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05.दशलक्षण धर्म का कथन!
March 11, 2018
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
INDU.JAIN
दशलक्षण धर्म का कथन
उत्तम क्षमा धर्म का स्वरूप
जो मूर्खजनों से किए हुए बंधन अरु हास्य क्रोध में भी।
निंह मन में जरा विकार करे समताधारी वह साधू ही।।
यह उत्तम क्षमा धार सकते जो मोक्षमार्ग में ले जाती।
बाकी हम सब गृहस्थजन से निंह एकदेश पाली जाती।।(८२)
यतिरूपी वृक्ष की शाखा है गुणरूपी पुष्प फलों शोभित।
उसमें यदि क्रोध मान आदिक अग्नी से मुनि हो जाए सहित।।
जैसे िंचगारी क्षण भर में उत्तम फलयुत तरु जला सके।
वैसे ही मुक्ति न मिल सकती इसलिए क्रोध ना कभी करें।।(८३)
रागद्वेषादि रहित होकर स्वेच्छा से निज में मगन रहे।
यह लोक भला या बुरा कहे उसकी न कोई परवाह करे।।
क्योंकि जो हमारे साथ द्वेष या प्रीतिपूर्ण व्यवहार करे।
उसका फल उसको ही मिलता यह पद्मनंदि आचार्य कहें।।(८४)
मेरे दोषों को सबसे कह करके यदि मूर्ख सुखी होता।
अथवा धन संपति लेकर के मेरा जीवन भी ले लेता।।
खुश रहे सभी कुछ लेकर भी अथवा मध्यस्थ रहे कोई।
मुझसे न किसी को दुख पहुँचे ऐसी बुद्धि होवे मेरी।।(८५)
मिथ्यादृष्टी दुर्जन जन से दी गयी वेदना से हे मन।
तुम दुख का अनुभव नहीं करो होता है कर्मों का बंधन।।
जिनधर्म का आश्रय तुझे मिला ये धर्म तुझे बतलाना है।
यह सारा लोक अज्ञानी जड़ तू इससे क्यों घबराता है।।(८६)
मार्दव धर्म का स्वरूप
जो श्रेष्ठ पुरुष कुल ज्ञान जाति बल आदि गर्व को त्याग करे।
वह सब धर्मों का अंगभूत मार्दव इस धर्म को पाल रहे।।
जो सम्यग्ज्ञानमयी दृष्टी से जग को इंद्रजाल समझे।
वे निश्चय ही मार्दव गुण को अपने अंदर धारण करते।।(८७)
अति सुंदर घर भी यदि अग्नी से चारों तरफ घिर गया हो।
तब उसके बचने की आशा कैसे कर सके ज्ञानिजन जो।।
बस इसी तरह इस काया को वृद्धावस्था ने घेर लिया।
नहिं सदाकाल रहता कोई यह गर्व छोड़कर मान हिया।।(८८)
आर्जव धर्म का वर्णन
जो मन में वही वचन बोले इसको ही आर्जव धर्म कहा।
पर मीठी चिकनी बातों से ठगना ये बड़ा अधर्म कहा।।
ये आर्जव धर्म स्वर्गदाता अरु कपट नरक ले जाता है।
इसलिए सदा जो इसे तजे वह सरल भाव अपनाता है।।(८९)
मायाचारी से मुनियों के सद्गुण फीके पड़ जाते हैं।
और माया से उत्पन्न पाप दुर्गति में भ्रमण कराते हैं।।
क्रोधादि शत्रु जो छिप करके माया के ग्रह में बैठे हैं।
उनको निकाल करके मुनिवर निंह पास फटकने देते हैं।।(९०)
सत्य धर्म का वर्णन
उत्कृष्ट ज्ञान के धारी मुनि को सदा मौन रखना चहिए।
यदि बोले भी तो हित मित प्रिय और सत्य वचन होना चहिए।।
जो कड़वे वचन दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले हों।
आचार्य प्ररूपण करते हैं निंह सच्चे साधु बोलते वो।।(९१)
जो सत्य धर्म का पालक है सब व्रत उसमें र्गिभत होते।
तीनो लोकों में पूज्यनीय माँ सरस्वती सिद्धी करते।।
इस व्रत का है महात्म्य इतना वसु का सिंहासन पृथ्वी में।
था समा गया मरकर राजा, अरु स्वर्ग गया नारद सच में।।(९२)
आचार्य और भी कहते हैं सतवादी परभव में जाकर।
इंद्रादि, चक्रवर्ती राजा का वैभव पाते हैं आकर।।
इस जीवन में ही र्कीित बढ़े आदर सम्मान बहुत होता।।
उत्तम फल मिले कई उनको अरु मोक्ष प्राप्त भी कर लेता।।(९३)
शौच धर्म का वर्णन
परधन परस्त्री में जो जन निस्पृह वृत्ती से रहता है।
अरु किसी जीव का बध करने की नहीं भावना करता है।।
अत्यंत कठिन क्रोधादि लोभ मल का जो हरने वाला है।
वह प्राणी ही तब शौच धर्म को धारण करने वाला है।।(९४)
अति घृणित मद्य से भरा हुआ घट धोने से नहिं स्वच्छ हुआ।
नहिं तीर्थस्थानों के स्नान से कोई कभी पवित्र हुआ।।
जब अंतकरण मलीमस है तो बाह्य शुद्धि से क्या होगा।
इसलिए पवित्र करो मन को तब ही निज का दर्शन होगा।।(९५)
संयम धर्म का वर्णन
जो हृदय दया से ओत प्रोत पाँचों समिति पालन करते।
ऐसे साधू षट्काय जीव की भी हरदम रक्षा करते।।
पंचेन्द्रिय के जो विषय भोग उनसे भी सर्वथा विरत रहे।
ऐसे मुनिश्रेष्ठ धर्म संयम को पाले गणधर देव कहें।।(९६)
यह मनुष धर्म अति दुर्लभ है उसमें भी अच्छी जाति मिले।
यदि दैवयोग से मिल जावे उसमें अर्हंत वचन न मिले।।
सद्वचन श्रवण को मिल जावे तो जीवन अधिक नहीं मिलता।
सब कुछ मिलने के बाद रत्नत्रय धारण कर संयम धरता।।(९७)
तप धर्म का वर्णन
ज्ञानावरणादिक आठ कर्म क्षय करने को जो ज्ञान कहा।
उस सम्यग्ज्ञानमयी दृष्टी से तप करते दो रूप कहा।।
बाह्याभ्यंतर से दोनों के हैं बारह भेद कहे जाते।
संसार जलधि से तिरने में ये नौका सम माने जाते।।(९८)
यद्यपि कषाय रूपी चोरों को जीता जाना मुश्किल है।
लेकिन तपरूपी योद्धा के सम्मुख टिकना नहिं मुमकिन है।।
इसलिए योगिजन मोक्षनगर में बाधा रहित चले जाते।
आचार्य प्ररूपण करते हैं योगी से न कोई जीत पाते।।(९९)
मिथ्यात्व उदय से घोर दुख सहने पड़ते हैं नरकों में।
फिर हे प्राणी ! क्यों घबराता है तप के थोड़े कष्टों से।।
जैसे अथाह सागर आगे जल का कण छोटा होता है।
वैसे ही तप में दुख बहुत अल्प करके तो देखो होता है।।(१००)
त्याग धर्म का वर्णन
जो मुनियों के श्रुतपाठन के हेतू पुस्तक का दान करे।
अरु संयम के साधन हेतू पिच्छी व कमण्डलु दान करे।।
उनके रहने के लिए श्रेष्ठ स्थान आदि भी दान करे।
तन से भी ममता तजकर ऐसे यति आकिंचन धर्म धरें।।(१०१)
आकिञ्चन्य धर्म का वर्णन
अपने हित में जो लगे हुए गृहत्याग पुत्र स्त्री तजकर।
वे मोक्ष हेतु तप करते हैं सबसे सर्वथा मोह तजकर।।
ऐसे मुनि विरले होते हैं मिलते हैं बड़ी कठिनता से।
पर को शास्त्रादि दान करके तप में भी बनें सहायक वे।।(१०२)
यदि कहो वीतरागी मुनि को सब त्याग दिया क्यों पुस्तक दें।
तन से क्यों मोह नहीं त्यागा आचार्यदेव तब कहते ये।।
जब तक है आयूकर्म शेष इस तन को नष्ट न कर सकते।
अपघातक दोष लगेगा तब, निंह तन से वे ममता रखते।।(१०३)
ब्रह्मचर्य धर्म का वर्णन
जैसे कुम्हार का चाक तीक्ष्ण धारण से घट निर्माण करे।
वैसे ही भव के भ्रमने में स्त्री दुख का आधार रहे।।
इसलिए मुमुक्षूजन स्त्री में माता बहिन सुता देखें।
जो ब्रह्मचर्य के धारी हैं वह स्त्री सुख में नहीं रमे।।(१०४)
जो रागी पुरुष स्त्रियों में प्रीति उपजाने वाले हैं।
उनको भी अच्छा कहा मगर जो नर विरक्त मन वाले है।।
ऐसे वैरागी साधक के चरणों में चक्रवर्ति नमते।
जो जगतपूज्य बनना चाहें वे नहीं स्त्रियों में रमते।।(१०५)
वैराग्य त्याग रूपी अतिसुंदर काष्ठ लगे हों इधर उधर।
दशधर्म रूपी दण्डे लगकर वह सीढ़ी बनी बड़ी सुंदर।।
उस पर चढ़ने के योग्य मनुज दशधर्म पालने वाला हो।
तीनों लोकों में पूज्यनीय और वंदनीय बन जाता वो।।(१०६)
इति दशधर्म निरूपण
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