गुटिका को खाते देर न हुई कि उसने अपना रंग जमाना प्रारम्भ कर दिया। आँखों में मादकता टपकने लगी; मुँह सुर्ख हो गया; शरीर की नसों में तनाव सा आ गया।पौरुष मनुष्यता की मर्यादा का उल्लंघन कर आपे से बाहर निकलने के लिये बेचैन हो उठा। मदिरा में वह नशा कहाँ? जो उस गुटिका में था! आज-कल के विज्ञापनबाजों जैसी कामोद्दीपन गुटिका अथवा कामोत्तेजक तिला तो वह थी नहीं कि नवयुवक या नवयुवतियाँ का रूपया पानी की तरह बहाने पर भी लाभ के बदले हानि ही पल्ले पड़े!…उस अपूर्व गुटिका का नाम था ‘कल्लोलकामिनी गुटिका’!!…केतुपुर नरेश गुटिका खाकर पर्यंक पर लेटा ही था कि पीछे से आवाज आई— ‘‘स्वामिन्! आपको महारानी याद कर रही हैं।‘‘…. राजा ने जो ऊपर नजर उठाई तो उठी ही रह गई, जैसे अहिर्निश काम करने बाली बाँदी को भी पहिचाना नहीं हो। उसकी कजरारी आयत आँखों में आँखे डाल कर राजा ने जाने क्या पढ़ रहे थे? कहीं नेत्र चमक से उसके रूप सौन्दर्य का पान तो नहीं करने लगे थे? परन्तु बाँदी थी कि उसने आज अपने प्रति राजा की जो यह अस्वाभाविक अभद्रता देखी तो उसके नीचे की धरती खिसकने लगी।उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज राजा को यह हो क्या गया? कहीं मुझे धोखे में रानी तो नहीं समझ लिया? परन्तु बड़ों का प्यार यदि निम्न वर्ग को मिलने लगे तो वे किसी भी मूल्य पर उनके चरणों में अपना आत्म समर्पण करने को तैयार हो जाते हैं? फिर नारी, प्रेम की परिभाषा जैसे सुन्दर रूप में जानती हैं, वैसी पुरुष नहीं।‘‘त्रियाश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः।’’ ऐसे स्वर्ण अवसर को चम्पा ने अपने हाथ से जाने देना ठीक न समझा और दूसरे ही क्षण उसने अपना सर्वस्व राजा के आगे रख दिया…। व्यसन भले ही छोटा हो परन्तु उसकी सन्तान समूच्र्छन जीवों की भांति दिन दूनी-रात चौगुनी वृद्धि को ही प्राप्त होती है। राजा का वह अशोभनीय व्यसन एक दिन का नहीं था। वह तो उनका नित्यप्रति का कार्य हो गया था। यहाँ चम्पा के प्यार ने हथेली पकड़कर हाथ पकड़ना प्रारम्भ कर दिया। उसका प्यार अब केवल प्यार ही नहीं रह गया था; पह कुछ-कुछ शासन का रूप भी लेने लगा था।राजा भले ही केतुपुर नगर में राज्य कर रहे हो; परन्तु चंचल चम्पा तो अब राजा के ऊपर शासन कर रही थी।
विषयासक्तचित्तानां गुण: कोवा न नश्यति। न वै दुष्यं न मानुष्यं, नाभिजात्यं न सत्यवाक्।।
सन्देह नहीं कि कामान्ध-कामातुर के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। कोटिकोटि जनता की आशाओं के केन्द्र अपने उत्तरदायित्व से गिरकर, एक बाँदी का, एक तुच्छ दासी का दास हो जाये, इसे सच्चरित्र रानी का सरल हृदय कैसे सहन कर सकता था? महारानी कल्याणी के निश्छल निष्कपट अगाध प्यार को करारा धक्का लगा था। इस स्वार्थ से उसने राजा को समझाने-सचेत करने तथा सुमार्ग पर लाने का बीड़ा उठाया हो सो नहीं, उसे तो राज्य मे बढ़ जाने वाले अन्याय, अत्याचार, दुराचार का भय था? क्योंकि राजा जिस मार्ग का अनुशरण कर रहा हो-प्रजा क्यो नहीं करेगी ? ‘यथा राजा तथा प्रजा।’ रात्रि का अन्तिम प्रहर। राजा और रानी दोनों एक ही पर्यंक पर निद्रामग्न दिखाई दे रहे हैं; पर यथार्थ में नींद दोनों को नहीं। रानी का हठ और नरेश की वासन, दोनों में संघर्ष छिड़ा हुआ था, कल्याणी कटिबद्ध थी—कुछ भी हो, जब तक राजा पर-रमणी की छाया के पाप को स्वीकार नहीं कर लेंगे, तब तक उसका कायिक और पौद्गलिक सम्बन्ध तो दूर आत्मिक सम्बन्ध का भी विच्छेद समझा जावे। करुणामयी कल्याणी के इस दृढ़ संकल्प से राजा उसके कनकवर्ण कोमल शरीर को छू तो न सका परन्तु उस कामान्ध का काम अब क्रोध में परिणत हो गया? फल स्वरूप महारानी कल्याणी विकट वन के एक निर्जन कुए में ढ़केल दी गई।… वहाँ काम यदि क्रोध में परिणत हुआ तो यहाँ भी दृढ़ संकल्प अब भक्ति-रस में परिर्वितत हो चुका था! और भक्तिरस का रस अपूर्व प्रवाह जिस स्रोत में बहता है,वह है सर्वश्रुत सर्वमान्य महाप्रभावक ‘भक्तामर स्तोत्र’ जिसके एक-एक शब्द में अनन्त अलौकिक चमत्कारों की अनोखी शक्ति है। दृढ़ आस्था हो तो भाव मात्र से ही अभिलाषित कार्य की सिद्धि हो जाती है। यदि वह न हो तो साधन और क्रियाकांड के आधार से भी वह कार्य सम्पन्न हो सकता है। फिर वहाँ महारानी के पास तो दृढ़ श्रद्धा थी ही। तब ही ’’सम्पूर्णमण्डलशशाङ्कलाकलाप…’’ और ‘‘चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभि…’’ श्लोकों की प्रखर ध्वनि पूर्वक कूप के जल में डूबकी साधकर महारानी ने उपर्युक्त श्लोकों के मंत्रों का जाप्य करना प्रारम्भ किया कि दूसरे दिन राजा अद्र्ध रात्रि के समय अपने शयनागार में देखते हैं कि एक हाथ में खप्पर लिये और दूसरे हाथ में कटार लिये ‘जृम्भादेवी’ विकराल रूप धारण किये खड़ी हैं!…बस फिर क्या था? राजा डर गया! उसका अंग प्रत्यंग पीपल के पत्ते की तरह थर-थर काँपने लगा। उसकी सारी शूरवीरता गायब हो गई!… परन्तु देवी ने उसे अभय-दान दिया-केवल इस शर्त पर कि वह पर-रमणी के संसर्ग से तो बचेगा ही, उसकी छाया से भी सदैव दूर रहेगा। तीसरे दिन राजा और रानी पुन: उसी पर्यंक पर थे, परन्तु उस दिन दोनों के हृदय में वासना की जगह प्रेम का साम्राज्य हिलोंरे ले रहा था।वही प्रेम जो कि दाम्पत्य जीवन में सोने में सुगन्ध बनकर रहता है। वह वासना नहीं जो कि गृहस्थ जीवन में विष बेल बनकर दाम्पत्य जीवन में अभिशाप सिद्ध होता है और होता है अनन्तानंत संसार का कारण!