श्रीमान् पार्श्वो जिनेन्द्र:, परमसुखरसानन्दकंदैकपिंड:।
चिच्चैतन्यस्वभावी, भुवि सकलकले:, कुण्डदण्डप्रचण्ड:।।
भ्राजिष्णुस्त्वं सहिष्णु:, कमठशठकृतेनोपसर्गस्य जिष्णु:।
त्वां भक्त्या नौमि नित्यं, समरसिकमना, मे क्षमारत्नसिद्ध्यै।।१।।
१माधवमास्यसिते द्वितये दिवसे किल गर्भमित: प्रभु:।
पौषसुमास्यसितैकयुता दशमीदिवसे जनिमाप स:।।
जन्मतिथौ च दिशावसनो नवहस्ततनु: खलु तीर्थकृत्!।
शालिनवांकुरसद्द्युतिमान् शतवर्षमितायुरवेत् स मां।।२।।
ध्याननिमग्नपार्श्वमुनिपं, विलोक्य कमठासुर: कुपितवान्।
मूसलधारयोग्रपवनैर्भयंकरमहोपसर्गमिति स:।।
वन्हिकणान् ववर्ष दृषद:, पिशाचपरिवेष्टितश्च कृतवान्।
मंदरशैलवद्दृढमना:, चचाल नहि योगतो जिनवर:।।३।।
फणपतिरासनस्य चलनात् त्वरं, सह समाययौ वनितया।
असितमधौ१ चतुर्दश दिने, सुबोधरविरुद्ययौ च जिन! ते।।
गलितमदस्तदा स कमठासुरो जिनविभुं श्रित: सदसि वै।
जिनवचनौषधं किल पपौ, समस्तभवरोगशांतकरणं।।४।।
फणपतिरासनस्य चलनात् त्वरं, सह समाययौ वनितया।
असितमधौ१ चतुर्दश दिने, सुबोधरविरुद्ययौ च जिन! ते।।
गलितमदस्तदा स कमठासुरो जिनविभुं श्रित: सदसि वै।
जिनवचनौषधं किल पपौ, समस्तभवरोगशांतकरणं।।४।।
संप्राप्नोत् शुक्लासप्तम्यां, नभसि२ वसुगुणमणिखचितवसुधां।
सम्मेद: शैलेन्द्रो वंद्य:, सततमपि गणिमुनिसुरखगनरै:।।
वाराणस्यां ब्राह्मी सूते, स्म विकसितकृतमुनिहृदयकमलं।
सर्पश्चिन्हो भाति त्रेधा, जिनचरणकमलमहमपि च नुवे।।५।।
विश्वसेनसुत: पार्श्व:, त्वत्प्रसादात् क्षमाखने!।
सर्वंसहा मतिर्मे स्यात्, तावद्यावत् शिवो न हि।।६।।
भवसंकट हर्ता पार्श्वनाथ! विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना हे क्षमाशील! मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दो।।
यद्यपि मैंने शिव पथ पाया, पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो, सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्नतया।।१।।
वाराणसि नगरी धन्य हुई, धन धन्य हुए सब नर नारी।
हे अश्वसेननंदन ! तुम से, वामा माँ भी मंगलकारी।।
वैशाख वदी वह दूज भली, माता उर आप पधारे थे।
श्री आदि देवियों ने आकर, माता से प्रश्न विचारे थे।।२।।
शुभ पौष वदी ग्यारस तिथि थी, जब आए प्रभु साक्षात् यहां।
शैशव में सुर संग खेल रहे, अहियुग को दीना मंत्र महा।।
तब नागयुगल धरणेन्द्र तथा, पद्मावति होकर भक्त बने।
शुभ पौष वदी ग्यारस के दिन, प्रभु दीक्षा ले मुनि श्रेष्ठ बने।।३।।
तत्क्षण मनपर्ययज्ञानी हो, सब ऋद्धी से परिपूर्ण हुए।
इक समय सघन वन के भीतर, प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ हुए।।
कमठासुर ने उपसर्ग किया, अग्नी ज्वाला को उगल-उगल।
पत्थर फेंके मूसलधारा, वर्षायी आंधी उछल-उछल।।४।।
निष्कारण ही कमठासुर ने, दश भव तक बैर निकाला था।
प्रभु को दुख दे देकर उसने, खुद को दुर्गति में डाला था।।
प्रभु महासहिष्णु क्षमा सिन्धु, भव-भव से सहते आये हैं।
तन से ममता को छोड़ दिया, नहिं किंचित् भी घबराए हैं।।५।।
प्रभु क्षपक श्रेणि में चढ़ करके, मोहनी कर्म का नाश किया।
उस ही क्षण धरणीपति पद्मावति, आ करके बहुभक्ति किया।।
प्रभु को मस्तक पर धारण कर, ऊपर से फण का छत्र किया।
प्रभुवर ने ही उस ही क्षण में, वैâवल्य श्री को वरण किया।।६।।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हन्त बने।
इन्द्रों के आसन कांप उठे, प्रभु समवसरण गगनांगण में।।
वदि चैत्र चतुर्थी तिथि उत्तम, जब प्रभु में ज्ञान प्रकाश हुआ।
उस स्थल का उस ही क्षण से, ‘अहिच्छत्र’ तीर्थ यह नाम हुआ।।७।।
नव हाथ देह सौ वर्ष आयु, मरकतमणि सम आभाधारी।
अहि चिह्न सहित वे पार्श्वप्रभो! मुझको हों नित मंगलकारी।।
श्रावण सुदि सप्तमि तिथि के दिन, सिद्धीकांता से प्रीति लगी।
मैं नमूं ‘ज्ञानमती’ तुम्हें सदा, मेरी हो सर्वंसहा मती।।८।।