‘‘आँख के अन्धे और नाम नयनसुख।’’ ‘‘जन्म के कंगाल पर नाम धनपाल!’’
आखिर नाम से कुछ बनता बिगड़ता तो है नहीं, फिर भी दैव के प्रति मानो वह एक चुनौती अवश्य होता है! अथवा होता है एक तीखा व्यंग! और इस प्रकार वह नाम ही कभी-कभी आत्मसन्तोष का साधन बन जाता है।पर इसके आत्म-सन्तोष तो क्या आत्म-वंचना या आत्म-विस्मरण ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। वैश्य धनपाल केवल निर्धन ही हों सो नहीं; नि:सन्तान भी थे—अर्थात् ‘‘दुबले और दो अषाढ़’’ वाली कहावत के भी वे एक खासे जीते जागते प्रतीक थे। इन दोनों दुश्चिन्ताओं ने इनके जीवन के मधुर-रस को सोख लिया था। वह जमाना आज का जमाना तो था नहीं कि जो गरीब हैं, वे सन्तान की इच्छा न करें और जो धनवान हैं-लक्ष्मी पुत्र हैं, वे कुछ नहीं तो एक पुत्री का ही मुँह देखने के लिये देवी देवताओं-पीर पैगम्बरों की देहली पर माथा रगड़ते फिरें। आज के युग की तो दिशा ही कुछ दूसरी हो गई है। जिनके यहाँ एक-एक लाल के लाले पड़े रहते हैं उनके यहाँ लालों की बोरियाँ भरी पड़ी रहती है। और जिनके यहाँ एक-एक दाने के लाले पड़े हैं उनके यहाँ इन बालों लालों की गिनती ही नहीं। इसी प्रसंग में इस युग के आदर्श ‘सन्तति-निग्रह’ के विषय में मैं कुछ भी नहीं लिखना चाहता; क्योंकि उससे कहानी; की पौराणिक भूमिका के छूट जाने का भय है। यद्यपि कहानी में भूमिका प्रायः नहीं के बराबर हैं परन्तु तथ्यांश उसमें अवश्य ही समूचा का समूचा ग्राह्य है। और वह तथ्यांश महाप्रभावक भक्तामर काव्य के अष्टम श्लोक,उसके मन्त्र एवं ऋद्धि आदि में गर्भित है।पुराणों में जो कुछ लिखा है वह विज्ञापन के लिए अथवा अपनी हाट खोलने के लिए नहीं प्रत्युत् सम्यग्दर्शन के मूल तत्त्व श्रद्धा के चमत्कार को प्राणिवर्ग अपने व्यावहारिक प्रयोगों में देखकर लौकिक और पारलौकिक लाभ उठावें यही मूल उद्देश्य समझ में आता है। धन्य हैं वे परमोपकारी उदारचित निःस्पृह संत चन्द्रकीर्ति और महीकीर्ति जिनकी अनन्य अनुकम्पा से धनपाल को इस श्लोक पर श्रद्धा हुई। यद्यपि जन्म जाति जैन वणिक् होने से भक्तामर काव्य उसको मौखिक रटा हुआ था तथापि तब वह स्वयं एक रूढ़िवादी शब्दतीर्थ और जडतीर्थ था। युगल दिगम्बर जैन मुनियों की अपूर्व दया से जब उसने उन जड़ शब्दों को हृदय की गहराई में उतर कर उनमें विज्ञान ज्योति के दर्शन किये तो उसकी श्रद्धा और भक्ति उमड़ पड़ी और जब श्रद्धा और भक्ति उमड़ पड़ी तो उनका अवश्यम्भावी परिणाम कहाँ जाता ?…और एक दिन पर्यंकासन में ध्यानस्थ धनपाल श्रेष्ठि उपयुक्त-मन्त्र की अधिष्ठात्री ‘महिमा देवी’ ने दर्शन दिये। बोली विनीत वर में-‘‘इस श्लोक के शब्दों में वास करने वाली मैं एक साकार शक्ति हूँ तुम्हारी दोनो दुश्चिन्ताओं को मैं भलीभांति जानती हूँ। चूँकि तुमने निष्काम भाव से श्रद्धा के वशीभूत होकर इस पवित्र पद्य का पाठ किया-इसलिए मुझे तुम्हारे पास आना पड़ा।यदि किसी कामना को लेकर तुम मंत्रराधन करते तो कदाचित् मेरा आना असंभव हो जाता । अस्तु-‘‘कहो, क्या चाहते हो वत्स! तुम्हारी किसी एक चिन्ता का समूल नाश ही इस समय मैं करूँगी।’’ धन और सन्तान-इन दोनों अभावों में से किसी पूर्ति के लिए वह प्रार्थना करे इस असमंजस में वह सेठ पड़ गया। निदान तर्व बोला-जीवन जब तेरे पल्ले पड़ ही गया है तो उसकी यात्रा तो बिना पेट भरे कभी भी पूरी नहीं होगी! अब रहा सन्तान का सवाल।सो उसका हल होना इतना आवश्यक भी क्या है? वंश के नाम चलाने को ही सन्तान की आवश्यकता होती है न ?… सो वह तो तेरे नाम से चलती जायेगी । जब धन नहीं होने पर भी तु धनपाल था अब धन हो जाने पर तू एक अमर धनपाल हो जायेगा। विश्वास ने तर्वâ को स्वीकार किया। अब धनपाल नाम से ही नहीं दाम से भी धनपाल हो गया।