07. जिनसहस्रनाम स्तोत्र (सप्तम अध्याय)
भुजंगी छंद
‘असंस्कृतसुसंस्कार’ नामा तुम्हीं।
बिना संस्कारे सुसंस्कृत तुम्हीं।।
नमूं नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६०१।।
‘अप्राकृत’१ तुम्हीं तो स्वभावीक हो।
धरा अष्ट में वर्ष व्रत देश को।।नमूं.।।६०२।।
प्रभो! ‘वैकृतांतकृत’ आप ही।
विकारादि दोषा विनाशा तुम्हीं।।नमूं.।।६०३।।
प्रभो! ‘अंतकृत’ दु:ख को नाशिया।
जनम मृत्यु का भी समापन किया।।नमूं.।।६०४।।
प्रभो! ‘कांतगू’ श्रेष्ठ वाणी धरो।
मुझे हो वचोसिद्धि ऐसा करो।।नमूं.।।६०५।।
महारम्य सुंदर प्रभो! ‘कांत’ हो।
त्रिलोकीपती साधु में मान्य हो।।नमूं.।।६०६।।
प्रभो! आप ‘चिंतामणी’ रत्न हो।
सभी इच्छती वस्तु देते सदा।।नमूं.।।६०७।।
‘अभीष्टद’ अभीप्सित लहें भक्त ही।
मुझे दीजिये नाथ! मुक्ती मही।।नमूं.।।६०८।।
न जीते गये हो ‘अजित’ आप हो।
प्रभो! मोह जीतूँ यही शक्ति दो।।नमूं.।।६०९।।
प्रभो! आप ‘जितकामअरि’ लोक में।
विषय काम क्रोधादि जीता तुम्हीं।।नमूं.।।६१०।।
‘अमित’ माप होता नहीं आपका।
अनंते गुणों की खनी आप हो।।नमूं.।।६११।।
‘अमितशासना’ धर्म अनुपम कहा।
मुझे आप सम नाथ कीजे अबे।।
नमूं नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६१२।।
‘जितक्रोध’ हो आप शांती सुधा।
महा शांति से क्रोध जीता सभी।।नमूं.।।६१३।।
‘जितामित्र’ कोई न शत्रु रहा। प्रभो!
आप ही सर्वप्रिय लोक में।।नमूं.।।६१४।।
‘जितक्लेश’ सब क्लेश जीता तुम्हीं।
सभी क्लेश मेरे निवारो अबे।।नमूं.।।६१५।।
‘जितांतक’ प्रभो! मृत्यु को नाशिया।
समाधी मिले अंत में भी मुझे।।नमूं.।।६१६।।
प्रभो! आप ‘जिनेन्द्र’ हो विश्व में तुम्हीं
श्रेष्ठ हो कर्मजयि साधु में।।नमूं.।।।६१७।।
प्रभो आप ही ‘परमआनंद’ हो।
मुझे आत्म आनंद दीजे अबे।।नमूं.।।६१८।।
प्रभो! आप ‘मुनींद्र’ हो लोक में।
मुनीनाथ मानें नमें साधु भी ।।नमूं.।।६१९।।
प्रभो! ‘दुंदुभीस्वन’ ध्वनी आपकी।
सुगंभीर दुंदभि सदृश ही खिरे।।नमूं.।।६२०।।
‘महेन्द्रासुवंद्या’ प्रभो आपही।
सभी इंद्र से वंद्य हो पूज्य हो।।नमूं.।।६२१।।
प्रभो! आप ‘योगीन्द्र’ हो विश्व में।
सभी ध्यानियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो।।नमूं.।।६२२।।
प्रभो! तुम ‘यतीन्द्रा’ मुनी साधु में।
सदा श्रेष्ठ मानें गणाधीश में।।नमूं.।।६२३।।
प्रभो! ‘नाभिनन्दन’ तुम्हीं मान्य हो।
नृपति नाभि के पुत्र विख्यात हो।।नमूं.।।६२४।।
प्रभो! आप ‘नाभेय’ हो पूज्य हो।
महानाभिराजा से उत्पन्न हो।।नमूं.।।६२५।।