जिनसहस्रनाम स्तोत्र (हिन्दी)- अध्याय (३)
नरेन्द्र छंद
समीचीन गुणसहित आप, अतिशय स्थूल कहे हो।
‘स्थविष्ठ’ नाम के धारी, त्रिभुवन पूज्य भये हो।।
प्रभु तुम नाम मंत्र को वंदत, आतम निधि को पाऊँ।
परमाल्हाद परमसुख अमृत, पीकर शिवपद पाऊँ।।२०१।।
वृद्ध आप ज्ञानादिगुणों से, अत ‘स्थविर’ कहाये।
मुक्तीपद में तिष्ठ रहे हो, मुनिगण शीश नमायें।।
प्रभु तुम नाम मंत्र को वंदत, आतम निधि को पाऊँ।
परमाल्हाद परमसुख अमृत, पीकर शिवपद पाऊँ।।२०२।।
नाथ! ‘ज्येष्ठ’ तीनों लोकों में, सबसे बड़े तुम्हीं हो।
इंद्रादिक से प्रशंसनीया, गुणमणि जड़े तुम्हीं हो।।प्रभु.।।२०३।।
सबके अग्रगामि होने से, ‘प्रष्ठ’ आप कहलाये।
तुम गुणमाला जपते भविजन, दुख दारिद्र नशायें।।प्रभु.।।२०४।।
इंद्र फणींन्द्र नरेन्द्र चंद्र रवि, सबको अतिशय प्रिय हो।
सब मुनीन्द्र से वंद्य ‘प्रेष्ठ’ प्रभु, त्रिभुवन जनमन प्रिय हो।।प्रभु.।।२०५।।
केवलज्ञान सुविस्तृत धीधर, प्रभु ‘वरिष्ठधी’ मानें।
स्वपर भेद विज्ञान बुद्धि दो, जिससे भव दुख हानें।।प्रभु.।।२०६।।
अत्यंत स्थिर-नित्य आप हैं, अतएव ‘स्थेष्ठ’ बखानें।
शत इंद्रों के मध्य विराजें, कर्म कुलाचल हानें।।प्रभु.।।२०७।।
सब द्वादशगण में अतिशयगुरु, आप ‘गरिष्ठ’ कहे हो।
भक्तों को शिवमार्ग दिखाकर, कर्म कलंक दहे हो।।प्रभु.।।२०८।।
गुण अनंत से प्रभू आप ही रूप अनेक धरे हो।
अत: नाथ! ‘बंहिष्ठ’ नाम से, अतिशय रूप धरे हो।।प्रभु.।।२०९।।
सबमें अतिशय प्रशस्य हो प्रभु, ‘श्रेष्ठ’ नाम जग जाने।
सर्व दोष निरवारण करिये, गुण से भरूँ खजानें।।प्रभु.।।२१०।।
अतिशय सूक्ष्म मात्र योगी के, ध्यान गम्य ही तुम हो।
अत: ‘अणिष्ठ’ नाम से पूजें, सर्व सुखाकर तुम हो।।प्रभु.।।२११।।
वाणी आप सर्व जगपूज्या, गौरवमयी बखानी।
प्रभु ‘गरिष्ठगी’ इसीलिये हो, तुम वाणी कल्याणी।।प्रभु.।।२१२।।
चतुर्गती संसार नष्ट कर, आप ‘विश्वमुट्’ मानें।
सर्वविश्व के पालन कर्ता, सुरनर मुनिगण जानें।।प्रभु.।।२१३।।
सर्वविश्व की करो व्यवस्था, नाथ ‘विश्वसृज्’ तुम हो।
धर्मसृष्टि से आदि विधाता, मुक्तिप्रदाता तुम हो।।प्रभु.।।२१४।।
तीनलोक के ईश तुम्हीं, ‘विश्वेट्’ मुनी कहते हैं।
सुरपति नरपति फणपति तुमको, निजस्वामी गिनते हैं।।प्रभु.।।२१५।।
सब जग की रक्षा करते हो, अत: ‘विश्वभुज्’ तुमही।
सर्व जीवगण सुतवत् पालन, पोषण करते तुमही।।प्रभु.।।२१६।।
अखिल लोक के स्वामी तुमही, धर्मनीति सिखलाते।
अत: ‘विश्वनायक’ बन सबको, मोक्षमार्ग दिखलाते।।प्रभु.।।२१७।।
सब जग का विश्वास आप में, अत: आप ‘विश्वासी’।
तुम आशिष पा सभी प्राणिगण, बने मुक्ति के वासी।।प्रभु.।।२१८।।
केवल ज्ञानरूप तुम आत्मा, अत: ‘विश्वरूपात्मा’।
लोकपूर्ण के समय प्रदेशों, से त्रिलोकमय आत्मा।।प्रभु.।।२१९।।
विश्व-पांचविध भवको जीता, अत: ‘विश्वजित्’ तुम हो।
कर्म मल्ल यममल्ल विजेता, विश्वविजेता तुम हो।।प्रभु.।।२२०।।
‘विजितांतक’ अतंक-यम जीता, मृत्युंजयी तुम्हीं हो।
निज भक्तों को मृत्युमल्ल से, सदा छुड़ाते तुम हो।।प्रभु.।।२२१।।
‘विभव’ आपका भवविशेष है, शतइंद्रो से पूजित।
भव-संसार नष्टकर्ता तुम, सर्व गुणों से भूषित।।प्रभु.।।२२२।।
‘विभय’ सर्व कांती को जीता, सात भयों से छूटे।
तुम आश्रय लेकर भविप्राणी, सर्व भयों से छूटें।।प्रभु.।।२२३।।
‘वीर’ मोक्षलक्ष्मी के दाता, कर्मशत्रु के विजयी।
तुम पदपंकज भक्ति करें जो, बने कर्मरिपु विजयी।।प्रभु.।।२२४।।
विगत शोक प्रभु तुम ‘विशोक’ हो, भविजन शोक हरंता।
शं-सुख रूप आप की आत्मा, सौख्य अनंत धरंता।।प्रभु.।।२२५।।