राग, द्वेष, मोह आदि को जीतना तप कहलाता है
गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
तप वह है जहाँ परिग्रह का त्याग किया जाता है, तप वह है जहाँ उपसर्ग को
सहन किया जाता है, तप वह है जहाँ राग, द्वेष, मोह आदि भावों को जीता जाता
है, तप वह है जहाँ अपनी आत्मा का चिन्तन किया जाता है, तप वह है जहाँ
कर्मों का नाश किया जाता है जिससे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाती है। इस
तप के बाह्य और आभ्यंतर से सहित बारह भेद हैं। आचार्यों ने कहा है जिससे
जीव का उपकार होता है उससे शरीर का अपकार होता है और जिससे शरीर का
उपकार होता है उससे जीव का अपकार होता है। तीर्थंकर भगवान का निर्वाण
होना निश्चित है फिर भी वे तप करते हैं ऐसा जानकर तप अवश्य करना
चाहिए। प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने अपने ३५
वर्ष के मुनि जीवन में २५ वर्ष छ: महीने उपवास में व्यतीत किए, व्रत-उपवास
आदि करना अपने शरीर से नि:स्पृहता को दर्शाता है’’ उक्त विचार आज
दशलक्षण महापर्व के सातवें दिन ‘‘उत्तम तप धर्म’’ की आराधना कर रहे श्रावकों
को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री
ज्ञानमती माताजी ने व्यक्त किए।
शास्त्रीय उदाहरणों के माध्यम से तप की महिमा बताते हुए उन्होंने कहा कि
शरीर से निर्मम होने के लिए तप का अभ्यास अतीव उपयोगी है, प्रमाद छोड़कर
अभ्यास करने से सर्वकार्य सिद्ध हो जाते हैं अत: तपधर्म सभी के लिए ग्रहण
करने योग्य है, जो मनुष्य सुखपूर्वक उठता-बैठता और घूमता है, सदा अच्छा
भोजन और अच्छे वस्त्रों में आसक्त रहता है, फिर भी अपने को सिद्ध मानता
है वह मूर्ख स्वयं को ठगता है।
तप की महिमा का वर्णन करते हुए पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती
माताजी ने कहा कि जिस प्रकार वर्षाऋतु में बिजली के गिरने से पर्वत की
चोटियाँ टूटकर चकनाचूर हो जाती हैं उसी प्रकार तपरूपी बिजली के द्वारा कर्म
रूपी पर्वत चकनाचूर हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि संसार में दुख का मूल कारण
आत्मज्ञान का अभाव है, जब तक अज्ञान रहता है तब तक दुखों से छुटकारा
नहीं मिल सकता है, अज्ञानी जीव अनादिकाल से शरीर को ही आत्मा मानते
आए हैं अत: तप के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। तप केवल मनुष्यगति में
ही सम्भव है और इसकी महिमा अचिन्त्य है, तप के प्रभाव से सर्प का हार बन
जाता है, शूलीसहासन में बदल जाती है, अग्नि सरोवर बन जाती है, इससे
सांसारिक सुखों की तो प्राप्ति होती ही है मुक्ति भी मिल जाती है।
स्वस्तिश्री पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ने कहा कि इच्छाओं को रोकना तप
है। कितने ही लोग संतान प्राप्ति के लिए, कितने धन सम्पत्ति के लिए, कितने ही
स्वर्गादि की तृष्णा से तप करते हैं किन्तु इस संसार में जन्म, जरा अर्थात्
बुढापा और मृत्यु ये तीन सर्वथा दुखदायी हैं जो उनको समाप्त करने के लिए
तपस्या करते हैं उनका तप करना सार्थक है।
प्रात:काल प्रतिदिन की भाँति भगवान का अभिषेक, शांतिधारा, नित्यपूजा, पर्वपूजा
एवं विश्व में शांति की कामना से ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ सम्पन्न हुआ।
मध्याह्न में सरस्वती पूजादि के साथ आज तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ की सातवीं अध्याय
को समझाते हुए पूज्य चंदनामती माताजी ने शुभ आस्रवों का वर्णन किया तथा
भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक सभी तीर्थंकरों द्वारा बताए गए
अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामक सिद्धांतों का प्रतिपादन
किया, साथ ही आज के युग में अनुकरण योग्य भगवान महावीर के जीवन से
सभी को परिचित करवाया और सुन्दर काव्य रचना के माध्यम से उस
समवसरण का वर्णन किया जहाँ जात विरोधी पशु जैसे-शेर-गाय, सर्प-नेवला आदि
एक जगह एकत्रित हो वैर के भाव छोड़कर आपस में मैत्री भाव धारण कर लेते
हैं।
आज पूज्य माताजी के पादप्रक्षाल का सौभाग्य सौ. शीला झुबरलाल रावका-
औरंगाबाद (महा.), डॉ. संदीप जयकुमार काठा-परभणी (महा.), श्रीमती विजया
पदम कुमार जैन-औरंगाबाद (महा.) ने प्राप्त किया एवं धनकुबेर बनने का
सौभाग्य श्री प्रफुल्ल मेहता भाई शाह-मुम्बई (महा.) ने प्राप्त करके सभी को
रत्नों का वितरण किया।
रात्रि में मंगल आरती के साथ सभी को शिक्षा प्रदान करने वाली नाटिका एवं
धार्मिक तम्बोला का आयोजन हुआ।
ज्ञातव्य है कि आज जिसहसा, अनीति, दुराचार, युद्ध, बलात्कार, चोरी, मारकाट,
दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों को दूर करने हेतु सरकार कटिबद्ध है, सभी प्राणी
विश्व में शांति और सुभिक्ष चाहते हैं ऐसे समय में देश के कोने-कोने में जैन
श्रद्धालुओं द्वारा विश्वशांति की कामना से दस दिवसीय पूजा अनुष्ठान का
आयोजन चल रहा है, उसी क्रम में शाश्वत तीर्थ अयोध्या के रायगंज परिसर
स्थित ऋषभदेव मंदिर में पूज्य माताजी की प्रेरणा से ‘‘विश्वशांति महाअनुष्ठान’’
चल रहा है।