आचार्य हरिभद्र का अनेकांतवाद और उपयोगिता
-अतुल कुमार प्रसाद सिंह, पाण्डव नगर, दिल्ली-९२
“अनेकांतजयपताका” के रचनाकार आचार्य हरिभद्र का पूरा जीवन विभिन्न दर्शनों के अध्ययन और मनन को समर्पित रहा। उनका जीवन दर्शन भी बहुत ही उच्च कोटि का रहा है। आचार्य हरिभद्र ने लोक कल्याण की भावना से ही अपने सारे साहित्य का सृजन किया। उनमें यह लालसा नहीं थी कि उनकी रचनाओं के माध्यम से उनका नाम और यश हो। इसीलिए उनकी रचनाओं में उनके जीवन संबंधी तथ्यों का उल्लेख नहीं मिलता है। इस कारण उनके जन्म और मृत्यु के समय को ठीक-ठीक बता पाना ही कठिन है। आचार्य हरिभद्र के संबंध में उनके समकालीन अथवा परवर्ती जैन आचार्यों ने जो उल्लेख अपनी कृतियों में किया है, उन्हीं के आधार पर आचार्य के समय तथा मृत्यु का निर्धारण किया जा सकता है।
जैन दर्शन की परम्परा में आचार्य हरिभद्र एक ऐसे दार्शनिक के रूप में जाने जाते हैं, जिनमें समन्वयवादी दृष्टि तो थी ही, विषय की गंभीरता, तार्किकता और संप्रदायों से ऊपर रहने वाले आचार्य की छवि भी थी। जिस कालखंड में हरिभद्र पैदा हुए, उसमें दार्शनिकों के बीच एक-दूसरे के मतों का खंडन करने और अपनी धारा को येन-केन-प्रकारेण सही साबित करने की होड़ लगी रहती थी। ऐसी परिस्थिति में व्यक्तिगत अहं के टकराव के कारण अगर किसी का नुकसान हो रहा था तो वह था दर्शन और धर्म। ऐसे युग में हरिभद्र एक ऐसे दार्शनिक चिंतक के रूप में हमारे सामने आए जो अपने युग की अनुदार और संकुचित दृष्टि से पूर्णतया मुक्त रहे। यह उनको उदार एवं सहिष्णु दृष्टि का ही परिणाम था कि वे अपने विरोधी दर्शनों में निहित सत्य का दर्शन कर सके और जैन परंपरा की अनेकांत दृष्टि के आधार पर उसका समन्वय कर सके। षड्दर्शनसमुच्चय और शास्त्रवार्तासमुच्चय जैसे उनके दार्शनिक ग्रंथ उनकी उदारता और तटस्थ दृष्टि का ही उद्घोष करते हैं। हरिभद्र एक उत्कृष्ट दार्शनिक होने के साथ ही धार्मिक क्षेत्र में भी महान क्रांतिदूत और समाज सुधारक थे। अपने संप्रदाय की कमियों का अवलोकन कर उसकी निर्भीकता के साथ समालोचना करना उन जैसे महान क्रांतिकारी के लिए ही संभव था। हरिभद्र ने अपने संप्रदाय के साथ ही अन्य संप्रदायों के अव्यावहारिक और अंधविश्वासी कथाओं की जमकर आलोचना की और उनका उपहास उड़ाया। उनके संबोध प्रकरण और धूर्ताख्यान आदि ग्रंथ विभिन्न धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त इस तरह की बुराइयों के खिलाफ उठी आवाज ही है। आचार्य हरिभद्र प्रतिभा संपन्न, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी तो थे ही, उच्च कोटि के साहित्यकारी भी थे। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं यानि, धर्म, दर्शन, आचार, काव्य, व्यंग्य, कथा आदि में प्रचुर मात्रा में रचनाएं की।
हरिभद्र अपने युग के धर्म संप्रदायों में उपस्थित अंतर और बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं- लोग धर्म मार्ग की बातें करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म मार्ग से रहित हैं। मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहां होता है, जहां परमात्म तत्व की गवेषणा हो, दूसरे शब्दों में जहां आत्मानुभूति हो, स्व को जानने और पाने का प्रयास हो। जहाँ परमात्म तत्व को जानने और पाने का प्रयास नहीं है वह धर्म मार्ग नहीं है। हरिभद्र कहते हैं- जिसमें परमात्म तत्व की मार्गणा है, परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म मार्ग ही मुख्य मार्ग है। आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- जहाँ विषय वासनाओं का त्याग हो, क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों से निवृत्ति हो वही तो धर्म मार्ग है। जिस धर्म मार्ग या साधना पथ में इसका अभाव है वह तो नाम का धर्म है। विषय वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृतियों के त्याग के अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों को, जो धर्म मार्ग का आचरण करने से होगा, इसकी समीक्षा करते हुए हरिभद्र यहां तक कहते हैं कि धर्म मार्ग किसी एक संप्रदाय की बपौती नहीं है। जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, फिर वह चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य कोई। वस्तुतः उस युग में जब सांप्रदायिक दुरभिनिवेश अपने चरम पर थे, यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता या सदाशयता का प्रतीक है, अपितु एक क्रांतिदर्शी आचार्य होने का भी प्रमाण है।
अनेकांतवाद जैन दर्शन की विशिष्ट और महत्वपूर्ण खोज है। इसीलिए जैन दर्शन को अनेक धर्मात्मक या अनैकांति कहा गया है। दर्शन के क्षेत्र में विभिन्न विचारों के बीच टकराव और मतभिन्नता को दुराग्रहपूर्वक अस्वीकार न कर उसे अन्य पक्षों और संदर्भों की अपेक्षा से विचार योग्य सामने या उस पक्ष का स्वीकार, जो तत्-तत् दार्शनिकों को तो ज्ञात हो पर दूसरे को नहीं, अनेकांतवाद का मुख्य पहलू है। अनेकांत की भाषिक अभिव्यक्ति के लिए जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद की खोज की ओर उसकी पद्धति के लिए नय की। अनेकांतवाद का कार्य विभिन्न दर्शनों के तत्वों में से सापेक्षिक सत्य को खोज उनके बीच के विरोध को समाप्त करना बताया जाता है, हालांकि ऐसा संभव तो नहीं हुआ। यद्यपि इस कार्य-व्यापार के कारण ही अनेकांतवाद को सिद्धान्त की अपेक्षा व्यावहारिक पद्धति के रूप में देखा जाता है। एक दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में अनेकांतवाद की स्थापना चौथी शताब्दी में सिद्धसेन दिवाकर ने की थी। अपने सन्मति तर्क प्रकरण में उन्होंने अनेकांत को व्याख्यायित करते हुए इसकी व्यावहारिक महत्ता को इन शब्दों में प्रतिपादित किया है :
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहइ।
तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स|
– सन्मति-तर्क-प्रकरण, ३/७०
अर्थात् जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वहण सर्वथा संभव नहीं है, उस संसार का एकमात्र गुरु अनेकांतवाद को नमस्कार है।
एक संपूर्ण और मूर्त सिद्धांत के तौर पर अनेकान्तवाद को जैन दार्शनिकों ने चौथी शताब्दी और उसके बाद स्थापित किया, लेकिन इसका बीज उतना ही प्राचीन है जितना दार्शनिक साहित्य। भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के नासदीय सुक्त’ में परम तत्व के सत् या असत् होने के संबन्ध में न केवल जिज्ञासा है बल्कि अंत में ऋषि कहता है कि उस परम सत्ता को न तो सत् कहा जा सकता है और असत्। इस प्रकार सत्ता की बहुधर्मिता और उसमें परस्पर विरोधी गुणों की उपस्थिति अपेक्षा भेद से वेदकाल में भी स्वीकृत हो चुकी थी। ऋग्वेद में ही परस्पर विरोध मान्यताओं में निहित सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए कहा गया है- एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति। अर्थात् सत् एक है और विद्वान उसे अनेक दृष्टि से व्याख्यापित करते हैं। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर परमसत्ता के बहुआयामी होने और उसमें परस्पर विरोधी कहे जाने वाले गुणधर्मो की उपस्थिति के संदर्भ मिलते हैं।
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने किसी प्रश्न का उत्तर एकान्तिक दृष्टि से नहीं दिया है। आगमों में उल्लिखित अर्हत् वचनों में हर प्रश्न का उत्तर अपेक्षा भेद से दिया गया है। इसीलिए तीर्थंकरों को त्रिपदी का प्रवक्ता कहा गया है। वे वस्तु तत्व को उप्पन्नेइ वा, विगमेई वा, धुवेई वा- इन तीन पदों से परिभाषित किया गया है। यानि, उत्पत्ति, विनाश और धौव्यता प्रत्येक वस्तु का धर्म है। एक ही वस्तु एक ही समय में उत्पन्न भी होता रहता है, उसमें से कुछ विनाश भी होता रहता है। लेकिन कुछ तत्व ऐसे भी हैं जो ध्रुव बने रहते हैं।
अनेकान्तवाद न केवल जैनदर्शन में स्वीकृत हुआ बल्कि भिन्न-भिन्न नामों से बौद्ध व अन्य दार्शनिक संप्रदायों में भी इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है। जैनों का विभज्जवाद और बौद्धों का शून्यवाद अनेकांतवाद का पर्यायवाची माना जा सकता है। बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद का निषेध किया जो वस्तुतः एकान्तिक दृष्टि का ही अस्वीकार था। अन्य दार्शनिक परंपराओं में संजय वेलट्टिपुत्र के दर्शन के आधार पर ही किया है। हालांकि, संजय का दर्शन निषेधात्मक है जबकि अनेकांतवाद सकारात्मक ।
हरिभद्र की दृष्टि में अनेकांत –
महान दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अनेकान्तवाद की चर्चा की। बाद में जैन दर्शन में अनेकान्तवाद को पूर्ण सिद्धांत के तौर पर सिद्धसेन दिवाकर ने अपने सन्मति तर्क प्रकरण के माध्यम से स्थापित किया। बाद में जैन परंपरा में अनेकान्त की स्वीकृति बहुत तेजी से हुई और यह जैन दर्शन का मुख्य तत्व बनकर उभरा। लगभग छठी शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी को स्पष्ट करने के लिए अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथ की रचना की और उन पर स्वयं ही टीकाएं लिखी। अनेकांतजयपताका संस्कृत में रचित ३५०० श्लोक ग्रंथांक वाला है। ग्रंथ के शीर्षक से ही इस वाद की महत्ता का अंदाजा हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने प्रमाण का विषय बतलाते हुए लिखा –
अनंतधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह
(षड्दर्शनसमुच्चय कारिका ५५, पृ. ३१२)
अनंत यानि तीनों काल में रहने वाले अपरिमित सहभावी और क्रमभार्थी धर्मवाली वस्तु अनंतधर्मात्मकं अर्थात् अनेकान्तात्मक मानी जाती है। वस्तु चाहे चेतन हो या अचेतन हो- सब द्रव्य अनेक धर्मक या अनेकान्तात्मक है। वस्तु की या द्रव्य की अनन्तधर्मता का विवेचन अन्य आचार्यों के सदश है। घट का पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से विचार करें घट सत है, धर्म अधर्म है, आकाशादि द्रव्यों की दृष्टि से असत है। पौदगलिक घट का पौदगलिकत्व स्वपर्याय हुआ तथा जिन धर्म, अधर्म आकाश और अनन्त जीव द्रव्यों से घर व्यावृत्त होता है वे सब अनन्त ही परपदार्थ पर पर्याय है। घट पौदगलिक है, धर्मादि द्रव्य रूप नहीं है। घट पुद्गल होकर भी पृथ्वी का बना है। जल आग या हवा आदि से नहीं बना है। अतः पार्थित्व घट की स्वपर्याय है तथा जल आदि अनन्त परपर्याय है, जिनसे कि घट व्यावृत्त रहता है। इस तरह घट को जिस-जिस पर्याय से सत कहेंगे, वे पर्यायें घट की स्वपर्यायें हैं तथा जिन अन्य पदार्थों से वह व्यावृत्त होगा वे परपर्यायें होंगी। इस तरह द्रव्य की दृष्टि से घट की जो पर्याय बताई वे थोड़ी हैं। व्यावृत्ति रूप परपर्यायें तो अनन्त हैं, क्योंकि अनन्त द्रव्यों से घट व्यावृत्त होता है।
इस प्रकार जो स्व और परपर्यायों का विवेचन किया है, उनमें जो स्वपर्याय है, वे वस्तु की धर्म हो सकती है, परन्तु परपर्यायें विभिन्न वस्तुओं के अधीन है। अतः उन्हें प्रस्तुत वस्तु का धर्म कैसे कह सकते हैं? घट का अपने स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्व, उसका धर्म हो सकता है। परन्तु पटादि परपदार्थों का नास्तित्व पटादि पर पदार्थों के अधीन है। अतः उसे घट का धर्म कैसे कह सकते हैं। जब वे परपर्यायें हैं तो वे घट की कैसे हो सकती है? इसका उत्तर इस प्रकार हैं-
वस्तु से पर्यायों का संबन्ध दो प्रकार का होता है- एक अस्तित्व रूप से दूसरा नास्तित्व रूप से। स्वपर्यायों का तो अस्तित्व रूप से सम्बन्य है तथा परपर्यायों का नास्तित्व रूप से। जिस तरह रूप, रस आदि का घट में अस्तित्व है, अतः उनका अस्तित्व रूप से संबन्ध है। उसी तरह स्वपयवि घट में पाई जाती हैं, अतः उनका भी अस्तित्व रूप संबन्ध है। परपर्यायें घट में पाई नहीं जाती, अतः उनका नास्तित्व रूप से संबन्ध है। जिस प्रकार घटावस्था में मिट्टी का पिंड आदि पर्यायें पाई नहीं जाती अतः उनका घड़े के साथ नास्तित्व रूप से संबंध है। इस कारण वे परपर्यायें उस पदार्थ में नहीं रहती। असत हैं, इसीलिए तो वे परपर्यायें कही जाती हैं। परपर्यायें घट में पाई ही नहीं जाती तो वे घट कैसे कही जा सकती हैं? दरिद्र के पास धन नहीं हो तो क्या कहीं भी दरिद्र संबन्धी धन है, ऐसा व्यवहार होता है? जो चीज जहाँ पाई नहीं जाती, उसका उसमें संबन्ध जोड़ना तो स्पष्ट ही लोक व्यवहार का अतिक्रमण है।
हरिभद्र का मानना है कि संसार की सब वस्तुएं अपने-अपने प्रतिनियत निश्चित स्वरूप में स्थित है। किसी का स्वरूप दूसरे से मिलता नहीं है। वस्तुओं की यह प्रतिनियत स्वभावता-असाधारण स्वरूप का होना। जिन वस्तुओं से उसका स्वरूप भिन्न रहता है, उन प्रतियोगी पदार्थों के अभाव के बिना नहीं बन सकती। घट का स्वरूप पट से भिन्न है, तो जब तक पदादि का अभाव न होगा, तब तक घट में अपना असाधारण घट स्वरूप भी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए जब तक उन प्रतियोगी पर-पदार्थों का परिज्ञान होगा, तब तक हम घटादि को उनसे व्यावृत्त रूप में पटाभावरूप है, यह जानना भी असंभव है। घट में पटाभाव की प्रतीति होती है, अतः घट के ज्ञान के लिए प्रतियोगी पटादि ज्ञान पहले होना चाहिए। इस दृष्टि से भी पर्यायें घट भी कही जा सकती है
षड्दर्शनसमुच्चय-पृष्ठ-३४१ ।
ऊपर कही हुई वस्तु अनन्तधर्मात्मकता को दृढ़ करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं –
येनोत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं यत् तत्सदिष्यते
अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः ।।
वही कारिका ५७, पृ. ३४७
अर्थात् जो भी वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त होगी, वही सत् कही जाएगी। प्रत्येक वस्तु, उत्पाद, व्यय और धौव्य इन तीनों से युक्त है। जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण में परिणाम होते रहते हैं। लेकिन उसमें रहने वाले द्रव्यत्व की स्थिति धौव्य है। अतः प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक है। वस्तु का यह स्वरूप स्वयं अनेकांतता को बतलाता है। वस्तु के इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील स्वभाव के कारण अनेकान 26 को चिंतन प्रक्रिया आई। आचार्य हरिभद्र ने इस अभिप्राय को ध्यान रखकर ही उक्त श्लोक कहा। इसका यह अभिप्राय है कि जिस कारण उत्पादादि तीन धर्मवाली ही वस्तु परमार्थ सत है, इसीलिए सभी वस्तु अनन्त धर्मवाली हैं और वे ही प्रमाण की विषय होतो है। वस्तु अनन धर्मवाली है, इसीलिए उसमें उत्पाद-व्यय नौव्यात्मकता सिद्ध होती है। इसलिए अनुमान का प्रयोग इसमें से उद्भावित होता है कि व उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक है। इसलिए अनन्त धर्मात्मक है। जो अनन्त धर्मात्मक नहीं है, वह उत्पाद-व्यय-धौव्यातक भी नहीं है, जैसे आकाश-कुसुम इस प्रकार यह व्यतिरेकी अनुमान है। जिस प्रकार अनन्त धर्म एक वस्त होते हैं, वह ऊपर बता चुके हैं। धर्म उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। द्रव्य रूप से सदा नित्य बना रहता है। (षड्दर्शनसमुच्चय, पू. ३५३, तथ आप्तमीमांसा श्लोक ५७)।
यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि उत्पाद, व्यय और घोव्य वस्सेतु भिन्न है और उनके संबंध से वस्तु में सत्व आता है- ऐसी बात नही किन्तु उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक ही सत्व व है। ये तीनों वस्तु के जैसे पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष आदि सब वस्तु द्रव्य स्वरूप से न तो नष्ट होते हैं न ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उनमें द्रव्य का परिस्फुट रूप से निर्वाध अन्वर देखा जाता है। यह निर्बाध सिद्धान्त है कि किसी भी असद् द्रव्य की उत्ती नहीं होती और न सत्व का अत्यन्त नाश होता है। रूपान्तर अवश्य हो रहता है। उसमें रूपान्तर होने का अर्थ ही यह है कि पूर्व रूप का नाश औ उत्तर रूप की उत्पत्ति। अतः पर्याय रूप से सब वस्तु उत्पन्न होती है और नर होती है। तथा द्रव्य रूप से उसमें ध्रौव्य है। (षड्दर्शनसमुच्चय पृ. ३४७)
जो पदार्थ वाले नहीं है, असत् हैं, उनके स्वरूप लाभ हो जाने के उत्पाद कहते हैं। विद्यमान पदार्थ की सत्ता का नष्ट हो जाना- उसकी सा का वियोग होना विनाश है। इन उत्पाद और विनाश के होते हुए भी द्रव्य रु से अन्वय रहना ध्रौव्य है। इस तरह उत्पादादि के असंकीर्ण लक्षण सर्व अनुभव में आते हैं। ये उत्पादादि लक्षण भेद से भिन्न होकर भी परसा सापेक्ष है- एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। ये परस्पर निरपेक्ष होकर अत्यंत भिन्न नहीं है। यदि ये परस्पर निरपेक्ष तथा अत्यन्त भिन्न हो जाएंगे तो आकाश-कुसुम की तरह इनका अभाव हो जाएगा। स्थिति और नाश से रहित केवल उत्पाद नहीं होता। इसी तरह विनाश और उत्पाद से रहित केवल स्थिति भी नहीं रहती। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष ही उत्पादादि वस्तु में सत्व रूप हो सकते हैं।
आचार्य हरिभद्र ने सूक्ष्म रूप से विचार किया है कि जब घट नष्ट होता है तब वह एकदेश से कुछ नष्ट होता है या सर्वदेश से पूरा का पूरा। यदि एकदेश से नष्ट होता है तो संपूर्ण घट का नाश न होकर उसके एक देश का ही नाश होना चाहिए। परन्तु हम घट को संपूर्ण ही नष्ट हुआ पाते हैं। इसलिए घट का एकदेश से नाश उचित नहीं है। यदि दूसरा पक्ष माने, यानि घट संपूर्ण सर्वदेश से नष्ट होता है तो घट के नाश होने पर कपाल और मिट्टी नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि घट का सर्वात्मना पूर्ण रूप से विनाश मानना उचित नहीं है। अतः अन्य कोई गति न रहने से बलपूर्वक यह मानना पड़ता है कि घट पट स्वरूप से नष्ट होता है, कपाल स्वरूप से उत्पन्न होता है और मिट्टी के रूप से ध्रुव है (वही पृ. ३५०-५१)।
आधुनिक संदर्भ में अनेकांतवाद की प्रासंगिकता : यद्यपि अनेकांतवाद दर्शन शास्त्र के तत्व मीमांसा के विश्लेषण से सम्बद्ध है और इसका विकास तात्विक चिंतन में वैमनस्य और वैयक्तिक अहं को दरकिनार कर सामंजस्य तथा परस्पर समन्वयवादी दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हुआ। तथापि अनेकांतवाद के सिद्धांत का उपयोग व्यक्ति के वास्तविक जीवन के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है, अगर इसका उपयोग सावधानी और विवेक के साथ किया जाए। ऐसे में यह सिद्धांत मनुष्य के विकास को गति देने में अचूक इंजन के रूप में खड़ा मिलेगा। आज मानव सभ्यता जिस संकट के दौर से गुजर रही है उसका मुख्य कारण व्यक्ति का व्यक्ति से, देशों का देशों से और संस्कृतियों का अन्य संस्कृति से अहं और टकराव की भावना है। इसमें अपने विचार को समग्र मानकर और दूसरे विचारों के प्रति घोर असहिष्णुता का भाव रखना मुख्य हो जाता है। इसे हम जीवन के सामान्य क्षेत्रों से लेकर विशिष्ठ संस्थाओं तक देख सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में अनेकांतिक दर्शन का उपयोग इस संकट का हल खोजने में सभ्यता, संस्कृति और अंततः विश्व शांति में मदद कर सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि रुग्ण खुद दवा के पास आए यानि इस समाधान को स्वीकार करने के लिए हमें आगे आना होगा। तमाम राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और वैश्विक समस्याओं पर विचार करते समय अगर दूसरे के विचार को सहिष्णुतापूर्वक सुना जाए और उसके विषय में केवल अपनी धारणाओं से नहीं बल्कि अन्य पक्षों की धारणाओं से भी देखा जाए तो समस्या का निराकरण सुगम हो जाएगा। यही मानव समाज को और विश्व को आगे ले जाने की दिशा का सूचक भी होगा। अन्यथा अपने सिद्धांत पर हठ ठानकर और दूसरों को अनसुना करने से हर स्तर पर अंततः समाज का ही नुकसान है।
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
ReplyForward |
ReplyForward |