‘‘त्याग से ही संसार के सब काम चलते हैं’’
त्याग भी धर्म का अंग है, त्याग-दान से अवगुणों का समूह दूर होता है, त्याग से
निर्मल कीर्ति पैâलती है, त्याग से वैरी भी चरणों में प्रणाम करता है और त्याग से
भोगभूमि के सुख मिलते हैं। यह त्याग चार प्रकार का है-औषधि दान देने से शरीर
में व्याधियाँ नहीं आती हैं, अभयदान देने से परभव के दुखों का नाश होता है,
आहारदान देने से धन और ऋद्धियों की प्राप्ति होती है और शास्त्रदान देने से
निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है। दान की महिमा अचिन्त्य है। आज के युग में मुनि,
आर्यिका आदि के प्रति असीम भक्ति रखकर मनुष्य जीवन को सफल करना
चाहिए क्योंकि साधुओं को नमस्कार करने से उच्च गोत्र, दान देने से भोग, उपासना
से पूजा और सम्मान, भक्ति से सुन्दर रूप तथा स्तुति करने से कीर्ति प्राप्त होती
है’’ उक्त विचार आज जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती
माताजी ने दशलक्षण पर्व के अन्तर्गत आठवें दिन ‘‘उत्तम त्याग धर्म’’ की उपासना
के अवसर पर व्यक्त किए।
त्याग अर्थात् इन चारों प्रकार के दान को शास्त्रीय कथाओं के माध्यम से बताकर
उन्होंने कहा कि दान से ही संसार में गौरव प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए देने
वाले मेघ ऊपर रहते हैं और संग्रह करने वाले समुद्र नीचे रहते हैं। बड़े कष्ट से
कमाई गई सम्पत्ति को यदि आप अपने साथ ले जाना चाहते हैं तो खूब दान
दीजिए, यह असंख्य गुणा होकर फलेगा किन्तु खाई गई अथवा गाड़ कर रखी गई
सम्पत्ति व्यर्थ है। परोपकार में खर्चा गया धन ही परलोक में नवनिधि ऋद्धि के
रूप में फलता है। दीन दुखी, अंधे आदि को भोजन, वस्त्र देना करूणादान है, इस
प्रकार त्याग धर्म के महत्त्व को समझकर यथाशक्ति दान देना चाहिए।
परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने आज के अवसर पर
कहा कि थोड़ा हो तो भी थोड़ा-थोड़ा दान देना चाहिए, बहुत धन होगा तब दान देंगे
ऐसी अपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि इच्छानुसार सम्पत्ति किसी को नहीं मिलती
और अरबों-खरबों पाकर भी तृप्ति नहीं होती जैसे ईंधन से कभी भी अग्नि की
तृप्ति नहीं होती। जैसे कुएँ से जितना जल निकालो वह बढ़ता है वैसे ही दान से
सम्पत्ति बढ़ती है। जो व्यक्ति अपने धनरूपी बीज को जिनप्रतिमा, जिनमंदिर,
श्रुतज्ञान, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका-इन सात क्षेत्रों में बोता है कीर्ति उसकी दासी
बन जाती है, स्वर्ग की लक्ष्मी उसके हाथ में आ जाती है और चक्रवर्ती की
विभूतियाँ उसके चरणों में लोटती है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादि को छोड़ना
भी त्याग धर्म है।
पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी ने कहा त्याग का अर्थ है छोड़ना, पर
जब ग्रहण करेंगे तभी तो छोड़ेंगे। त्याग से ही संसार के सब काम चलते हैं। यदि
नाव में पानी भर गया है तो दोनों हाथ से उसका पानी निकालना ही बुद्धिमानी है
उसी प्रकार धन सम्पत्ति के बढ़ने पर उत्तम कार्य में खर्च करना ही उसकी रक्षा का
उपाय है। दान सम्मान के साथ देना चाहिए और देते समय कभी अभिमान नहीं
आना चाहिए, उत्तम पात्र में दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता जिस प्रकार
योग्य भूमि में बोया गया छोटा सा बीज भी आगे बड़ा वृक्ष बनकर सबको छाया
प्रदान करता है। विश्वशांति की कामना से आयोजित ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’
नामक महाअनुष्ठान में नित्य की भाँति अभिषेक, शांतिधारा, पूजन विधान सानन्द
सम्पन्न हुआ। मध्याह्न में सरस्वती पूजादि के साथ तत्त्वार्थसूत्रराज की आठवीं
अध्याय को समझाते हुए पूज्य चंदनामती माताजी ने आठों कर्मों और उनको
जीतने के उपाय बताए, साथ ही भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला। रात्रि
में मंगल आरती के पश्चात् ‘‘दिव्यशक्ति गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी’’
नामक टेलीफिल्म दिखाई गई।
आज पूज्य माताजी के पादप्रक्षाल का सौभाग्य श्रीमती शकुंतला सुरेश जैन-खण्डवा
(म.प्र.) ने प्राप्त किया एवं धनकुबेर बनने का सौभाग्य श्री नेमचंद जैन-
टिवैâतनगर (बाराबंकी) उ.प्र. ने प्राप्त करके सभी को रत्नों का वितरण किया।
ज्ञातव्य है कि अयोध्या के ऋषभदेव जैन मंदिर में विश्वशांति की पवित्र भावना को
लेकर दस दिवसीय महाअनुष्ठान चल रहा है जिसमें भारत के अनेक प्रदेशों के
लोग एकत्रित होकर भक्ति पूजा आदि के माध्यम से यह अनुष्ठान कर रहे हैं, यह
निश्चित है कि उसमें उच्चारित पवित्र मंत्रों से अवश्यमेव विश्व में शांति का
वातावरण होगा और सर्वत्र क्षेम, सुभिक्ष होगा।