पिता छोटेलाल जी एवं माता मोहिनी जी को संघ के दर्शन
(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
अजमेर में संघदर्शन- मेरे गृहस्थ अवस्था के पिता छोटेलाल जी और माता मोहिनी सन् १९५९ में अजमेर में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के संघ के दर्शन करने आए। अथवा यों कहिये सन् १९५३ के टिकैतनगर चातुर्मास के पश्चात् आज वे सात वर्ष बाद सन् १९५९ में मेरे प्रथम बार दर्शन करने आये थे।
छोटे धड़े की नशिया में प्रातः आचार्यश्री का उपदेश होता था। सभी मुनि, आर्यिकाएँ उपस्थित रहते थे। उपदेश के अनन्तर मैं आर्यिकाओं के साथ नशिया से बाहर निकलकर बाबाजी की नशिया जा रही थी। मुझे देखते ही रास्ते में मोहिनी जी सहसा मुझसे चिपट गईं और रोने लगीं । साथ में चलते हुए सेठ लोग आश्चर्य से देखने लगे।
मैं भी सहसा कुछ नहीं समझ सकी । आखिर ये कौन हैं ? और क्यों रो रही हैं ? ‘‘अरे ! यह क्या ?’’ ऐसा कहते हुए साथ में चलती हुई आर्यिका सिद्धमती माताजी ने मेरे से उन्हें छुड़ाया । मैंने सिर उठाकर देखा तो सामने खड़े पिता छोटेलाल जी भी रो रहे हैं । यद्यपि वे बहुत दुबले हो गये थे, फिर भी इस अवसर पर मैंने उन्हें भी पहचान लिया था । साथ में चलते हुए श्रावकों ने उनका हाथ पकड़ा औैर बोले- ‘‘सेठजी! आप कौन हैं? कहाँ से आये हैं? ’’
इसी मध्य आर्यिका चन्द्रमती जी को समझते देर न लगी कि ये आ. ज्ञानमती जी के माता-पिता हैं अतः वे शीघ्र ही बोलीं-‘‘ये इन माताजी के माता-पिता हैं, टिकैतनगर से आये हैं । इन्हें साथ ले चलो, नशियाजी में एक कमरे की व्यवस्था करके इन्हें ठहराओ ।’’ श्रावकों ने बड़े प्रेम से पिताजी का हाथ पकड़ा और साथ में बाबाजी की नशिया में ले आये। मैं तो चर्या का समय होने से शुद्धि करके चर्या के लिए निकल गयी।
इन लोगों को व्यवस्थित ठहरा दिया गया। आहार के बाद इन सभी ने आचार्यश्री के दर्शन किये। पश्चात् अन्य मुनियों का दर्शन कर मेरे पास आ गये। दर्शन करके रत्नत्रय कुशल पूछी। मैंने भी इन लोगों के धर्म कुशल को पूछा पुनः तत्क्षण ही पूछा- ‘‘क्या मनोवती को नहीं लाये?’’ माँ ने दबे स्वर में कहा-‘‘नहीं।’’ मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ कि देखो! ‘‘ये लोग कितने निष्ठुर हैं कि २-३ वर्षों से मेरे लिए रोती हुई उस बालिका को आखिर घर में ही छोड़ आये हैंं।’’
मुझे यह समझते देर न लगी कि शायद वह वापस न जाती, इसी कारण उसे नहीं लाये हैं अस्तु । साथ में शांति देवी आई थी जो मोहोना ब्याही थी। छोटा पुत्र प्रकाशचंद आया था जो कि इस समय लगभग १५ वर्ष का था और माँ की गोद में छोटी बिटिया माधुरी थी। ये लोग यहाँ पर रहकर प्रतिदिन आहार दान का, गुरु के उपदेश सुनने का लाभ लेने लगे।
स्वाध्याय क्रम
माता मोहिनी मेरी प्रत्येक चर्या को बड़े प्रेम से देखा करती थीं। मैं बाबाजी की नशिया में मंदिर जी में प्रातः ७ से ८.३० बजे तक पंचाध्यायी ग्रन्थ का स्वाध्याय चलाती थी। उसमें आर्यिका सुमतिमती माताजी, आर्यिका सिद्धमती जी, आर्यिका चन्द्रमती जी, आर्यिका पद्मावती जी, क्षुल्लिका जिनमती और ब्र. राजमल जी बैठते थे और ब्र. श्रीलाल जी भी बैठ जाते थे।
मैं संस्कृत के श्लोकों को पढ़कर उसका अर्थ करके समझाती थी। उसके बाद पात्रकेशरी स्तोत्र का भी अर्थ बताती थी। उस समय मोहिनी जी जिनेन्द्रदेव की पूजा करके वहाँ स्वाध्याय में पहुँचकर सभी आर्यिकाओं को अघ्र्य चढ़ाकर ५-१० मिनट बैठ जाती थीं पुनः चौके में चली जाती थीं।
मध्यान्ह में मेरे पास में वहाँ की कन्या पाठशाला की प्राध्यापिका विदुषी विद्यावती बाई सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ का अध्ययन कर रही थीं। उस समय मोहिनी जी को अधिक अवसर स्वाध्याय के लाभ का मिल जाता था। मध्य-मध्य में अध्यापिका विद्यावती१ जी मेरे ज्ञान की चर्चा किया करती थीं, जिसे सुनकर माता मोहिनी जी का हृदय गद्गद हो जाता था।
४-५ बजे के लगभग शहर की कुछ महिलाएँ और बालिकाएँ भी मेरे पास अर्थ सहित तत्त्वार्थसूत्र आदि का अध्ययन करने आ जाया करती थीं अनन्तर मैं साधु संघ के सामूहिक स्वाध्याय में पहुँच जाती थी। स्वाध्याय के बाद सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद ही सेठ जी की नशिया से हम सभी आर्यिकायें अपने स्थान पर आ जाया करती थीं। इस प्रकार से मेरी अत्यधिक व्यस्तचर्या देखकर माता मोहिनी जी बहुत ही प्रसन्न होती थीं।
मंत्रित जल का प्रभाव
एक दिन बहन शांति के पेट में बहुत ही दर्द होने लगा और उसे अतिसार चालू हो गये। यह देख मोहिनी जी घबरार्इं और झट से आकर मुझसे कहा। साथ में यह भी बताया कि- ‘‘यह ४-५ महीने की गर्भवती है, इसकी सासु इस समय यहाँ भेज नहीं रही थीं किन्तु यह दर्शन के लोभ में आग्रहवश आ गई है।’’ मैंने उसी समय एक कटोरी में शुद्ध जल मंगाकर मंत्र पढ़ दिया और शांति को पिला दिया। उस मंत्रितजल से उसे बहुत कुछ आराम मिला।
इसी बीच यह बात संघ की वयोवृद्धा आर्यिका सुमतिमती माताजी को मालूम हुई, तो वे स्वयं मंदिर से वहाँ बाहर कमरे में आर्इं, शांति को सान्त्वना दी। इसी समय सर सेठ भागचन्द जी सोनी वहाँ दर्शनार्थ आये हुए थे वे प्रायः आर्यिकाओं के कुशल समाचार लेने इधर आते ही रहते थे। आर्यिका सुमतिमती माताजी ने उनसे कहा- ‘‘सेठजी! आप इसे (शांति को) किसी कुशल डाक्टरनी को दिखा दें।’’
सेठानी रत्नप्रभा जी साथ में थीं उन्होंने शीघ्र ही अपनी गाड़ी में बिठाकर शांति को ले जाकर डाक्टरनी के पास दिखाया। डाक्टरनी ने कहा- ‘‘इसके पेट में बालक बिल्कुल ठीक है। चिन्ता की कोई बात नहीं है।’’ शांति हँसती हुई मेरे पास आ गई और बोली- ‘‘माताजी! आपके मंत्रितजल ने मुझे बिल्कुल स्वस्थ कर दिया है, अब मुझे कोई तकलीफ नहीं है।’’ मैंने कहा-‘‘महामंत्र में ऐसी ही अचिन्त्य शक्ति है, इसमें मैंने भला क्या किया है?
यह तो मंत्र का ही प्रभाव है और तुम्हारी श्रद्धा अच्छी है अतः तुम्हें शीघ्र ही इसका लाभ दिखा है। शांतिदेवी ! अब तुम शांति के लिए हमेशा महामंत्र का जाप्य करते रहना इसे कभी नहीं छोड़ना, यही मेरा उपदेश है। संघ की सबसे प्रमुख आर्यिका वीरमती माताजी यहीं मेरे कमरे में ही रहती थीं वे रात्रि में २, २.३० बजे से उठकर पाठ करना शुरू कर देती थीं, कभी-कभी माता मोहिनी इधर मेरे पास सो जाती थीं तो पिछली रात्रि में बड़ी माताजी के पाठ सुनकर बहुत ही खुश हो जाती थीं।
संग्रहणी प्रकोप
मुझे इन दिनों पेट की गड़बड़ चल रही थी। आहार लेने के बाद मुझे जल्दी ही शौच के लिए जाना पड़ता था। दिन में भी प्रायः कई बार जाती थी। माता मोहिनी को मालूम हुआ कि इन्हें डाक्टर, वैद्यों ने संग्रहणी रोग की शुरूआत बता दी है और ये औषधि नहीं लेती हैं। तब मोहिनी जी को बहुत ही चिंता हुई। उन्होंने मुझे समझाना शुरू किया और बोलीं- ‘‘देखो, माताजी! यह शरीर ही रत्नत्रय का साधन है, इसलिए एक बार आहार में शुद्ध काष्ठादि औषधि लेने में क्या दोष है?
आखिर श्रावकों के लिए औषधिदान भी तो बतलाया गया है। इसलिए आपको शरीर से ममत्व न होते हुए भी संयम की रक्षा के लिए औषधि लेना चाहिए।’’ उस समय तो मैंने इनकी बातें सुनी अनसुनी कर दीं किन्तु स्वास्थ्य ज्यादा गिर जाने से आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज, मुनि श्री श्रुतसागरजी आदि के विशेष समझाने से मैंने आहार में शुद्ध औषधि लेना शुरू कर दिया।
एक दिन आर्यिका चन्द्रमती से वातार्लाप करते हुए माँ मोहिनी जी को विदित हुआ कि अभी सन् १९५८ में गिरनार क्षेत्र की यात्रा के रास्ते में इन्हें आहार में अंतराय बहुत आती थी जिससे पेट में पानी नहीं पहुँच पाता था और गर्मी के दिन, उस पर भी रास्ते का १४-१५मील का प्रतिदिन पद विहार करना, इन्हीं सब कारणों से इनकी पेट की आँतें एकदम कमजोर हो गयी हैंं
जिससे कि आहार का पाचन नहीं हो रहा है और इस संग्रहणी नाम के रोग ने अपना अधिकार जमा लिया है। तब वे बहुत ही चिंतित होकर बार-बार मुझे विश्राम के लिए कहतीं, मैं उनकी बातें सुनकर उनकी ममतापरिणति देखकर हंस देती। इस अस्वस्थता में कमजोरी होते हुए भी मैं अपने मनोबल से पठन-पाठन में ही तल्लीन रहती थी
और माता मोहिनी जी को यही समझाया करती थी- ‘‘जिनवचनमौषधमिदं’’-जिनेन्द्र भगवान् के वचन ही सबसे उत्तम औषधि हैं। इनके पठन-पाठन से ही सच्ची स्वस्थता आती है। फिर यह शरीर तो नश्वर ही है इसकी क्या चिंता करना? चिंता तो अपनी आत्मनिधि की ही करनी चाहिए।
शिष्यायें
मेरे पास वहीं अजमेर में केशरगंज के एक श्रावक जीवनलाल जी की पुत्री अँगूरीबाई सागारधर्मामृत आदि पढ़न आती रहती थीं। उनके पति को डाकुओं ने मार दिया था अतः वे विरक्तचित्त हुई मेरे पास ही रहना चाहती थीं। वहीं शहर की एक महिला हुलासी बाई भी मेरे पास अध्ययन करतीं तथा मेरी वैयावृत्ति भी किया करती थीं।
प्रकाश का पुरुषार्थ
माता मोहिनी का द्वितीय पुत्र प्रकाशचन्द वहाँ साथ में आया था। मैंने उसे कितना प्यार दिया था यह कुछ-कुछ उसे याद था, उस समय उसकी उम्र १५ वर्ष के करीब थी। वह भी वहाँ मेरे पास कभी-कभी द्रव्यसंग्रह आदि की कुछ गाथायें पढ़ लेता और बहुत ही शुद्ध अर्थ सहित याद करके सुना देता। मैंने सोचा-‘‘इसकी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण है, क्यों न इसे संघ में कुछ वर्ष रोक लिया जाये और धार्मिक अध्ययन करा दिया जाये!’’ मैंने उस बालक से पूछा, उसे तो मानों मन की मुराद मिल गई।
वह प्रकाश भी अपनी माँ से आग्रह करने लगा कि- ‘‘मुझे माताजी के पास छोड़ जाओ। मैं एक वर्ष में कुछ धर्म का अध्ययन कर लूँ।’’ माँ मोहिनी ने हँसकर टाल दिया और सोचा, इतना मोही बालक भला माँ-बाप के बगैर कैसे रह सकता है? इसे कुछ दिन पूर्व अयोध्या के गुरुकुल में भी भेजा था, वहाँ से १०-१५ दिन में ही भाग आया था।
अब इन लोगों के जाने का समय हो रहा था, सामान सब बंध चुका था, गाड़ी का समय हो रहा था। पिताजी प्रकाशचन्द को आवाज दे रहे हैं परन्तु उसका कहीं पता ही नहीं है, उस दिन का उनका जाना स्थगित हो गया। पिताजी ढूंढते-ढूंढते परेशान हो गये, काफी देर बाद देखा, तो वह नशिया के बाहर एक तरफ बगीचे में एक वृक्ष पर छिपा बैठा था।
उसे उतारा गया, समझाया गया, अंततोगत्वा जब वह नहीं माना तब ब्र. श्री लालजी ने माता-पिता को समझाया- ‘‘देखो! इस बालक को ४-६ महीने यहाँ संघ में रहने दो, हमारे पास रहेगा, हम तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि इसे ब्रह्मचर्य व्रत आदि नहीं देंगे, बालक को अपनी हठ पूरी कर लेने दो, बाद में घर भेज देंगे।
भाई! छोटेलालजी! यदि इस समय इसे तुम जबरदस्ती बाँध कर ले जाओगे पुनः ये रास्ते से या घर से बिना कहे-सुने भाग कर आ गया तो तुम क्या करोगे? इसलिए शांति रखो, चिंता मत करो। इसे मैं कुछ धर्म पढ़ा दूँगा, बाद में घर से किसी को भेज देना, इसे ले जायेगा ।’’ इत्यादि समझाने-बुझाने के बाद पिता ने बात मान तो ली किन्तु उनका मन बहुत ही अशांत हुआ।
मोहिनी का मोह
माता मोहिनी ने बालक की व्यवस्था के लिए चुपचाप अपने कान के ऐरन (बाले) उतारे और संघ के ब्र. राजमलजी को बुलाकर धीरे से कहा- ‘‘ब्रह्मचारी जी! तुम इन्हें अपने पास रख लो, देखो! किसी को पता न चले! तुम इन्हें बेचकर रुपये ले लेना, उनसे इस बालक के नाश्ता, भोजन आदि की व्यवस्था करा देना।’’ इतना कहकर माता ने वह सोने का गहना ब्रह्मचारी जी को दे दिया और एकान्त में मुझसे यह बात बताकर आप वहाँ से सकुशल रवाना हो गर्इं।
पिताजी प्रकाशचन्द को संघ में पढ़ने के लिए छोड़कर घर आ गये। घर में आते ही सारे बच्चे चिपट गये और मेरे तथा संघ के समाचार पूछने लगे किन्तु जब कैलाशचन्द आदि ने प्रकाश को नहीं देखा तब सब रोने लगे- ‘‘पिताजी! प्रकाश कहाँ है?’’ पिताजी ने कहा-‘‘बेटे! आर्यिका ज्ञानमती माताजी के पास कुछ ऐसी चुम्बकीय शक्ति है कि क्या बताऊँ?
मैं मनोवती को तो रोता छोड़ गया था, वहाँ नहीं ले गया था कि कहीं यह वहीं न रह जाये किन्तु माताजी ने तो प्रकाश को ही रोक लिया ।’’ प्रकाशचन्द ने संघ में रहकर पंचामृत अभिषेकपाठ, छहढाला, द्रव्यसंग्रह, कातन्त्रव्याकरण के कुछ पृष्ठ, ऐसी कई चीजें पढ़ी थीं मैंने तो उसे बहुत ही थोड़ा पढ़ाया था किन्तु शिक्षायें अनमोल दी थीं। उसने अंगूरी बाई से भी पढ़ा और ब्र. राजमलजी से तथा बाबा श्रीलालजी से भी कुछ पढ़ा था।
विशेष संस्मरण
एक बार उसने मेरी पूजन बनाई। उसे वह मेरे सामने पढ़कर अष्टद्रव्य से पूजन करना चाहता था। तभी मैंने उसे फटकार दिया और रोक दिया। उस समय उसे बहुत रोना आया। बाबाजी श्रीलालजी उसे समझाकर चुप कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर आ गई और बोली- ‘‘बाबाजी! आप इसे शास्त्री बना दें,मैं चाहती हूँ यह संस्कृत का अच्छा विद्वान् बन जाये इसलिए इसे आपके पास रखा है।’’ बाबाजी बोले-‘‘इसकी बुद्धि तो बहुत अच्छी है।
यदि यह मन लगाकर व्याकरण पढ़े तो अवश्य ही विद्वान् बन सकता है। वास्तव में कुछ गुण तो लोगों को विरासत में ही मिल जाया करते हैं।’’ इसी मध्य पं. खूबचंद्रजी शास्त्री बोले- ‘‘हाँ! देखो ना, भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में भी तो उनका परिवार ही इकट्ठा हो गया था। भगवान् के तृतीय पुत्र वृषभसेन ही भगवान् के प्रथम गणधर थे, बड़े पुत्र सम्राट भरत ही तो मुख्य श्रोता थे और उन्हीं की पुत्री ब्राह्मी ही तो मुख्य गणिनी थीं।
यह योग्यता उनके परिवार में ही आई और अन्य किसी को नहीं मिल पाई। मालूम पड़ता है कि भगवान् को भी बड़ा पक्षपात था ।’’ इतना कहकर वो हँस पड़े। तभी श्रीलालजी बाबाजी बोले- ‘‘हाँ! यही बात तो भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में भी थी। वे बालब्रह्मचारी थे तो उनके मौसा राजा श्रेणिक ही उनकी सभा के मुख्य श्रोता थे और उनकी छोटी मौसी चन्दनाजी ही आर्यिकाओं की प्रधान गणिनी थीं ।’’
पुनः बाबाजी गंभीर स्वर में बोले- ‘‘भाई! यह पक्षपात नहीं, यह तो योग्यता की ही बात है।’’ उन दिनों के उभय विद्वानों के शब्द जब कभी याद आ जाते हैं तो मेरे मन में विचार आ जाता है कि- ‘‘उन दिनों संघों में प्रायः एक साधु या साध्वी के परिवार से अनेक व्यक्ति नहीं निकले हुऐ थे। उस समय यद्यपि उस प्रकाश चन्द बालक ने संघ में रहने का पुरुषार्थ किया किन्तु छह महीने बाद उसके बड़े भाई आकर उसे जबरदस्ती घर लिवा ले गये थे आज वह तो गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट है किंतु उसके घर से सन् १९६१ में कु. मनोवती मेरे पास आ गई थी तब से वह घर नहीं गई थी।
आज वे आर्यिका अभयमती के नाम से प्रसिद्ध हैं। सन् १९६९-१९७० में रवीन्द्र कुमार और कु. माधुरी भी क्रम-क्रम से मेरे संघ में आ गये। आज ये दोनों ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए धर्माराधना में तत्पर हैं सन् १९७१ में इन सभी की जननी माता मोहिनी जी स्वयं संघ में आकर आचार्यश्री धर्मसागर जी से दीक्षित होकर आर्यिका रत्नमती जी बनकर मेरे संघ में तेरह वर्ष रही हैं।
आचार्यकल्प श्रीश्रेयांससागर जी ने सन्१९६५ में अपनी माता क्षुल्लिका अरहमती और पत्नी के साथ महावीर जी क्षेत्र पर मुनि दीक्षा ली थी तब इनकी माता और पत्नी की आर्यिका दीक्षा हुई थी। अभी ये महाराष्ट्र प्रांत में विहार कर रहे हैं। आचार्य विद्यासागर जी के भी माता-पिता और दो भाई दीक्षित होकर आर्यिका एवं मुनि हुए हैं।
अब तो अनेक साधु-साध्वियों के परिवार के सदस्य घर से विरक्त होकर संघों में रहकर संयम साधना कर रहे हैं। वास्तव में यह अनादिपरम्परा है कि जिस घर से एक महापुरुष या महिला दीक्षा ले लेते हैं तो उनके कुटुंब के लोगों पर अच्छे संस्कार अवश्य पढ़ते हैं। उनके मोह से वे लोग संघ में आते-जाते रहते हैं और सत्संगति का प्रभाव ही ऐसा है कि उनमें से किसी के भाव दीक्षा लेने के हो जाते हैं।
इसीलिए तो आचार्यों ने कहा है कि- ‘‘शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदार्यैः।’’ हे भगवन् ! मैं सदा शास्त्रों का अभ्यास करता रहूँ, जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करता रहूँ और सदा ही मैं आर्य-सज्जन-साधुजनों की संगति करता रहूँ इत्यादि।’’