दैदीप्यमान सिंहासन पर सम्राट कर्ण अपने राजसी वैभव को चारों ओर विखेरे हुए शोभित हो रहे हैं, और दिनों की अपेक्षा दरबार भी ठसाठस भरा हुआ है। ज्ञात होता है कि आज उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन का बृहत आयोजन किया है। देश देशान्तरों से पधारे हुए ज्ञानी, योगी पंडित, कवि, कलाकर आदि सभी वहाँ उपस्थित हैं। सब को वाणी स्वतंत्रता अर्थात् बोलने की खुली छूट है। तर्व-प्रमाण और श्रद्धा के खुले चैलेंज परस्पर में टकरा रहे हैं। किन्तु प्रत्यक्षता के अभाव में यह सब एक वाक्-विलास मात्र दिखाई देता था। यह उस मध्ययुग की चर्चा है जो कि सांस्कृतिक होते हुए भी साम्प्रदायिक स्पद्र्धा में बढ़ा हुआ था। आज तो साम्प्रदाियकता के कारण देश ने जो गहरी क्षति उठाई है वह किसी से छिपी नहीं है किन्तु तब…। साम्प्रदायिकता से कुछ लाभ ही हुआ था।वह यह कि स्पद्र्धा में लोगों ने चमत्कार और योगों के नित नये-नये प्रयोग करके अध्यामिकता की नींव मजबूत बनाई थी! अपने-अपने धर्मों की प्रशंसा और डींगों से सम्राट कर्ण जब प्रभावित नहीं हुए तो दरबार के बीचों—बीच एक अपरिचित सा व्यक्ति, खड़ा होकर जोर से चुनौती देता हुआ गरज उठा…। मैं साक्षात ब्रह्मा-विष्णु महेश को इस भू-तल पर उतार सकता हूँ। गणेश, बुद्ध, स्कंद आदि देवताओं के प्रत्यक्ष दर्शन करा सकता हूँ।… दर्शक गण उसकी ओर आँखे फाड़-फाड़ कर देख रहे थे; परन्तु वास्तव में वह एक कुशल कलाकार था। कलाकार याने बहुरूपिया। उस युग के बहुरूपिया वैदिक और पौराणिक देवताओं के वेश बना बनाकर उनकी प्रतिष्ठा घटाने में अपनी सांस्कृतिक परम्परा की कुछ भी हानि नहीं मानते थे। और न आज ही मानते हैं। देवताओं में जो देवत्व आता है-पूज्यत्व भाव आता है; वह तो प्रतिष्ठा और श्रद्धा से ही आता है। और जब वह प्रतिष्ठा ही देवाताओं से छीन ली जाती है, तो वे सस्ते और बाजारू होकर गली-गली बिकते फिरते हैं-मिट्टी के पुतले बने हुए।परन्तु जैनियों की इस विषय मे प्रशंसा ही करना पड़ेगी। जो वीतराग भगवान की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रखने में सदैव से सचेत रहे हैं गली-गली बिक कर दो पैसे में सहज ही मिल जाने वाले गणेश जी और रामलीलाओं के रामचन्द्र जी क्या देवत्व की प्रतिष्ठा को कम नहीं करते? अस्तु। सम्राट् कर्ण अपने राज्य को एक धर्म निरपेक्ष राज्य बनाने के पक्ष में थे, जब कि उनका राज्य मंत्री सुमति वहाँ जैनेन्द्र शासन का स्वप्न देख रहा था। देखते-देखते बहुरूपिया पलायमान हो गया और क्षणोपरान्त अदृश्य वाणी हुई।…‘‘शंकर जी आ रहे हैं।’’ दरबारियों ने देखा तो सचमुच नन्दी पर सबार गलू में काले सर्पों की माला डाले और भस्म लपेटे हुए शिवजी खड़े थे! इसी क्रम में दूसरे तीसरे दिन विष्णु, बुद्ध, गणेश, ब्रह्मा, कार्तिकेय आदि देवता भी अपने-अपने स्वरूपों में जनता को दिखाई दिये। चौथे दिन आकाशवाणी हुई- ‘वीतराग भगवान जिनेन्द्रदेव’ आ रहे हैं। यह सुनते ही सुमति मंत्री महाप्रभावक श्री भक्तामर जी के तेरहवें काव्य का ऋद्धि मंत्र सहित पाठ जोर-जोर से करने लगे। उच्चारण करते ही ‘जिनेन्द्रदेव’ तो नहीं, जिनशासन की अधिष्ठात्री देवी चव्रेâश्वरी अवश्य प्रकट हुर्इं और आते ही उस बहुरूपिये की छाती पर सवार हो गई। बस,फिर क्या? बहुरूपिये का भंडाभोड़ हुआ सो तो हुआ ही;तथा कथित पौराणिक देवताओं की प्रतिष्ठा को भी गहरा धक्का लगा। इसके विपरीत जैन शासन की जयकारों की ध्वनि से आकाश गूंज उठा और अंत में सम्राट कर्ण ने घोषण की-आज से मेरा राज्य धर्म निरपेक्ष राज्य नहीं रहा बल्कि अब यह जैनशासन को स्वीकार करता है।