बनारस पहुँचने से २-३ दिन पूर्व हम लोग एक गाँव से बाहर स्कूल में ठहरे हुए थे। प्रातः बाहर एक चबूतरे पर बैठकर मैं हाथ में ‘प्रथमगुच्छक’ पुस्तक लेकर पढ़ रही थी। उसमें ‘समयसार कलश’ श्लोक छपे हुए हैं।
उन्हीं कलश काव्यों का स्वाध्याय कर रही थी। सामने से एक विद्वान् महोदय आये। वे स्नान कर धोती-दुपट्टा में थे, तिलक लगाये हुए थे, उनके कंधे पर यज्ञोपवीत थी, पैरों में खड़ाऊँ थे। वे मेरे सामने आकर खड़े हो गये। एक क्षण देखते रहे पुनः नमस्कार कर पूछा-
‘‘आप यह जो पाठ पढ़ रहीं है, उसका कुछ अर्थ भी समझ रही हैं या नहीं?’’ मैंने संस्कृत भाषा में ही उत्तर दिया- ‘‘अथ किं, किंचित्-किंचित् अवबुध्यते।’’ हाँ! कुछ-कुछ समझ में आता है।
वे ब्राह्मण विद्वान् आश्चर्यचकित हो गये पुनः संस्कृत में बोलने लगे कि- ‘‘मैं समझता था कि जैन साधु-साध्वी संस्कृत में निरक्षर भट्ट होते हैं पुनः आज उससे विपरीत देख रहा हूँ।
सो आपने संस्कृत में व्याकरण पढ़ा है क्या?’’ मैंने भी संस्कृत में ही उत्तर दिया कि-‘‘हाँ, जैनेन्द्र व्याकरण, कातंत्ररूपमाला ऐसे व्याकरण मैंने पढ़े-पढ़ाये हैं।’’ इस संदर्भ में मैंने उन्हें बताया कि-
दिगंबर जैनाचार्यश्री महावीरकीर्तिजी महाराज अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, तमिल आदि कई भाषाओं के ज्ञाता हैं, धाराप्रवाह संस्कृत बोलते हैं, सिद्धांत, न्याय, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, निमित्त और मंत्र-तंत्र आदि सर्व विषयों के ज्ञाता हैं। उस समय वे ब्राह्मण महोदय १० मिनट तक वहीं मेरे पास बैठ गये
और बोले- ‘‘आप जो पढ़ रही हैं, उसे समझाइये।’’ ‘‘मैंने भी समयसार कलश के कई एक काव्य पढ़कर, उनका विस्तृत अर्थ भी संस्कृत में ही समझा दिया। एक प्रकार से वहाँ उस समय मेरा संस्कृत में ही छोटा सा प्रवचन हो गया।
वे विद्वान् बाद में बहुत-बहुत प्रशंसा करते हुए बोले- ‘‘आज मैं ‘ब्राह्मण वर्ण में ही गीर्वाणी भाषा है, इस गर्व को छोड़कर आपके श्रीचरणों में नत-मस्तक हूँ। मुझे आपने जो अध्यात्म का उपदेश ५-७ मिनट सुनाया है, वह मैं कभी नहीं भूलूँगा।’
’ अनंतर उन्होंने मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय ब्र. सुगनचंद और प्रकाशचंद से पूछा-उन लोगों ने सुनाया और कहा- ‘‘अभी आप माताजी के आहार की चर्या देखिये।’’ उन विद्वान् ने आहार देखा, गद्गद् होकर प्रार्थना की कि-
‘‘आप यहाँ मेरे गुरुकुल में सभी विद्यार्थियों को कुछ धर्म उपदेश सुनाकर ही विहार कीजिये’’ अतः मैंने उन्हें उपदेश सुनाया और वहाँ से विहार किया। वे विद्वान भी मेरे साथ कुछ दूर तक छोड़ने आये।
इससे पूर्व जब वे खड़े-खड़े मेरे पास वार्तालाप कर रहे थे, मैंने देखा था कि विद्यार्थी बटुक आ-आकर उन गुरुजी को नमस्कार करके चरण स्पर्श कर रहे थे। यह चरण स्पर्श की परम्परा आज के स्कूल-कालेजों में कहाँ मिलेगी? वह शुद्ध गुरुकुल परम्परा का स्कूल था।
विहार के समय उन विद्वान् ने मुझसे पूछा- ‘‘हम लोग मातुश्री के चरण स्पर्श करना चाहते हैं, क्या आज्ञा मिलेगी?’’ आज्ञा मिलने पर सभी ने बहुत ही विनय से चरण स्पर्श किये थे।
उन विद्वान् ने तो साष्टांग नमस्कार कर संस्कृत में ही बहुत कुछ स्तवन करते हुए बार-बार चरण स्पर्श कर विदाई दी थी। उन्होंने अपना नाम, स्कूल का नाम आदि बताये थे, मैंने वह सब दैनिक डायरी में लिखा भी था, लेकिन उन डायरी-काँपियों के इधर-उधर हो जाने से आज मुझे वह याद नहीं है।
उन विद्वान् से वार्तालाप के बाद मुझे वह ‘पात्र केशरी’ आचार्य की घटना याद आ गई कि जिन्होंने जैनमुनि के मुख से ‘आप्तमीमांसा’ स्तोत्र सुनकर एकपाठी होने से अर्थ हृदयंगम कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया था।
उन विद्वान् ने भी बार-बार मुझसे यही कहा कि- ‘‘आज से मेरा जैनधर्म और जैन साधुओं से द्वेष जाता रहा, अब मैं जैनधर्म के ग्रंथ अवश्य पढूंगा।’’ उस समय मैंने उन्हें ‘आत्मानुशासन’ और ‘पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय’ पढ़ने की प्रेरणा दी थी।
उसके बाद वे विद्वान् कलकत्ते में एक बार दर्शनार्थ आये थे। ऐसे ही उस मार्ग में कई जगह स्कूलों में विद्वानों से संस्कृत भाषा में वार्तालाप और विद्यार्थियों के लिए उपदेश देने का प्रसंग आता रहा था। मैंने सोचा-‘‘देखो! बनारस के निकट आस-पास में भी संस्कृत का अध्ययन कितना सुन्दर चल रहा है।
’’ मेरे मन में प्रारंभ से ही यह इच्छा थी कि लगभग १०० बालक और १०० बालिकाओं को घर-घर से निकाल कर ब्रह्मचर्य व्रत देकर, संस्कृत व्याकरण का और जैन सिद्धांतों का, न्याय ग्रंथों का गहरा अध्ययन कराया जावे। उस समय भी यह भावना पुनः जाग्रत हुई।
सन् १९६८ में प्रतापगढ़ चातुर्मास में आर्यिका विशुद्धमती के साथ में चर्चा करते हुए कई बार मेरे मुख से यह भावना निकल जाती थी, तब वे जोर देकर कहती थीं कि- ‘‘माताजी! यदि आप बुन्देलखंड में विहार करें, तो मैं निश्चित कहती हूँ कि आपको सौ बालिकाएँ मिल जायेंगी।
’’ खैर! मैं तो इधर उत्तरप्रदेश में आ गई और जम्बूद्वीप निर्माण आदि कार्यों में मुझे मार्गदर्शन देना पड़ा। आज मैं देखती हूँ कि लगभग ५० ब्रह्मचारी और लगभग १०० ब्रह्मचारिणियाँ घर से निकल कर मोक्षमार्ग में भी लग चुके हैं और अध्ययन भी अच्छा कर रहे हैं।
इन्हीं ब्रह्मचारी वर्ग के पढ़ने हेतु सन् १९७३ में अनुवादित मेरी ‘कातंत्ररूपमाला’ १९८७ की प्रतिष्ठा में छपकर आ चुकी थी और इन ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों के हाथ में पहुँच चुकी थी।
बनारस क्षेत्र के दर्शन
बनारस के अनेक श्रावक सामने लेने आये, मैं संघ सहित वहाँ पहुंची और मैदागिन धर्मशाला में ठहराया गया। वहाँ से शहर के मंदिरों के दर्शन करने गई। यहाँ चार तीर्थंकरों के जन्म हुए हैं-सुपार्श्वनाथ,पार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ और श्रेयांसनाथ।
भदैनीघाट
भदैनीघाट के मंदिर में दर्शन करने गई। यहाँ स्याद्वाद महाविद्यालय नामक एक संस्था है। इसके भवन के ऊपर भगवान् सुपार्श्वनाथ का मंदिर है, यह गंगा तट पर अवस्थित है, अत्यन्त सुन्दर है।
वेदी में भगवान् सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा है और भी जिनप्रतिमाएं हैं। गर्भगृह के द्वार पर दायें-बायें पार्श्व में मातंग यक्ष और मानवी (काली) यक्षी बनी हुई हैं, यहाँ दर्शन किये पुनः स्याद्वादमहाविद्यालय के प्रधान पंडित कैलाशचंदजी सिद्धांत शास्त्री सामने आये और विद्यालय में अन्दर ले जाकर सब कुछ दिखाने लगे।
साथ ही मेरे साथ संस्कृत में वार्तालाप करते हुए बहुत खुश थे और एक घण्टा घूमने-घुमाने के बाद बोले-‘‘माताजी! मैं दिगम्बर जैन मुनि-आर्यिकाओं से अरुचि सी रखता हूँ किन्तु आज आपसे वार्तालाप करके, आपकी चर्या और आपका ज्ञान देखकर बहुत ही प्रभावित हुआ हूूँ।
मुझे बहुत ही खुशी हो रही है कि आज आप जैसी आर्यिकाएँ हैं। आपके यात्रा की व्यवस्था में भी, जैसा कि मैंने सुना है कि न आप रुपये आदि की याचना स्वयं करती हैं न संघस्थ श्रावकों को करने देती हैं। ये सब व्यवस्थायें हमें बहुत अच्छी लग रही हैं.।’’
भेलूपुर
वहाँ से आकर मैं अगले दिन भेलूपुर गई। वहाँ दो मंदिर बने हुए हैं। जैन धर्मशाला भी है। यहाँ मंदिर की वेदी में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों की प्रतिमायें विराजमान हैं। इस मंदिर के बगल में दिगम्बर जैन मंदिर है।
मुख्य वेदी में भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा है।
सिंहपुरी
यह तीर्थ बनारस शहर से ६ किलोमीटर दूर उत्तर में अवस्थित है। यहाँ भगवान् श्रेयांसनाथ के चार कल्याणक हुए हैंं। यहाँ पर भी दिगम्बर जैन मंदिर है। जैन मंदिर के निकट ही एक स्तूप है। इसकी उँचाई १०३ फुट है।
मध्य में इसका व्यास ९३ फुट है। स्तूप के ठीक सामने सिंह द्वार बना हुआ है। जिसके दोनों स्तंभों पर सिंह चतुष्क बना हुआ है। सिंहों के नीचे धर्मचक्र है। भारत सरकार ने इस स्तम्भ की सिंहत्रयी को राजचिन्ह के रूप में मान्य किया है
और धर्मचक्र को राष्ट्रध्वज पर अंकित किया है। जब से इन धर्मचिन्हों की शासन से मान्यता प्राप्त हुई है, तब से जन साधारण का ध्यान इस ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ है।
चंद्रपुरी
यह तीर्थ क्षेत्र बनारस से आगे गंगा के किनारे अवस्थित है। यह आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु भगवान् का जन्मस्थान है। इसी स्थान पर भगवान् के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार कल्याणक हुए हैं। मैं जिस दिन यहाँ दर्शन करने आयी, उस दिन यहाँ छोटा सा मेला था, भगवान् चंद्रप्रभु का गर्भ कल्याणक था।
वहाँ उस दिन भी पंडित कैलाशचंदजी आये हुए थे, पुनरपि उनसे कुछ चर्चायें होती रहीं। यहाँ चैत्र कृष्ण पंचमी को वार्षिक मेला भरता है।
यहाँ बनारस में मैंने वहाँ एक स्थान पर जाकर वह ‘शिव पिंडी’ भी देखी, जो शतखंड थी और सांकल से बंधी हुई थी, उस स्थान का नाम मैं अवश्य भूल गई हूँ। उस शिवपिंडी का स्मरण कर यह पद्य याद आये बिना नहीं रहता है-
शिवकोटि ने हठ था किया समंतभद्र सों।
शिवपिंड को वंदन करो शंको अभद्र सों।।
उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भावभद्र सों।
जिनचंद्र की प्रतिमा तहाँ प्रगटी सुभद्र सों।।२१।।
आरा
लाडनूं से लगभग १२०० मील सम्मेदशिखर था और मार्ग का हमने सारा विवरण लिख लिया था। एक पुस्तक मुझे छपी हुई मिल गई थी, एक कापी भी संघस्थ ब्र. जी ने मुझे दी थी, उसके आधार से मैंने ये एक प्रकार का रूपक बना लिया था
कि हर महीने २०० मील चलना है जिससे कि ६ महीने में मैं सम्मेदशिखर पहुँच जाऊँ, इस प्रकार से चलते हुए वहाँ पर मैंने टिकैतनगर में अधिक विराम नहीं लिया, वहाँ से विहार कर दरियाबाद आदि होते हुए आगे बढ़कर फैजाबाद से आगे आरा पहुँची। आरा में ब्र. चंंदाबाई बड़ी ही वात्सल्यप्रधान महिला थीं।
इन्होंने बहुत ही आदर से मेरे संघ का स्वागत किया, आश्रम में ठहराया। सुनने में आया कि आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज आरा पधार रहे हैं, तब ब्र. चंदाबाई के आग्रह से मैं वहां कुछ दिन के लिए और ठहर गर्इं।
आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज पधारे। दोनों संघ का सम्मेलन बहुत ही प्रभावनापूर्ण रहा। ब्र. चंदाबाई मेरे पास तो घंटों बैठती थीं। गोम्मटसार आदि अनेक प्रकार के सैद्धान्तिक विषयों पर चर्चा किया करती थीं। मैं जिनमती के साथ संस्कृत में वार्तालाप करती, तब वे बहुत प्रसन्न होतीं।
कभी मैं न्याय की चर्चा करती, कभी ऊँचे-ऊँचे ग्रंथों की, तो उन्हें ऐसा लगता था कि कुछ भी हो, सम्मेदशिखर की वंदना करने के बाद माताजी! आप अपना चातुर्मास आरा में ही करें, यहाँ तत्त्व चर्चा का हम लोगों को बड़ा लाभ मिलेगा।
पिता का प्रयास
उधर घर में पिता ने कैलाश से कहा- ‘‘कैलाश! तुम आरा तार दे दो कि तुम्हारे पिताजी बहुत ही बीमार हैं, प्रकाश तुम जल्दी आ जाओ।’’ पिता की आज्ञा के अनुसार कैलाश ने तार दे दिया।
आरा में तार मिलते ही प्रकाशचन्द ने मुझको बताया। उस समय वहाँ आचार्य विमलसागर जी महाराज संघ सहित आये हुए थे। प्रकाशचंद घबराए हुए बोले- ‘मेरे पिताजी अस्वस्थ हैं’ ऐसा तार आया है।
’’ तब उन्हें कहा गया कि ‘‘प्रकाश! तुम चिंता मत करो, तुम्हारे पिता स्वस्थ हैं। दुकान पर बैठे कपड़े फाड़ रहे हैं और ग्राहक उन्हें घेरे हुए हैं।’’ प्रकाश कुछ शांत तो हुए किन्तु पूर्ण विश्वास नहीं कर पाये। तभी सब लोगों के द्वारा समझाने पर विश्वस्त हो गये।
आचार्य विमलसागरजी महाराज का वात्सल्य बहुत ही अच्छा था। यहाँ पर शरबतीजी, जो कि यहाँ पहले अध्यापिका रहीं थीं, अब वे विजयमती आर्यिका थीं, वो ब्यावर चातुर्मास में मेरे पास आई थीं, कुछ दिन रही थीं,
उस समय अष्टसहस्री का पठन-पाठन और कर्मकांड की चर्चा, संस्कृत में वार्तालाप आदि देखकर ये बहुत प्रभावित हुई थीं और बोली थीं कि-‘‘माताजी! मैं किसी भी तरह से आरा से छुटकारा पाकर, आपके श्री चरणों में रहूँगी और अष्टसहस्री आदि न्याय ग्रंथों का उच्चतम अध्ययन करके, अपने ज्ञान को विकसित करूँगी
किन्तु योगायोग ऐसा हुआ कि उन्होंने आचार्यश्री विमलसागरजी के दर्शन किये और उन्हीं आचार्यश्री से आर्यिका दीक्षा ले ली थी अतः वे संघ में थीं। पुरानी स्मृति उनके सामने आ गई और हंसकर बोलीं-‘‘माताजी! आपके पास रहने का हमें योग नहीं था, अष्टसहस्री के अध्ययन का भी योग नहीं था।’’
पटना
मधुर वातावरण में यहाँ से हमारा विहार पटना की तरफ हुआ। महावीर जयंती का अवसर आ रहा था। पटना में प्रकाशचन्द साहित्यरत्न जो कि अभी गाजियाबाद रहते हैं। इन्होंने एक बहुत बड़े हॉल में महावीर जयंती का प्रोग्राम रखा और वहाँ मेरा प्रवचन विशेष रूप में कराया।
लोग बहुत प्रसन्न हुए, ये लोग भी कुछ दिन ठहरने का बहुत आग्रह कर रहे थे किन्तु समयाभाव के कारण ठहरना नहीं हुआ। यहाँ से गुलजार बाग जाकर, सेठ सुदर्शन की निर्वाणभूमि की वंदना कर, उनके चरणों को नमस्कार किया। यहाँ पटना में पटना के साहित्यरत्न प्रकाशचंद जैन और संघ के प्रकाशचंद जैन दोनों एक छोटी सी बात में उलझ कर अंधेरे में आ गये।
बात यह थी कि पटना के प्रकाशचंद कुछ सामान लाकर उनके रूपये नहीं ले रहे थे और संघस्थ प्रकाशचंद कह रहे थे कि आपको रुपया लेना होगा। साहित्यरत्न ने कहा-‘‘क्या आपने माताजी को खरीद लिया है?
जो कि हम लोगों का सामान नहीं ले सकते’’? संघस्थ प्रकाश ने कहा-‘‘हम लोगों ने नियम लिया है कि किसी से पैसा आदि नहीं लेना है। आपको गुरुभक्ति है तो कुछ दिन साथ चलो….।’’ खैर! यहाँ से एक हेमंत नवयुवक साथ में आया था, वह शिखरजी तक साथ रहा है।
राजगृही
मैं संघ सहित राजगृही आ गई। यहाँ के पाँचों पहाड़ों की वंदना कर बहुत थक गई। इस राजगृही में भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार कल्याणक हुए हैंं। यह क्षेत्र सिद्धक्षेत्र भी माना गया है।
यहाँ से जीवंधर स्वामी, मुनि धर्मरुचि, मुनिश्री श्वेतसंदीव, मुनिश्री प्रीतिंकर आदि अनेक मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है। खास करके यह क्षेत्र भगवान महावीर की प्रथम देशना से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। षट्खंडागम ग्रंथ में गाथाएँ हैं-
वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में प्रथम पक्ष-कृष्ण पक्ष में, प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल के समय आकाश में अभिजित् नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ अर्थात् धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई। ।।५६।।
श्रावणकृष्णा प्रतिपदा के दिन रुद्र मुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग का आरंभ हुआ, तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए।।५७।।
देव और विद्याधरों के मन को मोहित करने वाले और सार्थक नाम वाले पंचशैल नगर (राजगृह) में पर्वतों में श्रेष्ठ विपुलाचल पर्वत पर श्रीवीरजिनेन्द्र अर्थशास्त्र के कर्ता हुए हैं। अर्थात् श्रावणकृष्णा एकम् के दिन विपुलाचल पर्वत पर भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि खिरी थी।
यों तो वैशाख शुक्ला १० को भगवान् को केवलज्ञान होते ही समवसरण की रचना हो गई थी किन्तु गणधर के अभाव में दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी।
इस दिन इन्द्र के द्वारा गौतम को उपस्थित किये जाने पर और गौतम के द्वारा दीक्षा लेकर मनःपर्ययज्ञान प्राप्त करने पर, उनके गणधर होते ही भगवान् की दिव्यध्वनि खिरी थी। यहाँ के राजा श्रेणिक और रानी चेलना की भक्ति और इतिहास बहुत ही प्रसिद्ध है।
वर्तमान में दिगम्बर जैन धर्मशाला और दो विशाल दिगम्बर जैन मंदिर हैं। वर्तमान में आचार्य श्री विमलसागरजी ने महावीरकीर्तिजी गुरुदेव के स्मारक रूप में यहाँ एक विशाल सरस्वती भवन का निर्माण कराया है।
साहूजी ने सन् ९९८६ में वहाँ पर्वत पर चतुर्मुखी प्रतिमा विराजमान करायी हैं। यहाँ पर उपाध्याय अमरमुनि जी, जो कि स्थानकवासी थे, इन्होंने बहुत बड़ा ‘वीरायतन’ बनवाया है।
ये रचनायें सन् १९६३ में नहीं थीं। यहाँ पर अनेक झरने और कुंड हैं, इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय सप्तधारा और ब्रह्मकुंड के झरने हैं। कुंडों के गरम जल में स्नान कर यात्रियों को बड़ा आनन्द आता है। यहाँ पर ब्रह्मचारिणी चन्दाबाईजी आ गई थीं।
उन्होंने बैठकर मेरे पास अनेक चर्चायें कीं। उसमें एक चर्चा प्रमुख रही कि भगवान् महावीर स्वामी के पादमूल में दीक्षा लेकर उन्हीं का शिष्यत्व स्वीकार करने पर ही वे गौतम गणधर बन सके थे,
उसके पूर्व मस्करीपूरण नाम के एक मुनि विशेष ज्ञानी वहाँ उपस्थित थे किन्तु वे भगवान् के शिष्य न होने से गणधर नहीं बन सके थे, इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि ‘गुरु शिष्य संबंध’ भी बहुत महत्त्व रखता है।
मुझे सन् १९५५ की म्हसवड़ की घटना याद आ गई कि जब कु. प्रभावती को दसवीं प्रतिमा के व्रत देने थे, क्षुल्लिका विशालमतीजी ने समझा-बुझाकर कर मुझसे ही व्रत दिलाया था और कहा था कि यह प्रभावती आगे चलकर आपके पास ही रहेगी अतः गुरु-शिष्य का वात्सल्य बना रहे, इसलिए उन्होंने व्रत नहीं दिया था। ब्र. चंदाबाई जी ने बहुत आग्रह किया कि-
‘‘माताजी! आप सम्मेदशिखर की वंदना करके वापस आरा आकर ही चातुर्मास करेंगी, ऐसा आश्वासन दे दो, इसलिए मैं यहाँ आई हूँ।’’ किन्तु मैंने कहा-‘‘अभी मैं वचन नहीं दे सकती। तीर्थराज की वंदना के बाद ही विचार करूँगी।’’ २-३ दिन वहाँ रहकर पुनः वहाँ से विहार कर मैं पावापुरी आ गई।
पावापुरी
यह पावापुरी भगवान् महावीर स्वामी का सिद्धक्षेत्र प्रसिद्ध है। संस्कृत की निर्वाण भक्ति में श्रीपूज्यपाद स्वामी ने कहा है-
पावापुरस्य बहिरुन्नतभूमिदेशे,
पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये।
श्रीवर्धमान जिनदेव इति प्रतीतो,
निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा।।२४।।
पावापुर के बाहर उन्नत भूमिप्रदेश पर कमलों से सुशोभित तालाब के बीच में कर्मों से रहित भगवान् वर्धमान ने निर्वाण प्राप्त किया है। यहाँ जलमंदिर के दर्शन के समय मन में बहुत ही हर्ष हुआ, ऐसा लगा मानो साक्षात् भगवान् ही मिल गये हों। सरोवर के मध्य संगमरमर से निर्मित जैनमंदिर है।
यहाँ पहुँचने के लिए लगभग ६००फुट लम्बा पुल बना हुआ है। उस पर से जाकर ही छोटे से मंदिर में भगवान् महावीर स्वामी के चरण विराजमान हैं। यहाँ निर्वाण लाडू चढ़ाने के लिए लाखों की भीड़ उपस्थित होती है।
कार्तिक कृष्णा अमावस्या के निर्वाण समय-पिछली रात्रि में यहाँ मेला भरता है। जलमंदिर के निकट ही दिगम्बर जैन मंदिर है उसको घेर कर धर्मशाला है।
पावापुरी या पावा
आजकल पुरातत्त्व के अन्वेषक कुछ विद्वान् पावापुरी के अतिरिक्त अन्य ही ‘पावा’ को भगवान् की निर्वाणस्थली कहते हैंं। हमें उन अन्वेषकों की बातों पर विश्वास और प्रेम नहीं है, प्रत्युत् इसी पावापुरी को निर्वाणस्थली मानने में प्रेम है। यहाँ पर रहकर भगवान् की वंदना कर आगे विहार कर दिया।
गुणावा
एक गुणावा क्षेत्र है, यह बिहार प्रांत में नवादा जिले में है। यह स्थान गौतम स्वामी का निर्वाणस्थल माना जाता है अतः इसे भी सिद्ध क्षेत्र कहते हैं। पावापुरी की तरह यहाँ भी सरोवर के मध्य जिनमंदिर बना हुआ है।
इस मंदिर में एक वेदी में श्री गौतमस्वामी के चरण विराजमान हैं। धर्मशाला के बीच में एक दिगम्बर जैन मंदिर है। यहाँ के दर्शन कर हम लोग और आगे बढ़े।
कुंडलपुर
यह कुंडलपुर भगवान् महावीर की जन्मभूमि है, यहाँ दर्शन किये। आज कुछ लोग वैशाली को राजा चेटक की राजधानी मानकर जो भगवान् की जन्मभूमि मानते हैं सो सर्वथा गलत है। पं. सुमेरुचंद दिवाकर ने एक बार कहा था-तीर्थंकर जैसे महापुरुष नाना के गाँव में जन्म लेवें, असंभव है।
उनके पिता एक देश के स्वतंत्र राजा रहते हैं। खैर! अन्वेषक विद्वानों की बातें दिगम्बर जैन ग्रन्थों के अनुकूल नहीं हैं।
चंपापुरी
चंपापुरी अत्यन्त प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है यहाँ बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणक हुए हैं। यह एक ही ऐसा क्षेत्र है, जहाँ एक तीर्थंकर के पाँचों कल्याणकों का लाभ मिला है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है-
चंपापुरे च वसुपूज्यसुतः सुधीमान्।
सिद्धि परामुपगतो गतरागबंधः।।
वसुपूज्य राजा के पुत्र भगवान् वासुपूज्य ने राग-द्वेषरूपी बंधन का नाश कर चंपापुर से निर्वाण प्राप्त किया है। यहाँ पहले मैं भागलपुर में एक धर्मशाला मेें ठहरी, उपदेश हुए, श्रावकों ने आहार दान आदि का लाभ लिया।
यहाँ सीकर के कई एक परिचित श्रावक रह रहे थे। यहाँ से चंपापुर क्षेत्र के दर्शन करने गई, वहाँ भी २-३ दिन रही। वहाँ पर दो लंबी मीनारें बनी हुई हैं, ये लगभग ५०फुट उँची हैं।
यहाँ से मंदारगिरि पर्वत पर चढ़कर भगवान् के निर्वाणस्थल की वंदना की। यह पर्वत बहुत ही छोटा है अतः चढ़ने में श्रम न होने से बहुत ही अच्छा लगा। यहाँ से चौरानवे मुनियों के साथ भगवान् वासुपूज्य मोक्ष गये हैं।
प्राचीन काल में अंग देश की राजधानी चंपापुरी ४८ कोश (९६ मील) की थी अतः यह मंदारगिरि भी उसी नगरी के उद्यान में समझना चाहिए। इस क्षेत्र की वंदना करके अनंत अशुभ कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसा विश्वास हुआ क्योंकि निर्वाण क्षेत्र की वंदना कर्मों का नाश करने में समर्थ ही है।
बैजनाथ से गिरडीह
विहार करते हुए मैं बैजनाथ धाम पहुँची, इसे देवघर भी कहते हैं। यहाँ पर कुछ लोगों ने बताया कि प्रमुख मार्ग से गिरिडीह ७५ मील है और बीच के-जंगल के रास्ते से कुल ३५ मील है। ऊहापोह करने के बाद यह निश्चित हुआ कि हम लोग पैंतीस (३५) मील वाले रास्ते से ही चलेंगे।
तब ब्र. सुगनचंदजी ने यह व्यवस्था बनाई कि गाड़ी और सारा सामान तथा वृद्धा ब्रह्मचारिणियों को सीधे गिरडीह भेज दिया। आप स्वयं २-३ दिन का सामान और कुछ बर्तन २-३ कावड़ियों को देकर, साथ लिया और मेरे साथ वहाँ से रास्ते के जानकार आदमी दिये। मैं चारों साध्वियों और कु. मनोवती को साथ लेकर चल पड़ी।
जंगल के बीच में कहीं पगडंडी से चलते थे, कहीं बैलगाड़ी की सड़क भी मिल जाती थी, बड़ा आनंद आ रहा था। मार्ग में ८-१० मील के बाद जहाँ कहीं जल की व्यवस्था दिखती, ब्र. जी वहीं चौका की व्यवस्था करते।
मनोवती चौका बना लेती और दोनों लोग मिलकर पाँचों आर्यिकाओं को आहार करा देते थे पुनः स्वयं भोजन करके मेरे साथ पैदल चल देते थे।
इतने लम्बे रास्ते को हम लोगों ने तीन दिन में पार कर लिया और सकुशल गिरडीह पहुँच गये। वहाँ के लोगों ने अच्छी व्यवस्था की। प्रातः काल मेरा उपदेश सुनकर अतीव आग्रह करने लगे कि यहाँ एक सप्ताह तो ठहरना ही होगा
किन्तु हम लोगों को तो अब सम्मेदशिखर पहुँचने की इतनी आकुलता थी कि ऐसा लगता था मानों उड़कर ही अब तीर्थराज पर पहुँच जाएँ। यहाँ से मध्यान्ह में ही विहार कर दिया और यथासमय सम्मेदशिखर पहुँच गई।