सुखानंदकुमार को छह मास की सख्य वैद।’’ हस्तिनापुर की गली-गली में यह समाचार प्लेग के संक्रामक कीटाणुओं की तरह पैâल गया।शहर भर में यदि चर्चा का कोई एक विषय था तो बस यही कि इस दुनियाँ में ईमानदार से ईमानदार और सच्चरित्र से सच्चरित्र व्यक्ति भी लोभ-लालच में पड़कर अपने सुनहरे भविष्य को बिगाड़ लेता है। कुलीन घराने में उत्पन्न सुखानन्द के उन्नत ललाट पर यह कलंक का टीका लगना ही था सो लगा। जन-साधारण की दृष्टि में यद्यपि वह बदनियत बेईमान और अव्वलदर्जे का तस्कर सिद्ध हो चुका था, परन्तु उसकी अन्तरात्मा पुकार-पुकार कर कहती थी-कि स्वर्ण अग्नि में तपाये जाने पर ही सौटंच का सिद्ध होता है।सीता जी का पतिव्रत्य और भी निखर उठा था-अग्नि-परीक्षा में उत्तीर्ण होकर! कारागार में पड़ा हुआ सुखानंद अपने दैव दुर्विपाक को दोष देता हुआ अपनी आत्मा को सान्त्वना देता कि कृष्णमन्दिर की हवा विरले ही महापुरुषों को प्राप्त होती है। यह एक ऐसी तपस्या है जो कि सद्य: फल प्रदायिनी होती है। अधिकांश महान् आत्माओं की जन्मभूमि जेल ही तो रही है। आदि…। और क्या हमने आज प्रत्यक्ष नहीं देखा अपनी आँखों से कि कल तक कारावास में सड़ने वाले आज राष्ट्र के तपोपूत कर्णधार हैं, और तपस्या के वरदान स्वरूप सत्ता की बागडोर आज जिनके वरद हस्तों में सुरक्षित है। दूध में पानी, शुद्ध धृत में डालडा वनस्पति और सोने मे रोल्ड गोल्ड आदि मिलावटों से आज असली-नकली की पहिचान बड़ी कठिन हो गई। मिलावट का रोग कोई नया नहीं। वह उतना ही पुराना है, जितनी कि मनुष्य की आसुरी प्रवृत्तियाँ। स्वर्णकार रत्नज्योति ने राजा की आँखों में धूल झोंक ही दी। अर्थात् सारे के सारे हीरा-पन्ना मणि-मुक्ता,स्वर्ण आदि बहुमूल्य जवाहरातों को तो उसने अपने घर रख लिया और असल का भी मुँह मारने वाली नकली धातुओं के आभूषण निर्माण कर राजा के समक्ष प्रस्तुत करने लाया! मायावियों और नक्कालों को जब ईश्वर का भी भय नहीं रहता तब राज-भय क्यों होने लगा? उसने तो सोच ही लिया था कि यदि राजा ने अपनी पैनी भेद-दृष्टि से असल को असल और नकल को नकल पहिचान कर अलग थलग कर दिया तो मैं तो तत्काल ही कह दूँगा कि नगर जौहरी सुखानन्द कुमार ने ही आप के साथ धोखा किया है-मक्कारी की है। उसने आपको माल बतलाया तो असली ही था पर आपकी नजर बचाकर उसके बदले में सारा का सारा जेवर नकली ही रख दिया था। मैं तो आपको उसी समय टोकने वाला था-सचेत करने वाला था, परन्तु यह सोचकर रह गया था,कि कहीं महाराज यह न कहने लगें कि मेरी बुद्धि से होड़ लगाने वाला तू कौन? निदान नक्काल और बदनियत रत्नज्योति स्वर्णकार की युक्ति का काम कर गई, और उसी सुनिश्चित रूपरेखा के आधार पर जौहरी पुत्र सुखानन्द कुमार को कारागार में डाल दिया गया। बना अन्नहार ग्रहण किये कारागार में पड़े हुए उसे पूरे ७२ घन्टे हो गये, पर धीर-वीर सुखानन्द का हृदय रंचमात्र भी क्षोभित नहीं था। क्योंकि महाप्रभावक श्रीभक्तामरस्तोत्र पर अटल-अगाध श्रद्धा थी-उसे ज्ञात था कि इस महान् स्तोत्र के प्रणेता प्रात:स्मरणीय श्रीमन्मानतुङ्गाचार्य पर भी तो यही बड़ी विपत्ति पड़ी थी उन्हें भी अड़तालीस ताले बन्द कोठरियों वाली जेल में बांध कर रखा गया था, परन्तु राजा भोज उनका बाल भी बांका न कर सके।सच ही तो है-
जाको राखै साईयाँ-मार सवै न कोय। बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।
“फिर मैं तो सोलह आने सचाई पर स्थित हूँ-दूध का दूध और पानी का पानी सब स्पष्ट हो जायेगा उसने बार-बार भक्तामर स्तोत्र का १९वाँ श्लोक उसकी ऋद्धि मंत्र सहित पढ़ना प्रारम्भ किया। कारागार की काली कोठरी में एक रात्रि, जब वह सो रहा था तब जैनशासन की अधिष्ठात्री ‘‘जम्बूमति’’ देवी ने आकर उसे उठाया और उठाकर उनके घर निद्रित अवस्था में ही रख आई। दूसरे दिन राजा सूरपाल ने देखा कि कारगार का दरवाजा खुला पड़ा है और सुखानन्द कुमार अपनी जवाहरातों की दुकान पर निश्चिन्त बैठे हुए व्यापार मग्न हैं। राजा समझ गया कि उसने पिछली रात के अन्तिम प्रहर में जो स्वप्न देखा था वह इसी रूप में साकार हुआ है। बस फिर क्या था। राजा सूरपाल जैनधर्म का अटल श्रद्धानी हो गया और स्वर्णकार रत्नज्योति अपने किये का फल भुगतने के लिए कारागार में डाल दिया गया।