भगवान ऋषभदेव जैनमंदिर में धर्मानुष्ठान
‘‘लोभ अर्थात् लालच का त्याग करना शौच धर्म है अथवा संतोष का नाम
शौच धर्म है। संसारी प्राणी का आशा रूपी गड्ढा इतना गहरा है यदि तीन
लोक की सम्पदा भी प्राप्त हो जाए तो भी नहीं भरता है, इस संसार में हर
प्राणी इस आशा रूपी जंजीर से जकड़ा हुआ है, जो इसे छोड़कर अपने जीवन
में संतोष को धारण करते हैं वे महापुरुष कहलाते हैं, जिसके पास संतोष रूपी
धन होता है वह निर्धन होकर भी सुखी रहता है लोभ पाप का मूल है, आत्मा
को मलिन करता है, इस लोभ का त्याग करने से सारे पापों का स्वयं ही त्याग
हो जाता है और आत्मा निर्मल बनती है अत: जितना आवश्यक हो उतना
परिग्रह रखकर शेष का त्याग कर देना चाहिए।’’ उक्त विचार आज विश्वशांति
की पवित्र भावना से किए जा रहे दस दिवसीय अनुष्ठान के पाँचवे दिन
‘‘उत्तम शौच धर्म’’ की व्याख्या करते हुए जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने व्यक्त किए।
कतिपय शास्त्र में लिखित उदाहरणों के माध्यम से शौच धर्म की महिमा
बताते हुए पूज्य माताजी ने कहा कि तृष्णा रूपी अग्नि को संतोष रूपी जल
से ही बुझाया जा सकता है। जो ग्रहण करने की इच्छा करने वाले हैं वे नीचे
गिरते हैं और जो नि:स्पृह हैं, जिनके अंदर लोभ का भाव नहीं है वे ऊँचे उठते
हैं।
इस अवसर पर पूज्य माताजी की शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री
चंदनामती माताजी ने कहा कि शास्त्रों में लिखा है जो अत्यधिक परिग्रह
रखता है, लोभी है, हर समय वैâसे भी पाप आदि क्रियाओं द्वारा मात्र धनादि
को एकत्रित करके उसी में आसक्त रहता है वह नरक आदि गतियों में जाता
है किन्तु जो आवश्यकता के अनुसारकचित मात्र परिग्रह रखता है वह
मनुष्य आदि उत्तम गति में जाता है। उदाहरण के लिए तराजू के एक पलड़े
पर भार हो तो वह नीचे जाएगा और खाली पलड़ा ऊपर जाएगा, लकड़ी हल्की
होती है तो वह जल में तैरती है वैसे ही प्राणी के अंदर से जब लालच, तृष्णा
निकल जाती है तब वह स्वयं को हल्का महसूस करता है और उच्च गति की
प्राप्ति करता है। इस संसार में जितना भी परिग्रह है उन्हें पाने की चाह से
हमें निरन्तर पाप का बन्ध होता है अत: हमें परिग्रह की सीमा अवश्य करनी
चाहिए।
आज दशलक्षण पर्व के पाँचवें दिन ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ के अनुष्ठान
में विश्वशांति की कामनापूर्वक प्रतिदिन की भाँति अभिषेक शांतिधारा, पूजन-
विधान आदि सानन्द सम्पन्न हुए। मध्याह्न में सरस्वती आराधना, तत्त्वार्थसूत्र
वाचन आदि के साथ परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
ने तत्त्वार्थसूत्र की पंचम अध्याय के माध्यम से अजीव द्रव्य का वर्णन किया
तथा अिंहसा के अग्रदूत भगवान महावीर की जीवनी को काव्यमयी झांकी के
माध्यम से बताकर सभी को भगवान महावीर के अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह के सिद्धान्तों से परिचित करवाया।
आज पूज्य माताजी के पादप्रक्षाल का सौभाग्य श्री संजय जैन, अंजली जैन,
विजय जैन माधुरी जैन पापड़ीवाल-औरंगाबाद (महा.) एवं धनकुबेर बनने का
सौभाग्य अध्यात्म जैन, अर्पिता जैन, सम्यक् जैन-लखनऊ (उ.प्र.) ने प्राप्त करके
सभी को रत्नों का वितरण किया। रात्रि में सुन्दर रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम
के साथ भगवान एवं गुरु आरती सम्पन्न हुई। सभी कार्यक्रम पीठाधीश
स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी के निर्देशन में सम्पन्न हुए।
ज्ञातव्य है कि अयोध्या के ऋषभदेव जैन मंदिर में इस समय विश्वशांति एवं
पर्यावरण शुद्धि की पवित्र भावना से महाअनुष्ठान चल रहा है जिसका आज
पाँचवाँ दिन है।