कितना ही कुशल कलाकार क्यों न हो, एक ही बार की असावधानी से अपनी प्रतिष्ठा से हाथ धो बैठता है; कितना ही कुशल लक्ष्य-वेधक क्यों न हो, ध्यान बटते ही निशाना चूक जाता है।… हाँ! तो सुदत्त भी एक कलाकार था-चौर्य-कला में सिद्धहस्त! किन्तु…संभवतः अनहोनी उस दिन अपना रूप बदल कर ही आई होगी; क्योंकि अभी तो राज्य-शासन की आँखों में सदा धूल झोंकने वाला वही सुदत्त सहसा राजनीति चक्रव्यूह में बुरी तरह फस गया और रंगे हाथों पकड़ा गया…।इसमें सन्देह नहीं कि चोर की चौर्य-कला जब घुटने टेक देती है, तो मिथ्या मायाचारी मानो कवच बनकर उसकी रक्षा करने सेवा में उपस्थित हो जाती है…राजा ने प्रश्न किया- ‘‘वर्षों से परेशान करने के पश्चात् आखिर आज हाथ में आ ही गये; धन तो खूब जोड़ा है चुरा-चुरा कर, पर पहिनने को फटी हुई कोपीन भी नहीं हैं; अवश्य ही किसी पूँजीपति धन्नासेठ की छत्रछाया में तुम्हारे ये जघन्य अपराध पनपते रहे होंगे। भला,साफ-साफ तो बताओ किनके यहाँ रखी है तुम्हारी अपार दौलत…?’’ ‘‘…पूँजीपति हेमदत्त श्रेष्ठी, महाराज!’’ चोर के मुँह से अनायास ही निकला ‘‘हूँ…।’’ भोलापन सदैव से ही छला जाता आ रहा है-छलनाओं द्वारा। इसलिये यह कथन कोई नवीनता नहीं रखता कि राजा के सामने लाये जाते ही श्रेष्ठि हेमदत्त ने बचाव के लिये सत्यता की कोई दलील उनके समक्ष उपस्थित न की हो। उन्होंने अति विनम्र शब्दों में कहा- ‘‘राजन् ! जब इसकी शक्ल भी मैंने आज ही देखी है तो इसके साथ मेरा किसी प्रकार का संबंध कैसे संभव है? और तब जब कि वह ऐसे लोक निन्दित घृण्य कार्य को अपनाता है।’’… ‘‘नरेश! जिनदेव उपासक जैन फूक-फूक कर पैर रखने वाले होते हैं-फिर मैं ही क्यों यह आत्मघाती अनर्थ करने का दुस्साहस करता ?.. मैं निर्दोष हूँ-निरपराध हूँ – मुझ पर प्रतीति लाईये और मुक्त कीजिये।’’… राजा विवेकी था;श्रेष्ठी की सीधी सच्ची सरल बातों ने उसके हृदय पर गहरा प्रभाव डाला।परन्तु इस प्रभाव का चोर की मिथ्यावादिता द्वारा तत्काल ही अभाव हो गया! जल में खींची हुई गहरी रेखा के समान ही सेठ का प्रभाव तो दूर उल्टे चौर – कर्म को बढ़ावा देने का दोष भी सेठ जी के मत्थे मढ़ा गया।… गहरी सिसकियें भरते हुये चोर बोला-‘‘सेठजी! धर्म का भी डर नहीं रहा आपको ?‘‘आप डुबन्ते पण्डे, ले डूबे जजमान-‘‘आप डूबते हैं तो भले ही डूब जायें साथ में मुझ गरीब को क्यों घसीटते हैं? मेरा परिवार तो भूखों मर जावेगा।आप को क्या ? आप मर भी जायें तो भी मजे में गुजारा चल सकता है-आप के परिवार का! सेठजी! न्याय अन्याय को न देखते हुए; रोती हुई आत्मा का मँुह बन्द करते हुए तथा सब कुछ देखने वाले परमात्मा की आँखे फोड़ते हुए मैंने अपना यह शरीर तुम्हारे हाथ बेच दिया था जैसा तुमने कहा, वैसा मैंने किया । क्या यह आज उसी का पारितोषिक है, जो आप स्वयं बचकर मुझे बरबाद करने की सोच रहे हैं? चोर अपनी बात पूरी भी न कह पाया था कि राजा ने तत्काल ही आज्ञा दी-‘‘ कोटपाल! ले आओ इसे; मैं अब अधिक सुनना नहीं चाहता इस सेठ की बात! यह राजद्रोही है; चोरों का सरदार है।… यहाँ से आठ मील दूर बियाबान जंगल है और उसमें जो घोर तिमिर ग्रस्त बावड़ी है,उसमें इस भयंकर अपराधी के हाथ-पैर बांध कर डलवा दिया जाये।’’ कहने की देर थी, कि सेठ को यथास्थान ले जाया गया और निर्दयता से उस भयंकर अंध-कूप में छोड़ दिया गया। हमारे कुछ पाठक सत्य की दुर्दशा और असत्य की विजय देखकर मन में कुछ कुढ़ रहे होंगे परन्तु अन्ततोगत्वा ‘ सत्यमेव जयते’ का शाश् वत स्वर्ण सिद्धान्त भी भला क्या कभी झूठ हो सकता है।सत्य के शासन में देर है…अन्धेर नहीं…। अन्ध-कूप में क्षुधित-दुखित-प्रपीड़ित पड़े सेठ जी को तीन दिन तीन रात हो गये। जीवन की एक-एक घड़ी वर्ष बन कर कटती। सोचते-‘‘इस इंच-इंच रेंगने वाली वीभत्स मृत्यु से तो झपट कर आने वाली मौत ही श्रेयस्कर है।’’…परन्तु नहीं, सदा सत्य का पालन करने वाला व्यक्ति सम्यग्दृष्टि ही होता है। शारीरिक वेदना का अनुभव न होने देने के लिये हेमदत्त श्रेष्ठि आत्मध्यान में तल्लीन हो गए और प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की आदर्श झाँकी उनकी बंद आँखों मे चित्रपट की भाँति झूलने लगी।…महाप्रभावक श्री भक्तामर जी पर उनकी अटूट आस्था थी।…ज्यों ही उन्होंने भक्तामर के प्रथम द्वितीय श्लोकों का स्मरण उनकी ऋद्धि और मंत्र सहित किया कि तत्काल एक दैदीप्यमान ज्योति से उनकी बन्द आँखे खुल गईं।…और उन खुली हुई आँखों ने देखा कि सामने एक देवी हाथ जोड़े खड़ी है।…अपने पर सेठ जी ने जब दृष्टि डाली तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। रत्नजटित सिंहासन पर विविध वस्त्रालंकृत और नाना प्रकार की विभूतियों से युक्त अपने को पाया!! ‘‘तुम कौन हो ?’’- हेमदत्त जी बोले। ‘‘शासन देवी विजया’’- सौन्दर्य – प्रभा बिखेरती हुई देवी बोली। ‘‘तुम यहाँ इस अन्ध – कूप में क्यों आई ? ’’ ‘‘तुम्हारे इस दो श्लोकों की ऋद्धि वं मंत्र मोहिनी के वशीभूत होकर।’’ इतना कह कर देखते ही देखते वह कपूर की भाँति आँखों से ओझल हो गई। लाश देख कर तो गिद्ध ही झपटते हैं।…राजकर्मचारियों ने सोचा-चलो उस मरणासन्न श्रेष्ठी के पास चलें, बन्धन मुक्ति का प्रलोभन दिखाकर उससे कुछ स्वर्ण-मुद्रायें ऐंठें।..पर वहाँ पहँच कर जिन भक्त हेमदत्त श्रेष्ठि का जो अनोखा ठाठ देखा तो होश ठिकाने न रहे।…उल्टे पैरों भागे। हाँफते-हाँफते राजा ने निवेदन किया- ‘‘हे उज्जयनी नरेश! सेठ हेमदत्त जी अन्ध-कूप में पड़े सड़ रहे हों सो बात नहीं।’’ साश्चर्य राजा बोला -‘‘तो फिर?’’ राज कर्मचारी एक ही साथ एक स्वर में बोले -‘‘वह तो जंगल में मंगल कर रहे हैं’’ इसके पश् चात् सनातन जैन-धर्म की कितनी प्रभावना हुई होगी-यह लिखने की नहीं, सोचने -समझने की चीज है।