पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार ६ अप्रैल २००१ को राजधानी दिल्ली में (राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाने वाले) भगवान महावीर २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा हुआ। उस समय मैं प्रयाग-इलाहाबाद में थी वहाँ महावीर जयंती के अवसर पर (१ से ८ अप्रैल २००१ तक) विश्वशांति महावीर विधान चल रहा था। ज्ञातव्य है कि २६००वें जन्मकल्याणक के संदर्भ में मेरी इच्छा हुई थी कि भगवान महावीर के २६००गुणों के २६०० अघ्र्य वाले एक विधान की रचना करके मैं महावीर स्वामी के चरणों में भक्ति की कृति समर्पित करूँ।
दिल्ली से प्रयाग विहार के मध्य ही मेरी यह रचना १ जनवरी २००१ को पूर्ण हुई पुनः शीघ्र प्रकाशित होकर विधान की पुस्तक आते ही प्रथम बार इलाहाबाद शहर के महावीर जयंती भवन में समाज की ओर से आयोजित इस विधान के सुमेरुपर्वताकार मण्डल पर २६०० रत्न एवं फल चढ़ाये गये। विधान के मध्य ही ६ अप्रैल को दिल्ली में उद्घाटन सभा चल ही रही थी कि वहाँ से फोन द्वारा समाचार प्राप्त हुआ कि आचार्यश्री विद्यानंद महाराज कार्यक्रम स्थल के बाहर से वापस लौट गये अतः सभा में बहुत भगदड़ मचने से उद्घाटन कार्यक्रम बिगड़ गया और सभी उपस्थित राजनेताओं का मूड खराब हो जाने से उद्घाटन की औपचारिकता मात्र हो पाई है।
जैनशासन की ऐसी अवमानना हुई सुनकर हृदय को आघात लगा और घटना की वास्तविकता जानने को मन उत्कंठित हो उठा, तब कुछ महानुभावों ने टी.वी. के आस्था चैनल पर चल रहे स्पष्टीकरण को आकर बताया कि आचार्यश्री ने सभी को शांति-सौहार्द रखने का संदेश दिया है किन्तु समाज में दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय को लेकर आपसी छींटाकशी चल रही है। संघस्थ शिष्यों की भावनानुसार यद्यपि मेरा विचार नवोदित तीर्थ ऋषभदेव तपस्थली पर चातुर्मास करने का था किन्तु दिल्ली वालों के विशेष आग्रह पर प्रभाषगिरि-कौशाम्बी में पंचकल्याणक कराने के पश्चात् (२ मई से ७ मई २००१ तक) वहीं से ८ मई को मैंने ससंघ दिल्ली की ओर विहार कर दिया।
भगवान महावीर के २६००वें जन्मोत्सव की उपलब्धि के रूप में कौशाम्बी का प्राचीन इतिहास साकार करने हेतु मैंने भगवान महावीर को सती चन्दना द्वारा दिये गये आहार का स्वरूप दिखाया अत: महावीर की आहार लेते हुए प्रतिमा एवं सती चन्दना की आहार देती मुद्रा की प्रतिकृति स्थापित कराई जिसे प्रभाषगिरि तीर्थ के अध्यक्ष डा. प्रेमचंद जैन ने अतीव श्रद्धापूर्वक क्षेत्र पर विराजमान किया।
मेरा कहना रहता है कि जिस तीर्थ का जो इतिहास है उसे वहाँ अवश्य साकार करना चाहिए। मार्ग में अशोक विहार-दिल्ली की दिगम्बर जैन समाज के प्रतिनिधियों द्वारा अतीव आग्रहपूर्वक निवेदन करने पर मैंने वहाँ चातुर्मास स्थापना की स्वीकृति कर दी पुनः कम्पिला, कानपुर, अलीगढ़, नोएडा इत्यादि स्थानों से होते हुए हम लोग ३ जुलाई को दिल्ली-अशोक विहार पहुँचे। वहाँ ४ जुलाई २००१ (आषाढ़ शु. १४) को चातुर्मास स्थापना की।
मध्यान्हकालीन इस सभा में श्री साहिब सिंह वर्मा (पूर्व मुख्यमंत्री दिल्ली प्रदेश) मुख्य अतिथि थे, श्री दीपचंद बंधु (विधायक) विशिष्ट अतिथि थे एवं सभा की अध्यक्षता साहू रमेशचंद जैन (निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ) ने की। सभी ने अपने वक्तव्यों में इस समय दिल्ली के अंदर मेरी आवश्यकता बतलाते हुए भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक वर्ष को प्रभावनापूर्ण ढंग से मनाने का मुझसे निवेदन किया।
दिल्ली वालों की हार्दिक भावनानुसार भक्ति आयोजन की शृंखला में ब्र.रवीन्द्र जी ने मुझसे २४ कल्पद्रुम विधानों के समान २६ विधान (विश्वशांति महावीर विधान) एक साथ कराने का अनुरोध किया। मेरी स्वीकृति मिलते ही एक आयोजन समिति ने यह कार्य प्रारंभ कर दिया अतः २१ अक्टूबर से २८ अक्टूबर २००१ (आश्विन शु. ५ से १२) तक फिरोजशाह कोटला मैदान-दरियागंज दिल्ली में शानदार आयोजन हुआ जिसमें सुमेरुपर्वत के आकार वाले सभी मांडलों के ऊपर जब २६००-२६०० रत्न भक्तों द्वारा चढ़ाये गये तो बिल्कुल रंग-बिरंगे कल्पवृक्षों जैसा दृश्य उपस्थित हो रहा था।
भक्ति के इस महायज्ञ में पूजन करने वालों के अतिरिक्त हजारों दिगम्बर जैन श्रद्धालुओं के साथ-साथ श्वेताम्बर एवं स्थानकवासी सम्प्रदाय के भी गणमान्य महानुभावों ने पधारकर उसे जन्मकल्याणक वर्ष का एक मात्र वृहत् उपहार के रूप में माना। चूँकि इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर का कोई भी उत्सव इस वर्ष के अंतर्गत किसी के द्वारा कहीं भी सम्पन्न नहीं हुआ था।
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान में सन् १९९५ से अनिल कुमार जैन के सौजन्य से मेरे नाम पर ‘‘गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार’’ (प्रति पांच वर्ष में शरदपूर्णिमा पर दिये जाने वाले) की स्थापना हुई थी। वह प्रथम पुरस्कार सर्वप्रथम डा. अनुपम जैन-इंदौर को हस्तिनापुर में देकर सम्मानित किया गया था पुनः सन् २००० के पुरस्कार से पं. श्री शिवचरणलाल जैन-मैनपुरी को अक्टूबर २००१ में (विश्वशांति महावीर विधान के मध्य) पुरस्कृत किया गया।
संस्थान के द्वारा निर्माण, साहित्य प्रकाशन आदि सर्वतोमुखी कार्यों के साथ ही मेरी प्रेरणा से प्रतिवर्ष किसी न किसी विद्वान् प्रतिभा एवं कार्यकर्ताओं का जम्बूद्वीप पुरस्कार, आर्यिका रत्नमती पुरस्कार, छोटेलाल जैन स्मृति आदि पुरस्कारों से सम्मान भी किया जाता है।
दिल्ली प्रवास के मध्य मगशिर कृष्ण दशमी-१० दिसम्बर २००१ को तालकटोरा इंडोर स्टेडियम में जैन महासभा-दिल्ली (जैन के चारों सम्प्रदाय की मिली-जुली संस्था) द्वारा भगवान महावीर दीक्षा कल्याणक समारोह में उन लोगों के निवेदन पर मैंने अपने संघ के साथ दिगम्बर जैन समाज का प्रतिनिधित्व किया। लगभग १५० की संख्या में उपस्थित साधु-साध्वियों के पावन सानिध्य में आयोजित यह दीक्षा कल्याणक कार्यक्रम बहुत गरिमापूर्ण रहा।
मैं कनॉटप्लेस शिवाजी स्टेडियम के निकट अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर की धर्मशाला में थी। वहीं पर १० दिसम्बर २००१ को दीक्षा कल्याणक कार्यक्रम के पश्चात् सायंकाल में श्री दीपचंद्र जैन गार्डी (श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजक एवं जन्मकल्याणक महोत्सव समिति के अध्यक्ष), एल.एल. आच्छा (महामंत्री-श्री महावीर मेमोरियल-दिल्ली), निर्मल कुमार जैन सेठी (भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा अध्यक्ष) आदि कई सम्भ्रान्त कार्यकर्ता मेरे दर्शनार्थ आए तो मैंने उन्हें २६०० वें जन्मकल्याणक महोत्सव के संदर्भ में कुछ प्रेरणाएं देते हुए कहा-
१. भारत सरकार की ओर से प्रधानमंत्री द्वारा भगवान महावीर २६००वें जन्मकल्याणक के संदर्भ में ६ अप्रैल २००१ को घोषित सौ करोड़ रुपये की राशि को अपने जैन तीर्थों के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि जैन तीर्थ हमेशा जैन समाज के अर्थ सौजन्य से ही बनते एवं वृद्धिंगत होते रहे हैं। यदि आप पूरे देश की जैन समाज का सर्वेक्षण करें तो संभवतः ज्ञात होगा कि सौ करोड़ रुपये की राशि तो एक वर्ष में तीर्थों पर लग जाती है।
२. इस राशि का उपयोग भगवान महावीर के प्रचार-प्रसार (दूरदर्शन, रेडियो, इंटरनेट आदि के माध्यम से) में करवाना चाहिए।
३. भगवान महावीर के नाम से बड़े-बड़े होर्डिंग, बोर्ड देशभर में सार्वजनिक स्थलों (हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, बस स्टैण्ड एवं चौराहों) पर लगवाकर जन्मकल्याणक महोत्सव को सार्थक करना चाहिए।
४. भगवान महावीर के नाम से २६०० गाँव गोद लेकर उनका सरकारी विकास करवाया जावे अथवा कम से कम १०८ गाँव तो अवश्य ही विकसित करके वहाँ महावीर स्वामी का स्टेचू लगाना चाहिए।
५. जन्मकल्याणक वर्ष के अंतर्गत जनकल्याण के लिए इस राशि का उपयोग करना चाहिए।
मेरी ये सब बातें आर्यिका चंदनामती ने जब उन लोगों को बतार्इं तो विशेषरूप से गार्डी जी बड़े प्रसन्न हुए और उन पर अमल करने हेतु आपस में विचार-विमर्श करने लगे, किन्तु सरकारी राशि आवंटन से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं ने इन बातों की महत्ता न समझ कर उस राशि का बहुभाग तीर्थों के विकास हेतु आवंटित करा दिया,
जो सी.पी.डब्ल्यू.डी. सरकारी विभाग के माध्यम से व्यय की गई। इस जन्मकल्याणक महोत्सव के प्रसंग में एक कटुसत्य सामने आया कि महोत्सव को सफल बनाने हेतु श्रावकों ने किन्हीं वरिष्ठ साधु-साध्वियों से न तो कभी परामर्श लिया और न ही साधुओं का संगठन बनाने हेतु कोई प्रयत्न किया, यही कारण रहा कि
यह जन्मकल्याणक महोत्सव सर्वव्यापी एवं लोकोपयोगी नहीं बन पाया। जैसा कि सन् १९७४ में भगवान महावीर २५००वें निर्वाणोत्सव के समय आचार्यश्री धर्मसागर महाराज, आचार्यश्री देशभूषण महाराज, मुनि श्री विद्यानंद महाराज, आचार्य श्री तुलसी जी, मुनि श्री सुशील कुमार जी आदि साधुओं के साथ मैंने एवं साध्वी मृगावती जी, विचक्षणाजी आदि साध्वियों ने पूरे गाम्भीर्य गुण के साथ महोत्सव का प्रतिनिधित्व किया था, तभी वह देश-विदेश में अपनी अमिट छाप डाल सका था एवं सरकार में भी जैनशासन का अद्वितीय प्रभाव पड़ा था।
सन् २००० में भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव उद्घाटन के बाद से मेरे मन में महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास की भावना चल रही थी जिसे मैं यदा-कदा चन्दनामती के सामने कहा करती थी अतः उन्होंने सन् २००१ मेें प्रयाग से दिल्ली की ओर विहार का विचार बनाते समय कई बार मुझसे कहा कि माताजी! आप यहाँ से दिल्ली जाने की बजाय यदि कुण्डलपुर की ओर चल दें तो कुण्डलपुर का विकास जन्मकल्याणक महोत्सव की एक निधि बन जाएगा
किन्तु उस समय मेरा मन नहीं बन पाया और दिल्ली वापस आकर अनेक धर्मप्रभावनात्मक कार्यकलापों के मध्य मेरा उपयोग कुण्डलपुर के विकास की ओर लगा रहा।
मैंने अनेकों बार समाज के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को कुण्डलपुर के विकास की प्रेरणा दी किन्तु मुझे अनुभव आया कि कतिपय इतिहासकारों एवं शोधकर्ताओं की नई विचारधारा के अनुसार जैनसमाज के कुछ सुधारक नेतागण वैशाली के कुण्डग्राम को भगवान महावीर की जन्मभूमि मानकर प्राचीन एवं वास्तविक जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) की पूरी उपेक्षा करने में लगे हैं किन्तु कुण्डलपुर के मंत्री एवं ‘‘बिहार स्टेट दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी’’ के मानद् मंत्री श्री अजय कुमार जैन (आरा) से मुझे अधिकृत सूचना प्राप्त हुई कि आज भी भारत भर से दिगम्बर जैन समाज की ९९ प्रतिशत जनता कुण्डलपुर ही आती है और कुण्डलपुर को ही भगवान महावीर की जन्मभूमि मानकर नमन करती है।
इत्यादि तथ्यों को सुनकर कुण्डलपुर पवित्र तीर्थ के विकास की मेरी भावना और बलवती हो गई पुन: मैंने जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के कार्यकर्ताओं को कुण्डलपुर विकास की प्रेरणा देते हुए वहाँ सर्वप्रथम भगवान महावीर स्वामी कीर्तिस्तंभ बनाने की प्रेरणा दी।
मेरे मुँह से कीर्तिस्तंभ निर्माण की बात निकलते ही मेरे पुराने भक्त (सन् १९७२ से जुड़े) कमलचंद कैलाशचंद जैन-खारीबावली, दिल्ली ने अपने परिवार की ओर से उस कीर्तिस्तंभ को बनवाने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी और उसके शिलान्यास के लिए २४ मार्च २००२ का शुभ मुहूर्त निकला।
तब वे दिल्ली से अपने परिवार एवं अन्य भक्तों के साथ रेल की बोगी लेकर कुण्डलपुर (नालंदा) पहुँचे। वहाँ ब्र. रवीन्द्र कुमार एवं ब्रह्मचारिणी बहनों के सहयोग से तथा क्षेत्र के मंत्री अजय कुमार जैन एवं श्रीरामगोपाल जैन-पटना (अध्यक्ष-बिहार दिगम्बर जैन तीर्थ न्यास बोर्ड), श्री सुरेन्द्र प्रसाद जी ‘तरुण’ (पूर्व शिक्षा मंत्री) आदि विशिष्ट महानुभावों की उपस्थिति में भारी धर्मप्रभावनापूर्वक कीर्तिस्तंभ का शिलान्यास प्राचीन मंदिर परिसर में हुआ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्री कमलचंद जैन प्रारंभ से ही मेरे भक्त के रूप में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के प्रति समर्पित व्यक्तित्व रहे हैं। मेरे संघ के प्रति उनकी अपनत्वपूर्ण भक्ति आज भी पूर्ववत् है और प्रतिक्षण हर प्रकार की सेवा करने में वे अपना अहोभाग्य समझते हैं। उनके हृदय में इसी प्रकार की गुरुभक्ति सदैव बनी रहे तथा परिवार की नई पीढ़ी में भी धर्म एवं गुरुओं के प्रति समर्पण का भाव जागृत होवे, यही मंगलकामना है।
दिल्ली में आए दिन प्रभावनापूर्ण कार्यक्रम मेरे सानिध्य में चल रहे थे और आपस में कुण्डलपुर के विकास के नये-नये रूपक सोचे जा रहे थे कि ६ जनवरी २००२ को फिक्की ऑडिटोरियम में मेरे संघ सानिध्य में आयोजित ‘‘अखिल भारतीय दिगम्बर जैन युवा परिषद’’ के स्थापना दिवस समारोह में मैंने सार्वजनिक सभा में महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास की घोषणा करते हुए प्राचीन आगम ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत किये।
उस सभा में डा. एल.एम. सिंघवी (सांसद एवं विधिवेत्ता), साहू रमेशचंद जैन, प्रो. वाचस्पति जी उपाध्याय (डा. लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ-दिल्ली के कुलपति), निर्मल कुमार सेठी, चव्रेश जैन (अग्रवाल दिगम्बर जैन पंचायत-दिल्ली के अध्यक्ष), प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन-फिरोजाबाद (अध्यक्ष-दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद एवं सम्पादक जैन गजट साप्ताहिक), पं. शिवचरणलाल जैन-मैनपुरी आदि अनेक गणमान्य श्रीमान-धीमान् उपस्थित थे।
कुण्डलपुर विकास के मेरे आह्वान पर युवा परिषद के कार्यकर्ताओं ने अपना पूरा सहयोग करने हेतु घोषणा की। धर्मचर्चा एवं तीर्थ विकास की भावनाओं में दिन व्यतीत हो रहे थे कि एक दिन १३ फरवरी २००२ को मेरी शिष्या आर्यिका चंदनामती जी ने प्रात:काल मुझसे करबद्ध निवेदन किया कि माताजी! एक बार दिल्ली से हस्तिनापुर चलकर वहाँ के दर्शन कर आप कुण्डलपुर की ओर मंगल विहार का कार्यक्रम अवश्य बनाइये क्योंकि आप जैसी दिव्यशक्ति के रहते हुए यदि महावीर स्वामी की वास्तविक जन्मभूमि का विकास नहीं हो पाया, तब तो कुण्डलपुर सदा-सदा के लिए इतिहास में समाप्त हो जायेगा।
थोड़ी सी देर उनसे परामर्श के बाद मुझे भी बात जंच गई और तत्काल मैंने क्षुल्लक मोतीसागर एवं ब्र. रवीन्द्र जी को बुलाकर इस विषय में विचार-विमर्श किया, तो सभी को अच्छा लगा। फिर भी सभी ने विहार करने का अंतिम निर्णय मुझ पर छोड़ दिया। मुझे उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो भगवान महावीर की धरती स्वयं मुझे पुकार रही है और मुझे वहाँ के विकास के माध्यम से प्रभु वर्धमान के चरणसानिध्य में आत्मसाधना करने का स्वर्णिम अवसर प्रदान कर रही है। बस! मुझे तो कुण्डलपुर प्रस्थान की लगन लग गई और मैंने कुण्डलपुर विहार की घोषणा कर दी।
फिर तो मैं हस्तिनापुर विहार की बात भूलकर कुण्डलपुर के सपने संजोने लगी और पंडित श्री धनराज जैन ज्योतिषाचार्य-अमीनगर सराय से मुहूर्त पूछकर २० फरवरी २००२ को कुण्डलपुर की ओर विहार कर दिया। मेरे इस आकस्मिक निर्णय से सभी दिल्लीवासी आश्चर्यचकित थे किन्तु कुण्डलपुर विकास की बातें सुनकर सभी को मानसिक आल्हाद भी था।
निश्चित तिथि के अनुसार मैंने संघ सहित कनॉट प्लेस-दिल्ली के मंदिर से जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करके प्रस्थान कर दिया और संघपति बने लाला महावीर प्रसाद जी के साथ निर्मल कुमार सेठी आदि सैकड़ों भक्तगणों ने हाथों में झंडा लिए खुशी में झूमते हुए दिल्ली के इण्डियागेट के समक्ष देश के नाम मेरा ‘जन्मभूमि विकास संदेश’ प्रसारित करवाया और फिर मेरे संघ के सक्रिय कदम ‘वीर जन्मभूमि कुण्डलपुर’ की ओर चल पड़े। मार्ग में मथुरा चौरासी, आगरा, फिरोजाबाद, इटावा आदि शहरों में भारी धर्मप्रभावना हुई जिन्हें यहाँ समयाभाव के कारण प्रस्तुत नहीं कर पा रही हूँ।
समय आने पर कभी मैं अपने भक्तपाठकों को इस विहार के अनुभव विस्तार से बताऊँगी। कुल मिलाकर लगभग ३ माह २२ दिन का रास्ता तय करके हम लोग अपने निर्धारित लक्ष्य की आधी मंजिल पार करके तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली-प्रयाग तीर्थ पर १२ जून २००२ (ज्येष्ठ शुक्ला दूज) को पहुँच गये और वहाँ पर २४ जून को नवनिर्मित कैलाशपर्वत (प्रीतविहार-दिल्ली के श्री चेतनलाल सत्येन्द्र कुमार जैन परिवार के सौजन्य से निर्मित) पर ७२ जिनमंदिरों में वेदी प्रतिष्ठापूर्वक त्रैकालिक चौबीसी की ७२ प्रतिमाएँ विराजमान करवार्इं पुनः इसी तीर्थ पर संघसहित मैंने सन् २००२ का वर्षायोग स्थापित किया।
उस मध्य १५ अगस्त मोक्षसप्तमी के दिन ब्र. रवीन्द्र जी ने कुण्डलपुर में नूतन विकास हेतु जम्बूद्वीप संस्थान की ओर से लगभग २ एकड़ भूमि की रजिस्ट्री कराई, जो अब विश्व की दृष्टि का केन्द्र बनने वाली है।
प्रयागतीर्थ पर चातुर्मास के मध्य यूँ तो अनेक प्रभावनात्मक कार्यक्रम जैसे-कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन आदि सम्पन्न हुए, फिर भी मेरी प्रेरणा से वहाँ उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को आमंत्रित करके ३ नवंबर २००२ को अहिंसा एवं न्याय विषय पर एक ‘‘न्यायाधीश सम्मेलन’’ आयोजित हुआ, जिसमें न्यायमूर्ति श्री सुधीर नारायण अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति श्री एम.सी. जैन की भूमिका विशेष सराहनीय रही।
इससे पूर्व ३ सितम्बर २००२ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भी मैं ससंघ गई तथा वहाँ आयोजित ‘‘धर्म एवं संस्कृति’’ नामक संगोष्ठी में हम लोगोें के प्रवचन सुनकर सभी इतिहासज्ञ बहुत प्रसन्न हुए पुन:१५ सितंबर २००२ को तपस्थली तीर्थ पर इतिहासकारों का एक सम्मेलन करके उन्हें जैनधर्म से संबंधित भ्रान्तियों को पाठ्य-पुस्तकों में संशोधन करने की प्रेरणा दी गई।
इस प्रकार के अनेक शैक्षणिक, सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों के साथ तपस्थली तीर्थ का वर्षायोग ४ नवंबर २००२ को दीपावली के दिन सकुशल सम्पन्न हुआ, जहाँ कैलाशपर्वत के सामने पावापुरी जलमंदिर का दृश्य उपस्थित करके भगवान महावीर के चरणों में निर्वाणलाडू चढ़ाया गया।
तपस्थली तीर्थ प्रयाग में चातुर्मास स्थापना करके १० नवम्बर २००२ को मैंने कुण्डलपुर के लिए ससंघ मंगल विहार कर दिया। विहार करते समय इस बार न जाने क्यों कैलाशपर्वत पर विराजमान भगवान ऋषभदेव के चरणों में नमन करते हुए मेरे मुँह से निकल गया कि ‘‘हे भगवन्! मैं और कुछ नहीं आपके पोते का ही कार्य करने जा रही हूँ, अब मेरी पतवार आपके हाथ में है।’’
बात यह थी कि इन दिनों रवीन्द्र जी चिंतित रहते थे कि माताजी ने फरवरी २००३ में कुण्डलपुर के लिए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा और मस्तकाभिषेक महोत्सव घोषित कर दिया है किन्तु वहाँ अभी मैं कोई निर्माण ही प्रारंभ नहीं कर पाया हूँ तो दो-तीन माह के अंदर फरवरी में महोत्सव कैसे संभव हो पाएगा?
उन्होंने मुझसे तारीख आगे बढ़ाने का निवेदन किया किन्तु मैंने कहा कि जो तारीख घोषित हो चुकी है, वह मत टालो अत: मेरे मन में भी किंचित् आकुलता हुई कि सब कुछ इतनी जल्दी कैसे हो जाएगा? लेकिन मैं इसे भगवान ऋषभदेव का अतिशय ही मानती हूँ कि प्रयाग से निकलकर बनारस पहुँचते ही एक मात्र प्रेरणा पर कुण्डलपुर के महोत्सव में सौधर्म इन्द्र बनने हेतु श्री दीपक कुमार जैन (सुपुत्र श्री ऋषभदास जैन-अध्यक्ष दिगम्बर जैन समाज वाराणसी) तैयार हो गये
और ज्यों-ज्यों संघ आगे बढ़ा, त्यों-त्यों बनारस, आरा, पटना सभी स्थान के लोग कुण्डलपुर के साथ जुड़ते चले गये। इस प्रकार भक्तों के विशाल समूह के साथ २९ दिसंबर २००२ को मेरे संघ का मंगल पदार्पण भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) में हो गया और प्रभु के दर्शन कर हम सभी ने अपने को धन्य माना।