जिनसहस्रनाम स्तोत्र (द्वितीय अध्याय)
चाल-हे दीनबंधु……….
हे नाथ ‘दिव्यभाषापति’, आप कहाये।
अठरा महाभाषा व लघू, सात सौ गाये।।
तुम नाम मंत्र भक्ती, भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके, अज्ञान हरेगी।।१०१।।
हे नाथ ‘दिव्य’ तुम हो, अतिशय सुरूप से।
नर सुर से अधिक सुंदर, तन आपका दिपे।।तुम.।।१०२।।
हे ‘पूतवाक्’ आपकी, वाणी पवित्र है।
सब दोष से विवर्जित, अतिशय विशुद्ध है।।तुम.।।१०३।।
हे नाथ ‘पूतशासन’, तुम मत पवित्र है।
वह पूर्व अपर के विरोध, दोष रहित है।।तुम.।।१०४।।
‘पूतात्मा’ प्रभु आपकी, आत्मा पवित्र है।
अरु आप भव्यजीव को, करते पवित्र हैं।।तुम.।।१०५।।
हे नाथ ‘परमज्योति’ आप, ज्योतिपुंज हैं।
उत्कृष्ट ज्ञानज्योति रूप, तेजपुंज हैं।।तुम.।।१०६।।
हे नाथ ‘धर्माध्यक्ष’ चरित, के अधीश हो।
दशधर्म के अध्यक्ष, ज्ञान के अधीश हो।।तुम.।।१०७।।
इंद्रियजयी दमी मुनी के, ईश आप हैं।
हे नाथ ‘दमीश्वर’ प्रसिद्ध, मुक्तिनाथ हैं।।तुम.।।१०८।।
संसार मोक्ष संपदा, लक्ष्मी के पती हों।
हे नाथ आप ‘श्रीपति’, मुक्ती के पती हो।।
तुम नाम मंत्र भक्ती, भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।१०९।।
‘भगवान्’ आप ज्ञान व, ऐश्वर्य पूर्ण हो।
सुरपूज्य आठ प्रातिहार्य, विभव पूर्ण हो।।तुम.।।११०।।
‘अर्हंत’ इंद्र आदि से, पूजा को प्राप्त हो।
अरि रज१ रहस्य चार कर्म, रहित आप हो।।तुम.।।१११।।
हे नाथ ‘अरज’ आप,कर्मधूलि हीन हो।
ज्ञानावरण व दर्शना—वरण विहीन हो।।तुम.।।११२।।
हे नाथ ‘विरज’ आप, कर्मरज विहीन हो।
भव्यों की कर्मधूलि नाश, में प्रवीण हो।।तुम.।।११३।।
हे नाथ ‘शुचि’ ब्रह्मचर्य , से पवित्र हो।
निज शुद्ध आत्म तीर्थ स्नान, से पवित्र हो।।तुम.।।११४।।
हे, ‘तीर्थकृत्’ भवोदधि से, भव्य तारते।
श्रुत द्वादशांग तीर्थ के, कर्ता बखानते।।तुम.।।११५।।
संपूर्ण मोह आवरण व, विघ्न२ नाशिया।
केवल्य पाय ‘केवली’ हो, मुनि भाषिया।।तुम.।।११६।।
‘ईशान’ आप अनंत शक्ति, से समर्थ हो।
अहमिंद्र आदि के भि ईश, जग प्रसिद्ध हो।।तुम.।।११७।।
‘पूजार्ह’ पांचविधा, अर्चना के योग्य हो।
मह कल्पतरु ऐन्द्रध्वज, आदि पूज्य हो।।तुम.।।११८।।
सब कर्म मल कलंक धोय, शुद्ध आत्मा।
हे नाथ ‘स्नातक’ सुज्ञान, चंद्रपूर्णिमा३।।तुम.।।११९।।
हे नाथ ‘अमल’ देह, मलादि विहीन हो।
नैर्मल्य आप राग आदि, दोष क्षीण हो।।तुम.।।१२०।।
‘अनंतदीप्ति’ नाथ, ज्ञानदीप्ति धारते।
निजदेह दीप्ति से समस्त, ध्वांत वारते।।तुम.।।१२१।।
प्रभु पांच विधे ज्ञान, से ‘ज्ञानात्मा’ कहे।
वैवल्यज्ञानदेहमयी, आत्मा कहे।।तुम.।।१२२।।
हे नाथ ‘स्वयंबुद्ध’, स्वयं ही प्रबुद्ध हो।
गुरु की सहाय बिन समस्त, ज्ञान युक्त हो।।तुम.।।१२३।।
‘प्रजापति’ त्रिलोक जीव, रक्षते पती।
संपूर्ण प्रजा को सदा, पालें प्रजापती।।तुम.।।१२४।।
हे नाथ ‘मुक्त’ कर्म, बंधनादि मुक्त हों
संपूर्ण दोष से विमुक्त, भ्रमण मुक्त हो।।तुम.।।१२५।।