शैशवावस्था वह सुकोमल तरु है जो इच्छानुसार मोड़ खाकर जीवन को मोड़ के अनुरूप बना लेता है। नदी के किनारे खड़े हुए बड़े-बड़े पेड़ अपना मस्तक ऊँचा उठाकर कहते हैं… हम महान् हैं। किन्तु नदी की एक लहर जब उसकी जड़ को हिला देती है, तब उसे अपनी शक्ति का परिचय मिलता है। एक लता जो आरम्भ से ही नम्रतायुक्त वातावरण में पोषित हुई है,झुकना जिसे सिखाया गया है-वह नदी के मध्य में खड़ी होकर आँधी और तूफान को अपना जीवन समझ कर मौन वर्षों तक खड़ी रहती है। मित्राबाई एक राजा के उच्च घराने में उत्पन्न हुई थी जहाँ उसका जीवन आरम्भ से ही सुख और विलासता से परिपूर्ण होना चाहिये था-वहाँ वह प्रारम्भ से ही आध्यात्मिकता की ओर झुकी हुई थी । यों बाल्यपन के जीवन में सांसारिकता को कोई स्थान नहीं-वह अल्पवयस्का होते हुए भी संसार और धर्म की ओर सोचने लगी थी। एकान्त वातावरण पाते ही वह जगत की निस्सारता और उससे मुक्त होने का एक मात्र उपाय धर्म पर घंटो सोचा करती- विवेचन किया करती। राजा महीपचन्द्र को अपनी पुत्री का धर्म की ओर आकर्षण देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । उन्होंने मित्र को श्रीमती र्आियका के पास अध्ययन के लिये भेजा। मित्र ाने धर्म के गूढ़ रहस्यों को समझा और सोचा कि जीवन में धर्म को समझना उतना मूल्यवान नहीं, जितना उस पर आचरण करना! विद्याध्ययन के उपरान्त आर्यिका के पास जाकर मित्रा ने आशीर्वाद की याचना की। आशीर्वाद देते हुए श्रीमती आर्यिका ने कहा-‘‘गुणवती पुत्री! प्रत्येक जैन गृहस्थ का जिनदर्शन एक आवश्यक कार्य है अत: तुम्हारा भी कत्र्तव्य है कि जिनदर्शन बिना अन्न-जल ग्रहण न करना।’’ मित्रा श्रीमती के सत्य वचन को श्रवण कर कुछ क्षण सोचने लगी-तत्पश्चात् उसने कहा- ‘‘परम पूल्यनीया माता जी मैं प्रतिज्ञाबद्ध होती हूँ कि प्रतिदिन रत्नमयी जिन प्रतिमा के दर्शन के पश्चात् ही भोजनादिक कार्यों को करूँगी।’’ श्रीमती आर्यिका ने मित्रा को आशीर्वाद दिया और वह अपने पितृगृह लौट कर धर्म साधन करती रही। एक समय होता है, जब फूल खिलता है और माली चाहता है कि वह फूल हमेशा वैसा ही प्रपुल्लित रहकर उपवन की शोभा बढ़ाता रहे। वही राजा महीपचन्द्र का विचार था। वे सोचते नहीं थे कि कन्या एक बपौती है—थाती है जिसका सुकुमार हाथ उसके दूसरे-साथी के हाथ में पकड़ाना होगा और उन दोनों साथियों की जीवन क्षेत्र में प्रसन्नता पूर्वक दौड़ ही उसकी सच्ची प्रसन्नता होगी। आखिर रानी सोमवदनी सोमश्री ने एक दिन कह ही डाला-‘‘क्या मित्रा को आर्यिका बनाने का विचार कर रखा है- आपने ? वह स्वयं ही वैरागिन का भेष बनाकर जिन-साधना में लगी रहती है और पीछे से तुम उसे प्रोत्साहन देते रहते हो! आखिर कन्या का पाणिग्रहण किये बिना ही घर में छुपाये रहोगे उसे ?’’ रानी की बात सुनकर महीपचन्द्र ने मित्रा की ओर देखा! उन्हें अपनी पुत्री में वास्तविक परिवर्तन दिखाई दे रहा था। उसके कपोल, नेत्र और अधर सूर्य की अरुणिमा को भी हीन घोषित कर रहे थे। जिन अधरो पर बाल्यपन की किलकोरें नृत्य-करती थीं-वे आज यौवन के बोझिल भार से उदीप्त हो उठे थे। राजा महीपचन्द्र के घर पर विवाह की दुन्दुभि बज उठी। आम लोगों में यही चर्चा थी कि राजा ने अद्वितीय वर की खोज की है-कोई कहता-‘‘भाई राजा के भावी दामाद क्षेमंकर जी साधारण लक्ष्मीपति नहीं अपितु धनकुबेर हैं—धनकुबेर! तो दूसरे महाशय बीच में ही बोल पड़े—‘‘क्षेमंकर धर्म के ज्ञाता नहीं प्रकाण्ड विद्वान भी हैं। संसार की समस्त ऋद्धियां उन्ही के पैर चूम रही हैं?’’ इन दोनों की बात सुनकर एक बालक कह रहा था-‘‘भाई! धन और ऋद्धि की बात तो हम नहीं जानते पर क्षेमंकर जी जब कभी श्री भक् तामर स्तोत्र का कंठस्थ पाठ करते हैं तो दर्शक उनकी ओर देखते ही रह जाते हैं और वे पता नहीं किस लोक में ध्यानस्थ होकर विचरण किया करते है। अन्ततोगत्वा विह्वल नेत्रों से वैवाहिक क्रियाकलाप समाप्त करके राजा ने पुत्री बिदा की और अन्तिम बार अवरुद्ध कंठ से कहा ‘‘पुत्री! पति तुम्हारे सर्वस्व हैं- उनकी सेवा ही तुम्हारा उत्कृष्ट धर्म है।’’ धूमधाम से बारात लौटकर आ चुकी थी।मध्यान्ह में सास ने आकर दुलहिन को भोजन के लिए बुलाया। ‘‘माँ! मुझे भोजन की आवश्यकता नहीं।’’मित्रा ने सकुचाते स्वर में कहा। ‘‘ससुराल आकर ऐसी अशुभ बातें नहीं करते बेटी। तुम्हारे लाल सिन्दूर के साथ ही तुम्हारी काया आरक्ता बनी रहे-इसके लिए भोजन तो आवश्यक है पुत्री!’’ ‘‘माँ मैं भगवान पाश्र्वनाथ के दर्शन के बिना भोजन ग्रहण नहीं करती।’’ पास ही के चैत्यालय में श्री पाश्र्वनाथ की अति मनोज्ञ विशाल पाषाणमूर्ति स्थापित है-जाकर दर्शन करलो और फिर जल्दी आकर भोजन करो! तुम्हारे श्वसुरजी घबड़ा रहे हैं!’ ‘‘चैत्यालय में मूर्ति तो अवश्य है माता जी! पर वह रत्नमयी नहीं है।’’ सास-बहू के इस वार्तालाप को क्षेमंकर जी बड़े ध्यान से सुन रहे थे।वस्तु स्थिति को समझ कर उन्होंने माँ को बुलाकर कहा-‘‘किसी की ली हुई प्रतिज्ञा को तोड़ने के लिए विवश करना उचित नहीं।’’कुछ देर सोचकर पुन: बोले:-माँ! चिन्ता न करो, इसका उपाय में करूँगा। रात्रि का प्रथम प्रहर था और क्षेमंकर योगासन से बैठकर बार-बार पढ़ रहे थे-
ध्यान में क्षेमंकर इतने लवलीन थे कि बीते समय का उन्हें ज्ञान न था।मुख मण्डल से तेज झलक-झलक कर कह रहा था-‘साधना में याद खुद की रही कब है?’’ उनका ध्यान तो तब भंग हुआ जब जिनशासन की अधिष्ठात्री चतुर्मुखी (चतुर्भुजी) देवी ने प्रकट होकर कहा-तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी कुमार! और दूसरे दिन प्रात:काल नगरवासियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देवालय में पाषाण मूर्ति के आगे पाश्र्वप्रभु की विशाल रत्न जड़ित प्रतिमा के दर्शन किये।