बृहत्प्रत्याख्यान का व्याख्यान किया, अब पुन: यदि सिंह, व्याघ्र, अग्नि, रोग या मनुष्यकृत उपद्रव आदि के निमित्त से आकस्मिक मरण उपस्थित हो जाय तो उस समय क्या करना चाहिए ? ऐसा शिष्य के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उस अवस्था में जो संक्षेप से भी संक्षेप प्रत्याख्यान उचित है, उसे बतलाने के लिए आचार्यदेव तीसरा अधिकार कहते हैं-
एदम्हि देसयाले उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्झं।
एदं पच्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा हुज्ज।।११२।।
यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा तो इस गृहीत प्रत्याख्यान को समाप्त कर मैं पारणा करूँगा अर्थात् कुछ उपद्रव या उपसर्ग तो आ गया किन्तु बचने की भी उम्मीद है तब मुनि ऐसी नियम सल्लेखना लेते हैं कि यदि मैं इस उपद्रव से जीवित रह जाऊँगा तो पुन: आहार-जल ग्रहण करूँगा अन्यथा चतुर्विध आहार का, अन्य सर्व परिग्रह का त्याग है।
जब मरण का निश्चय हो जाता है, तब क्या करते हैं ?
सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामि पाणयं वज्ज।
उवहिं च वोसरामि य दुविहं तिविहेण सावज्जं।।११३।।
पेय पदार्थ को छोड़कर संपूर्ण आहार विधि का मैं त्याग करता हूँ और मन-वचन-कायपूर्वक दोनों प्रकार की उपधि-परिग्रह का भी मैं त्याग करता हूँ। पुन: इसके बाद मरण काल बिल्कुल निकट होने पर-
जो कोइ मज्झ उवही सब्भंतरबाहिरो य हवे।
आहारं च सरीरं जावज्जीवा य वोसरे।।११४।।
जो कुछ भी मेरा अभ्यंतर-बाह्य परिग्रह है उसको तथा सर्व आहार और शरीर को मैं जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ता हूँ।
जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं।।११५।।
जिसका आश्रय लेकर जीव अनंत संसार समुद्र को पार कर लेते हैं, सभी जीवों को शरण देने वाला ऐसा यह जिनशासन चिरकाल तक वृद्धिंगत होता रहे।
समाधिमरण का फल क्या है ?
एगम्हि य भवगहणे समाहिमरणं लहिज्ज जदि जीवो।
सत्तट्ठभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि।।११८।।
यदि जीव एक भव में समाधिमरण को प्राप्त कर लेता है तो वह अधिकतम सात या आठ भव लेकर पुन: नियम से निर्वाणपद को प्राप्त कर लेता है। पुन: जन्म-मरण के दु:खों से सर्वथा के लिए छूट जाता है। क्योंकि-
णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खं।
जम्मणमरणादंकं छिंदि ममत्तिं सरीरादो।।११९।।
मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्म के समान अन्य कोई दु:ख नहीं है। अत: जन्म-मरण के कष्ट में निमित्त ऐसे इस शरीर से ममत्व को छोड़ो अर्थात् शरीर से ममत्व छोड़ने से ही जन्म-मरण की परम्परा समाप्त होती है अन्यथा नहीं। इसलिए शरीर से निर्मम होकर समाधि विधि से इसको छोड़कर संसार परम्परा को नष्ट करना चाहिए।