किसी भी विषय को पढ़ लेना एक अलग चीज है और पढ़ने के उपरान्त उसका मनन करना दूसरी चीज है।
अधिक या कम कितना भी पढ़ा जाये किन्तु उसके मनन द्वारा, उसके घोर पारायण द्वारा, उसमें निहित मौलिक प्रवाहमान शाश्वत तथ्य को अवश्य पहुँचा जाये तभी पठन-पाठन की सार्थकता है। तभी अमूल्य जीवन का साफल्य है।
जड़-चेतन, सत्य-असत्य, हित-अहित रूप मिश्रित पर्यायों में से अपने हंस वत् क्षीर-नीर विवेक द्वारा-भेदविज्ञान द्वारा सारभूत तत्त्व को अपने में आत्मसात कर लेना ही यथार्थ मनन है इसी मनन को चाहे आत्म-दर्शन कह लीजिये चाहे सम्यक्त्व! निश्चयत: तत्त्व एक ही है,व्यवहार अनेक।
साध्य एक ही है, साधन अनेक।उपादान एक है, निमित्त अनेक। ग्रहण करने वाला गृहस्थ उस तत्त्व को स्त्री—पुत्र, फलतादि में भी ग्रहण कर सकता है न ग्रहण करने वाला एकान्त जंगल में रहने वाला योगी भी उसे ग्रहण नहीं कर सकता। पोथियों की पोथियें घोंट कर पी जाने वाला पंडित भी कहो तो उसे ग्रहण न करा सके और निरामूर्ख भी कहो तो एक ही वाक्य में दृढ़ श्रद्धा कर वस्तु स्वरूप की यथार्थता तक पहुँच जावे। यही सम्यक्त्व है।
स्पष्टीकरण के लिए दो लघु दृष्टान्त देखिये- यघपि हमारी मूल कथा से इन दृष्टान्तों का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तथापि सम्यक्त्व को समझने के लिये उनकी अनिवार्यता है सम्यक्त्व का यथार्थ चित्रण करने के लिए दृष्टान्त जानबूझ कर अन्य मतों से लिए गये हैं ताकि सम्यक्त्व जैन धारणा का संकुचित परिभाषिक शब्द मात्र न समझ लिया जाये। दृष्टान्त आँखों देखा होने के कारण ही यहाँ देना आवश्यक हो गया है- एक त्रिपुंडधारी पंडित जी थे। उनकी वाणी में जादू का सा वह असर कि श्रोता चित्र लिखित से और मंत्र मुग्ध से रह जाते थे ।
छाया चित्र के व्यसनी सिनेमा जाना भूल जाते, राही अपना गन्तव्य-पथ भूल कर वहीं कान लगा लेते।…वे तत्त्व की बात कहते थे; परन्तु स्वयं भी वे क्या उस तत्त्व तक-उसके रहस्य तक पहुँचे थे—जिनका कि बार-बार उच्चारण अपने मुखारबिन्द से करते थे? अधिकांश श्रोता भी तो कथा मात्र पर ध्यान दे रहे थे या पंडित जी द्वारा अपने पर उल्लू की लकड़ी फैरे जाने के कारण ही उन पर मोहित थे।
प्रवचन के बीच-बीच में बार—बार वे कहते कि ‘‘राम को भजै सो भव पार हो जावे…।’’ प्रवचन नित्य सन्ध्या को होता, श्रोता भी अधिकाधिक संख्या में उपस्थित होकर अपनी व्यसन पिपासा शान्त करते अथवा यह कहिये कि अपनी औपचारिक उपस्थिति वहाँ अवश्य देत। एक कृषक की पतिव्रता स्त्री थी। उसका नित्य कर्म था, सन्ध्या समय खेत में काम करने वाले अपने पतिदेव को भोजन देने जाना। उसे समय नहीं था, कि कभी प्रवचन सुने।
अपने काम से कहा था उसे तो! परन्तु संयोग की बात तो देखिये कि अपने में मगन उस रास्ते से वह जा ही रही थी कि पंडित जी के वचन ‘‘राम को भजै सो भव सागर को पार हौवै’’ उसके कान में पड़ ही गये। पड़ ही नहीं गये रास्ते भर वे उनमें गूँजते भी रहे। उस गूँज का हृदय पर न जाने क्या असर हुआ कि वह उन शब्दों के तद्रूप ही हो गई। पंडित जी पर अटल अगाध श्रद्धा हो गई थी। अतएव न जाने क्या सोच कर लौटी उलटे पाँव! और धीरे से पंडित जी के कान के पास मुँह ले जाकर बोली-आपकी ब्यालू नदी पार अमुक मकान पर होगी।
अपना पूर्ण पता देकर कृषक पत्नी चलती बनी।…जोरों का पानी आया; इतना कि जिस सरिता को पार कर उसे दूसरे पार पहुँचना था उसमें एकाएक बाढ़ आ गई। कृषक पत्नी तो श्रद्धा के तद्रूप निश्चल सम्यक्त्वी थी ही-आव देखा न ताव शीध्र ही नदी में कूद पड़ी! कूदना था कि दूसरे क्षण वह अपने घर बैठी नजर आई! आनन-फानन विविध व्यंजन तैयार किये कि कहीं पंडित जी महाराज आ न जावें और लगी घंटों से उनकी बाट जोहने।
देखते-देखते सबेरा होने को आया पर पंडित जी नहीं आये। बेचारी बड़े असमंजस में थी। अन्तोगत्वा दिन के १२ बज गये तब कहीं पंडित जी ने मकान में पदार्पण किया। ‘‘पंडितजी महाराज! देखिए भोजन ठंडा हो चुका है, मैं कब से आपकी बाट जो रही हूँ-‘‘कृषक पत्नी नम्रता पूर्वक बोली! ‘‘मूर्खे! तुम्हें नहीं मालूम नदी कितनी चढ़ी थी ? फिर भला मैं कैसे आता ? जब वह उतरी तभी तो मैं नाव में बैठकर यहाँ आ सका हूँ!’’ पर, महाराज जी! मैं तो उसी समय आ गई थी, आप ही ने तो कहा था कि जो ‘‘राम भजै सो भव-सागर से पार हो जाये।
’’फिर यह बेचारी छोटी सी नदी क्या? श्रद्धा के साक्षात् दर्शन कर पंडित जी की भीतरी आँखे खुल गई और उन्हें ज्ञात हो गया कि— पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। एक हि अक्षर तत्त्व का पढै सो पंडित होय।। तात्पर्य यह कि सम्यक्त्व हो तो ऐसा हो, क्योंकि वह किसी एक धर्म की बपौती नहीं ।
अंजन चोर को भी तो इसी प्रकार का सम्यक्त्व हुआ था और यही सम्यक्त्व हुआ था मंत्री पुत्र महीचन्द्र को महाप्रभावक श्री भक्तामर जी के १२वें काव्य की साधना-भक्ति के कारण से।उसका भी रसास्वादन कीजिये! नगरी अहिल्यापुर।राजा कुमारपाल; मंत्री विलासचन्द्र।मंत्री पुत्र का नाम था महीचन्द्र। महीचन्द्र की घनिष्ट मित्रता एक वैश्य पुत्र से थी। दोनों ने एक साथ एक दिगम्बर मुनिराज के पास महाप्रभावक श्री भक्तामर जी के १२वें श्लोक के ऋद्धिमंत्र आदि की साधना-विधि का पठन किया।
वणिक-पुत्र ने तो पढ़ने के लिए पढ़ा था सो उसके हाथ तो केवल रटन्त मात्र पढ़ना ही रहा, परन्तु राज्यमंत्री पुत्र ने उन शब्दों में अपनी तद्रूपता स्थापित की थी। फलस्वरूप जैन शासन की अधिष्ठात्री ‘‘मोहिनी’(महा) देवी के द्वारा उसे कामधेनु नामक गाय की प्राप्ति हुई। जहाँ उसके दूध को छिड़का जाता वहीं स्वर्ण का ढेर बन जाता। लोगों को चमत्कृत करने के लिए महीचन्द्र ने वही दूध अपने घर के चौके में डाल दिया तो भाँति-भाँति के पकवान तैयार हो गये-हजारों स्त्री पुरुषों को वही भोजन परोसा गया पर भण्डार भरपूर ही रहा।
तात्पर्य यह कि चमत्कार और ऋद्धि सिद्धियां उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगी। आत्मदर्शन वाले को तो मोक्ष भी जब हथेली पर रखा हुआ दीखता है फिर उसी की चाकर इन बेचारी ऋद्धि सिद्धियों की क्या बात? सम्यक्त्व की लीला ही कुछ ऐसी है। पुनः कहना चाहता हूँ कि पढ़ने मात्र से सिद्धि नहीं होती।
शब्दों के साथ तद्रूप होने में सिद्धि निहित है। गर्दभ की पीठ पर पुस्तकों का ढेर लग जाये तो उसे क्या उनमें निहित तत्त्वों का आनन्द प्राप्त होगा? उसे तो जैसे ईटों का बोझा वैसे ही पुस्तकों का। उसे तो बोझ ढोने से काम।