चाल-हे दीनबंधु……….
हे नाथ ‘दिव्यभाषापति’, आप कहाये।
अठरा महाभाषा व लघू, सात सौ गाये।।
तुम नाम मंत्र भक्ती, भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके, अज्ञान हरेगी।।१०१।।
हे नाथ ‘दिव्य’ तुम हो, अतिशय सुरूप से।
नर सुर से अधिक सुंदर, तन आपका दिपे।।तुम.।।१०२।।
हे ‘पूतवाक्’ आपकी, वाणी पवित्र है।
सब दोष से विवर्जित, अतिशय विशुद्ध है।।तुम.।।१०३।।
हे नाथ ‘पूतशासन’, तुम मत पवित्र है।
वह पूर्व अपर के विरोध, दोष रहित है।।तुम.।।१०४।।
‘पूतात्मा’ प्रभु आपकी, आत्मा पवित्र है।
अरु आप भव्यजीव को, करते पवित्र हैं।।तुम.।।१०५।।
हे नाथ ‘परमज्योति’ आप, ज्योतिपुंज हैं।
उत्कृष्ट ज्ञानज्योति रूप, तेजपुंज हैं।।तुम.।।१०६।।
हे नाथ ‘धर्माध्यक्ष’ चरित, के अधीश हो।
दशधर्म के अध्यक्ष, ज्ञान के अधीश हो।।तुम.।।१०७।।
इंद्रियजयी दमी मुनी के, ईश आप हैं।
हे नाथ ‘दमीश्वर’ प्रसिद्ध, मुक्तिनाथ हैं।।तुम.।।१०८।।
संसार मोक्ष संपदा, लक्ष्मी के पती हों।
हे नाथ आप ‘श्रीपति’, मुक्ती के पती हो।।
तुम नाम मंत्र भक्ती, भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।१०९।।
‘भगवान्’ आप ज्ञान व, ऐश्वर्य पूर्ण हो।
सुरपूज्य आठ प्रातिहार्य, विभव पूर्ण हो।।तुम.।।११०।।
‘अर्हंत’ इंद्र आदि से, पूजा को प्राप्त हो।
अरि रज१ रहस्य चार कर्म, रहित आप हो।।तुम.।।१११।।
हे नाथ ‘अरज’ आप,कर्मधूलि हीन हो।
ज्ञानावरण व दर्शना—वरण विहीन हो।।तुम.।।११२।।
हे नाथ ‘विरज’ आप, कर्मरज विहीन हो।
भव्यों की कर्मधूलि नाश, में प्रवीण हो।।तुम.।।११३।।
हे नाथ ‘शुचि’ ब्रह्मचर्य, से पवित्र हो।
निज शुद्ध आत्म तीर्थ स्नान, से पवित्र हो।।तुम.।।११४।।
हे, ‘तीर्थकृत्’ भवोदधि से, भव्य तारते।
श्रुत द्वादशांग तीर्थ के, कर्ता बखानते।।तुम.।।११५।।
संपूर्ण मोह आवरण व, विघ्न२ नाशिया।
केवल्य पाय ‘केवली’ हो, मुनि भाषिया।।तुम.।।११६।।
‘ईशान’ आप अनंत शक्ति, से समर्थ हो।
अहमिंद्र आदि के भि ईश, जग प्रसिद्ध हो।।तुम.।।११७।।
‘पूजार्ह’ पांचविधा, अर्चना के योग्य हो।
मह कल्पतरु ऐन्द्रध्वज, आदि पूज्य हो।।तुम.।।११८।।
सब कर्म मल कलंक धोय, शुद्ध आत्मा।
हे नाथ ‘स्नातक’ सुज्ञान, चंद्रपूर्णिमा३।।तुम.।।११९।।
हे नाथ ‘अमल’ देह, मलादि विहीन हो।
नैर्मल्य आप राग आदि, दोष क्षीण हो।।तुम.।।१२०।।
‘अनंतदीप्ति’ नाथ, ज्ञानदीप्ति धारते।
निजदेह दीप्ति से समस्त, ध्वांत वारते।।तुम.।।१२१।।
प्रभु पांच विधे ज्ञान, से ‘ज्ञानात्मा’ कहे।
वैवल्यज्ञानदेहमयी, आत्मा कहे।।तुम.।।१२२।।
हे नाथ ‘स्वयंबुद्ध’, स्वयं ही प्रबुद्ध हो।
गुरु की सहाय बिन समस्त, ज्ञान युक्त हो।।तुम.।।१२३।।
‘प्रजापति’ त्रिलोक जीव, रक्षते पती।
संपूर्ण प्रजा को सदा, पालें प्रजापती।।तुम.।।१२४।।
हे नाथ ‘मुक्त’ कर्म, बंधनादि मुक्त हों
संपूर्ण दोष से विमुक्त, भ्रमण मुक्त हो।।तुम.।।१२५।।
चाल—नंदीश्वर पूजा
प्रभु ‘शक्त’ नाम है आप, परिषह सहन किया।
तुम भक्ति करे निष्पाप, इससे शरण लिया।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१२६।।
प्रभु ‘निराबाध’ उपसर्ग, बाधा विरहित हो।
निज भक्तों को सुख स्वर्ग, देते शिवप्रद हो।।तुम.।।२७।।
प्रभु ‘निष्कल’ देह विमुक्त, काल कला हीना।
विज्ञान कलागुण युक्त, कवलाहार बिना।।तुम.।।१२८।।
‘भुवनेश्वर’ त्रिभुवन ईश, भविजन के त्राता।
मैं जजूँ नमाकर शीश, पाऊँ सुख साता।।तुम.।।१२९।।
हे नाथ ‘निरंजन’ आप, कर्मांजन शून्या।
सब द्रव्यभाव नोकर्म, विरहित सुख पूर्णा।।तुम.।।१३०।।
हे ‘जगज्योति’ जिनराज, केवलज्ञान लहा।
सब लोक अलोक प्रकाश, अनुपम ज्योतिमहा।।तुम.।।१३१।।
हे नाथ ‘निरुक्तोक्ती’ य, सार्थक वचन धरो।
सब पूर्वापर अविरोधि, हित उपदेश करो।।तुम.।।१३२।।
हे नाथ ‘निरामय’ आप, व्याधिविवर्जित हो।
पूजत ही स्वास्थ्य सुलाभ, भविजन हर्षित हो।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१३३।।
‘अचलस्थिति’ हे जिननाथ, तुम थल अचल कहा।
हो अचल आत्म थल वास, पूजूँ हरस महा।।तुम.।।१३४।।
‘अक्षोभ्य’ नाथ नहिं क्षोभ, तुममें कभी हुआ।
सब मिटे चित्त का क्षोभ, ये ही विनय किया।।तुम.।।१३५।।
‘कूटस्थ’ कूट-लोकाग्र, ऊपर तिष्ठे हो।
करिये मुझ मन एकाग्र, ईप्सित देते हो।।तुम.।।१३६।।
हे नाथ आप ‘स्थाणु’, गमनागमन नहीं।
है लोकशिखर विश्राम, काल अनंत सही।।तुम.।।१३७।।
प्रभु ‘अक्षय’ क्षय नहिं होय, काल अनंते भी।
या इंद्रिय सुख नहिं कोय, आप अतीन्द्रिय भी।।तुम.।।१३८।।
हे नाथ! ‘अग्रणी’ आप, जग में मुख्य सही।
ले जाते तुम लोकाग्र, भवि को सौख्य मही।।तुम.।।१३९।।
हे नाथ ‘ग्रामणी’ आप, जग में भव्यों को।
करवाते मुक्ती प्राप्त, निज सुख दो मुझको।।तुम.।।१४०।।
भविजन को हितपथ माहिं, ले जाते ‘नेता’।
मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाय, शिवपथ के नेता।।तुम.।।१४१।।
प्रभु द्वादशांगमय शास्त्र, रचना करते हो।
इसलिये ‘प्रण्ता’ आप, हित उपदिशते हो।।तुम.।।१४२।।
प्रभु न्यायशास्त्र उपदेश, करते आप सदा।
तुम ‘न्यायशास्त्रवित्’ नाम, कहते इंद्र मुदा।।तुम.।।१४३।।
नित धर्मामृत उपदेश, देते गुरु ‘शास्ता’।
हित अनुशास्ता परमेश, देवो मुझ साता।।तुम.।।१४४।।
प्रभु ‘धर्मपती’ तुम नाम, धर्माधीश्वर हो।
दश धर्मों के तुम धाम, शिवप्रद ईश्वर हो।।तुम.।।१४५।।
प्रभु चउविध१ धर्मसमेत, धम्र्य कहाते हो।
रत्नत्रय२ जीवदयादि३, वस्तुस्वभाव४ कहो।।तुम.।।१४६।।
तुम आत्मा धर्मस्वरूप, शिवफल प्राप्त किया।
‘धर्मात्मा’ नाम अनूप, सुरपति आन दिया।।तुम.।।१४७।।
प्रभु ‘धर्मतीर्थकृत’ आप, धर्म सुतीर्थ किया।
सम्यक् चारितमय तीर्थ, का उपदेश दिया।।तुम.।।१४८।।
प्रभु ‘वृषध्वज’ आप प्रसिद्ध, धर्मध्वजा धारो।
तुम वृषभ चिन्ह से सिद्ध, पाप सु परिहारो।।तुम.।।१४९।।
वृष-धर्म अहिंसारूप, उसके स्वामी हो।
हो ‘वृषाधीश’ निज रूप, अंतर्यामी हो।।तुम.।।१५०।।
नाथ ‘वृषकेतु’ आप, धर्म की ध्वजा धरो।
जैन धर्म की ध्वजा, त्रिलोक में भि फरहरो।।
आप नाममंत्र की, सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो, जहाँ पे दु:ख रंच ना।।१५१।।
कर्म शत्रु नाश हेतु, धर्मशास्त्र धारते।
नाथ! ‘वृषायुध’ अनंत, जन्म को निवारते।।आप.।।१५२।।
आप ‘वृष’ नाम धारि, धर्मरूप विश्व में।
धर्ममय पियूष वृष्टि—कारि मेघ भव्य में।।आप.।।१५३।।
नाथ ‘वृषपती’ दया—मयी सुधर्म के पती।
आप शर्ण पाय भव्य, लेय पंचमी गती।।आप.।।१५४।।
नाथ ‘भतृ’ आप भव्य, जीव पोषते सदा।
दु:ख से निकाल श्रेष्ठ, सौख्य में धरें सदा।।आप.।।१५५।।
नाथ ‘वृषभांक’ बैल, चिन्ह आपका कहा।
श्रेष्ठ धर्म चिन्ह से, समस्त को सुखी किया।।
आप नाममंत्र की, सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो, जहाँ पे दु:ख रंच ना।।१५६।।
नाथ ‘वृषोद्भव’ सुआप, धर्म को जनम दिया।
धर्म से हि तीर्थनाथ, होय जन्म धारिया।।आप.।१५७।।
भो ‘हिरण्यनाभि’ स्वर्ण, रूप नाभि धारते।
आप गर्भ पूर्व इन्द्र, स्वर्णवृष्टि कारते।।आप.।।१५८।।
‘भूत आतमा’ जिनेश! सत्यरूप आतमा।
आप पाद शीश नाय, होउं अंतरातमा।।आप.।।१५९।।
‘भूभृत् प्रभो! समस्त, भव्यजीव पोषते।
आप शर्ण आय साधु, सर्व कर्म धोवते।।आप.।।१६०।।
‘भूत भावनो’ सुआप, भावना सुउत्तमा।
हाथ जोड़ शीश नाय, भव्य जांय मुक्ति मा।।आप.।।१६१।।
नाथ ‘प्रभव’ आप मुक्ति, प्राप्ति हेतु भव्य को।
आप जन्म है प्रशंस, सौख्य हेतु विश्व को।।आप.।।१६२।।
नाथ! ‘विभव’ भव विमुक्त, भव्य भव विनाशते।
भव विशिष्ट पाय धर्म—चक्र को चलावते।।आप.।।१६३।।
नाथ! ‘भास्वान्’ आप, ज्ञानदीप्ति रूप हो।
आत्म को प्रकाश्य भव्य, को प्रकाश हेतु हो।।आप.।।१६४।।
नाथ! ‘भव’ उत्पत्ति व्यय व, ध्रौव्य रूप हो।
भव्य चित्त मांहि होय, पापपंक धोत हो।।आप.।।१६५।।
‘भाव’ आप चित्स्वरूप, स्वात्म में हि लीन हो।
साधुवृन्द के हृदय, निलीन दु:ख हीन हो।।आप.।।१६६।।
प्रभो! ‘भवांतको’ चतु—र्गती भवों कुनाशिया।
भव्य के अनंतभव, क्षणेक में विनाशिया।।आप.।।१६७।।
भो! ‘हिरण्यगर्भ’ गर्भ, पूर्व स्वर्ण वर्षते।
आपके पिता कि जीत, ना किसी से हो सके।।आप.।।१६८।।
‘श्रीगरभ’ सुआप, अंतरंग नंतसंपदा।
श्री सु आदि देवियों ने, मात सेव की मुदा।।आप.।।१६९।।
भो! ‘प्रभूतविभव’ आप—का विभव महान है।
तीन लोक साम्राज्य, पाय सुख निधान हैं।।आप.।।१७०।।
नाथ! ‘अभव’ आप जन्म, ना धरें कभी यहां।
आप पाद सेय भव्य, जन्म नाशते यहाँ।।आप.।।१७१।।
नाथ! ‘स्वयंप्रभु’ आप, ही स्वयं समर्थ हैं।
सर्व कर्म नाश हेतु, आप पूर्ण दक्ष हैं।।आप.।।१७२।।
प्रभो! ‘प्रभूतातमा’, सुआप आतमा यहाँ।
ज्ञान से समस्त लोक, व्यापता सुखावहा१।।आप.।।१७३।।
‘भूतनाथ’ सर्वजीव, के हि आप नाथ हो।
आप भक्ति से मुनीश, वृंद भी सनाथ हों।।आप.।।१७४।।
हो ‘जगत्प्रभु’ त्रिलोक, स्वामि हो समर्थ हो।
सर्व सौख्यदान हेतु, आप पूर्ण दक्ष हो।।आप.।।१७५।।
‘सर्वादि’ सर्व-जग आदी। तुमसे सृष्टी उत्पादी।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७६।।
हे नाथ! ‘सर्वदृक्’ तुम हो। सब वस्तु देखते प्रभु हो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७७।।
प्रभु ‘सार्व’ सभी को पालें। सबका हित करने वाले।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७८।।
‘सर्वज्ञ’ सर्व जग जानो। त्रैलोक्य त्रिकालिक जानो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७९।।
प्रभु तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ हो। सब कुमतों के मर्दक हो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८०।।
‘सर्वात्मा’ तुम अंतर में। सब वस्तु झलकती क्षण में।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८१।।
प्रभु आप ‘सर्वलोकेशा’। तिहुंलोक अलोक अधीशा।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८२।।
प्रभु आप ‘सर्वविद्’ मानें। इक क्षण में सबको जानें।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८३।।
प्रभु ‘सर्वलोकजित्’ तुम हो। पणविध संसार विजित् हो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८४।।
प्रभु ‘सुगति’ मोक्षगति सुंदर। कैवल्यज्ञान उत्तम धर।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८५।।
‘सुश्रुत’ अतिशायि प्रसिद्धा। सब भावश्रुतों के धर्ता।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८६।।
‘सुश्रुत्’ सब अरज सुना है। भव्यों हित मार्ग भणा है।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८७।।
प्रभु आप वचन उत्तम हैं। अतएव ‘सुवाक्’ प्रथम हैं।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८८।।
प्रभु ‘सूरि’ सभी के गुरु हो। सब विद्याओं के धुरि हो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८९।।
‘बहुश्रुत’ सब श्रुत के ज्ञानी। तुमसे प्रकटी जिनवाणी।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९०।।
‘विश्रुत’ त्रिभुवन विख्याता। श्रुत बिना चराचार ज्ञाता।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९१।।
‘विश्वत:पाद’ तम घाती। तुम ज्ञान किरण जग व्यापी।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९२।।
प्रभु ‘विश्वशीर्ष’ सिरताजो। तुम लोक शिखर पर राजो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९३।।
प्रभु ‘शुचिश्रवा’ तुम कर्णा। भवि वचन सुनें दें शर्णा।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९४।।
प्रभु तुम ‘सहस्रशीर्षा’ हो। आनन्त्य सुखी कीर्ता हो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९५।।
‘क्षेत्रज्ञ’ क्षेत्र-आत्मा को। जाना सब पर आत्मा को।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९६।।
प्रभु ‘सहस्राक्ष’ जग मानें। आनन्त्य पदार्थ सुजानें।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९७।।
प्रभु ‘सहस्रपात्’ जगव्यापा। तुम बल अनंत जगख्याता।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९८।।
‘भूत भव्यभवद्भर्ता’ हो। त्रैकालिक सुख कर्ता हो।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९९।।
‘विश्वविद्यामहेश्वर’ तुम ही। सब विद्या के ईश्वर ही।
तुम नाममंत्र मैं वंदूं, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।२००।।
दिवभाषापति से लेकर के, सुविश्वविद्यामाहेश्वर तक।
सौ नाम मंत्र तुम जपने से, शतखंड खंड हो जावें अघ।।
मैं अतिशय भक्ती श्रद्धा से, तुम नाम मंत्र को नित वंदूं।
नित आतम अमृतरस पीकर, सब जन्म मरण दुख को खंडूं।।२।।
इति श्रीदिव्यादिशतम्।