तर्ज-पंखिड़ा तू उड़ के जाना………..
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
अर्चना…………….अर्चना…….।।टेक.।।
बाह्य-अंतरंग परिग्रह का त्याग इसमें हो।
साधु अरु गृहस्थ दोनों पाल सकते हैं इसको।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, धर्म की भक्ती।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।अर्चना…।।१।।
अर्चना में सबसे पहले मैं स्थापना करूँ।
सन्निधीकरण विधी के साथ वन्दना करूँ।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, धर्म की भक्ती।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।अर्चना…..।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिञ्चन्य धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिञ्चन्य धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम आकिञ्चन्य धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
स्वर्ण के कलश से शुद्ध जल की धार करना है।
अपने जन्म जरा मृत्यु का विनाश करना है।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
प्रभु के चर्ण में सुगंध गंध को चढ़ाना है।
जग के ताप हरके मन की शांति को बढ़ाना है।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
वासमती चावलों के शुद्ध पुंज चढ़ाऊँ।
पद अखण्ड प्राप्ति हेतु मन को शुद्ध बनाऊँ।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
धर्म के बगीचे से गुणों के पुष्प लाऊँ मैं।
कामबाण नाश हेतु प्रभु के पद चढ़ाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
मिष्ट अन्नयुत व्यंजन बनाय के चढ़ाऊँ मैं।
क्षुधारोग हो विनाश आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
प्रभु की आरती करूँ सदा धरम को ध्याऊँ मैं।
मोह तिमिर को विनाश आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
धूप अग्नि में जलाय धूम्र को उड़ाऊँ मैं।
अष्टकर्म को विनाश आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
सेब संतरा अनार आदि फल चढ़ाऊँ मैं।
मोक्ष फल की प्राप्ति करके आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
अर्घ्य ‘‘चंदनामती’’ प्रभू के पद चढ़ाऊँ मैं।
हो अनर्घ्य पद की प्राप्ति आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…..।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
शांतिधार हेतु क्षीरोदधि का नीर लाऊँं मैं।
विश्वशांति कामना है आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना….।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
अर्चना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।
वंदना करूँ मैं आकिञ्चन्य धर्म की।।
पुष्प लेके अंजुली में पुष्पांजलि चढ़ाऊँ मैं।
सुरभि जग में फैले और आत्मशांति पाऊँ मैं।।
पूजा करूँ, भक्ति करूँ, वंदना करूँ।
आकिञ्चन्य धर्म की मैं अर्चना करूँ।।अर्चना…।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-सोरठा-
परिग्रह त्यागी ही, आकिञ्चन्य धरम धरें।
पुष्पांजलि करके, हम इसकी पूजन करें।।
इति मण्डलस्योपरि नवमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चौपाई छंद-
जग अनित्य है सर्व प्रकारा, इसमें नहिं किञ्चित् सुख सारा।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१।।
ॐ ह्रीं अनित्यभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शरण जगत में है नहिं कोई, मंत्र तंत्र से बचे न कोई।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।२।।
ॐ ह्रीं अशरणभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंच प्रकार कहा संसारा, जीव चतुर्गति भ्रमे अपारा।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।३।।
ॐ ह्रीं संसारभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में सब एकाकी आते, मरण समय कोई संग न जाते।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।४।।
ॐ ह्रीं एकत्वभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर क्षीर सम भेद ज्ञान जो, धरें बनें निर्ग्रन्थ साधु वो।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।५।।
ॐ ह्रीं अन्यत्वभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सप्तधातुमय देह अशुचि है, होती रत्नत्रय से शुचि है।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।६।।
ॐ ह्रीं अशुचिभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा में मन वचन काय से, आश्रव हों शुभ-अशुभ भाव से।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।७।।
ॐ ह्रीं आस्रवभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा में जप-तप प्रभाव से, रुके कर्म संवर प्रभाव से।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।८।।
ॐ ह्रीं संवरभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म उदय हो जो झड़ जावें, वह निर्जरा द्विविध कहलावे।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।९।।
ॐ ह्रीं निर्जराभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक में अनादिकाल से, जीव भ्रमें निज कर्म भाव से।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१०।।
ॐ ह्रीं लोकभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुछ सुलभ जगत में जानो, दुर्लभ बोधिलाभ को मानो।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।११।।
ॐ ह्रीं बोधिदुर्लभभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष अरु चिंतामणि सम, धर्म से ही फल पा सकते हम।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१२।।
ॐ ह्रीं धर्मभावनारूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मात-पिता सुत वनितादिक सब, चेतन परिग्रह हैं दुखदायक।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१३।।
ॐ ह्रीं चेतनरूपबाह्यपरिग्रहत्यागउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्न राज्य धन महल आदि सब, कहें अचेतन परिग्रह दुखप्रद।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१४।।
ॐ ह्रीं अचेतनरूपबाह्यपरिग्रहत्यागउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रागद्वेष भावों की परिणति, अंतरंग परिग्रह दें दुर्गति।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१५।।
ॐ ह्रीं अंतरंगपरिग्रहत्यागरूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
अंतर बाहिर सब परिग्रह तज, नग्नरूप धारें मुनिवर सब।
यह चिंतन कर राग घटाओ, आकिञ्चन्य धर्म को ध्याओ।।१६।।
ॐ ह्रीं विविधपरिग्रहत्यागरूपउत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय नम:।
तर्ज-तुमसे लागी लगन………
धर अकिंचन धरम, कर ले तू शुभ करम, भव्य प्राणी,
पूजा से धन्य हो जिन्दगानी।।टेक.।।
ना मे किंचन अकिंचन धरम है, पर को निज मानना ही भरम है।
तज दे मिथ्या भरम, पाल ले दश धरम, भव्य प्राणी।
पूजा से धन्य हो जिन्दगानी।।१।।
पांच पापों में भी परिग्रह इक है, इसको मुनिवर न धरते तनिक हैं।
उनके पद में नमन, करके पावन हो मन, भव्य प्राणी,
पूजा से धन्य हो जिन्दगानी।।२।।
इसका कुछ त्याग श्रावक भी करते, पांच अणुव्रत का पालन जो करते।
अणुव्रतों का कथन, जिनवरों का वचन, भव्य प्राणी,
पूजा से धन्य हो जिन्दगानी।।३।।
व्रत सहित श्रेष्ठ मानव जनम है, व्रत रहित मन को रखना न तुम है।
व्रत से शिक्षा लें हम, ‘‘चन्दना’’ सुधरे मन, भव्य प्राणी,
पूजा से धन्य हो जिन्दगानी।।४।।
पूजा के बाद जयमाल गाई, अर्घ्य की थाली मैंने सजाई।
अर्पें पूर्णार्घ्य हम, पायें पूजन का फल, भव्य प्राणी,
पूजा से धन्य हो जिन्दगानी।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमआकिञ्चन्यधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।