जिसकी मधुर किलकारियों से घर का कोना-कोना गुंजायमान हो जाता हो, जिसकी बाल-हठ दुर्लभ वस्तुओं को भी अपने पास बुलाने की क्षमता रखती हो, जिसके धूल- धूसरित अंग-प्र्रत्यंगों से सौन्दर्य टपका पडता हो, जिसकी सरलता में समस्त कृत्रिमताओं को एक अपूर्व चुनौती हो जिसकी मन्द-मन्द मुस्कान में आनन्द का विशाल समुद्र लहराता हो और जिसके रोदन में भी संगीत की सरस स्वर लहरी गूँजती हो-ऐसा गोदी भरा लाल नन्हा सा नौनिहाल बालक जिस परिवार में नहीं है, उस घर की नीरवता का क्या कहना ? लाख-लाख आमोद-प्रमोद और भोग-विलास के सघन साधनों से गृहस्थी भरी पड़ी हो; किन्तु यदि जगमगाता हुआ कुल-दीपक उस गृह में नहीं है तो सर्वत्र नीरसता-शुष्कता एवं उदासीनता का घनीभूत कोहरा सा छाया रहता है। अपनी तोतली भाषा में जो वाङ्मय का रसस्वादन कराता हो या घुटनों के बल चलकर जो दिन भर आंगन को नापता रहता हो और रात में लोरियां सुन-सुन कर जो मीठी नींद में क्षपक जाता हो-ऐसा बालक यदि परिवार में नहीं, तो दाम्पत्य रूपी जीवन-तरु से फल क्या मिला ?…क्या लाभ दम्पत्ति के उस मधुर मिलन से जिसमें जीवन की सत्त्व की प्राप्ति न हुई हो? सौभाग्यवती होकर भी जो जिव्हा से ‘माँ’ शब्द को सुनने के लिये सदा-सर्वदा लालायित बनी रहती हो, ऐसी अभागिनी-हतभागिनी के हृदय की टीस दूसरा कौन जान सकता है? नौ माह-दो सौ सत्तर दिन-छै हजार चार सौ अस्सी घंटे या तीन लाख अठासी हजार आठ सौ सेविंड उदर मे रखने के उपरान्त भी जो नरक सदृश प्रसव की असह्य वेदना को हँसते-हँसते सहने को लालायित बनी रहती हो वह ‘सुत-शून्य’ दिन-रात घड़ी घंटे कैसेकाटती होगी उसे अन्तर्यामी के अतिरिक्त दूसरा कौन जानेगा-समझेगा? लावण्यामयी रानी हेमश्री का भी यही हाल था। आधी उम्र तक तो उनके यौवन-तरु में कोई फल लगा नहीं और शेष उम्र में तो फिर आशाओं पर पानी फिरा फिराया ही था। अधिकांश माताएँ अपनी अशिक्षित एवं अविवेक अवस्था में-‘‘तेरा सत्यानाश हो, तू मर जाता तो अच्छा होता, तेरे पैदा होने की अपेक्षा तो मेरा बाँझ ही रहना भला था।’’ आदि नाना प्रकार की कर्ण कटु-वाणी अपनी सन्तान के प्रति कहती हुर्इं पाई जाती हैं। उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि ऐसी स्त्रियाँ अगले भव के लिये बन्ध्या होने के कर्म का बंध करती हैं-यह आगमोक्त कथन है। अथवा जो स्त्रियाँ दूसरों के बालक को देख कर ईष्र्या की अग्नि में जला करती हैं वे भी इसी निकृष्ट कर्म को बांधती हैं या जो नारियाँ प्रसूता की सेवा सुश्रूषा में उपेक्षा करती हैं वे भी बन्ध्या कर्म का बंध करती हैं। आज-कल की शिक्षित महिलाएँ वासना की तृप्ति के लिए मनोरंजन तो खूब करती हैं और समय आने पर गर्भपात करती फिरती हैं- या बर्थ कंट्रोल की दवाओं का सेवन करती है; उन्हें याद रखना चाहिये कि वे अगले भव मे अवश्य ही बन्ध्या होवेंगी। अष्टम तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभु के जीवन पर दृष्टिपात करने से विदित होगा कि उनकी माता ने भी यह पुत्र-रत्न यौवन की ढलती अवस्था में प्राप्त किया था, उसका कारण उनके द्वारा पूर्वोपार्जित कोई न कोई कर्म ही तो था। कुदेवों की देहली पर घंटों नाक रगड़ने और सिर फोड़ने पर भी जब कुछ फल प्राप्त नहीं हुआ तो कामरूप देश की भ्रदावती नगरी का राजा ‘हेमब्रह्म’ और उनकी आज्ञाकारिणी भार्या ‘हेमश्री’ एक दिन वन क्रीड़ा को गये। जंगल में एक शिला खंड पर ध्यानस्थ वीतराग महा मुनिराज को देख दोनों उनकी शरण में पहुँचे और दर्शन कर उनके चरणों के समीप बैठ गये। मन:पर्यय ज्ञानी महा मुनिराज ने दोनों के मनोभावों को पढ़ा और उनके निवेदन करने के पूर्व ही उन्होंने कहा-एक नवीन जैन मंदिरा का निर्माण कर उसके शिखर पर स्वर्ण कलश चढ़ाओं। मंदिर की सजावट कर उसमें चतुर्विंशति तीर्थंकर की मूर्तियाँ स्थापित करो।इसके सिवाय सोने-चाँदी अथवा कांसे की थाली में महाप्रभावक श्री भक्तामर जी का नौवाँ काव्य केशर से लिखो और उसे जल से धोकर प्रेम पूर्वक पी लिया करो! तुम्हारी मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होगी! ‘‘मरता क्या न करता?’’राजा रानी ने महामुनिराज की बताई विधि को श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किया और चरण छूकर राज-महल को लौट आये। वसंत पंचमी का दिन था। कामदेव पंचशरों से रति के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। प्रकृति अंगड़ाईयाँ ले रही थी। खिले हुए कमलों पर भ्रमर मंडरा रहे थे। पक्षी युगल सरोवरों में ही जीवन-रस प्राप्त कर रहे थे। उसी रात्रि की बात है कि पुष्पवती रानी हेमश्री का सौभाग्य फलित हो गया!… मधुर-मिलन में जो जीवन-रस प्रवाहित हुआ,उसका मनोरंजन नौ मास पश्चात् मानवीय आकार में प्रकट हुआ। राज-महल में बधाईयाँ गूंज उठीं, और नगर-भर में दीवाली मनाई गई! नवजात शिशु का नाम रखा ‘‘भुवन-भूषण’’