परिग्रह का पूर्ण त्याग करने वाला अिंकचन कहलाता है
जहाँ तृणमात्र भी परिग्रह नहीं होता वह नियम से आिंकचन्य व्रत है। जहाँ पर
अपने और पर के विचार करने की शक्ति है, जहाँ पर दुष्ट संकल्पों का त्याग किया
जाता है, जहाँ अनिष्ट भोजन की इच्छा नहीं रहती है वहीं पर आिंकचन्य धर्म होता
है। इस आिंकचन्य धर्म के प्रभाव से तीर्थंकरों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। मेरा
कुछ भी नहीं है अत: मैं अिंकचन हूँ। मनुष्य जब तक अणुमात्र भी परवस्तु को
अपनी मानता है तब तक संसार में भ्रमण करता रहता है और जब शरीर से भी
निर्मम हो जाता है तब भगवान बन जाता है। सच ही कहा है कि अधिक भार
लेकर मनुष्य ऊपर वैâसे जा सकता है। त्याग से तीन लोक की सम्पत्ति रूप अनंत
गुण प्राप्त हो जाते हैं’’ उक्त विचार आज दशलक्षण पर्व के नवमें दिन ‘‘उत्तम
आिंकचन्य धर्म’’ की आराधना कर रहे भारत के विभिन्न प्रांतों से पधारे भक्तों को
सम्बोधित करते हुए जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री
ज्ञानमती माताजी ने व्यक्त किए।
शरीर से नि:स्पृहता को दर्शाते कुछ शास्त्रीय उदाहरणों के माध्यम से उन्होंने कहा
कि जो सब कुछ त्याग कर देते हैं वे ही महामुनि सब कुछ देने में समर्थ होते हैं,
यह सब जानते हैं कि समुद्र से कोई भी नदी नहीं निकलती है किन्तु पर्वत से ही
निकलती है।
परमपूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने कहा कि परिग्रह ही
दुख, आकुलता तथा समस्त संकल्प-विकल्प का कारण है। भौतिक पदार्थों की
आसक्ति से विवेक नष्ट हो जाता है, आत्मा अपने स्वरूप को भूलकर राग-द्वेष के
वशीभूत होकर अनेक दोषों का सेवन करता हुआ लक्ष्य से भटक जाता है। जिस
प्रकार छिलके सहित धान में विशुद्धि का होना दुर्लभ है उसी प्रकार सांसारिक
परिग्रह में आसक्त मानव के हृदय में विशुद्धि का होना दुर्लभ है अत: हृदय की
कलुषता को उत्पन्न करने में कारणभूत तथा अज्ञान को बढ़ाने वाले परिग्रह का
त्याग करके आिंकचन्य धर्म को स्वीकार करना श्रेष्ठ है।
उन्होंने कहा कि कुएँ के मूल में जल का स्रोत होता है वह प्रवाहमयी रहता है अत:
वह जल परम पवित्र माना जाता है इसी प्रकार जिस व्यक्ति के अन्त:करण में धर्म
रहता है वह भी महान कहलाता है, आज परिग्रह की लोभ-आसक्ति में मानव-मानव
का हत्यारा बन गया है। आपसी प्रेम ने फूट का, द्वेष का स्थान ले लिया है। वैसे
तो धन बुरा है पर उसे परोपकार में लगा देने से वह अच्छा भी है, आज के दिन
श्रावकों को अणुव्रत अवश्य ग्रहण करना चाहिए।
स्वस्तिश्री पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी ने कहा कि जो आत्मा को सब ओर से
पकड़कर-जकड़कर रखे वह परिग्रह है। परिग्रह का त्याग होने पर ही पूर्ण
आिंकचन्य धर्म प्रगट होता है। आज परिग्रह के कारण संसार में त्राहि-त्राहि मची है,
जिनके पास सब कुछ है वह देना नहीं चाहते हैं और जिनके पास नहीं है वह प्राप्त
करना चाहते हैं किन्तु आवश्यकता से अधिक अपने पास नहीं रखना चाहिए ताकि
हर इंसान की आवश्यकता पूरी हो सके। जानबूझकर जीव को नहीं मारना यह
संकल्पीहसा है, इसका त्याग करना अिंहसा अणुव्रत है, झूठ नहीं बोलना सत्य
अणुव्रत है, चोरी नहीं करना अचौर्य अणुव्रत है, परस्त्री को माता-बहन समझना और
अपनी पत्नी में संतुष्टि रखना एकदेश ब्रह्मचर्याणुव्रत है तथा परिग्रह की सीमा
बाँध लेना, आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है जो
इसे पालन करते हैं वे नियम से देवगति प्राप्त करते हैं इसलिए आज के दिन आप
लोगों को अवश्यमेव अणुव्रत ग्रहण करना चाहिए।
आज विश्वशांति की भावना से ऋषभदेव जैन मंदिर अयोध्या में आयोजित
‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ के नवमें दिन प्रतिदिन की भाँति प्रात:काल अभिषेक,
विश्वशांतिकारक शांतिधारा, पूजा विधान आदि अनुष्ठान हुए। मध्याह्न में सरस्वती
पूजा आदि कार्यक्रम हुए तथा पूज्य चंदनामती माताजी ने तत्त्वार्थसूत्र की नवमी
अध्याय में संवर और निर्जरा तत्त्व के बारे में बताया अर्थात् उन्होंने बताया कि
आते हुए कर्मों को हम किस प्रकार रोकें और किस प्रकार अपने कर्मों की निर्जरा
करें कि हमें मुक्ति मिल जाए। रात्रि में आरती के पश्चात् भगवान महावीर काव्य
कथानक के सुन्दर मंचन से सभी ने सत्य-अिंहसा के अवतार भगवान महावीर के
जीवन के बारे में जाना।
आज पूज्य माताजी के पादप्रक्षाल का सौभाग्य सौ. मंगला वर्धमान पाटनी-पुलम्बरी
(औरंगाबाद) महा.ने प्राप्त किया एवं धनकुबेर बनने का सौभाग्य प्रणिता महावीर
जैन, सुषमा सुभाष, शोभा सूर्यकांत जैन-परभणी (महा.) ने प्राप्त करके सभी को
रत्नों का वितरण किया। विशेष रूप से आज पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त
करने के लिए श्री गिरीश जी त्रिपाठी (महापौर अयोध्या) पधारे और माताजी का
आशीर्वाद प्राप्त कर विशेष प्रसन्नता का अनुभव किया।