों में स्थूल पर्यायें व्यंजन पर्याय हैं और जो वचन के अगोचर सूक्ष्म पर्याय हैं वे अर्थ पर्यायें कहलाती हैं। इनका संक्रमण इस ध्यान में होता है इसलिए यह ध्यान वीचार सहित है। अत: इसका सार्थक नाम पृथक्त्ववितर्कवीचार है। इस ध्यान में तीन प्रकार हो जाते हैं अर्थात् पृथक्त्व-नाना
तृतीयचतुर्थशुक्लध्यानस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह–
सुहुमकिरियं सजोगी भâायदि भâाणं च तदियसुक्कंतु।
जं केवली अजोगी भâायदि भâाणं समुच्छिण्णं।।४०५।।
सूक्ष्मक्रियामवितर्कमवीचारं श्रुतावष्टम्भरहितमर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिवियुक्तं सूक्ष्मकायक्रियाव्यवस्थितं तृतीयं-शुक्लं सयोगी ध्यायति ध्यानमिति। यत्वैâवल्ययोगी ध्यायति ध्यानं तत्समुच्छिन्नमवितर्कमविचारमनिवृत्तिनिरुद्धयोगमपश्चिमं शुक्लमविचलं मणिशिखावत्। तस्य चतुर्थध्यानस्यायोगी स्वामी। यद्यप्यत्र मानसो व्यापारो नास्ति तथाप्युपचारक्रिया ध्यानमित्युपचर्यते। पूर्वप्रवृत्तिमपेक्ष्य घृतघटवत् पुंवेदवद्वेति।।४०५।।
भेदरूप द्रव्य, वितर्क-श्रुत और वीचार-अर्थ, व्यंजन, योग का संक्रमण इन तीनों की अपेक्षा से यह ध्यान तीन प्रकार रूप है। इस ध्यान के स्वामी उपशान्तकषायी महामुनि हैं।
क्षीणकषायगुणस्थान वाले मुनि एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान को ध्याते हैं। वे एक द्रव्य को अथवा एक अर्थपर्याय को या एक व्यंजन पर्याय को किसी एक योग के द्वारा ध्याते हैं, अत: यह ध्यान एकत्व कहलाता है। इसमें वितर्क-श्रुत पूर्वकथित ही है अर्थात् नव, दश या चतुर्दश पूर्वों के वेत्ता मुनि ही ध्याते हैं।
अर्थ, व्यंजन और योगों की संक्रांति से रहित होने से यह ध्यान अवीचार है। इसमें भी एकत्व, वितर्क और अवीचार ये तीन प्रकार होते हैं। इस तीन प्रकाररूप एकत्व, वितर्क, अवीचार ध्यान को करने वाले क्षीणकषाय महामुनि ही इसके स्वामी हैं।
विशेषार्थ-यहाँ पर उपशान्तकषायवाले के प्रथम शुक्लध्यान और क्षीणकषाय वाले के द्वितीय शुक्लध्यान माना है। अमृतचन्द्रसूरि ने भी ‘तत्त्वार्थसार’ में कहा है-
द्रव्याण्यनेकभेदानि योगैर्ध्यायति यत्त्रिभि:।
शांतमोहस्ततो ह्येतत्पृथक्त्वमिति कीर्तितम्।।४ ५।।
द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण च।
ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत्।।४८।।
अभिप्राय यही है कि उपशान्तमोह मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान को ध्याते है और क्षीणमोह मुनि एकत्ववितर्कवीचार को ध्याते हैं। तृतीय और चतुर्थ शुक्लध्यान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्लध्यान सयोगी ध्याते हैं। जो अयोगी केवली ध्याते हैं वह समुच्छिन्न ध्यान है।।४०५।।
आचारवृत्ति-जो सूक्ष्मकाय क्रिया में व्यवस्थित है अर्थात् जिनमें काययोग की क्रिया भी सूक्ष्म हो चुकी है वह सूक्ष्मक्रिया ध्यान हैं। यह अवितर्क और अविचार है अर्थात् श्रुत के अवलम्बन से रहित है, अत: अवितर्क है और इसमें अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण नहीं है अत: यह अविचार है। ऐसे इस सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान को सयोग केवली ध्याते हैं।
जिस ध्यान को अयोग केवली ध्याते हैं वह समुच्छिन्न है। वह अवितर्क, अविचार, अनिवृत्तिनिरुद्ध योग, अनुत्तर, शुक्ल और अविचल है, मणिशिखा के समान है। अर्थात् इस समुच्छिन्न ध्यान में श्रुत का अवलम्बन नहीं है अत: अवितर्क है। अर्थ, व्यंजन, योग की संक्रांति भी नहीं है अत: अविचार है।
सम्पूर्ण योगों का-काययोग का भी निरोध हो जाने से यह अनिवृत्तिनिरोध योग है। सभी ध्यानों में अन्तिम है इससे उत्कृष्ट अब और कोई ध्यान नही रहा है अतः यह अनुत्तर है। परिपूर्णतया स्वच्छ उज्ज्वल होने से शुक्लध्यान इसका नाम है। यह मणि के दीपक की शिखा के समान होने से पूर्णतया अविचल है। इस चतुर्थ ध्यान के स्वामी चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली हैं।
व्युत्सर्गनिरूपणायाह–
दुविहो य विउस्सग्गो अब्भंतर बाहिरो मुणेयव्वो।
अब्भंतर कोहादी बाहिर खेत्तादियं दव्वं।।४०६।।
द्विविधो द्विप्रकारो व्युत्सर्ग: परिग्रहपरित्यागोऽभ्यन्तरबाहिरो अभ्यन्तरो बाह्यश्च ज्ञातव्य:। क्रोधादीनां व्युत्सर्गोभ्यन्तर:। क्षेत्रादिद्रव्यस्य त्यागो बाह्यो व्युत्सर्ग इति।।४०६।।
अभ्यन्तरस्य व्युत्सर्ग भेदप्रतिपादनार्थमाह–
मिच्छत्तवेदरागा तहेव हस्सादिया य छद्दोसा।
चत्तारि तह कसाया चोद्दस अब्भंतरा गंथा।।४०७।।
मिथ्यात्वं। स्त्रीपुंनपुंसकवेदास्त्रय:। रागा हास्यादय: षट् दोषा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा: चत्वारस्तथा कषाया क्रोधमानमायालोभा:। एते चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्था:। एतेषां परित्यागोऽभ्यन्तरो व्युत्सर्ग इति।।४०७।।
बाह्यव्युत्सर्गभेद प्रतिपादनार्थमाह–
खेत्तं वत्थु धणधण्णगदं दुपदचदुप्पदगदं च।
जाणसयणासणाणि य कुप्पे भंडेसु दस होंति।।४०८।।
क्षेत्रं सस्यादिनिष्पत्तिस्थानं। वास्तु गृहप्रासादादिकं। धनगतं सुवर्णरूप्यद्रव्यादि। धान्यगतं शालि-यवगोधूमादिकं
यद्यपि इन तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मन का व्यापार नहीं है तो भी उपचार क्रिया से ध्यान का उपचार किया गया है। यह ध्यान का कथन पूर्व में होने वाले ध्यान की प्रवृत्ति की अपेक्षा करके कहा गया है जैसे कि पहले घड़े में घी रखा था पुन: उस घड़े से घी निकाल देने के बाद भी उसे घी का घड़ा कह देते हैं अथवा पुरुषवेद का उदय नवमें गुणस्थान में समाप्त हो गया है फिर भी पूर्व की अपेक्षा पुरुष वेद से मोक्ष की प्राप्ति कह देते हैं।
भावार्थ-इन सयोगी और अयोग केवली के मन का व्यापार न होने से इनमें ‘एकाग्रचिन्तानिरोधो- ध्यानं’ यह ध्यान का लक्षण नहीं पाया जाता है। फिर भी कर्मों का नाश होना यह ध्यान का कार्य देखा जाता है अतएव वहाँ पर उपचार से ध्यान माना जाता है।
अब अन्तिम व्युत्सर्ग तप का निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से व्युत्सर्ग दो प्रकार जानना चाहिए। क्रोध आदि अभ्यन्तर हैं और क्षेत्र आदि द्रव्य बाह्य हैं।।४०६।।
आचारवृत्ति-परिग्रह का परित्याग करना व्युत्सर्ग तप है। वह दो प्रकार का है-अभ्यन्तर और बाह्य। क्रोधादि अभ्यन्तर परिग्रह हैं, इनका परित्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है। क्षेत्र आदि बाह्य द्रव्य का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है।
अभ्यन्तर व्युत्सर्ग का वर्णन करते हैं-
गाथार्थ-मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य आदि छह दोष और चार कषायें ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं।।४०७।।
आचारवृत्ति-मिथ्यात्व ,स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं। इनका परित्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है।
बाह्य व्युत्सर्ग भेद का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन-आसन, कुप्य और भांड ये दश परिग्रह होते हैं।।४०८।।
द्विपदा दासीदासादय:। चतुष्पदगतं गोमहिष्याजादिगतं। यानं शयनमासनं। कुप्यं कार्पासादिकं। भाण्डं िंहगुमरीचादिकं। एवं बाह्यपरिग्रहो दशप्रकारस्तस्य त्यागो बाह्यो व्युत्सर्ग इति।।४०८।।
द्वादशविधस्यापि तपस: स्वाध्यायोऽधिक इत्याह–
बारसविधह्मिवि तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे।
णवि अत्थि णवि य होही सज्भâायसमं तवोकम्मं।।४०९।।
िद्वादशविधस्यापि तपस: सबाह्याभ्यन्तरे कुशलदृष्टे सर्वज्ञगणधरादिप्रतिपादिते नाप्यस्ति नापि च भविष्यति स्वाध्यायसमानं तप:कर्म। द्वादशविधेऽपि तपसि मध्ये स्वाध्यायसमानं तपोनुष्ठानं न भवति न भविष्यति।।४०९।।
सज्भâायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य।
हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू।।४१०।।
स्वाध्यायं कुर्वन् पंचेन्द्रियसंवृत: त्रिगुप्तश्चेन्द्रियव्यापाररहितो मनोवाक्कायगुप्तयश्च, भवत्येकाग्रमना: शास्त्रार्थतन्निष्ठो विनयेन समाहितो विनययुक्तो भिक्षु: साधु:। स्वाध्यायस्य माहात्म्यं दर्शितमाभ्यां गाथाभ्यामिति।।४१०।।
तपोविधानक्रममाह–
आचारवृत्ति-धान्य आदि की उत्पत्ति के स्थान को क्षेत्र-खेत कहते हैं। घर, महल आदि वास्तु हैं। सोना, चाँदी आदि द्रव्य धन है। शालि, जौ, गेहूं आदि धान्य है। दासी, दास आदि द्विपद है। गाय, भैंस, बकरी आदि चतुष्पद हैं। वाहन आदि यान है। पलंग, सिंहासन आदि शयन-आसन हैं। कपास आदि कुप्य कहलाते हैं और हींग, मिर्च आदि को भांड कहते हैं। ये बाह्य परिग्रह दश प्रकार के हैं, इनका त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है।
बारह प्रकार के तप में भी स्वाध्याय सबसे श्रेष्ठ है ऐसा निरूपण करते हैं-
गाथार्थ-कुशल महापुरुष के द्वारा देखे गये अभ्यन्तर और बाह्य ऐसे बारह प्रकार के भी तप में स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप न है और न ही होगा।।४०९।।
आचारवृत्ति-सर्वज्ञ देव और गणधर आदि के द्वारा प्रतिपादित इन बाह्य और अभ्यन्तर रूप बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय के समान न कोई अन्य तप है और न ही होगा। अर्थात् बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय तप सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
गाथार्थ-विनय से सहित हुआ मुनि स्वाध्याय को करते हुए पंचेंद्रिय से संवृत्त और तीन गुप्ति से गुप्त होकर एकाग्रमन वाला हो जाता है।।४१०।।
आचारवृत्ति-जो मुनि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय करते हैं वे उस समय स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रियों के विषय व्यापार से रहित हो जाते हैं और मन-वचन–काय रूप तीन गुप्ति से सहित हो जाते हैं। तथा शास्त्र पढ़ने और उसके अर्थ के चिन्तन में तल्लीन होने से एकाग्रचित्त हो जाते हैं। इन दो गाथाओं के द्वारा स्वाध्याय का माहात्म्य दिखलाया है।
तप के विधान का क्रम बतलाते हैं-
सिद्धिप्पासादवदंसयस्स करणं चदुव्विहं होदि।
दव्वे खेत्ते काले भावे वि य आणुपुव्वीए।।४११।।
तस्य द्वादशविधस्यापि तपस: िंकविशिष्टस्य, सिद्धिप्रासादावतंसकस्य मोक्षगृहकर्णपूरस्य मण्डनस्याथवा सिद्धिप्रासादप्रवेशकस्य करणमनुष्ठानं चतुर्विधं भवति। द्रव्यमाहारशरीरादिकं। क्षेत्रमनूपमरुजांगलादिकं स्निग्धरूक्षवातपित्तश्लेष्मप्रकोपकं। काल: शीतोष्णवर्षादिरूप:। भाव: (व) परिणामश्चित्तसंक्लेश:। द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तप: कुर्यात्। यथा वातपित्तश्लेष्मविकारो न भवति। आनुुपूर्व्यानुक्रमेण क्रमं त्यक्त्वा यदि तप: करोति चित्तसंक्लेशो भवति संक्लेशाच्च कर्मबन्ध: स्यादिति।।४११।।
तपोऽधिकारमुपसंहरन् वीर्याचारं च सूचयन्नाह–
अब्भंतरसोहणओ एसो अब्भंतरो तओ भणिओ।
एत्तो विरियाचारं समासओ वण्णइस्सामि।।४१२।।
गाथार्थ-मोक्षमहल के भूषणरूप तप के करण चार प्रकार के हैं जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप क्रम से हैं।।४११।।
आचारवृत्ति-यह जो बारह प्रकार तप है वह सिद्धिप्रासाद का भूषण है, मोक्ष-महल का कर्णफूल है अर्थात् मोक्षमहल का मंडनरूप है। अथवा मोक्षमहल में प्रवेश करने का साधन है। ऐसा यह तपश्चरण का अनुष्ठान चार प्रकार का है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों का आश्रय लेकर यह तप होता है।
आहार और शरीर आदि को द्रव्य कहते हैं। अनूप-जहाँ पानी बहुत पाया जाता है, मरु-जहाँ पानी बहुत कम है, जांगल-जलरहित प्रदेश, ये स्थान स्निग्ध रूक्ष हैं एवं वात, पित्त या कफ को बढ़ाने वाले हैं। ये सब क्षेत्र कहलाते हैं। शीत, ऊष्ण, वर्षा आदि रूप काल होता है और चित्त के संक्लेश आदि रूप परिणाम को भाव कहते हैं।
अपनी प्रकृति आदि के अनुकूल इन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखकर तपश्चरण करना चाहिए। जिस प्रकार से वात, पित्त या कफ का विकार उत्पन्न न हो, अनुक्रम से ऐसा ही तप करना चाहिए। यदि मुनि क्रम का उल्लंघन करके तप करते हैं तो चित्त में संक्लेश हो जाता है और चित्त में संक्लेश के होने से कर्म का बन्ध होता है।
भावार्थ-जिस आहार आदि द्रव्य से वात आदि विकार उत्पन्न न हो, वैसा आहार आदि लेकर पुन: उपवास आदि करना चाहिए। किसी देश में वात प्रकोप हो जाता है, किसी देश में पित्त का या किसी देश में कफ का प्रकोप बढ़ जाता है ऐसे श्रेत्र को भी अपने स्वास्थ्य के अनुकूल देखकर ही तपश्चरण करना चाहिए।
जैसे-जो उष्ण प्रदेश हैं वहाँ पर उपवास अधिक होने से पित्त का प्रकोप हो सकता है। ऐसे ही शीत काल, ऊष्णकाल और वर्षा काल में भी अपने स्वास्थ्य को संभालते हुए तपश्चरण करना चाहिए। सभी ऋतुओं में समान उपवास आदि से वात, पित्त आदि विकार बढ़ सकते हैं। तथा जिस प्रकार से परिणामों में संक्लेश न हो इतना ही तप करना चाहिए। इस तरह सारी बातें ध्यान में रखते हुए तपश्चरण करने से कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष की सिद्धि होती है।
अन्यथा, परिणामों में क्लेश हो जाने से कर्म बन्ध जाता है। यहाँ इतना ध्यान में रखना आवश्यक है कि प्रारम्भ में उपवास, कायक्लेश आदि को करने में परिणामों में कुछ क्लेश हो सकता है। किन्तु अभ्यास के समय उससे घबराना नहीं चाहिए। धीरे-धीरे अभ्यास को बढ़ाते रहने से बड़े-बड़े उपवास और कायक्लेश आदि सहज होने लगते हैं।
अब तप आचार के अधिकार का उपसंहार करते हुए और वीर्याचार को सूचित करते हुए आचार्य कहते हैं-
गाथार्थ-अन्तरंग को शुद्ध करनेवाला यह अन्तंरग तप कहा गया है। इसके बाद संक्षेप से वीर्याचार का वर्णन करूँगा।।४१२।।
अभ्यन्तरशोधनकमेतदभ्यन्तरतपो भणितं भावशोधनायैतत्तप: तथा बाह्यमप्युक्तं। इत ऊर्ध्वं वीर्याचारं वर्णयिष्यामि संक्षेपत इति।।४१२।।
अणुगूहियबलविरिओ परिक्कामदि जो जहुत्तमाउत्तो।
जुंजदि य जहाथाणं विरियाचारोत्ति णादव्वो।।४१३।।
िअनुगूहितबलवीर्यं अनिगूहितमसंवृतमपह्नुतं बलमाहारौषधादिकृतसामर्थ्यं, वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं संहननापेक्षं स्थामशरीरावयवकरणचरणजंघोरुकटिस्कन्धादिघनघटितबन्धापेक्षं।
अनिगूहिते बलवीर्ये येनासावनिगूहितबलवीर्य:। पराक्रमते चेष्टते समुत्सहते यो यथोक्तं तपश्चारित्रं त्रिविधानुमतिरहितं सप्तदशप्रकारसंयमविधानं प्राणसंयमं तथेन्द्रियसंयमं चैतद्यथोक्तं। अनिगूहितबलवीर्यो य: कुरुते युनक्ति चात्मानं यथास्थानं यथाशरीरावयवाष्टंभं य: स वीर्याचार इति ज्ञातव्यो भेदात्। अथवा तस्य वीर्याचारो ज्ञातव्य: इति।।४१३।।
त्रिविधानुमतिपरिहारो यथोक्तमित्युक्तस्तथा सप्तदशप्रकारं प्राणसंयमनमिन्द्रियसंयमनं च यथोक्तमित्युक्तं। तत्र का त्रिविधानुमति: कश्च सप्तदशप्रकार: प्राणसंयम: को वेन्द्रियसंयम इति पृष्टे उत्तरमाह–
पडिसेवा पडिसुणणं संवासो चेव अणुमदी तिविहा।
उद्दिट्ठं जदि भुंजदि भोगदि य होदि पडिसेवा।।४१४।।
आचारवृत्ति-भावों को शुद्ध करने के लिए यह अभ्यन्तर तप कहा गया है और इसकी सिद्धि के लिए बाह्य तप को भी कहा है। अब इसके बाद में वीर्याचार को थोड़े रूप में कहूँगा।
गाथार्थ-अपने बल वीर्य को न छिपाकर जो मुनि यथोक्त तप में यथास्थान अपनी आत्मा को लगाता है उसे वीर्याचार जानना चाहिए।।४१३।।
आचारवृत्ति-आहार तथा औषधि आदि से होनेवाली सामर्थ्य को बल कहते हैं। जो वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और संहनन की अपेक्षा रखता है तथा स्वस्थ शरीर के अवयव-हाथ, पैर, जंघा, घुटने, कमर, कंधे आदि को मजबूत बंधन की भी अपेक्षा से सहित है वह वीर्य है। जो मुनि अपने बल और वीर्य को छिपाते नहीं है
, वे ही उपर्युक्त तपश्चरण में उत्साह करते हैं। तीन प्रकार की अनुमति से रहित, आगम में कथित सत्रह प्रकार के संयम-प्राणी संयम तथा इन्द्रिय संयम को पालते हैं। तात्पर्य यह है कि जो साधु अपने बल-वीर्य को नहीं छिपाते हैं, वे अपने शरीर अवयव के अवलम्बन से यथायोग्य आगमोक्त चारित्र में अपनी आत्मा को लगाते हैं वही उनका वीर्याचार कहलाता है।
जो आपने तीन प्रकार की अनुमति का परिहार कहा है, तथा सत्रह प्रकार का संयम प्राण संयम और इन्द्रिय संयम कहा है, उनमें से तीन प्रकार की अनुमति क्या है ? तथा सत्रह प्रकार का प्राणसंयम क्या है ? अथवा इन्द्रिय संयम क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण और संवास इस प्रकार अनुमति तीन प्रकार की है। यदि उद्दिष्ट भोजन और उपकरण आदि सेवन करता है तो उसके प्रतिसेवा होती है।।४१४।।
प्रतिसेवा प्रतिश्रवणं संवासश्चैवानुमतिस्त्रिविधा। अथ िंक प्रतिसेवाया लक्षणं ? आह-उद्दिष्टं दात्रा पात्रमुद्दिश्यं पात्राभिप्रायेणाहारादिकमुपकरणादिकं चोपनीतं तदानीतमाहारादिकं यदि भुंक्तेऽनुभवति। उपकरणादिकं च प्रासुकमानीतं दृष्ट्वा भोगयति सेवते यदि तदा तस्य पात्रस्य प्रतिसेवानामानुमतिभेद: स्यात्।।४१४।।
तथा–
उद्दिट्ठं जदि विचरदि पुव्वं पच्छा व होदि पडिसुणणा।
सावज्जसंकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो।।४१५।।
पूर्वमेवोपदिष्टं यावत्तद्वस्तु न गृण्हाति साधुस्तावदेव पूर्वं प्रतिपादयति दाता, भवतो निमित्तं मया संस्कृतमाहारादिकं प्रासुकमुपकरणं वा तद्भवान गृण्हातु। एवं पूर्वमेव श्रुत्वा यदि विचरित गृण्हातु। अथवा दत्वाहारादिकमुपकरणं पश्चान्निवेदयति युष्मन्निमित्तं मया संस्कृतं तद्भवद्भिर्गृहीतं अद्य मे संतोष: संजात: इति श्रुत्वा तूष्णींभावेन सन्तोषेण वा तिष्ठति तदा तस्य प्रतिश्रवणानामानुमतिभेदो द्वितीय: स्यादिति।
तथा सावद्यसंक्लिष्टो योऽयं ममत्वभाव: स संवास:। गृहस्थै: सह संवसति ममेदमिति भावं च करोत्याहाराद्युपकरण-निमित्तं सर्वदा संक्लिष्ट: सन् संवासनामानुमतिभेदस्तृतीय: एवं त्रिप्रकारामनुमिंत कुर्वता यथोक्तं नाचरितं बलवीर्यं चावगूहितं तेन वीर्याचारो नानुष्ठित: स्यात्तस्मात् सानुमतिस्त्रिप्रकारापि त्याज्या वीर्याचारमनुष्ठतेति।।४१५।।
सप्तदशप्रकारसंयमं प्रतिपादयन्नाह–
पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो।
विगतिगचदुपंचेंदिय अजीवकायेसु संजमणं।।४१६।।
आचारवृत्ति-प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण और संवास ये तीन प्रकार की अनुमति हैं। प्रतिसेवा का क्या लक्षण है ? दाता यदि पात्र का उद्देश्य करके अर्थात् पात्र के अभिप्राय से जो आहार आदि और उपकरण आदि बनाता है या लाता है और पात्र यदि उस आहार आदि को ग्रहण करता है। तथा लाये गये उपकरण आदि को प्रासुक समझकर यदि सेवन करता है तब उस पात्र के प्रतिसेवा नाम का अनुमति दोष होता है। तथा-
गाथार्थ-पूर्व में कथित उद्दिष्ट को ग्रहणकर अथवा बाद में कथित को सुनकर यदि मुनि संतोष ग्रहण करता है तो प्रतिश्रवण दोष आता है। इसी प्रकार सावद्य से संक्लिष्ट ममत्व भाव संवास दोष है।।४१५।।
आचारवृत्ति-पूर्व में उपदिष्ट वस्तु जब तक साधु ग्रहण नहीं करता है उसके पहले ही आकर यदि दाता कह देता है कि आपके निमित्त मैंने यह प्रासुक आहार आदि अथवा उपकरण आदि बनाये हैं, इनको आप ग्रहण कीजिये और साधू पूर्व में ही ऐसा सुनकर यदि उस आहार को अथवा उपकरण आदि को ग्रहण कर लेता है अथवा यदि दाता आहार या उपकरण आदि देकर के पश्चात् निवेदन करता है कि आपके निमित्त मैंने यह बनवाया था
आपने उसे ग्रहण कर लिया इसलिए आज मुझे बहुत ही संतोष हो गया, ऐसा सुनकर यदि मुनि मौन से या संतोष से रह जाते हैं तब उनके प्रतिश्रवण नाम का दूसरा अनुमति दोष होता है।
उसी प्रकार से जो यह सावद्य से संक्लिष्ट ममत्व भाव है वह संवास कहलाता है। जो मुनि गृहस्थों के साथ संवास करता है और आहार तथा उपकरण आदि के निमित्त हमेशा संक्लिष्ट होता हुआ ‘यह मेरा है’ ऐसा भाव करता है उसके संवास नाम का तीसरा अनुमति दोष होता है।
इस प्रकार की अनुमति को करते हुए आगमोक्त चारित्र का जिन्होंने आचरण नहीं किया है और जिन्होंने अपने बल-वीर्य को छिपा रखा है उन मुनि ने वीर्याचार का अनुष्ठान नहीं किया है ऐसा समझना। इसलिए वीर्याचार का अनुष्ठान करने वाले आचार्यों को इन तीनों प्रकार की अनुमति का त्याग कर देना चाहिए।
सत्रह प्रकार के संयम का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इनका संयम जानना चाहिए और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रीय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तथा अजीव कायों का संयम करना चाहिए।।४१६।।
पृथव्युदकतेजोवायुवनस्पतिकायिकानां संयमनं रक्षणं संयमो ज्ञातव्य;। तथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियाणां संयमनं रक्षणं संयम:। अजीवकायानां शुष्कतृणादीनामच्छेदनं। कायभेदेन पंचप्रकार: संयमस्त्रसभेदेन चतुर्विधोऽजीवरक्षणेन चैकविध इति दशप्रकार: संयम:।।४१६।।
तथा–
अप्पडिलेहं दुप्पडिलेहमुवेखुअवहट्टु संजमो चेव।
मणवयणकायसंजम सत्तरसविहो दु णादव्वो।।४१७।।
अप्रतिलेखश्चक्षुषा पिच्छिकया वा द्रव्यस्य द्रव्यस्थानस्याप्रतिलेखनमदर्शनं तस्य संयमनं दर्शनं प्रतिलेखनं वा प्रतिलेखसंयम:। दु:प्रतिलेखो दुष्ठुप्रमार्जनं जीवघातमर्दनादिकारकं तस्य संयमनं यत्नेन प्रतिलेखनं जीवप्रमादमंतरेण दुष्प्रतिलेखसंयम:।
उपेक्षोपेक्षणं – उपकरणादिकं व्यवस्थाप्य पुन: कालान्तरेणाप्यदर्शनं जीवसम्मूर्छनादिकं दृष्ट्वा उपेक्षणं तस्या उपेक्षाया: संयमनं दिनं प्रति निरीक्षणमुपेक्षासंयम:। अवहट्टु-अपहरणमपनयनं१ पंचेन्द्रियद्वीन्द्रियादीनाम-पनयनमुपकरणेभ्योऽन्यत्र संक्षेपणमुपवर्तनं तस्य संयम (म:) निराकरणं उदरकृम्यादिकस्य वा निराकरणमपहरणं संयम:।
एवं चतुर्विध: संयम:। तथा मनस: संयमनं वचनस्य संयमनं कायस्य संयमनं मनोवचनकायसंयमस्त्रि प्रकार:। एवं पूर्वान् दशभेदानिमांश्च सप्तभेदान् गृहीत्वा, सप्तदशप्रकार: समय: प्राणसंयम:। अस्य रक्षेणेन यथोक्तमाचरितं भवति।।४१७।।
आचारवृत्ति-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति इन पाँच प्रकार के स्थावरकायिक जीवों का संयमन अर्थात् रक्षण करना; द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय इन चार प्रकार के त्रसकायिक जीवों का रक्षण करना तथा सूखे तृण आदि अजीव कायों का छेदन करना-इस प्रकार से पांच स्थावरकाय, चार त्रसकाय और एक अजीवकाय इनके रक्षण से यह दश प्रकार का संयम होता हैं। तथा-
गाथार्थ-अप्रतिलेख, दुष्प्रतिलेख, उपेक्षा और अपहरण इनमें संयम करना तथा मन-वचन-काय का संयम ऐसे सत्रह प्रकार का संयम जानना चाहिए।। ४१७।।
आचारवृत्ति-चक्षु के द्वारा अथवा पिच्छिका से द्रव्य का और द्रव्य स्थान का प्रतिलेखन नहीं करना अप्रतिलेख है। तथा शास्त्र आदि वस्तु को चक्षु से देखकर, उनका और उनके स्थानों का पिच्छी के द्वारा प्रतिलेखन करना प्रतिलेख संयम कहलाता है।
इन शास्त्रादि द्रव्य का और उनके स्थानों का ठीक से प्रमार्जन नहीं करना अर्थात् जीव घात या मर्दन आदि करने वाला परिमार्जन करना दुष्प्रतिलेख है। किन्तु उसका संयम करना, ठीक से परिमार्जन करना, यत्नपूर्वक प्रमाद के बिना प्रतिलेखन करना दुष्प्रतिलेख का संयम हो जाता है।
उपकरण आदि को किसी जगह स्थापित करके पुन: कालान्तर में भी उन्हें नहीं देखना अथवा उनमें संमूर्च्छन आदि जीवों को देखकर उपेक्षा कर देना यह सब उपेक्षा नाम का असंयम है। किन्तु इस उपेक्षा का संयम करके प्रतिदिन उन वस्तुओं का निरीक्षण करना, पिच्छिका से उनका परिमार्जन करना उपेक्षा संयम है।
अपहरण करना अर्थात् उपकरणों से द्वीन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि जीवों को दूर करना, उन्हें निकालकर अन्यत्र क्षेपण करना अर्थात् उनकी रक्षा का ध्यान नहीं रखकर, उन्हें कहीं भी डाल देना यह अपहरण नाम का असंयम है। किन्तु ऐसा न करके उन्हें सुरक्षित स्थान पर डालना यह संयम है। अथवा उदर के कृमि आदि का निराकरण करना अपहरण संयम है। इस तरह यह चार प्रकार का संयम हो जाता है।
तथा-मन को संयमित करना, वचन को संयमित करना और काय को संयमित करना यह तीन प्रकार का संयम है।
तथेन्द्रियसंयमं प्रतिपादयन्नाह–
पंचरसपंचवण्णा दो गंधे१ अट्ठ फास सत्त सरा।
मणसा चोद्दसजीवा इन्दियपाणा य संजमो णेओ।।४१८।।
िपंच रसास्तिक्तकषायाम्लकटुकमधुरा रसनेन्द्रियविषया:। पंचवर्णा: कृष्णनीलरक्तपीतशुक्लाश्चक्षुरिन्द्रियविषया:। द्वौ गंधौ सुगंधदुर्गंधौ घ्राणेंद्रियविषयौ। अष्टौ स्पर्शा: स्निग्धरूक्षकर्कशमृदुशीतोष्णलघुगुरुका: स्पर्शनेन्द्रियविषया:। सप्तस्वरा: २षड्गर्षभगान्धारमध्यमपंचमधैवतनिषादा: श्रोत्रेन्द्रियविषया:। एतेषां मनसा सहाष्टािंवशतिभेदभिन्नानां संयमनमात्मविषयनिरोधनं संयम:। मनसो नोइंद्रियस्य संयम:। तथा चतुर्दशजीवसमासानां रक्षणं प्राणसंयम:। एवमिन्द्रियसंयम: प्राणसंयमश्च ज्ञातव्यो यथोक्तमनुष्ठेय इति।।४१८।।
पंचाचारमुपसंहरन्नाह–
दंसणणाणचरित्ते तव विरियाचारणिग्गहसमत्थो।
अत्ताणं जो समणो गच्छदि सििंद्ध धुद किलेसो।।४१९।।
इस तरह पूर्व के दश भेदों को और इन सात भेदों को मिलाने से सत्रह प्रकार का प्राण संयम हो जाता है। इनके रक्षण से आगमोक्त आचरण होता है।
भावार्थ-अप्रतिलेख संयम, दुष्प्रतिलेख संयम, उपेक्षा संयम, अपहरण संयम, मन: संयम, वचन संयम और काय संयम ये सात संयम हैं।
अब इन्द्रिय संयम का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, सात स्वर और मन का विषय तथा चौदह जीव- समास ये इन्द्रिय संयम और प्राण संयम हैं, ऐसा जानना चाहिए।।४१८।।
आचारवृत्ति-तिक्त, कषाय, अम्ल, कटुक और मधुर ये पाँच रस हैं, चूंकि ये रसना इन्द्रिय के विषय हैं। कृष्ण, नील, रक्त,पीत और शुक्ल ये पाँच वर्ण हैं ये चक्षु इन्द्रिय के विषय हैं। सुगंध और दुर्गंध ये दो गंध हैं ये घ्राणेन्द्रिय के विषय हैं। स्निग्ध, रूक्ष, कर्कश, मृदु, शीत, उष्ण, लघु और गुरु ये आठ स्पर्श हैं;
ये स्पर्शन इन्द्रिय के विषय हैं। षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात स्वर हैं; ये कर्णेन्द्रिय के विषय हैं और मन, इस तरह पाँच इंद्रियों के ये अट्ठाईस विषय होते हैं। इनका संयमन करना अर्थात् अपने-अपने विषयों से इंद्रियों का रोकना यह इन्द्रियसंयम है।
तथा चौदह प्रकार के जीवसमासों का रक्षण करना प्राण संयम है। इस तरह इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम को जानना चाहिए तथा आगम के अनुरूप उनका अनुष्ठान करना चाहिए।
अब पंचाचार का उपसंहार करते हुए कहते हैं-
गाथार्थ-जो श्रमण अपनी आत्मा को दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों से निग्रह करने में समर्थ है वह क्लेश रहित होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।।४१९।।
आचारवृत्ति-इस प्रकार दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप-आचार और वीर्याचार के द्वारा जो
िनम्नलिखित चार गाथाएँ फलटन से प्रकाशित संस्करण में अधिक हैं-
णियदु व मरदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा।
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स।।
एवं दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याचारैरात्मानं निग्रहयितुं नियंत्रयितुं य: समर्थ: श्रवण: साधु: स गच्छति सििंद्ध धुतक्लेशो विधूताष्टकर्मा। एवं पंचाचारो व्याख्यात:।।४१९।।
इति वसुनन्दिविरचितायामाचारवृत्तौ पंचाचारविवर्णनं नाम
पंचम: प्रस्ताव: समाप्त:।।५।।
साधु अपनी आत्मा को नियंत्रित करने के लिए समर्थ है वह अष्टकर्मों को नष्ट करके सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यह पाँच आचारों का व्याख्यान किया गया है।
इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य कृत मूलाचार की
श्री वसुनंदि आचार्य कृत आचारवृत्ति नामक टीका में पंचाचार का
वर्णन करने वाला पाँचवाँ प्रस्ताव समाप्त हुआ।