इस चातुर्मास में क्षुल्लिका चन्द्रमती जी मेरे पास रहती थीं। उनके स्वास्थ्य की अस्वस्थता में मैं स्वयं परिचर्या करती रहती थी। आचार्य महाराज भी वैयावृत्य के बारे में बहुत ही प्रोत्साहित किया करते थे। उस चातुर्मास में रांची के विद्वान् पण्डित शिवराम जी आचार्यश्री के दर्शनार्थ आने वाले थे। तभी जयपुर में उनके विरोध में मीटिंग हुई और यह विचार बनाया गया कि- ‘‘इन्हें अपमानित करके यहाँ से भेजा जाये।’’
चूंकि इन्होंने कुछ ही महीनों पूर्व बम्बई में शास्त्र की गद्दी पर बैठकर यह कह दिया था कि-‘‘महिलायें आहार नहीं दे सकती हैं।’’ इस पर नेमिसागर जी मुनिराज ने उपवास करना शुरू कर दिया था, क्योंकि यह वक्तव्य आगम के विपरीत था। तब समाज में विरोध की लहर दौड़ जाने से जगह-जगह इस विषय के आगम प्रमाण भेजने हेतु तार दिये गये थे।
यहाँ आचार्य वीरसागर जी के संघ में भी तार द्वारा समाचार आया था और आचार्यदेव ने अनेक प्रमाण भिजवाये थे तथा परम तपस्वी मुनिश्री नेमिसागर जी के लिए उपवास समाप्त करने की सूचना भी भिजवाई थी। यही कारण था कि इनकी इस आगम विरुद्ध विचारधारा से इनके प्रति जैन जनता में क्षोभ व्याप्त था। प्रातःकाल जब आचार्य श्री को यह बात विदित हुई तब उन्होंने श्रावकों को बुलाकर आदेश दिया कि- ‘‘नहीं, गुरुदर्शन के लिए अपने यहाँ शत्रु भी आवे तो उसे आदर देना चाहिए।
उसके अपमान की बात नहीं सोचना।’’ अतः गुरुआज्ञा के आगे सबको शांत होना पड़ा था। जब वे पंडित महोदय यहाँ आये तो उन्होंने भक्ति से गद्गद हो आचार्यदेव को नमोस्तु किया। आचार्यदेव ने भी उन्हें शुभाशीर्वाद दिया। अनन्तर चर्चायें शुरू हो गई। मध्य में प्रासंगिक चर्चा भी आ गई, आचार्यश्री के समक्ष अन्य किसी ने आज्ञा लेकर यह प्रश्न कर दिया कि-‘‘पंडित जी! आपने किस आधार से यह कह दिया कि स्त्रियाँ साधुओं को आहार नहीं दे सकतीं?’’
पंडित जी ने कहा-‘‘मैं प्रथमानुयोग के उदाहरणों को प्रमाण नहीं मानता हूँ। मुझे विधान वाक्य दिखाइये।’’ उन दिनों मैं जिनमती को मूलाचार पढ़ा रही थी तथा इससे पहले ही चर्चा के लिए विधान वाक्य ढूँढकर रख लिये गये थे। तभी आचार्यश्री ने उन्हें मूलाचार१, आचारसार आदि के सबल प्रमाण दिखाये। दायकदोष में महिलाओं के बारे में स्पष्टीकरण किया गया है। यथा-
सूदी सुंडी रोगी मदयणपुंसय पिसायणग्गो य।
उच्चारपंडिदवंतरूहिरवेसी समणी अंगमक्खीया।।४९।।
सूतिः या बालं प्रसाघयति। वेश्या दासी। श्रमणिकाऽऽर्यिका अथवा पंचश्रमणिका रक्तपटिकादयः। अंगम्रक्षिका अंगाभ्यंगनकारिणी। तथा-
अतिबाला अतिबुड्ढा घासत्ती गब्भिणी य अंधलिया।
अंतरिदा व णिसण्णा उच्चत्था अहव णीचत्था।।५०।।
अतिबाला अतिमुग्धा, अतिवृद्धा, अतीवजराग्रस्ता। ग्रासयन्ती भक्षयन्ती अन्तरिता कुड्यादिभिर्व्यवहिता। आसीनोपविष्टा। उच्चस्था उन्नतप्रदेशस्थिता। नीचस्था निम्नप्रदेशस्थिता। एवं पुरुषों वा वनिता च यदि ददाति तदा न ग्राह्यं भोजनादिकमिति।
ये मूलाचार की गाथायें श्री कुन्दकुन्द देव कृत हैं एवं टीकाकार सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्यकृत हैं। मूलगाथा में ही महिलाओं को लिया है कि सूती, वेश्या, दासी, आर्यिका, लालवस्त्र धारण करने वाली सन्यासिनी, तेल मालिश करने वाली, अतिबाला, अतिवृद्धा, खाती हुई महिला, पाँच महीने वाली गर्भवती स्त्री, अंधी या काणी, दीवाल आदि से छिपकर खड़ी हुई, ऊँचे स्थान में स्थित या नीचे स्थान पर स्थित ऐसी स्त्रियाँ आहार देवें तो मुनि न लेवें अन्यथा उन्हें ‘दायक दोष’ लगता है।
इससे अर्थापत्ति से यह अर्थ स्वयं हो जाता है कि इनसे अतिरिक्त महिलायें आहार देवें तो मुनि लेते हैं, उन्हें कोई दोष नहीं है। भला इन गाथाओं से बढ़कर और क्या विधान वाक्य होंगे? अर्थात् यह मूलाचार का कथन ही तो विधान वाक्य है। बहुत देर तक चर्चा चलती रही। जयपुर शहर के विद्वानों में पंडित इन्द्रलाल जी शास्त्री आदि भी आ गये थे किन्तु आचार्यश्री के समक्ष प्रायः सभी विद्वान् मौन थे।
सब कुछ प्रमाण दिखाने के अनंतर भी पंडित जी ने अंत में यही कहा- ‘‘यह विषय अभी साध्य की कोटि में है, सिद्ध नहीं हुआ है।’’ यद्यपि उनका यह दुराग्रह हठवाद था, फिर भी सभी साधु-साध्वी हंसमुख मुद्रा से ही उनसे वार्तालाप करते रहे। किन्हीं ने किंचित् भी रोष व्यक्त नहीं किया। पंडित जी को ससम्मान विदा कर देने के बाद हम लोगों को आश्चर्य अवश्य हुआ तथा खेद भी कि-‘‘यह विद्वान् होकर भी कितना कदाग्रही (हठाग्रही) है।
वास्तव में मिथ्यात्व के उदय में सत्य बात भी असत्य ही प्रतीत होती है। ‘‘महुरं खु रसं अहा जरिदौ’’ यह गोम्मटसार का वाक्य याद आ जाता है कि पित्तज्वर से पीड़ित मनुष्य को मधुर रस-दूध भी क़ड़ुवा ही लगता है। यह उस दूध या व्यक्ति का दोष नहीं है प्रत्युत् ज्वर का ही दोष है।’’ ऐसे-ऐसे अनेक प्रसंगों से आचार्यश्री के चरण सान्निध्य में मुझ जैसे नव दीक्षित साधुओं को आगम के तलस्पर्शी रहस्य का ज्ञान मिलता रहता था।
आचार्यदेव गुरुवर श्रीवीरसागर जी महाराज तो दिन पर दिन कमजोर चल ही रहे थे अतः संघस्थ क्षुल्लक चिदानंदसागर, जो कि संघ में उस समय एक अच्छे प्रतिभावान् साधु थे सभी चाहते थे कि ये आचार्यदेव के करकमलों से मुनि दीक्षा ले लेवें अतः सभी लोग प्रायः उनके पीछे पड़े रहते थे।
‘‘क्षुल्लक जी! आप तो मुनि बनने के योग्य उत्तम पात्र हो, दीक्षा क्यों नहीं ले लेते?’’ मैं तो उन्हें मुनि बनने की प्रेरणा शुरू से ही दे रही थी जबसे संघ में उनका निकट परिचय हुआ था। उनकी धर्मपत्नी बसंतीबाई भी कलकत्ते से संघ के दर्शनार्थ यहाँ आई हुई थीं। एक दिन उन्होंने भी कहा-‘‘महाराज जी! जब मैंने आपको दीक्षा के लिए स्वीकृति दे दी तब आप मुनि क्यों नहीं बन जाते हैं? क्यों लंगोटी-चादर में मोह कर रक्खा है?’’ उनके ये प्रेरणास्पद वाक्य सुनकर भी क्षुल्लक जी हँसते रहे। टस से मस नहीं हुये। आचार्य वीरसागर जी उन्हें बहुत प्रेरणा दिया करते थे।