सहस्रनाम स्तोत्र ( प्रथम अध्याय )
शंभु छंद
‘श्रीमान्’ आप अंतर अनंत सुख, ज्ञान वीर्य दर्शन श्रीपति।
बहिरंग समवसरणादि महा—वैभव प्रातिहार्यमयी श्रीपति।।
इन अन्तरंग बहिरंग श्री के, स्वामी प्रभु श्रीमान् बनें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१।।
प्रभु आप ‘स्वयंभू’ स्वयं हुये, निज में निज ज्ञान प्रगट करके।
नहिं गुरु की तनिक अपेक्षा थी, निज को गुरु स्वयं बना करके।।
निज द्वारा निज को निज में ध्या, स्वयमेव स्वयंभू आप बनें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२।।
प्रभु ‘वृषभ’ धर्मघन मेघ सतत् दिव्यध्वनि वर्षा करते हैं।
‘वृष’ धर्म अहिंसा लक्षण से ‘भा’ शोभित होते रहते हैं।।
अथवा भक्तों के लिये सदा इच्छित वर्षाकर वृषभ बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।३।।
‘शंभव’ शं-सुख भव-हो तुमसे इससे शंभव कहलाते हो।
अथवा ‘संभव’ सं-समीचीन भव-जन्म धरा मुस्काते हो।।
हे संभव शांतिमूर्ति प्रभु तुम वंदन करते हम शांत बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।४।।
‘शम्भू’ शं-परमानंदरूप सुख देने वाले आप प्रभो।
इंद्रिय विषयों से रहित अतींद्रिय सौख्य सुधारस लीन विभो।।
परमानंदामृत पीने की शक्ती दीजे हे नाथ! हमें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।५।।
आत्मा से हुये ‘आत्मभू’ हैं, आत्मा शुध बुद्ध स्वभावी है।
चिच्चमत्कार लक्षण परमैक, ब्रह्ममय सौख्य स्वभावी है।।
टंकोत्कीर्ण स्फटिकमणी, आत्मा भू-धरा पा़इ तुमने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।६।।
हे नाथ ‘स्वयंप्रभ’ आप स्वयं, प्रकृष्ट शोभते रहते हैं।
निज प्रभा-कांति से त्रिभुवन को भी, आप प्रकाशित करते हैं।।
मेरी निज आत्मप्रभा मुझको, मिल जावे गुणमणि तेज घने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।७।।
हे नाथ! आप ‘प्रभु’ हो सबके, स्वामी होने से इस जग में।
परिपूर्ण समर्थ नाथ तुमही, भक्तों के मनरथ भरने में।।
मैं स्वयं समर्थ बनूँ निज को, पाने से सब पुरुषार्थ बनें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।८।।
‘भोक्ता’ प्रभु आप सदा परमानंद—सुख के अनुभव कर्ता हैं।
निजके अनंत दृग ज्ञान वीर्य, सुखरूप चतुष्टय भर्ता हैं।।
निज आत्मा से उत्पन्न परम, आह्लाद सौख्य हो प्राप्त हमें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।९।।
हे नाथ ‘विश्वभू’ केवलज्ञान, अपेक्षा व्याप्त विश्व में हो।
अथवा भू-मंगल करे विश्व का, या वृद्धी भी करते हो।।
भू गत्यर्थक-ज्ञानार्थक है, त्रैलोक्य ज्ञान है नाथ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१०।।
‘अपुनर्भव’ नाथ पुनर्भव नहिं, प्रभु जन्म मरण से छूट चुके।
अथवा भव-रुद्र विष्णु ब्रह्मा, इन देवरूप नहिं हो सकते।।
अरिहंत सर्वज्ञ आप भगवन्, नहिं पुनर्जन्म धरते जग मे।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।११।।
‘विश्वात्मा’ आप विश्व को निज, सदृश गिनते विश्वात्मा हैं।
या विश्व-सुकेवल ज्ञानमयी, आत्मा-स्वरूप विश्वात्मा हैं।।
त्रिभुवनस्थित प्राणीगण को, निज सदृश गिना सु दयालु बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१२।।
प्रभु आप ‘विश्वलोकेश’ विश्वके-तीनलोक के जीवों के।
प्रभु ईश-नाथ बस एक आप, नहिं अन्य कोई भी बन सकते।।
जो खुद की रक्षा कर न सके, वो जग के ईश कभी न बनें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१३।।
हे नाथ! ‘विश्वतश्चक्षु’ आप, सब विश्व-लोक में व्याप्त हुआ।
चक्षू-केवल दर्शन प्रभु का, इससे प्रभु ने सब देख लिया।।
श्रुतचक्षू से केवलचक्षू, पाया जगदर्शी आप बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१४।।
‘अक्षर’ प्रभु क्षरण न होता है,नहिं चलित आप हो सकते हैं।
या अक्ष-इंद्रियों को मन को, वश में कर अक्षर बनते हैं।।
तुम नाम स्तुति करते करते, मेरा भी अक्षर नाम बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१५।।
प्रभु आप ‘विश्ववित्’ ज्ञानरश्मि से, विश्व माहिं सुप्रविष्ट हुये।
सब विश्व-चराचर जग जाना, अतएव विश्ववित् प्रगट हुये।।
यह आत्मा ज्ञानस्वभावी है, मुझ अल्पज्ञान भी पूर्ण बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१६।।
प्रभु आप ‘विश्वविद्येश’ आपकी, विद्या विश्वा-सकला है।
वह सकल विमल कैवल्य ज्ञानमय, पूर्ण स्वरूप अविकला है।।
तुम गुण गा गाकर भव्य जीव, सब विद्याओं के ईश बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१७।।
प्रभु ‘विश्वयोनि’ संपूर्ण पदार्थों, की उत्पति के कारण हो।
संपूर्ण पदार्थों के उपदेशक, विश्वयोनि जगतारण हो।।
तुम नाम मंत्र जपते जपते, भाक्तिक जन तुम सम नाथ बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१८।।
प्रभु आप ‘अनश्वर’ कभी नाश, नहिं हो सकता युग युग तक भी।
आत्मा के नाशक गुणघातक, कर्मों का नाश किया है भी।।
प्रभु मुझे अनश्वर पद दे दो, इस हेतु वंदना करूँ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१९।।
प्रभु आप ‘विश्वदृश्वा’ सारे, जग को इक क्षण में देख लिया।
तुम गुणस्तुति करते करते, भव्यों ने तुमको देख लिया।।
मैं भी तुमको अवलोकन कर, निज को देखॅूँ यह युक्ति बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२०।।
‘विभु’ आप विशेष करें मंगल, भवि के तारन में समरथ हैं।
निज समवसरण में प्रभू राजते, लोकालोक विजानत हैं।।
निज केवलज्ञान किरण से लोका लोक व्याप्त कर विभू बनें।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२१।।
‘धाता’ चहुँगति में पड़े जीव को, निकाल कर मुक्तिपद में।
धर देते अथवा सर्व प्राणियों, का पालन करते जग में।।
प्रभु परम कारुणिक आप सर्व, रक्षा कर धाता स्वयं बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२२।।
‘विश्वेश’ विश्व-त्रैलोक्य ईश-स्वामी त्रिभुवन के रक्षक हो।
उपदेश अहिंसामयी दिया, सबके बंधू प्रतिपालक हो।।
प्रभु धर्म आपका विश्व धर्म, भवसागर तारण सेतु बने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२३।।
प्रभु आप ‘विश्वलोचन’ त्रिभुवन, प्राणी के चक्षु समान कहें।
सबको हित का उपदेश दिया, इस कारण सबके नेत्र कहें।।
अथवा सब जगका इक क्षण में, अवलोकन करते आप घने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२४।।
प्रभु आप ‘विश्वव्यापी’ कण कण में, ज्ञान आपका व्याप रहा।
त्रिभुवन के सर्वपदार्थ आप, जाने ऐसा विज्ञान लहा।।
नहिं आत्म प्रदेशों से व्यापक, तन में ही रहें प्रदेश घने।
मैं प्रभु नामावलि को वंदूं, मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२५।।