गणधरदेव श्री गौतमस्वामी मगध देश में एक ब्राह्मण नाम का नगर था। वहाँ एक शांडिल्य नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी भार्या का नाम स्थंडिला था, वह ब्राह्मणी बहुत ही सुन्दर और सर्व गुणों की खान थी। इस दम्पति के बड़े पुत्र के जन्म के समय ही ज्योतिषी ने कहा था कि यह गौतम समस्त विद्याओं का स्वामी होगा। उसी स्थंडिला ब्राह्मणी ने द्वितीय गार्ग्य पुत्र को जन्म दिया था, वह भी सर्वकला में पारंगत था, इन्हीं ब्राह्मण की दूसरी पत्नी केशरी के पुत्र का नाम भार्गव था। इस प्रकार ये तीनों भाई सर्व वेद-वेदांग के ज्ञाता थे। वह गौतम ब्राह्मण किसी ब्रह्मशाला में पांच सौ शिष्यों का उपाध्याय था। ‘‘मैं चौदह महाविद्याओं का पारगामी हूँ, मेरे सिवाय और कोई विद्वान् नहीं है।’’ ऐसे अहंकार में यह सदा चूर रहता था। इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नाम ही प्रसिद्ध हैं।
भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। ६६ दिन व्यतीत हो गए। तभी सौधर्म इन्द्र ने समवशरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ को इस योग्य जानकर वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहते हैं-
‘‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं अत: मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा-‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूँगा तो तुम क्या दोगे ?’’ तब वृद्ध ने कहा-यदि आप इसका अर्थ कर देंगे तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाइयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना। महाअभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिता: समयैश्च लेश्या:।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।
तब गौतम ने कुछ देर सोचकर कहा-‘‘चतरे ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’’ इन्द्र तो चाहता ही यह था। वह वृद्ध वेषधारी इन्द्र गौतम को समवशरण में ले आया।
वहां मानस्तम्भ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उसे सम्यक्त्व प्रगट हो गया। गौतम ने अनेक स्तुति करते हुए भगवान के चरणों में नमस्कार किया तथा अपने पांच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों के साथ भगवान के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अन्तर्मुहूर्त में ही इन गौतममुनि को अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया तथा वे महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हो गए। उत्तर पुराण में लिखा है-
‘‘तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की और मैंने पांच सौ ब्राह्मण पुत्रों के साथ श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार कर संयम धारण कर लिया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गईं। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह काल में समस्त अंगों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया, पुन: चार ज्ञान से सहित मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की तथा रात्रि के पिछले भाग में पूर्वों की रचना की, उसी समय मैं ग्रन्थकर्ता हुआ हूँ।१’’
‘‘जिस दिन भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त होगा, उसी दिन मैं केवलज्ञान प्राप्त करूँगा। तदनन्तर विपुलाचल पर्वत पर जाकर निर्वाण प्राप्त करूँगा।२’’
श्री गौतमस्वामी के द्वारा रचित दो महामूल्यवान रचनायें दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में आज भी उपलब्ध हैं और प्रसिद्ध हैं।
१. चैत्यभक्ति, २. प्रतिक्रमण पाठ।
चैत्यभक्ति-चैत्यभक्ति के बारे में ऐसी प्रसिद्धि है कि गौतम ब्राह्मण जब भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में पहुँचते हैं और मानस्तम्भ देखकर उनका मान गलित हो जाता है, तब भक्ति में गद्गद् होकर भगवान की स्तुति करते हुए उच्चारण करते हैं-‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि।
इस बात का स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य के शब्दों में देखिए-
‘‘श्रीवर्धमानस्वामिनं प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी जयतीत्यादि स्तुतिमाह’’-
श्री वर्धमानस्वामी का प्रत्यक्ष दर्शन करके श्री गौतमस्वामी ‘‘जयति’’ इत्यादि स्तुति करते हैं। यथा-
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता-वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिणौ, विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
वे भगवान जयवन्त होवें कि जिनके चरणों का आश्रय लेकर कलुष मन वाले, मान से ग्रसित ऐसे परस्पर में एक दूसरे के वैरी भी जन्तु क्रूर भाव को छोड़कर परस्पर विश्वास को प्राप्त हो गए हैं। भगवान के चरण युगल वैâसे हैं ? देवों द्वारा रचित सुवर्णमयी कमलों पर विहार करने से शोभा को प्राप्त हैं तथा इन्द्रों के मुकुटों की मणियों की निकलती हुई कांति की प्रभा से स्पर्शित हैं।
यह चैत्यभक्ति अनेक छन्दमय है, ३५ श्लोकों में बहुत ही मधुर, सरस और उत्तम है। अन्त में पांच श्लोक जो पृथ्वी छन्द में हैं उनका छन्द और वर्ण लालित्य अवर्णनीय है। उनमें भगवान की वीतराग छवि और अनेक शुभ लक्षणों का वर्णन है यथा-
अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवन्हेर्जयात्, कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकत:।
विषादमदहानित: प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम्।।३१।।
हे भगवन्! आपके नेत्रकमल लालिमा रहित हैं क्योंकि आपने सकल क्रोधरूपी अग्नि को जीत लिया है। आपके नेत्र कटाक्ष बाणों से भी रहित हैं क्योंकि आप में विकार का उद्रेक है ही नहीं। आप का मुख सदा मन्द-मन्द मुस्कान को लिए हुए है अर्थात् प्रसन्न मुद्रायुक्त है क्योंकि आप में विषाद और मद का अभाव हो चुका है इसलिए हे नाथ! आपका मुख ही मानो आपके हृदय की आत्यन्तिक शुद्धि-निर्मलता को कह रहा है।
इस प्रकार से बहुत ही गूढ़ और महान अर्थ को लिए हुए यह चैत्यभक्ति अपने आप में अनुपम निधि है।
उसी प्रकार से मुनि, आर्यिका आदि जिस प्रतिक्रमण को प्रतिदिन प्रात: और सायंकाल में करते हैं वह दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण तथा पन्द्रह दिन में होने वाला या चार महीना या वर्ष में होने वाला बड़ा प्रतिक्रमण तथा अष्टमी आदि में होने वाली आलोचना-ये तीनों प्रतिक्रमण श्री गौतम स्वामी द्वारा रचित हैं। यह रचनायें साक्षात् उनके मुखकमल से विनिर्गत हैं।
दैवसिक प्रतिक्रमण की टीका करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं-
‘‘श्रीगौतमस्वामी मुनीनां दुष्षमकाले दुष्परिणामादिभि: प्रतिदिनमुपार्जितस्य कर्मणो विशुद्यर्थं प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलार्थमिष्टदेवताविशेषं नमस्करोति’’- ‘श्रीमते वर्धमानाय नमो’ इत्यादि।
श्री गौतमस्वामी इस दुष्षमकाल में मुनियों के द्वारा दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन उपार्जित किए गए जो कर्म हैं, उनकी विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुए उसकी आदि में मंगल के लिए इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते हैं-
श्रीमान् वर्धमान भगवान् को नमस्कार हो-इत्यादि।
निषीधिका दण्डक-इस दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्तर्गत प्रतिक्रमण भक्ति में ‘‘निषीधिका दण्डक’’ आता है जो कि हमें बहुत ही प्रिय है। इसमें प्रथम पद जो ‘‘णमो णिसीहियाए’’ है, उसका अर्थ टीकाकार ने १७ प्रकार से किया है। यथा-
१. जिन और सिद्ध की कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमायें, २. उनके मन्दिर, ३. बुद्धि आदि ऋद्धि से सहित मुनिगण, ४. उनसे आश्रित क्षेत्र, ५. अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानी, ६. उनके ज्ञान उत्पत्ति के प्रदेश,
७. उनसे आश्रित क्षेत्र, ८. सिद्धजीव, ९. उनके निर्वाण क्षेत्र, १०. उनसे आश्रित आकाश प्रदेश,
११. सम्यक्त्व आदि चार गुणयुक्त तपस्वी, १२. उनसे आश्रित क्षेत्र, १३. उनके द्वारा छोड़े गए शरीर के आश्रित प्रदेश, १४. योग में स्थित तपस्वी, १५. उनसे आश्रित क्षेत्र, १६. उनके द्वारा छोड़े गए शरीर के आश्रित प्रदेश, १७. और तीन प्रकार के पण्डितमरण में स्थित मुनिगण।१
इस निषीधिका दण्डक में श्रीगौतमस्वामी ने अष्टापदपर्वत, सम्मेदशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी आदि की भी वंदना की है।
जब चार ज्ञानधारी सर्वऋद्धि समन्वित गौतम गणधर इन तीर्थक्षेत्रों की वंदना करते हैं, तब आज जो अध्यात्म की नकल करने वाला कोई यह कह दे कि ‘‘यदि साधु के तीर्थ वंदना का भाव हो जावे तो उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए।’’ यह कथन जैन सिद्धान्त से कितना विपरीत है, यह विद्वानों को स्वयं सोचना चाहिए।
गणधरवलय मन्त्र-इसी प्रकार बड़ा प्रतिक्रमण जो कि पाक्षिक, चातुमार्सिक और वार्षिकरूप से किया जाता है। उसकी टीका के प्रारम्भ में टीकाकार कहते हैं-
‘‘श्रीगौतमस्वामी दैवसिकादि प्रतिक्रमणादिभिर्निराकर्तुमशक्यानां दोषानां निराकरणार्थं वृहत्प्रतिक्रमणलक्षमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाट्यर्थमिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह णमोजिणाणमित्यादि।’’
ये ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं’’ आदि ४८ मन्त्र गणधरवलय मन्त्र कहे जाते हैं, वृहत्प्रतिक्रमणपाठ में प्रतिक्रमणभक्ति में इनका प्रयोग है।
इन मन्त्रों का मंगलाचरणरूप धवला की नवमी पुस्तक में है। वहाँ का प्रकरण देखिए-
णमो जिणाणं-जिनों को नमस्कार हो।
शंका-यह सूत्र किसलिए कहा जाता है ?
समाधान-यह मंगल के लिए कहा जाता है।
शंका-मंगल किसे कहते हैं ?
समाधन-पूर्व संचित कर्मों के विनाश को मंगल कहते हैं।
शंका-यदि ऐसा है तो ‘‘जिनसूत्रों का अर्थ भगवान के मुख से निकला हुआ है, जो विसंवाद रहित होने के कारण केवलज्ञान के समान है तथा वृषभसेन आदि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गई है, ऐसे द्रव्य सूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करनेरूप क्रिया में प्रवृत्त हुए सब जीवों के प्रतिसमय असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है।’’ इसी प्रकार विधान होने से यह जिन नमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पड़ता है१ अथवा यदि यह सूत्र सफल है तो सूत्रों का अध्ययन व्यर्थ होगा क्योंकि उससे होने वाला कर्मक्षय इस जिन नमस्कारात्मक सूत्र में ही पाया जाता है, इस प्रकार दोनों का विषय भिन्न है।
आगे दूसरे सूत्र की उत्थानिका में विशेष स्पष्टीकरण हो रहा है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिक नययुक्त शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं२।
णमो ओहिजिणाणं।।२।।
अवधिजिनों को नमस्कार हो।।२।।
यहाँ अभिप्राय यह है कि ‘‘महाकर्मप्रकृति प्राभृत’’ ग्रन्थ को रचते हुए भट्टारक श्री गौतमस्वामी मंगलाचरण में सर्वप्रथम ‘‘णमो जिणाणं’’ सूत्र का उच्चारण करते हैं। यद्यपि उतने एक सूत्र से मंगल हो गया है फिर भी पर्यायार्थिकजन के अनुग्रह के लिए आगे के अन्य सूत्रों की रचना करके मंगल वâरते हैं।
यहाँ यह बात विशेष समझने की है कि धवला के सूत्र साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् के मुख से विनिर्गत होने से बहुत ही प्रमाणिक हैं।
इस धवला ग्रन्थ में ये गणधरवलय मन्त्र ४४ हैं और वृहत्प्रतिक्रमण में ४८ हैं। इसमें ‘‘णमो सयंबुद्धाणं’’ ‘‘णमो पत्तेयबुद्धाणं’’ ‘‘णमो बोहियबुद्धाणं’’ तथा ‘‘णमो बड्ढमाणाणं’’। ये चारों मन्त्र अधिक हैं।
यहाँ ‘णमो जिणाणं’ में छठे गुणस्थान से लेकर अर्हन्त भगवान तक के सभी जिनों को लिया है अव्रतियों को नहीं लिया है, ऐसा समझना चाहिए। एक-एक मन्त्र के अर्थों की कितनी विशेषता है, सो हिन्दी पद्यानुवाद में किंचित् व्यक्त की गई है। विशेष इच्छुकों को इनके टीका ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए। एक मन्त्र के अर्थ को कहते हैं-
‘‘णमो दित्ततवाणं’’।।२३।।
दीप्ति का कारण होने से तप दीप्ति कहा जाता है। दीप्त है तप जिनका, वे दीप्ति तप हैं। चतुर्थ व षष्ठ आदि उपवासों के करने पर जिनका शरीर तेज तप जनित लब्धि के माहात्म्य से प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्र के समान बढ़ता जाता है, वे ऋषि दीप्ततप कहलाते हैं। उनकी केवल दीप्ति ही नहीं बढ़ती है अपितु बल भी बढ़ता है क्योंकि शरीर, बल, माँस और रुधिर की वृद्धि के बिना शरीर दीप्ति की वृद्धि नहीं हो सकती है इसलिए उनके आहार भी नहीं होता क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। यदि कहा जाए कि भूख के दु:ख को शांत करने के लिए वे भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं क्योंकि उनके भूख के दु:ख का अभाव है।१
धवला टीका से यह निश्चित है कि श्री गौतम स्वामी चार ज्ञान के धारक सर्व ऋद्धियों से समन्वित महान तपस्वी भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर थे। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद भी ६६ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी, फिर जब इन्द्र ने इस इन्द्रभूति गौतम को भगवान के समवशरण में प्रवेश कराया था तब उनके जैनेश्वरी दीक्षा लेने के बाद ही ६६ दिन के अनंतर भगवान की दिव्यध्वनि खिरी थी पुन: श्रीगौतमस्वामी ने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त के बाद मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया था उसी दिन सायंकाल में अंगपूर्व की रचना कर ली थी।
इन्हें धवला में भूतबलि आचार्य ने वैâसे लिया है, सो इसी धवला में स्पष्ट है। यथा-
‘‘यह निबद्ध मंगल तो नहीं हो सकता क्योंकि कृति आदिक चौबीस अनुयोगद्वाररूप अवयवों वाले महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में गौतम स्वामी ने इसकी प्ररूपणा की है और भूतबलि भट्टारक ने वेदना- खण्ड के आदि में मंगल के निमित्त इसे वहाँ से लाकर स्थापित किया है अत: इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध है।२’’
‘‘वर्धमान भगवान ने तीर्थ की उत्पत्ति की है।३’’ अठारह महाभाषा और सात सौ क्षुद्रभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदों के प्ररूपक अर्थकर्ता हैं तथा बीजपदों में लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं।४ ग्रंथकर्ता गौतम स्वामी की विशेषता धवला टीकाकार क्या बतला रहे हैं। देखिए-
पाँच महाव्रतों के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पांच समितियों से युक्त, आठ मदों से रहित, सात भयों से मुक्त, बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धियों से उपलक्षित, प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञान से असंख्यात लोकमात्र काल में अतीत, अनागत एवं वर्तमान परमाणु पर्यन्त समस्त मूर्त द्रव्य व उनकी पर्यायों को जानने वाले सप्त तपलब्धि के प्रभाव से मल-मूत्ररहित, दीप्ततपलब्धि के बल से सर्वकाल उपवासयुक्त होकर भी शरीर के तेज से दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वौषधि लब्धि के निमित्त से समस्त औषधियों स्वरूप, अनन्त बलयुक्त होने से हाथ की कनिष्ठा अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृतास्रव आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब आहारों को अमृत स्वरूप से परिणमाने में समर्थ, महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथों में गिरे हुए आहारों की अक्षयता के उत्पादक, अघोरतप ऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन एवं कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्याओं के द्वारा सेवित चरणमूल से संयुक्त, आकाशचारण गुण से सब जीवसमूहों की रक्षा करने वाले, वचन एवं मन से समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देवसमूहों को जीतने वाले, तीनों लोकों के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेश के बिना अक्षर व अनक्षररूप सब भाषाओं से हम सबको ही कहते हैं-‘‘इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले तथा समवसरणस्थ जनों के कर्ण इन्द्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओं के सम्मिश्रित प्रवेश के निवारक ऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं क्योंकि ऐसे स्वरूप के बिना ग्रन्थ की प्रमाणता का विरोध होने से धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनों का पोषण बन नहीं सकता। यहाँ उपर्युक्त गाथा है-
गणधरदेव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि ऋद्धियों तथा अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान से सहित होते हैं।।३८।।
संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे-
अब वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता को कहते हैं-
पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बन्ध और मोक्ष।।३९।।
‘‘उक्त पांच अस्तिकायादिक कथा हैं।’’ ऐसे सौ धर्मेन्द्र के प्रश्न से सन्देह को प्राप्त हुए, पाँच सौ-पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तम्भ के देखने से मान से रहित हुए, वृद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान कर्मों को नष्ट करने वाले, जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा करके पंच सृष्टियों से अर्थात् पांच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिनभगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहूर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूंकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग की आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है-
वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित् नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई१।।४०।।
आचार्य श्रीगुणधरदेव
श्रुतधर आचार्यों की परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर इतिहासकारों ने बड़े आदर से महान आचार्यश्री ‘‘गुणधर देव’’ का नाम लिया है। श्रीगुणधर और धरसेन ये दोनों आचार्य श्रुत के प्रतिष्ठापकरूप से प्रसिद्ध हुए हैं फिर भी गुणधरदेव, धरसेनाचार्य की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे और लगभग उनके दो सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं ऐसा विद्वानों का अभिमत है अतएव आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखितरूप से प्राप्त श्रुत का प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेनाचार्य ने किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की, जब कि गुणधराचार्य ने ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ ग्रन्थ की रचना की है।
आचार्य का समय-
ये गुणधराचार्य किनके शिष्य थे इत्यादि रूप से इनका परिचय यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है तो भी उनकी महान कृति से ही उनकी महानता जानी जाती है। यथा-
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वो: पूर्वापरक्रमोऽस्माभि:।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात्२।।५१।।
गुणधर और धरसेन की पूर्वापर गुरु परम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तांत न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनि ने ही बतलाया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रनंदि आचार्य के समय तक आचार्य गुणधर और धरसेन का गुरु शिष्य परम्परा का अस्तित्व स्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था फिर भी इतना स्पष्ट है कि श्री अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित संघों में ‘‘गुणधर संघ’’ का नाम आया है। नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्बलि का समय वीर नि.सं. ५५६ अथवा वि. सं. ९५ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणधर देव अर्हद्बलि के पूर्ववर्ती हैं पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मकरूप से नहीं कहा जा सकता। यदि गुणधर की परम्परा को ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समय मान लिया जाए तो षट्खंडागम के प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से ‘‘कसायपाहुड’’ के प्रणेता गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है१।
कषायपाहुड़ ग्रन्थ रचना-भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को सुनकर श्री गौतमस्वामी ने उसे द्वादशांगरूप से निबद्ध किया। यह द्वादशांग श्रुत अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु आचार्य तक पूर्णरूप से विद्यमान रहा पुन: धीरे-धीरे ह्रास होते हुए अंग और पूर्व के एकदेशरूप ही रह गया तब श्रुतरक्षा की भावना से पे्ररित हो कुछ आचार्यों ने उसे ग्रन्थरूप से निबद्ध किया।
श्रीगुणधराचार्य को पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व की दशवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुड का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त था जबकि षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों के प्रणेताओं को उक्त ग्रन्थों की उत्पत्ति के आधारभूत ‘‘महाकम्मपयडिपाहुड’’ का आंशिक ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस प्रकार से गुणधराचार्य ने ‘‘कसायपाहुड़’’ जिसका अपरनाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ भी है, उसकी रचना की है। १६००० पद प्रमाण कसायपाहुड़ के विषय को संक्षेप से एक सौ अस्सी गाथाओं में ही उपसंहृत कर दिया है।
पेज्ज नाम प्रेयस् या राग का है और दोस नाम द्वेष का है। यत: क्रोधादि चारों कषायों में माया, लोभ को रागरूप से और क्रोध, मान को द्वेषरूप से, ऐसे ही नव नोकषायों का विभाजन भी राग और द्वेषरूप में किया है अत: प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल नाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ है और उत्तर नाम ‘‘कसायपाहुड’’ है। कषायों की विभिन्न अवस्थाओं का एवं इनसे छूटने का विस्तृत विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया है अर्थात् किस कषाय के अभाव से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, किस कषाय के क्षयोपशम आदि से देशसंयम और सकलसंयम की प्राप्ति होती है, यह बतला करके कषायों की उपशमना और क्षपणा का विधान किया गया है। तात्पर्य यही है कि इस ग्रन्थ में कषायों की विविध जातियां बतला करके उनके दूर करने का मार्ग बतलाया गया है।
इस ग्रन्थ की रचना गाथासूत्रों में की गई है। आचार्य गुणधरदेव स्वयं कहते हैं-‘‘वाेच्छामि सुत्तगाहा जपिगाहा जम्मि अत्थम्मि२’’ जिस अर्थाधिकार में जितनी-जितनी सूत्र गाथायें प्रतिबद्ध हैं, उन्हें मैं कहूँगा। इस ग्रन्थ में कुल २३३ गाथायें हैं, जिन्हें ‘‘कसायपाहुड’’ सुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल जी ने श्रीगुणधराचार्य रचित ही माना है अर्थात् ५३ गाथाओं में विवाद होकर भी गुणधराचार्य रचित ही निर्णय मान्य होता है।
‘‘इस प्रकार के उपसंहृत एवं गाथासूत्र निबद्ध द्वादशांग जैन वाङ्मय के भीतर अनुसंधान करने पर यह ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड ही सर्वप्रथम निबद्ध हुआ है। इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है३।’’ अत: श्री गुणधराचार्य दिगम्बराचार्य की परम्परा में प्रथम सूत्रकार माने जाते हैं।
ग्रन्थ की महत्ता-आचार्य इन्द्रनंदि ने अपने श्रुतावतार में कहा है कि ‘‘कसायपाहुड’’ ग्रन्थ पर आचार्य यतिवृषभ ने ६,००० श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे हैं।
उच्चारणाचार्य ने १२,००० श्लोक प्रमाण में उच्चारणावृत्ति रची है। शामकुन्डाचार्य ने ४८,००० श्लोक प्रमाण में ‘पद्धति’ नाम से व्याख्या रची है। तुम्बलूराचार्य ने ८४,००० श्लोक प्रमाण में चूड़ामणि टीका रची है और आचार्यश्री वीरसेन तथा जिनसेन ने ६०,००० श्लोक प्रमाण में ‘‘जयधवला’’ नाम से टीका लिखी है। उपलब्ध जैन वाङ्मय में से कसायपाहुड पर ही सबसे अधिक व्याख्यायें और टीकायें रची गई हैं। यदि उक्त समस्त टीकाओं के परिमाण को सामने रखकर मात्र २३३ गाथाओं वाले कसायपाहुड को देखा जाए तो वह दो लाख प्रमाण से भी ऊपर सिद्ध होता है। वर्तमान में मूल गाथाएँ यतिवृषभाचार्यकृत चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका ही उपलब्ध है, बाकी टीकाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
चूर्णिसूत्रकार ने और जयधवलाकार ने तो इनकी गाथाओं को बीजपदरूप और अनंतार्थगर्भी कहा है। ‘‘कसायपाहुड की किसी-किसी गाथा के एक-एक पद को लेकर एक-एक अधिकार का रचा जाना तथा तीन गाथाओं का पांच अधिकारों में निबद्ध होना ही गाथाओं की गम्भीरता और अनंत अर्थगर्भिता को सूचित करता है। वेदक अधिकार की जो जंसंकामेदिय’’ (गाथांक ६२) गाथा के द्वारा चारों प्रकार के बंध, चारों प्रकार के संक्रमण, चारों प्रकार के उदय, चारों प्रकार की उदीरणा और चारों प्रकार के सत्व सम्बन्धी अल्पबहुत्व की सूचना निश्चयत: उसके गांभीर्य और अनन्तार्थगर्भित्व की साक्षी है। यदि इन गाथा सूत्रों में अंतर्निहित अनंत अर्थ को चूर्णिकार व्यक्त न करते, तो आज उनका अर्थबोध होना असम्भव था।
इस ग्रंथ का भगवान महावीर स्वामी से सीधा सम्बन्ध है। देखिए-स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथ के गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में देखिए। एक स्थल पर शिष्य के द्वारा यह शंका किए जाने पर कि ‘‘यह वैâसे जाना ?’’ इसके उत्तर में वीरसेनाचार्य कहते हैं-
‘‘एदम्हादो विउलगिरिमत्थ यत्थवड्ढमाणादिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज्जजंबुसामियादि आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखुणागहत्थी हितो जसिवसहमुहणयिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणमिद दिव्वज्झुणिकिरणादो णव्वदे१।’’
अर्थात् ‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रकट होकर गौतम, लोहार्य
(सुधर्मा स्वामी२) और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथास्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुख- कमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।’’
‘‘पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि जो दिव्यध्वनि भगवान महावीर से प्रगट हुई है वही गौतमादि के द्वारा प्रसारित होती हुई गुणधराचार्य को प्राप्त हुई और फिर उनके द्वारा गाथारूप से परिणत होकर आचार्य परम्परा द्वारा आर्यमंक्षु और नागहस्ति को प्राप्त होकर उनके द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त हुई और फिर वही दिव्यध्वनि चूर्णिसूत्रों में निर्दिष्ट प्रत्येक बात दिव्यध्वनिरूप ही है। इसमें किसी प्रकार के संदेह या शंका की कुछ भी गुंजाइश नहीं है। अस्तु! कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों में जिस ढंग से वस्तुतत्त्व का निरूपण किया गया है, उसी से वह सर्वज्ञ कथित है’’ यह सिद्ध होता है३।
इस उपर्युक्त प्रकरण से आचार्य परम्परा और श्रुत परम्परा का अविच्छेद भी जाना जाता है।
जयधवलाकार तो इस कषायपाहुड के ऊपर रचे गए चूर्णिसूत्रों को षट्खण्डागम सूत्रों के सदृश सूत्र- रूप और प्रमाण मानते हैं। देखिए-किसी स्थल पर चूर्णिकार यतिवृषभ और षट्खंडागम के कर्ता भूतबलि के मत में कुछ अन्तर होने पर श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं कि ‘‘एदेसिं दोण्हमुवदेसाणं मज्झे सच्चेणेक्केणेव होदव्वं। तत्थ सच्चत्तणेगदरणिण्णओ णत्थि त्ति दोण्हं पि संगहो कायव्वो१।’’ इन दोनों उपदेशों में से सत्य तो एक ही होना चाहिए किन्तु किसी एक की सत्यता का निर्णय आज केवली या श्रुतकेवली के न होने से सम्भव नहीं है अतएव दोनों का ही संग्रह करना चाहिए।
श्री वीरसेनाचार्य ने भगवान की दिव्यध्वनि को सूत्र कहा है पुन: श्रीगणधरदेव और गणधरदेव के वचनों को भी सूत्र सम कहकर प्रमाणता दी है तथा सूत्र के लक्षण के बाद प्रश्न होता है कि-
‘‘इस वचन से ये गाथाएँ सूत्र नहीं हैं क्योंकि गणधर, प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी के वचन सूत्र माने गए हैं किन्तु भट्टारक गणधरादि नहीं हैं तो आचार्य कहते हैं कि नहीं, गुणधर भट्टारक की गाथाएँ निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होने से सूत्र के समान हैं अत: इन्हें सूत्र ही माना गया है।’’ ऐसे ही कई स्थलों पर जयधवला में उल्लेख है२।
इन सभी बातों से आचार्य गुणधर देव कितने महान थे और उनका यह कसायपाहुड ग्रन्थ कितना महान है, इसका बोध सहज ही हो जाता है।
महत्त्वपूर्ण गाथा-
उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति का पूरा वर्णन करके सम्यक्त्व के लक्षण को बतलाते हुए श्रीगुणधरदेव कहते हैं-
सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा।।१०७।।
अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है।
यह गाथा किसी ग्रंथ में इसी रूप में अथवा कहीं पर किंचित् परिवर्तित रूप में कई ग्रन्थों में आती है। लब्धिसार में गाथा का पूर्वार्ध बदला हुआ है और उत्तरार्ध यही है। वहां पर ‘‘अजाणमाणो गुरुणिओगा’’ का अर्थ टीकाकर ने ऐसा किया है कि गुरु यदि विस्मरण से, दुष्ट अभिप्राय से अथवा ज्ञान से कुछ गलत अर्थ भी कह रहे हैं और शिष्य गुरु के वचन पर श्रद्धान कर रहा है तो वह सम्यग्दृष्टि ही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है। पुन: आगे गाथा में कहते हैं कि यदि किसी अन्य आचार्य ने सूत्र से सही अर्थ को दिखा दिया है और फिर वह पूर्व के हठ को नहीं छोड़ता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है३।
इस उपर्युक्त गाथा से गुरु के वचन का महत्त्व दिख रहा है तथा पुनरपि अन्य गुरु के द्वारा आगम पंक्ति दिखाए जाने पर भी यदि कोई दुराग्रह को नहीं छोड़ता है तो वास्तव में अपने सम्यक्त्वरत्न को छोड़ देता है अत: आचार्यों के वचनों पर हमें दृढ़ श्रद्धान होना चाहिए क्योंकि आज हमारे सामने केवली या श्रुतकेवली नहीं हैं। वर्तमान के उपलब्ध प्रामाणिक ग्रन्थ ही उनकी वाणीरूप होने से श्रद्धान करने योग्य हैं और सर्वथा मान्य हैं तथा पूर्व में आचार्य ग्रन्थों को गुरुमुख से ही पढ़ते थे पुन: उस पर टीका या भाष्य आदि लिखते थे, यह भी स्पष्ट दिख रहा है।
गुणधर देव के इस इतिहास से हमें यह समझना है कि ये आचार्य विक्रम पूर्व की प्रथम शताब्दी में हुए हैं अत: ये षट्खण्डागम के उपदेष्टा श्री धरसेनाचार्य व कुन्दकुन्दाचार्य आदि से प्रथम हुए हैं। इनका ग्रन्थ ‘‘कसायपाहुड’’ महान सूत्र ग्रन्थ है जो कि चूर्णिसूत्र व हिन्दी सहित ‘‘वीर सेवा मन्दिर’’ से छप चुका है और जयधवला टीका भी (मथुरा संघ से) कई भागों में छप चुकी है। जयधवला टीका के अध्ययन से इस ग्रन्थ के रहस्य को कुछ समझ सकते हैं एवं उपर्युक्त गाथा नं. १०७ को यदि पाठकगण हृदय में अंकित कर लेंगे तथा उसके अनुरूप आचार्यों की वाणी पर पूर्ण श्रद्धान करेंगे तो अवश्य ही इस सम्यग्दर्शन के बल पर संसार समुद्र को पार कर लेंगे।
आचार्य श्री धरसेन
भगवान महावीर स्वामी ने भावश्रुत का उपदेश दिया अत: वे अर्थकर्ता हैं। उसी काल में चार ज्ञान से युक्त गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने बारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों की एक ही मुहूर्त्त में क्रम से रचना की है। उन गौतमस्वामी ने भी दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम से ये तीनों ही सकलश्रुत के धारण करने वाले कहे गए हैं और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाए तो उस समय संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए। गौतमस्वामी, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य, परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए। तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धान्त, स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल और गंगदेव ये ग्यारह ही महापुरुष परिपाटी क्रम से ग्यारह अंग, दशपूर्व के धारक और शेष चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए।
इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, धु्रवसेन, कंसाचार्य ये पांचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारक हुए।
तदनंतर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य, ये चारों ही आचार्य संपूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग तथा पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वों का एक देश ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ१।
सौराष्ट (गुजरात-काठियावाड़) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल और आगे अंग श्रुत का विच्छेद हो जाएगा, इस प्रकार उत्पन्न हो गया है भय जिनको, ऐसे उन धरसेनाचार्य से महामहिमा (पंचवर्षीय साधु सम्मेलन) में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के (दक्षिण देश के निवासी) आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख में लिखे गए धरसेनाचार्य के वचनों को अच्छी तरह समझकर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नाना प्रकार की उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित अंग वाले, शीलरूपी माला के धारक, गुरुओं द्वारा प्रेषण (भेजने) रूपी भोजन से तृप्त हुए , देश, कुल और जाति से शुद्ध अर्थात् उत्तम कुल और उत्तम जाति में उत्पन्न हुए, समस्त कलाओं में पारंगत और तीन बार पूछा है आचार्यों को जिन्होंने, ऐसे दो साधुओं को आन्ध्र देश में बहने वाली वेणानदी के तट से भेजा।
मार्ग में उन दोनों के आते समय श्री धरसेन भट्टारक ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न देखा कि समस्त लक्षणों से परिपूर्ण, सफेद वर्ण वाले दो उन्नत बैल उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में पड़ गए हैं। इस प्रकार के स्वप्न को देखकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने ‘‘जयउ सुयदेवदा-श्रुतदेवता जयवन्त हों’’ ऐसा वाक्य उच्चारण किया।
उसी दिन दक्षिणापथ से भेजे हुए वे दोनों साधु धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। उसके बाद धरसेनाचार्य की पादवन्दना आदि कृतिकर्म करके और दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि ‘‘इस कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं।’’ उन दोनों मुनियों के इस प्रकार निवेदन करने पर ‘‘अच्छा है, कल्याण हो’’ इस प्रकार कहकर धरसेन भट्टारक ने उन दोनों साधुओं को आश्वासन दिया। इसके बाद भगवान धरसेन ने विचार किया कि-
‘‘शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेंढा, जोंक, तोता, मिट्टी और मशक के समान श्रोताओं को जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है, वह मूढ़ दृढ़रूप से ऋद्धि आदि तीनों प्रकार के गौरवों के आधीन होकर विषयों की लोलुपतारूपी विष के वश से मूर्च्छित हो, बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहता है।’’
इस वचन के अनुसार स्वच्छन्दतापूर्वक आचरण करने वाले श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय को ही बढ़ाने वाला है, ऐसा विचार कर शुभ स्वप्न के देखने मात्र से ही यद्यपि उन दोनों साधुओं की विशेषता को जान लिया था तो भी फिर से उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया क्योंकि उत्तम प्रकार से ली गई परीक्षा हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है। अनंतर धरसेनाचार्य ने उन दोनों को दो विद्याएँ दीं। उनमें से एक अधिक अक्षर वाली थी और दूसरी हीन अक्षर वाली थी। उनको विद्याएँ देकर यह कहा कि दो दिन का उपवास करके इन विद्याओं को सिद्ध करो। (इन्द्रनंदि आचार्य ने बताया है कि उन दोनों ने गुरु की आज्ञा से नेमिनाथ की निर्वाण स्थली पर जाकर विद्याओं को सिद्ध किया)। जब उनकी विद्याएँ सिद्ध हो गईं तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देविकाओं को देखा कि ‘‘एक देवी के दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है।’’ ‘विकृतांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं है।’ इस प्रकार विचार कर मंत्र सम्बन्धी-व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षर वाली विद्या में से अक्षर निकालकर उस मन्त्र को फिर सिद्ध किया। जिससे वे दोनों विद्या देविकाएँ अपने स्वभाव से सुन्दररूप में दिखलाई पड़ीं (उन्होंने-‘आज्ञा देवो’ ऐसा कहा, तब इन मुनियों ने कहा कि मैंने तो गुरु की आज्ञा मात्र से ही मंत्र का अनुष्ठान किया है, मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है तब वे देविकाएँ अपने स्थान को चली गईं ऐसा श्रुतावतार में वर्णन है)।
तदनन्तर भगवान धरसेन के समक्ष योग्य विनय सहित उन दोनों ने विद्या सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। ‘‘बहुत अच्छा’’ ऐसा कहकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ को पढ़ाना प्रारम्भ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान से उन दोनों ने आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन पूर्वान्ह काल में विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया। इसलिए सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक की पुष्प, बलि तथा शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेष के नाद से व्याप्त बड़ी भारी पूजा की। उसे देखकर धरसेन भट्टारक ने उनका ‘‘भूतबलि’’ यह नाम रखा तथा जिनकी भूतों ने पूजा की है और अस्त-व्यस्त दन्तपंक्ति को दूर करके जिनके दांत समान कर दिए हैं, ऐसे दूसरे का भी श्री धरसेन भट्टारक ने ‘‘पुष्पदन्त’’ नाम रखा।
तदनन्तर उसी दिन वहां से भेजे गए उन दोनों ने ‘‘गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है’’ ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षाकाल बिताया। (गुरु ने अपनी अल्प आयु जानकर उन दोनों को वहाँ से विहार कर अन्यत्र चातुर्मास करने की आज्ञा दी और वे दोनों मुनि आषाढ़ सुदी ११ को निकलकर श्रावण वदी ४ को अंकलेश्वर आये, वहाँ पर वर्षायोग स्थापित किया)।
वर्षायोग को समाप्त कर और जिनपािलत को साथ लेकर पुष्पदन्ताचार्य तो वनवासी देश को चले गए और भूतबलि भट्टारक तमिल देश को चले गए। तदनन्तर पुष्पदन्ताचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित मुनि को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा। भूतबलि ने जिनपालित के द्वारा दिखाए गए सूत्रों को देखकर और पुष्पदंताचार्य अल्पायु हैं, ऐसा समझकर तथा हम दोनों के बाद महाकर्मप्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जाएगा; इस प्रकार की बुद्धि के उत्पन्न होने से भगवान भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रन्थ रचना की इसलिए इस खण्ड सिद्धान्त (षट्खण्ड सिद्धान्त) की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदन्त आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं। अनुग्रन्थकर्ता गौतम स्वामी हैं और उपग्रन्थकर्ता राग, द्वेष और मोह से रहित भूतबलि, पुष्पदन्त आदि अनेक आचार्य हैं१।’’
धरसेनाचार्य का समय-नंदि संघ की प्राकृत पट्टावली में ६८३ वर्ष के अन्दर ही धरसेन को माना है। यथा-केवली का काल बासठ वर्ष, श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष, दश पूर्वधारियों का १८३ वर्ष, ग्यारह अंगधारियों का १२३ वर्ष, दस, नव व आठ अंगधारी का ९७ वर्ष ऐसे ६२±१००±१८३±१२३±९७·५६५ वर्ष हुए पुन: एक अंगधारियों में अर्हतबलि का २८ वर्ष, माघनंदि का २१ वर्ष, धरसेन का १९ वर्ष, पुष्पदन्त का ३० वर्ष और भूतबलि का २० वर्ष, ऐसे ११८ वर्ष हुए। कुल मिलाकर ५६५±११८·६८३ वर्ष के अन्तर्गत ही धरसेनाचार्य हुए हैं।
इस प्रकार इस पट्टावली और इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के आधार पर भी श्री धरसेन का समय वीर निर्वाण संवत् ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है।
धरसेन के गुरु-उपर्युक्त पट्टावली के अनुसार इनके गुरु श्री माघनन्दि आचार्य थे अथवा इन्द्रनन्दि आचार्य ने स्पष्ट कह दिया है कि इनकी गुरु परम्परा का हमें ज्ञान नहीं है।
धरसेनाचार्य की रचना-चूँकि श्री धरसेनाचार्य ने अपने पास में पढ़ने के लिए आये हुए दोनों मुनियों को मन्त्र सिद्ध करने का आदेश दिया था अत: ये मन्त्रों के विशेष ज्ञाता थे। इनका बनाया हुआ योनिप्राभृत नाम का एक ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। यह ग्रन्थ ८०० श्लोकों प्रमाण प्राकृत गाथाओं में है। उसका विषय मन्त्र-तन्त्रवाद है, वृहत् टिप्पणिका नामक इन्स्टीट्यूट पूना में है। इस प्रति में ग्रन्थ का नाम तो योनिप्राभृत ही है किन्तु उसके कर्ता का नाम पण्हसवण मुनि पाया जाता है। इस महामुनि ने उसे कूष्माण्डिनी महादेवी से प्राप्त किया था और अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा। इन दो नामों के कथन से इस ग्रन्थ का धरसेन कृत होना बहुत सम्भव जंचता है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि का नाम है उसके धारण करने वाले प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे। पूना में उपलब्ध ‘‘जोणिपाहुड’’ की इस प्रति का लेखन काल सं. १५८२ है अर्थात् वह प्रति चार सौ वर्ष से अधिक प्राचीन है। जोणिपाहुड ग्रन्थ का उ¼ेख धवला में भी आया है, जो इस प्रकार है-
जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंत-सत्तीओ पोग्गलाणु भागोत्ति घेत्तव्वौ।१ धवला अ. प्रति-पत्र।।१८।।
इस प्रकार से धरसेनाचार्य के महान उपकार स्वरूप ही आज हमें षट्खण्डागम ग्रन्थ का स्वाध्याय करने को मिल रहा है। इनके बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत पूर्वों के तथा पांचवे सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षट्खण्डागम और कषायपाहुड ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सीधा सम्बन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। कहा भी है-
‘‘जयउ धरसेणणाहो जेण, महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ, समप्पिओ पुप्फयन्तस्य२।।’’ (धवला अ. ४७५)
वे धरसेनस्वामी जयवन्त होवें जिन्होंने इस महाकर्मप्रकृति प्राभृतरूपी पर्वत को बुद्धिरूपी मस्तक से उठाकर श्री पुष्पदंत आचार्य को समर्पित किया है अर्थात् जिन्होंने पुष्पदन्त मुनि को पढ़ाया है, पुन: इन्होंने ग्रन्थ की रचना की है।
(इस प्रकार से इन धरसेनाचार्य के इतिहास से हमें यह समझना है कि ये आचार्य अंग और पूर्वों के एकदेश के ज्ञाता थे, मंत्रशास्त्र के ज्ञाता थे एवं एक योनिप्राभृत ग्रन्थ भी रचा था। इन्होंने बहुत काल तक चन्द्रगुफा में निवास किया था। योग्य मुनियों को अपना श्रुतज्ञान पढ़ाया था। शिष्यों को मंत्र सिद्ध करने को भी दिया था। इस प्रकार से जो मंत्र देने का विरोध करते हैं उन्हें अवश्य सोचना चाहिए कि आज के मुनि या आचार्य किसी को मिथ्यात्व के प्रपंच से हटाकर शांति हेतु या किसी कार्य सिद्धि हेतु यदि कुछ मंत्र दे देते हैं, तो देने वाले या मंत्र जपने वाले दोनों ही मिथ्यादृष्टि नहीं हैं तथा उन्होंने श्रुत के विच्छेद के भय से जो दो मुनियों को अपना श्रुतज्ञान देकर उनके निमित्त से आज श्रुतज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रखी है उनका यह महान उपकार प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए। जिस दिन षट्खण्डागम की रचना पूरी हुई उस दिन चतुर्विध संघ ने मिलकर श्रुत की महापूजा की थी, उस दिन ज्येष्ठ सुदी पंचमी थी अत: उस पंचमी को आज श्रुतपंचमी कहकर सर्वत्र श्रुतपूजा करने की प्रथा चली आ रही है। उसे भी विशेष पर्वरूप में मनाकर श्रुत की, गुरु धरसेनाचार्य, पुष्पदंत तथा भूतबलि आचार्य की पूजा करनी चाहिए।)
आचार्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि
पुष्पदन्त और भूतबलि का नाम साथ-साथ प्राप्त होता है फिर भी नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में पुष्पदंत को भूतबलि से ज्येष्ठ माना गया है। धरसेनाचार्य के बाद पुष्पदंत का आचार्य काल ३० वर्ष का बताया है और इनके बाद भूतबलि का २० वर्ष कहा गया है अत: इनका समय धरसेनाचार्य के समय के लगभग ही स्पष्ट है।
यह तो निश्चित ही है कि श्री धरसेनाचार्य ने दो मुनियों को अन्यत्र मुनिसंघ से बुलाकर विद्याध्ययन कराया था। अनंतर शास्त्र समाप्ति के दिन उनकी विनय से सन्तुष्ट हुए भूतजाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक मुनि की पुष्प, बलि तथा शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेषों के नाद से बड़ी भारी पूजा की। उसे देखकर धरसेनाचार्य ने उनका ‘‘भूतबलि’’ यह नाम रखा और दूसरे मुनि की अस्त-व्यस्त दंतपंक्तियों को ठीक करके उनके दांत समान कर दिए, जिससे गुरु ने उनका ‘‘पुष्पदंत’’ नाम रखा। इस धवला टीका के कथन से यह बात स्पष्ट है कि इनका पूर्व नाम कुछ और ही होना चाहिए तथा इनका गृहस्थाश्रम का परिचय क्या है यह जिज्ञासा सहज ही होती है।
विबुध श्रीधर के श्रुतावतार में भविष्यवाणी के रूप में पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य के जीवन पर अच्छा प्रकाश देखने में आता है। यथा-
भरतक्षेत्र के वामिदेश-ब्रह्मादेश में वसुन्धरा नाम की नगरी होगी। वहां के राजा नरवाहन और रानी सुरूपा पुत्र न होने से खेदखिन्न होंगे। उस समय सुबुद्धि नाम का सेठ उन्हें पद्मावती की पूजा का उपदेश देगा। तदनुसार देवी व्ाâी पूजा करने पर राजा को पुत्र लाभ होगा और उस पुत्र का नाम पद्म रखा जाएगा। तदनन्तर राजा सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराएगा। इसी समय बसन्त ऋतु में समस्त संघ यहाँ एकत्र होगा और राजा सेठ के साथ जिनपूजा करके रथ चलाएगा। इसी समय राजा अपने मित्र मगध सम्राट को मुनीन्द्र हुआ देख सुबुद्धि सेठ के साथ विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण करेगा। इसी समय एक लेखवाहक वहां आएगा वह जिनदेव को नमस्कार कर मुनियों की तथा परोक्ष में धरसेन गुरुदेव की वन्दना कर लेख समर्पित करेगा। वे मुनि उसे बाचेंगे कि ‘‘गिरिनगर के समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर अग्रायणीय पूर्व की पंचमवस्तु के चौथे प्राभृतशास्त्र का व्याख्यान आरम्भ करने वाले हैं अत: योग्य दो मुनियों को भेज दो। वे मुनि नरवाहन और सुबुद्धि मुनि को भेज देंगे। धरसेन भट्टारक कुछ दिनों में नरवाहन और सुबुद्धि नाम के मुनियों को पठन, श्रवण और चिंतन कराकर आषाढ़ शुक्ला एकादशी को शास्त्र समाप्त करेंगे। उनमें से एक की भूतजाति के देव बलिविधि करेंगे और दूसरे के चार दाँतों को सुन्दर बना देंगे अतएव भूतबलि के प्रभाव से नरवाहन मुनि का नाम भूतबलि और चार दाँत समान हो जाने से सुबुद्धि मुनि का नाम पुष्पदंत होगा१।’’
इन्द्रनंदिकृत श्रुतावतार में यह लिखा है कि इन्होंने ग्रन्थ समाप्त कर गुरु की आज्ञा से वहाँ से विहार कर अंकलेश्वर में वर्षायोग बिताया। वहाँ से निकलकर दक्षिण देश में पहुंचे। वहाँ पर पुष्पदंत मुनि ने करहाटक देश में अपने भानजे जिनपालित को साथ लिया और दैगम्बरी दीक्षा देकर उन्हें साथ लेकर वनवास देश को चले गए तथा भूतबलि मुनि द्रविड़ देश में चले गए। वनवास देश में पुष्पदंताचार्य ने ‘‘बीसदि’’ सूत्रों की रचना की और जिनपालित को पढ़ाकर तथा उन सूत्रों को उसे देकर भूतबलि मुनि का अभिप्राय जानने के लिए उनके पास भेजा। उन्होंने पुष्पदंताचार्य की अल्पायु जानकर और उन सूत्रों को देखकर बहुत ही सन्तोष प्राप्त किया। पुन: आगे श्रुत का विच्छेद न हो जाए, इस भावना से द्रव्य प्रमाणानुगम को आदि लेकर आगे के सूत्रों की रचना की।
इस प्रकार से भूतबलि आचार्य ने पुष्पदंताचार्य विरचित सूत्रों को मिलाकर पाँच खण्डों के छह हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्ड की तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की। इस तरह षट्खण्डागम की रचना कर उसे ग्रन्थरूप में निबद्ध किया, पुन: ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उस श्रुत की महान पूजा की। अनंतर भूतबलि ने जिनपालित को षट्खण्डागम सूत्र देकर पुष्पदंत के पास भेजा। अपना सोचा हुआ कार्य पूर्ण हुआ, ऐसा देखकर पुष्पदंताचार्य ने भी श्रुतभक्ति के अनुराग से पुलकित होकर श्रुतपंचमी के दिन चतुर्विध संघ के समक्ष उनकी महान पूजा की।
यह षट्खण्डागम ग्रन्थ महाकर्मप्रकृति प्राभृत का अंश है तथा इसमें उसके अर्थ के साथ-साथ सूत्र भी समाविष्ट हैं। भूतबलि आचार्य ने चतुर्थ वेदनाखंड में जो ‘‘णमो जिणाणं’’ आदि ४४ मंगलसूत्र दिए हैं, वे गौतमस्वामी के मुखकमल से निकले हुए हैं। इससे श्री पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य इस महान ग्रन्थ के कर्ता नहीं हैं बल्कि प्ररूपक हैं अत: षट्खंडागम का द्वादशांगवाणी के साथ साक्षात् संबंध है।
षट्खंडागम का रहस्य-यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है, अत: इसे षट्खण्डागम कहते हैं। उनके नाम-जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा और महाबंध।
श्री धरसेनाचार्य, पुष्पदंत और भूतबलि के विषय में धवला में अनेक विशेषताएँ उपलब्ध हैं। यथा-
जयउ धरसेणणाहो, जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयन्तस्स१।।
वे धरसेनस्वामी जयवन्त होवें जिन्होंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूपी पर्वत को अपने बुद्धिरूपी मस्तक से उठाकर पुष्पदंत को समर्पित किया है।
पणमामि पुप्फयंतं, दुण्णयंधयाररविं।
भग्गसिवमग्गकंटय मिसिसमिइवइं सया दंतं२।।
जो पापों का अन्त करने वाले हैं, कुनयरूपी अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्यतुल्य हैं, जिन्होंने मोक्षमार्ग के विघ्नों को नष्ट कर दिया है, जो ऋषियों की सभा के अधिपति हैं और निरंतर पंचेन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, ऐसे पुष्पदंताचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ।
यहाँ पर ‘‘ऋषिसमितिपति’’ विशेषण से ये महान संघ के नेता आचार्य सिद्ध होते हैं। ऐसे ही-
‘‘ण चासंबद्धं भूदबलिभडारओ परूवेदि, महाकम्मपयडिपाहुड-अमियवाणेण ओसारिदासेसरागदो-समोहत्तादो३।’’
भूतबलि भट्टारक असंबद्ध कथन नहीं कर सकते क्योंकि महाकर्मप्रकृति प्राभृतरूपी अमृतपान से उनका समस्त राग-द्वेष, मोह दूर हो गया है।
इन प्रकरणों से इन पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों की महानता का परिचय मिल जाता है। ये आचार्य हम और आप जैसे साधारण लेखक या वक्ता न होकर भगवान महावीर की द्वादशांग वाणी के अंशों के आस्वादी और उस वाणी के ही प्ररूपक थे तथा राग, द्वेष और मोह से बहुत दूर थे। उनके संज्वलन कषाय का उदय होते हुए भी वे असत्यभाषण से सर्वथा परे होने से वीतरागी थे, महान पापभीरू थे।
बड़े सौभाग्य की बात है कि उनके द्वारा शास्त्ररूप से निबद्ध हुआ परमागम आज हमें उपलब्ध हो रहा है और हम लोग उनकी वाणी का स्वाध्याय करके अपने असंख्यातगुणित कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं तथा महान पुण्य संचय के साथ-साथ ही सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अपने आप में कृतकृत्यता का अनुभव कर रहे हैं।
आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव
दिगम्बर जैन आम्नाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम श्री गणधरदेव के पश्चात् लिया जाता है अर्थात् गणधरदेव के समान ही इनका आदर किया जाता है और इन्हें अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है। यथा-
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगल कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।
यह मंगल श्लोक शास्त्र स्वाध्याय के प्रारम्भ में तथा दीपावली के बही पूजन व विवाह आदि के मंगल प्रसंग पर भी लिखा जाता है। ऐसे आचार्य के विषय में जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश के लेखक लिखते हैं-
‘‘आप अत्यन्त वीतरागी तथा अध्यात्मवृत्ति के साधु थे।’’ आप अध्यात्म विषय में इतने गहरे उतर चुके थे कि आपके एक-एक शब्द की गहनता को स्पर्श करना आज के तुच्छ बुद्धि व्यक्तियों की शक्ति के बाहर है। आपके अनेक नाम प्रसिद्ध हैं तथा आपके जीवन में कुछ ऋद्धियों व चमत्कारिक घटनाओं का भी उ¼ेख मिलता है। अध्यात्म प्रधानी होने पर भी आप सर्व विषयों के पारगामी थे और इसीलिए आपने सर्व विषय पर ग्रन्थ रचे हैं। आज के कुछ विद्वान इनके सम्बन्ध में कल्पना करते हैं कि इन्हें करणानुयोग व गणित आदि विषयों का ज्ञान था, पर ऐसा मानना उनका भ्रम है क्योंकि करणानुयोग के मूलभूत व सर्वप्रथम ग्रन्थ षट्खण्डागम पर आपने एक परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, यह बात सिद्ध हो चुकी है। यह टीका आज उपलब्ध नहीं है।
इनके आध्यात्मिक ग्रन्थों को पढ़कर अज्ञानीजन उनके अभिप्राय की गहनता को स्पर्श न करने के कारण अपने को एकदम शुद्ध-बुद्ध व जीवन्मुक्त मानकर स्वच्छन्दाचारी बन जाते हैं परन्तु ये स्वयं महान चारित्रवान थे। भले ही अज्ञानी जगत उन्हें न देख सके पर उन्होंने अपने शास्त्रों में सर्वत्र व्यवहार व निश्चयनयों के साथ-साथ कथन किया है। जहाँ वे व्यवहार को हेय बताते हैं वहीं उसकी कथंचित् उपादेयता बताए बिना नहीं रहते। क्या ही अच्छा हो कि अज्ञानीजन उनके शास्त्रों को पढ़कर संकुचित एकांतदृष्टि अपनाने की बजाय व्यापक अनेकांत दृष्टि अपनाएँ१।
यहाँ पर उनके नाम, उनका श्वेताम्बरों के साथ वाद, विदेहगमन, ऋद्धि प्राप्ति, उनकी रचनायें, उनके गुरु, उनका जन्मस्थान और इनका समय-इन आठ विषयों का किंचित् दिग्दर्शन कराया जाता है।
१. नाम-मूलनंदि संघ की पट्टावली में पाँच नामों का उल्लेख है-
आचार्य: कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामति:।
एलाचार्यो गृद्धपिच्छ: पद्मनंदीति तन्नुति:।।
कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ और पद्मनंदि। मोक्षपाहुड़ की टीका की समाप्ति में भी ये पाँच नाम दिए गए हैं तथा देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य आदि ने भी इन्हें पद्मनंदी नाम से कहा है। इनके नामों की सार्थकता के विषय में पं. जिनदास फड़कुले ने मूलाचार की प्रस्तावना में कहा है-इनका कुन्दकुन्द यह नाम कोण्डकुण्ड नगर में रहवासी होने से प्रसिद्ध है। इनका दीक्षा नाम पद्मनंदी है। विदेह क्षेत्र में मनुष्यों की ऊँचाई ५०० धनुष और इनकी वहाँ पर साढ़े तीन हाथ होने से इन्हें समवशरण में चक्रवर्ती ने अपनी हथेली पर रखकर पूछा-प्रभो! नराकृति का यह प्राणी कौन है ? भगवान ने कहा-भरतक्षेत्र के यह चारण- ऋद्धिधारक महातपस्वी पद्मनंदि नामक मुनि हैं, इत्यादि। इसलिए उन्होंने उनका नाम एलाचार्य रख दिया। विदेहक्षेत्र से लौटते समय इनकी पिच्छी गिर जाने से गृद्धपिच्छ लेना पड़ा अत: ‘‘गृद्धपिच्छ’’ कहाये और अकाल में स्वाध्याय करने से इनकी ग्रीवा टेढ़ी हो गई तब ये वक्रग्रीव कहलाये। पुन: सुकाल में स्वाध्याय से ग्रीवा ठीक हो गई थी; इत्यादि।
२.श्वेताम्बरों के साथ वाद-गुर्वावली में स्पष्ट है-
पद्मनंदि गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी:, पाषाणघटिता येन वादिता श्री सरस्वती।
उर्ज्जयंतगिरौ तेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत्, अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नम: श्री पद्मनंदिने।।
बलात्कार गणाग्रणी श्री पद्मनन्दी गुरु हुए, जिन्होंने ऊर्जयन्त गिरि पर पाषाण निर्मित सरस्वती की मूर्ति को बुलवा दिया था। उससे सारस्वत गच्छ हुआ अत: उन पद्मनंदी मुनीन्द्र को नमस्कार हो। पांडवपुराण में भी कहा है-
कुन्दकुन्दगणी येनोर्ज्जयंतगिरिमस्तके,
सोऽवदात् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ।
जिन्होंने कलिकाल में ऊर्जयन्त गिरि के मस्तक पर पाषाण निर्मित ब्राह्मी की मूर्ति को बुलवा दिया। कवि वृन्दावन ने भी कहा है-
संघ सहित श्री कुन्दकुन्दगुरु, वंदन हेतु गये गिरनार।
वाद पर्यो तहं संशयमति सों, साक्षी बनी अंबिकाकार।।
‘‘सत्यपंथनिर्ग्रन्थ दिगम्बर’’ कही सुरी तहं प्रगट पुकार’’।
सो गुरुदेव बसो उर मेरे, विघन हरण मंगल करतार।।
अर्थात् श्वेताम्बर संघ ने वहाँ पर पहले वंदना करने का हठ किया, तब निर्णय यह हुआ कि जो प्राचीन सत्यपंथ के हों, वे ही पहले वंदना करें। तब श्री कुन्दकुन्ददेव ने ब्राह्मी की मूर्ति से कहलवा दिया कि ‘‘सत्यपंथ निर्ग्रन्थ दिगम्बर’’ ऐसी प्रसिद्धि है।
३. विदेह गमन-देवसेनकृत दर्शनसार ग्रंथ सभी को प्रामाणिक है। उसमें कहा है कि-
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयासंति।।४३।।
यदि श्री पद्मनंदिनाथ सीमंधर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्यज्ञान से बोध न देते तो श्रमण सच्चे मार्ग को वैâसे जानते ? पंचास्तिकाय टीका के प्रारम्भ में श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है-‘‘प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञसीमंधरस्वामितीर्थंकरपरमदेवं दृष्ट्वा च तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवर्ण……. पुरप्यागतै: श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवै:’’ श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभृत की प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में ‘‘पूर्व विदेह पुण्डरीकिणीनगर वंदित सीमंधरापरनाम स्वयंप्रभजिनेन तच्छ्रुतसम्बोधित भारतवर्ष भव्यजनेन।’’ इत्यादि रूप से विदेहगमन की बात कही है।
४. ऋद्धिप्राप्ति-श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने ‘‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’’ नामक पुस्तक भाग ४ के अन्त में बहुत सी प्रशस्तियाँ दी हैं। उनमें देखिए-
‘‘श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा, ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द:।’’
‘‘द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र-सञ्जातसुचारणर्द्धि:।’’१
‘‘वंद्योविभुर्भुवि न वैâरिह कौण्डकुन्द:, कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्ति-विभूषिताश:।’’
यश्चारुचारण-कराम्बुजचंचरीक-श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम्२।
श्री कोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धि:३।
ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ं ंचरित्रसंजातसुचारणर्द्धि:४।।४।।
तद्वंशाकाशदिनमणि-सीमंधरवचनामृतपान-संतुष्टचित्त-श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणाम्५।।५।।
इन पांचों प्रशस्तियों में श्री कुन्दकुन्द के चारणऋद्धि का कथन है तथा जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश-२ में
शिलालेख नं. ६२, ६४, ६६, ६७, २५४, २६१, पृ. २६३-२६६ कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे उपरोक्त सभी लेखों से यही घोषित होता है।
५. जैन शिलालेख संग्रह-(पृ. १९७-१९८) रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तबह्यापि संव्यजयिर्तुयतीश: रज: पदं भूमितलं विहाय, चचार मन्ये चतुरंगुल स:।
यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रज:स्थान को और भूमितल को छोड़कर चार अंगुल ऊँचे आकाश में चलते थे। उसके द्वारा मैं यों समझता हूँ कि वह अन्दर में और बाहर में रज से अत्यन्त अस्पष्टपने को व्यक्त करते थे।
‘‘ह¼ी नं. २१ ग्राम हेग्गरे में एक मन्दिर के पाषाण पर लेख-स्वस्ति श्री वर्द्धमानस्य शासने।
श्री कुन्दकुन्दनामाभूत् चतुरंगुलचारण।’’ श्री वर्द्धमान स्वामी के शासन में प्रसिद्ध श्रीकुन्दकुन्दाचार्य भूमि से चार अंगुल ऊपर चलते थे।
ष. प्रा.। मो. प्रशत्ति। पृ. ३९३ ‘‘नामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्धिना,’’ ‘‘नाम पंचक विराजित (श्रीकुन्दकुन्दाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्र के पुण्डरीकिणी नगर में स्थित
श्री सीमंधरप्रभु की वंदना की थी।’’
भद्रबाहु चरित्र में राजा चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फल कहते हुए आचार्य ने कहा है कि ‘‘पंचमकाल में चारणऋद्धि आदि ऋद्धियां प्राप्त नहीं होती।’’ अत: यहां शंका होना स्वाभाविक है किन्तु वह ऋद्धि निषेध कथन सामान्य समझना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि ‘‘पंचमकाल में ऋद्धि प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है तथा पंचमकाल के प्रारम्भ में दुर्लभ नहीं है, आगे अभाव है, ऐसा भी अर्थ समझा जा सकता है। यही बात पं. जिनराज फड़कुले ने मूलाचार की प्रस्तावना में की है।
ये तो हुई इनके मुनि जीवन की विशेषताएं, अब आप इनके ग्रन्थों को देखिए-
६. ग्रन्थ रचनाएं-कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार आदि ८४ पाहुड़ रचे, जिनमें १२ पाहुड़ ही उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में सर्व विद्वान एकमत हैं परन्तु इन्होंने षट्खण्डागम ग्रन्थ के प्रथम तीन खण्डों पर भी एक १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की टीका लिखी थी, ऐसा श्रुतावतार में इन्द्रनंदि आचार्य ने स्पष्ट उ¼ेख किया है। इस ग्रन्थ का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसके आधार पर ही आगे उनके काल सम्बन्धी निर्णय करने में सहायता मिलती है-
एवं द्विविधो द्रव्य भावपुस्तकगत: समागच्छत्।
गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्त: कोण्डकुण्डपुरे।।१६०।।
श्री पद्मपंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:।
ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य।।१६१।।
इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान को प्राप्त करके गुरु परिपाटी से आये हुए सिद्धान्त को जानकर श्री पद्मनंदि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नाम की षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों की व्याख्या की। इनकी प्रधान रचनायें निम्न हैं-
षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नाम की टीका-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड़, पंचास्तिकाय, रयणसार इत्यादि ८४ पाहुड़, मूलाचार, दशभक्ति, कुरलकाव्य१।
मूलाचार श्री कुन्दकुन्द देव की ही रचना है। कुन्दकुन्द व वट्टकेर एक ही हैं। ऐसा मूलाचार प्र. में पं. जिनदास ने स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र सि. कोशकार भी कुन्दकुन्द का एक नाम वट्टकेर मानते हैं और मूलाचार इन्हीं की कृति मानते हैं तथा मूलाचार सटीक का हिन्दी अनुवाद करते समय मैंने भी पूर्णतया इस कृति को श्री कुन्दकुन्द देव की ही निर्णय किया है। कुरलकाव्य के विषय में भी बहुत से विद्वान इन्हीं की कृति है, ऐसा मानते ही हैं। इन ग्रन्थों में रयणसार, मूलाचार मुनिधर्म का वर्णन करता है। अष्टपाहुड़ के चारित्रपाहुड़ में संक्षेप से श्रावकधर्म वर्णित है। कुरलकाव्य नीति का अनूठा ग्रन्थ है और परिकर्म टीका में सिद्धान्त कथन होगा। दश भक्तियां, सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण है। शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सरागचारित्र और निर्विकल्प समाधिरूप वीतरागचारित्र के प्रतिपादक ही हैं।
७. गुरु-गुरु के विषय में कुछ मतभेद हैं, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली इनके परम्परा गुरु थे। कुमारनन्दि आचार्य शिक्षागुरु हो सकते हैं किन्तु अनेक प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दीक्षागुरु ‘‘श्री जिनचन्द्र’’ आचार्य थे।
८. जन्मस्थान-इसमें भी मतभेद हैं-जैनेन्द्र सि. कोश में कहा है-
कुरलकाव्य। प्र. २१। पं. गोविन्दाय शास्त्री ‘‘दक्षिणादेशे मलये हेम-ग्रामे मुनिमहात्मासीत्। एलाचार्यो नाम्नाे द्रविड़ गणधीश्वरो श्रीमान्।’’ यह श्लोक हस्तलिखित मन्त्र ग्रन्थ में से लेकर लिखा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रान्त में हेमग्राम के निवासी थे और द्रविड़ संघ के अधिपति थे। मद्रास प्रेजीडेन्सी के मलया प्रदेश में ‘‘पोन्नूर गाँव’’ को ही प्राचीन काल में हेमग्राम कहते थे और सम्भवत: वही कुन्दकुन्दपुर है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ पर श्री एलाचार्य की चरणपादुका बनी हुई हैं१। पं. नेमिचन्द्र जी भी लिखते हैं-‘‘कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के सम्बन्ध में विद्वानों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है कि ये दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता का नाम कर्मण्डु और माता का नाम श्रीमती था। इनका जन्म ‘‘कौण्डकुन्दपुर’’ नामक ग्राम में हुआ था। इस गाँव का दूसरा नाम कुरमरई भी कहा गया है।२
९. समय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मतभेद हैं फिर भी डा. ए.एन उपाध्याय ने इनको ई. सन् प्रथम शताब्दी का माना है। कुछ भी हो, ये आचार्यश्री भद्रबाहु आचार्य के अनंतर ही हुए हैं यह निश्चित है क्योंकि इन्होंने प्रवचनसार और अष्टपाहुड़ में सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का अच्छा खण्डन किया है।
नन्दिसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि. सं. ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ९५ वर्ष १० महीने और १५ दिन की थी३।
आपने आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव का संक्षिप्त जीवनपरिचय देखा है। इन्होंने अपने साधु जीवन में जितने ग्रन्थ लिखे हैं, उससे सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि इनके साधु जीवन का बहुभाग लेखन कार्य में ही बीता है और लेखन कार्य जंगल में विचरण करते हुए मुनि कर नहीं सकते। बरसात, आंधी, पानी, हवा आदि में लिखे गए पेजों की या ताड़पत्रों की सुरक्षा असम्भव है। इससे यही निर्णय होता है कि आचार्य मन्दिर, मठ, धर्मशाला, वसतिका आदि स्थानों पर ही रहते होंगे।
कुछ लोग कह देते हैं कि कुन्दकुन्ददेव अकेले ही आचार्य थे, यह बात भी निराधार है। पहले तो वे संघ के नायक महान आचार्य गिरनार पर्वत पर संघ सहित ही पहुँचे थे। दूसरी बात गुर्वावली४ में श्री गुप्तिगुप्त, भद्रबाहु आदि से लेकर १०२ आचार्यों की पट्टावली दी है। उसमें इन्हें पाँचवें पट्ट पर लिया है।
यथा-१. श्री गुप्तिगुप्त, २. भद्रबाहु, ३. माघनन्दी, ४. जिनचन्द्र, ५. कुन्दकुन्द, ६. उमास्वामी आदि। इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र आचार्य ने इन्हें अपना पट्ट दिया।
पश्चात् इन्होंने उमास्वामी को अपने पट्ट का आचार्य बनाया। यही बात नंदिसंघ की पट्टावली के आचार्यों की नामावली में है। यथा-४. जिनचन्द्र, ५. कुन्दकुन्दाचार्य, ६. उमास्वामी१। इन उदाहरणों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये महान संघ के आचार्य थे। दूसरी बात यह भी है कि इन्होंने स्वयं अपने ‘‘मूलाचार’’ में ‘‘माभूद सत्तु एगागी’’ मेरा शत्रु भी एकाकी न रहे, ऐसा कहकर पंचमकाल में एकाकी रहने का मुनियों के लिए निषेध किया है। इनके आदर्श जीवन व आदेश से आज के आत्महितैषियों को अपना श्रद्धान व जीवन उज्ज्वल बनाना चाहिए। ऐसे महान जिनधर्मप्रभावक परम्पराचार्य भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव के चरणों में मेरा शत-शत नमोस्तु।
आचार्य श्री उमास्वामी
तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के रचयिता आचार्य श्री उमास्वामी हैं। इनको उमास्वाति भी कहते हैं। इनका अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य है। धवलाकार ने इनका नामो¼ेख करते हुए कहा है कि-
‘‘तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्तेवि’’२।
उसी प्रकार से गृद्धपिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है।
इनके इस नाम का समर्थन श्री विद्यानन्द आचार्य ने भी किया है। यथा-
‘‘एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यंतमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।’’३
इस कथन से गृद्धपिच्छाचार्य पर्यंत मुनियों के सूत्रों से व्यभिचार दोष का निराकरण हो जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र के किसी टीकाकार ने भी निम्न पद्य में तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता का नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है-
तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वंदे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम्।।
‘‘गृद्धपिच्छ’’ इस नाम से उपलक्षित, तत्त्वार्थसूत्र के कर्तागण के नाथ उमास्वामी मुनीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ।
श्री वादिराज ने भी इनके गृद्धपिच्छ नाम का उ¼ेख किया है-
अतुच्छगुणसंपातं गृद्धपिच्छं नतो स्मिऽतम्।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणयोत्पतिष्णव:।।४
आकाश में उड़ने की इच्छा करने वाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखों का सहारा लेते हैं, उसी प्रकार मोक्षनगर को जाने के लिए भव्य लोग जिस मुनीश्वर का सहारा लेते हैं, उस महामना, अगणित गुणों के भण्डार स्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनि महाराज के लिए मेरा सविनय नमस्कार हो।
श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नाम की सार्थकता और कुन्दकुन्द के वंश में उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका ‘‘उमास्वाति’’ नाम भी दिया है। यथा-
अभूदुमास्वातिमुनि: पवित्रे, वंशे तदीये सकलार्थवेदी।
सूत्रीकृतं येन जिन प्रणीतं, शास्त्रार्थतार्थजातं मुनिपुंगवेन।।
स प्राणि संरक्षण सावधानो, बभार योगी किल गृद्धपिक्षान्।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्य, शब्दोत्तर गृद्धपिच्छम्१।।
आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणी को सूत्रों में निबद्ध किया। इन आचार्य ने प्राणिरक्षा के हेतु गृद्धपिच्छों को धारण किया, इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस प्रमाण में गृद्धपिच्छाचार्य को ‘‘सकलार्थवेदी’’ कहकर ‘‘श्रुतकेवली सदृश’’ भी कहा है। इससे उनका आगम सम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं।
समय निर्धारण और गुरु शिष्य परम्परा-नन्दि संघ की पट्टावली और श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि ये गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में हुए हैं। नन्दिसंघ की पट्टावली विक्रम के राज्याभिषेक से प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है-
१. भद्रबाहु द्वितीय (४), २. गुप्तिगुप्त (२६) ३. माघनन्दि (३६), ४. जिनचन्द्र (४०), ५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९), ६. उमास्वामि (१०१), ७. लोहाचार्य (१४२)ं ं ं ं ं ं ।
अर्थात ‘‘नन्दिसंघ की पट्टावली में बताया है कि उमास्वामी वि. सं. १०१ में आचार्यपद पर आसीन हुए, वे ४० वर्ष आठ महीने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ८४ वर्ष की थी और विक्रम सं. १४२ में उनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो. हार्नले, डॉ. पिटर्सन और डॉ. सतीशचन्द्र ने इस पट्टावली के आधार पर उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान माना है।२’’
‘‘किन्तु स्वयं नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने इन्हें ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी का अनुमानित किया है।’’
कुछ भी हो ये आचार्य श्री कुन्दकुन्द के शिष्य थे। यह बात अनेक प्रशस्तियों से स्पष्ट है। यथा-
तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छ: स तपोमहर्द्धि:।
यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुर्व्विषादोनमृतीचकार३।।१३।।
इन योगी महाराज की परम्परा में प्रदीपस्वरूप महर्द्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए। इनके शरीर के स्पर्शमात्र से पवित्र हुई वायु भी उस समय लोगों के विष आदि को अमृत कर देती थी।
विरुदावलि में भी कुन्दकुन्द के पट्ट पर उमास्वाति को माना है। ‘‘दशाध्यायसमाक्षिप्तजैनागमतत्त्वार्थ-सूत्रसमूह-श्रीमदुमास्वातिदेवानाम्४।।३।।’’
इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री कुन्दकुन्द के पट्ट पर ही ये उमास्वामि आचार्य हुए हैं और इन्होंने अपना आचार्य पद बलाकपिच्छ या लोहाचार्य को सौंपा है।
तत्त्वार्थसूत्र रचना-इन आचार्य महोदय की ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ रचना एक अपूर्व रचना है। यह ग्रन्थ जैनधर्म का सार ग्रन्थ होने से इसके मात्र पाठ करने या सुनने का फल एक उपवास बतलाया गया है। यथा-
दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति।
फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवै:।।
दश अध्याय से परिमित इस तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र के पढ़ने से एक उपवास का फल होता है ऐसा मुनिपुंगवों ने कहा है। वर्तमान में इस ग्रन्थ को जैनपरम्परा में वही स्थान प्राप्त है जो कि हिन्दूधर्म में ‘‘भगवद्गीता’’ को, इस्लाम में ‘‘कुरान’’ को और ईसाईधर्म में ‘‘बाइबिल’’ को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत में ही जैन ग्रन्थों की रचना की जाती थी।
इस ग्रन्थ को दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में समानरूप से ही महानता प्राप्त है। अनेक आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ रचे हैं। श्री देवनन्दि अपरनाम पूज्यपाद आचार्य ने इस पर ‘‘सर्वार्थसिद्धि’’ नाम से टीका रची है जिसका अपर नाम ‘‘तत्त्वार्थवृत्ति’’ भी है। श्री भट्टाकलंक देव ने ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ नाम से तथा विद्यानन्द महोदय ने ‘‘तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक’’ नाम से दार्शनिक शैली में टीका ग्रन्थों का निर्माण करके इस ग्रन्थ के अतिशय महत्व को सूचित किया है। श्री श्रुतसागर सूरि ने ‘‘तत्त्वार्थ वृत्ति’’ नाम से टीका रची है और अन्य-अन्य कई टीकायें उपलब्ध हैं। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इसी ग्रन्थ पर ‘‘गन्धहस्ति महाभाष्य’’ नाम से ‘‘महाभाष्य’’ रचा है जो कि आज उपलब्ध नहीं हो रहा है।
दशाध्यायपूर्ण इस ग्रन्थ का एक मंगलाचरण ही इतना महत्त्वशाली है कि आचार्य श्री समंतभद्र ने उस पर ‘‘आप्तमीमांसा’’ नाम से आप्त की मीमांसा-विचारणा करते हुए एक स्तोत्र रचा है, उस पर श्री भट्टाकलंकदेव ने अष्टशती एवं श्री विद्यानन्द आचार्य ने ‘‘अष्टसहस्री’’ नाम से महान उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ रचा है। श्री विद्यानन्द आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र पर ही ‘‘श्लोकवार्तिक’’ नाम से जो महान टीका ग्रन्थ की रचना की है उसमें सबसे प्रथम मंगलाचरण की टीका में उन्होंने १२४ कारिकाओं में आप्तपरीक्षा ग्रन्थ की रचना की एवं उसी पर स्वयं ने ही स्वोपज्ञ टीका रची है।
कुछ विद्वान ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं’’ इत्यादि मंगलाचरण को श्री उमास्वामी आचार्य द्वारा रचित न मानकर किन्हीं टीकाकारों का कह रहे थे परन्तु ‘‘श्लोकवार्तिक’’ और ‘‘अष्टसहस्री’’ ग्रन्थ में उपलब्ध हुए अनेक प्रमाणों से अब यह अच्छी तरह निर्णीत किया जा चुका है कि यह मंगल श्लोक श्री सूत्रकार आचार्य द्वारा ही विरचित है।
इन महान आचार्य के द्वारा रचा हुआ एक श्रावकाचार भी है जो कि ‘‘उमास्वामी श्रावकाचार’’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। कुछ विद्वान इस श्रावकाचार को इन्हीं सूत्रकर्ता उमास्वामी का नहीं मानते हैं किन्तु ऐसी बात नहीं है, वास्तव में वह इन्हीं आचार्यदेव की रचना है यह बात उसी श्रावकाचार के निम्न पद्य में स्पष्ट है। यथा-
सूत्रे तु सप्तमेप्युक्ता: पृथग्नोक्तास्तदर्थत:।
अवशिष्ट: समाचार: सौऽत्रैव कथितो धु्रवम्।।४६४।।
अर्थात् इस श्रावकाचार में श्रावकों की षट्आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करते हुए उनके अणुव्रत आदिकों का भी वर्णन किया है पुन: यह संकेत दिया है कि मैंने ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ के सप्तम अध्याय में श्रावक के १२ व्रतों का और उनके अतिचारों का विस्तार से कथन किया है अत: यहां उनका कथन नहीं किया है। बाकी जो आवश्यक क्रियायें देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान का वर्णन वहां नहीं किया है, उन्हीं को यहां पर कहा गया है।
पुनरपि अन्तिम श्लोक में कहते हैं कि-
इति वृत्तं मयेष्टं संश्रये षष्ठमकेऽखिलम्।
चान्यन्मया कृते ग्रंथेऽन्यस्मिन् दृष्टव्यमेव च।।४७६।।
इस प्रकार से मैंने इस श्रावकाचार की छठी अध्याय में श्रावक के लिए इष्ट चारित्र का वर्णन किया है। अन्य जो कुछ भी श्रावकाचार है, वह सब मेरे द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ (तत्त्वार्थसूत्र) से देख लेना चाहिए।
इस प्रकार के उद्धरणों से यह निश्चित हो जाता है कि यह श्रावकाचार भी पूज्य उमास्वामी आचार्य की ही रचना है।
यद्यपि इस श्रावकाचार में भाषा शैली की अतीव सरलता है फिर भी उससे यह नहीं कहा जा सकता है कि यह रचना उनकी नहीं है क्योंकि सूत्रग्रन्थ में सूत्रों की रचना सूत्ररूप ही रहेगी और श्लोक ग्रन्थों में श्लोकरूप। जिस प्रकार से श्री कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों की रचना अतीव प्रौढ़ है तथा अष्टपाहुड़ गाथासूत्रों की रचना उतनी प्रौढ़ न होकर सरल है फिर भी एक ही आचार्य कुन्दकुन्द इन ग्रन्थों के रचयिता मान्य हैं वैसे ही यहां भी समझना चाहिए और उमास्वामी आचार्य की प्रमाणता के अनुरूप ही उनके इस श्रावकाचार को भी प्रमाण मानकर उसका भी स्वाध्याय करना चाहिए।
आचार्य श्री यतिवृषभ
श्री गुणधर आचार्य रचित ‘‘कषायपाहुड’’ गाथासूत्रों पर चूर्णिसूत्रों की रचना करने वाले आचार्य का नाम ‘‘यतिवृषभ’’ है। जयधवला टीका के निर्देशानुसार आचार्य यतिवृषभ ने आर्यमंक्षु और नागहस्ति से कसायपाहुड की गाथाओं का सम्यक् प्रकार अध्ययन कर अर्थ अवधारण किया और कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्रों की रचना की। इस प्रकार से इन आचार्य महोदय ने चूर्णिसूत्रों की रचना संक्षिप्त शब्दावली में प्रस्तुत कर महान अर्थ को निबद्ध किया है। यदि ये आचार्य चूर्णिसूत्रों की रचना न करते तो सम्भव है कि कसायपाहुड का अर्थ ही स्पष्ट न हो पाता अत: दिगम्बर सम्प्रदाय में चूर्णिसूत्रों के प्रथम रचयिता होने के कारण इन यतिवृषभ आचार्य का अत्यधिक महत्त्व है। श्री वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में षट्खण्डागम के सूत्रों को भी ‘‘चुण्णिसुत्त’’ कहा है। इससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों का महत्त्व ‘‘कसायपाहुड’’ की गाथाओं में किसी तरह कम नहीं है। आचार्य वीरसेन के उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकार श्री यतिवृषभ का मत ‘‘कसायपाहुड’’ और ‘‘षट्खण्डागम’’ के मत के समान ही प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण है। विक्रम सं. की ११वीं शताब्दी में आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने ‘‘लब्धिसार’’ नामक ग्रन्थ में पहले ‘‘यतिवृषभ’’ के मत का निर्देश किया है, तदनन्तर भूतबलि के मत का निर्देश किया है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि इनके चूर्णिसूत्र मूलग्रन्थों के समान ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी थे।
समय निर्णय-इनके विद्यागुरु के नाम आर्यमंक्षु और नागहस्ति बताए गए हैं। यथा-
गुणहरवयणविणिग्गय-गाहाणत्थोवहारिओ सव्वो।
जेणज्जमंखुणा सो, सणागहत्थी वरं देऊ।।७।।
जो अज्जमंखुसीसो, अंतेवासी वि णागहत्थिस्स।
सो वित्तिसुत्तकत्ता, जइवसहो मे वरं देऊ१।।८।।
जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने गुणधराचार्य के मुखकमल से विनिर्गत कसापाहुड़ की गाथाओं के समस्त अर्थ को अवधारण किया वे हमें वर प्रदान करें। जो आर्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ति के अंतेवासी हैं, वृत्तिसूत्र के कर्त्ता वे यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें।
इस प्रकरण से यह स्पष्ट झलकता है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ति समकालीन थे तथा यतिवृषभ के गुरू थे।
इन्द्रनंदि के श्रुतावतार में आर्यमंक्षु और नागहस्ति को श्री गुणधर आचार्य का शिष्य कहा है। यथा-
एवं गाथासूत्राणि, पंचदशमहाधिकाराणि।
प्रविरच्य व्याचख्यौ स, नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम्१।।१५४।।
गुणधराचार्य ने पन्द्रह महाधिकारों में गाथा सूत्रों को रचकर नागहस्ति और आर्यमंक्षु को उसका व्याख्यान किया तथा उपर्युक्त प्रमाण से यह भी स्पष्ट है कि यतिवृषभ ने नागहस्ति और आर्यमंक्षु से ज्ञान प्राप्त कर चूर्णिसूत्र रचना की है। इस दृष्टि से इनका समय वीर निर्वाण सं. की सातवीं शताब्दी आता है। चूंकि ये भूतबलि आचार्य के समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती प्रतीत होते हैं।
अत: यतिवृषभ का समय वि. सं. ६६६ के पश्चात् नहीं हो सकता है।
आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में समानरूप सम्मानित हुए हैं।
रचना-यतिवृषभाचार्य की दो ही कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-
१. कषायपाहुड पर रचित ‘‘चूर्णिसूत्र’’ और २. तिलोयपण्णत्ति।
तिलोयपण्णत्ति की अन्तिम गाथा में चूर्णिसूत्र का उल्लेख आया है। यथा-
चुण्णिस्सरूवछक्करण, जं तं सरूवपमाण होइ किं जं त्तं।
अट्ठसहस्स पमाणं, तिलोयपण्णत्तिणामाए२।।
अर्थात् तिलोयपण्णत्ती में चूर्णिसूत्रों की संख्या ८००० मानी है पर इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में चूर्णिसूत्रों का परिमाण ६००० श्लोक प्रमाण कहा गया है किन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि चूर्णिसूत्र कितने थे।
जयधवला टीका से इन सूत्रों का प्रमाण ७००९ आता है। अस्तु,
चूर्णिसूत्र रचना महान सिद्धान्त है और तिलोयपण्णत्ती की रचना में तीन लोक का सविस्तार वर्णन बहुत ही सुन्दर किया गया है।
पं. हीरालाल जी शास्त्री के मतानुसार आचार्य यतिवृषभ की एक अन्य रचना ‘‘कम्मपयडि’’ चूर्णि भी है। जिसका उल्लेख उन्होंने ‘‘कसायपाहुडसुत्त’’ ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया है३।
श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने ‘‘यतिवृषभ’’ का समय ईस्वी सन् की द्वितीय शती माना है।४
कसायपाहुड में तो चूर्णिसूत्रों को भगवान महावीर की दिव्यध्वनि की किरण माना है। यथा-
‘‘एतम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थ-वड्ढमाणदिवायरादो अज्जमंखुणागहत्थीहिंतो जइवसहायरियमुवणमिय- चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिव्वज्झुणि किरणादो णव्वदे।’’५
अर्थात् विपुलाचल के ऊपर स्थित भगवान महावीररूपी दिवाकर से निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्य परम्परा से आकर गुणधराचार्य को प्राप्त होकर वहाँ गाथारूप से परिणमन करके पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्य के द्वारा यतिवृषभाचार्य को प्राप्त होकर चूर्णिसूत्ररूप से परिणत हुई दिव्यध्वनि किरणरूप से हमने जाना है।
इस प्रकार से यतिवृषभाचार्य के वचनों की प्रमाणता को समझकर उनके ग्रन्थों पर पूर्ण श्रद्धान रखना हमारा कर्त्तव्य हो जाता है।
इस इतिहास को पढ़कर निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए-
१. यतिवृषभाचार्य ने आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्य के पास कसायपाहुड की गाथाओं का अध्ययन किया था।
२. इनके द्वारा रचित चूर्णिसूत्र और तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ महान प्रमाणता की कोटि में आते हैं।
३. ये आचार्य परमागमरूप सिद्धान्त के और भौगोलिक विषय के तथा बीजगणित आदि के उच्चकोटि के विद्वान थे।
आचार्यश्री समंतभद्रस्वामी
जिस प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य संस्कृत के प्रथम सूत्रकार हैं, उसी प्रकार जैन वाङ्मय में स्वामी समन्तभद्र प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ-साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर चिंतक भी हैं। स्तोत्रकाव्य का सूत्रपात आचार्य समंतभद्र से ही होता है। इनकी स्तुतिरूप दार्शनिक रचनाओं पर अकलंक और विद्यानन्द जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवृत्तियाँ लिखकर मौलिक ग्रन्थ रचयिता का यश प्राप्त किया है। वीतरागी तीर्थंकर की स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभा का द्योतक है।
आदिपुराण में आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों के विधाता कहते हैं और उन्हें गमक आदि चार विशेषणों से विशिष्ट बतलाते हैं। यथा-
नम: समंतभद्राय महते कविवेधसे,
यद्वचोवज्रपातेन निर्भिन्ना: कुमताद्रय:।।४३।।
कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि।
यश: सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते१।।४४।।
मैं कवि समंतभद्र को नमस्कार करता हूँ जो कि कवियों के लिए ब्रह्मा हैं और जिनके वचनरूपी वज्रपात से मिथ्यामत रूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं। कविगण, गमकगण, वादीगण और वाग्मीगण-इन सभी के मस्तक पर श्री समंतभद्र स्वामी का यश चूड़ामणि के समान शोभित होता है।
स्वतन्त्र कविता करने वाले ‘‘कवि’’ कहलाते हैं, शिष्यों को मर्म तक पहुँचा देने वाले ‘‘गमक’’ शास्त्रार्थ करने वाले ‘‘वादी’’ और मनोहर व्याख्यान देने वाले ‘‘वाग्मी’’ कहलाते हैं।
श्री शुभचन्द्र आचार्य, श्री वर्द्धमान सूरि, श्री जिनसेनाचार्य और श्री वादीभसूरि आदि ने अपने-अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव, वरांगचरित, अलंंकार चिंतामणि और गद्यचिंतामणि आदि में श्री समंतभद्र स्वामी की सुन्दर-सुन्दर श्लोकों में स्तुति की है।
ये जैनधर्म और जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार एवं काव्य, कोष आदि विषयों में पूर्णतया अधिकार रखते थे। सो ही इनके ग्रन्थों से स्पष्ट झलक जाता है। इन्होंने जैन विद्या के क्षेत्र में एक नया आलोक विकीर्ण किया है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में तो इन्हें जिनशासन के प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है।
इनका जीवन परिचय, मुनिपद, गुरु शिष्य परम्परा, समय और इनके रचित ग्रन्थ इन पाँच बातों पर यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जाएगा-
जीवन परिचय-इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। इन्हें चोल राजवंश का राजकुमार अनुमानित किया जाता है। इनके पिता उरगपुर (उरैपुर) के क्षत्रिय राजा थे। यह स्थान कावेरी नदी के तट पर फणिमण्डल के अन्तर्गत अत्यन्त समृद्धिशाली माना गया है। श्रवणबेलगोला के दोरवली जिनदास शास्त्री के भण्डार में पाई जाने वाली आप्तमीमांसा की प्रति के अन्त में लिखा है-‘‘इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिप सूनो: श्री स्वामी समंतभद्रमुने: कृतौ आप्तमीमांसायाम्’’-इस प्रशस्तिवाक्य से स्पष्ट है कि समंतभद्र स्वामी का जन्म क्षत्रियवंश में हुआ था और उनका जन्मस्थान उरगपुर है।
इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है। ‘‘स्तुतिविद्या’’ अपरनाम ‘‘जिनस्तुतिशतक’’ में ११६ वें पद्य में कवि और काव्य का नाम चित्रबद्धरूप में अंकित है। इस काव्य के छह आरे और नववलय वाली चित्र रचना पर से ‘‘शांतिवर्मकृतम्’’ और ‘‘जिनस्तुतिशतम्’’ ये दो पद निकलते हैं। सम्भव है यह नाम माता-पिता के द्वारा रखा गया हो और ‘‘समंतभद्र’’ मुनि अवस्था का हो।
मुनिदीक्षा और भस्मकव्याधि-मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब वे मणुवकह¼ी स्थान में विचरण कर रहे थे कि उन्हें भस्मक व्याधि नामक भयानक रोग हो गया जिससे दिगम्बर मुनिचर्या का निर्वाह उन्हें अशक्य प्रतीत हुआ। तब उन्होंने गुरु से समाधिमरण धारण करने की इच्छा व्यक्त की। गुरु ने भावी होनहार शिष्य को आदेश देते हुए कहा-
‘‘आपसे धर्मप्रभावना की बड़ी-बड़ी आशायें हैं अत: आप दीक्षा छोड़कर रोग शमन का उपाय करें, रोग दूर होने पर पुन: मुनिदीक्षा ग्रहण करके स्व-पर कल्याण करें।’’ गुरु की आज्ञानुसार समंतभद्र रोगोपचार हेतु जिनमुद्रा छोड़कर सन्यासी बन गए और इधर-उधर विचरण करने लगे। एक समय वाराणसी में शिवकोटि राजा के शिवालय में जाकर राजा को आशीर्वाद दिया और ‘‘शिवजी को मैं खिला सकता हूँ’’ ऐसी घोषणा की। राजा की अनुमति प्राप्त कर समंतभद्र शिवालय के किवाड़ बंद कर उस नैवेद्य को स्वयं ही भक्षण कर रोग को शांत करने लगे। शनै:-शनै: उनकी व्याधि का उपशम होने लगा अत: भोग की सामग्री बचने लगी तब राजा को संदेह हो गया अत: गुप्तरूप से उसने इस रहस्य का पता लगा लिया। तब समंतभद्र से उन्होंने शिवजी को नमस्कार करने के लिए प्रेरित किया। समंतभद्र ने इसे उपसर्ग समझकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति प्रारम्भ की। जब वे चन्द्रप्रभ की स्तुति कर रहे थे कि शिव की पिंडी से भगवान चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट हो गई। समंतभद्र के इस माहात्म्य को देखकर शिवकोटि राजा अपने भाई शिवायन सहित उनके शिष्य बन गए। यह कथानक ‘‘राजाबलिकाथे’’ में उपलब्ध है।
श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में लिखा है-
वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटु: पद्मावतीदेवता-
दत्तोदात्तपदस्वमंत्रवचनव्याहूतचन्द्रप्रभ: ।
आचार्यस्स समंतभद्र गणभृद्येनेह काले कलौ,
जैनं वर्त्म समंतभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहु:१।।
अर्थात् जो अपने भस्मक रोग को भस्मसात् करने में चतुर हैं, पद्मावती नामक देवी की दिव्य शक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति होने से मंत्रवचनों द्वारा जिन्होंने चन्द्रप्रभ को प्रकट किया है और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग इस कलिकाल में सब ओर से भद्ररूप हुआ है, वे गणनायक आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी बार-बार हम सभी के द्वारा वंद्य हैं।
आराधना कथाकोष में मूर्ति प्रकट होने के अनंतर ऐसा प्रकरण आया है कि चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट होने के इस चमत्कार को देखकर उनकी स्तोत्र रचना पूरी होने के बाद राजा शिवकोटि ने उनसे उनका परिचय पूछा। तब समन्तभद्र ने उत्तर देते हुए कहा-
कांच्याँ नग्नाटकोऽहं, मलमलिनतनुलम्बिशे पांडुपिण्ड:।
पुण्ड्रेण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुर नगरे, मिष्टभोजी परिव्राट्।
वाराणस्यामभूवं शशकरधवल: पाण्डुरांगस्तपस्वी।
राजन् यस्यास्ति शक्ति: स, वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी।।
मैं कांची में नग्न दिगम्बर यति के रूप में रहा, शरीर में रोग होने पर पुण्ड्र नगरी में बौद्ध भिक्षु बनकर मैंने निवास किया। पश्चात् दशपुर नगर में मिष्ठान्न भोजी परिव्राजक बनकर रहा। अनंतर वाराणसी में आकर शैव तपस्वी बना। हे राजन्! मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ। यहाँ जिसकी शक्ति वाद करने की हो, वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे। पुनश्च-
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे, भेरी मया ताडिता।
पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषये, कांचीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं।
वादार्थी विचराम्यहं नरपते, शार्दूलविक्रीडितम्।।
मैंने पहले पटना नगर में वाद की भेरी बजाईं, पुन: मालवा, सिन्धु देश, ढ×ाâ-ढाका, बंगाल, कांचीपुर और वैदिश-विदिशा-भेलसा के आस-पास के प्रदेशों में भेरी बजाई। अब बड़े-बड़े वीरों से युक्त इस करहाटक नगर को प्राप्त हुआ हूँ। इस प्रकार हे राजन्! मैं वाद करने के लिए सिंह के समान इतस्तत: क्रीड़ा करता हुआ विचरण कर रहा हूँ।
राजा शिवकोटि समन्तभद्र के इस आख्यान को सुनकर भोगों से विरक्त हो दीक्षित हो गए, ऐसा वर्णन है।
गुरु शिष्य परम्परा-यद्यपि समन्तभद्र की गुरु शिष्य परम्परा के विषय में बहुत कुछ अनिर्णीत ही है। फिर भी इन्हें किन्हीं प्रशस्तियों में उमास्वामी के शिष्य बलाकपिच्छ का पट्टाचार्य माना है। श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में भी आया है-
श्री गृद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छ:। शिष्यो जनिष्ट……………। एवं महाचार्य परम्परायां……………, समन्तभद्रो जनि वादिसिंह:२।
अर्थात् भद्रबाहुश्रुतकेवली के शिष्य चन्द्रगुप्त, चंद्रगुप्त के वंशज पद्मनन्दि अपरनाम श्री कुन्दकुन्दाचार्य, उनके वंशज गृद्धपिच्छाचार्य, उनके शिष्य बलाकपिच्छ और उनके पट्टाचार्य श्री समन्तभद्र हुए हैं।
‘श्रुतमुनि-पट्टावली’ में कहा है-
तस्मादभूद्-योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छ: स तपोमहर्द्धि:।
यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुर्विषादीनमृतीचकार।।१३।।
समंतभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्तत: प्रणेता जिनशासनस्य।
यदीयवाग्वज्रकठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादिशैलान्१।।१४।।
चन्नदायपट्टण ता¼ुके के अभिलेख नं. १४९ में इन्हें ऋद्धि मानी है और इन्हें वर्धमान जिन के शासन की सहस्रगुणी वृद्धि करने वाला कहा है।
समय निर्धारण-आचार्य समन्तभद्र के समय के संबंध में विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है। मि. लेविस राईस का अनुमान है कि ये आचार्य ई. की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में हुए हैं। डॉ. ज्योतिप्रसाद जी आदि ने भी सन् १२० में राजकुमार के रूप में, सन् १३८ में मुनि पद में, सन् १८५ के लगभग स्वर्गस्थ हुए ऐसे ईस्वी सन् की द्वितीय शती को ही स्वीकार किया है अतएव संक्षेप में समंतभद्र का समय ईस्वी सन् द्वितीय शताब्दी ही प्रतीत होता है।
समंतभद्र की रचनायें-१. वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २. स्तुतिविद्या-जिनशतक ३. देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा, ४. युक्त्यनुशासन, ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. तत्त्वानुशासन, ८. प्राकृतव्याकरण, ९. प्रमाण पदार्थ, १०. कर्मप्राभृत टीका, ११. गन्धहस्ति महाभाष्य।
१. ‘‘स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले’’ आदि रूप से स्वयंभूस्तोत्र, धर्मध्यानदीपक आदि पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है। यह सटीक भी छप चुका है।
२. ‘‘स्तुतिविद्या’’ इसमें भी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है जो कि एक अक्षर, दो अक्षर आदि के श्लोकों में अथवा मुरजबंध, हारबंध आदि चित्रकाव्यरूप श्लोकों में एक अपूर्व ही रचना है।
३. इस देवागमस्तोत्र में सर्वज्ञदेव को तर्क की कसौटी पर कसकर सच्चा आप्त सिद्ध किया गया है। तत्कालीन नैरात्म्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष-प्रकृतिवाद आदि की समीक्षा करते हुए स्याद्वाद सिद्धान्त की प्रतिष्ठा जैसी इस ग्रन्थ में उपलब्ध है, वैसी सप्तभंगी की सुन्दर व्याख्या अन्यत्र जैन वाङ्मय में आपको कहीं नहीं मिलेगी। यह स्तोत्र ग्रन्थ केवल तत्त्वार्थसूत्र के ‘‘मोक्षमार्गस्य’’ मंगलाचरण को आधार करके बना है। इसी स्तोत्र पर अकलंक देव ने अष्टशती नाम का भाष्य ग्रंथ बनाया है और विद्यानन्द आचार्य ने अष्टसहस्री नाम का जैनदर्शन का सर्वोच्च ग्रन्थ निर्मित किया है।
४. युक्त्यनुशासन में भी परमत का खण्डन करते हुए आचार्यदेव ने वीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ घोषित किया है।
५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार में तो १५० श्लोकों में ही आचार्यदेव ने श्रावकों के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन कर दिया है। इसमें अतिथिसंविभाग व्रत के स्थान पर वैयावृत्य का सुन्दर स्वरूप बतलाकर इसी व्रत में देव पूजा को भी ले लिया है।
आगे की ७ रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं।
इस प्रकार से श्री समंतभद्राचार्य अपने समय में एक महान आचार्य हुए हैं। इनकी गौरवगाथा गाने के लिए हम और आप जैसे साधारण लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं। कहीं-कहीं इन्हें भावी तीर्थंकर माना गया है।
आचार्यश्री विद्यानन्द
आचार्य श्री विद्यानन्द ऐसे महान तार्किक आचार्य हुए हैं कि जिन्होंने प्रमाण और दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना करके श्रुत परम्परा को महत्त्वशील बनाया है। इनकी रचनाओं के अवलोकन से यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के निवासी थे। इसी प्रदेश को इनकी साधना और कार्यभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है। किंवदfिन्तयों के आधार से यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस मान्यता की सिद्धि इनके प्रखर पांडित्य और महती विद्वत्ता से भी होती है। इन्होंने वैशेषिक न्याय, मीमांसा, वेदांत आदि दर्शनों का अध्ययन कर लिया था। इन आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त ये दिग्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध ग्रन्थों के तलस्पर्शी विद्वान थे।
ये कब हुए हैं ? इनकी गुरुपरम्परा क्या थी ? इनका जीवन वृत्त क्या है ? इत्यादि बातें अनिर्णीत ही हैं। फिर भी विद्वानों ने इनका समय निश्चित करने के लिए पर्याप्त प्रयत्न किया है।
शक संवत् १३२० के एक अभिलेख१ में कहे गए नन्दिसंघ के मुनियों की नामावलि में विद्यानन्द का नाम आता है, जिससे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नन्दिसंघ के किसी आचार्य से दीक्षा ग्रहण की है और महान आचार्य पद को सुशोभित किया है। श्री वादिराज ने (ई. सन् १०५५) अपने ‘‘पार्श्वनाथ चरित’’ नामक काव्य में इनका स्मरण करते हुए लिखा है-
‘‘ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानंदस्य विस्मय:।
श्रृण्वतामप्यलंकारं दीप्तिरंगेषु रंगति२।।’’
आश्चर्य है कि विद्यानन्द के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमान अलंकारों को सुनने वालों के भी अंगों में दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करने वालों की बात ही क्या है ?
इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनकी कीर्ति ई. सन् की १० वीं शताब्दी में चारों तरफ पैâल रही थी।
पं. दरबारीलाल जी कोठिया ने विद्यानन्द के जीवन और समय पर विशेष विचार किया है-
‘‘विद्यानन्द गंगनरेश शिवमार द्वितीय (ई. सन् ८१०) और राचमल सत्यवाक्य प्रथम (ई. सन् ८१६) के समकालीन हैं और इन्होंने अपनी कृतियां प्राय: इन्हीं के राज्य समय में बनाई हैं। विद्यानन्द और तत्त्वार्थ- श्लोकवार्तिक को शिवमार द्वितीय के और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालंकृति ये तीन कृतियां राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई. ८१६-८३०) के राज्यकाल में बनी जान पड़ती हैं। अष्टसहस्री श्लोकवार्तिक के बाद की और आप्तपरीक्षा आदि के पूर्व की रचना है जो करीब ई. ८१०-८१५ में रची प्रतीत होती है तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र और सत्यशासन परीक्षा ये तीन रचनाएँ ई. सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती हैं। इससे भी आचार्य विद्यानन्द का समय ई. सन् ७७५-८४० प्रमाणित होता है।’’
अतएव आचार्य विद्यानन्द का समय ई. सन् की नवम् शती है३।
इनके गृहस्थ जीवन का तथा दीक्षा गुरु का कोई विशेष परिचय और नाम उपलब्ध नहीं है। इनकी रचनाओं को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-
१. स्वतन्त्र ग्रंथ और २. टीकाग्रन्थ
१. स्वतन्त्र ग्रन्थ-१. आप्तपरीक्षा (स्वोपज्ञवृत्ति सहित), २. प्रमाण परीक्षा, ३. पत्र परीक्षा, ४. सत्यशासन परीक्षा, ५. श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, ६. विद्यानन्द महोदय।
२. टीका ग्रन्थ-१. अष्टसहस्री, २. श्लोकवार्तिक, ३. युक्त्यानुशासनालंकार।
१. आप्तपरीक्षा ग्रन्थ में १२४ कारिकायें हैं और इन्हीं ग्रन्थकर्ता द्वारा रचित वृत्ति है। इस ग्रन्थ में अर्हंत को मोक्षमार्ग का नेता सिद्ध करते हुए मोक्ष, आत्मा, संवर, निर्जरा आदि के स्वरूप और भेदों का प्रतिपादन किया है। इसमें ईश्वर परीक्षा, कपिल परीक्षा, सुगत परीक्षा, ब्रह्माद्वैत परीक्षा करके अर्हन्त के सर्वज्ञतत्त्व की सिद्धि की है।
२. प्रमाण परीक्षा में प्रमाण का स्वरूप, प्रामाण्य वâी उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाण की संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है।
३. पत्र परीक्षा नामक लघुकाय ग्रन्थ में विभिन्न दर्शनों की अपेक्षा ‘पत्र’ के लक्षणों को उद्धृत कर जैन दृष्टिकोण से पत्र का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवों को ही अनुमान का अंग बताया है।
४. सत्यशासन परीक्षा की महत्ता के सम्बन्ध में पण्डित महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने लिखा है- ‘‘उनकी यह सत्यशासन परीक्षा ऐसा एक तेजोमय रत्न है जिससे जैन न्याय का आकाश दमदमा उठेगा। यद्यपि इसमें आये हुए पदार्थ फुटकररूप से उनके अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नये प्रमेयों का सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्द ने ही किया अन्यत्र मिलना असम्भव है१।’’
५. विद्यानन्द महोदय नाम का यह ग्रन्थ आचार्य विद्यानन्द की सर्वप्रथम रचना है। इसके पश्चात् ही इन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है पर उसका नामोल्लेख श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में मिलता है।
६. श्रीपुर या अंतरिक्ष के पार्श्वनाथ की स्तुति में कुल ३० पद्य हैं। इस स्तोत्र में दर्शन और काव्य का गंगा यमुनी संगम है। डॉ. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि-‘‘इस स्तोत्र में सर्वज्ञ सिद्धि, अनेकान्त सिद्धि, भावाभावात्मक वस्तु निरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादि पदार्थ, मोक्षमार्ग, वेद की अपौरुषेयता का निराकरण, ईश्वर के जगत कर्तृत्व का खण्डन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मीमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस तत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वैत मीमांसा, चार्वाक समीक्षा आदि दार्शनिक विषयों का समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथ को रागद्वेष का विजेता सिद्ध करते हुए, उनकी दिव्य वाणी का जयघोष किया है।२’’
७. अष्टसहस्री-जैन न्याय का यह सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अध्ययन की महत्ता बतलाते हुए स्वयं श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं-
‘‘श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत ययैव, स्वसमय परसमयसद्भाव:३।।’’
हजारों ग्रन्थों के सुनने से क्या प्रयोजन है ? मात्र एक अष्टसहस्री ही सुनना चाहिए क्योंकि इस अष्टसहस्री के द्वारा ही स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त का सद्भाव (स्वरूप) जाना जाता है।
श्री समन्तभद्र स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र पर गन्धहस्तिमहाभाष्य नामक भाष्य लिखते समय प्रारम्भ में ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं’’ इत्यादि मंगलाचरण के ऊपर ११४ कारिकाओं द्वारा आप्त की मीमांसा की है अत: प्रारम्भिक ‘‘देवागम’’ पद को लेकर इस रचना का ‘‘देवागमस्तोत्र’’ यह नाम भी प्रसिद्ध है।
श्रीअकलंकदेव ने इस स्तोत्र पर ८०० श्लोक प्रमाण द्वारा भाष्य रचना की है जिसका नाम ‘अष्टशती’ प्रसिद्ध है।
अष्टशती समेत इस आप्तमीमांसा पर आचार्यश्री विद्यानन्द महोदय ने ८००० श्लोक प्रमाण ‘‘अष्टसहस्री’’ नाम से ‘‘महाभाष्य’’ बनाया है। यह ग्रन्थ न्याय की प्रांजल-भाषा में रचा गया दुरुह और जटिल ग्रंथ है। स्वयं ग्रन्थकार ने इसे ‘‘कष्टसहस्री’’ कहा है-
कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्।
जो कष्टसहस्री सिद्ध है ऐसी यह अष्टसहस्री१ मेरे मनोरथ को पूर्ण करे।
इस ग्रन्थ में एकादश नियोग विधिवाद, भावनावाद और इनका निराकरण तथा तत्त्वोपप्लववाद, संवेदनाद्वैत, चित्राद्वैत, ब्रह्माद्वैत, सर्वज्ञाभाव आदि का निराकरण करके सर्वज्ञत्व सिद्धि, मोक्षतत्त्व और उसके उपाय की सिद्धि का सुन्दर विवेचन है।
प्रत्येक प्रकरण में सप्तभंगी स्याद्वाद का जैसा सुन्दर विवेचन इस ग्रन्थ में है वैसा विवेचन अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।
यह ग्रन्थ दश परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद सबसे बड़ा है और आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है और आधे में नव परिच्छेद हैं।
८. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नाम का ग्रन्थ टीका ग्रन्थों में एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, यह ग्रन्थ उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्यरूप से रचा गया है। पद्यात्मक शैली में है, साथ ही पद्यवार्तिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य अथवा गद्य में व्याख्यान लिखा है। आचार्य महोदय ने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध तार्किकों के द्वारा जैनदर्शन पर किए गए आक्षेपों का उत्तर दिया है। इस ग्रन्थ की समता करने वाला जैनदर्शन में तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक ग्रन्थ भी नहीं है।
जीव का अन्तिम ध्येय मोक्ष है। बन्धनबद्ध आत्मा को मुक्ति के अतिरिक्त और क्या करना चाहिए, इस ग्रन्थ में मुक्ति के साधनभूत रत्नत्रयमार्ग का सुन्दर और गहन विवेचन किया गया है।
तृतीय अध्याय के प्रथम सूत्र के भाष्य में ‘‘पृथ्वी घूमती है।’’ इस सिद्धान्त का खण्डन करके पृथ्वी को स्थिर सिद्ध किया है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आज से १००० वर्ष पूर्व भी कुछ आम्नायी वैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार पृथ्वी को घूमती हुई मानते थे। इसी प्रकार से चतुर्थ अध्याय में ज्योतिर्लोक का बहुत ही स्पष्ट और विस्तृत विवेचन है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद पं. माणिकचन्द जी न्यायाचार्य ने किया है। ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। सभी के लिए पठनीय और मननीय है।
९. युक्त्यानुशासनालंकार-यह भी एक टीका ग्रन्थ है। श्री स्वामी समन्तभद्र ने ६४ कारिकाओं में ‘‘युक्त्यानुशासन’’ नाम से यह एक स्तुति रचना की है। इसमें स्वामी ने श्री महावीर भगवान के शासन को ‘‘सर्वोदय’’ शासन सिद्ध किया है। श्री विद्यानन्द आचार्य ने अलंकार स्वरूप ही टीका रचकर ‘‘युक्त्यानुशासनालंकार’’ यह सार्थक नाम दिया है।
स्वामी समन्तभद्र ने अद्वैतवाद, द्वैतवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्धकारण-मोक्षकारणवाद आदि प्रमेयों की समीक्षा करके स्याद्वाद की सिद्धि की है। उसी का विस्तार टीकाकार ने किया है। श्री विद्यानन्द आचार्य के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए डॉ. नेमिचन्द ज्योतिषाचार्य कहते हैं-
अत: हमें विद्यानन्द की ‘‘श्रोताव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:। विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भाव:। आदि गर्वोक्ति स्वभावोक्ति प्रतीत होती है।’’१
वास्तव में जैसे इनकी अष्टसहस्री ग्रन्थ के प्रश्नोत्तर की शैली अनूठी है, अनुपम है और सभी के लिए पठनीय है, मननीय है, वैसे ही इनके सभी ग्रन्थ न्याय और सिद्धान्त के सूक्ष्म ज्ञान को कराने में सर्वथा सक्षम हैं।
आचार्यश्री अमृतचन्द्रसूरि
आध्यात्मिक ग्रन्थों के टीकाकारों में श्री अमृतचंद्रसूरि का सर्वप्रथम स्थान है। यदि अमृतचंद्रसूरि न होते तो आचार्य श्री कुंदकुंद देव के रहस्य को समझना कठिन हो जाता अत: कुंदकुंद देव के व्याख्याता के रूप में अमृतचंद्रसूरि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके मौलिक ग्रन्थ भी अपने आप में अतीव विशेषता लिए हुए हैं। निश्चयत: इन आचार्य की विद्वत्ता, वाग्मिता और प्रांजल शैली अप्रतिम है। आध्यात्मिक विद्वानों में
कुंदकुंद देव के पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे अमृतचंद्रसूरि हैं।
इनका जीवन परिचय, समय और इनकी रचनाओं पर यहां किंचित् प्रकाश डाला जा रहा है-
जीवन परिचय-इनका परिचय किसी भी कृति में प्राप्त नहीं होता है पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं जिनसे इनके व्यक्तित्व का निश्चय किया जा सकता है। पं. आशाधर ने इनका उल्लेख ‘‘ठक्कुर पद’’ के साथ किया है-‘‘ऐतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचंद्रसूरिविरचित समयसारटीकायां दृष्टव्यम्२।’’
यहां ‘‘ठक्कुर’’ शब्द विचारणीय है। ‘‘ठक्कुर’’ शब्द का प्रयोग प्राय: जागीरदार या जमींदार के लिए प्रयुक्त होता है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनों के लिए समानरूप से प्रयुक्त होता है अत: यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचंद्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण पर इतना निश्चय अवश्य है कि वे किसी सम्माननीय कुल के व्यक्ति रहे थे। संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघ के आचार्य थे।
समय विचार-डॉ. उपाध्ये ने इनका समय ईस्वी सन् की १० वीं शताब्दी के लगभग माना है। पट्टावली में अमृतचंद्र के पट्टारोहण का समय वि.सं. ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है। डॉ. नेमिचंद्र ज्योतिषाचार्य भी इनका समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी का अन्तिम भाग ही मानते हैं।
रचनायें-टीका ग्रन्थ-१. समयसार टीका, २. प्रवचनसार टीका, ३. पंचास्तिकाय टीका।
मौलिक ग्रन्थ-४. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ५. तत्त्वार्थसार, ६. समयसार कलश।
१. समयसार टीका-इस टीका का नाम ‘‘आत्मख्याति’’ है। इस टीका में आचार्यश्री ने गाथा के शब्दों का व्याख्यान न कर उसके अभिप्राय को अपनी परिष्कृत गवशैली में व्यक्त किया है। गाथा की टीका के अन्त में, कहीं-कहीं मध्य में भी कुछ पद्य काव्य दिए हैं जो सरस और मधुर हैं, इन्हीं काव्यों का ‘‘समयसार कलश’’ नाम से पृथव्â अस्तित्व भी है। टीका को नाटक के समान अंकों में विभाजित किया है। प्रारम्भिक भाग को पूर्व रंग कहा है। नाटक में पात्रों के प्रवेश निष्क्रमणवत् यहां भी प्रवेश और निष्क्रमण दिखाया है। यथा-‘‘जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रांतौ।’’ अर्थात् जीवाजीवाधिकार के प्रारम्भ में ‘‘जीव-अजीव पृथव्â-पृथव्â होकर चले गए।’’ इसी तरह प्रत्येक अधिकार में वर्णन है। वस्तुत: यह संसार एक रंगमंच है जिस पर जीव-अजीव नानारूप धारण करके अभिनय करते हैं।
शुद्धनय को प्राप्त करने के अधिकारी कौन हैं ? व्यवहारनय कहां तक उपयोगी है ? स्थल-स्थल पर टीका में अच्छा प्रकाश मिलता है। यथा-ये खलु पर्यंकपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परम भावमनुभवन्ति, तेषांंंंं……….शुद्धनयं एव…… प्रयोजनवान्। जो अंतिम पाक से उत्तीर्ण अर्थात् सोलह ताव को प्राप्त हुए सुवर्ण के सदृश परम भाव का अनुभव करते हैं उनके लिए शुद्धनय ही प्रयोजनवान् है और जो एक, दो आदि ताव से शुद्ध ऐसे अशुद्ध अपरमभाव का अनुभव करते हैं उनके लिए व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है। यहां स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे शुद्ध भाव का अनुभव शुद्धोपयोगी मुनि को ही होगा न कि श्रावक को या सरागचर्या वाले मुनि को, अत: संयमासंयमी और सरागसंयमी के लिए व्यवहारनय ही प्रयोजनीभूत है। श्री जयसेनस्वामी ने इसी अभिप्राय को अपने अतीव सरल शब्दों में कहा है ‘‘अपरम्-अशुद्ध असंयत् सम्यग्दृष्टि, श्रावक, प्रमत्तमुनि तथा भेदरत्नत्रय में स्थित शुभोपयोगी अप्रमत्त मुनि अपरम भाव का अनुभव करते हैं अत: उनके लिए व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है तथा अभेद रत्नत्रयरूप परम समाधि के काल में शुद्धोपयोगी मुनियों को शुद्धनय प्रयोजनीभूत है१।’’
आगे व्यवहारनय का महत्त्व दिखलाते हुए ४६वीं गाथा की टीका में श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं कि-
‘व्यवहारो हि ं ं ं ं ं ं परमार्थ प्रतिपादकत्वात् अपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्ति निमित्तं दर्शयितुं न्याय एव।’ व्यवहारनय, परमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थ होते हुए भी तीर्थ की प्रवृत्ति का निमित्त है अत: उसका वर्णन करना न्यायसंगत ही है। चूंकि यदि व्यवहारनय का उपदेश न दिया जाए तो निश्चय से तो जीव और शरीर भिन्न ही हैं पुन: उन त्रस्ा-स्थावर जीवों की राख के समान नि:शंक होकर मर्दन कर डालने पर भी हिंसा नहीं होनी चाहिए और हिंसा के अभाव में उसे पाप बंध भी नहीं होना चाहिए तथा….परमार्थ से जीव के राग, द्वेष, मोह भी नहीं है पुन: उनसे छूटने के लिए मोक्ष के लिए उपायभूत रत्नत्रय को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए और इस तरह से मोक्ष का भी अभाव हो जाएगा२।
तात्पर्य यही हुआ कि व्यवहारनय के आश्रय से ही संसार से छूटने का मार्ग ग्रहण किया जाता है।
इसी तरह श्रीअमृतचंद्रसूरि द्वारा रचित प्रवचनसार और पंचास्तिकाय की टीकायें भी स्याद्वादमय भाषा से परिपूर्ण होने से स्थल-स्थल पर एकांत दुराग्रही निश्चयाभाषी की कठोर भर्त्सना करती हैं और व्यवहाराभाषी को भी निश्चय का भान कराने में समर्थ हैं।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-यह मुख्यरूप से श्रावकाचार ग्रन्थ है, इसमें आठ अंगों के वर्णन में निश्चय-व्यवहार नयों का अच्छा विवेचन है। अहिंसाणुव्रत का वर्णन करते हुए आचार्यश्री मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलों के त्याग का आदेश देते हुए कहते हैं-
‘‘अष्टावनिष्टदुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य।
जिनधर्मदेशनाया: भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:।।७४।।’’
ये आठ अनिष्ट हैं, दुस्तर पाप के स्थान हैं, जो इनका त्याग कर देते हैं वे ही शुद्ध बुद्धि वाले मनुष्य जिनधर्म की देशना के लिए पात्र होते हैं।
समयसार की टीका, कलश काव्य आदि के रचयिता श्री अमृतचंद्रसूरि के उपर्युक्त शब्द ध्यान देने योग्य हैं। वास्तव में आज पात्रता न देखकर ही जो उपदेश दे देते हैं वह उनके लिए व शिष्यों के लिए भी हानिप्रद अर्थात् विपरीत हो जाता है। ऐसे ही पुरुषार्थसिद्धि ग्रन्थ का और भी एक श्लोक बहुत ही महत्त्वशाली है-
‘‘निरत:कार्त्स्न्यनिवृत्तौ भवति यति: समयसारभूतोऽयम्।
या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको भवति।।४१।।’’
ऊपर में पांच पाप के त्याग को चारित्र कहा है। पुन: श्लोक में कहते हैं कि जो इन पांचों पापों से पूर्णतया विरत हो चुके हैं-त्याग कर चुके हैं वे यति समयसारभूत होते हैं और जो इन पांच पापों का एक- देश त्याग करते हैं वे उनके उपासक होते हैं।
इन पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुनि ही समयसाररूप हैं और श्रावक उपासक कहलाते हैं। समयसार अवस्था को प्राप्त करने में वे समर्थ नहीं हैं।
इस पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में अहिंसा का जितना सुन्दर विवेचन है वैसा प्राय: अन्यत्र देखने में नहीं आता है अत: यह ग्रन्थ प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओं के लिए विशेषतया पठनीय है। ऐसे ही सत्य, अचौर्य आदि व्रतों का वर्णन भी इसमें बहुत ही मार्मिक है।
तत्त्वार्थसार-यों तो यह तत्त्वार्थसार ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र का व्याख्यान अथवा सार है फिर भी इसके विषयस्रोत गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थसूत्र के अतिरिक्त पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेव का तत्त्वार्थवार्तिक, प्राकृत पंचसंग्रह आदि ग्रन्थ हैं अत: इसे ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ ग्रन्थ के अभिप्राय को स्पष्ट करने वाला पद्यात्मक ग्रन्थ कहा जाए तो कोई बाधा नहीं है।
समयसार कलश-यद्यपि ये सभी कलश काव्य समयसार की ‘‘आत्मख्याति व्याख्या’’ टीका के अन्तर्गत ही हैं फिर भी काव्य के रसास्वादी साधु इन्हें पृथक् ग्रन्थ के रूप में लेकर उन पर टीका भी रच चुके हैं। ये काव्य कुल २७८ हैं। जैसे मन्दिर के ऊपर मणिमयी कलश चढ़ाने पर ही मन्दिर शोभित होता है वैसे ही समयसार टीकारूपी मन्दिर पर ये काव्य मणिमयी कलश के समान सुन्दर, मनोहर होने से सार्थक नाम वाले होते हैं। उदाहरण के लिए देखिए-
आत्मा का अनुभव करने वाले शुद्धोपयोगी मुनियों की वैâसी अद्वैत अवस्था होती है-
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं, क्वचिदपि न च विद्मो यातिनिक्षेपचक्रम्।
किमपरमभिदध्यो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्नुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।
उस समय नयों का उदय ही नहीं होता है, प्रमाण भी अस्त हो जाते हैं और पता ही नहीं कि निक्षेपसमूह कहां चले जाते हैं ? अधिक तो क्या कहें, सभी को समाप्त करने वाले इस अनुभवरूप तेज के प्रकट हो जाने पर भी कुछ भी ‘‘द्वैत’’ प्रतिभाषित नहीं होता है। उस समय मात्र आत्मानुभवरूप एक अद्वैत ही प्रतिभाषित होता है।
इस प्रकार से श्री अमृतचन्द्रसूरि अपने नाम के अनुसार ही आत्मानुभवरूपी अमृत का स्वयं तो पान करते ही होंगे किन्तु उनकी वाणी आज भी अगणित भव्यजीवों को जिनधर्मरूपी अमृत का पान करा रही है और आगे भी पता नहीं कितने जीवों को इस मधुर अमृत का पान कराती ही रहेगी।
आचार्यश्री अकलंकदेव
जैन दर्शन में अकलंकदेव एक प्रखर तार्किक और महान दार्शनिक आचार्य हुए हैं। बौद्धदर्शन में जो स्थान धर्मकीर्ति को प्राप्त है, जैन दर्शन में वही स्थान अकलंकदेव का है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रन्थ जैनदर्शन और जैन न्यायविषयक हैं।
श्री अकलंकदेव के सम्बन्ध में श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक स्थान पर स्मरण आया है।
अभिलेख संख्या ४७ में लिखा है-
षट्तर्वेâष्वकलंकदेव विबुध: साक्षादयं भूतले१।
अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्र में इस पृथ्वी पर साक्षात् वृहस्पति देव थे।
अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपाद के पश्चात् अकलंकदेव का स्मरण किया गया है-
‘‘तत: परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रे, सरोऽभूदकलंकसूरि:।
मिथ्यान्धकार स्थगिताखिलार्था:, प्रकाशिता यस्य वचोमयूखै:२।।’’
इनके बाद शास्त्रज्ञानी महामुनियों के अग्रणी श्री अकलंकदेव हुए जिनकी वचनरूपी किरणों के द्वारा मिथ्या अंधकार से ढके हुए अखिल पदार्थ प्रकाश्िात हुए हैं।
इनका जीवन परिचय, समय, गुरु परम्परा और इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इन चार बातों को संक्षेप से यहां दिखाया जाएगा-
जीवन परिचय-तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अंत में जो प्रशस्ति है उसके आधार से ये ‘‘लघुहव्वनृपति’’ के पुत्र प्रतीत होते हैं। यथा-
‘‘जीयाच्चिरम कलंकब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनय:।
अनवरतनिखिलजननुतविध: प्रशस्तजनहृदय:।।’’
लघुहव्वनृपति के श्रेष्ठ पुत्र श्री अकलंक ब्रह्मा चिरकाल तक जयशील होवें, जिनको हमेशा सभी जन नमस्कार करते थे और जो प्रशस्तजनों के हृदय के अतिशय प्रिय हैं।
ये कौन थे ? किस देश के थे ? यह कुछ पता नहीं चल पाया है। हो सकता है ये दक्षिण देश के राजा रहे हों। श्री नेमिचन्द्रकृत आराधना कथाकोष में इन्हें मंत्रीपुत्र कहा है। यथा-
मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मन्त्री का नाम पुरुषोत्तम था, उनकी पत्नी पद्मावती थीं। इनके दो पुत्र थे-अकलंक और निकलंक। एक दिन आष्टान्हिक पर्व में पुरुषोत्तम मंत्री ने चित्रगुप्त मुनिराज के समीप आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और उसी समय विनोद में दोनों पुत्रों को भी व्रत दिला दिया।
जब दोनों पुत्र युवा हुए तब पिता के द्वारा विवाह की चर्चा आने पर विवाह करने से इंकार कर दिया। यद्यपि पिता ने बहुत समझाया कि तुम दोनों को व्रत विनोद में दिलाया था तथा वह आठ दिन के लिए ही था किन्तु इन युवकों ने यही उत्तर दिया कि-पिताजी व्रत ग्रहण में विनोद वैâसा ? और हमारे लिए आठ दिन की मर्यादा नहीं की थी।
पुन: ये दोनों बाल ब्रह्मचर्य के पालन में दृढ़प्रतिज्ञ हो गए और धर्माराधना में तथा विद्याध्ययन में तत्पर हो गए। ये बौद्ध शास्त्रों के अध्ययन हेतु ‘‘महाबोधि’’ स्थान में बौद्ध धर्माचार्य के पास पढ़ने लगे। एक दिन बौद्ध गुरु पढ़ाते-पढ़ाते कुछ विषय को नहीं समझा सके तो वे चिन्तित हो बाहर चले गए। वह प्रकरण सप्त- भंगी का था, अकलंक ने समय पाकर उसे देखा, वहां कुछ पाठ समझकर उसे शुद्ध कर दिया। वापस आने पर गुरु को शंका हो गई कि यहां कोई विद्यार्थी जैनधर्मी अवश्य है। उसकी परीक्षा की जाने पर ये अकलंक-निकलंक पकड़े गए। इन्हें जेल में डाल दिया गया। उस समय रात्रि में धर्म की शरण लेकर ये दोनों वहां से भाग निकले। प्रात: इनकी खोज शुरू हुई। नंगी तलवार हाथ में लिए घुड़सवार दौड़ाए गए।
जब भागते हुए इन्हें आहट मिली, तब निकलंक ने भाई से कहा-भाई! आप एकपाठी हैं अत: आपके द्वारा जैनशासन की विशेष प्रभावना हो सकती है अत: आप इस तालाब के कमलपत्र में छिपकर अपनी रक्षा कीजिए। इतना कहकर वे अत्यधिक वेग से भागने लगे। इधर अकलंक ने कोई उपाय न देख अपनी रक्षा कमलपत्र में छिपकर की और निकलंक के साथ एक धोबी भी भागा। तब ये दोनों मारे गए।
कुछ दिन बाद एक घटना हुई वह ऐसी है कि-
रत्नसंचयपुर के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने फाल्गुन की आष्टान्हिका में रथयात्रा महोत्सव कराना चाहा। उस समय बौद्धों के प्रधान आचार्य संघश्री ने राजा के पास आकर कहा कि जब कोई जैन मेरे से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त कर सकेगा तभी यह जैन रथ निकल सकेगा अन्यथा नहीं। महाराज ने यह बात रानी से कह दी। रानी अत्यधिक चिंतित हो जिनमन्दिर में गई और वहां मुनियों को नमस्कार कर बोली-प्रभो! आप में से कोई भी इस बौद्ध गुरु से शास्त्रार्थ करके उसे पराजित कर मेरा रथ निकलवाइये। मुनि बोले-रानी! हम लोगों में एक भी ऐसा विद्वान नहीं है। हाँ, मान्यखेटपुर में ऐसे विद्वान मिल सकते हैं। रानी बोली-गुरुवर! अब मान्यखेटपुर से विद्वान आने का समय कहाँ है ? वह चिंतित हो जिनेन्द्रदेव के समक्ष पहुँची और प्रार्थना करते हुए बोली-भगवन्! यदि इस समय जैनशासन की रक्षा नहीं होगी तो मेरा जीना किस काम का ? अत: अब मैं चतुराहार का त्याग कर आपकी ही शरण लेती हूँ। ऐसा कहकर उसने कायोत्सर्ग धारण कर लिया।
उसके निश्चल ध्यान के प्रभाव से पद्मावती देवी का आसन कंपित हुआ। उसने जाकर कहा-देवि! तुम चिन्ता छोड़ो, उठो, कल ही निकलंक देव आयेंगे जो कि तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष होंगे। रानी ने घर आकर यत्र-तत्र किंकर दौड़ाए। अकलंकदेव बगीचे में अशोकवृक्ष के नीचे ठहरे हैं सुनकर वहां पहुँची। भक्तिभाव से उनकी पूजा की और अश्रु गिराते हुए अपनी विपदा कह सुनाई। अकलंकदेव ने उसे आश्वासन दिया और वहां आये। राज्यसभा में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। प्रथम दिन ही संघश्री घबड़ा गया और उसने अपने इष्टदेव की आराधना करके तारादेवी को शास्त्रार्थ करने के लिए घट में उतारा।
छह महीने तक शास्त्रार्थ चलता रहा किन्तु तारादेवी भी अकलंकदेव को पराजित नहीं कर सकी। अंत में अकलंक को चिंतातुर देख चक्रेश्वरी देवी ने उन्हें उपाय बतलाया। प्रात: अकलंकदेव ने देवी से समुचित प्रत्युत्तर न मिलने से परदे के अन्दर घुसकर घड़े को लात मारी जिससे वह देवी पराजित हो भाग गई और अकलंकदेव के साथ-साथ जैनशासन की विजय हो गई। रानी के द्वारा कराई जाने वाली रथयात्रा बड़े धूमधाम से निकली और जैनधर्म की महती प्रभावना हुई। श्री मल्लिषेण प्रशस्ति में इनके विषय में विशेष श्लोक पाए जाते हैं। यथा-
तारा येन विनिर्जिता घटकुटीगूढ़ावतारा समं।
बौद्धैर्यो धृतपीठपीडितकुदृग्देवात्तसेवांजलि:।।
प्रायश्चित्तमिवांघ्रिव्ाारिजरजस्नानं च यस्याचरत्।
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलंक: कृती।।२०।।
चूर्णि ‘‘यस्येदमात्मनोऽनन्यसामान्यनिरवद्यविद्या-विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते।’’
राजन्साहसतुंग संति वहव: श्वेतातपत्रा नृपा:
किन्तु त्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुर्लभा:।
त्वद्वत्संति बुधा न संति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो,
नानाशास्त्रविचारचातुरधिय: काले कलौ मद्विधा:।।२१।।
आगे २३ वें श्लोक में कहते हैं-
नाहंकारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं,
नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्ध्या मया।
राज्ञ: श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनो
बौद्धौघान् सकलान् विजित्य सुगत: पादेन विस्फोटित:१।।
अर्थात् महाराज हिमशीतल की सभा में मैंने सर्व बौद्ध विद्वानों को पराजित कर सुगत को पैर से ठुकराया। यह न तो मैंने अभिमान के वश होकर किया, न किसी प्रकार के द्वेष भाव से किन्तु नास्तिक बनकर नष्ट होते हुए जनों पर मुझे बड़ी दया आई इसलिए मुझे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा है।
इस प्रकार से संक्षेप में इनका जीवन परिचय दिया गया है।
समय-डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने इनका समय ईस्वी सन् की ८वीं शती सिद्ध किया है। पं. वैâलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इनका समय ईस्वी सन् ६२०-६८० तक निश्चित किया है किन्तु महेन्द्रकुमार जी न्या. के अनुसार यह समय ई. सन् ७२०-७८० आता है।
गुरुपरम्परा-देवकीर्ति की पट्टावली में श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्ट पर उमास्वामी अपरनाम गृद्धपिच्छ आचार्य हुए। उनके पट्ट पर श्री पूज्यपाद हुए पुन: उनके पट्ट पर श्रीअकलंकदेव हुए।
‘‘अजनिष्टाकलंक यज्जिनशासनमादित:।
अकलंकं बभौ येन सोऽकलंको महामति:२।।१०।।’’
‘‘श्रुतमुनि-पट्टावली’’ में इन्हें पूज्यपाद स्वामी के पट्ट३ पर आचार्य माना है। इसके संघ भेद की चर्चा की है।
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ-
इनके द्वारा रचित स्वतन्त्र ग्रन्थ चार हैं और टीका ग्रन्थ दो हैं-
१. लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञविवृति सहित), २. न्यायविनिश्चय (सवृत्ति), ३. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति),
४. प्रमाण संग्रह (सवृत्ति)।
टीका ग्रन्थ-१. तत्त्वार्थवार्तिक (सभाष्य), २. अष्टशती (देवागम विवृत्ति)।
लघीयस्त्रय-इस ग्रन्थ में प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश और निक्षेप प्रवेश ये तीन प्रकरण हैं। ७८ कारिकायें हैं, मुद्रित प्रति में ७७ ही हैं। श्री अकलंकदेव ने इस पर संक्षिप्त विवृत्ति भी लिखी है, जिसे स्वोपज्ञविवृत्ति कहते हैं। श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने इसी ग्रन्थ पर ‘‘न्याय कुमुदचन्द्र’’ नाम से व्याख्या रची है जो कि न्याय का एक अनूठा ग्रन्थ है।
न्यायविनिश्चय-इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं। कारिकायें ४८० हैं। इनकी विस्तृत टीका श्री वादिराजसूरि ने की है। यह ग्रन्थ ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
सिद्धि विनिश्चय-इस ग्रन्थ में १२ प्रस्ताव हैं। इसकी टीका श्री अनन्तवीर्यसूरि ने की है। यह भी ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
प्रमाण संग्रह-इसमें ९ प्रस्ताव हैं और ८७ कारिकाएं हैं। यह ग्रन्थ ‘‘अकलंक ग्रन्थत्रय’’ में सिंधी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ की प्रशंसा में धनंजय कवि ने नाममाला में एक पद्य लिखा है-
प्रमाणमकलंकस्य, पूज्यपादस्य लक्षणम्।
धनंजयकवे: काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम्।।
अकलंकदेव का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनंजय कवि का काव्य ये अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय-तीन रत्न हैं।
वास्तव में जैन न्याय को अकलंक की सबसे बड़ी देन है, इनके द्वारा की गई प्रमाण व्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों को मान्य रही है।
तत्त्वार्थवार्तिक-यह ग्रन्थ श्री उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र की टीकारूप है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र पर वार्तिकरूप में व्याख्या लिखे जाने के कारण इसका ‘‘तत्त्वार्थवार्तिक’’ यह सार्थक नाम श्री भट्टाकलंकदेव ने ही दिया। इस ग्रन्थ की विशेषता यही है कि इसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों पर वार्तिक रचकर उन वार्तिकों पर भी भाष्य लिखा गया है अत: यह ग्रन्थ अतीव प्रांजल और सरल प्रतीत होता है।
अष्टशती-श्री स्वामी समन्तभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा की यह भाष्यरूप टीका है। इस वृत्ति का प्रमाण ८०० श्लोक प्रमाण है अत: इसका ‘‘अष्टशती’’ यह नाम सार्थक है।
जैनदर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र अनेकांतवाद के सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं। उन्होंने श्री उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं’’ आदि को लेकर आप्त-सच्चे देव की मीमांसा करते हुए ११५ कारिकाओं द्वारा स्याद्वाद की प्रक्रिया को दर्शाया है। उस पर श्री भट्टाकलंकदेव ने ‘‘अष्टशती’’ नाम से भाष्य बनाया है और इस भाष्य को वेष्टित करके श्री विद्यानन्द आचार्य ने ८००० श्लोक प्रमाणरूप से ‘‘अष्टसहस्री’’ नाम का सार्थक टीका ग्रन्थ तैयार किया और इसे ‘‘कष्टसहस्री’’ नाम भी दिया है। जैन दर्शन का यह सर्वोपरि ग्रन्थ है। मैंने पूर्वाचार्यों और अपने दीक्षा, शिक्षा आदि गुरुओं के प्रसाद से इस ‘‘अष्टसहस्री’’ ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है जिसके तीनों खण्ड ‘‘वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला’’ से प्रकाशित हो चुके हैं।
इस प्रकार से श्रीमद् भट्टाकलंक देव के बारे में मैंने संक्षिप्त वर्णन किया है। वर्तमान में ‘‘निकलंक का बलिदान’’ नाम से इनका नाटक खेला जाता है जो कि प्रत्येक मानव के मानसपटल पर जैनशासन की रक्षा और प्रभावना की भावना को अंकित किए बिना नहीं रहता है।
बाल्यकाल में ‘‘अकलंक निकलंक नाटक’’ देखकर ही मेरे हृदय में एक पंक्ति अंकित हो गई थी कि-
‘‘प्रक्षालनाद्धि पंवâस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’’
कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर न रखना ही अच्छा है। उसी प्रकार से गृहस्थावस्था में फंसकर पुन: निकलकर दीक्षा लेने की अपेक्षा गृहस्थ में न फंसना ही अच्छा है। इस पंक्ति ने ही मेरे हृदय में वैराग्य का अंकुर प्रगट किया था जिसके फलस्वरूप आज मैं उनके पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करते हुए उनके विषय में कुछ लिखने के लिए सक्षम हुई हूँ।
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी
श्री पूज्यपाद स्वामी एक महान आचार्य हुए हैं। श्री जिनसेन, शुभचन्द्र आचार्य आदि ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थ में उन्हें बड़े आदर से स्मरण किया है। यथा-
कवीनां तीर्थकृद्देव: किं तरां तत्र वर्ण्यते।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम्।।
जो कवियों में तीर्थंकर के समान थे और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानों के शब्द सम्बन्धी दोषों को नष्ट करने वाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्य का कौन वर्णन कर सकता है ?
अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाक्चित्तसंभवम्।
कलंकमंगिनां सोऽयं देवनंदी नमस्यते।।
जिनके वचन प्राणियों के शरीर, वचन और चित्त के सभी प्रकार के दोष को दूर करने में समर्थ हैं उन देवनन्दि आचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ अर्थात् श्री पूज्यपाद ने वैद्यक ग्रन्थ बनाकर काय सम्बन्धी दोष को दूर किया है, व्याकरण ग्रन्थ बनाकर वचन सम्बन्धी दोष को एवं समाधितन्त्र ग्रन्थ बनाकर मन सम्बन्धी दोष को दूर किया है।
इन पूज्यपाद स्वामी का जीवन परिचय, समय, गुरु परम्परा और इनके रचे हुए ग्रंथों का किंचित् विवरण किया जाता है।
जीवन परिचय-इनके पिता का नाम माधव भट्ट और माता का नाम श्रीदेवी था। ये कर्नाटक के ‘‘कोले’’ नामक ग्राम के निवासी थे और ब्राह्मण कुल के भूषण थे। इनका घर का नाम ‘‘देवनन्दि’’ था। ये एक दिन अपनी वाटिका में विचरण कर रहे थे कि उनकी दृष्टि सांप के मुख में फँसे हुए मेंढ़क पर पड़ी इससे उन्हें विरक्ति हो गयी और ये जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुनि हो गए। ये अपनी तपस्या के प्रभाव से महान प्रभावशाली मुनि हुए हैं। कथा में ऐसा वर्णन आता है कि ये अपने पैरों में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र में जाया करते थे। इनके विदेहक्षेत्र गमन का वर्णन प्रशस्ति के श्लोकों से भी स्पष्ट हो रहा है। यथा-
श्री पूज्यपादप्रतिमौषधर्द्धिर्जीयाद् विदेहजिनदर्शन-पूतगात्र:।
यत्पादधौतजलसंस्पर्शप्रभावात्, कालायसं किल तदा कनकीचकार।।१७।।
जिनके अप्रतिम औषधि ऋद्धि प्रगट हुई थी, विदेह क्षेत्र के जिनेन्द्रदेव के दर्शन से जिनका शरीर पवित्र हो चुका था, ऐसे पूज्यपाद स्वामी एक महान मुनि हुए हैं। इन्होंने अपने पैर के धोये हुए जल के स्पर्श के प्रभाव से लोहे को सोना बना दिया था।
इस श्लोक से इनकी ऋद्धि विशेष का और विदेहगमन का स्पष्टीकरण हो रहा है। कथानकों में ऐसा भी आया है कि ये पूज्यपाद मुनि बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। किसी समय एक देव ने विमान में इन्हें बैठाकर अनेक तीर्थों की यात्रा कराई। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई अत: उन्होंने शान्त्यष्टक रचकर ज्यों की त्यों दृष्टि प्राप्त की।
समय विचार-पूज्यपाद के समय के सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं है। आचार्य अकलंक देव ने अपने ‘‘तत्त्वार्थवार्तिक’’ में सर्वार्थसिद्धि के अनेकों वाक्यों को वार्तिक का रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथन की पुष्टि के लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों को प्रमाणरूप में उपस्थित किया है अत: पूज्यपाद अकलंकदेव के पूर्ववर्ती हैं इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इन्होंने अपने समाधिशतक में तो श्री कुन्दकुन्द देव के मोक्षपाहुड की अनेकों गाथायें ज्यों की त्यों संस्कृत में भाषान्तररूप की हैं तथा गृद्धपिच्छाचार्य का समय विक्रम की द्वितीय शताब्दी का अन्तिम पाद है अत: पूज्यपाद का समय विक्रम संवत् ३०० के पश्चात् ही संभव है।
पूज्यपाद स्वामी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण सूत्रों में भूतबलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है। नन्दिसेन की पट्टावली में देवनंदि का समय विक्रम सं. २५८-३०८ तक अंकित किया है१।
गुरु परम्परा-नंदिसंघ की पट्टावली में यशोनंदि आचार्य के पट्ट पर श्री देवनंदि आचार्य हुए हैं, ऐसा उल्लेख है।
इनकी रचनायें-श्री पूज्यपाद आचार्य द्वारा रचित अब तक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं-
१. दशभक्ति २. जन्माभिषेक (पंचामृताभिषेक), सर्वार्थसिद्धि, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धिप्रिय स्तोत्र।
१. सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति आदि नाम से ये भक्तियां ‘‘धर्मध्यान दीपक’’ और क्रियाकलाप आदि ग्रन्थों में छप चुकी हैं।
२. वर्तमान में एक जन्माभिषेक मुद्रित उपलब्ध है इसे पूज्यपाद द्वारा रचित माना गया है। इसकी रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है।
इस अभिषेक पाठ के विषय में शिलालेख संग्रह में भी लिखा है-
यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धि:।
श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयं।।
जैनेन्द्रं जिनशब्दभोगमतुलं सर्वार्थसिद्धि: परा।
सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेक: स्वक:।।
छन्दस्सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह सपूज्यपादमुनिप: पूज्यो मुनीनां गणै:२।।
अर्थात् इनका प्रथम नाम ‘‘देवनंदि’’ था पुन: बुद्धि की महत्ता से ये ‘‘जिनेन्द्र बुद्धि’’ कहलाये। देवताओं द्वारा उनके चरण युगल पूजे गए थे इसलिए ये ‘‘पूज्यपाद’’ कहलाये। इन श्री पूज्यपाद आचार्य ने जैनेन्द्र- व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक पाठ, समाधिशतक आदि ग्रन्थों की रचना की है।
३. सर्वार्थसिद्धि यह रचना ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ ग्रन्थ की विशद वृत्ति है इसका दार्शनिक और सैद्धांतिक विवेचन आचार्यवर्य की महान विद्वत्ता का प्रतीक है।
४. यह समाधितन्त्र ग्रन्थ अध्यात्म विषय का बहुत ही सुन्दर विवेचन करता है। आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ की विषयवस्तु कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से ही ग्रहण की है।
५. इस इष्टोपदेश ग्रन्थ में ५१ श्लोक में आचार्यश्री ने इष्ट आत्मतत्त्व की ओर ले जाने के लिए अध्यात्म सागर को गागर में ही भर दिया है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण ग्रन्थ में सर्वप्रथम सूत्र है ‘‘सिद्धिरनेकान्तात्’’। इस मंगलसूत्र के द्वारा आचार्यश्री ने शब्दों को भी अनेक धर्मात्मक करके अपने स्याद्वाद को सर्वोपरि और सार्वभौम सिद्ध कर दिया है।
७. सिद्धप्रिय स्तोत्र में चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है।
इनका एक वैद्यक ग्रन्थ भी उपलब्ध है। कहा जाता है कि वह अपूर्ण मिल पाया है।
इन पूज्यपाद आचार्य ने समाधितन्त्र, जैनाभिषेक, सिद्धिप्रिय स्तोत्र और दशभक्ति इन चार ग्रन्थों द्वारा ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्ति को उदात्त जीवन की भूमिका के लिए आवश्यक माना है यह स्पष्ट हो जाता है।
इसी प्रकार से उनके नेत्र ज्योति की मंदता पुन: प्रकाशमय करने वाली जो शांतिभक्ति है वह आज भी प्रत्येक भक्त के समस्त नेत्र रोगों को नष्ट करने में प्रसिद्ध है और एक दिगम्बर जैनाचार्य द्वारा वीतराग तीर्थंकर के प्रति उत्कृष्ट अनुराग का जाज्वल्यमान उदाहरण है। इस शांति भक्ति का आठवां श्लोक श्लेषालंकारमय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यथा-
शांतिं-शांति जिनेन्द्रशांतमनसस्त्वत्पादपद्माश्रयात्।
संप्राप्ता: पृथिवीतलेषु बहव: शान्त्यर्थिन: प्राणिन:।।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदत: शान्त्यष्टकं भक्तित:।।८।।
हे शांति जिनेन्द्र! इस पृथ्वीतल पर शांति के इच्छुक बहुत से प्राणी शान्तमना होकर आपके चरण- कमलों का आश्रय लेकर शान्ति को प्राप्त कर चुके हैं अत: मैं भी भक्तिपूर्वक आपके चरणयुगल की इस शान्त्यष्टक द्वारा स्तुति कर रहा हूँ, हे विभो! करुणा करके मुझ भक्त पर दृष्टि प्रसन्न करो अथवा दूसरा अर्थ यह है कि हे विभो! करुणा करके मुझ भक्त की दृष्टि-चक्षु प्रसन्न-निर्मल-निर्दोष करो। कहते हैं कि इस श्लोक के उच्चारण करते ही आचार्यश्री की नेत्र ज्योति स्वच्छ हो गई थी।
ऐसे पूज्यपाद स्वामी हमारी दृष्टि-सम्यग्दर्शन को निर्मल करें।
आचार्यश्री वीरसेन
जितात्मपरलोकस्य, कवीनां चक्रवर्तिन:।
वीरसेनगुरो: कीर्तिरकलंकावभासते१।।
जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं ऐसे श्री वीरसेन स्वामी की निर्मल कीर्ति प्रकाशित हो रही है।
ये आचार्य वीरसेन किनके शिष्य थे ? इनका समय क्या था ? इन्होंने क्या-क्या रचनायें कीं ? आदि संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
जीवन परिचय-आचार्यदेव ने स्वयं अपनी धवला टीका की प्रशस्ति में अपने गुरु का नाम एलाचार्य लिखा है पर इसी प्रशस्ति की चौथी गाथा में गुरु का नाम आर्यनंदि और दादा गुरु का नाम चन्द्रसेन कहा है। डॉ. हीरालाल जैन का अनुमान है कि एलाचार्य इनके विद्यागुरु और आर्यनंदि इनके दीक्षागुरु थे।
इस प्रशस्ति से श्री वीरसेनाचार्य सिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्वान, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय के वेत्ता तथा भट्टारक पद से विभूषित थे, ऐसा स्पष्ट है।
जो भी हो एलाचार्य गुरु का वात्सल्य इन पर असीम था ऐसा स्पष्ट है, वे किसी न किसी रूप में इनके गुरु अवश्य थे। यथा-‘‘जीब्भमेलाइरियवच्छओ ये’’ स्वयं इस वाक्य में अपने को एलाचार्य का ‘‘वत्स’’ कहते हैं। ऐसे और भी अनेक स्थलों पर स्वयं आचार्य ने अपने को एलाचार्य का वत्स लिखा है।
समय निर्णय-इनका समय विवादास्पद नहीं है। इनके शिष्य जिनसेन ने इनकी अपूर्ण जयधवला टीका को शक संवत् ७५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमी को पूर्ण किया है अत: इस तिथि के पूर्व ही वीरसेनाचार्य का समय होना चाहिए इसलिए इनका समय ईस्वी सन् की ९वीं शताब्दी (८१६) का है।
इनकी रचनाएं-इनकी दो ही रचनायें प्रसिद्ध हैं। एक धवला टीका और दूसरी जयधवला टीका। इनमें से द्वितीय टीका तो अपूर्ण रही है।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में दिया है कि ‘‘षट्खण्डागम’’ सूत्र पर श्री वप्पदेव की टीका लिख जाने के उपरान्त कितने ही वर्ष बाद सिद्धान्तों के वेत्ता एलाचार्य हुए, ये चित्रकूट में निवास करते थे, श्री वीरसेन ने इनके पास सम्पूर्ण सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन किया, अनन्तर गुरु की अनुज्ञा लेकर वाटग्राम में पहुंचे, वहां पर आनतेन्द्र द्वारा बनवाये गये जिनमन्दिर में ठहरे, वहां पर श्री बप्पदेवकृत टीका पढ़ी। अनन्तर उन्होंने ७२००० श्लोक प्रमाण में समस्त षट्खण्डागम पर ‘‘धवला’’ नाम से टीका रची। यह टीका प्राकृत और संस्कृत भाषा में मिश्रित होने से ‘‘मणिप्रवालन्याय’’ से प्रसिद्ध है।
दूसरी रचना ‘‘कसायपाहुड सुत्त’’ पर ‘‘जयधवला’’ नाम से टीका है। इसको वे केवल २०००० श्लोक प्रमाण ही लिख पाये थे कि वे असमय में स्वर्गस्थ हो गए। इस तरह एक व्यक्ति ने अपने जीवन में ९२००० श्लोक प्रमाण रचना लिखी, यह एक आश्चर्य की बात है। श्री वीरसेन स्वामी ने वह कार्य किया है, जो कार्य महाभारत के रचयिता ने किया है। महाभारत का प्रमाण १००००० श्लोक है और इनकी टीकायें भी लगभग इतनी ही बड़ी हैं। अतएव ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्।’’ जो इसमें है सो ही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है सो कहीं पर नहीं है यह उक्ति यहां भी चरितार्थ है।
इन टीकाओं से आचार्य के ज्ञान की विशेषता के साथ-साथ सैद्धान्तिक विषयों का इनका कितना सूक्ष्म तलस्पर्शी अध्ययन था, यह दिख जाता है।
वीरसेनाचार्य ने अपनी टीका में जिन आचार्यों के नाम का निर्देश ग्रंथोल्लेखपूर्वक किया है वे निम्न प्रकार हैं-
१. गृद्धपिच्छाचार्य का तत्त्वार्थसूत्र २. तत्त्वार्थभाष्य (तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य) ३. सन्मतिसूत्र, ४. सत्कर्मप्राभृत ५. पिंडिया ६. तिलोयपण्णत्ति ७. व्याख्याप्रज्ञप्ति ८. पंचास्तिकायप्राभृत ९. जीवसमास १०. पूज्यपाद विरचित सारसंग्रह ११. प्रभाचन्द्र भट्टारक (ग्रन्थकार) १२. समंतभद्रस्वामी (ग्रंथकार) १३. छंदसूत्र, १४. सत्कर्म प्रकृतिप्राभृत १५. मूलतन्त्र १६. योनिप्राभृत और सिद्धिविनिश्चय।
और भी ग्रन्थों के उद्धरण या नाम भी धवला टीका में पाये जाते हैं।
१. आचारांग निर्युक्ति २. मूलाचार ३. प्रवचनसार ४. दशवैकालिक ५. भगवती आराधना
६. अनुयोगद्वार ७. चारित्रप्राभृत ८. स्थानांगसूत्र ९. शाकटायन न्यास, १०. आचारांगसूत्र, ११. लघीयस्त्रय
१२. आप्तमीमांसा १३. युक्त्यनुशासन, १४. विशेषावश्यक भाष्य, १५. सर्वार्थसिद्धि १६. सौंदरनन्द
१७. धनंजयनाममाला-अनेकार्थनाममाला १८. भावप्राभृत १९. वृहत्त्स्वयंभूस्तोत्र २०. नंदिसूत्र २१. समावायांग, २२. आवश्यकसूत्र २३. प्रमाणवार्तिक २४. सांख्यकारिका २५. कर्मप्रकृति।
धवला टीका में जिन गाथाओं को उद्धृत किया है उनमें से अधिकांश गाथायें गोम्मटसार, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और वसुनंदिश्रावकाचार में भी पायी जाती हैं अत: यह अनुमान होता है कि इन प्राचीन गाथाओं का स्रोत एक ही रहा है क्योंकि गोम्मटसार आदि ग्रंथ धवला टीका से बाद के ही हैं।
जयधवला की प्रशस्ति में कहा है-
‘‘टीका श्री वीरसेनीया शेषा: पद्धतिपंजिका१।’’
श्री वीरसेन की टीका ही यथार्थ टीका है शेष टीकायें तो पद्धति या पंजिका हैं।
वास्तव में श्री वीरसेन स्वामी को महाकर्मप्रकृति प्राभृत और कषायप्राभृत सम्बन्धी जो भी ज्ञान गुरु- परम्परा से उपलब्ध हुआ, उसे इन दोनों टीकाओं में यथावत् निबद्ध किया है। आगम की परिभाषा में ये दोनों टीकायें दृष्टिवाद के अंगभूत दोनों प्राभृतों का प्रतिनिधित्व करती हैं अतएव इन्हें यदि स्वतन्त्र ग्रंथ संज्ञा दी जाए तो भी अनुपयुक्त नहीं है। यही कारण है कि आज ‘‘षट्खण्डागम’’ सिद्धान्त धवल सिद्धान्त के नाम से और ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ जयधवल सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध हैं।
ज्योतिष एवं गणित विषय-इस महासिद्धान्त ग्रन्थ में ज्योतिष, निमित्त और गणितविषयक भी महत्त्वपूर्ण चर्चाएं हैं। ५वीं शताब्दी से लेकर ८वीं शताब्दी तक ज्योतिषविषयक इतिहास लिखने के लिए इनका यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है। ज्योतिष सम्बन्धी चर्चाओं में नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा संज्ञाओं के नाम हैं। रात्रि मुहूर्त की चर्चा है। निमित्तों में व्यंजन और छिन्न निमित्तों की चर्चायें हैं।
इसमें प्रधानरूप से एक वर्ण समीकरण, अनेक वर्ण समीकरण, करणी, कल्पित राशियाँ, समानान्तर, गुणोत्तर, व्युत्क्रम आदि बीजगणित सम्बन्धी प्रक्रियायें हैं। धवला में अ३ को अ के घन का प्रथम वर्गमूल कहा है। अ९ को अ के घन का घन बताया है। अ६ को अ के वर्ग का घन बतलाया है, इत्यादि।
आचार्यश्री की पापभीरुता-श्री वीरसेन स्वामी आचार्यों के वचनों को साक्षात् भगवान की वाणी समझते थे और परस्पर विरुद्ध प्रकरण में कितना अच्छा समाधान दिया है। इससे इनकी पापभीरुता सहज ही परिलक्षित होती है। उदाहरण देखिए-
‘‘आगम का यह अर्थ प्रामाणिक गुरु परम्परा के क्रम से आया है यह वैâसे निश्चय किया जाए ?
नहीं, क्योंकि……ज्ञान विज्ञान से युक्त इस युग के अनेक आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रमाणता जाननी चाहिए।’’२
श्री वीरसेन स्वामी जयधवला टीका करते समय गाथा सूत्रों को और चूर्णि सूत्रों को कितनी श्रद्धा से देखते हैं-
‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतम, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथा स्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं३।’’
इस प्रकरण से यह स्पष्ट है कि कषायप्राभृत ग्रन्थ साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि तुल्य है।
जब किसी स्थल पर दो मत आये हैं तब वैâसा समाधान है ?
‘‘दोनों प्रकार के वचनों में से किस वचन को सत्य माना जाए ?’’
‘‘इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता क्योंकि इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है इसलिए पापभीरू वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिए अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जावेगा४।’’
एक जगह वनस्पति के विषय में कुछ प्रश्न होने पर तो वीरसेन स्वामी कहते हैं कि-‘‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो’’ यहाँ गौतम स्वामी से पूछना चाहिए अर्थात् हम इसका उत्तर नहीं दे सकते। तब बताइए इससे अधिक पापभीरुता और क्या होगी ? वास्तव में ये आचार्य अपने गुरु परम्परा से प्राप्त जानकारी के अतिरिक्त मन से कुछ निर्णय देना पाप ही समझते थे। इन आचार्यों के ऐसे प्रकरणों से आज के विद्वानों को शिक्षा लेनी चाहिए जो कि किसी भी विषय में निर्णय्ा देते समय आचार्यों को अथवा उनके ग्रन्थों को भी अप्रमाणिक कहने में अतिसाहस कर जाते हैं।
श्री भगवज्जिनसेनाचार्य
आचार्य जिनसेन सिद्धान्त और पुराण के रचयिता अपने समय के एक महान आचार्य हुए हैं। इन्हें आज ‘‘भगवज्जिनसेनाचार्य’’ एवं इनके महापुराण ग्रन्थ को ‘‘आर्षग्रंथ’’ के रूप में मान्यता प्राप्त है।
इनका परिचय, समय, रचनायें और इनकी विशेषताएं किंचित् रूप में यहां बताई जा रही हैं-
जीवन परिचय-इन्होंने किस जाति, कुल और देश को विभूषित किया है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है फिर भी इनका सम्बन्ध चित्रकूट के साथ होने से तथा राजा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होने से इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमाभूमि अनुमानित किया जा सकता है।
हां, अपने दीक्षित जीवन का परिचय ‘‘जयधवला’’ की प्रशस्ति में स्वयं आचार्य जिनसेन ने अलंकारिक भाषा में दिया है-
‘‘उन वीरसेन स्वामी के शिष्य श्रीमान् जिनसेन हुए जो कि उज्ज्वल बुद्धि के धारक थे। उनके कान यद्यपि अबिद्ध थे तो भी ज्ञानरूपी शलाका से बेधे गए थे। निकट भव्य होने के कारण मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्सुक होकर मानो स्वयं ही वरण करने की इच्छा से उनके लिए श्रुतमाला की योजना की थी। जिनने बाल्यकाल से ही अखंडित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था फिर भी आश्चर्य है कि उन्होंने स्वयंवर की विधि से सरस्वती का उद्वहन किया था। जो न तो बहुत सुन्दर थे और न चतुर ही, फिर भी सरस्वती ने अनन्यशरणा होकर उनकी सेवा की थी। बुद्धि, शांति और विनय ये ही जिनके स्वाभाविक गुण थे, इन्हीं गुणों से जो गुरुओं की आराधना करते थे सो ठीक ही है, गुणों के द्वारा किसकी आराधना नहीं होती ? जो शरीर से कृश थे परन्तु तपरूपी गुणों से कृश नहीं थे। वास्तव में शरीर की कृशता-कृशता नहीं है, जो गुणों से कृश है वही कृश है। जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्य शास्त्र पक्ष में तैरने का घड़ा) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन ही किया फिर भी जो अध्यात्म विद्या के द्वितीय पार को प्राप्त हो गए। जिनका काल निरंतर ज्ञान की आराधना में ही व्यतीत हुआ था और इसलिए तत्त्वदर्शी उन्हें ज्ञानमय पिण्ड कहते हैं१।’’
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि इन्होंने बहुत ही छोटी उम्र में दीक्षा ले ली थी। किंवदन्ती भी यही है कि इनका कर्णवेधन संस्कार भी नहीं हुआ था जब ही ये दिगम्बर मुनि के पास अध्ययन हेतु छोड़ दिए गए थे। इनका सिद्धान्त, काव्य, अलंकार, न्याय, छन्द, ज्योतिष, गणित, राजनीति आदि सभी विषय पर पूर्ण अधिकार था जभी इन्होंने स्वयं अपने को सरस्वती को विवाहने वाला कहा है।
इनके गुरु का नाम वीरसेन और दादा गुरु का नाम आर्यनन्दि था। वीरसेन के गुरू भाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेन ने अपने आदिपुराण में ‘‘जयसेन’’ का भी गुरू रूप में स्मरण किया है।
समय-जिनसेनाचार्य के समय में राजनैतिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा शास्त्र समुन्नति का वह युग था। इनके समकालीन नरेश राष्ट्र कूटवंशी जयतुंग और नृपतुंग अपरनाम अमोघवर्ष थे जो ईस्वी सन् ८१५-८७७ में थे। जयधवला टीका की प्रशस्ति में स्वयं ही आचार्य ने लिखा है कि शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला १० के दिन पूर्वाह्न में यह टीका पूर्ण हुई अत: ईस्वी सन् की ८वीं शती का उत्तरार्ध ही इनका समय है।
रचनायें-१. जयधवला टीका, २. पार्श्वाभ्युदय ३. वर्धमान पुराण ४. आदिपुराण (महापुराण)।
१. जयधवला टीका-वीरसेन स्वामी ने एलाचार्य गुरु के पास सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन करके षट्खण्डागम सूत्रों पर ७२,००० श्लोक प्रमाण से धवला टीका रची और ‘‘कसायपाहुड’’ सुत्त पर ‘‘जयधवला’’ नाम से टीका रचना प्रारम्भ की, २०,००० श्लोक प्रमाण टीका रचना कर चुके थे कि वे स्वर्गवासी हो गए। तब उनके सुयोग्य शिष्य भगवज्जिनसेन ने ४०,००० श्लोक प्रमाण में उस ‘‘जयधवला’’ टीका को आगे लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका श्री वीरसेन स्वामी की शैली में ही संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में मणिप्रवाल न्याय से लिखी गई है। इसी से श्री जिनसेनाचार्य का वैदुष्य और रचना चातुर्य प्रगट हो रहा है। प्रशस्ति में उन्होंने कहा है कि गुरु के द्वारा ‘‘बहुवक्तव्य’’ पूर्वार्ध के प्रकाशित किए जाने पर मैंने उसको देखकर इस ‘‘अल्पवक्तव्य’’ उत्तरार्ध को पूरा किया है।
२. पार्श्वाभ्युदय-यह कालिदास के मेघदूत काव्य की समस्यापूर्ति है। इस काव्य में सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है। पार्श्वनाथ भगवान ध्यान में लीन हैं। कमठचर (शंबर नामक ज्योतिषदेव) उन पर उपसर्ग करता है। यही इस काव्य का विषय है। श्रृंगार रस से ओतप्रोत मेघदूत को शांतरस में परिवर्तित कर देना यही इसकी विशेषता है।
इस काव्य की प्रशंसा में श्री योगिराज पंडिताचार्य ने लिखा है कि ‘‘श्री पार्श्वनाथ से बढ़कर कोई साधु, कमठ से बढ़कर कोई दुष्ट और पार्श्वाभ्युदय से बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलाई देता है१।’’ प्रो. श्री के.बी. पाठक ने रॉयल एशियाटिक सोसायटी में कुमारिलभट्ट और भर्तृहरि के विषय में निबन्ध पढ़ते समय जिनसेन और उनके पार्श्वाभ्युदय के विषय में जो शब्द कहे हैं वे कितने अच्छे हैं-
‘‘जिनसेन अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यकाल में हुए हैं, जैसा कि उन्होंने पार्श्वाभ्युदय में कहा है। पार्श्वाभ्युदय संस्कृत साहित्य में एक उत्कृष्ट रचना है। यह उस समय के साहित्य स्वाद का उत्पादक और दर्पणरूप अनुपम काव्य है। यद्यपि सर्वसाधारण की सम्मति से भारतीय कवियों में कालिदास को पहला स्थान दिया गया है तथापि जिनसेन मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा अधिवर््ेाâतर योग्य समझे जाने के अधिकारी हैं।’’
इस काव्य में एक पंक्ति सूक्तिरूप में बहुत ही सुन्दर है-
‘‘पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव।’’
पापों के नष्ट करने में सर्वप्रथम कारण जिनेन्द्रदेव की भक्ति ही कही गई है।
३. वर्धमान पुराण-हरिवंश पुराण में इसका उल्लेख आया है किन्तु यह अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है।
४. महापुराण-इस महापुराण के पूर्वार्ध को ‘‘आदिपुराण’’ एवं उत्तरार्ध को ‘‘उत्तरपुराण’’ कहते हैं। पूर्वार्ध आदिपुराण में ४७ पर्व हैं जिनमें प्रारम्भ के ४२ पर्व और तेंतालीसवें पर्व के मात्र ३ श्लोक जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं। शेष पर्वों के १६२० श्लोक उनके शिष्य भदंत गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित हैं।
इस पुराण को महापुराण नाम क्यों दिया है ? इसके लिए श्री जिनसेनाचार्य ने कहा है-
‘‘यह ग्रन्थ अत्यंत प्राचीनकाल से प्रचलित है इसलिए ‘‘पुराण’’-पुराना कहलाता है। इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान कल्याण की प्राप्ति होती है इसलिए इसे ‘‘महापुराण’’ कहते हैं। ं ं ं ं ं ं यह ग्रन्थ ऋषिप्रणीत होने से ‘‘आर्ष’’ सत्यार्थ का निरूपक होने से ‘‘सूक्त’’ तथा धर्म का प्ररूपक होने से धर्मशास्त्र माना जाता है ‘‘इति इह आसीत्’’ यहाँ ऐसा हुआ, ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण इसे ‘‘इतिहास’’ ‘‘इतिवृत्त’’ और ‘‘ऐतिहासिक’’ भी कहते हैं१।’’
यह महापुराण अनेक सूक्तियों की उत्पत्ति का स्थान-रत्नाकर है ऐसा स्वयं इसमें वर्णित है-
‘‘यथा महार्घ्यरत्नानां प्रसूतिर्मिकरालयात्।
तथैव सूक्तरत्नानां प्रभवोऽस्मात्पुराणत:२।।’’
जिस प्रकार महामूल्यवान् रत्नों की उत्पत्ति समुद्र से होती है उसी प्रकार सुभाषितरूपी रत्नों की उत्पत्ति इस पुराण से होती है।
इस महापुराण ग्रंथ में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण और ९ बलभद्र ऐसे
६३ महापुरुषों का जीवन संगृहीत है।
इसकी काव्यछटा, अलंकार गुम्फन, प्रसाद, ओज और माधुर्य का अपूर्व सुमेल, शब्दचातुरी और बंध अपने ढंग के अनोखे हैं। भारतीय साहित्य के कोषागार में जो इने-गिने महान ग्रन्थरत्न हैं उनमें स्वामी जिनसेन की यह कृति महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
डॉ. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखते हैं-
‘‘यह आकर ग्रंथ है, पुराण होते हुए भी इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृत, समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि विषय भी समाविष्ट हैं।’’
इस महापुराण के पूर्वार्ध में भगवान आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर और भरत सम्राट् प्रथम चक्रवर्ती का सविस्तार वर्णन है। प्रसंगानुसार प्रथम कामदेव श्री बाहुबलि और जयकुमार (सेनापति) का भी सुन्दर जीवनवृत्त वर्णित है। उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र इनका जीवन परिचय वर्णित है।
एक कथा प्रसिद्ध है कि जब जिनसेन स्वामी को इस बात का विश्वास हो गया कि अब मेरा जीवन समाप्त होने वाला है और मैं महापुराण को पूरा नहीं कर सवूँâगा तब उन्होंने अपने सबसे योग्य दो शिष्य बुलाये। बुलाकर उनसे कहा कि ‘‘यह जो सूखा वृक्ष सामने खड़ा है इसका काव्यवाणी में वर्णन करो।’’ गुरू वाक्य सुनकर उनमें से पहले ने कहा, ‘‘शुष्कं काष्ठं तिष्ठत्यग्रे’’ फिर दूसरे शिष्य ने कहा ‘‘नीरसतरुरिह विलसति पुरत:।’’ गुरू को द्वितीय शिष्य की वाणी में रस दिखा अत: उन्होंने उसे आज्ञा दी कि तुम महापुराण को पूरा करो। गुरुआज्ञा के अनुसार द्वितीय शिष्य ने उस महापुराण को पूर्ण किया, वे द्वितीय शिष्य ही गुणभद्र नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
‘‘वास्तव में वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र इन तीनों आचार्यों का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक दूसरे के अनुपूरक हैं। वीरसेन के अपूर्ण कार्य को जिनसेन ने पूर्ण किया है और जिनसेन के अपूर्ण कार्य को गुणभद्र ने।’’
इस महापुराण में एक प्रकरण वर्ण व्यवस्था का है, जिस विषय पर कुछ विद्वानों में अर्थ करने में मतभेद चल रहा है, उसके विषय में भी यहाँ समझ लेना आवश्यक है।
जब कल्पवृक्ष नष्ट होने लगे तब प्रजा ने आकर प्रभु से प्रार्थना की, उस समय भगवान वृषभदेव प्रजा को आश्वासन देकर सोचते हैं कि-
पूर्वापरविदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता।
साद्य प्रवर्त्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमू: प्रजा:।।१४३।।
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थिति:।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्च पृथग्विधा:१।।१४४।।
पूर्व और पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करना चाहिए, उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जिस प्रकार असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की व्यवस्था है और जैसी ग्राम, घर आदि की पृथक्-पृथक् रचना है वैसी यहाँ पर भी होनी चाहिए।
भगवान उसी समय इन्द्र का स्मरण करते हैं और वह आकर प्रभु की आज्ञानुसार सारी व्यवस्था कर देता है।
इस कथन से यह स्पष्ट है कि विदेह क्षेत्रों में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था अनादि है और यहाँ पर युगादि पुरुष प्रथम तीर्थंकर द्वारा बनाई जाने से यद्यपि सादि है तथापि मान्य है अमान्य नहीं है।
आर्ष परम्परा एवं गुरु परम्परा से मान्य अर्थ-
कृत्वादित: प्रजासर्गं तद् वृत्तिनियमं पुन:।
स्वधर्मानतिवृत्त्यैव नियच्छन्नन्वशात् प्रजा:।।२४२।।
स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभु:।
क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रिया: शस्त्रपाणय:।।२४३।।
ऊरुभ्यां दर्शयन् यात्रामस्राक्षीद् वणिज: प्रभु:।
जलस्थलादियात्राभिस्तद् वृत्तिर्वार्तया यत:।।२४४।।
न्यग्वृत्तिनियतां शूद्रां पद्भ्यामेवासृजत् सुधी:।
वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तद्वृत्तिर्नैकधा स्मृता।।२४५।।
मुखतोऽध्यापयन् शास्त्रं भरत: स्रक्ष्यति द्विजान्।
अधीत्यध्यापने दानं प्रतिच्छेज्येति तत्क्रिया:।।२४६।।
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगम:।
वहेत् स्वां ते च राजन्य: स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ता:।।२४७।।
स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा।।२४८।।२
भगवान ने सबसे पहले प्रजा की सृष्टि(विभाग आदि) की पुन: उसकी ‘‘वृत्ति’’ अर्थात् आजीविका के नियम बनाये पुन: वे अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सकें ऐसे नियम बनाये। आगे २४३ से २४७ तक चार श्लोकों का अभिप्राय यह है कि भगवान ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की रचना की, आगे भरत ब्राह्मण वर्ण की व्यवस्था बनायेंगे।
पुन: २४७वें श्लोक में कहते हैं कि शूद्र के द्वारा अपनी शूद्र वृत्ति-आजीविका का वहन किया जाना चाहिए अर्थात् शूद्र अपनी शूद्र वृत्ति को करे अन्य आजीविका न करे। वैश्य अपनी वैश्य की आजीविका करे और शूद्र की आजीविका सेवा शुश्रूषारूप कार्य कर सकता है। क्षत्रिय अपनी आजीविका करे और कदाचित् शूद्र तथा वैश्य की आजीविका भी कर सकता है और ब्राह्मण अपनी आजीविका करे कदाचित् किसी देश काल आदि में वह शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय इनकी आजीविका भी कर सकता है।।२४७।।
अपनी इस वृत्ति-आजीविका का उ¼ंघन करके जो अन्य की वृत्ति-आजीविका को करता है तो वह राजाओं द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए, अन्यथा वर्णसंकर दोष हो जाएगा।
पण्डित सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर आदि आर्षपरम्परा के विद्वान ऐसे ही अर्थ मान्य करते हैं और यही अर्थ सही है किन्तु पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ‘‘आदिपुराण’’ हिन्दी अनुवाद में उस २४७ श्लोक के पहले के सभी श्लोकों में आये हुए वृत्ति शब्द का अर्थ आजीविका करके २४८वें श्लोक के वृत्ति शब्द का अर्थ भी आजीविका करते हैं मात्र मध्य के इस श्लोक का अर्थ आजीविका से सम्बन्धित न करके विवाह अर्थ कर देते हैं कि-शूद्र शूद्र स्त्री के साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य स्त्री के साथ विवाह करे आदि, जो कि उपयुक्त नहीं है। यदि आचार्य जिनसेन को इस श्लोक में विवाह अर्थ रखना था तो वे स्वयं २४८ वें श्लोक में ऐसा क्यों कहते कि ‘‘स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य’’ अपनी इस आजीविका का उल्लंघन कर इत्यादि। इसलिए ‘‘वोढव्या’’ में ‘वह्’ धातु का अर्थ यहाँ विवाह न होकर आजीविका अर्थ ही सुघटित है। व्याकरणाचार्य विद्वानों को आगे और पीछे के सन्दर्भ से ही अर्थ करना चाहिए बिना सन्दर्भ के नहीं।
त्रिलोकसार आदि अन्य ग्रन्थों में भी ‘‘जातिसंकर’’ दोष आया है अत: विद्वानों को आर्षपरम्परा एवं आगे-पीछे के सन्दर्भ के अनुसार ही अर्थ करना चाहिए।
आचार्य श्री जयसेन
श्री कुंदकुंददेव के समयसार आदि ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार श्री जयसेनाचार्य भी एक प्रसिद्ध आचार्य हैं। इन्होंने समयसार की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि के नाम का भी उल्लेख किया है और उनकी टीका के कई एक कलशकाव्यों को भी यथास्थान उद्धृत किया है अत: यह पूर्णतया निश्चित है कि श्री जयसेनाचार्य के सामने श्री अमृतचन्द्रसूरि की आत्मख्याति टीका आदि टीकायें विद्यमान थीं फिर भी शैली और अर्थ की दृष्टि से इनकी तात्पर्यवृत्ति टीकायें श्रीअमृतचन्द्रसूरि की अपेक्षा भिन्न हैं।
श्री जयसेनाचार्य पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका के प्रारंभ में लिखते हैं कि-
‘‘अथ श्री कुमारनंदिसिद्धान्तदेवशिष्यै: प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञ-सीमंधरस्वामि-तीर्थंकरपरमदेवं दृष्टवा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतै: श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवै: पद्मनंद्याद्यपराभिधेयैरन्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वगौणमुख्यप्रतिपत्त्यर्थं अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पंचास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यार्थव्याख्यानं कथ्यते।१
श्री जयसेनाचार्य के इन शब्दों से यह स्पष्ट है कि श्री कुमारनंदि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य जिनके पद्मनंदि, एलाचार्य, वक्रग्रीव नाम भी प्रसिद्ध हैं वे विदेहक्षेत्र में गए थे। वहाँ सर्वज्ञ सीमंधरस्वामी के श्रीमुख से शुद्धात्मतत्त्व का सार ग्रहण करके वापस भरतक्षेत्र में आकर शिवकुमार नामक किन्हीं भव्य शिष्य को आदि लेकर अन्य शिष्यों को समझाने के लिए इस पंचास्तिकाय प्राभृत शास्त्र की रचना की है। उस ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति टीका मैं लिख रहा हूँ।
आचार्य श्री जयसेनस्वामी श्री अमृतचन्द्रसूरि के समान कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के टीकाकार हुए हैं। समयसार की टीका में इन्होंने अमृतचन्द्र के नाम का उल्लेख किया है इससे यह ज्ञात होता है कि जयसेन स्वामी ने अमृतचन्द्रसूरि की टीका का आधार लेकर ही किया है।
प्रवचनसार टीका के अंत में प्रशस्ति में आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने गुरुपरम्परा का परिचय निम्न प्रकार से लिखा है-
तत: श्री सोमसेनोऽभूद्गणी गुणगणाश्रय:।
तद्विनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते।।
शीघ्रं बभूव मालुसाधु: सदा धर्मरतो वदान्य:।
सूनुस्तत: साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुभटस्तनूज:।।
य: संततं सर्वविद: सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति।
स श्रेयसे प्राभृतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभीरु:।।
अर्थात् मूलसंघ के निर्ग्रन्थ तपस्वी वीरसेनाचार्य हुए। उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनके शिष्य आचार्य जयसेन हुए। सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु नाम के साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उनसे यह चारुभट नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ है जो सर्वज्ञ की पूजा तथा गुरुचरणों की सदा सेवा करता है। उस चारुभट अर्थात् जयसेनाचार्य ने अपने पिता की भक्ति के विलोप होने से भयभीत हो इस प्राभृत नामक ग्रन्थ की टीका की है।
इसके आगे भी इन्होंने कहा है-
श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता हूँ जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिए चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।
इस प्रशस्ति में श्री जयसेनाचार्य ने स्वयं अपने शब्दों में यह स्पष्ट किया है कि उनके गुरु का नाम सोमसेन तथा दादागुरु का नाम वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरु को भी नमस्कार किया है किन्तु प्रशस्ति से यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि ये त्रिभुवनचन्द्र कौन हैं ? इतना स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य गण के हैं। अन्य किसी टीका में जयसेनाचार्य ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है।
ग्रन्थ रचना-जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय इन तीनों ग्रन्थों पर अपनी टीकाएँ लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र सूरि की टीका से भिन्न शैली में अपनी टीकाएं लिखी हैं। इनकी टीकाओं की विशेषता यह है कि प्रत्येक गाथा के पदों का शब्दार्थ पहले स्पष्ट करते हैं, उसके पश्चात् ‘‘अयमत्राभिप्राय:’’ लिखकर उसका विशेष अर्थ खोलते हैं। सभी ग्रन्थों में इन्होंने अपनी टीका का नाम ‘‘तात्पर्यवृत्ति’’ रखा है। अमृतचन्द्र जी के क्लिष्ट शब्दों को ही सरल शब्दों में बतलाना इनका प्रमुख लक्ष्य रहा है। कहीं पर भी अमृतचन्द्र जी के विपरीत इनका अर्थ नहीं देखने में आता है। यह आज के मन्दबुद्धि शिष्यों के लिए अनुकरणीय आदर्श है कि पूर्वाचार्यों के शब्दों में निजी स्वार्थवश तोड़-मरोड़ करना एक नैतिक अपराध भी है और नरक निगोद का द्वार तो खुल ही जाता है।
भगवान कुन्दकुन्द के भावों को नय शैली में और गुणस्थानों में खोलना जयसेन जी की प्रमुख विशेषता रही है। कोई भी प्राणी समयसार जैसे ग्रन्थों को पढ़कर बहक न जाए इसके लिए जयसेनाचार्य की टीका पढ़ना अति आवश्यक है। इन्होंने अपनी टीका में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिए हैं जो कि पूर्वाचार्यों के प्रति उनकी श्रद्धा, आस्था और अध्ययनशीलता का परिचायक है।
समयसार में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने जहाँ ४१५ गाथाओं पर आत्मख्याति टीका लिखी है, वहाँ जयसेनाचार्य ने ४४५ गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। ये टीका करने से पूर्व प्रत्येक अधिकार की भूमिका में गाथाओं की संख्या खोल देते हैं जैसे कि प्रवचनसार के प्रारम्भ में ही इन्होंने बताया है कि ‘‘मध्यम रुचि वाले शिष्यों को समझाने के लिए मुख्य तथा गौणरूप से अन्तरंग तत्त्व और बाह्य तत्त्व के वर्णन करने के लिए १०१ गाथाओं में ज्ञानाधिकार कहेंगे….. इत्यादि।’’
प्रवचनसार की भूमिका में श्रीजयसेनाचार्य ने यह भी बताया है कि किसी निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधित करने के लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह ग्रन्थ लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि महामुनिराज कुन्दकुन्द भी शिष्य परिकर रखते थे और शिष्यों का हित चिन्तन भी करते थे।
प्रवचनसार में नौवीं गाथा की टीका में श्री जयसेन स्वामी लिखते हैं-
‘‘यथा स्फटिकमणिविशेषो निर्मलोपि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वेतोपाधिवशेन ं ं ं ं ’’
अर्थात् जिस प्रकार स्फटिक मणि का पत्थर निर्मल होने पर भी जपाकुसुम आदि रक्त, कृष्ण, श्वेत उपाधि के वश से लाल, काला, श्वेत रंगरूप परिणमन करता है उसी तरह यह जीव स्वभाव से शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव होने पर भी व्यवहारनय की अपेक्षा गृहस्थ के रागसहित सम्यक्त्वपूर्वक दान-पूजा आदि शुभ कार्यों को करता है तथा मुनिधर्म के मूलगुण और उत्तर गुणों का अच्छी तरह से पालन करता हुआ परिणामों को शुभ करता है।
इस प्रकार जयसेनाचार्य ने व्यवहार और निश्चय दोनों ही नयों का आलम्बन लेकर कुन्दकुन्द के तीनों प्राभृत ग्रन्थों की व्याख्या की है।
समयसार ग्रन्थ के निर्जरा अधिकार में सबसे प्रथम गाथा में कहा है कि ‘‘सम्यग्दृष्टी के भोग निर्जरा के निमित्त हैं।’’ उसकी टीका में श्री जयेसनाचार्य कहते हैं कि-
शिष्य ने प्रश्न किया कि-‘‘राग, द्वेष और मोह का अभाव हो जाने पर निर्जरा के निमित्त हैं, ऐसा आपने कहा किन्तु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि हैं पुन: किसी वस्तु का उपभोग करके निर्जरा का कारण वैâसे होगा ?’’
आचार्य कहते हैं कि-
‘‘अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यस्तुचतुर्थगुणस्थानवर्तीसरागसम्यग्दृष्टिस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं।’’
इस ग्रन्थ में वास्तव में वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण तो गौणरूप से है तथा मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि के भी अनंतानुबंधी कषायचतुष्क और मिथ्यात्वजनित रागादि नहीं है अत: उतने अंश में उसके भी निर्जरा है।
आगे भी कहा है-
‘‘अत्र तु ग्रन्थे पंचमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थानवर्तिनां वीतरागसम्यग्दृष्टीनां मुख्यवृत्त्या ग्रहणं, सरागसम्यग्दृष्टीनां गौणवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्दृष्टिव्याख्यानकाले सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यं।’’
इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही मुख्यरूप से ग्रहण है, सराग सम्यग्दृष्टियों का तो गौणरूप से ग्रहण है। सम्यग्दृष्टि के व्याख्यान के समय सर्वत्र ऐसा ही तात्पर्य समझना चाहिए।
श्री अमृतचन्द्रसूरि द्वारा भी इसी अर्थ की पुष्टि हो रही है। देखिए-
श्री कुन्दकुन्ददेव ने गाथा १७० में कहा है कि ‘‘अबन्धोत्ति णाणी दु’’ ज्ञानी तो अबंधक ही है। पुन: आगे १७१ वीं गाथा में कहते हैं कि-
‘‘जिस कारण ज्ञानगुण पुनरपि जघन्य ज्ञानगुण से अन्यरूप परिणमन करता है इसी कारण वह ज्ञानगुण बन्ध करने वाला कहा गया है।’’ इसकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
‘‘स तु यथाख्यातचारित्रावस्थायां अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात्।’’
वह (ज्ञानगुण) यथाख्यातचारित्र के नीचे अवश्यंभावी राग परिणाम का सद्भाव होने से बंध का कारण ही है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि की इस एक पंक्ति से ही सारे समयसार का अभिप्राय समझा जा सकता है कि ग्यारहवें गुणस्थान के पहले-पहले राग का सद्भाव रहने से अवश्यमेव बन्ध होता ही होता है अत: चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ यदि अपने को वीतरागी और अबन्धक मान रहे हैं सो कोरी असत् कल्पना ही है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि समयसार में वीतराग सम्यग्दृष्टि को लक्ष्य करके ही सब कथन है अत: इस ग्रन्थ का विषय भी साधुवर्गों के लिए ही है न कि श्रावकों के लिए। यही समयसार ग्रन्थ का रहस्य है।
श्री जयसेनाचार्य का काल-इनकी टीकाओं में उद्धृत श्लोकों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन्होंने द्रव्यसंग्रह, तत्त्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकसार और लोकविभाग आदि ग्रन्थों का उद्धरण देकर अपनी टीकाओं में प्रयुक्त किया है। चारित्रसार के रचयिता चामुण्डराय हैं और इन्हीं के समकालीन आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार की रचना की है। चामुण्डराय ने अपना चामुण्डपुराण शक संवत् ९०० (ईसवी सन् ९७८) में समाप्त किया है अत: निश्चित है कि जयसेन ईसवी सन् ९७८ के पश्चात् ही हुए हैं। उनके समय की यह सीमा पूर्वार्ध सीमा के रूप में मानी जा सकती है।
जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका (पृष्ठ ८) में वीरनन्दि के ‘‘आचारसार’’ ग्रन्थ के दो पद्य उद्धृत किए हैं। कर्नाटक कवि चारिते के अनुसार इन वीरनन्दि ने अपने आचारसार पर एक कन्नड़ टीका शक संवत् १०७६ (ईसवी सन् ११५४) में लिखी है अत: जयसेन ईस्वी सन् ११५४ के पश्चात् ही हुए होंगे।
डॉ. ए. एन उपाध्ये ने लिखा है कि नयकीर्ति के शिष्य बालचन्द्र ने कुन्दकुन्द के तीनों प्राभृतों पर कन्नड़ में टीका लिखी है और उनकी टीका का मूल आधार जयसेन की टीकाएँ हैं। इनकी टीका का रचनाकाल ईस्वी सन् की ११वीं शताब्दी का उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है१।
कुल मिलाकर श्री जयसेन स्वामी ने साहित्य जगत में अपना अपूर्व योगदान दिया है और आज की दिग्भ्रमित जनता का सन्मार्ग निर्देशन किया है। ऐसे श्रीगुरु के चरणों में सिद्ध, श्रुत, आचार्यभक्ति पूर्वक शत-शत नमोस्तु।