चौपाई (१५ मात्रा)
‘महाशोकध्वज’ आप जिनेश। वृक्ष अशोक चिन्ह परमेश।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०१।।
नाथ! ‘अशोक’ शोक से हीन। आप भक्त हों शोक विहीन।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०२।।
आप ‘क’ नाम आत्म आधार। सब भक्तों को सुखदातार।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०३।।
स्वर्ग मोक्ष की सृष्टि करंत। ‘स्रष्टा’ नाम सुरेन्द्र यजंत।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०४।।
नाथ! ‘पद्मविष्टर’ तुम नाम। आसन स्वर्णकमल तुम स्वामि।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०५।।
प्रभु ‘पद्मेश’ आप विख्यात। लक्ष्मी के स्वामी हो नाथ।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०६।।
आप ‘पद्मसंभूति’ जिनेश। चरण कमल तल कमल हमेश।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०७।।
‘पद्मनाभि’ पंकजसम नाभि। वंदत मिटती सर्व उपाधि।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०८।।
नाथ! ‘अनुत्तर’ तुम सम अन्य। श्रेष्ठ नहीं प्रभु तुमही धन्य।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३०९।।
‘पद्मयोनि’ मात का गर्भ। पद्माकृति से तुम उत्पत्ति।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१०।।
‘जगद्योनि’ धर्ममय जगत्। उसकी उत्पति कारण जिनप।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३११।।
‘इत्य’ आप की प्राप्ती हेतु। भविजन तप तपते बहुभेद।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१२।।
नाथ! ‘स्तुत्य’ इन्द्र मुनि आदि। सबकी स्तुति योग्य अबाधि।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१३।।
प्रभु आप ‘स्तुतीश्वर’ कहे। स्तुति के ईश्वर ही रहें।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१४।।
‘स्तवनार्ह’ स्तुति के योग्य। आप समान न अन्य मनोज्ञ।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१५।।
‘हृषीकेश’ इंद्रिय के ईश। विजितेन्द्रिय हो सर्व अधीश।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१६।।
प्रभो! आप ‘जितजेय’ अनूप। जीता मोह आदि अरि भूप।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१७।।
करने योग्य क्रियायें सर्व। पूर्ण किया ‘कृतक्रिय’ नामार्ह।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३१८।।
बारह गण के स्वामी आप। अत: ‘गणाधिप’ हो निष्पाप।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म ।।३१९।।
सर्वजनों में तुमही श्रेष्ठ। अत: जगत मे हो ‘गणज्येष्ठ’।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३२०।।
गणना योग्य आप ही ‘गण्य१’। चौरासी लख गुण युत धन्य।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३२१।।
पूर्ण पवित्र आप ही ‘पुण्य’। सबको पावन करें सुपुण्य।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३२२।।
सब गण शिवपथ में ले जाव। ‘गणाग्रणी’ प्रभु आप कहाव।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३२३।।
ज्ञानाद्यनंत गुण की खान। नाथ ‘गुणाकर’ आप महान।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३२४।।
लाख चुरासी गुण की वार्धि। ‘गुणाम्भोधि’ हरते भव व्याधि।।
आप नाम सब सुख की खान। वंदत मिलता आत्म निधान।।३२५।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ…………
नाथ! ‘गुणज्ञ’ कहावते, गुणमणि ज्ञाता आप।
सर्वदोष मुझ हान के, करो शीघ्र निष्पाप।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।३२६।।
‘गुणनायक’ चौरासी लख, गुणमणि के हो नाथ।
रोग शोक दुखनाश कर, गुण से करो सनाथ।।नाम.।।३२७।।
सत्त्व आदि गुण आदरा, ‘गुणादरी’ तुम नाम।
क्रोध मोह सब नाशिये, झुक झुक करूँ प्रणाम।।नाम.।।३२८।।
रजतम आदि विभावगुण, नाश किया प्रभु आप।
अत: ‘गुणोच्छेदी’ भये, करो मुझे निष्पाप।।नाम.।।३२९।।
वैभाविक गुण हीन हो, ‘निर्गुण’ कहें मुनीश।
या निश्चित ज्ञानादि गुण, धरते निर्गुण ईश।।नाम.।।३३०।।
नाथ! ‘पुण्यगी’ पुण्यमय, पावनवाणी आप।
मुझ वाणी पावन करो, हरो सकल भव ताप।।नाम.।।३३१।।
गुणयुत और प्रधान हो, अत: नाम ‘गुण’ आप।
भव्य आपको ही गुने, हरो सकल यम ताप।।नाम.।।३३२।।
प्रभु ‘शरण्य’ हो जगत में, शरणागत प्रतिपाल।
सब दुख मथन करो सदा, नमूँ नमूँ नत भाल।।नाम.।।३३३।।
‘पुण्यवाक्’ प्रभु तुम वचन, भरें पुण्य भण्डार।
आतम निधि को देय के, करें मृत्यु संहार।।नाम.।।३३४।।
‘पूत’ आप पावन परम, भक्तन करो पवित्र।
अंतर आत्म उपाय से, लहूँ परमपद शीघ्र।।नाम.।।३३५।।
प्रभु ‘वरेण्य’ मुक्तीरमा, वरण किया स्वयमेव।
सबमें श्रेष्ठ तुम्हीं कहे, करो सकल दुख छेव।।नाम.।।३३६।।
नाथ! ‘पुण्यनायक’ तुम्हीं, सकल पुण्य के ईश।
पुण्यसंपदा देउ मुझ, नमूँ नमूँ नत शीश।।नाम.।।३३७।।
प्रभु ‘अगण्य’ गणना नहीं, माप रहित गुण आप।
मेरे अनवधि गुण मुझे, देय हरो संताप।।नाम.।।३३८।।
नाथ! ‘पुण्यधी’ पावना, बुद्धी आपकी शुद्ध।
मुझ मन पावन कीजिये, होय आतमा शुद्ध।।नाम.।।३३९।।
‘गुण्य’ सर्वगण हित किया, गुण अनंत युत आप।
सर्वगुणों से पूर्ण कर, हरो दोष दुख पाप।।नाम.।।३४०।।
प्रभो! ‘पुण्यकृत्’ आपही, किया पुण्य हरपाप।
सब जन मन पावन किया, हो पवित्र निष्पाप।।नाम.।।३४१।।
नाथ! ‘पुण्यशासन’ यहाँ, तुम शासन-मत शुद्ध।
आतम अनुशासन करूँ, देवो ऐसी बुद्धि।।नाम.।।३४२।।
‘धर्माराम’ तुम्हीं प्रभो! धर्मोद्यान विशाल।
छाया फल दे स्वर्ग शिव, हरिये ताप दयालु।।नाम.।।३४३।।
आप प्रभो! ‘गुणग्राम’ हैं, मूलोत्तर गुण युक्त।
इंद्रियगाँव उजाड़के, आप हुये जग मुक्त।।नाम.।।३४४।।
‘पुण्यापुण्यनिरोधका’, शुद्ध आत्म में लीन।
पुण्य पाप को रोक के, भये मुक्ति अधीन।।नाम.।।३४५।।
‘पापापेत’ तुम्हीं प्रभो! पाप रहित निष्पाप।
मेरे सब संकट हरो, पुण्य भरो हत पाप।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।३४६।।
नाथ! ‘विपापात्मा’ कहे, पाप हीन अतिशुद्ध।
मेरे सब अघ क्षय करो, होऊँ सिद्ध विशुद्ध।।नाम.।।३४७।।
नाथ! ‘विपाप्मा’ कर्म अघ, चूर किया भगवान्।
तुम भक्ती से भव्यजन, बने सकल धनवान।।नाम.।।३४८।।
द्रव्य भाव नोकर्ममल, कल्मष धोकर शुद्ध।
प्रभो! ‘वीतकल्मष’ तुम्हीं मुझे करो झट शुद्ध।।नाम.।।३४९।।
प्रभो! आप ‘निद्र्वंद्व’ हैं, द्वंद्व-कलह से मुक्त।
सर्व परिग्रह हीन हैं, करों हमें भव मुक्त।।नाम.।३५०।।
प्रभु आप ‘निर्मद’ आठ विध, मद रहित पूज्य महान।
तुम भक्त अतिशय स्वाभिमानी, आत्म गौरववान।।
तुम नाम की माला करूं मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी, आप ही भव सेतु।।३५१।।
प्रभु ‘शांत’ क्रोधादी कषायें, नष्ट कर दी आप।
तुम पद कमल की भक्ति भी, करती भविक मन शांत।।तुम.।।३५२।।
‘निर्मोह’ प्रभु सब मोह अरु, अज्ञान से भी दूर।
तुम भक्त का चारित्र दर्शन, मोह करते दूर।।तुम.।।३५३।।
प्रभु आप ‘निरुपद्रव’ उपद्रव, उपसरग से हीन।
तुम भक्त भी जड़मूल से करते उपद्रव क्षीण।।तुम.।।३५४।।
प्रभु दिव्यचक्षु नेत्रस्पंदन रहित विख्यात।
इससे कहें मुनि ‘निर्निमेष’ सुपाय ज्ञानविकास।।तुम.।।३५५।।
प्रभु ‘निराहार’ न आपको है, कभी कवलाहार।
तुम भक्त भी आहार विरहित, होंय निर्नीहार।।तुम.।।३५६।।
‘निष्क्रिय’ प्रभो! सामायिकादि, क्रियाओं से शून्य।
संसार की सबही क्रियाओं, से रहित सुखपूर्ण।।तुम.।।३५७।।
नाथ ‘निरुपप्लव’ विघन, बाधारहित भगवान।
तुम पाद अर्चन से सभी, निर्विघ्न होते काम।।तुम.।।३५८।।
प्रभु ‘निष्कलंक’ कलंकअप-वादादि अघ से हीन।
संपूर्ण कर्मकलंक नाशा, विश्वज्ञान प्रवीण।।तुम.।।३५९।।
प्रभु ‘निरस्तैना’ सर्व एनस-पाप से हो दूर।
तुम भक्त भी मोहारि अघ, नाशन करें बन शूर।।तुम.।।३६०।।
‘निर्धूतआगस्’ आप हैं, अपराध अघ से हीन।
हे नाथ मुझ अपराध नाशो, करो ज्ञान अधीन।।तुम.।।३६१।।
प्रभु ‘निरास्रव’ संपूर्ण आस्रव, रोक संवररूप।
मुझ पाप आस्रव नाशिये, हो शुद्ध आतमरूप।।तुम.।।३६२।।
हे नाथ! आप ‘विशाल’ अनुपम, शांति देते नित्य।
सबसे महान-विशाल मानें, नमूँ मैं धर प्रीत्य।।तुम.।।३६३।।
हे ‘विपुलज्योति’ समस्त लोका—लोकव्यापक ज्ञान।
तुम ज्ञानज्योति से हनें भवि, मोह ध्वांत महान्।।तुम.।।३६४।।
प्रभु ‘अतुल’ तुलनारहित जग में, मुक्तिलक्ष्मीनाथ।
नहिं तोल सकते गुण तुम्हारे, सर्व गण के नाथ।।तुम.।।३६५।।
हे नाथ! आप ‘अचिन्त्यवैभव’, विभव त्रिभुवन मान्य।
मन से न सुरपति योगिगण भी, सोच सकते साम्य।।तुम.।।३६६।।
भगवन्! ‘सुसंवृत’ आप सम्यक, पूर्ण संवर युक्त।
तुम पदकमल की भक्ति से हों, भव्य आस्रव मुक्त।।तुम.।।३६७।।
प्रभु ‘सुगुप्तात्मा’ आप आत्मा, कर्मअरि से गुप्त।
तुम भक्त भी मन वचन कायिक, गुप्ति से हों युक्त।।तुम.।।३६८।।
प्रभु ‘सुबुध१’ अच्छी तरह त्रिभुवन, जानते हैं आप।
मुझको निजातम तत्त्व का, सुखबोध देवो आज।।तुम.।।३६९।।
हे नाथ! ‘सुनयतत्त्ववित्’, सापेक्ष नय का मर्म।
जानों तुम्हीं बतला दिया, जिन अनेकांत सुधर्म।।
तुम नाम की अर्चा करूं मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।३७०।।
प्रभु ‘एकविद्य’ सुएक केवल—ज्ञान विद्या युक्त।
मतिश्रुत अवधि मनपर्ययी, चउज्ञान विद्या मुक्त।।तुम.।।३७१।।
प्रभु ‘महाविद्य’ महान् केवलज्ञान विद्याधार।
अठरा महाभाषा लघु तुम, सात सौ ध्वनि कार।।तुम.।।३७२।।
‘मुनि’ आप त्रिभुवन चराचर को, जानते प्रत्यक्ष।
मैं आपका वंदन करूँ हो, स्वात्मज्ञान प्रत्यक्ष।।तुम.।।३७३।।
प्रभु ‘परिवृढ’ सब गुणों का, वर्धन किया जिनराज।
तुम वंदना से सर्व मेरे, गुण प्रगट हो आज।।तुम.।।३७४।।
प्रभु ‘पती’ प्राणीवर्ग को, संसार दुख से काढ़।
रक्षा करो त्रिभुवनपती सुर, नमें रुचिधर गाढ़।।तुम.।।३७५।।
वैवल्यज्ञानमय बुद्धि धरंत ‘धीश’।
मेरे सुज्ञानमय ज्योति करो मुनीश।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३७६।।
‘विद्यानिधी’ स्वपर शास्त्र सुज्ञानरूपा।
भंडार आप उसके निधि है अनूपा।।हे नाथ.।।३७७।।
त्रैलोक्य की सकल वस्तु प्रतक्ष जानो।
‘साक्षी’ कहें सुरपती प्रभु ज्ञान भानू।।हे नाथ.।।३७८।।
मोक्षैक मार्ग प्रकटी करते ‘विनेता’।
पादाब्ज में नित नमूँ मुझ विघ्न नाशो।।हे नाथ.।।३७९।।
मृत्यू विनाश ‘विहितांतक’ नाम धारा।
मेरे समस्त दुख रोष मिटाय दीजे।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३८०।।
रक्षा करो दुर्गती दुख से बचाते।
साधू ‘पिता’ कह रहे सुख के जनक हो।।हे नाथ.।।३८१।।
त्रैलोक्य के गुरु कहें सबके सुत्राता।
इससे ‘पितामह’ तुम्हें कहते गणीशा।।हे नाथ.।।३८२।।
रक्षा करो नित भवोदधि दु:ख से ही।
‘पाता’ कहें सुरपती मुझको उबारो।।हे नाथ.।।३८३।।
आत्मा पवित्र कर ली निजकी तुम्हीं ने।
इससे ‘पवित्र’ मुझको भि पवित्र कर दो।।हे नाथ.।।३८४।।
संपूर्ण भव्य जन को सुपवित्र करते।
‘पावन’ कहें मुनि तुम्हें मुझ पाप नाशो।।हे नाथ.।।३८५।।
संपूर्ण भव्य तप कर प्रभू आप जैसा।
होना चहें ‘गति’ अत: सबको शरण भी।।हे नाथ.।।३८६।।
‘त्राता’ समस्त जन रक्षक भी तुम्हीं हो।
पादाब्ज आश्रय लिया अतएव मैंने।।हे नाथ.।।३८७।।
हो वैद्य आप भव रोग विनाश कर्ता।
इससे ‘भिषग्वर’ तुम्हीं मुझ व्याधि नाशो।।हे नाथ.।।३८८।।
हो ‘वर्य’ आप जग में अतिश्रेष्ठ माने।
मुक्तीरमा तुम वरण अभिलाष धारे।।हे नाथ.।।३८९।।
इच्छानुकूल सब वस्तु प्रदान करते।
इससे ‘वरद’ सुरग मोक्ष तुम्हीं प्रदाता।।हे नाथ.।।३९०।।
ज्ञानादि से ‘परम’ आप त्रिलोक लक्ष्मी।
धारें अत: जन सभी तुम पास आते।।हे नाथ.।।३९१।।
आत्मा व अन्य जन को भि पवित्र करते।
इससे ‘पुमान्’ तुम ही जग के हितैषी।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३९२।।
हे नाथ! आप ‘कवि’ द्वादश अंग वर्णें।
सद्धर्म के कथन में अतिशायि पटुता।।हे नाथ.।।३९३।।
ना आदि नांत अतएव ‘पुराण पुरुष’।
आत्मा पुराण पुरुषा प्रभु आपकी है।।हे नाथ.।।३९४।।
ज्ञानादि से अतिशयी प्रभु वृद्ध ही हो।
इस हेतु नाम तुम ‘वर्षीयान्’ पाया।।हे नाथ.।।३९५।।
सुश्रेष्ठ हो ‘ऋषभ’ नाम धरा तुम्हीं ने।
इंद्रादि वंद्य सुरपूजित सौख्य देवो।।हे नाथ.।।३९६।।
हे देव! आप ‘पुरु’ है युग के विधाता।
संपूर्ण द्वादश गणों मधि मुख्य ही हो।।हे नाथ.।।३९७।।
उत्पत्ति है प्रतिष्ठा गुण की तुम्हीं से।
इससे तुम्हीं ‘प्रतिष्ठाप्रसवादि’ नामा।।हे नाथ.।।३९८।।
संपूर्ण कार्य हित कारण ‘हेतु’ आप।
संपूर्ण ज्ञानमय नाथ! सुज्ञानदाता।।हे नाथ.।।३९९।।
हो एकमात्र गुरु सर्व त्रिलोक में भी।
अतएव आप ‘भुवनैकपितामहा’ हो।।हे नाथ.।।४००।।
प्रभु महाशोकध्वज आदि नाम, सौ धारा सुरपति पूजित हो।
सौ इंद्रों से वंदित गणधर, मुनिगण से वंदित संस्तुत हो।।
प्रभु सात परम स्थान हेतु मैं, नित प्रति तुम गुण को गाऊँ।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको, तुमपद में ही मैं रम जाऊँ।।४।।
इति श्रीमहाशोकध्वजादिशतम्।